सोमवार, 31 अक्तूबर 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 47

 

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की सैंतालीसवीं किस्त
पत्रकारिता की कंटीली डगर
भाग- 47


110. वेतन में धोखा और सैलरी स्लिप झटक लेने का दस्तूर

दैविक जागरण में मुझे नियुक्ति पत्र नहीं मिला था। मिलना भी नहीं था। वेतन में मैंने 25 हजार मांगा था। पर मुझे 20 हजार रुपए देने का वादा किया गया था। लेकिन शुरू के कई महीनों तक तनख्वाह बनी ही नहीं। कुछ पता ही नहीं चल रहा था कि कितनी तनख्वाह बन रही है। पटना से लेकर सिलीगुड़ी और फिर वापस पटना तक के करीब 5 महीने तक हर महीने सिर्फ एडवांस ही एडवांस मिलता रहा। कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था। वहां के कई पुराने लोगों से पता चला कि दैनिक जागरण में हमेशा से ऐसा ही होता आया है। करीब 5 महीने बाद सैलरी स्लिप बनी पर वह हस्ताक्षर कराकर तुरंत वापस ले ली गई। उसकी सिर्फ एक झलक भर ही देख पाया। फिर तो हर महीने उसकी एक झलक ही देखने दी जाती थी। एकाउंट्स विभाग का चपरासी तीन प्रतियों में बनी सैलरी स्लिप पर हस्ताक्षर करते ही पूरी सैलरी स्लिप हाथ से झपट लेता था और मुझे कैशियर के कमरे तक साथ ले जाता था। चपरासी कैशियर को मेरी सैलरी स्लिप पकड़ाता था और कैशियर कैश-काउंटर से मुझे सैलरी का नकद भुगतान कर देता था। पता चला कि दैनिक जागरण का यही दस्तूर है। उन दिनों बैंक खाते में तनख्वाह नहीं दी जाती थी। करीब दो-तीन साल बाद सबका बैंक में सैलरी एकाउंट खुलवाया गया था।

दैनिक जागरण में काम के घंटे काफी ज्यादा थे। जनसत्ता में जहां 6 घंटे की शिफ्ट होती थी तो दैनिक जागरण में करीब 9-10 घंटे काम करने पड़ते थे। आठ घंटे तो कम से कम थे ही। श्रमजीवी पत्रकार कानून का वहां कोई मतलब ही नहीं होता था। वहां संपादक के पैर छूने का कल्चर था। सभी ऐसा करते थे। केवल मैं ही अपवाद था। इसका मुझे नुकसान भी हुआ। हर कोई अपने सीनियर को भैया बोलता था। संपादकजी यानी शैलेंद्र दीक्षित जी को तो सभी भैया ही कहते थे। शैलेंद्र जी का स्वाभाव बहुत मधुर था। वे कभी किसी पर गुस्सा नहीं करते थे। पर शैलेंद्र जी रोज शाम को थोड़ी शराब जरूर लेते थे और उनपर दफ्तर में शाम 8 से 10 बजे तक उसके नशे का प्रभाव दिखाई देता था। रात 10 बजे वे घर चले जाते थे। शैलेंद्र जी नशे के असर से रात को कई बार आपा खो दे देते थे और तब वे पूरे एडिटोरियल में एकदम गदर मचा देते थे। पिनक चढ़ने पर शैलेंद्र जी किसी पर भी बेमतलब बुरी तरह बरसने लग जाते थे। नौकरी से निकाल बाहर करने की धमकियां भी दे देते थे। मुझे भी उन्होंने दो-तीन बार देख लेने और नौकरी से निकाल देने की धमकी दी थी। पर वे वैसा कुछ करते नहीं थे। वह सब वे सिर्फ नशे का असर होने की वजह से करते थे। कभी-कभी उनको चढ़ जाती थी। कई बार शाम सात-आठ बजे के आसपास जब कभी मैं छुट्टी या एडवांस वगैरह का कोई आवेदन लेकर उनके पास जाता था तो वे बड़े प्यार से कह देते थे कि अभी नहीं, यह सब काम दिन में कराइए।

