शनिवार, 8 अक्तूबर 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 42


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की बयालीसवीं किस्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 42


98. ट्रेड यूनियन की गुंडई, मक्कारी और प्रोफेशनलिज्म की कमी

हिन्दुस्तान में अपनी चंद वर्षों की नौकरी में मैं इस अखबार और वहां की स्थितियों को थोड़ा-बहुत जितना समझ पाया उसके मुताबिक वहां न्यूज डेस्क संभालने वाले जानकार पत्रकार बहुत कम थे। वहां ज्यादातर वैसे लोग थे जो पहले प्रूफरीडिंग का काम देखते थे और कंप्यूटरीकरण के बाद प्रबंधन ने नई व्यवस्था में उनको समायोजित करने के लिए उनको उप संपादक बना दिया था और उन्हें कंप्यूटर पर पेज बनाने की जिम्मेदारी सौंप दी गई थी। इसलिए उनमें एजेंसी की अंग्रेजी की खबरों का अनुवाद, हार्ड न्यूज लिखने, खबरों को संपादित करने, कंपाइल करने और उन्हें री-राइट करने आदि की क्षमता नहीं दिखाई देती थी। वहां साहित्यिक लेखन करनेवाले और बच्चों की पत्रिकाओं के लिए लिखनेवाले लोग थे। वहां ऐसे भी कई पत्रकार थे जिनको अखबारनवीसी से कोई खास मतलब नहीं था और वे मूल रूप से छोटे-मोटे व्यापारीप्रोपर्टी डीलर या दुकानदार सरीखे लोग थे। पर हिन्दुस्तान में उन दिनों बिड़लाजी का राज था इसलिए उनकी भी वहां रोजी-रोटी बहुते मजे से चल रही थी। अखबार और दफ्तर में हर तरफ एक जड़ता दिखाई देती थी। कामचोरी और मक्कारी तो वहां के कर्मचारियों में कूट-कूट कर भरी थी। पर मैं जिस समय वहां गया था वह अखबार में तकनीकी बदलाव का दौर था और कंपनी को प्रोफेशनल लोगों की जरूरत थी। इसके लिए अखबार की स्थितियों में जरूरी बदलाव करने का काम कुछ-कुछ शुरू हो गया था। अंग्रेजी यानी हिन्दुस्तान टाइम्स में स्थितियां हमेशा से चुस्त-दुरुस्त थी और वहां प्रोफेशनलिज्म दिखाई देता था। पर तकनीकी रूप से आधुनिकीकरण वहां भी हुआ था जिससे वहां भी स्थितियां तेजी से बदल रही थीं।हिन्दुस्तान टाइम्स में काम करनेवाले अच्छे और जानकार लोग थे जिस कारण वहां प्रोफेशनलिज्म था। ऐसा इसलिए क्योंकि हिन्दुस्तान टाइम्स उनका फ्लैगशिप अखबार था और वही कंपनी का ब्रेड़-बटर भी था। हिन्दुस्तान तो कुछ समय या कहें कि कुछ साल पहले तक तो एक विज्ञापन का अखबार ही हुआ करता था और यही माना भी जाता था। लोग उसे खबर पढ़ने के लिए नहीं, सिर्फ टेंडर वाले विज्ञापन देखने के लिए ही खरीदा करते थे। हिन्दुस्तान में विज्ञापन ठसाठस भरा होता था और अखबार को उससे मोटी आमदनी होती थी। शायद इसी वजह से कंपनी ने हिन्दुस्तान के कर्मचारियों की गुंडई और मक्कारी को भी हृदय से लगाकर रखा था। लोग कहते थे कि बिड़लाजी हमेशा यही मानते थे कि उनके उन मक्कार कर्मचारियों की ही किस्मत से उनका व्यापार इस कदर तेजी से फलता-फूलता रहा है।

हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप के दफ्तर में कंप्यूटर सिस्टम और दूसरे सारे तामझाम बिल्कुल नए लग गए थे। पूरे दफ्तर के पुरानेपन को हटाकर उसे एक नया लुक दे दिया गया था। साफ-सफाई भी बहुत अधिक थी।हिन्दुस्तान की बात करें तो वहां सब कुछ बहुत सुंदर था पर वहां पत्रकारिता वाला वैसा माहौल नहीं था जैसा कि एक बड़े अखबार में होना चाहिए। खबरों के प्रति सीरियसनेस का वहां घोर अभाव था। सबकुछ टेक-इट-ईजी वाले अंदाज में होता था। हां, दफ्तर में लोगों का व्यवहार बड़ा मधुर था। कर्मचारियों में एक दूसरे के प्रति काफी सम्मान का भाव रहता था। वहां डेस्क के लोगों की खबरों के प्रति गंभीरता को इसी से काफी बेहतर ढंग से आंका जा सकता है कि लोग वहां कंप्यूटर पर ताश के पत्ते खेलने में मशगूल रहते थे और तरह-तरह के पॉर्न वीडियोज के क्लिप देखा करते थे। अखबार में अनुशासन तो बिल्कुल ही नहीं था। और प्रोफेशनलिज्म न होने की वजह से कर्मचारियों में प्रतिस्पर्धा और प्रतियोगिता का भाव भी बिल्कुल नहीं था।

