शुक्रवार, 23 दिसंबर 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 53


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की तिरेपनवीं किस्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 53


125. टेलीविजन चैनल में नौकरी का ऑफर

दिल्ली जनसत्ता में नौकरी के दौरान मैंने भारतीय जनता पार्टी से जुड़े डा. जेके जैन के जैन टीवी के लिए बाहर से कुछ फुटकर काम किया था। बंबई जनसत्ता के पत्रकार रहे अमित सिन्हा ने बंबई में रहकर आधे घंटे का एक साप्ताहिक टीवी न्यूज प्रोग्राम नजर बनाना शुरू किया था जो दिल्ली स्थित जैन टीवी से ऑन एअर होता था। उन दिनों सरकारी चैनल दूरदर्शन के बाद सिर्फ जैन टीवी के पास ही अपना अर्थ स्टेशन था। यह चैनल भारत से ही अपलिंकिंग करता था। नजर के लिए दिल्ली से मैं इनपुट देता था। उन दिनों मैं सोनी का एम-35 और सोनी का ही वन सीसीडी कैमरा इस्तेमाल किया करता था। वीएचएस टेप पर रिकार्डिंग होती थी। हम दिल्ली में बच्चों की पत्रिका लोटपोट छापनेवाली कंपनी से किराए पर कैमरे लिया करते थे। उन दिनों 750 रुपए प्रतिदिन के एक शिफ्ट के हिसाब से ऐसे कामचलाऊ कैमरे मिल जाते थे। मैंने एकाध न्यूज प्रोग्राम डीडी-2 पर चलनेवाले न्यूज शो फस्ट एडीशन के लिए भी बनाया था। इस प्रोग्राम को बनाने में जनसत्ता दिल्ली के मेरे साथी बालेंदु दाधीच मेरे साथ होते थे। हम दोनों साथ मिलकर ही स्टोरी शूट भी करते थे और फिर लोटपोट के दफ्तर में एडीटिंग भी। एक बार चंबल के कुछ बेहद खूंखार डकैतों से मिलने हम कैमरामैन को लेकर मध्य प्रदेश के भिंड-मुरैना इलाके के जौरा तक भी चले गए थे। उन दिनों एक भी सेटेलाइट चैनल नहीं था।

जब न्यूज चैनलों का प्रादुर्भाव हुआ तो जनसत्ता के अपने साथी अजय शर्मा नौकरी छोड़कर चैनल में चले गए। मेरी भी इच्छा होती थी टीवी चैनल में नौकरी करने की। अनुभव के नाम पर मेरे पास यही थोड़ा-बहुत किया हुआ फुटकर काम था। पर शुरू में जो साथी अखबार की नौकरी छोड़कर चैनलों में गए उनके पास तो यह भी नहीं था। उस दौर में तो जो भी पत्रकार टीवी चैनलों में गए वे सब के सब ऐसे ही थे। सभी तो अखबारों के ही अनुभव वाले थे। बस लोगों ने जुगाड़ बिठाया और लग लिए। बाद में सभी स्टार हो गए। आज जो थोक भाव में इतने एंकर और एंकरानियां हैं वे सब तो शायद उस समय या तो बच्चे रहे होंगे या फिर स्कूलों में पढ़ लिख रहे होंगे। तो दैनिक जागरण में रहते हुए जब दिल्ली एनसीआर के नोएडा से चल रहे एक टीवी न्यूज चैनल वॉयस ऑफ इंडिया से ऑफर आया तो सोचा इसे ठुकराना उचित नहीं होगा।

वॉयस ऑफ इंडिया में नौकरी का ऑफर मुझे मेरे मित्र अमित सिन्हा ने दिया था। अमित सिन्हा जी उन दिनों वहां वॉयस ऑफ इंडिया में सीईओ बन गए थे। यह चैनल मूल रूप से दिल्ली के एक बड़े बिल्डर मधुर मित्तल का था। हिन्दुस्तान में मेरे साथी रहे हरेंद्र चौधरी उन दिनों नोएडा में ही एक न्यूज चैनल एस-1 में काम कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि वॉयस ऑफ इंडिया में सैलरी वगैरह की क्या स्थिति है, कहीं वहां पैसों का कोई टोटा तो नहीं चल रहा है। इसपर हरेंद्र ने बताया कि वैसे तो सब ठीक ही है पर पिछले कुछ समय से वहां कुछ परेशानियां होने की बात सुनी जरूर जा रही है। मैंने और भी कुछ लोगों से पता किया तो सबने चैनल को ठीकठाक ही बताया। इत्मीनान होकर और मित्र अमित सिन्हा की बात पर भरोसा करते हुए मैंने दैनिक जागरण से छुट्टी लेकर नोएडा चला गया। चैनल का दफ्तर नोएडा के सेक्टर 60 में था। मित्र अमित सिन्हा के सीईओ होने की वजह से जाते ही मुझे वहां एसोसिएट एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर (एईपी) की नौकरी मिल गई। तनख्वाह 35 हजार तय हुआ। दैनिक जागरण तो 20 हजार का वादा करके भी सिर्फ 15 हजार ही दे रहा था। वहां मेरा इंटरव्यू चैनल हेड नवभारत टाइम्स के वरिष्ठ पत्रकार रहे किशोर मालवीय और चैनल के एचआर मैनेजर नवीन जैन ने लिया था। फिर मैंने एचआर मैनेजर नवीन जैन से ऑफर लेटर लिया और 15 दिनों बाद काम शुरू करने का वादा करके पटना लौट आया। 

