एक पत्रकार की अखबार यात्रा की इकतालीसवीं किस्त
पत्रकारिता की कंटीली डगर
भाग- 41
97. प्रधानमंत्री की सिफारिश और हिन्दुस्तान में नौकरी
जनसत्ता में ओम थानवी के डंसने के बाद मुझे दिल्ली में रहकर नौकरी तलाशने में काफी परेशानी हुई। कई महीने गुजर गए और मुझे खाली बैठना पड़ा। जनसत्ता की नौकरी कोलकाता जाने के आदेश की वजह से फंस गई थी। नई नौकरी मिल नहीं रही थी। पटना हिन्दुस्तान में पटना के ही पुराने अखबार पाटलिपुत्र टाइम्स के मेरे पुराने कथाकार साथी अवधेश प्रीत ने पटना में एक बार मुझे कहा था कि कोई पॉलिटिकल पैरवी लगाओ औरहिन्दुस्तान में घुस जाओ। फिर पटना हिन्दुस्तान में ट्रांसफर करा लो और मस्त रहो। उन दिनों मैं दिल्लीजनसत्ता में ही था। अवधेश जी की कही यही बात मुझे याद आई। जब कहीं नौकरी नहीं मिली तो मैंने हारकर अपनी परेशानियां बताते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेय़ी को एक चिट्ठी भेजी। वह चिट्ठी मैंने सरकार में हमेशा संकट मोचन की भूमिका निभानेवाले प्रमोद महाजन जी के जरिए अटलजी को भिजवाई। दो दिन बाद मुझे रंजन भट्टाचार्य जी ने फोन किया और मुझे हौजखास इलाके के अपने दफ्तर बुलाया। उनसे यह मेरी पहली मुलाकात थी। उन्होंने मुझे दो जगह नौकरी दिलवाने में मेरी मदद करने की बात कही और कहा कि इनमें जहां भी मैं चाहूं वे मुझे नौकरी दिलवाने में मेरी हरसंभव मदद कर सकते हैं। उन्होंने मुझेहिन्दुस्तान और राष्ट्रीय सहारा का नाम बताया। मैंने उनको हिन्दुस्तान में ही काम दिलवाने को कहा। उन्होंने कहा कि वे मेरे लिए हिन्दुस्तान टाइम्स की मालकिन शोभना भरतीया जी से बात करके उनसे निवेदन करेंगे। उनके अखबार में अगर कोई जगह खाली होगी तो मुझे निश्चित ही वहां नौकरी मिल जाएगी।
रंजन भट्टाचार्य जी ने अगले ही दिन शोभना भरतीयाजी से बात कर ली। पर उनसे इस मुलाकात के लगभग दो-तीन हफ्तों तक मुझे हिदुस्तान से कोई फोन नहीं आया। उन दिनों अजय उपाध्याय हिन्दुस्तान के संपादक थे।जनसत्ता में मामला गड़बड़ होने के बाद मैं उनसे नौकरी के लिए पहले भी कई बार मिल चुका था पर वे मुझे बिल्कुल घास नहीं डाल रहे थे। शोभना भरतीया जी से रंजन भट्टाचार्य जी की बातचीत होने के बाद शोभना भरतीया जी ने अपने संपादक अजय उपाध्याय को मुझे नौकरी पर रखने को कह दिया लेकिन अजय जी जानबूझकर अखबार की मालकिन की कही बातों को इग्नोर करते रहे। जब कई हफ्तों तक मुझे कहीं से कोई फोन नहीं आया तो मैंने रंजन भट्टाचार्य जी से फिर निवेदन किया। तब रंजनजी ने फिर शोभना भरतीया जी से मेरे लिए बात की। इसपर तो शोभना जी ने अजय उपाध्याय जी की क्लास ही ले ली। फिर क्या था, अगले ही दिन मुझे अजय उपाध्याय जी के दफ्तर से फोन आ गया और मुझे हिन्दुस्तान के दफ्तर बुला लिया गया।
