सोमवार, 25 अप्रैल 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 16

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की सोलहवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 16

34. नई दुनिया और राजस्थान पत्रिका से नौकरी का ऑफर

चंडीगढ़ छोड़ने से ठीक पहले मैंने कुछ अखबारों को नौकरी की इच्छा जाहिर करते हुए चिट्ठी लिख भेजी थी। उसपर पता  मैंने बिहार के अपने गांव का डाल दिया था। लौटकर मुंगेर पहुंचने के कुछ हप्ते बाद नई दुनिया,  इंदौर और राजस्थान पत्रिका, जयपुर से नौकरी के लिए बुलावे का टेलीग्राम आ गया। नई दुनिया के संपादक अभय छजलानी जी ने अपने भोपाल संस्करण के लिए नौकरी पर लेने की बात कही थी। उधर राजस्थान पत्रिका ने अपने जयपुर संस्करण में नौकरी का ऑफर दिया था। दोनों अखबारों ने अपने टेलीग्राम संदेश में लिखा था कि आने-जाने का दूसरे दर्जे का रेल और बस किराया दिया जाएगा। उन दिनों अखबारों के मालिकान पत्रकारों को कफी इज्जत बख्शते थे और उन्हें इज्जत के साथ किराया देकर बुलाते थे।

मैंने तय किया कि इंदौर भी जाना है और जयपुर भी। जहां तनख्वाह अधिक होगी वहां धुनी रमा लूंगा। मैं बिहार से सीधे इंदौर पहुंचा। वहां अभयजी ने बड़े प्रेम से बिठाया और बीकानेरी भुजिया के साथ चाय पिलाई। बातचीत शुरू हुई और उन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने अभी-अभी नई दुनिया का भोपाल संस्करण शुरू किया है। उन्होंने मुझे भोपाल में काम करने के लिए कहा। हमारी बातचीत काफी लंबी चली। अभयजी बात तो विभिन्न विषयों पर और तरह-तरह की करते रहे पर तनख्वाह कितनी देंगे इसपर वे कुछ नहीं बोल रहे थे। फिर मैंने ही पूछ लिया कि आप मुझे देंगे क्या। उन्होंने चंडीगढ़ जनसत्ता में मिलनेवाली तनख्वाह पूछी तो मैंने दो हजार बता दी। उस समय जनसत्ता चंडीगढ़ में मेरी तनख्वाह दो हजार को छू रही थी। मैंने सही बात बता दी। अभयजी ने कहा कि उनका अखबार जनसत्ता जितना बड़ा नहीं है इसलिए वे मुझे एक हजार रुपए ही दे पाएंगे। मैंने मना कर दिया। मेरे मना करने पर भी वे मुझे लगातार कई घंटे बिठाए रहे और बातचीत करते रहे और चाय और भुजिया का दौर भी चलता रहा। खींच-खांचकर तनख्वाह को उन्होंने 1100 रुपए तक पहुंचाया, पर इससे आगे वे नहीं बढ़ पाए। मैंने बार-बार उनको अपनी असमर्थता ही बताई। मैं मना करता रहा और वे मुझे मनाते रहे। फिर अंत में उन्होंने मुझे आने-जाने का किराया मेरे बताए अनुसार दिलवाया। वहां से विदा लेते समय उन्होंने मुझ से नई दुनिया का भोपाल दफ्तर भी देखते जाने का आग्रह किया और कहा कि अगर वहां काम करने का मन बने तो वहीं भोपाल दफ्तर से उनको सूचित कर दूं। उन्होंने मुझे भोपाल जाने का भी किराया अलग से दिलवाया। मैं इंदौर से बस लेकर भोपाल नई दुनिया के दफ्तर पहुंचा और वहां का डेस्क का कामकाज देखा। 

अभय छजलानी जी को मैं काम के लिए मना कर ही आया था सो फिर भोपाल से बस से ही जयपुर चल दिया। भोपाल बस अड्डे से शाम पांच बजे चली राजस्थान रोडवेज की मेरी बस पूरी रात दौड़ती रही और अगले दिन दोपहर करीब डेढ़ बजे पिंक सिटी जयपुर के बस अड्डे पहुंची। मध्य प्रदेश और राजस्थान में मैंने रोडवेज बसों का गजब का नेटवर्क देखा। बसों का यह जाल बिल्कुल पंजाब के रोडवेज नेटवर्क की तरह था। इनकी तुलना में बिहार रोडवेज का नेटवर्क कहीं नहीं ठहरता था। भोपाल से जयपुर जितनी लंबी दूरी की बस सेवा बिहार में मैंने नहीं देखी थी। सुनी तक नहीं थी। मैं बात आभी की नहीं उस समय की कर रहा हूं। जयपुर बस अड्डे पर मैंने रेलवे स्टेशनों की तरह बाकायदा शौचालय, स्नानागार, क्लॉक रुम और प्रतिक्षालय देखा। वहीं बस अड्डे पर मैंने क्लॉक रुम में अपना सामान रखा और फ्रेश हुआ। फिर शाम को राजस्थान पत्रिका के दफ्तर केसरगढ़ पहुंचा। अखबार का यह दफ्तर किसी राजमहल में था। वहां पत्रिका के मालिक कुलिशजी से मुलाकात हुई। कुलिशजी ने भी चाय और भुजिया खूब खिलाई और देर तर बातचीत करते रहे। छजलानी जी की तरह कुलिशजी ने भी मुझे खूब मनाया पर तनख्वाह में सिर्फ 900 रुपए देने की हामी भरी। बात आगे चलती रही तो उन्होंने सौ रुपए का ग्रेस और दे दिया। बस इसी पर उन्होंने फुलस्टॉप लगा दिया। बात बननी थी नहीं इसलिए मैंने मना कर दिया। उन्होंने दफ्तर से मुझे किराया दिलवाया और मैं फिर जयपुर बस अड्डे पहुंच गया। वहीं से मैंने दिल्ली की बस पकड़ी और दिल्ली से करोलबाग अपने मित्रों के घर चला गया। यहीं से फिर शुरू हुआ था दिल्ली में मेरा संघर्ष।   

35. मुंबई जनसत्ता में नौकरी

प्रभाष जी के आदेश पर मैंने जनसत्ता का दोबारा टेस्ट दिया। जनसत्ता का मेरा यह तीसरा टेस्ट था। इस टेस्ट के बाद एकाध महीने का समय फिर गुजर गया। फिर एक दिन जब मैं प्रभाष जी से मिला तो उन्होंने मुझसे कहा, “टेस्ट की आपकी कॉपी तो ठीक थी, पर मैं आपको यहां दिल्ली में अभी नहीं रख सकता। मैं आपको बंबई भेज रहा हूं। वहां राहुल देव हैं। आप जाइए। वहां कोलाबा के ससून डॉक में कंपनी का गेस्ट हाउस है। उसी गेस्ट हाउस में आपको रहना है। अपने सतीश पेडणेकर भी वहीं रह रहे हैं।“ उन्होंने तुरंत मेरे सामने ही बंबई के स्थानीय संपादक राहुल देव को फोन लगाया और उनसे कहा, “मैं गणेश प्रसाद झा को बंबई आपके पास भेज रहा हूं। इनको वहां डेस्क पर रखना है। इनको अपन ने चंडीगढ़ में रखा था। ये कई जगह काम कर चुके हैं और अच्छा काम जानते हैं और यहां फीचर और एडिट पेज पर लिखते रहते हैं।“ फिर प्रभाष जी ने एक सादे न्यूजप्रिंट कागज पर चंद लाइनों की एक चिट्ठी लिखी और उसे अपने पीए राम बाबू से लिफाफे में बंद करवाया। फिर वह चित्ठी मुझे देते हुए मुझसे बोले, “यह चिट्ठी राहुल देव को दे देना।“ उन्होंने आगे कहा, “मैं आपको वहां थोड़े समय के लिए भेज रहा हूं। फिर दिल्ली बुला लूंगा।“ फिर उन्होंने मुझसे पूछा, “बंबई जाने के लिए रेल टिकट लेने के लिए पैसे हैं या टिकट दफ्तर को ही लेना पड़ेगा।“ टिकट के लिए पैसे तो मेरे पास थे नहीं, पर मैं उनसे दफ्तर से टिकट कराने की बात नहीं बोल पाया। मैंने कहा कि टिकट के लिए पैसे की व्यवस्था मैं कर लूंगा।

प्रभाष जी के कमरे से निकलकर मैं बेसमेंट में जनसत्ता के डेस्क पर गया और अपने सभी साथियों को यह सूचना दी की प्रभाष जी ने मुझे बंबई जाने को कहा है। इस शुभ सूचना पर सभी साथियों को खुशी हुई। सबने मुझे शुभकामनाएं दी। इस सूचना से शंभूनाथ शुक्ल और अमरेंद्र राय साहब तो बहुत ही प्रसन्न हुए।

करोलबाग लौट कर घर पर मित्रों को जब बंबई जनसत्ता में नौकरी मिलने की यह खबर सुनाई तो सभी बहुत आनंदित हुए। मुझसे ज्यादा खुशी मेरे उन मित्रों को हो रही थी। प्रभाष जी ने मुझे वहां राहुल देव जी को देने के लिए अपने हाथ से लिखकर जो चिट्ठी सौंपी थी वह कोई साधारण चिट्ठी नहीं थी। वह तो एक नियुक्ति पत्र था। अजय श्रीवास्तव को उस चिट्ठी को लेकर बड़ी उत्सुकता हो रही थी कि आखिर प्रभाष जी ने उसमें क्या लिखा है। उन्होंने मुझसे कहा, “लिफाफे को खोलिए, इसे पढ़ते हैं क्योंकि यह आपके भविष्य का सवाल है। जान तो लीजिए कि इसमें क्या लिखा है।“ मेरे ना-ना करते अजयजी ने उस लिफाफे को बिना कोई क्षति पहुंचाए बड़ी बारीकी और सफाई से खोल दिया। फिर उस चिट्ठी को पढ़कर लिफाफे को अच्छी तरह चिपकाया गया। चिट्ठी में वही लिखा था जो प्रभाषजी ने मेरे सामने राहुलजी को फोन करके कहा था। पर उन्होंने एक लाइन और यह लिखी थी कि इनसे काम कराकर देख लेना। पर इस तरह बिना इजाजत उनका वह लिफाफा खोलना प्रभाष जी के आदेश और मुझ पर उनके भरोसे का उल्लंघन ही तो था जो हम सभी ने किया। फिर मैंने पांचजन्य में छपी अपनी कुछ रिपोर्टों का बकाया भुगतान लिया और कांग्रेस अखबार से भी मुझे कुछ पैसे मिल गए जिससे बंबई के रेल टिकट और बाकी के खर्चों का भी इंतजाम हो गया। जेब में बंबई के लिए कुछ पैसे भी बच गए। मुझे बंबई की ट्रेन पर बिठाने रवि प्रकाश, प्रेम प्रकाश, अजय श्रीवास्तव और के.ए.बद्रीनाथ नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उस ट्रेन तक साथ गए थे।