दो हफ्ते बाद जब वहां गया तो बाकायदा योगदान हुआ और चैनल के आउटपुट में काम करने को कहा गया। चैनल में खबरों का जो कुछ भी टेक्स्ट तैयार किया जाता था उसकी भाषा पर नजर रखने की जिम्मेदारी मिली। अपने पास टेलीविजन पत्रकारिता का कोई वैसा अनुभव तो था नहीं और नहीं वैसा कोई एक्सपोजर ही था जो वहां काम आता। वहां सारा टेक्निकल मामला था। सॉफ्टवेयर भी अजीब-अजीब तरह के थे जिनसे अपनी पहले कभी मुलाकात ही नहीं थी। लिहाजा मुझे हर तकनीकी चीजें सीखनी थी। कई चीजें मैंने सीखी भी। पर चंद महीनों में ही चैनल की आर्थिक हालत बहुत बिगड़ गई। सैलरी का संकट होने लगा। शायद संकट बहुत पहले से चल रहा था पर मुझे इसकी जानकारी नहीं हो पाई थी। मैंने दैनिक जागरण की नौकरी टीवी चैनल की चमक-दमक और मोटी तनख्वाह के लोभ में छोड़ दी थी पर यहां तो मामला उल्टा ही पड़ रहा था। मैंने रिस्क तो लिया पर बाद में यह निर्णय निहायत बेवकूफी भरा साबित होने लगा।

बस चंद महीनों में ही वहां चैनल में हड़ताल और विरोध जैसे हालात पैदा हो गए। फिर कुछ महीने इसी तरह घिसटने के बाद चैनल के मूल मालिक ने सबके सामने पूरा बकाया लेकर इस्तीफा देने का प्रस्ताव ऱख दिया। यह भी कहा गया कि चैनल को आगे अमित सिन्हा चलाएंगे। नई कंपनी होगी और सबको वहां नौकरी दे दी जाएगी। थोड़ा बहुत ना-नुकुर करने के बाद सबने हामी भर दी और बकायों का भुगतान लेकर सबने इस्तीफा भी दे दिया। पर अमित सिन्हा ने जब चैनल की दूसरी पाली शुरू की तो वहां फंड का जबर्दस्त टोटा था। उत्तर प्रदेश बिजली बोर्ड का बिजली का लाखों रुपए का बिल बकाया था। बिजली काट दी गई। चैनल को ऑन रखने के लिए जेनरेटर चलाने के लिए डीजल खरीदने तक के लिए कंपनी के पास पैसे नहीं थे। थोड़े पैसे चुकाकर बिजली जुड़वाई जाती थी जो फिर आगे भुगतान न होने की वजह से बार-बार काट दी जाती थी। बार-बार डीजल खरीदने के लिए पैसों की किल्लत होने लगी। चैनल का विशालकाय जेनरेटर स्टार्ट होने में ही 25 लीटर डीजल पी जाता था। पैसों की इस किल्लत के बीच दो बार ऐसे मौके आए जब कंपनी के सीईओ अमित सिन्हा के कहने पर मैंने अपने डेबिट कार्ड से पांच-पांच हजार का डीजल खरीदकर जेनरेटर चलवाया। मेरे वे पैसे बट्टे खाते में गए। इसी तरह ऑन एअर-ऑफ एअर हो-होकर लगभग दो महीने तक घिसटकर चैनल हमेशा के लिए बंद हो गया। सबके कमाए हुए पैसे भी डूब गए।