हिन्दुस्तान में हफ्ते भर में ही नौकरी की सारी औपचारिकताएं पूरी हो गईं और मुझे हिन्दुस्तान में नौकरी मिल गई। पर यह नौकरी मुझे सिर्फ तीन साल के लिए कांट्रैक्ट (सीटीसी) पर मिली थी। उन दिनोंहिन्दुस्तान में ठेके का सिस्टम बस शुरू ही हुआ था और वहां ठेके पर नौकरी पाने वाला मैं दूसरा पत्रकार था। मुझसे करीब छह महीने पहले वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी समाचार संपादक पद पर आए थे। पर मैं करीब सात महीने तक बेरोजगार होकर घर बैठा रहा था। उन्हीं दिनों, पर मेरे बाद हिन्दुस्तान में अविनाश झा भी आए। वे पहले से अजय उपाध्याय जी से परिचित थे। एक बार वहीं दफ्तर में अविनाश जी ने मुझसे कहा कि “अजय जी हिन्दुस्तान में आपकी (गणेश झा की) नियुक्ति के पहले एक बार मुझसे (अविनाश जी से) पूछ रहे थे कि ये गणेश झा कौन हैं? उनके लिए बार-बार चेयरमैन का फोन आ रहा था कि गणेश जा को अखबार में नौकरी पर रखना है, पर मैं टाल रहा था। बाद में शोभना जी ने कहा कि पीएमओ से बोला गया है इसलिए उनको रखना ही है। तब जाकर मुझे उनको बुलाकर नौकरी देनी पड़ी।” अविनाश जी के इस खुलासे से मुझे पता चला कि अजय जी जानबूझकर मेरी नियुक्ति टाल रहे थे। वह मुझे लेना ही नहीं चाह रहे थे। इसीलिए उन्होंने पहले भी मुझे कई बार टरका दिया था। पहले तो मैं बिना किसी परिचय और सिफारिश के ही उनसे कई बार मिला था और नौकरी मांगी थी। पर वे हर बार मुझे मना ही करते रहे थे। पर बाद में वे अपने कई लोगों को हिन्दुस्तानलेकर आए थे। पीएमओ की सिफारिश और चेयरमैन के आदेश के वावजूद उन्होंने मुझे कभी कोई पदोन्नति या वेतनवृद्धि नहीं दी। उन्होंने मुझसे जनसत्ता की सैलरी स्लिप मांग ली और वहां जो मेरा पद था वहीं दिया। अजय उपाध्याय जी ने मुझे वेतन में सिर्फ हजार रुपए बढ़ाकर दिया। अजय उपाध्याय जी से पहले आलोक मेहता जी और उनसे भी पहले हरिनारायण निगमहिन्दुस्तान के संपादक थे। मैं आलोकजी से भी कई बार नौकरी मांगने गया था। पर हर बार खाली हाथ ही लौटना पड़ जाता था। हरिनारायण निगम जी सहृदय तो थे और बातचीत भी बड़ी अच्छी करते थे। पर नौकरी मुझे उन्होंने भी नहीं दी थी। निगम जी से शायद मैं उन दिनों नौकरी मांगने जाया करता था जब मैं चंडीगढ जनसत्तासे निकलने के बाद के बुरे दिनों में मित्रों की मदद से दिल्ली में रहकर नौकरी के लिए संघर्ष कर रहा था।
उन दिनों बिड़ला जी का जमाना था और हिन्दुस्तान टाइम्स की नौकरी को लोग सरकारी नौकरी से कम नहीं मानते थे। कई मामलों में तो सरकारी नौकरी से भी बढ़िया ही मानते थे। पर हिन्दुस्तान टाइम्स में कर्मचारियों का बड़ा ही मजबूत ट्रेड यूनियन था। यह ट्रेड यूनियन फौजदारी किस्म का था। इतना मजबूत कि जरा-जरा सी बात पर कर्मचारी लोग हड़ताल कर देते थे और दफ्तर में तोड़फोड़ करने लगते थे। इस ताकतवर यूनियन से निपटने के लिए प्रबंधन ने अपने यहां नौकरियों में ठेका यानी कांट्रैक्ट सिस्टम की शुरुआत कर दी थी। यूनियनवाले इस ठेका प्रणाली का भी पुरजोर विरोध कर रहे थे। यह सब कहने को था तो कर्मचारियों के हित में, पर उन दिनों सभी कहते थे कि हिन्दुस्तान टाइम्स के कर्मचारी बड़े ही कामचोर होते