हिन्दुस्तान में मैंने बड़े ही गजब-गजब की चीजें होती देखी और वहां गजब-गजब के लोग भी देखे। वहां कुछ गलत एलीमेंट भी घुसे हुए थे जो लंबे समय से वहां रहने की वजह से काफी प्रभावशाली बन गए थे। वहां मैंने कई ऐसे लोग देखे जो वहां के परमानेंट कर्मचारी थे पर वे काम पर कभी दफ्तर नहीं आते थे। उनकी हाजिरी फिर भी लग जाती थी। वहीं जानकारी मिली थी कि वहां रमाकांत गोस्वामी और मयूरी भारद्वाज नाम के दो रिपोर्टर कार्यरत बताए जाते थे जो हिन्दुस्तान के ही कर्मचारी थे बताते हैं जिन्हें लोगों ने कभी दफ्तर में आते और वहां काम करते नहीं देखा था। बिना कभी दफ्तर आए और बिना कभी कोई काम किए ही उनकी हाजिरी लग जाती थी। संपादकीय विभाग में ही एक और सज्जन थे जो दफ्तर से ही अपना प्रोपर्टी डीलर का काम किया करते थे। वे कभी दफ्तर में आकर काम नहीं करते ते। वे दफ्तर के ग्राउंडफ्लोर पर स्थित रिशेप्शन में ही आकर बैठ जाते थे और वहीं से बैठकर वे अपना प्रपर्टी डीलर वाला काम किया करते थे। वे अपने मिलने-जुलने वालों को भी दफ्तर के रिसेप्शन पर ही बुला लिया करते थे। वे सिर्फ तनख्वाह लेने के दिन ही दफ्तर में दिखाई पड़ते थे। हिन्दुस्तान में कर्मचारी एटेंडेंस रजिस्टर पर हस्ताक्षर करके अपनी हाजिरी दर्ज नहीं करते थे। इसके लिए संपादक के दफ्तर में एक कर्मचारी नियुक्त था जो कंपनी का क्लर्क था और संपादक का पीए भी वही हुआ करता था। वही चेहरा देख-देखकर सबकी हाजिरी दर्ज करता था। यूनियन से जुड़े और उनकी कृपा वाले कुछ लोग कभी दफ्तर नहीं आते थे वे बिना दफ्तर आए उस क्लर्क से अपनी हाजिरी बनवा लेते थे। उन लोगों ने दफ्तर की पूरी व्यवस्था को अपनी गिरफ्त में ले रखा था। इसे हाईजैक करना भी कह सकते हैं। वे आंदोलनकारी लोग अपनी इच्छा से सबकुछ नियंत्रित करते थे। अखबार काफी सुविधासंपन्न था पर अखबार की दशा अच्छी नहीं थी। वहां अखबार निकालना बहुत कठिन काम होता था। यह सब वहां की ट्रेड यूनियन के लोगों की गुंडई की वजह से होता था। वहां की यूनियन बड़ी तगड़ी थी और यूनियन के लोगों ने कंपनी और उसके मालिक को अपनी मुट्ठी में दबोच रखा था। कंपनी के मैनेजर और मेनेजमेंट के इंचार्ज नरेश मोहन भी पूरी तरह से यूनियन की मुट्ठी में थे और अपनी इच्छा से कुछ भी नहीं कर पा रहे थे।

कंपनी के जो पुराने कर्मचारी थे वे लोग वहां हमेशा मनमानी करते थे। जब मर्जी आना और जब मन हो चले जाना। वे लोग काम करना नहीं चाहते थे। उनसे कोई काम करा भी नहीं सकता था। हर डिपार्टमेंट में यही हाल था। यहां तक कि दफ्तर का परमानेंट चपरासी भी काम नहीं करता था और चुपचाप बैठा रहता था। चपरासी के काम के लिए दर्जनों लड़के तीन-तीन महीने के ठेके पर रखे जाते थे जो हर विभाग में तैनात किए जाते थे। वही लोग काम करते थे। ट्रेड यूनियन के लोग कंपनी पर दबाव डालकर पुराने लोगों को प्रोमोशन भी दिलवाते थे। यूनियन के लोग कभी भी अखबार में नए लोगों की भर्तियां नहीं होने देते थे। उन्हें लगता था कि नए लोग आएंगे तो काम में सुधार हो जाएगा और तब मक्कारी करने का उनका राज नहीं चल पाएगा। इसे हम संस्थान की नासमझी या नाकामी भी कहें तो गलत नहीं होगा।

मेरे समय में कई प्रोफेशनल पत्रकार तीन-तीन साल के कांट्रेक्ट पर भर्ती किए गए थे पर ट्रेड यूनियन के लोगों ने उन नए कर्मचारियों को करीब छह महीने तक दफ्तर में घुसने तक नहीं दिया था। इनमें मेरे साथी पत्रकार सुबोध मिश्र, अरविंद शरण और दीपक मंडल भी थे। न्यूज का पूरा वर्कलोड हम लोगों पर ही होता था जिसमें अंग्रेजी खबरों का हिन्दी अनुवाद भी शामिल होता था। हम कांट्रेक्ट वाले पत्रकार अखबार के बंधुआ मजदूर थे।