उन दिनों वहां सुनी गई चर्चाओं के मुताबिक शुरू में यह चैनल इतने धूम-धड़ाके से शुरू हुआ था कि चैनल के दफ्तर के बाहर 25-30 ओबी वैन लाइन में खड़े रहते थे। चैनल की अमीरी देखकर उस समय के हर छोटे-बड़े न्यूज चैनल का हर छोटा-बड़ा कर्मचारी वॉयस ऑफ इंडिया में आना चाहता था। पर चैनल की स्थितियां गड़बड़ाने के बाद वहां के लोग चैनल के बारे में तरह-तरह की कहानियां सुनाते थे। वॉयस ऑफ इंडिया चैनल के पास अपना कुछ भी नहीं था। सबकुछ किराए का था। चैनल का दफ्तर नोएडा सेक्टर 60 में किराए के एक विशालकाय भवन में था जिसका किराया भी बहुत भारी-भरकम था। उसी भवन में बगल में ही एबीपी का दफ्तर था पर एबीपी के पास वॉयस ऑफ इंडिया की तुलना में काफी कम जगह थी। कहते हैं जब चैनल डिजाइन हुआ तो चैनल के दफ्तर की इंटीरियर डिजाइनिंग एक बड़ी इंटीरियर डिजाइनर कंपनी से करवाई गई थी। दफ्तर तो शानदार बन गया पर डिजाइनिंग कंपनी को बहुत कम भुगतान किया गया। वहां लोग बताते थे कि चैनल में फर्नीचर भी जिससे लिया गया उसको भी बाकी पैसे फिर कभी नहीं मिले। चैनल के सारे इलेक्ट्रानिक साजो-सामान और उपकरण भी किराए पर लिए गए थे। कहते हैं कि उन वेंडरों का भी मोटा पैसा बकाया था। उन वेंडरों ने भुगतान न मिलने की वजह से कोर्ट में वसूली का मुकदमा दायर कर दिया था। जिस बिल्डिंग में दफ्तर था उसके मालिक ने भी लंबे समय से किराए का भुगतान न होने की वजह से चैनल पर मुकदमा दायर कर दिया था। कोर्ट के आदेश से दफ्तर बाकायदा सील भी कर दिया गया था। फिर भी सील तोड़कर अंदर काम किया जाता रहा था। एक बार तो चैनल में सिस्टम लगानेवाली कंपनी के कुछ लोग अचानक एक दिन चुपचाप दफ्तर आए और पीसीआर के सिस्टम से कोई महत्वपूर्ण डिवाइस खोलकर लेते गए जिससे पूरे चैनल का प्रसारण ही बंद हो गया और फिर कभी शुरू नहीं हो सका।

उन दिनों वहां सुनी गई चर्चाओं के मुताबिक कहते हैं चैनल में सिस्टम लगानेवाली कंपनी का सिस्टम यानी उपकरणों के किराए का लाखों-करोड़ों रुपए बकाया था जिसका लंबे समय से भुगतान नहीं हुआ था। इसी तरह उन दिनों वहां सुनी गई चर्चाओं के मुताबिक चैनल में रिपोर्टिंग और स्टाफ को लाने-ले जाने के काम के लिए जो कारें थीं उसे कंपनी ने बैंकों से फाइनेंस कराया हुआ था और कंपनी उसकी लोन ईएमआई का भुगतान नहीं कर पा रही थी। ऐसी कारें राज्यों में चैनल के ब्यूरो कार्यालयों में भी थीं। ब्यूरो कार्यालयों के भवन भी किराए पर ही लिए गए थे और लंबे समय से उनके किराए का भुगतान भी नहीं हो रहा था। जब चैनल बंद हो गया तो उन मकान मालिकों ने ब्यूरो का दफ्तर और दफ्तर का सारा साजोसामान (कंप्यूटर, इलेक्ट्रानिक उपकरण, कैमरे, फर्नीचर और दूसरे साजोसामान) और कंपनी की कार को भी अपने कब्जे में ले लिया। कंपनी ने न कभी ब्यूरो कार्यालय का बकाया किराया चुकाया और न ब्यूरो के साजोसामान और अपनी उन कारों को कभी वापस ही लिया। ब्यूरो प्रमुखों और ब्यूरो में काम कर रहे कैमरामैनों की सैलरी भी लाखों-करोड़ों में बकाया थी जिसका कंपनी ने कभी भुगतान नहीं किया। उन सभी ब्यूरो प्रमुखों की नौकरी भी गई और बकाया सैलरी भी गई।

बाद में इस बात का खुलासा हुआ कि चैनल मालिक करोड़ों की देनदारी से बचने के लिए चैनल को बंद करना चाह रहे थे और इसीलिए उन्होंने अमित सिन्हा से एक गुपचुप डील की थी। अमित सिन्हा के पास उतने पैसे तो थे नहीं कि वे चैनल चला पाते। अमित सिन्हा जुगाड़-जुगाड़ खेलना चाहते थे और चाहते थे कि कोई मोटा फाइनेंसर मिल जाए और वह चैनल में पैसा लगा दे। पर वैसा कुछ हो नहीं पाया। फिर यह भी तभी साफ हुआ कि चैनल के मूल मालिक ने चैनल को अमित सिन्हा की कंपनी को देने का एक नाटक किया था जिसके पीछे एक खास मकसद था चैनल से पिंड छुड़ाना। और चैनल मालिक की यह कोशिश करोड़ों की देनदारी से किसी तरह बच निकलने की एक तरकीब भी थी।