शैलेंद्र जी कानपुर के थे और दैनिक जागरण के पुराने उप संपादक भी रह चुके थे। दैनिक जागरण तो जैसे उनके खून में रच बस गया था। वे पटना से दैनिक जागरण अखबार शुरू करने के लिए ही खास तौर पर कानपुर से पटना भेजे गए थे। एक समय में वे अखबार शुरू करने के लिए पटना में दफ्तर की जगह की तलाश में शहर में रिक्शे पर घूमा करते थे। वे पटना क्या आए पटनिया होकर ही रह गए। फिर तो कुछ साल बाद पटना में एक घर खरीदकर पटना को ही उन्होंने अपना परमानेंट घर बना लिया। बिहार का कल्चर उनको इतना भाया कि वे छठ का काफी कठिन माना जानेवाला त्योहार भी खुद छठ व्रती बनकर करने लगे। उन्होंने पटना में ही अंतिम सांस ली। अखबार में काम करते हुए शैलेंद्र जी के साथ बीता वह समय समाचार लेखन की नई लयों और नई दृष्टियों को स्थापित करता है जो मेरी अपनी कृतियों की रचना और चिंतन की प्रक्रिया के लिए अंतर-परागण का काम करते हैं। आदरणीय शैलेंद्र भैया को सादर नमन।

111. अखबार में कानपुरवाद, क्षेत्रवाद और जातिवाद

दैनिक जागरण मुख्य रूप से कानपुर शहर का अखबार है। एक निहायत रीजनल अखबार। नेशनल तो वह बहुत साल बाद बना। इसके मालिकों की पीढ़ियां कानपुर में ही रहीं। इसलिए इसके तमाम संस्करणों में संपादक अमूमन कानपुर का ही होता है। डेस्क के पत्रकार और अखबार के दूसरे कर्मचारी भी ज्यादातर कानपुर के ही होते हैं। इसलिए दैनिक जागरण के पूरे सेटअप में कानपुरवालों की ज्यादा चलती है। दैनिक जागरण में राजनीति भी कुछ इसी पैटर्न पर होती है। पटना दफ्तर में कानपुर वर्सेज रेस्ट आफ द यूपी और यूपी वनाम बिहार की फीलिंग चलती रहती थी। इन्क्रीमेंट, बोनस, प्रोमोशन सबकुछ पर कानपुरवाद और क्षेत्रवाद हावी रहता था। बिहार तो वैसे भी जातिवाद करनेवाला राज्य है। यहां बात-बात में जाति पूछी जाती है। बेवजह भी लोग जाति पूछ बैठते हैं। सो जातिवाद और क्षेत्रवाद की यह फीलिंगदैनिक जागरण पटना में भी कूट-कूट कर भरी हुई थी। यूपी वाले क्षेत्रवाद करते थे और बिहारवाले क्षेत्रवाद के साथ जातिवाद भी। अखबार के एडिटोरियल तक में भी क्षेत्रवाद और जातिवाद का असर दिखता था। इसका भी नुकसान सबको होता था। मुझे भी हुआ। इसके उलट 1985-86 में मैंने जब पटना के उस समय के बहुचर्चित अखबार पाटलिपुत्र टाइम्स में नौकरी की थी तो वहां संपादकीय विभाग में कई राज्यों के लोग काम करते थे। पर वहां क्षेत्रवाद और जातिवाद की गंदी राजनीति कभी देखने को नहीं मिली थी। पटना आज में भी थोड़े समय तक काम करने का अवसर मिला था। आज भी तो उत्तर प्रदेश का अखबार है। बनारस में उसकी जड़ें हैं। पर पटना आज के दफ्तर में भी कभी क्षेत्रवाद और जातिवाद की राजनीति से भेंट नहीं हुई थी। पटना सेनवभारत टाइम्स भी बरसों तक छपता रहा। नवभारत टाइम्स में कई राज्यों से आए पत्रकार थे। हिन्दुस्तानअभी भी छप रहा है। उन दिनों वहां भी कई राज्यों से आए पत्रकार काम कर रहे थे। पटना में रहने और काम करने के दौरान इन दोनों अखबारों के संपादकीय विभाग में खूब आना-जाना था। पर वहां भी कभी कोई क्षेत्रवाद और जातिवाद का भेदभाव उस समय दिखाई नहीं दिया था।