36. आंतरिक विरोध रही होगी वजह

मुझे जनसत्ता में दोबारा नौकरी देने में इतनी देरी होना, प्रधान संपादक प्रभाष जोशी जी का बार-बार मामले को टालना, मुझे बार-बार टेस्ट देने को कहना कुछ इस तरह के संकेत दे रहा था जिससे लगने लगा था कि प्रभाषजी के हाथ कुछ बंधे हुए से हैं और वे चाहकर भी मुझे दोबारा लेने का फैसला नहीं कर पा रहे हैं। शायद वे इसी वजह से मेरी प्रार्थना पर चुप रहते थे और बार-बार मुझे टाल रहे थे। उन्होंने मुझे भोपाल के अखबार चौथा संसार में नौकरी दिलाने का ऑफर दिया था पर दिल्ली जनसत्ता में नौकरी देने की मेरी प्रार्थना पर वे चुप हो जाते थे। शायद किन्हीं कारणों से वे मुझे दिल्ली से दूर रखना चाह रहे थे। भोपाल में चौथा संसार में नौकरी दिलवाने का ऑफर देते समय और बाद में बंबई जनसत्ता भेजते समय दोनों बार उन्होंने मुझसे कहा था कि यहां दिल्ली में जगह नहीं है। प्रभाष जी को मेरी परेशानियों से सहानुभूति तो थी, पर ऐसा लग रहा था कि शायद दफ्तर की किसी अंदरूनी राजनीति या किसी आंतरिक शक्ति की वजह से वे मेरे मामले में कोई फैसला नहीं कर पा रहे थे। वे बार-बार टालमटोल कर समय ले रहे थे शायद इसलिए कि इस बीच मुझे अपने प्रयासों से ही कहीं नौकरी मिल जाए और मैं जनसत्ता में नौकरी के लिए अपना प्रयास छोड़ दूं। इस मामले पर इंडियन एक्सप्रेस के कर्मचारी यूनियन से लंबे वक्त तक जुड़े रहे एक सज्जन ने मुझे कहा, “प्रभाष जी आपको दोबारा नहीं ले सकते क्योंकि अगर लिया तो डेस्क पर ही इसका विरोध हो जाएगा और लोग झंडा उठा लेंगे। और अगर कहीं इसमें यूनियन का साथ मिल गया तो फिर हड़ताल जैसी सूरत भी बन जा सकती है। प्रभाष जी ऐसा कोई रिस्क नहीं ले सकते इसलिए वे आपके मामले में चुप्पी साधे हुए हैं।“ उन सज्जन ने आगे कहा, “दिल्ली से बाहर के संस्करणों में प्रभाष जी जो चाहें कर लें, पर दिल्ली में उन्हें कर्मचारियों को साथ लेकर चलना होगा और उनकी इच्छाओं का सम्मान करना पड़ेगा।“ दफ्तर की अंदरूनी राजनीति जो भी हो, पर दिल्ली जनसत्ता के मेरे साथियों ने कभी भी किसी भी रूप में मेरा विरोध नहीं किया।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....

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गुरुवार, 21 अप्रैल 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 15


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की पंद्रहवीं किश्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 15

33. प्रभाष जोशी के आदेश पर दो बार टेस्ट 

चंडीगढ़ जनसत्ता से निकाले जाने के बाद मैं दिल्ली में रहकर नौकरी की तलाश कर रहा था। पर चंडीगढ़ जनसत्ता के स्थानीय संपादक जितेंद्र बजाज जी की ओर से य़ह कलंक चस्पा कर दिया जाना मुझे लगातार सालता और अपमानित महसूस कराता रहा था कि बिहार के लोगों को अंग्रेजी तो नहीं ही आती, हिंदी भी ठीक से नहीं आती। इसलिए मैं वहां प्रधान संपादक प्रभाष जोशी जी से बार-बार मिलकर उनसे यही अनुरोध करता रहता था कि मुझे अखबार का हर काम अच्छी तरह आता है और आप मुझे फिर से नौकरी पर रख लीजिए। चाहें तो पहले काम कराकर देख लीजिए। उन्हीं दिनों जनसत्ता का बंबई संस्करण शुरू होनेवाला था। जनसत्ता दिल्ली के वरिष्ठ साथी शंभूनाथ शुक्ल और अमरेंद्र राय ने मुझसे कहा कि जल्दी ही जनसत्ता का बंबई संस्करण आनेवाला है। प्रभाष जी से कहिए कि मुझे बंबई में रख लीजिए।

प्रभाष जी से मिलकर नौकरी मांगने का मेरा सिलसिला लगातार चल ही रहा था। एक बार प्रभाष जी ने मुझसे कहा, यहां जनसत्ता में तो जगह नहीं है, मैं आपको भोपाल भेज देता हूं। वहां अपने देवप्रिय अवस्थी जी चौथा संसार निकाल रहे हैं। यह अच्छा अखबार है। आप वहीं चले जाओ, मैं अवस्थी जी को बोल देता हूं। वहां कोई दिक्कत नहीं होगी।” पर मैंने उनसे हाथ जोड़कर विनती की कि वहां नहीं, मुझे आप जनसत्ता में ही रख लीजिए। मेरी इस विनती पर प्रभाष जी बोले, जनसत्ता की नौकरी फिर से पाने के लिए आपको फिर से टेस्ट देना होगा। मैं तुरंत राजी हो गया। मुझे भी लग रहा था कि चंडीगढ़ जनसत्ता का काम न आने का कलंक दोबारा टेस्ट देने और उसे पास करने से ही मिटेगा। फिर उन्होंने एक दिन मुझे टेस्ट देने के लिए बुला लिया। दिल्ली दफ्तर में ही मैंने जनसत्ता का करीब सात-आठ घंटे चलनेवाला प्रचलित और आईएएस की परीक्षा के टक्कर का माना जानेवाला बेहद कठिन टेस्ट दिया। टेस्ट अच्छा रहा और चंडीगढ़ में दिए टेस्ट से भी अव्वल रहा।

इसके बाद मैं उस टेस्ट के रिजल्ट और नौकरी की बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगा। पर काफी समय गुजर गया और इस बारे में कोई खबर नहीं मिली। मैं फिर प्रभाष जी से मुलाकात करने लगा और फिर से वही विनती दोहराने लगा। प्रभाष जी ने कहा कि उन्होंने अभी तक टेस्ट की मेरी कॉपी नहीं देखी। उन्होंने मुझे कहा, बनवारी जी से पता करो कि उन्होंने आपकी कॉपी देखी है या नहीं। पर जब बनवारी जी से पूछा तो वे बोले, आपकी कॉपी मेरे पास आई ही नहीं। दफ्तर में पता करो कहीं रखी हो तो भिजवाओ। पर मेरी उस टेस्ट कॉपी का दफ्तर में कहीं कोई आता-पता नहीं मिला। मैं फिर निराश हो गया। पर प्रभाष जी से मिलना और विनती करने का सिलसिला जारी रखा।

एक दिन देर शाम प्रभाष जी दफ्तर के बाहर सीढ़ियों पर मिल गए। वे घर लौट रहे थे। मैंने हाथ जोड़े तो उन्होंने मुझे दफ्तर की अपनी एंबेसेडर कार में पीछे की सीट पर अपने बगल में बिठा लिया। कार चली तो रास्ते में उन्होंने मुझे अपनी एक आपबीती सुनाई। उन्होंने कहा कि उनका बचपन भी बेहद गरीबी में बीता है। आर्थिक परेशानियों की वजह से उनकी पढ़ाई बाधित हुई। अपने खर्चे के लिए वे इंदौर में अंधों-बहरों के एक स्कूल में पढ़ाने का काम किया करते थे। उन्होंने मुझे संकट की इस घड़ी में हिम्मत से काम लेने को कहा। उन्होंने मुझे जमनापार लक्ष्मीनगर में छोड़ा जहां से मैं बस से करोलबाग अपने मित्रों के घर लौटा। फिर एक दिन प्रभाष जी ने मुझे कहा, टेस्ट की आपकी कॉपी मिल नहीं रही है इसलिए आप फिर से एक बार टेस्ट दे दो। मैंने फिर उन्हें हामी भर दी। फिर उन्होंने मुझे एक दिन टेस्ट के लिए बुलाया। मैंने तीसरी बार भी जनसत्ता का आईएएस की परीक्षा की बराबरी वाला वह कठिन टेस्ट दिया। 

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....



सोमवार, 18 अप्रैल 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 14

 

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की चौदहवीं किश्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 14

31. कांग्रेस पार्टी के अखबार में नौकरी

उन्हीं दिनों 1988 में कांग्रेस पार्टी ने दिल्ली से हिन्दी और अंग्रेजी में एक साप्ताहिक टेबसॉयड रिकाला था। अखबार का नाम था कांग्रेस। अखबार का दफ्तर शास्त्री भवन के पास डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद रोड की 14 नंबर कोठी में था। यह कोठी उस समय किसी कांग्रेसी सांसद को आवंटित थी। राजीव गांधी उन दिनों प्रधानमंत्री थे। जनसत्ता के एक वरिष्ठ साथी रहे परमानंद पांडेय उन दिनों उस अखबार में वरिष्ठ पद पर थे। उनके जरिए ही मैं वहां पहुंचा था। वहां मैंने करीब 5 महीने नौकरी की थी। फिर वहीं से बंबई जनसत्ता चला गया था। कांग्रेस उस समय सत्ता में थी इसलिए सत्ता के गलियारों में इस अखबार की उन दिनों खूब चलती थी। यह स्टॉल पर बिकनेवाला अखबार नहीं था। कांग्रेस पार्टी का मुखपत्र था इसलिए कांग्रेसी काडरों के बीच बिकता था। वहां काम करनेवालों के छोटे-मोटे काम तो बस यूं ही हो जाया करते थे। कई साथियों ने उन दिनों रसोई गैस का आउट-ऑफ टर्न कनेक्शन लिया था। सीधे पेट्रोलियम मिनिस्ट्री से आफर आया था कि किसी को रसोई गैस का कनेक्शन चाहिए तो एक अर्जी दे दे। उस समय रसोई गैस के कनेक्शन पर सात साल तक की वेटिंग होती थी।

अब अखबार कांग्रेस पार्टी का था तो खबरें भी पार्टी के नेताओं और पार्टी की गतिविधियों पर ही केंद्रित होती थी। सरकार देश में जो कुछ विकास का काम करती थी उस पर खबरें बनाई जाती थी। मेरे चीफ सब थे एल एन शीतल जी। बड़े सहज और सहृदय। अखबार के दफ्तर में कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता आया करते थे। वहां काम करनेवालों की 24 अकबर रोड तक सीधी पहुंच होती थी। यानी सीधे सत्ता तक पहुंच।

32. बिहार का भूकंप और पुलिस की मार

कांग्रेस अखबार में काम कर ही रहा था कि एक दिन नेपाल और बिहार में जोरदार भूकंप आया। तारीख थी 21 अगस्त, 1988 और समय था तड़के 4:39 बजे। रिक्टर स्केल पर भूकंप की तीव्रता 6.9 थी। भूकंप का केंद्र दरभंगा से करीब 80 किलोमीटर उत्तर की तरफ भारत-नेपाल सीमा पर था। 1934 के बाद भारत-नेपाल सीमा पर आनेवाला यह सबसे बड़ा भूकंप था। इस भूकंप से उत्तर-पूर्व के कई राज्य दहल गए थे। बिहार के अलावा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और सिक्किम में भी तबाही मची थी। पड़ोसी देश बांग्लादेश भी दहल गया था। इस भूकंप से बिहार में करीब 50 हजार मकान जमींदोज हो गए थे या फिर बुरी तरह दरक गए थे। लाखों घरों में दरारें आ गईं थीं। कई पुल भी ध्वस्त हो गए थे। पानी-बिजली की लाइनें तबाह हो गई थीं। सड़कों पर गहरी दरारें आ गई थी और रेल की पटरियां धंस गई थीं जिससे रेल और सड़क यातायात बुरी तरह प्रभावित हो गया था। कम से कम 50 हजार परिवार बेघर हो गए थे। इस भूकंप से बिहार में 650 लोगों की जान चली गई थी। अकेले दरभंगा में ही 200 से ज्यादा लोग मारे गए थे। दस हजार से ज्यादा लोग घायल हुए थे। बिहार में सबसे ज्यादा तबाही दरभंगा में हुई थी। 