126. सीएनईबी में नौकरी

वॉयस ऑफ इंडिया से लौटने के बाद मुझे फिर एक लंबी बेरोजगारी झेलनी पड़ी। मैं दिल्ली छोड़कर फिर गांव ही लौट आया था। बाद में वॉयस ऑफ इंडिया में चैनल हेड रहे किशोर मालवीय जी की कृपा और मदद से नोएडा में ही एक दूसरे समाचार चैनल सीएनईबी में काम करने का मौका मिला। सीएनईबी में चैनल हेड अनुरंजन झा थे और उनक साथ थे किशोर मालवीय। किशोर मालवीय जी से मैं लगातार संपर्क में था इसलिए वे वहां गए तो जुगाड़ लगाकर मुझे भी बुला लिया। सीएनईबी चैनल वॉयस ऑफ इंडिया की तुलना में बहुत-बहुत छोटा था। दोनों में कहीं से कोई तुलना नहीं। बिल्कुल छोटा कारोबार। कोई पंजाबी चिटफंडवाला इसका मालिक था। किशोर जी ने मुझे रिसर्च एसोसिएट बनाकर नौकरी में लिया और 25 हजार रुपए की तनख्वाह तय की। बहुत छोटा चैनल था इसलिए ज्यादा पैसे दिए भी नहीं जा सकते थे। चैनल बमुश्किल डेढ़ साल चला होगा कि वहां एक बड़ी उठापटक हो गई। अचानक मालिक से कुछ विवाद हुआ और अनुरंजन झा और किशोर मालवीय दोनों ने नौकरी छोड़ दी। चैनल में एडीटोरियल के ज्यादातर लोग उन्हीं के लाए हुए थे पर जाते समय किशोर मालवीय जी सबको कह गए कि कोई इस्तीफा नहीं देगा। पर उनके जाने के बाद जो चैनल हेड आए उन्होंने आते ही पुराने लोगों को चलता करना शुरू कर दिया। एचआर तक में भी लोग हटा दिए गए। दरअसल, मालिक का इरादा सारे घर को बदल डालने का था। जल्दी ही मेरा भी नंबर आ गया। आर्थिक संकट और चिटफंड के रैकेट को लेकर सरकार की तरफ से की गई धर-पकड़ की कार्रवाई और सख्ती की वजह से चैनल बड़ी मुश्किल से दो-ढ़ाई साल चल पाया और फिर बंद हो गया।

सीएनईबी छोड़ते समय मेरी उम्र करीब 54 साल थी। यानी रिटायर होने की सरकारी उम्र पूरा होने मे चार साल अभी बाकी था। वहां से निकलने के बाद मैंने दिल्ली में नौकरी की तलाश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हर जगह चक्कर लगाया और मीडिया के हर छोटे-बड़े दरवाजे पर दस्तक दी। पर कहीं सफलता नहीं मिली। नोएडा के सेक्टर 62 में स्थित दैनिक जागरण के भी खूब चक्कर लगाए। वहां निशिकांत ठाकुर उन दिनों बड़ी ताकतवर और निर्णायक भूमिका में होते थे। उन्होंने कई बार मुझे बुलाकर अपने सामने बिठाया, बातें की और मेरी सीवी देखी। हर बार आश्वासन भी देते रहे। कई महीनों तक इसी तरह लटकाए रखा पर कोई मदद नहीं की। आखिर में बोले कि अभी कोई गुंजाइश नहीं है। 

- गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....

(यह मेरे ब्लॉग ganeshprasadjha.blogspot.com पर भी उपलब्ध है)


पत्रकारिता की कंटीली डगर- 54 (अंतिम)

 

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की चौवनवीं और अंतिम किस्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 54 (अंतिम)


127. नए चैनल की तैयारी और भारद्वाज जी के तांत्रिक किस्से

नौकरी जाने के बाद मैं फिर से बहुत निराश हो गया था और जेब में अब पैसे नहीं बचे थे सो वापस गांव लौटने का मन बना रहा था। तभी एक दिन अमित सिन्हा ने फोन किया और कहा कि वे एक धार्मिक चैनल शुरू करने का प्रोजेक्ट कर रहे हैं सो आ जाइए। उनका दफ्तर साकेत मेट्रो से थोड़ा आगे मालवीय नगर में था। मैंने वहां काम करना शुरू किया। वहां वॉयस ऑफ इंडिया के भी कुछ वीडियो एडीटर साथी काम करते मिले। उन दिनों चैनल का लोगो वगैरह बनाने का काम चल रहा था। कुछ कार्यक्रम और दूसरी शुरुआती चीजें भी तैयार की जा रही थीं। वहीं मुझे मिले पुराने जीटीवी के काल कपाल महाकाल फेम के प्रोड्यूसर आरके भारद्वाज। भारद्वाज जी चैनल के लिए नए-नए प्रोग्रामों-कार्यक्रमों की स्क्रिप्ट तैयार करते थे। रात को काम पूरा करने के बाद हमलोग भारद्वाज सर से उनके पुराने दिनों के बेजोड़ अनुभवों की बेहद रोचक कहानियां बिल्कुल एकाग्र होकर सुना करते थे। काम से ज्यादा मन तो भारद्वाज जी के पास बैठने में लगा करता था। उनके पास अनुभवों और जानकारियों का काफी बड़ा भंडार था।