हैं। वहां यूनियनवाले किसी बाहरी आदमी को कंपनी में नौकरी के लिए आने नहीं देते थे। वे लोग वहां कंपनी में सिर्फ अपना ही एकछत्र राज चाहते थे। नियुक्ति का विरोध होगा इसलिए प्रबंधन ने मुझे हिन्दुस्तान अखबार के इंटरनेट संस्करण के लिए नियुक्त किया। प्रबंधन ने यूनियनवालों को बताया कि गणेश झा की नियुक्ति अखबार में नहीं बल्कि हिन्दुस्तान के इंटरनेट संस्करण के लिए की गई है। जब तक हिन्दुस्तान का इंटरनेट एडिशन चलेगा तभी तक के लिए उनकी यह नियुक्ति प्रभावी रहेगी। यूनियनवाले इस पर राजी हो गए। फिर भी यूनियन ने मेरी नियुक्ति का कुछ-कुछ विरोध तो किया ही। पर मेरी नियुक्ति के समय हिन्दुस्तान टाइम्समें इंटरनेट संस्करण का कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार ही नहीं हुआ था। और जब तक मैं वहां रहा अखबार को इंटरनेट पर लाने की कोई तैयारी नहीं की गई। दरअसल, मेरी नियुक्ति पर यूनियन के विरोध को शांत करने के लिए प्रबंधन को उनसे मेरी नियुक्ति अखबार के इंटरनेट संस्करण के लिए करने का झूठ बोलना पड़ा था। मैनेजमेंट ने यूनियनवालों से कहा कि जब तक इंटरनेट एडिशन शुरू नहीं हो जाता तब तक के लिए गणेश झा अखबार के डेस्क पर काम करेंगे।
हिन्दुस्तान टाइम्स का यूनियन था भी बहुत खूंखार। छोटी-छोटी बातों पर यूनियन के लोग मैनेजरों को पीट देते थे और प्रिंटिंग विभाग में भारी तोड़फोड़ कर देते थे। इस तरह की यूनियनबाजी उचित नहीं लगती थी। यह एक अति वाली स्थिति थी। यही वजह रही जो वहां यूनियन का अंत बड़ी ही बेदर्दी से किया गया और एकसाथ सैकड़ों कर्मचारियों की नौकरी चली गई। मुझे लगता है अगर यूनियनवाले हिसाब से चल रहे होते तो शायद आज भी वहां सारे लोग आनंद का जीवन जी रहे होते। बिड़ला जी (केके बिड़ला) की कंपनी में नौकरी सरकारी नौकरी से किसी मायने में कमतर नहीं होती थी। कुछ लोग तो बिड़ला जी की कंपनी में नौकरी को सरकारी नौकरी से कहीं ज्यादा लाभकर और बेहतर बताते थे। बाद में जब बिड़लाजी की बेटी शोभना भरतीया ने करोबार संभाला तब भी स्थितियां वैसी की वैसी ही रहीं। पर वर्ष 2000 के बाद से स्थतियां कुछ-कुछ बदलती गईं। जब शोभना भरतीया जी का बेटा विदेश में मेनेजमेंट पढ़कर भारत आया और कारोबार को समझना शुरू किया तो उन्होंने अपनी मां को जो फंडा बताया उससे एकाएक सबकुछ बदलना शुरू हो गया। दरअसल उनका यह फंडा सारे कर्मचारियों को बदल डालो यानी सबको निकाल बाहर करो वाला था। तब से सबकुछ ठेका प्रणाली यानी कांट्रेक्ट सिस्टम पर जाने लगा। यहीं से खत्म हो गया मालिक और कर्मचारियों का आपसी आत्मीय रिश्ता जिसकी बदौलत बिड़लाजी भारत में एक पनबाड़ी से इतने बड़े कारोबारी में तब्दील हो सके थे। बिड़ला जी की कलकत्ता की वह पान की दुकान आज भी याद दिलाती है कि बड़े बिड़लाजी (घनश्यामदास बिड़ला) कभी इसी दुकान में पान लगाया करते थे।
– गणेश प्रसाद झा
आगे अगली कड़ी में.....
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