हिन्दुस्तान में कुछ अच्छे पत्रकार जरूर थे पर उस माहौल में रहकर वे भी कुंठित हो चुके थे और उनके ही रंग में रंग गए थे। ऐसे अच्छे और टैलेंटेड पत्रकार बाद में अपनी क्षमता के बूते बीबीसी जैसी समाचार संस्था और डोयचेवेले रेडियो से जुड़ गए और नौकरी करने विदेश भी गए।

हिन्दुस्तान में संपादक भी बहुत जल्दी-जल्दी बदल जाते थे। संपादक भी ज्यादातर वैसे ही आए जिनका रुझान हार्ड न्यूज की तरफ बिल्कुल नहीं था। वे साहित्यिक और लेखकीय प्रकृति वाले थे। मुझे अपने समय के किसी संपादक में खबरों के प्रति गंभीरता और रिएक्शन नहीं दिखाई दिया। ज्यादातर संपादक भी वहां आकर सुविधाभोगी ही बन गए थे।

हिन्दुस्तान में अक्सर राजनैतिक दलों के नेताओं की सिफारिश पर मशीनमैन, प्रूफरीडर, चपरासी और दूसरे चतुर्थवर्गीय कर्मचारी रखे जाते थे। वे आते ही खुद को कंपनी मालिक का दामाद ही समझने लगते थे। कांग्रेस की वहां ज्यादा चलती थी लिहाजा कांग्रेसी नेताओं के सिफारिशी ही वहां ज्यादा थे। कांग्रेसी नेता हरकिशनलाल भगत के वहां कई लोग थे जो वहां बरसों से काम कर रहे थे और काफी ताकतवर बन गए थे। इन सिफारिशी लोगों में मक्कारी और काम न करने की प्रवृति घर कर गई थी।

कंपनी ने अपने फ्लैगशिप अखबार हिन्दुस्तान टाइम्सको ट्रेड यूनियन की गिरफ्त में जाने से किसी तरह बचाकर रखा था। इसके लिए उन्होंने यूनियनवालों से अंदरखाने कुछ डील कर ऱखी थी बताते हैं जिस कारण यूनियनवाले अंग्रेजी में ज्यादा दखल नहीं दिया करते थे। इसी वजह से हिन्दुस्तान टाइम्स में प्रोफेशनलिज्म बरकरार था। पर बदलाव के उस दौर में हिन्दुस्तान टाइम्स में भी कांट्रक्ट पर काफी लोग लिए गए थे, खासकर पत्रकार। कंपनी ने दफ्तर की व्यवस्था को सुधारने और चीजों को नियंत्रण में लाने के लिए बदलाव के उस संधिकाल में ही कई नए पद भी सृजित किए थे। कार्यकारी निदेशक (ईडी), प्रेसीडेंट, वायस प्रेसीडेंट वगैरह पद तभी बनाए गए थे।

99. संपादकों ने अखबार से करोड़ों बनाए

हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप में खासकर उसके अंग्रेजी अखबार हिन्दुस्तान टाइम्स में कई-कई अंग्रेजीदॉ संपादक आए और उन्होंने अखबार के कंटेंट पर ध्यान देने की बजाए उसकी साज-सज्जा पर ज्यादा ध्यान दिया। इन संपादकों ने मालिक को अपने-अपने आईडियॉज बेचकर करोड़ों रुपए अलग से कमाए। इस अखबार समूह के अंग्रजी अखबार हिन्दुस्तान टाइम्स का फॉन्ट पहले भी खराब नहीं था, पर उन संपादकों ने मालिक को अखबार का फॉन्ट न्यूयार्क टाइम्स औरलंदन टाइम्स जैसा करने का आईडिया दिया और इसके लिए विदेशों से एक्सपर्ट बुलवाए गए। करोड़ों खर्च करवाकर फॉन्ट बदले गए। इस तरह कंटेंट की बजाए फॉन्ट बदल देने से बिड़लाजी का अखबार न्यूयार्क टाइम्स और लंदन टाइम्स सरीखा बना या नहीं यह तो पता नहीं पर कहते हैं उन चालाक संपादकों ने अखबार मालिक को मूर्ख बनाकर इस दलाली में करोड़ों रुपए जरूर बना लिए। इसीलिए तो कहते हैं कि धनकुबेरों को मूर्ख बनाना ज्यादा मुश्किल नहीं है, बस आपके पास इसके लिए धुरफंदी वाला हुनर होना चाहिए। हिन्दी के संपादकों में इस हुनर की हमेशा से कमी थी। उधर अखबार मालिक के पास अपने हिन्दी अखबार के लिए वैसा कोई भारी भरकम बजट भी कभी उपलब्ध नहीं था। हिन्दुस्तान तो हमेशा उपेक्षा का शिकार ही बनता रहा।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....

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