भारद्वाज जी बताते थे कि वे एक टीवी पत्रकार होने के साथ-साथ एक तांत्रिक भी हैं और अघोरपंथ के सफल साधक होने की वजह से एक अघोरी भी। उन्होंने कानून की भी पढ़ाई की थी और एमबीए भी किया था। वे बताते थे कि बचपन से ही उनकी दिलचस्पी श्मशानों में हो गई थी। श्मशानों के प्रति उनका आकर्षण हो गया था और वे वक्त मिलते ही घर में बिना किसी को कुछ बताए चुपचाप श्मशान घूमने चले जाते थे और वहां घंटों अकेले बैठे रहते थे। उनका यह आकर्षण धीरे-धीरे बढ़ता गया और बड़े होने पर उन्होंने एक बड़े तांत्रिक को अपना गुरु बनाकर बाकायदा तंत्र की बड़ी-बड़ी साधनाएं पूरी की। यहां मैं यह साफ कर देना चाहती हूं कि भारद्वाज जी की बताई तंत्र-मंत्र, अघोरपंथ और आत्माओं की कहानियों को यहां लिखकर मैं इन चीजों को प्रेमोट बिल्कुल नहीं कर रहा। इस तरह का मेरा कोई इरादा नहीं है। हां, मैं तंत्र-मंत्र, भूत-प्रेत और आत्मा-परमात्मा को झूठ बिल्कुल नहीं मानता।

भारद्वाज जी बताते थे कि तंत्र साधना में उन्होंने मुर्दों को जिंदा करने की विद्या भी सीखी। फिर इस विद्या का उन्होंने सफल प्रयोग भी किया। उन्होंने बताया कि दुनिया में इस विद्या को जाननेवाले केवल तीन ही लोग हैं (उस समय)। यानी भारद्वाज जी के अलावा दो और तांत्रिक। भारद्वाज जी बताते थे कि यह विद्या बहुत कठिन होने के साथ-साथ बहुत रिस्की भी है। उन्होंने बताया कि जब इस विद्या का प्रयोग किया जाता है तो प्रयोग में शामिल मृत शरीर में बाहर भटक रही कोई आत्मा प्रवेश कर जाती है और धीरे-धीरे वह मृत शरीर जी उठता है। यह बाहरी आत्माएं ज्यादातर शैतानी आत्माएं ही होती हैं। ये आत्माएं ऐसी आत्माएं होती हैं जिनके शरीर का सही ढंग से अंतिम संस्कार नहीं हुआ होता है। ऐसे में वे भटकने लग जाती हैं। उन्होंने यह भी बताया कि ऐसी भटकती दुष्टात्माएं कम से कम हिंदू धर्मावलंबियों की तो लगभग नहीं ही होती हैं। प्रयोग में शामिल उस मुर्दा शरीर की अपनी पुरानी आत्मा उस शरीर में नहीं लौटती। इसलिए इसमें खतरा यह होता है कि मृत शरीर में प्रवेश करने वाली वह बाहरी शैतानी आत्मा कई बार एकाएक हिंसक भी हो जा सकती है और प्रयोग कर रहे उस तांत्रिक की तत्काल जान भी ले सकती है। वह आत्मा वहां प्रयोग स्थल पर मौजूद लोगों को भी मार सकती है। इसलिए यह प्रयोग खतरे से खाली नहीं है।