दरभंगा में भारी तबाही की खबर ने मेरी चिंता बढ़ा दी। मैं पूरी तरह दहल गया। मुझे अपने घर-परिवार की चिंता सता रही थी क्योंकि मेरा गृह जिला मुंगेर भी सिस्मिक जोन में पांचवें नंबर पर आता है। परमानंद पांडेय जी ने मेरी पीड़ा समझी और तुरंत संपादकजी से बात करके मुझे एसाइनमेंट पर भूकंप कवर करने बिहार भेजने का फैसला किया। अगले दिन मुझे एडवांस मंजूर किया गया और मैं तुरंत ट्रेन से रवाना हो गया। उसी दिन दिल्ली के कई दूसरे अखबारों के पत्रकार भी कवरेज के लिए बिहार जा रहे थे। हमारे साथ नवभारत टाइम्स के वरिष्ठ साथी रामबहादुर राय, जनसत्ता के कुमार आनंद, पांचजन्य के रवि प्रकाश, अजित अंजुम और कई दूसरे साथी थे। पटना से सुधीर सुधाकर भी हमारे साथ आ गए थे।

हमें सीधे दरभंगा जाना था। हमारी अगुआई राय साहब कर रहे थे। हम द्रेन से पटना और फिर वहां से बस से दरभंगा पहुंचे। हम दरभंगा रात के करीब 9 बजे पहुंचे। तय हुआ कि हमलोग दरभंगा में राय साहब के एक परिचित के घर जाएंगे। और हो सका तो रात वहीं रुकेंगे। शहर पूरी तरह सदमें में था और बिल्कुल शांत था। बिजली गुल थी और हर जगह अंधेरा और सन्नाटा पसरा हुआ था। हम पैदल ही भूकंप से शहर में हुई तबाही का मुआयना करते हुए चले जा रहे थे। शहर में जिन-जिन मोहल्लों और गलियों से हम गुजरे, हर जगह हमने दरके हुए मकान ही देखे। लोग घरों के बाहर चारपाई डालकर बैठे थे और वहीं सोने की तैयारी कर रहे थे। पुरुष, महिलाएं और बच्चे सभी लोग घरों को बाहर ही थे। पूछने पर लोगों ने बताया कि दो रातों से वे घर के भीतर नहीं रह रहे क्योंकि भूकंप के झटके रह-रहकर अभी भी आ रहे हैं। इन झटकों से उनके दरके हुए मकानों के किसी भी समय ढह जाने का खतरा है।

हम आगे बढ़ते जा रहे थे। रास्ते में कुछ पुलिसवाले गश्ती करते मिले। पुलिसवाले अपनी जीप पर चल रहे थे। पुलिसवालों ने हमें रोका। पूछा, आपलोग इतनी रात कहां जा रहे हैं। शहर में धारा 144 लगी है और आपलोग रात के समय ग्रुप बनाकर चल रहे हैं। गश्ती दल का हवलदार कह रहा था कि पिछले दो दिनों से शहर में वीवीआईपी मूवमेंट हो रहा है जिसकी वजह से पूरा पुलिस महकमा परेशान है और आपलोग नियम का उल्लंघन कर रहे हैं। हमने उनको अपना परिचय दिया और दरभंगा आने का मकसद बताया। पर उस गश्ती दल का हवलदार चंद्रमा सिंह बेवजह हमसे उलझ पड़ा। किसी तरह उन्हें समझा बुझाकर शांत किया गया और मामले को टाला गया। हमलोग आगे बढ़े। मैंने जेब से अपनी नोटबुक निकाली और पुलिस जीप का नंबर नोट कर लिया। नंबर नोट करते देख हवलदार चंद्रमा सिंह बिदक गया। उसने अपनी बेंत से मुझे और सुधीर सुधाकर को बेवजह पीटना शुरू किया और हमें बहुत बुरी तरह पीट दिया। उसने कहा. दिल्ली से आए हैं तो क्या राजीव गांधी के सार (साले) लगते हैं। जाइए, जाकर कह दीजिएगा राजीव गांधी से कि चंद्रमा सिंङ ने मारा है। जो उखाड़ना हो उखाड़ लें।

पुलिस की पिटाई से हमारा बदन लहूलुहान हो गया। पीठ, कमर, जांघ और पैरों में हमें जबरदस्त चोटें आईं। हमें पीटकर पुलिसवाले चले गए। हमलोग वहां से कराहते हुए पैदल ही पूछते-पूछते दरभंगा मेडिकल कॉलेज अस्पताल पहुंचे जो वहां से कुछ ही दूरी पर था। वहां हमने अपना इलाज कराया और अपनी इंजुरी रिपोर्ट बनवाई। इतना कुछ होते-होते हमारी पिटाई की यह खबर वहां के स्थानीय पत्रकारों-संवाददाताओं तक पहुंच गई और कई स्थानीय पत्रकार अस्पताल में ही हमें देखने आ गए। फिर उन स्थानीय पत्रकारों के साथ हमलोग सीधे शहर के टाउन थाने गए और वहां अपनी रिपोर्ट लिखवाई। एफआईआर में हमने पुलिस के हवलदार चंद्रमा सिंह का नाम भी लिखवाया। उन पत्रकारों ने रात को ही इस घटना की खबर अपने-अपने अखबारों को पटना भेज दी। सुबह पटना के सभी अखबारों में यह खबर छप गई कि भूकंप की कवरेज के लिए दिल्ली से आए पत्रकारों को दरभंगा में पुलिस ने बुरी तरह पीट दिया। उस समय कांग्रेस के भागवत झा आजाद बिहार के मुख्यमंत्री थे। विधानसभा का सत्र भी चल रहा था। पटना में पत्रकारों ने इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री को विधानसभा में ही घेर लिया। मुख्यमंत्री ने इस घटना के लिए क्षमा मांगी और तुरंत मामले की जांच का आदेश दिया। उधर पटना में इतना कुछ होते देख दरभंगा के पुलिस अधीक्षक (एसपी) ने भी पत्रकारों के साथ हुई इस घटना के लिए माफी मांगी और हवलदार चंद्रमा सिंह और उनके साथ की गश्ती टीम के सिपाहियों को सस्पेंड कर दिया और विभागीय जांच बिठा दी।

हमलोग रात को राय साहब के परिचित के घर पर रुके। फिर सुबह से शाम तक शहर में घूमकर भूकंप की विनाशलीला देखी और पटना लौटकर आए। पटना से ही मैंने खबर फाइल की। पुलिस पिटाई की चोट इतनी ज्यादा थी कि मैंने बड़ी मुश्किल से पटना में रुककर दिल्ली खबर भेजी। फिर पटना से मैं सीधे मुंगेर अपने घर लौट आया और करीब दो हफ्ते तक वहीं रहकर चोट का इलाज कराता रहा। पुलिस के डंडे की उस चोट का दर्द कई महीनों तक असह्य तकलीफ देता रहा।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....

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गुरुवार, 14 अप्रैल 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 13


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की तेरहवीं किश्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 13

28. मित्रों की मदद और नौकरी के लिए संघर्ष

चंडीगढ़ से लौटने के बाद दिल्ली में नौकरी के लिए संघर्ष करने के दिनों में दिल्ली में रह रहे बिहार के मेरे कुछ पत्रकार मित्रों ने मेरी खूब और हर तरह से मदद की। इन मित्रों ने मुझे न केवल अपने घर में साथ रखा बल्कि अपने साथ ही मेरे खाने-पीने की भी व्यवस्था की। और तो और, इन सहृदय मित्रों ने दिल्ली में नौकरी तलाशने के लिए अखबारों के दफ्तर आने-जाने के लिए जब-तब मेरे लिए बस के किराए आदि का भी बोझ उठाया। इनमें उन दिनों साप्ताहिक वैचारिक अखबार पांचजन्य में काम कर रहे मुजफ्फरपुर के रवि प्रकाश, उनके छोटे भाई प्रेम प्रकाश, उत्तर प्रदेश के अजय श्रीवास्तव, बिहार के पत्रकार अजित अंजुम और आर्गनाइजर अखबार में काम कर रहे आंध्र प्रदेश के पत्रकार के.ए. बद्रीनाथ थे। ये सभी पत्रकार दिल्ली के करोलबाग के देवनगर में किराए के एक मकान में एक साथ रहते थे। रवि प्रकाश जी ने सबकी सहमति से मुझे भी अपने साथ रख लिया। कांग्रेसी नेता और पूर्व राज्यसभा सांसद संजय निरूपम भी उस समय पांचजन्य में ही पत्रकार थे और उसी मकान में रहते थे। उस समय हम सारे लोग युवा थे।

29. पांचजन्य का सहारा

पांचजन्य में नौकरी दिलवाने के इरादे से रवि प्रकाश जी मुझे एक दिन पांचजन्य के संपादक भानु प्रताप शुक्ल जी से मिलवाने झंडेवालान स्थित उनके आवास केशव कुंज ले गए। मुलाकात के बाद भानुजी ने मुझे अखबार के दफ्तर भी बुलाया। वे मुझे तत्काल नौकरी तो नहीं दे पाए, पर एसाइनमेंट पर नियमित लिखते रहने की व्यवस्था जरूर कर दी। मैं संघी नहीं हूं। कभी संघ की शाखा में नहीं गया। और वामपंथियों से भी मैंने कभी नाता नहीं जोड़ा। संकट में संयोग से एक सहारा मिला तो मैं पांचजन्य में लिखने लगा। संपादक भानुजी ने मेरे लिए ऐसी व्यवस्था कर दी कि रिपोर्टें छपने के तुरंत बाद मुझे उसके पारिश्रमिक का नकद भुगतान मिल जाने लगा। इससे मुझे अपने दौड़-धूप के फुटकर खर्चों में काफी मदद मिलने लगी। उन दिनों दिल्ली में डीटीसी की बसों में किराया रुपया-आठ आना ही हुआ करता था। एक बार कड़की में कम पैसे का टिकट लेकर ही डीटीसी की बस में बैठ गया था और पकड़ लिया गया था तो बीस रुपए का जुर्माना भरना पड़ा था। उसी भयंकर कड़की में एक बार जनसत्ता के दफ्तर में प्रभाष जी से मिलकर शाम को आईटीओ से करोलबाग लौटते समय बस में किसी जेबकतरे ने जेब से बटुआ निकाल लिया था। रविजी ने सुना तो अगले दिन उन्होंने बस किराए के लिए बीस रुपए दिए। रविजी आदतन अक्सर मुझसे पूछ लिया करते थे कि बस के किराए के लिए पैसे जेब में हैं या नहीं। रविजी ने उन दिनों मेरी मदद के लिए जो किया वह कोई नहीं करता। रविजी ने अगर मदद नहीं की होती तो न तो मैं नौकरी ढूंढने के लिए दिल्ली में टिक पाता और न बंबई जनसत्ता जाने की ही कोई स्थिति बनी होती। चंडीगढ़ जनसत्ता से लौटने के बाद मैं अपने गांव में ही पड़ा रह जाता। मेरी स्थिति ऐसी बिल्कुल नहीं थी कि मैं घर से कोई मदद मंगाता क्योंकि पिताजी कई साल पहले ही गुजर चुके थे और घर में आमदनी का कोई जरिया नहीं था। परिवार के लोग तो घर चलाने के लिए मेरे पैसे की बाट जोहते थे। उन दिनों मैं तो यही सोचता रहता था कि अगर पटना से पाटलिपुत्र टाइम्स की परमानेंट नौकरी छोड़कर चंडीगढ़ जनसत्ता नहीं गया होता तो आज ये बुरे दिन न देखते पड़ते। जितेंद्र बजाज ने मुझे कहीं का नहीं रहने दिया था। मैंने उनका कुछ नहीं बिगाड़ा था। मैंने उनके सम्मान में भी कभी कोई कमी नहीं की थी। फिर भी उन्होंने मुझे इतनी कड़ी सजा दे दी। ऐसे में एक ब्राह्मण क्या उन्हें कभी आशीर्वाद देता। फिर भी मैंने उनका मन से भी कभी बुरा नहीं सोचा।

