शनिवार, 15 अक्टूबर 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 43


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की तैंतालीसवीं किस्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 43


100. अखबार की व्यवस्थाओं पर दिल खोल कर खर्च

कंपनी ने अखबार की व्यवस्थाओं पर दिल खोल कर खर्च किया। कंप्यूटर का जमाना आने से पहले की बात करें तो हिन्दुस्तान टाइम्स समूह के मालिक बिड़लाजी ने अपने जमाने में अखबार की व्यवस्थाओं पर भले ही उतना खर्च नहीं किया फिर भी वह राजधानी से छपनेवाले किसी भी अखबार के दफ्तर से कमतर कभी नहीं था। दफ्तर की व्यवस्थाओं के मामले में इंडियन एक्सप्रेस के लाला से तो कई गुणा अव्वल। जब अखबारों में डेस्क पर कंप्यूटर लगने लगे तो बाकी अखबारों ने पहले लगाया और हिन्दुस्तान टाइम्स ने बहुत बाद में। पर देर आए दुरुस्त आए की लाइन पर काम करते हुए उसने सबसे बेहतर व्यवस्था बनाई। दफ्तर को बिल्कुल मनभावन बना डाला।

हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप में काम करनेवाले लोग हमेशा से बड़े ढीले, सुविधाभोगी और कामचोर रहे। यह ग्रुप हमेशा से सरकारों के साथ मिलकर चलनेवाला रहा और आज तक कभी व्यवस्था विरोधी नहीं बन पाया। इन वजहों से इस ग्रुप के अखबारों में कभी आज तक तीखा तेवर नहीं आ सका। मेरे समय में ही चीजें बदलनी शुरू हो गईं थीं पर तेवर पुरानेवाले ही रहे थे। उन्हीं दिनों एक बार अखबार ने देश की आजादी के पुरोधा सुभाष चंद्र बोस पर उनकी गुमशुदगी को लेकर एक बेहतरीन सिरीज चलाई थी। शायद सिरीज का शीर्षक था- वे सुभाष बोस नहीं थे तो कौन थे?  सिरीज अंग्रेजी और हिन्दी दोनों अखबारों में साथ-साथ चल रही थी। इस सिरीज को एक जानेमाने बंगाली रिसर्चर अपनी गहन शोध के आधार पर लिख रहे थे। जब सिरीज कुछ आगे बढ़ी और सुभाष बाबू के गायब होने की कहानी साफ होनी शुरू हुई तो कहते हैं एक दिन अचानक कांग्रेस मुख्यालय से इस सिरीज को बंद करने का कड़ा फरमान आ गया और सिरीज तत्काल बंद कर दी गई। अखबार ने कांग्रेस के उस फरमान के आगे सिर झुका लिया।

इस अखबार का तेवर आज तक कभी नहीं बदला। पर बाकी चीजों में तो अब अच्छा खासा बदलाव आ गया है। पहले तो लगता था जैसे कर्मचारियों ने कंपनी को बंधक बना लिया है। शायद इन्हीं कारणों से सभी पुराने लोगों को बड़े बेआबरू होकर वहां से निकलना पड़ा। इस लड़ाई में जो थोड़े अच्छे लोग थे वे घुन की तरह पिस गए। कंपनी मालकिन बिड़लाजी की बेटी शोभना भरतीया के बिदेश से पढ़कर लौटे पुत्र ने विरासत की कमान संभालने की ट्रेनिंग लेनी शुरू कर दी थी और वे दफ्तर में बैठकर कामकाज देखने-समझने लगे थे। बाद में शोभना भरतीया ने दफ्तर की इस कदर ओवरहॉलिंग की कि एक भी पुराने कर्मचारी को नहीं रहने दिया। कुछ साल पहले जो लोग ठेके पर लाए गए थे धीरे-धीरे उन सबको भी चलता कर दिया। पर उस समय तक दूसरे अखबारों में भी बड़े पैमाने पर वेजबोर्ड की तनख्वाह पानेवाले पुराने परमानेंट पत्रकारों और गैर-पत्रकारों को निकाल बाहर करने और नई भर्तियां ठेके यानी सीटीसी पर करने का सिलसिला शुरू हो गया था। बहुत सारे परमानेंट कर्मचारियों को वेतनवृद्धि का प्रलोभन देकर इस्तीफा दिलवाकर पहले ठेके पर लिया गया और फिर साल-दो साल बाद उनकी छुट्टी कर दी गई। एक बात यह भी देखने को मिली कि हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप में पुराने लोगों में जो गिनती के थोड़े-बहुत अच्छे और काम के लोग थे, खासकर पत्रकार बिरादरी के लोग उन्होंने इस ग्रुप से बाहर निकलने के बाद पैसे की किल्लत भले झेली हो पर नई जगहों पर जाकर अपने पेशे में उन्होंने ज्यादा निखार पाया। वहां की उस पुरानी पर आरामतलब व्यवस्था की जड़ता में वे लोग अखबार के लिए चाहकर भी कुछ अच्छा नहीं कर पा रहे थे।