भारद्वाज जी सुनाते थे कि एक इलाज के दौरान दिल्ली एम्स में कैसे उनकी कई बड़े-बड़े डॉक्टरों से दोस्ती हो गई थी और डॉक्टर जान गए थे कि भारद्वाज जी मुर्दे को जिंदा कर सकते हैं। बात पूरे एम्स में आग की तरह फैल गई थी और डॉक्टर उनसे इस विद्या का प्रयोग करके दिखाने का आग्रह करने लगे थे। शुरू में तो भारद्वाज जी ने साफ मना कर दिया पर जब एम्स के प्रशासक और अस्पताल के बड़े-बड़े डॉक्टर और अधिकारी भी जब उनसे विनती करने लगे तो उन्होंने उनका यह खतरनाक अनुरोध स्वीकार कर लिया। पर उन्होंने शर्त रख दी कि वे मृत शरीर को इस हद तक जीवित नहीं करेंगे कि मुर्दा उठ बैठे। मृत शरीर में हरकत होते ही वे प्रयोग को रोक देंगे। उनकी यह शर्त मान ली गई। पूरी गोपनीयता बरतते हुए एम्स के एक गोपनीय कक्ष में मुर्दाघर में एक अधिक दिनों से पड़ा एक मृत शरीर लाया गया। प्रयोग शुरू करने से पहले डॉक्टरों से उस मृत शरीर की पूरी जांच कराई गई और एक बार फिर से यह सुनिश्चित हो लिया गया कि वह शरीर मृत ही है। कई तरह के टेस्ट करके मुर्दे का सबकुछ जांचा-परखा गया। फिर शुरू हुआ वह अद्भुत प्रयोग। भारद्वाज जी बताते गए कि कुछ देर प्रयोग चलने के बाद मुर्दाघर के फ्रीजर से निकालकर लाए गए उस बर्फीले मृत शरीर में गर्माहट आने लगी। प्रयोग स्थल पर उपस्थित डॉक्टरों ने मुर्दे को जांचा और पाया कि वह मृत शरीर सही मायने में गर्म होने लगा था। प्रयोग के कुछ देर और चलने पर उस मृत शरीर में रक्त का प्रवाह होना शुरू हो गया और नाड़ी चलने लगी। दिल भी धड़कने लगा। वहां मौजूद डॉक्टरों ने उस शरीर पर फिर कई टेस्ट किए और पाया कि मुर्दा वाकई जी उठा था। आगे प्रयोग चलने पर उस शरीर में हरकत होनी थी। भारद्वाज जी अपने प्रयोग को इसी जगह रोक देना चाहते थे क्योंकि आगे गंभीर खतरा आनेवाला था। पर डॉक्टरों ने उनसे थोड़ा और आगे बढ़ने की प्रार्थना की। भारद्वाज जी ने प्रयोग को थोड़ा और आगे बढ़ाया तो मुर्दे का शरीर हिलने-डुलने लगा। बस प्रयोग को यहीं रोक दिया गया। फिर उन्होंने अपनी तांत्रिक क्रिया से उस शरीर को पूरी तरह शांत किया और उसे वापस मुर्दाघर में रखवा दिया गया।

भारद्वाज जी ने बताया कि, मैंने एम्स के प्रशासकों और डॉक्टरों से साफ-साफ कह दिया की अगर वे इस प्रयोग को पूरा देखना चाहते हैं और चाहते हैं कि मुर्दा उठ खड़ा हो और चलने-फिरने की स्थिति में आ जाए तो इसके लिए भारत सरकार से एक आदेश लिखवाकर लाइए कि जब वह मुर्दा उठकर खड़ा हो और चलना शुरू कर दे तो मैं उसे मार डालूं और इसके लिए मुझपर जिंदा हुए उस मुर्दे की हत्या का कोई आरोप न लगे और मुझपर किसी तरह का कोई मुकदमा भी न चले। क्योंकि उस हालत में मैं उसे जिंदा नहीं छोड़ सकता। भारद्वाज जी ने कहा कि सरकार अगर लिखित आदेश दे तो वे इंटरनेशनल मीडिया के सामने और कैमरों के आगे इस प्रयोग को सफलतापूर्वक करके दिखा सकते हैं। पर यह ऐसा विषय है जिसमें इस तरह का कोई लिखित आदेश कोई भी सरकार नहीं देगी।