मैंने ज्यादा समय बिहार से बाहर ही नौकरी की। ज्यादातर समय दिल्ली में बीता। पर दिल्ली में कभी यह भावना भी नहीं आई कि फलां इस राज्य का है और फलां उस राज्य का। सभी एक दूसरे को एक ही परिवार का सदस्य समझते थे। वहां मन में न कभी क्षेत्रवाद की भावना पैदा हुई और न जातिवाद की। कभी इस तरह की कोई क्षेत्रवाद और जातिवाद की राजनीति भी देखने को नहीं मिली। इसलिए दैनिक जागरण में मुझे इस सबसे थोड़ी घुटन भी होती थी। इन कारणों से मैं दैनिक जागरण पटना में लगभग 4 साल या उससे थोड़ा अधिक समय तक ही रहा। फिर दिल्ली के उस समय के एक बड़े टीवी न्यूज चैनल वॉयस ऑफ इंडिया में काम मिल गया तो मैंने दैनिक जागरण की नौकरी छोड़ दी और दिल्ली चला गया।

दैनिक जागरण पटना में एजेंसी की अंग्रजी खबरों का अनुवाद कुछ ही लोग कर पाते थे जिसमें मैं भी शामिल था। कुछ साल बाद मुझे रिपोर्टरों की हिन्दी की कॉपियां सुधारने के काम में लगा दिया गया क्योंकि ज्यादातर की कॉपियां बिल्कुल खराब होती थीं और उनमें भाषा की गलतियां भी खूब रहती थीं। मैने एडिशन भी निकाला पर बहुत कम। नहीं के बराबर। मैं जब भी पहला पेज बनवाता था तो उसमें रीजनल टेस्ट आने की बजाए नेशनल खुशबू आने लगती थी जो संपादकजी को पसंद नहीं आता था। संपादकजी बिल्कुल बिहार के रंग में रंगा लोकल टेस्ट वाला अखबार निकालना चाहते थे। पटना से दैनिक जागरण का संस्करण शुरू भी इसी मकसद से किया गया था। वे नेशनल खबरों को पूरी तरह दरकिनार कर देने या फिर उन्हें अंदर के पन्नों पर कहीं सिंगल कॉलम या फिलर में ले लेने को कह देते थे। यही मुझसे नहीं हो पाता था और लाख कोशिश करके भी मैं इसमें फेल हो जाता था। लिहाजा शैलेंद्रजी ने मुझे अखबार की भाषा सुधारने की जिम्मेदारी दे दी। रिपोर्टरों की कॉपियां फाइनल होने से पहले मेरे पास भेज दी जाती थी।

दैनिक जागरण पटना में कुछ चीजें अजीबोगरीब भी थीं। पर यह दैनिक जागरण के कल्चर के अनुरूप ही था। वहां लोग किसी एटेंडेंस रजिस्टर पर हाजिरी नहीं बनाते थे। दफ्तर की बिल्डिंग के बाहर एक कमरा था जिसमें अखबार कंपनी का  एक सिक्युरिटी गार्ड बैठता था। सिक्युरिटी गार्ड दैनिक जागरण कंपनी का अपना होता था, किसी सिक्युरिटी एजेंसी का नहीं। वही सिक्युरिटी गार्ड अखबार के कर्मचारियों की हाजिरी लगाया करता था। पत्रकारों का भी। उस समय फिंगर प्रिंट स्कैन करनेवाली एटेंडेंस मशीनें नहीं होती थीं। अखबार के कर्मचारियों को कोई आईकार्ड नहीं दिया गया था। आईकार्ड कई साल बाद सबका एक ही साथ बना था। पटना यूनिट में तब शायद पहली बार बना था सबका आईकार्ड। आईकार्ड में किसी कर्मचारी या पत्रकार का पदनाम नहीं लिखा गया था। सिर्फ उसका विभाग लिखा गया था। मसलन पत्रकारों के लिए संपादकीय विभाग। यानी न कोई नियुक्ति पत्र, न सैलरी स्लिप, न फॉर्म-16 और न सही आईकार्ड। यह भीदैनिक जागरण कंपनी का दस्तूर ही था। पर अब लोग बताते हैं कि स्थितियां बदली हैं। अब नियुक्ति पत्र भी मिलता है।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....

(यह मेरे ब्लॉग ganeshprasadjha.blogspot.com पर भी उपलब्ध है)


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