101. अखबार बेचने के लिए झूठ-फरेब का सहारा

वर्ष 2001 में दिल्ली में एक ब्लैक मंकी यानी उत्पाती बंदर की कहानी शुरू हुई जो सच्चाई नहीं बल्कि एक कोरी कल्पना मात्र थी जिसने जल्दी ही पूरी राजथानी में एक मास हिस्टीरिया का रूप ले लिया था। बाद में इसे एक बड़ी कॉरपोरेटिक व्यापारिक साजिश के तौर पर भी देखा गया। दिल्ली और आसपास की झुग्गियों और निम्नवर्गीय इलाकों में कहा गया कि आधी रात को बड़े-बड़े बालों वाला एक हमलावर काला बंदर (ब्लैक मंकी) प्रकट होता है और सोते हुए लोगों को नोचकर भाग जाता है। अखबारों में इस काले बंदर को तरह-तरह का भयानक प्राणी बताकर उसके बारे में तरह-तरह की कहानियां गढ़ी जाने लगी। अखबारों में इस काले बंदर के बारे में नमक-मिर्च लगा-लगाकर खबरें छापी जाने लगी। खबर लिखी जाने लगी कि इस विचित्र प्राणी के दहशत से डर कर कई लोगों ने उंची इमारतों से छलांग लगा दी और उनकी मौत हो गई। ऐसा हुआ भी होगा। अखबारों ने तो ब्लैक मंकी की ढेरों कहानियां छापी पर दिल्ली पुलिस को पूरे शहर में कहीं कभी कोई ब्लैक मंकी नहीं मिला।

हिन्दुस्तान टाइम्स प्रबंधन ने अपने अखबारों के संपादकों को बाकायदा निर्देश जारी कर दिया कि ब्लैक मंकी की चटपटी खबरों को अधिक से अधिक छापा जाए। हिन्दुस्तान अखबार के तत्कालीन संपादक अजय उपाध्याय ने इस झूठ को छापने पर थोड़ा एतराज किया तो प्रबंधन ने उनको कड़ी हिदायत देकर कहा कि ऐसा मालिक के निर्देश पर कहा जा रहा है। उनसे प्रबंधन ने कहा कि ब्लैक मंकी की चटपटी खबरें छापने से अखबार का सर्कुलेशन खूब बढ़ रहा है इसलिए हमें ऐसी खबरों को बढ़ावा देना है। इस तरह हिन्दुस्तान ने भीब्लैक मंकी का झूठ जमकर बेचा। निम्नवर्गीय और निम्न-मध्यम वर्ग की कॉलोनियों में फैले इस मंकी मैनकी अफवाह को राजधानी के लगभग सभी छोटे-बड़े अखबारों ने एक झूठी त्रासदी बनाकर पेश किया और इसे जमकर भुनाया। कुछ समाज विज्ञानी तो बाद में यह भी कहने लगे कि यह किसी बड़े अखबार समूह की ही गढ़ी हुई कारस्तानी थी।

अखबार को चर्चा में लाने और इसके जरिए उसका सर्कुलेशन बढ़ाने के लिए मालिकान अक्सर झूठ का सहारा लेते हैं। इसे समझाने के लिए राजस्थान पत्रिकाकी ओर से अपनाया गया एक वाकया बताता हूं। इस अखबार ने एक बार लेख लिखा कि सरकार की परिवार नियोजन योजनाओं की वजह से हजारों-लाखों आत्माएं जिनको इस धरा पर जन्म लेना था वे जन्म नहीं ले पाए और वे सभी त्रिशंकु की तरह आसमान में ही लटके हुए हैं। इस तरह वे बेकसूर आत्माएं सरकार की इस गलत योजना की वजह से अकारण ही कष्ट भोग रही हैं। सरकार की इस योजना ने प्रकृति के तय नियमों में अड़ंगा डाल दिया जिससे उन आत्माओं का आगे का भविष्य भी उलट-पुलट और गड्डमड्ड हो गया। अखबार के इस लेख पर एक बड़ी बहस छिड़ गई और उसके पक्ष-विपक्ष में विचारों की लड़ाई चल पड़ी जिसे अखबार लगातार छापता रहा। बहस चलती रही और पत्रिका की खूब चर्चा होती रही और उसका सर्कुलेशन भी खूब बढ़ गया।

ऐसी ही एक बहस 1987 में जनसत्ता ने शती प्रथा के समर्थन में एक संपादकीय लिखकर छेड़ दी थी। अखबार ने राजस्थान के देवराला गांव में एक महिला रूपकंवर के अपने दिवंगत पति की चिता पर बैठकर सती हो जाने की घटना का समर्थन कर दिया था। इस पर भी अखबार के खिलाफ जोरदार प्रदर्शन हुआ था और लंबी बहस चल पड़ी थी। इस संपादकीय को लेकरजनसत्ता पर सती प्रथा का महिमामंडन करने के आरोप भी लगे थे। जनसत्ता के दफ्तर और अखबार के संपादक का घेराव भी किया गया था। लंबे समय तक अखबार में इस प्रकरण पर चर्चाएं चलती रही थीं। अखबार ने इस पर लंबी चर्चा चलाकर खूब सुर्खी बटोरी थी और इससे जनसत्ता का सर्कुलेशन भी खूब बढ़ गया था।