भारद्वाज जी तंत्र साधना के चक्कर में अपने तांत्रिक गुरु तक कैसे पहुंचे इसकी भी बड़ी दिलचस्प कहानी है। भारद्वाज जी ने बताया कि वे भूत-प्रेत और आत्माओं वगैरह को देखने के लिए हमेशा तांत्रिकों की खोज में लगे रहते थे और तांत्रिकों की तलाश में अक्सर दूर-दूर तक चले जाते थे। इसके अलावा तरह-तरह के झाड़-फूंक करनेवालों से भी वे मिलते रहते थे और उनकी तलाश में भी वे अक्सर दूर-दूर तक चले जाते थे। इस क्रम में उन्होंने देश के कई श्मशानों और दूसरी जगहों के चक्कर काटे और देश के कई बड़े-बड़े तांत्रिकों, झाड़-फूंक करनेवालों और ओझाओं-गुनियों से मिले। भारद्वाज जी ने बताया कि शुरू में कई तांत्रिकों से उनकी भेंट हुई पर कोई उन्हें वह सब नहीं दिखा सका जो कुछ वे प्रत्यक्ष देखना चाहते थे। वादा सभी करते थे पर दिखा कोई कुछ नहीं पाता था। फिर उन्हें एक तात्रिक मिला जिसने कहा कि वह उनको वह सब कुछ दिखा देंगे जो सब वे देखने की मन में तमन्ना लिए फिर रहे है। फिर क्या था भारद्वाज जी उस तांत्रिक के पीछे हो लिए। तांत्रिक उनको एक बड़े जाग्रत श्मशान में अपनी कुटिया में ले गए। दोनों वहीं रहने लगे। तांत्रिक ने उनके बाल मुड़वा दिए और उनको काला वस्त्र पहनने को दिया। पर वहां रहकर भी उनको वहां दिख कुछ भी नहीं रहा था। कई दिन बीत गए कुछ नहीं दिखा। दिखता था तो सिर्फ यह कि लाशों का आना और जलना। कई दिनों तक श्मशान में रहने के बाद भी जब उन्हें कुछ नहीं दिखा तो उन्होंने तांत्रिक को कोसना शुरू किया कि वादा तो बड़े लंबे-चौड़े किए पर दिखा कुछ नहीं पाए। इसपर तांत्रिक ने कहा बस थोड़ा सा और सब्र कर लो। सबकुछ दिख जाएगा। एकाध दिन और निकल गए और तब तांत्रिक ने एक दिन भारद्वाज जी से कहा कि उनको बाहर कुछ काम है इसलिए वे दो दिन के लिए बाहर जाएंगे। तांत्रिक ने भारद्वाज जी से कहा कि आप यहां दो दिन रुको, मैं काम करके लौटता हूं। तांत्रिक ने उनसे पूछा कि अकेले में डरोगे तो नहीं। भारद्वाज जी ने कहा बिल्कुल नहीं। तांत्रिक चले गए। भारद्वाज जी श्मशान की कुटिया में अकेले रह गए। भारद्वाज जी ने देखा कि जब भी कोई लाश आती तो उनको दक्षिणा मिलती थी और साथ में करीने से पैक किया हुआ खाना और बोतलबंद पानी भी आता था। भारद्वाज जी चिंतामुक्त हो गए। पर दो दिन निकल जाने के बाद भी तांत्रिक नहीं लौटे। श्मशान में रोज रात के सन्नाटे में एक औरत के जोर-जोर से रोने और चीखने-चिल्लाने की आवाज आती थी। वह औरत रोते-रोते बोलती भी थी और अपनी पीड़ा बयान करती थी। यह आवाज रोज रात को आती थी। उसी श्मशान में कुछ दूरी पर एक और तांत्रिक बाबा की कुटिया थी। जब वह औरत खूब चिल्लाने लगती और गुस्से में बोलने लगती थी तो वह बाबा उसे डांटने लगते थे और उसे उसका पिछला कर्म याद दिलाने लगते थे। भारद्वाज जी ने उन तांत्रिक बाबा से उस औरत के रोने-चिल्लाने के बारे में पूछा तो बाबा ने बताया कि वह एक प्रेत है। पिछले जन्म में उसकी गर्भवती हालत में हत्या हो गई थी। वह आज तक भटक रही है। वह इसी श्मशान में रहती है। भारद्वाज जी को वहां श्मशान में ऐसे ही कई और प्रेतों से साक्षात्कार हुआ। सबकी अलग-अलग पीड़ा और पिछले जन्म की कहानियां थीं। करीब आठ-दस दिन बीत जाने के बाद वह तांश्रिक लौट आए। आते ही तांत्रिक ने भारद्वाज जी से पूछा कि कुछ दिखाई दिया क्या? भारद्वाज जी ने कहा कि हां, जो कुछ भी मैं देखना चाहता था वह दिख गया। तांत्रिक ने कहा कि उनको कहीं कोई काम नहीं था और वे कहीं नहीं गए थे। वे तो श्मशान के पास ही एक मोहल्ले में एक किराए का कमरा लेकर वहीं पड़े हुए थे और वहीं से भारद्वाज जी को देखते रहते थे। तांत्रिक ने भारद्वाज जी से कहा कि उनको पैक किया हुआ खाना और पानी भी वही भिजवा रहे थे वरना श्मशान में कहीं कोई खाना लेकर आता है क्या। वे इतना कुछ इसलिए कर रहे थे ताकि भारद्वाज जी श्मशान में रुके रहें, वहां से भाग न जाएं। फिर तो भारद्वाज जी ने उसी तांत्रिक को अपना गुरु बनाया और उनके निर्देशन में कई तरह की बेहद कठिन श्मशान साधनाएं पूरी की और कई दुर्लभ सिद्धियां हासिल की।

