बुधवार, 26 अक्तूबर 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 46


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की छियालीसवीं किस्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 46


107. दैनिक पुर्वोदय और देशबंधु का दिल्ली संवाददाता

गाजियाबाद वाला मकान छिन जाने के बाद मैं दिल्ली के अशोकनगर की एक गंदी बस्ती में एक कमरा किराए पर लेकर रहने लगा था। मेरे पास वही थोड़ा सा सामान था जो एलआईसी हाउसिंग फाइनेंस के अधिकारियों ने मेरे घर से निकालकर बाहर सड़क पर फेंक दिया था। बहुत कोशिश के बाद मुझे गुवाहाटी से निकल रहे एक हिन्दी अखबार दैनिक पुर्वोदय में दिल्ली ब्यूरो प्रमुख का काम मिल गया था। पर ब्यूरो प्रमुख का यह पद सिर्फ कहने भर के लिए था। इस अखबार का दिल्ली में आईएनएस या कहीं और अपना कोई दफ्तर नहीं था। लिहाजा मैं आईएनएस के बाहर रहकर ही खबरें जुटाता और फिर फैक्स से भेजता था। दैनिक पुर्वोदय  बड़ी मुश्किल से मुझे कुछ पैसे देता था। यह नौकरी मैं कुछ ही महीने कर पाया। फिर रायपुर के अखबार देशबंधु से अखबार के संपादक ललित सुरजन जी की एक चिट्ठी आई जिसमें उन्होंने मुझे आईएनएस स्थित दफ्तर में ब्यूरो प्रमुख का काम करने का अवसर दिया। नियुक्ति के पहले उन्होंने मुझे रायपुर आने को कहा। मैं रायपुर गया और वहां हफ्ते भर रहकर देशबंधु का कामकाज देखा। फिर दिल्ली लौटकर आईएनएस में काम शुरू किया। पर यहां भी चार-पांच महीने ही नौकरी कर पाया। मैं ज्यादा खबरें भेज देता था और रात 8-9 बजे तक  काम करता रहता था। आईएनएस में दूसरे अखबारों के दफ्तरों में भी इतने समय तक तो पत्रकार रहते ही थे और काम होता रहता था। पर देशबंधु को अपना खर्च कम करना था सो उन्होंने मुझे मना कर दिया। मुझे वहां 11 हजार रुपए मिलते थे पर उन्हें और कम का आदमी चाहिए था। सो मेरे बाद उन्होंने 6 हजार रुपए में एक ट्रेनी पत्रकार को रख लिया और उसी से काम चलाने लगे।

108. दैनिक जागरण लुधियाना में तीन दिन की नौकरी

उन दिनों दैनिक जागरण का दफ्तर नोएडा के सेक्टर 62 नहीं पहुंचा था। पुराना दफ्तर सेक्टर 8 में था। उन्हीं दिनों नौकरी की तलाश में मैं दिल्ली और अनसीआर में स्थित अखबारों के दफ्तरों में भटकता रहता था। नौकरी के लिए दैनिक जागरण के नोएडा दफ्तर भी जाता रहता था। वहां एचआर में मेरी अखबार के नए शुरू होनेवाले शिमला संस्करण के लिए बात हुई। नौकरी की मेरी फाइल भी बना दी गई। पर यह बातचीत थोड़ी लंबी खिंच गई। करीब दो हफ्ते बाद मुझे लुधियाना जाने को कह दिया गया। वेतन बड़ी मुश्किल से 15 हजार तय हुआ। मैं लुधियाना गया भी। वहां काम करना शुरू किया। पर लुधियाना शहर में रहने की बड़ी दिक्कत थी।दैनिक जागरण का दफ्तर शहर से दूर था। वहां तक जाने के लिए दिन के समय तो ऑटो-टैंपो मिल जाता था पर रात को दफ्तर से शहर के होटल तक लौटने के लिए कोई सवारी नहीं मिलती थी। दफ्तर की तरफ से रात को  स्टाफ को घर तक छोड़ने की वहां कोई व्यवस्था या परंपरा नहीं थी। रात को सड़कें पूरी तरह सूनी हो जाती थीं। सिर्फ निजी वाहन वाले ही आते-जाते थे। तीन दिन तो मैं रात को दफ्तर से छूटने के बाद पैदल ही किसी तरह होटल तक आया। मेरे लिए इसे जारी रखना संभव नहीं था। लुधियाना में दैनिक जागरण ने नया-नया दफ्तर बनाया था। पर वहां दफ्तर में या उसके बाहर सड़क या चौराहे पर कहीं चाय तक नहीं मिलती थी। यह भी बड़ा तकलीफदेह था। सो मैंने चौथे दिन दिल्ली की ट्रेन पकड़ ली। संपादक ने मुझे मनाने की खूब कोशिश की पर मैं अपने फैसले पर अडिग था सो लौट ही आया।

दिल्ली में बहुत कोशिश के बाद भी कहीं नौकरी नहीं मिल रही थी। उस समय दैनिक जागरण ने नोएडा में पत्रकारिता और जनसंचार पढाने के लिए एक इंस्टीट्यूट खोला था जिसके सर्वेसर्वा हिन्दुस्तान में मेरे संपादक रहे अजय उपाध्याय थे। मैं नौकरी मांगने उनके पास भी गया था और खूब चक्कर काटे थे। वे मुझे कई महीने तक घुमाते रहे। अंत में उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि यहां कोई नौकरी नहीं है। इस मुफलिसी के दौरान मैंने दिल्ली में अपने कई मित्रों से उधार के रखा था। कर्ज का बोझ बढ़ता जा कहा था और नौकरी मिलने की कोई उम्मीद नहीं दिखाई दे रही थी। कुछ साथी हिम्मत जरूर देते रहे थे और लगातार कह रहे थे कि कुछ भी हो टूटना मत। पर मेरी हिम्मत जवाब दे रही थी। मैंने तय किया कि अब बिहार लौटकर वहीं नौकरी की तलाश करूंगा। बस मैं अपने मकान मालिक को कुछ अग्रिम किराया देकर बिहार अपने गांव लौट आया और बिहार और झारखंड के अखबारों में नौकरी के लिए प्रयास करने लगा।