हिन्दुस्तान में मेरी नौकरी तीन साल के कांट्रेक्ट वाली थी। तीन साल बीत जाने के बाद भी मेरी नौकरी जारी रही थी। अनुबंध के नवीकरण की चिट्ठी मुझे तीन साल के पुराने अनुबंध के खत्म होने के करीब दो महीने बाद मिली थी। अनुबंध को आगे बढ़ाने की यह चिट्ठी सिर्फ एक साल के लिए दी गई थी। यानी मैं वहां सिर्फ साल भर और नौकरी कर सकता था। इस चिट्ठी के मिलने के साथ ही नौकरी की चिंता शुरू हो गई थी कि अगर साल भर बाद इस अनुबंध को फिर से आगे नहीं बढ़ाया गया तो मुझे फिर से बेरोजगारी झेलनी पड़ जाएगी और फिर एक नई नौकरी तलाशनी पड़ेगी। परिवार की आर्थिक हालत अच्छी नहीं होने की वजह से  मेरे लिए यह चिंता बहुत बड़ी थी। एक साल का एक्सटेंशन देने का मतलब ही था कि इसे अब और आगे नहीं बढ़ाया जाएगा। और हुआ भी वही। अगला एक साल पूरा होते-होते अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार जाती रही। जिनके कहने पर मुझे यह नौकरी मिली थी उनके सत्ता से हट जाने से कंपनी को मुझे हटाने और नई सरकार की सिफारिश पर मेरी जगह किसी और को नैकरी देने का अवसर मिल रहा था। सो एक दिन कंपनी ने नौकरी का मेरा अनुबंध रद्द कर दिया।

102. सिंधिया खानदान की सिफारिश का ठुकराया जाना

टेलीविजन पत्रकारिता के प्रारंभिक दिनों में मैंने एक समय में जैन टीवी के लिए बाहर से कुछ फुटकर काम किया था। उसी दौरान कांग्रेसी नेता राजमाता विजयाराजे सिंधिया से परिचय हुआ था। फिर कांग्रेस अखबार में काम करने के दौरान भी कुछ कांग्रेसी नेताओं से भी अपना परिचय हो गया था। उनमें एक नाम माधवराव सिंधिया जी का भी था। हिन्दुस्तान की इस नौकरी को दोबारा पाने के लिए मैंने अब कांग्रेस के कद्दावर नेता माधवराव सिंधिया के पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया से मदद मांगी। यह तो सर्वविदित था किहिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप में सिंधिया परिवार की खूब चलती है और माधवराव सिंधिया यानी बड़े महाराजजी की बात कंपनी कभी नहीं उठाती थी। उनकी सिफारिश पर लोग नौकरी पर रख लिए जाते थे। पर एक विमान हादसे में माधवराव सिंधिया की असमय मौत हो गई थी। अब मदद करनेवाले उनके पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया ही थे। सो मैं उनके पास ही गया। ज्योतिरादित्य सिंधिया मेरी मदद को राजी हो गए और उन्होंने मेरी अर्जी और सीवी अपनी सिफारिश के साथ हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप की मालकिन शोभना भरतिया जी को भेज दी। पर दुर्भाग्यवश उनकी सिफारिश स्वीकार नहीं की गई। शोभना भरतीया ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को भेजी अपने जवाबी चिट्ठी में कहा कि गणेश प्रसाद झाहिन्दुस्तान में तीन साल से अधिक समय तक नौकरी कर चुके हैं और उनके उस पुराने अनुबंध को कुछ तकनीकी कारणों की वजह से अब और आगे नहीं बढ़ाया जा सकता।

ज्योतिरादित्य सिंधिया की इस पैरवी को शोभना भरतीया द्वारा ठुकरा दिए जाने पर सिंधिया परिवार में बहुत ज्यादा प्रतिक्रिया हुई। इससे ज्योतिरादित्य और उनके परिवार के लोग बहुत नाराज हुए। मैं जब उनके घर गया तो ज्योतिरादित्य के सहायकों ने बताया किशोभना भरतीया जी ने महाराज जी के आदेश को ठुकराकर महाराज जी का बहुत अनादर किया है। यह बहुत बड़ी चिंता की बात है। आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ था। महराजजी (ज्योतिरादित्य सिंधिया) ने और बड़े महाराजजी (माधवराव सिंधिया) ने आज तक जिस किसी की भी सिफारिश भेजी है सब का काम हुआ है। आज तक कभी भी किसी के भी मामले में महाराज जी के आदेश को नहीं ठुकराया गया था। आज अगर बड़े महाराजजी होते और उनका कोई आदेश इस तरह ठुकरा दिया गया होता तो बहुत कुछ हो सकता था।हिन्दुस्तान टाइम्स के मालिकों पर बड़े महाराजजी ने बहुत बड़े-बड़े अहसान किए हैं।


– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....



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