करोलबाग के देवनगर वाले घर में मित्र बद्रीजी बहुत स्वादिष्ट सांभर बनाते थे। बाकी किसी को सांभर बनाना नहीं आता था। सो जब कभी सांभर-चावल खाने की सबकी राय होती थी तो सांभर बद्री जी ही बनाते थे। रविजी के पिता बिहार के मुजफ्फरपुर में रेलवे के अधिकारी थे। वे अक्सर अपनी ड्यूटी में दिल्ली आते रहते थे। रविजी की माताजी मुजफ्फरपुर से ठेकुआ और गुजिया वगैरह बनाकर भेजती रहती थी। रविजी के साथ कई बार मैं भी वह पैकेट लेने नई दिल्ली स्टेशन जाया करता था। हम सारे लोग बिहार से आए उन स्वादिष्ट पकवानों का आनंद लेते थे। हमारे उस कमरे में एक ब्लैक-एंड ह्वाइट टीवी भी था। रविवार को पांचजन्य और ऑर्गनाइजर में सबकी छुट्टी होती थी और दोपहर को जल्दी-जल्दी खाना खत्म करके सभी लोग दूरदर्शन पर फिल्म देखा करते थे। हम खाली समय में पत्रकारिता और देश की राजनीति पर आपसे में गंभीर चर्चाएं भी किया करते थे। मेरे वहां रहते कभी-कभार आरएसएस के विचारक गोविंदाचार्य, राम कुमार भ्रमर, सुंदरलाल पटवा और कई दूसरे चिंतक भी वहां आ जाया करते थे। वैचारिक तौर पर वहां एक अच्छा इंटेलेक्चुअल माहौल होता था।

30. जनसत्ता का दिल्ली स्थित मुंगेर संवाददाता

संकट के उस दौर में मेरे लिए बिना नौकरी के दिल्ली में टिके रहना बड़ा कठिन था। जनसत्ता दिल्ली के डेस्क और रिपोर्टिंग के सभी साथी काफी आत्मीय थे। उनका व्यवहार मेरे लिए ऐसा था जैसे मैं दिल्ली जनसत्ता का ही स्टाफ हूं। मेरा हर रोज जनसत्ता दफ्तर जाना होता ही था। कोशिश हमेशा प्रभाष जी से मिलते रहने और उन्हें अपनी दिक्कतें बताते रहने और नौकरी मांगते रहने की होती थी। जनसत्ता के प्रोविंशियल डेस्क के इंचार्ज मुख्य उप संपादक शंभूनाथ शुक्ल जी थे। उनकी टीम में थे गाजीपुर के पत्रकार अमरेंद्र राय और बिहार के संजय कुमार सिंह। तमाम हिन्दी प्रदेशों के जिलों की खबरें शंभू जी के पास ही पहुंचती थी। मेरी मुफलिसी देखकर उन्होंने मुझसे कहा कि मैं अपने मुंगेर जिले की खबरें लिखकर दे दिया करूं। वे उन्हें छाप दिया करेंगे औऱ इस तरह मुझे उसका भुगतान मिल जाया करेगा तो मेरी कुछ मदद हो जाएगी। अमरेंद्र राय साहब ने सुझाया कि मुंगेर से किसी से वहां की खबरें मंगा लिया करूं और आईएनएस में कुछ रीजनल अखबारों से मुंगेर की कुछ ऐसी खबरें निकाल लिया करूं जिसे फिर से री-राइट कर खबर बनाई जा सके। फिर मैंने वहीं दिल्ली में रहते हुए मुंगेर की खबरें लिखने लगा। खबरें लगातार छपने भी लगीं। उन दिनों जनसत्ता में लगभग रोज मुंगेर की एक खबर होती थी। कोई सोच भी नहीं सकता था कि दिल्ली में रहकर कोई 1300 किलोमीटर दूर स्थित मुंगेर का संवाददाता कैसे हो सकता है। पर मैं था। प्रधान संपादक प्रभाष जोशी जी भी मेरी मदद के लिए प्रोविशिंयल डेस्क की तरफ से की गई इस विशेष व्यवस्था को जानते थे। यह सिलसिला मुझे नियुक्ति देकर बंबई जनसत्ता भेजे जाने तक अनवरत चलता रहा।

– गणेश प्रसाद झा

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शनिवार, 9 अप्रैल 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 11

 एक पत्रकार की अखबार यात्रा की ग्यारहवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 11

22. चरम पर सिख आतंकवाद

सिखों के लिए एक अलग देश बनाने के इरादे से चलाए जा रहे खालिस्तान आंदोलन की वजह से उन दिनों पूरे पंजाब में सिख आतंकवाद बिल्कुल अपने चरम पर था। आतंकवादियों का नियंत्रण उनके दिवंगत सरगना संत जरनैल सिंह भिंडरांवाले के अनुयाइयों के हाथ में था। आतंकवादी रोज कत्लेआम मचाते थे। रोडवेज की बसों को रास्ते में कहीं भी रोककर हिंदुओं को नीचे उतार लेते थे और बाकी सवारियों समेत बस को आगे रवाना कर देते थे। फिर उन हिन्दू मुसाफिरों को वहीं सड़क किनारे गोलियों से भून दिया जाता था। ऐसी दर्जनों घटनाओं की दर्दनाक खबरें हमने अखबार में छापी थी। दफ्तर में खालिस्तानी आतंकवादियों का प्रेसनोट आता था। आतंकवादी उसे छापने का निर्देश दे जाते थे। पर हमने कभी उसे छापा नहीं। आतंकवादी चोरी छिपे अंग्रेजी में एक टेबलॉएड अखबार खालिस्तान टाइम्स भी निकालते थे और उनका यह प्रोपेगेंडा अखबार प्रतिबंधित था फिर भी आतंकवादी उसे अखबार के दफ्तरों को भिजवाते थे। इन खालिस्तानी आतंकवादियों ने भारत सरकार को डराने और उसपर दबाव डालने के लिए अपना करेंसी नोट भी छाप लिया था। आतंकवादियों को आतंकवादी शब्द लिखने पर कड़ा एतराज था। आतंकवादियों ने अखबारों को प्रेस रिलीज भेजकर इस पर आपत्ति जताई थी औऱ धमकियां भी दी थी। स्थानीय संपादक जितेंद्र बजाज ने आतंकवादियों का निर्देश मानते हुए आतंकवादी शब्द लिखने पर पाबंदी लगा दी थी और उसकी जगह खाड़कू लिखने का निर्देश दिया था। जितेंद्र बजाज ने आतंकवादियों की बात मान ली औऱ उनके ही दिखाए रास्ते पर चल पड़े। और इस तरह जनसत्ता में हम उन खूंखार और जल्लाद आताताई आतंकवादियों को खाड़कू ही लिखने लगे थे। पंजाबी भाषा में खाड़कू का मतलब होता है बहादुर व्यक्ति, अच्छे कामों के लिए लड़नेवाला, अपने अधिकारों के लिए लड़नेवाला इत्यादि। और इस तरह जितेंद्र बजाज ने उन खूंखार आतंकवादियों को अच्छे उद्देश्यों के लिए लड़नेवाला बहादुर व्यक्ति घोषित कर दिया। जाहिर है उनके इस कदम से आतंकवादी खुश ही हुए होंगे। जितेंद्र बजाज अपने इस कदम को सराहनीय बताते थे और खुद ही अपनी पीठ ठोकते थे। बजाज जी कहते नहीं अघाते थे कि उन्होंने आतंकवादियों को जब से खाड़कू लिखना शुरू किया तब से आतंकवादियों की तरफ से अखबार को कोई धमकी नहीं आई।

पंजाब में आतंकवाद इस कदर हावी था कि कभी भी कहीं भी गोलियां चलने लगती थीं। चंडीगढ़ केंद्र शासित प्रदेश होने के साथ-साथ दो राज्यों पंजाब और हरियाणा की राजघानी भी था इसलिए वहां सुरक्षा व्यवस्था काफी मजबूत थी। फिर भी चंडीगढ़ आतंकवाद की जद में था। राज्य की पुलिस के साथ-साथ चडीगढ़ पुलिस भी लगभग रोज ही आतंकवादी हमले का अलर्ट जारी करती थी। एजेंसी के टिक्कर पर अलर्ट की खबर चलती थी जिसमें चंडीगढ़ के इलाकों में भी हमले का खतरा और सुरक्षा व्यवस्था और पुख्ता करने की बात होती थी। यह लगभग रोज का रूटीन बन सा गया था। हम जब आधी रात के बाद अखबार फाइनल करके दफ्तर से निकलते थे तो दफ्तर की गाड़ी हमें हमारे रहने के ठिकानों और घरों तक छोड़ती थी। सबको घर पहुंचाने के चक्कर में हम हर रात शहर का लगभग चक्कर लगा ही लेते थे। हमारे अंदर काफी डर होता था, पर हम शहर की सुरक्षा व्यवस्था पर नजर डालते निकलते थे। कई बार हम देखते थे कि शाम को अलर्ट आता था पर रात को सुरक्षा कहीं भी पुख्ता नहीं होती थी। सब कुछ आम दिनों की तरह ही चल रहा होता था। सिर्फ मीडिया में ही अलर्ट होता था। शायद सिर्फ हमें बताने के लिए कि शहर की पुलिस बहुत चौकस है।

राजीव मित्तल काफी हंसमुख, दिलदार और फक्कड़ किस्म के इंसान थे। हमें चंडीगढ़ शहर में एकाध हफ्ते ही हुए थे। उस समय हम सभी सेक्टर-20 के अग्रवाल धर्मशाला में ही थे। रात को दफ्तर से लौटने के कोई घंटे-डेढ़ घंटे बाद राजीव ने हम लोगों से कहा, “यार चलो 17 सेक्टर चलते हैं। चाय पीकर आते हैं। टहलते हुए चलेंगे।“ उसकी इस बात पर हममें से सभी एक-दूसरे को देखने लगे। हमने कहा कि शहर में कर्फ्यू जैसे हालात हैं, आतंकवादी हमले का अलर्ट भी है। ऐसे में रात को जान जोखिम में क्यों डालना चाहते हो। पर राजीव ने कहा, “तुम्हें डर लग रहा है। कुछ नहीं होता। पुलिसवालों से मैं निपट लूंगा। चलो घूम कर आते हैं। मजा आएगा।“ बस हम सारे लोग जो करीब 10-12 थे, चाय पीने सेक्टर-17 चल पड़े। सेक्टर 17 चंडीगढ़ का एक पॉश मार्केट है। समझने के लिए इसे आप दिल्ली के कनॉट प्लेस का छोटा सा रूप मान लीजिए। हम निकल पड़े। जगह-जगह पुलिस की पिकेट थी और हर जगह रात का सन्नाटा था। उस सन्नाटे को चीरते हम चले जा रहे थे। आतंकवाद से लड़ने के लिए तैनात सेना के जवानों और पुलिसवालों को भी हम पर आश्चर्य हो रहा था। सुरक्षाबलों ने हमें रोका तो नहीं पर पत्रकारों की टोली जानकर इतना जरूर कहा कि यहां इस तरह रात को बाहर निकलना खतरे से खाली नहीं है। हम सेक्टर-17 गए। वहां रात को चलनेवाला चाय का ठीया भी मिला। हम चाय पीकर ही लौटे। राजीव का कहना था कि किसी नए शहर को समझने के लिए वहां रात को घूमने निकलना जरूरी होता है। फिर तो हम हफ्ते में एकाध रात इस तरह टहलने निकल ही जाया करते थे। रात की हमारी यह यायावरी अग्रवाल धर्मशाला छोड़ने तक जारी रही थी।

23. सेक्टर-17 की आइसक्रीम

जिस दिन हमने जनसत्ता का रिटेन टेस्ट दिया था उस दिन भी शाम को हम पांच लोगों की एक टुकड़ी सेक्टर-17 गई थी। पंजाबी जुबान वाले इसे सतारा सेक्टर बोलते थे। हमारी टीम में मैं, प्रियरंजन भारती, कुमार रंजन, हरजिंदर और राजीव मित्तल कुल पांच लोग थे। राजीव को लखनऊ में ही किसी ने बताया था कि चंडीगढ़ के सेक्टर 17 में आइसक्रीम की बढ़िया पार्लर यानी दुकान है। सो राजीव ने कहा था चलो ढूंढ़ते हैं वह दुकान। और हमने वहां जाकर शानदार आइसक्रीम खाई थी। मैंने उससे पहले आइसक्रीम की ऐसी बड़ी दुकान नहीं देखी थी और न उस तरह की शानदार आइसक्रीम कभी खाई थी। आइसक्रीम काफी महंगी थी पर थी लाजवाब। उतने ही खूबसूरत थे आइसक्रीम के बड़े-बड़े बॉवेल और उसे रखने का डीप फ्रीजर जिसमें अलग-अलग बॉवेल में अलग-अलग रंगों और फ्लेवर के आइसक्रीम रखे हुए थे।

राजीव मित्तल का परिचय हिन्दी ट्रिब्यून के सहायक संपादक रमेश नैयर से पहले से था। जिस दिन हमें नियुक्ति पत्र दिया गया था उस दिन शाम को हम पांच लोग शहर का मुआयना करने निकल पड़े थे। सबसे पहले हम लोग नैयर साहब से मिलने ट्रिब्यून के दफ्तर गए थे। हमें मन में यह डर भी लग रहा था कि कहीं हमारे दफ्तर को यह पता न लग जाए कि हम अपने प्रतिद्वंदी अखबार के दफ्तर गए थे। नैयर साहब जनसत्ता में हमारी नियुक्ति से बहुत प्रसन्न हुए थे और उन्होंने हमारे लिए तुरंत मिठाइयां मंगवा ली थी। बाद में नैयर साहब से हमारी काफी घनिष्टता हो गई थी और हम उनसे मिलने उनके घर भी चले जाते थे। कई बार नैयर साहब घर में अकेले होते थे तो वे खुद ही हमारे लिए चाय बनाने लगते थे। नैयर साहब हमें भारत-पाक विभाजन के समय की आंखों देखी भी सुनाते थे। वे अपनी आंखों देखी सुनाते थे कि कैसे एक समय में पंजाब के हिंदू मंदिरों में भगवद्गीता के साथ-साथ गुरु ग्रंथ साहब भी रखा होता था और मंदिर का हिंदू पुजारी ही गुरु ग्रंथ साहिब का भी पाठ किया करता था। यह उन्होंने उस समय सुनाया था जब सिख आतंकवादियों की ओर से एक बयान आया था जिसमें उन लोगों ने कहा था कि “हम हिन्दू नहीं हैं।“

24. एके-47 का खौफ

आतंकवाद की वजह से उन दिनों चंडीगढ़ के साथ-साथ पूरे पंजाब में स्कूटर और मोटरसाइकिल पर दो सवारियों के बैठने यानी पिलियन राइडिंग पर कड़ी रोक थी। सिर्फ महिलाओं को ही पीछे बिठाने की छूट थी। उन्हीं दिनों वहां के एक पत्रकार ने एक आंखों देखी घटना सुनाई थी। बात चंडीगढ़ के सेक्टर-17 की ही है। रात का समय था और हर जगह सुरक्षाबल अपनी ड्यूटी पर मुस्तैद थे। एक मोटरसाइकिल आया। उसे एक सरदार चला रहा था और दूसरा सरदार पीछे बैठा था। पीछेवाले ने कंबल ओढ़ रखा था। बाइक एक पिकेट के बैरियर पर रुकी। वहां तैनात सुरक्षाबलो नें धड़ाधड़ अपनी कारबाइनें और एके-47 उस बाइक की तरफ तान दी। बाइक चालक ने कहा कि वह मरीज को अस्पताल ले जा रहा है। पर सुरक्षाबलों को शक हो रहा था इसलिए उन्होंने बैरियर उठाने से मना कर दिया। बाइक चालक अड़ गया कि जाना है तो जाना है। सुरक्षाबलों ने पीछे बैठे सरदार से शरीर पर से कंबल हटाने को कहा। सरदार तैयार नहीं हुआ। उसने कहा कि उसे तेज बुखार है इसलिए उसने कंबल ओढ़ रखा है। सुरक्षाबल के जवानों ने उस बाइक को घेर लिया। फिर कंबल उतरवाया गया। उसके कंबल उतारते ही सारे जवान सन्न रह गए। पीछे बैठे सरदार के गले में लोडेड एके-47 लटक रहा था। सुरक्षाबलों ने उस बाइक चालक से कहा, “हां यार, तेरा साथी तो सच में बहुत बीमार है। जा इसे ले जा अस्पताल।“ और बाइक सर्र से आगे बढ़ गई।

मेरे साथी प्रियरंजन भारती सेक्टर 32डी में एक सरदार जी के मकान में दूसरे माले (दूसरी मंजिल) पर रहते थे और रोज रात को 2 बजे अखबार छूटने के बाद अपनी साइकिल से घर लौटते थे। रास्ता ट्रिब्यून अखबार के दफ्तर के सामने की सड़क से होकर जाता था। वहां भी लड़कों के किनारे सुरक्षाबलों के बंकर बने हुए थे। एक रात बंकर के एक जवान ने उनपर अपनी कारबाइन तान दी और रुक जाने को कहा। फिर दोनों हाथ ऊपर करके बंकर की तरफ बढ़ने को कहा। फिर उनकी तलाशी ली गई। फिर उनसे परिचय पूछा गया। पूछा इतनी रात कहां से आ रहे हो और कहां जा रहे हो। प्रियरंजन जी ने जब पत्रकार होने का अपना परिचय दिया तब जाकर उन पर तनी हुई कारबाइन हटी। संतरी बोला इतनी रात मत चला करो। पर हमारा तो काम ही रात का था। सो प्रियरंजन जी ने रात को भी साइकिल से घर जाना जारी ही रखा। बाद में धीरे-धीरे सुरक्षाबल वाले भी पहचानने लग गए।

– गणेश प्रसाद झा

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पत्रकारिता की कंटीली डगर- 12


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की बारहवीं किश्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 12


25, पंजाबी संपादक का हिन्दी पट्टी से बैर

चंडीगढ़ जनसत्ता में हमारे स्थानीय संपादक जितेंद्र बजाज (जितेंद्र कुमार बजाज) कई मामलों में बहुत ही अहंकारी और काफी बायस्ड इंसान थे। बजाज जी पंजाब के थे। वे हिंदी पट्टी के लोगों को बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। उन्हें सिर्फ पंजाब, हरियाणा और हिमाचल के लोग ही अच्छे लगते थे। ज्ञान, भाषा शैली और समझदारी भी उन्हें उन राज्यों के लोगों की ही अच्छी लगती थी। उनका मानना था कि बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों को अंग्रेजी तो नहीं ही आती, हिंदी भी ठीक से नहीं आती। वे कई बार अपनी इस दुर्भावना का खुलेआम बोलकर इजहार भी किया करते थे। पर वे मध्य प्रदेश के लोगों की भाषा को लेकर कभी कुछ नहीं बोलते थे। इसका एक मात्र कारण था कि हमारे प्रधान संपादक प्रभाष जोशी जी मध्य प्रदेश के थे। प्रभाष जोशी जी ने पत्रकारिता भी अपने गृह राज्य मध्य प्रदेश से ही शुरू की थी। प्रभाष जी इंदौर के प्रतिष्ठित अखबार नई दुनिया के बहुचर्चित पत्रकार रहे थे। हिन्दी भाषा के मामले में नई दुनिया एक मानक अखबार माना जाता है। इसलिए मध्य प्रदेश और वहां के लोगों की भाषा पर कोई टिप्पणी करने की जितेंद्र बजाज जी की कभी हिम्मत नहीं होती थी। जितेंद्र बजाज पंजाब के मुक्तसर जिले के गिद्दड़बाहा के रहनेवाले थे और इसलिए पंजाबियों की अंग्रेजी और हिंदी भाषा की उनकी समझ को ही वे सर्वश्रेष्ठ मानते थे। बाकी हरियाणा और हिमाचल के लोगों से उन्हें कभी कोई शिकायत नहीं रहती थी। इसलिए बिहार के हम दो पत्रकार- मैं और प्रियरंजन भारती शुरू से ही उनके निशाने पर आ गए। लखनऊ के राजीव मित्तल से भी उनका अक्सर पंगा होता रहता था। छोटी-छोटी बातों पर दोनों की अक्सर भिड़ंत हो जाती थी। यह भिड़ंत दफ्तर से लेकर उनके घर तक भी जारी रहती थी। पर राजीव मित्तल उन्हें कभी हावी नहीं होने देते थे। राजीव मित्तल नवभारत टाइम्स के लखनऊ संस्करण से आए थे। प्रभाष जी ने उनको मुख्य उप संपादक की जिम्मेदारी दे रखी थी।

प्रभाष जोशी जी ने चंडीगढ़ में हम सबको काफी ठोक-बजाकर नौकरी पर रखा था। हममें से हर कोई कहीं न कहीं से अखबार की जमी-जमाई नौकरी छोड़कर ही चंडीगढ़ जनसत्ता आया था। पर जितेंद्र बजाज जी अपने अहंकार और गुरूर में प्रभाष जी को सुपरसीड करते हुए उनके चयन को कबाड़ा बताने लगे थे। दरअसल, जितेंद्र बजाज ही पत्रकारिता के लिए एक कबाड़ थे। उनको पत्रकारिता का रत्ती भर का भी अनुभव नहीं था। वे फिजिक्स में पीएचडी थे और विद्वान थे। अखबारों में कभी-कभार लेख लिखा करते थे। वह भी जनसत्ता का संपादक बनने के बाद। बस यही उनकी कुल जमा पत्रकारिता थी। वे न्यूज के आदमी बिल्कुल ही नहीं थे। और अखबार के लिए न्यूज का आदमी होना पहली शर्त होती है। कोई भी वैज्ञानिक, फिजिसिस्ट, रसायनशास्त्री, गणितज्ञ, फिजिसियन, कॉर्डियोलॉजिस्ट या साहित्यकार किसी अखबार का सफल पत्रकार या संपादक नहीं हो सकता। सबकी महत्ता अपनी-अपनी जगह पर है। सभी अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ होते हैं।

चंडीगढ़ जनसत्ता का स्थानीय संपादक इंडिया टुडे के वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह को बनाना तय कर लिया गया था, पर जब उन्होंने अंतिम क्षणों में चंडीगढ़ नहीं जाने का फैसला कर लिया और कुछ समय तक मान-मनव्वल करने के बाद भी जब वे आने को राजी नहीं हुए तब जाकर आनन-फानन में जितेंद्र बजाज को नियुक्त कर लिया गया। बजाज जी की तो मानो लॉटरी लग गई। न कोई टेस्ट, न कोई कसौटी। न पत्रकारिता का कोई अनुभव। बस रख लिए गए और बना दिए गए स्थानीय संपादक। चंडीगढ़ जनसत्ता के हमारे समाचार संपादक देवप्रिय अवस्थी स्थानीय संपादक के लिए सबसे योग्य व्यक्ति थे। अगर उन्हें स्थानीय संपादक बना दिया गया होता तो वे वहां जनसत्ता को बुलंदियों पर ले गए होते और अखबार की ऐसी गत कभी न हुई होती जो जितेंद्र बजाज जी ने अपने आने के थोड़े ही दिनों में बना दी। देवप्रिय अवस्थी जी में अखबार के कामकाज की गजब की क्षमता थी और उन्हें इसका काफी लंबा अनुभव भी था। वे जनसत्ता के सांचे में पूरी तरह से ढले हुए व्यक्ति भी थे।      

प्रधान संपादक प्रभाष जोशी ने स्थानीय संपादक जितेंद्र बजाज को चंडीगढ़ जनसत्ता के कामकाज के मामले में फ्री हेंड दे दिया था। हमारी नियुक्ति के समय तो कोई स्थानीय संपादक था ही नहीं। जितेंद्र बजाज तो बहुत बाद में आए थे। पर आते ही उन्होंने खुद को मिले इस फ्री हेंड अधिकार का बेजा इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। वे अपनी लाइन बड़ी करने के लिए प्रधान संपादक को कुछ करके दिखाना चाहते थे। सो उन्होंने मुझे और प्रियरंजन भारती को बात-बात में नीचा दिखाना और निकम्मा साबित करने का प्रयास करना शुरू कर दिया। उन्होंने कई बार प्रधान संपादक प्रभाष जोशी जी को यह लिख भेजा कि गणेश प्रसाद झा और प्रियरंजन भारती को काम नहीं आता और इनकी हिंदी और अंग्रेजी दोनों बेकार है। बार-बार ऐसी चिट्ठी भेज-भेजकर वे प्रधान संपादक की नजर में हम दोनों को नकारा साबित करते रहे। हमारे बारे में कोई फैसला करने से पहले प्रभाष जी एक बार चंडीगढ़ आए और डेस्क पर बैठकर चुपचाप हम दोनों की कॉपियां अपनी स्टाइल में देख भी गए। उन्हें वैसा कुछ देखने को नहीं मिला जैसा जितेंद्र बजाज जी उनको बार-बार फीड कर रहे थे। हमलोग सभी उस समय छह-चह महीने के प्रोबेशन पर चल रहे थे। जितेंद्र बजाज ने हम दोनों को छह महीने के इस प्रोबेशन पीरियड के अंदर ही निकाल देने की योजना बना रखी थी। पर प्रभाष जी हम दोनों का काम आकर अपनी आंखों देख गए थे सो वे हमें नौकरी से हटाने के वारंट पर दस्तखत करने को राजी नहीं हुए। लिहाजा छह महीने का हमारा प्रोबेशन पीरियड खुशी-खुशी गुजर गया। हम अपनी कनफर्मेशन का इंतजार करने लगे। पर हमें कनफर्मेशन की चिट्ठी नहीं दी गई। इसके बाद हम दोनों को दिनांक- 20-10-1987 को जारी एक चिट्ठी दी गई जिसमें हमारा प्रोबेशन पीरियड और दो महीनों को लिए बढ़ा दिया गया। नियुक्ति वाला हमारा छह महीने का पहला प्रोबेशन दिनांक- 22-10-1987 तक का था। इसे और दो महीनों के लिए बढा दिया गया। इस तरह कनफर्मेशन की चिट्ठी मिलने का हमारा इंतजार फिलहाल खत्म हो गया। हम सोचने लगे कि अब दो महीने बाद ही हमें कनफर्मेशन की चिट्ठी दी जाएगी।

इस बीच, जितेंद्र बजाज ने प्रभाष जोशी को हमारे खिलाफ कान भरने और हमें नकारा साबित करते रहने का अपना अभियान भी जारी ही रखा। आखिरकार प्रभाष जोशी जी ने जितेंद्र बजाज की बात मान ली और हमें हटाने के वारंट पर हस्ताक्षर कर दिया। बस फिर क्या था, हमें दिनांक- 23-12-1987 को एक चिट्ठी दी गई जिस पर दिनांक- 23-11-1987 की तारीख पड़ी थी। यानी वह चिट्ठी एक महीने पहले ही जारी हुई थी और हमें एक महीने बाद दी गई। यह हमें नौकरी से निकाले जाने की चिट्ठी थी। इस चिट्ठी में लिखा था कि हमारी नौकरी दिनांक- 23-12-1987 से समाप्त कर दी गई है। बाद में मैंने पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट में लेबर लॉ के मामले देखनेवाले एक जानकार वकील से इस बारे में पूछा था तो उन्होंने बताया था कि आप किसी नौकरी में अगर 6 महीने का प्रोबेशन पीरियड सकुशल पार कर लेते हैं और इस अवधि के बाद भी वहां नौकरी में बने रहते हैं यानी 6 महीने के प्रोबेशन से एक-दो दिन भी ज्यादा काम कर लेते हैं तो फिर 6 महीने की इस प्रोबेशन अवधि के बाद प्रबंधन को आपको कनफर्म करना ही पड़ेगा। यह कानून है। पर हमें तो आठ महीने की नौकरी पूरी कर लेने के बाद सेवा मुक्त कर दिया गया। मैं इस हालत में बिल्कुल नहीं था कि कंपनी से कोई मुकदमा लड़ता। फिर यह सब शोभा भी नहीं देता क्योंकि प्रभाषजी मेरे लिए पूजनीय थे और रहे।

26. खुद को बताया बेकसूर

जनसत्ता की नौकरी से निकाले जाने के दो दिन बाद चंडीगढ़ छोड़ने से पहले मैं एक दिन सुबह-सुबह अपने संपादक जितेंद्र बजाज जी से मिलने उनके घर गया। बजाज जी उन दिनों अकेले ही रहते थे। बैठकखाने में टेबल पर शहर के सारे अखबार ऱखे थे और एक चाय से भरा थर्मस रखा था जो एक मोटे कंबलनुमा कपड़े के कवर से ढका हुआ था। मुझे लगा कि थोड़ी ही देर पहले उन्होंने चाय पी थी। हमारी बातचीत शुरू हुई तो थोड़ी लंबी चली। उन्होंने मुझसे मेरे घर-परिवार के बारे में पूछा। मैंने उन्हें अपनी पारिवारिक स्थिति और गरीबी बता दी और कहा कि मेरे लिए नौकरी करना कितना जरूरी है। बातचीत के दौरान उन्होंने मुझे आग्रह करके दो बार चाय पिलाई। बजाज जी बोले, मन में कुछ मत रखना। यह मत समझना कि मैंने ही तुमलोगों को नौकरी से निकाला है। तुमलोगों को निकालने का फैसला तो बहुत पहले ही हो गया था। पर मैं चाहता था कि तुम दोनों (मैं और प्रियरंजन भारती) खुद ही नौकरी छोड़ दो। पर तुमलोगों ने जब इस्तीफा नहीं दिया तो मुझे तुम दोनों को टर्मिनेशन लेटर देकर निकालना पड़ा। बातचीत में बजाज जी ने मुझे यह समझाने की खूब कोशिश की कि नौकरी से निकाले जाने में उनका कहीं से कोई हाथ नहीं है। जो कुछ भी हुआ है, सब कुछ अखबार के प्रधान संपादक प्रभाष जी का ही किया हुआ है।

हम चंडीगढ़ से लौट आए। बाद में मैंने दिल्ली में रहकर फ्रीलांसिंग करने और नौकरी तलाशने का अभियान शुरू किया तो बहादुरशाह जफर मार्ग का एक्सप्रेस बिल्डिंग और वहां स्थित अन्य अखबारों के दफ्तरों में लगभग रोज ही जाने लगा और इस सिलसिले में प्रभाष जी से बहुत बार मिलना हुआ। उन मुलाकातों में खुद प्रभाष जी ने मुझे बताया कि वे मुझे और प्रियरंजन भारती को नौकरी से निकालने के पक्ष में बिल्कुल ही नहीं थे। पर जिंतेंद्र बजाज जी हमें निकालने पर अड़े हुए थे और उन्हें प्रभाषजी ने फ्री हेंड दे रखा था इसलिए अंत में न चाहते हुए भी दुखी मन से प्रभाष जी को हमें निकालने के फैसले को अपनी मंजूरी देनी पड़ी।

मेरे कैरियर का सर्वनाश करनेवाले जितेंद्र बजाज ज्यादा दिनों तक जनसत्ता में नहीं टिक पाए। चंडीगढ़ जनसत्ता के डेस्क और रिपोर्टिंग से लेकर प्रूफरीडिंग तक के कई साथियों के साथ भी उन्होंने दुर्व्यवहार किया। मेरे वहां से निकलने के कुछ समय बाद प्रदीप पंडित, सुधांशु मिश्र और नीलम गुप्ता भी चंडीगढ़ से दिल्ली आ गईं। सभी उनसे पीड़ित थे। इन कारणों से धीरे-धीरे उनका भी पाप का घड़ा भरता गया और थोड़े ही समय बाद उनको जनसत्ता छोड़ना पड़ा। उनके कामकाज के तरीकों और जनसत्ता के कर्मचारियों से उनके फूहड़ व्यवहार को लेकर काफी समय से खफा चल रहे प्रभाष जोशी जी ने उनसे इस्तीफा मांग लिया। जितेंद्र बजाज जी इसके बाद चेन्नई जाकर सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडीज से जुड़ गए। वे अभी उसके संस्थापक निदेशक हैं।

27. नॉन जर्नलिस्ट संपादक

जितेंद्र बजाज जनसत्ता के स्थानीय संपादक भले बना दिए गए, पर वे कहीं से भी पत्रकार नहीं हैं। उन्हें पत्रकारिता की कोई समझ नहीं है। हां, वे एक अच्छे विद्वान जरूर हैं। फिजिक्स से ऑनर्स करने के बाद थ्योरेटिकल फिजिक्स में उन्होंने पीएचडी किया है। जनसत्ता आने से पहले वे मद्रास विश्वविद्यालय में थ्योरेटिकल फिजिक्स के यूजीसी रिसर्च एसोसिएट, आईआईटी बंबई में ह्यूमेनिटीज एंड सोशल साइंसेज विभाग में फिलॉसोफी ऑफ साइंस के रिसर्च फेलो, आईआईटी बंबई में फेलो ऑफ इंडियन काउंसिल ऑफ सोशल साइंसेज रिसर्च (आईसीएसएसआर) और दिल्ली में फेलो ऑफ सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग साइंसेज रहे। वे फिजिक्स के एक अच्छे विद्वान जरूर हो सकते हैं, पर जनसत्ता में आने से पहले पत्रकारिता में उनका कोई बॉयो नहीं रहा।

जितेंद्र बजाज डेस्क के कामकाज में बहुत अधिक और अनावश्यक दखल दिया करते थे। पर हिन्दी का उनका वाक्यविन्यास तक सही नहीं था। वे खबरों का फ्लो बिगाड़ देते थे। खबरों की अच्छी हेडिंग को भी वे खराब कर देते थे। पत्रकारिता में उनका पहले से कोई छोटा-मोटा योगदान भी नहीं था जिस कारण जनसत्ता में डेस्क के लोग, खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश के अच्छे अखबारों से आए पत्रकार भी उनको मूर्ख नजर आते थे। पंजाब के सारे पत्रकार उनको प्रिय थे और मध्य प्रदेश वाले उनको प्रधान संपादक प्रभाष जोशी जी के डर से अच्छे लगते थे। हरियाणा और हिमाचल के पत्रकार भी उनको अच्छे और समझदार ही लगते थे। उनके कामों में वे कभी कोई गलती नहीं निकालते थे। बजाज जी की नजर में वे सभी परफेक्ट थे। और बाकी लोग उनकी नजर में एकदम बेकार और नकारा थे। पत्रकारिता में जितेंद्र बजाज की इस नाकाबिलियत को जनसत्ता को हिन्दी पत्रकारिता के पटल पर लानेवाले कुछ बहुत बड़े पत्रकार भी मुक्त कंठ से स्वीकारते रहे हैं।

पत्रकारिता में जितेंद्र बजाज जी की इस नाकाबिलियत की वजह से चंडीगढ़ जनसत्ता को भी भारी नुकसान हुआ। हमने दिल्ली जनसत्ता के मंजे हुए समाचार संपादक और हिन्दी के जानेमाने पत्रकार देवप्रिय अवस्थी जी के नेतृत्व में काफी मेहनत से जनसत्ता चंडीगढ़ को पंजाब के बेहद मजबूत अखबार पंजाब केसरी के सामने खड़ा किया था। पर जितेंद्र बजाज जी ने आते ही अपने बेहद कड़वे व्यवहार और फिजिक्स के विद्वान होने का अपना अहंकार और गुरूर दिखा-दिखाकर पंजाब केसरी से लड़ने की हमारी ऊर्जा को शांत कर हमारे जुनून को ही धराशायी कर दिया। चंडीगढ़ में जनसत्ता को स्थापित करने का हमारा जुनून इस कदर मजबूत था कि 6 जुलाई 1987 को शाम ढलते ही जब समाचार एजेंसी ने चंडीगढ़ से महज 34 किलोमीटर दूर लालड़ू में सिख आतंकवादियों द्वारा एक रोडवेज बस से 38 हिन्दू मुसाफिरों को उतारकर गोलियों से भून देने की खबर आई तो नैनीताल से नौकरी करने चंडीगढ़ आए हमारे साथी रिपोर्टर जगमोहन फुटेला बिना किसी एसाइनमेंट के अपनी इच्छा से जान की परवाह किए वगैर फोटोग्राफर को साथ लेकर फौरन घटनास्थल की ओर दौड़ पड़े और देर रात पेज छूटने से पहले खबर लेकर आ गए। यह हमारा जुनून ही तो था जो हम लोग शुरू के कई महीनों तक चंडीगढ़ के एक धर्मशाले में साथ मिलकर रहे और सुबह 10 बजे ही सभी दफ्तर पहुंच जाते थे और कई बार देर रात को अखबार छूटने के बाद ही लौटते थे। पर जितेंद्र बजाज जी की पत्रकारीय नाकाबिलियत ने सबकुछ चकनाचूर कर दिया।

मेरा करियर खराब करके मुझे सड़क पर दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ देने और इस तरह मेरे बच्चों का जीवन नष्ट करने में जितेंद्र बजाज जी का बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने अपना और अपने परिवारजनों का भविष्य तो अच्छी तरह संवार लिया, पर मेरा और मेरे बच्चों का भविष्य चौपट कर दिया। मैं पटना के चर्चित अखबार पाटलिपुत्र टाइम्स की नौकरी छोड़कर चंडीगढ़ जनसत्ता गया था। जनसत्ता की नौकरी से निकाले जाने के बाद जब मैं वापस पाटलिपुत्र टाइम्स मैं नौकरी मांगने गया तो संपादक की इच्छा के वावजूद मुझे वहां मेनेजमेंट ने फिर से नौकरी पर लेने से साफ मना कर दिया क्योंकि मैं वहां से अपनी अच्छी भली नौकरी छोड़कर आया था।

जितेंद्र बजाज जी का दंश मुझे लंबे समय तक झेलना पड़ा और मैं साल भर से भी अधिक समय तक पटना और दिल्ली की सड़कों पर धूल फांकता रहा। वे मेरे बड़े बुरे दिन थे। बहुत थोड़े समय के लिए दिल्ली की फ्लीट स्ट्रीट कही जाने वाली सड़क बहादुरशाह जफर मार्ग पर स्थित प्रताप भवन में वीर अर्जुन अखबार में मुख्य उप संपादक का काम करने का मौका मिला। पर वहां के प्रभारी संपादक (अनिल नरेंद्र नहीं) रोज शाम को शराब के नशे में धुत रहते थे और दफ्तर में खूब अंड-बंड बोलते थे। मैं उन्हें नहीं झेल सका और खुद नौकरी छोड़ दी। मैंने जितने दिन वहां काम किया था उसका वेतन भी उन्होंने मुझे मेनेजमेंट से दिलवाने से मना कर दिया था। अपनी आदतों की वजह से कुछ समय बाद ही वे दिवंगत हो गए।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....



मंगलवार, 5 अप्रैल 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर - 10


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की दसवीं किश्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 10

21. जनसत्ता का बड़ा कैनवास

धनबाद और पटना में  रहते हुए जनसत्ता में खोज खबर और खास खबर पेज पर लिखने का क्रम तो चल ही रहा थाजनसत्ता में नौकरी के लिए भी प्रयास करता रहा था। जनसत्ता में उन दिनों जिलों से रूटीन की खबरें भेजने और छपने के लिए भी बहुत मारामारी थी। जनसत्ता का जिला संवाददाता बनने के लिए भी बहुत सारे पत्रकार लाइन में लगे रहते थे। धनबाद के अखबारों में काम करने के दौरान मैंने नेशनल एक्सपोजर के लिए जनसत्ता के लिए जिले से खबरें लिखने के लिए उसका संवाददाता बनने की कोशिश की थी पर सफलता नहीं मिली थी। जनसत्ता के दिल्ली दफ्तर से जवाब आया था कि अखबार फिलहाल हर जिले में संवाददाता रखने की स्थिति में नहीं है। फिलहाल और नए संवाददाता भी नहीं रखे जा रहे। जनसत्ता के दिल्ली संस्करण में शुरू में जब भर्तियां हो रही थी तो आवेदन करने से ही चूक गया था और बाद में अर्जी भेजने पर दो बार प्रशिक्षु उप संपादक के लिए मौका मिल रहा था इसलिए गया नहीं। एक मौका नवंबर 1985 में मिला था जब 18-11-1985 के पत्र में तत्कालीन समाचार संपादक श्यामसुंदर आचार्य जी ने मुझे 2 दिसंबर 1985 को लिखित परीक्षा के लिए दिल्ली जनसत्ता के दफ्तर बुलाया था। उस समय मैं धनबाद में दैनिक चुनौती में उप संपादक था। फिर दूसरा मौका जुलाई 1986 में मिला था जब 29 जुलाई 1986 के पत्र में संपादक प्रभाष जोशी के सचिव राम बाबू ने मुझे लिखित परीक्षा के लिए 17 अगस्त 1986 को जनसत्ता के दिल्ली दफ्तर बुलाया था। दोनों चिट्ठियां जनसत्ता के दिल्ली संस्करण में नौकरी के लिए थीं। उस समय मैं पटना में पाटलिपुत्र टाइम्स में उप संपादक था। उप संपादक रहते प्रशिक्षु उप संपादक बनने कैसे जा सकता था सो नहीं गया।

पर जब चंडीगढ़ संस्करण के लिए उप संपादक पद पर भर्ती का विज्ञापन आया तो मैंने कोई गलती नहीं की और अर्जी भेज दी। उस समय भी मैं पटना में पाटलिपुत्र टाइम्स में था। उन दिनों पंजाब में आतंकवाद चरम पर था इसलिए मां मुझे वहां जाने देना नहीं चाहती थी। कुछ ही महीने पहले पिताजी का निधन हुआ था। घर का सारा बोझ अब मुझ पर ही आ गया था। गरीबी से जूझता परिवार था। पत्रकारिता में आगे भी बढ़ना था और इसके लिए बाहर निकलना भी जरूरी था। फिर जनसत्ता में मौका मिलने की संभावना की थोड़ी सी उम्मीद दिखाई दे रही  थी इसलिए रिस्क लेना मुनासिब लग रहा था। बिहार में लोग खूब बोलते हैं नो रिस्कनो गेम। सो मैंने भी रिस्क लेना उचित समझा।

अर्जी भेजने के चंद दिनों बाद लिखित परीक्षा के लिए एक बुलावा पत्र आया। दिनांक-17-03-1987 की उस चिट्ठी में संपादक प्रभाष जोशी के हस्ताक्षर का मोनोग्राम प्रिंट था। पत्र में जनसत्ता के नई दिल्ली और चंडीगढ़ दोनों दफ्तरों का पता लिखा था। टाइपराइटर पर लिखा गया यह पत्र कोई साधारण पत्र नहीं था। यह पत्र अपने आप में बहुत ही मजेदार था। पत्र में लिखा था-

दि:  17-3-1987

प्रिय,

मुझे खुशी हुई कि आप जनसत्ता  का चंडीगढ़ संस्करण निकालने में रुचि रखते हैं।

आप कृपया 26 मार्च को सेक्टर 15, लाला लाजपतराय भवनचंडीगढ़ में आइए। हम आपसे पत्रकारिता के सभी पहलुओं पर लिखवाएंगे।

जनसत्ता में अब तक सारे साथी ऐसी लिखित कसौटी पर खरे उतरने के बाद ही लिए गए हैं। इसके कोई हफ्ते भर बाद साक्षात्कार करेंगे और मेरिट लिस्ट में आए साथियों को लेकर काम शुरु कर देंगे। 26 मार्च को दिन में ग्यारह बजे आना है।

शुभकामनाओं सहित,

आपका,

प्रभाष जोशी

संपादक

पुनश्च:

आने जाने का द्वितीय श्रेणी का रेल भाड़ा भी दिया जाएगा।

जनसत्ता के इस बुलावे पर बिहार से कुल चार पत्रकार लिखित परीक्षा के लिए चंडीगढ़ पहुंचे थे। मैं, प्रियरंजन भारती, कुमार रंजन और हरजिंदर। हमलोग थे तो बिहार के अलग-अलग हिस्से से, पर उस समय सभी लोग पटना में ही काम कर रहे थे। उन दिनों पंजाब में आतंकवाद अपने चरम पर था और राजधानी चंडीगढ़ की सड़कों पर अभूतपूर्व सुरक्षा व्यवस्था थी। ऐसी अभूतपूर्व सुरक्षा व्यवस्था हमने पहली बार देखी। शहर के चप्पे-चप्पे पर रेत से भरी बोरियों से बनाए गए घेरे के भीतर से एके-47 रायफलें ताने सेना के जवान खड़े रहते थे। जेहन में तो पूरा डर बैठ गया। वह सब देखकर ही लगने लगा कि हम बहुत खतरनाक जगह पर आ गए हैं। एक जगह मैंने हिम्मत करके राइफल ताने एक सैनिक को अपना परिचय देकर उससे पूछ डाला कि क्या वाकई बहुत डरावने हालात हैं यहां। इन डरावनी स्थितियों से बिल्कुल बेफिक्र उस सैनिक ने इत्मीनान से जवाब दिया- बिल्कुल चिंता मत करो और डरो मत, सिर्फ अपनी सेफ्टी रखना।

हमलोग चंडीगढ़ के लाला लाजपत राय हॉल में आयोजित इस लिखित परीक्षा में शामिल हुए। वहां कुल सात घंटे तक हम बस लिखते ही रहे थे। पत्रकारिता के तमाम पहलुओं पर सवाल पूछे गए थे और खबरें भी लिखवाई गई थीं। अंग्रेजी समाचार एजेंसियों की खबरों की कठिन मानी जाने वाली कुछ बड़ी कापियां अनुवाद करने के लिए दी गई थीं। एक बड़ी सी खबर को आधा छोटा भी करना था और एक झूठी खबर भी दी गई थी जिसपर यह पूछा गया था कि इस खबर का आप क्या करेंगे। अखबार के पेज का लेआउट भी बनवाया गया था। यानी पूरा टेस्ट ले लिया गया था। जरा सी चूक हुई और आप गए काम से।

जनसत्ता के इस चंडीगढ़ संस्करण में इंडिया टुडे पत्रिका के भोपाल ब्यूरो प्रमुख एन के सिंह को स्थानीय संपादक बनाया जाना तय हुआ था। हमारे इस लिखित परीक्षा में एन के सिंह भी हमसे मिलने आए थे। पर वे बाद में चंडीगढ़ नहीं आए। बाद में सुनने में आया कि पंजाब में आतंकवाद और उसके खौफ की वजह से उनकी पत्नी ने उनको चंडीगढ़ जाने से रोक दिया। शुरू में कुछ समय तक तो हम बिना संपादक के ही अखबार निकालते रहे। दिल्ली जनसत्ता के समाचार संपादक रहे देवप्रिय अवस्थी चंडीगढ़ में भी हमारे समाचार संपादक थे और उन्होंने ही तब तक स्थानीय संपादक की जिम्मेदारी भी निभाई थी। देवप्रिय अवस्थी जी की अगुवाई में ही हम सबने वहां हिन्दी के स्थापित अखबार पंजाब केसरी से मुकाबले की रणनीति भी बनाई थी। बाद में पंजाब के निवासी और फिजिक्स में पीएचडी और रिसर्च फेलो रहे एक नॉन जर्नलिस्ट जितेंद्र बजाज को चंडीगढ़ जनसत्ता का पहला स्थानीय संपादक बना दिया गया था।

चंडीगढ़ की लिखित परीक्षा देकर आने के कुछ ही दिनों बाद दिल्ली से संपादक प्रभाष जोशी का एक तार आया था। तार में इंटरव्यू के लिए 12 अप्रैल को चंडीगढ़ इंडियन एक्सप्रेस के दफ्तर बुलाया गया था। इंटरव्यू वाले इस तार का संदेश कुछ इस तरह था-

REACH INDIAN EXPRESS CHANDIGARH FOR INTERVIEW JANSATTA. ON 12TH APRIL-12 NOON---EDITOR

लिखित परीक्षा देकर आए हम सभी चार साथी तार पाकर इंटरव्यू के लिए दोबारा चंडीगढ़ पहुंचे। वहां इंटरव्यू में जनसत्ता को खड़ा करनेवाले उसके तीन संपादकों की प्रभावशाली टीम बैठी थी जिसमें सर्वश्री प्रभाष जोशी, बनवारी जी और हरिशंकर व्यास थे। जनसत्ता का इंटरव्यू भी उतना ही कठिन था जितना रिटन टेस्ट। इंटरव्यू में प्रभाषजी ने मुझसे पूछा कि कितना पैसा लेंगे। मैंने कहा कि जितना आप देंगे। तब प्रभाषजी ने हिसाब लगाकार बताया कि 950 का बेसिक होगा और उसपर डीए, मकान किराया और अंतरिम राहत वगैरह कुल मिलाकर 1600 रुपए मिलेंगे। मुझे पटना में पाटलिपुत्र टाइम्स में उस समय 930 रुपए मिलते थे। मुझे तो लगा कि यह तो उससे काफी ज्यादा है। मैंने उनको कह दिया कि ठीक है। उस समय मुझे वेतन तय करने-कराने का कोई प्रपंच और गुर वगैरह विल्कुल मालूम नहीं था। उधर लखनऊ के राजीव मित्तल इन मामलों में चालाक थे सो वे प्रभाषजी से अपने लिए 5 इनक्रीमेंट तय करा ले गए। अनजान होने के कारण मैं घाटे में रहा। उस समय वहां इंडियन एक्सप्रेस की चंडीगढ़ यूनिट के प्रबंधक थे सुशील गोयनका जो इंडियन एक्सप्रेस के मूल मालिक रामनाथ गोयनका के परिवार के ही थे। सुशील गोयनका जी ने इंटरव्यू में आए हम सभी लोगों का बहुत अच्छा स्वागत किया था। इंटरव्यू के बाद हमें चंडीगढ़ शहर के एक अच्छे गेस्ट हाउस में ठहराया था।

इंटरव्यू के अगले दिन हमें बता दिया गया कि किस-किस का चयन हुआ है। सबको नियुक्ति पत्र भी दे दिया गया। बिहार के पटना से गए हम चार साथियों में से तीन- मैं, प्रियरंजन भारती और हरजिंदर सफल रहे थे। हमलोग नियुक्ति पत्र लेकर पटना लौट आए थे। हमें दो हप्ते बाद नौकरी पर हाजिर होने को कहा गया था क्योंकि जनसत्ता का प्रकाशन शुरू होने की तारीख तय कर दी गई थी। हमें उस तारीख से पहले ही पहुंचकर अखबार की डमी निकालना था। हममें से सिर्फ कुमार रंजन को चयन न होने के कारण निराश लौटना पड़ा था। पर फिर उन्हें दिल्ली में ही समाचार एजेंसी पीटीआई में जनसत्ता से भी अच्छी तनख्वाह पर नौकरी मिल गई थी। चंडीगढ़ जनसत्ता की न्यूज डेस्क संपादकीय टीम में हिन्दी पट्टी से हम तीनों के अलावा मध्य प्रदेश के इंदौर से प्रदीप पंडित, उत्तर प्रदेश के लखनऊ से राजीव मित्तल, उत्तर प्रदेश से ही सुधांशु मिश्र, राजस्थान के कोटा से नीलम गुप्ता और हिमाचल प्रदेश के ऊना से सुशील कुमार लिए गए थे।

नियुक्ति पत्र लेने के बाद हम लोगों ने दफ्तर से ही यह पता लगा लिया कि शहर में कुछ समय तक रहने के लिए कौन-कौन सी जगह हो सकती है जो किफायती होने के साथ-साथ आसानी से उपलब्ध भी हो सके। हमें बताया गया कि सेक्टर-20 में अग्रवाल धर्मशाला है जो हमारे ठहरने के लिए सही जगह होगी। फिर चंडीगढ़ पहुंचने पर हम सारे लोगों ने उसे ही अपना ठिकाना बनाया था। हम लोग करीब 4-5 महीने वहीं डटे रहे। वहां डॉर्मीटरी में एक बिस्तर का किराया उस समय सिर्फ दस रुपए था। एक-एक कमरे में तीन से चार बिस्तर लगते थे। हर चार दिन बाद धर्मशाला का मैनेजर हमारे कमरे बदल देता था और रजिस्टर में नई इंट्री कर लिया करता था। ऐसा इसलिए क्योंकि उन दिनों आतंकवाद चरम पर था और वहां लागू नियमों के अनुसार किसी आगंतुक को चार दिन से ज्यादा धर्मशाला में ठहराने की इजाजत नहीं थी। पर हमलोग अखबारवाले थे और शहर के एक बड़े अखबार समूह में नियुक्त थे इसलिए हमें वहां टिकाए रखने के लिए यह खास इंतजाम किया गया था।

अग्रवाल धर्मशाला के ठीक सामने सड़क थी और सड़क के दूसरी तरफ सेक्टर-20 का मार्केट कांप्लेक्स था। चंडीगढ़ सेक्टरों में बसा हुआ एक साफ सुथरा और व्यवस्थित शहर है। हर सेक्टर का अपना एक अलग मार्केट कांप्लेक्स यानी बाजार है जिसमें आम जरूरतों का लगभग सबकुछ उपलब्ध होता है। अपने सेक्टर-20 के इसी मार्केट में एक व्यवस्थित रेस्टोरेंट भी था जहां हम सारे लोग सुबह का नाश्ता और दोपहर का खाना खाते थे। कभी-कभी रात का खाना भी। वहीं चाय का एक बढ़िया ठीया भी था। सुबह नाश्ते में चंडीगढ़ में दही परांठे लेने का प्रचलन था जो हमें भी खूब पसंद आया। वहां जनसत्ता के दफ्तर में कैंटीन तो था पर वहां खाना नहीं बनता था। सिर्फ चाय, मट्ठी, ब्रेड-बटर और ब्रेड पकौड़े ही मिलते थे। वहां इंडियन एक्सप्रेस कई साल पहले से छपता था पर उसके लोगों ने कैंटीनवालों से कभी खाना बनाने की मांग ही नहीं की थी। हमने हल्ला मचाया तब जाकर वहां खाना बनना शुरू हुआ। कैंटीन की चाय में दूध ज्यादा और पत्ती बहुत कम डली होती थी जिस कारण चाय में मजा नहीं आता था। हम हिन्दी पट्टी के लोग कैंटीनवाले को कड़क चाय लाने को कहते थे। पर पंजाब, हरियाणा और हिमाचल वाले साथी अधिक दूध और कम पत्ती वाली चाय ही पसंद करते थे। हमारे समाचार संपादक देवप्रिय अवस्थी जी कड़क चाय की मेरी बात पर चुटकी लेते थे और कहते थे, झा साहब तुम्हारे बिहार में दूध तो होता नहीं, यहां पंजाब में बहुत दूध होता है। जिन दिनों मैं पटना में पाटलिपुत्र टाइम्स में था उन्हीं दिनों अवस्थी जी पटना में नवभारत टाइम्स में समाचार संपादक हुआ करते थे। मैं जब कभी साथियों से मिलने नवभारत टाइम्स जाता था तो वहां अवस्थी जी से जरूर मिलता था। अवस्थी जी चंडीगढ़ जनसत्ता में हमारे अभिभावक ही थे। हमलोग सभी वहां एक परिवार की तरह रहते थे।

अग्रवाल धर्मशाला के ठीक सामने की सड़क से ही हमें दफ्तर जाने के लिए चंडीगढ़ प्रशासन द्वारा चलाई जा रही सिटी सर्विस की सरकारी बसें मिल जाती थी। हमारा दफ्तर शहर के एक छोर पर इंडस्ट्रियल एरिया में था। 186-B, इंडस्ट्रियल एरिया, चंडीगढ़-160002.। बस से हम राम दरबार उतरते थे। वहां से हमारा दफ्तर पैदल एक मिनट की दूरी पर था। अग्रवाल धर्मशाला में हमारे लगभग पांच महीने बड़े आनंद से बीते। धीरे-धीरे हम मकान तलाशते गए और वहां से एक-एक कर निकलते गए। एक तो चरम पर आतंकवाद और दूसरे हमारे लिए एक नया शहर। इसलिए हमें अपना आशियाना तलाशने और रहने की व्यवस्थाएं करने में महीनों लग गए। चंडीगढ़ में खाना थोड़ा महंगा था, पर रहना जरूर सस्ता था। उन दिनों वहां मकान का किराया पटना और दिल्ली की तुलना में काफी कम था।

– गणेश प्रसाद झा

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