109. दैनिक जागरण पटना में नौकरी और शैलेंद्र जी का नेतृत्व

लंबी बेरोजगारी झेलने के बाद 2006 में मुझे दैनिक जागरण के पटना संस्करण में नौकरी मिली। पर मैंने पटना संस्करण को कभी एप्रोच नहीं किया था। मैंने कई अखबारों के मुख्यालयों में स्थित मालिकों और संपादकों को आवेदन और सीवी भेजी थी। एक आवेदन मैंनेदैनिक जागरण के बिहार यूनिट के मालिक सुनील गुप्ता जी को उनके कानपुर दफ्तर के पते पर भेजा था। आवेदन तो पहले भी कई बार भेजा था पर इस बार लगता है उनकी नजर उस पर पड़ गई थी। उन्होंने मेरा आवेदन पटना सस्करण के वरिष्ठ संपादक शैलेंद्र दीक्षित जी को भेज दिया था। फिर शैलेंद्र जी ने मुझे पत्र भेजकर पटना बुलाया था। जाते ही मुझे वहां ससम्मान नौकरी मिल गई। पर वेतन बड़ी कंजूसी से 15 हजार तय हुआ। शैलेंद्रजी ने वादा तो 20 हजार देने का किया पर कई महीने बाद जाकर पता चला कि तनख्वाह तो 15 हजार ही तय किया गया है। मैंने अपनी सीवी निकलवाकर देखी थी जिसपर शैलेंद्रजी ने खुद लिखा था कि इनको 15 हजार पर रख लिया जाए। दैनिक जागरण में काम कर चुके एक पुराने साथी ने बताया कि यहां ऐसा होता है।

पटना में मुझसे कहा गया कि मेरी नियुक्ति सिलीगुड़ी संस्करण के लिए की जा रही है। शैलेंद्र दीक्षित ने बताया कि मुझे 15 दिनों तक पटना में रहकर अखबार का कामकाज समझ लेना है और फिर सिलीगुड़ी जाकर वहां एडीशन निकालना है। इसी दौरान मालिक सुनीलजी पटना आए तो शेलेंद्रजी ने मेरा उनसे परिचय कराया। उन्होंने सुनीलजी से कहा कि भैया यही गणेश झा जी हैं जिनके लिए आपने पत्र लिखा था। मैंने इनको आपके निर्देश के मुताबिक यहां रख लिया है। मेरे प्रति शैलेंद्रजी का व्यवहार बड़े ही आदरभाव वाला था। मैं दो हफ्ते पटना में काम करने के बाद सिलीगुड़ी चला गया। सिलीगुड़ी में हफ्ते भर कंपनी के खर्चे पर होटल में रुकने के बाद मैंने दफ्तर से करीब एक किलोमीटर दूर गुरुंग बस्ती मोहल्ले में किराए का घर लिया। मकान मालिक बिहार के छपरा जिले के थे जो कई पीढ़ियों पहले सिलीगुड़ी जाकर बस गए थे। दैनिक जागरण के सिलीगुड़ी संस्करण के संपादक थे धीरेंद्र श्रीवास्तव। मैंने एडिशन निकाला पर वह संपादक को पसंद नहीं आया। मेरा बनवाया पहला पेज उनको लोकल नहीं नेशनल लगा। उन्होंने अपने लोगों से पहला पेज अलग से भी बनवाया था सो वही लिया गया, मेरा वाला नहीं। फिर दूसरे और तीसरे दिन भी वही हुआ। वे मुझसे बिदके-बिदके रहने लगे। मैं उनको पूरा सम्मान देता था फिर भी वे नाहक मुंह फुलाए रहते थे। उनके साथ कोई दिक्कत जरूर रही होगी। रोज किच-किच होने लगी। यह खबर धीरेंद्रजी ही पटना शैलेंद्र दीक्षितजी को पहुंचाया करते थे। शैलेंद्रजी मुझसे भी अक्सर हाल-चाल पूछ लिया करते थे। किसी तरह तीन महीने बीते। एक दिन स्थानीय संपादक धीरेंद्रजी के पास पटना से शैलेंद्रजी का लिखित आदेश आ गया मेरे पटना तबादले का। अभी तो मैं सिलीगुड़ी को समझ भी नहीं पाया था। सोचा था किसी दिन साप्ताहिक अवकाश लेकर दार्जीलिंग घूम आउंगा। बगल में ही भूटान भी था। यह सब सोच ही रहा था कि अचानक वहां से रवानगी हो गई। अगले ही दिन मैं वहां से रिलीव हो गया और उसके एक दिन बाद मैंने पटना की बस पकड़ ली। फिर शुरू हो गया पटना संस्करण में काम करने का सिलसिला। पटना में करीब तीन महीने मैं होटल में ही टिका रहा। फिर दफ्तर के बिल्कुल पास श्रीकृष्णनगर में घर ले लिया। उस समय दैनिक जागरणका पटना दफ्तर किदवईपुरी मोहल्ले में था। 

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें