एक पत्रकार की अखबार यात्रा की चालीसवीं किस्त
पत्रकारिता की कंटीली डगर
भाग- 40
94. प्रभाष जोशी का जनसत्ता प्रेम और उनकी जीवटता
प्रभाष जोशी ने जनसत्ता में एक साप्ताहिक कॉलम लिखना शुरू किया जिसका नाम था कागद कारे । वे इसे हर रविवार को लिखते थे रविवारी जनसत्ता में। उनका यह कॉलम शायद इकलौता ऐसा कॉलम है जो इतने लंबे समय तक यानी कोई 17 साल तक लगभग अविराम लिखा गया। अपनी बाईपास सर्जरी होने के बावजूद बंबई के अस्पताल से भी वे कागद कारे लिखते ही रहे। इतनी संलग्नता और इतनी जीवटता आज तक किसी और कॉलमिस्ट में नहीं देखी गई। ख़ासकर ऐसे समय में जब अपने देश का एक प्रधानमंत्री बाईपास सर्जरी के लिए गणतंत्र की परेड भी छोड़ देता है। पर प्रभाष जोशी मरते हुए भी अपना कालम नहीं छोड़ते हैं। इसके जरिए वे सच कहना नहीं छोड़ते हैं। सोचिए कि प्राण त्यागने की घड़ी आ पहुंची है और वे कागद कारे छपने के लिए भेज रहे हैं इसकी सूचना वे जनसत्ता में भेजना भी नहीं भूलते हैं। यह सब सिर्फ प्रभाष जोशी ही कर सकते थे। एक समय में कागद कारे पढ़ना लोगों के लिए अनिवार्य सा बन गया था। कभी प्रभाष जोशी हिंन्दी को शब्दों के दुरुपयोग और अज्ञानता के बोझ से उबारने के लिए ‘सावधान पुलिया संकीर्ण है’ जैसे लेख लिखा करते थे। राजनीति और समाज के चौखटे तो उनके नियमित लेखन के हिस्से थे। कई बार वे लामबंद भी हुए। पर अपने अंतिम कुछ वर्षों में वे पत्रकारिता में बढ़ते पाप और इसके नर्क बन जाने को लेकर, ब्यूरो के नीलाम होने को लेकर और विज्ञापन को ख़बर बनाकर छापने को लेकर जिस तरह से और जिस कदर टूट पड़े थे और किसी एक्टिविस्ट की तरह इसके खिलाफ जिस तरह हल्ला बोल रहे थे, वह हैरतंगेज भी था और लोमहर्षक भी। अपनी उस उम्र और तमाम तरह की बीमारियों से जूझते रहने के बावजूद पत्रकारिता और काम के प्रति उनके समर्पण और इस सबके लिए उनके जीवट होने का यह एक मजबूत तर्क भी है। उनका निकाला और बनाया हुआ जनसत्ता आज बहुत बुरी स्थिति में है और किसी तरह घिसट रहा है। पर मुझे यकीन है इन तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद इसकी गिनती हिन्दी के अच्छे प्रकाशनों में ही होगी।
95. सीधे प्रधानमंत्री से लोहा लेनेवाला अखबार
इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता ऐसे अखबारों में गिने जाते हैं जो किसी जिले के एसपी और डीएम से नहीं, सीधे देश के प्रधानमंत्री से लोहा लेता रहता है। और वह इसके नतीजे की भी कभी परवाह नहीं करता है। 1987 में इन अखबारों में हुई हड़ताल की वजह भी प्रधानमंत्री से पंगा लेना ही था। अपने शरीर पर उस ऐतिहासिक हड़ताल का दंश झेलनेवाले जनसत्ता के दिल्ली संस्करण के मेरे साथी संजय कुमार सिंह ने अपनी किताब पत्रकारिता जो मैंने देखा, जाना, समझा में लिखा है कि इंडियन एक्सप्रेस अखबार समूह के दिल्ली केंद्र में 1987 में हुई हड़ताल जब खत्म हुई तो शहर में लगे होर्डिंग पर लिखा था, इंडियन एक्सप्रेस एंड जनसत्ता आर बैक – इनस्पाइट ऑफ देम (इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता लौट आया है – उनलोगों के बावजूद)। यह सूचना खासकर उन लोगों के लिए थी जिन्हें 47 दिनों तक सरकार विरोधी ‘खुराक’ से वंचित रहना पड़ा था। पर ‘उनलोगों’ के लिए देश के मशहूर सत्ता विरोधी प्रतिष्ठान का संदेश अलग से था। यह अरुण शौरी के नाम से पहले पन्ने पर अंग्रेजी में छपे आलेख में था जिसकी शुरुआत हिन्दी में, “जोर है कितना दामन में तेरे, देख लिया है देखेंगे” से हुई थी। इसे अखबार में अंदर के पन्ने पर छपे पहले संपादकीय, “गुड मॉर्निंग मिस्टर गांधी” में भी दोहराया गया था।
इंडियन एक्सप्रेस के साथ सरकार की यह भिड़ंत 13 मार्च 1987 के इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह की एक चिट्ठी से शुरू हुई थी जो उन्होंने प्रधानमंत्री राजीव गांधी को लिखी थी। इसमें उन्होंने संसद में दिए गए प्रधानमंत्री के बयान की सच्चाई पर सवाल उठाए थे। वह चिट्ठी बहुत गुस्से में लिखी गई थी। इंडियन एक्सप्रेस में छपने के बाद वह चिट्ठी बहुत चर्चित हो गई थी। उस दौर में इंडियन एक्सप्रेस ने जो खबरें छापीं और सरकार ने जो जवाबी कार्रवाई की दोनों ही जबर्दस्त थे। रामनाथ गोयनका के उस समय के करीबी और सलाहकार एस गुरुमूर्ति और उनके चार्टर्ड एकाउंटेंट को गिरफ्तार कर लिया गया था। रामनाथ गोयनका, उनकी बेटी सरोज गोयनका और नाती विवेक खेतान को बार-बार पूछताछ के लिए बुलाकर खूब परेशान किया गया था। पर इतना कुछ करके भी सरकार इंडियन एक्सप्रेस का कुछ बिगाड़ नहीं पाई थी। कोशिश तो उसने बहुत की और नवंबर 1987 के तीसरे हफ्ते में कंपनी कानून बोर्ड ने धारा 237 (बी) के तहत नोटिस जारी करके इंडियन एक्सप्रेस के मामलों में व्यापक जांच के आदेश दे दिए थे। इस बारे में रामनाथ गोयनका और कानून के कई जानकारों ने सहमति जताई थी कि यह इंडियन एक्सप्रेस के बोर्ड में सरकारी निर्देशकों की नियुक्ति की शुरुआत हो सकती है। रामनाथ गोयनका ने कहा था कि यह सरकार की ऐसी चाल है जो अखबार की आजादी को नष्ट कर देगी और अखबार के चरित्र को ही खराब कर देगी। इसके बावजूद इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स (आईएफडब्ल्यूजे) मांग कर रहा था कि इंडियन एक्सप्रेस बोर्ड का पुनर्गठन किया जाए और इसमें पत्रकारों और कानून के जानकारों के साथ-साथ जानीमानी हस्तियों और पाठकों के साथ सरकार द्वारा नियुक्त एक रिसीवर को शामिल किया जाए। ऐसे लोगों का मानना था कि इंडियन एक्सप्रेस पत्रकारीय अधिकता और सक्रियता का दोषी है। वे इससे जुड़े बृहत्तर मसले को देख नहीं देख रहे थे या जानबूझकर देखना नहीं चाह रहे थे।
उस समय का सरकार विरोधी इंडियन एक्सप्रेस मुख्य रूप से विपक्षी दलों की आवाज था। पर उनसे भी अखबार को वैसा समर्थन नहीं मिला जैसा मिलना चाहिए था। ज्यादातर विपक्षी नेताओं की दलील थी कि अखबार कानून से ऊपर नहीं हैं। इंडियन एक्सप्रेस ने अगर कानून का उल्लंघन किया है तो कानून को कार्रवाई करने देना चाहिए। कुछ विपक्षी नेताओं का कहना था कि दूसरे अखबारों ने भी अगर ऐसा किया है तो उनके खिलाफ भी कार्रवाई होनी चाहिए पर यह कोई नहीं देख रहा था कि इंडियन एक्सप्रेस के किलाफ कार्रवाई उसके सरकार विरोधी होने के कारण चुनकर की जा रही थी, नियमों का उल्लंघन करने के लिए नहीं। इससे पहले खबर थी कि सरकार ने इंडियन एक्सप्रेस को दी गई जमीन का पट्टा रद्द करके वापस एक्सप्रेस बिल्डिंग की उस इमारत में घुसने का फैसला कर लिया था। सरकार का तर्क था कि कंपनी ने उस जगह का इस्तेमाल अखबार प्रकाशन से अलावा किसी और काम के लिए किया है और इसके लिए दिल्ली के भूमि व शहरी विकास अधिकारी से इजाजत नहीं ली गई है। पर यह भी नहीं हो पाया। इसके बावजूद इंडियन एक्सप्रेस के तेवर अब अगर वैसे नहीं हैं तो इसका कारण उसके मालिक से लेकर संपादक तक का बदल जाना ज्यादा है, सरकारी दमन का असर कम हो जाना कम। इसके अलावा इंडियन एक्सप्रेस समूह शुरू में ही कभी विज्ञापनों के भरोसे नहीं रहा और इसीलिए सरकार विरोधी होकर भी टिका रह सका। यह समूह बुनियादी तौर पर अपनी बिल्डिंग के किराए से चलता था। बाद में संपत्ति के आपसी बंटवारे में सबकुछ बदल गया और यह संभव नहीं रह गया। हां, अपनी उन विभिन्न तरह की दमनात्मक कार्रवाइयों के जरिए सरकार ने बाकी मीडिया समूहों को तो सीख दे ही दी और जिनमें पहले ही कोई दम नहीं था उनकी मौजूदा हालत आज भी लोग देख ही रहे हैं। और जो पैसे कमाने के लिए इस धंधे में आए उनका तो कहना ही क्या।
जहां तक इंडियन एक्सप्रेस, संपादक अरुण शौरी या मालिक रामनाथ गोयनका की बात है, राजीव गांधी की सरकार गिरने के बाद भी यह अखबार सरकार का भोंपू नहीं बना। और कहने वाले भले ही कहते हैं कि इंडियन एक्सप्रेस ने वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनाने की हर संभव कोशिश की और इसी क्रम में इंडियन एक्सप्रेस के ही संपादक रहे शेखर गुप्ता ने प्रभाष जोशी और देवीलाल के निधन के बाद उनपर यह आरोप लगाया कि प्रभाष जोशी ने देवीलाल के दिए रुपए विश्वनाथ प्रताप सिंह को पहुंचाए थे। चौथी दुनिया के संपादक संतोष भारतीय ने इसके लिए शेखर गुप्ता की भारी निन्दा की थी और कहा था कि वे दो दिवंगत हो गए लगों के खिलाफ बेबुनियाद आरोप लगा रहे हैं जबकि वे जानते हैं कि दोनों लोग अब अपना बचाव नहीं कर सकते। यही नहीं, शेखर गुप्ता ने यह आरोप वर्षों बाद लगाया और गवाह के रूप में तीन पद्म पुरस्कार विजेता पत्रकारों का नाम लिया। संतोष भारतीय ने उन तीनों पद्म पुरस्कार विजेताओं से अलग-अलग बात कर ली और उस बातचीत में तीनों ने मना कर दिया। इस तरह, शेखर गुप्ता ने प्रभाष जोशी पर आरोप लगाकर इस बात की भी पुष्टि कर दी कि इंडियन एक्सप्रेस ने वीपी सिंह के पक्ष में अगर कुछ किया भी होगा तो वह गलत या गैर कानूनी नहीं होगा। दूसरी ओर, अरुण शौरी ने उस समय के शक्तिशाली उप प्रधानमंत्री देवीलाल के खिलाफ इंडियन एक्सप्रेस के पहले पन्ने पर एक खबर छापी थी जिसकी हेडिंग थी, ‘डिप्टी पीएम साहिब बात करेंगे।‘ इसमें उन्होंने देवीलाल के तकियाकलाम, हिन्दी की एक गाली को बोल्ड अक्षर में छाप दिया था और यह भी लिख दिया था कि वे कैसे बातें करते हैं। इस तरह इंडियन एक्सप्रेस कांग्रेस पार्टी की राजीव गांधी की सरकार को गिराने के बाद भी अपने स्वभाव के मुताबिक सरकार का विरोधी ही बना रहा।
इंडियन एक्सप्रेस के उस समय के महाप्रबंधक सुशील गोयनका ने उसी समय अपने मित्रों और आलोचकों के बीच यह सवाल रखा था, “इस संघर्ष से हमें क्या मिल रहा है? जबकि इसकी वजह से हमें भारी नुकसान हो रहा है। हमारा हित तो यही हो सकता है कि प्रेस की आजादी को कायम रखा जाए। जो सही है उसके लिए लड़ा जाए और दमन व अन्याय के खिलाफ नहीं झुका जाए।” पर अब उनकी उन पुरानी बातों पर नजर डालते हैं तो लगता है कि सुशील गोयनका के सवाल में दम था। इंडियन एक्सप्रेस के खिलाफ जिन मामलों में कार्रवाई की गई वैसे ही मामलों में दूसरे मीडिया घरानों से कुछ नहीं पूछा गया। यह अलग बात है कि इन्हीं कारणों से सरकार इंडियन एक्सप्रेस के खिलाफ भी कुछ ठोस नहीं कर पाई, लेकिन अखबार का जो नुकसान होना था वह तो हो ही गया। और नुकसान सिर्फ इंडियन एक्सप्रेस का नहीं, पूरी मीडिया, लोकतंत्र और देश का भी हुआ। रामनाथ गोयनका के नेतृत्व में इंडियन एक्सप्रेस प्रबंधन सरकार से भिड़ने का खामियाजा जानता था फिर भी वह लड़ने और अपनी लड़ाई को जारी रखने के लिए तैयार था। उन्हीं दिनों एक हस्ताक्षरित बयान में रामनाथ गोयनका ने कहा था, “जहां तक मेरा सवाल है, मैं सिर्फ यही कहूंगा कि इस तरह की मनमानी के आगे मैं घुटने नहीं टेकूंगा। अपने अंतिम सांस तक मैं आजादी के उन सिद्धांतों के लिए लड़ूंगा जिनके लिए महात्मा गांधी के नेतृत्व में संघर्ष किया था। इंडियन एक्सप्रेस समूह के हर पाठक और इस देश में आजादी से प्यार करने वाले हर व्यक्ति के प्रति मेरा यह वादा है।” अब न ऐसा वादा करने वाले लोग रहे और न ऐसा वादा करने की हैसियत रखने वाले लोग ही हैं। इसलिए अब इन बातों पर सिर्फ अफसोस ही जताया जा सकता है। आप किसी से कैसे कहेंगे कि कारोबार करो पर मुनाफा न कमाओ या निवेश करो पर लाभ की कोई उम्मीद न करो। यह तो कोई अपनी इच्छा से ही करेगा। या फिर कोई ऐसा तब करेगा जब वह रामनाथ गोयनका बनना चाहेगा।
96. जनसत्ता का प्रकाशन भी मुनाफे के लिए ही हुआ था
जनसत्ता के पत्रकार संजय कुमार सिंह ने अपनी किताब में शुरू के दिनों की बातें बताते हुए लिखा है कि मालिक रामनाथ गोयनका ने इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप से हिंदी का अख़बार जनसत्ता का प्रकाशन शुरू किया था तो सिर्फ मुनाफा कमाने के लिए किया था। उन्होंने हिंदी की सेवा के लिए यह अखबार बिल्कुल नहीं निकला था। मतलब जनसत्ता के शुरू होने के पीछे एक विशुद्ध व्यावसायिक गणित था। उन दिनों दिल्ली में टाइम्स आफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स और इंडियन एक्सप्रेस तीनों ही अख़बारों में ट्रेड यूनियनों का ज़बरदस्त दबदबा था। साथ-साथ अखबारों पर यूनियन का ज़बर्दस्त दबाव भी रहता था। हालत यह थी कि यूनियन की कोई मांग अगर अखबार प्रबंधन न माने तो छोटी-छोटी बातों पर भी काम बंद कर दिया जाता था या फिर हड़ताल हो जाया करती थी। कभी-कभी यह हड़ताल लंबी भी खिंच जाती थी। तो अगर टाइम्स आफ इंडिया में हड़ताल हो जाती थी या हिंदुस्तान टाइम्स में हो जाती थी तो दोनों ही अखबारों की हड़तालों का फ़ायदा इंडियन एक्सप्रेस को नहीं मिल पाता था। इंडियन एक्सप्रेस का अपनी कॉपियां बढ़ाकर बेचने का गणित नहीं बैठ पाता था क्योंकि इंडियन एक्सप्रेस के पास अपना कोई हिंदी का अख़बार नहीं था। ऐसे में अगर हिंदुस्तान टाइम्स में हड़ताल होती थी तो हॉकरों की बाध्यता होती थी कि वह हिंदुस्तान टाइम्स की जगह टाइम्स आफ इंडिया ही लें तभी उन्हें नवभारत टाइम्स की कॉपियां बढ़ा कर दी जाएंगी। यही बात तब टाइम्स आफ इंडिया में हड़ताल होने पर भी होती थी। जो हॉकर हिंदुस्तान टाइम्स की बढ़ी कॉपियां लेता था उसी को हिंदुस्तान हिंदी की बढ़ी हुई कॉपियां मिलतीं थीं। अपना हिंदी का अख़बार न होने की वजह से इंडियन एक्सप्रेस हर बार घाटे में रह जाता था। इसीलिए उसे जनसत्ता निकालना पड़ा।
जनसत्ता आजादी के कुछ साल बाद ही प्रकाशित हो गया था। इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप ने इसे 1950 के आसपास अपने हिन्दी अखबार के रूप में प्रकाशित किया था बताते हैं। पर वह ज्यादा दिनों तक चल नहीं पाया था। थोड़े समय तक छपने के बाद वह बंद हो गया था। तब वह शायद दो-तीन साल तक ही निकला था। कहते हैं एक विवाद के चलते रामनाथ गोयनका ने अपने हिंदी अखबार जनसत्ता को तब बंद कर दिया था। बहुत बाद में इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप ने मुंबई से गुजराती में भी जनसत्ता नाम से अख़बार छापा था। इसके अलावा मराठी में लोकसत्ता का प्रकाशन हुआ था। बहुत बाद में 1983 में जनसत्ता का पुनर्प्रकाशन हुआ। इस जनसत्ता के प्रकाशन की प्रतीक्षा में प्रभाष जोशी को इंडियन एक्सप्रेस में नौ साल गुज़ारना पड़ा था। इंडियन एक्सप्रेस के दिल्ली, चंडीगढ़ और अहमदाबाद संस्करणो के वे संपादक रहे। तब के दिनों में जनसत्ता के आने की ख़बर दिल्ली में हर साल चलती थी। इस तरह प्रभाष जोशी जनसत्ता के संस्थापक संपादक नहीं हैं। उन्हीं दिनों दिल्ली में द स्टेट्समैन के हिंदी अख़बार नागरिक के प्रकाशन की भी चर्चा खूब चलती थी। यह चर्चा 2012 तक भी होती रही थी। यहां तक कि इस चर्चा में 1990 के आसपास एक बार तो नागरिक के संपादक के रूप में रघुवीर सहाय का नाम भी आ गया था। उनकी टीम के लोगों के नाम भी लिए जाने लगे थे। पर इतनी चर्चाएं होते रहने पर भी नागरिक कभी नहीं निकला।
– गणेश प्रसाद झा
आगे अगली कड़ी में....
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