भारद्वाज जी से वहां उनके बचपन के एक लंगोटिया यार तांत्रिक मिलने आया करते थे। उनके वे तांत्रिक साथी आनंदमार्गी थे। पर वे भी इस तंत्र विद्या में पहुंचे हुए ही थे। उनसे वहां मेरी दो बार मुलाकात हुई थी। ऐसे विचित्र विषयों में मेरी जिज्ञासाओं को देखकर उन्होंने मुझसे कहा था कि, मेरे पास छोटी-बड़ी कई तरह की साधनाएं हैं। इन साधनाओं में चवन्नी-अठन्नी कमानेवाली भी हैं और बड़े-बड़े चमत्कारिक काम करनेवाली भी। चाहो तो थोड़-बहुत कुछ सीख लो।पर मैंने वहां की आर्थिक हालत को डांवाडोल देखकर अमित सिन्हा के उस दफ्तर में जाना ही बंद कर दिया इसलिए बात आगे नहीं बढ़ पाई। भारद्वाज जी का साथ भी वहीं छूट गया। मैं कुछ सालों तक उनके संपर्क में जरूर रहा पर फिर उनसे मिलने और उनके पास बैठने का सौभाग्य फिर नहीं मिल पाया।

 

128. प्रोजेक्ट का लड़खड़ाना और मेरी घर वापसी

 

अमित सिन्हा के इस प्रस्तावित टीवी चैनल के लिए जो चंद लोग काम करते थे उनको कभी समय पर तनख्वाह नहीं मिल पाती थी। दरअसल, अमित सिन्हा को अपने इस प्रस्तावित चैनल के लिए फाइनेंसर की तलाश थी। इसलिए वे चैनल लाने के लिए चल रहे शुरुआती कामकाज को दिखाकर फाइनेंसर पटाने की जुगत में लगे रहते थे। लगभग हर दिन चैनल के छोटे से दफ्तर में नए-नए लोग आते और हमारा कामकाज देख जाते। कई महीने गुजर जाने के बाद भी अमित सिन्हा को कोई फइनेंसर नहीं मिल पाया। इस कारण दफ्तर में हमेशा पैसे का भारी टोटा रहता था। दफ्तर का माहौल पूरी तरह अनिश्चितताओं से भर गया था। भारद्वाज जी भी कहने लगे थे कि वे भी अब दफ्तर आना बंद कर देंगे। सीएनईबी की नौकरी ले निकलने के बाद से मेरी जेब पूरी तरह खाली थी और इस तरह उम्मीदों के सहारे दिल्ली जैसे शहर में रह पाना संभव नहीं था। हालांकि मैं उन दिनों नोएडा के एक निचले इलाके की गंदी बस्ती में रहता था फिर भी जरूरी खर्चों के लिए पैसे नहीं जुटा पा रहा था। जब मैंने देखा कि पैसे अब बिहार लौट जाने भर के ही बच रहे हैं तो मैंने अमित जी से वहां रह पाने में असमर्थता जताते हुए हाथ जोड़ लिया और सामान बांधकर अपने गांव लौट आया।

नौकरी से मेरी यह घर वापसी 54 साल की उम्र में ही हो गई। इस तरह मीडिया में रिटायर होने की तय सरकारी उम्र 58 साल से ठीक चार साल पहले ही मैं रिटायर हो गया। अगर दिल्ली में अपना घर होता तो देर-सबेर कहीं न कहीं किसी अखबार या चैनल में कोई काम मिल ही जाता। पर यहां बिहार अपने गांव लौटकर तो पत्रकारिता करने की कोई गुंजाइश ही नहीं बची थी। दिल्ली में बिना काम और बिना पैसे के टिक पाना बिल्कुल संभव नहीं था। इसलिए मेरे लिए गांव लौट जाने के अलावा कोई और विकल्प था भी नहीं। गांव लौटने के बाद मैंने पटना और बिहार के दूसरे जिलों से छप रहे अखबारों में नौकरी पाने के लिए खूब कोशिश की पर कहीं से भी कोई रिस्पॉंस नहीं मिला। गांव में इसी बेरोजगारी में जीते हुए धीरे-धीरे मैंने रिटायरमेंट की 58 और फिर 60 की उम्र सीमा भी पार कर ली।

 

-समाप्त-


- गणेश प्रसाद झा

आपलोग मेरी इस किताब को पढ़ते रहे इसके लिए आप सभी मित्रों का हृदय से आभार। उम्मीद करता हूं जब यह किताब आ जाएगी तो उसे भी आप जरूर पढ़ना चाहेंगे। किताब में आपको और भी बहुत कुछ मिलेगा जो मैं यहां नहीं दे पाया।


सोमवार, 12 दिसंबर 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 52

 एक पत्रकार की अखबार यात्रा की बावनवीं किस्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 52

122. संपादक नाम की संस्था के खत्म होने का दौर

पत्रकार मणिकोंडा चलपति राव का दौर पत्रकारिता में ईमानदारी का स्वर्णिम काल था। कहते हैं उनके निधन के बाद वाले दौर में यानी 90 के दशक से देश की मीडिया में बाजारवाद का उदय होना शुरू हुआ और संपादक नाम की संस्था कमजोर पड़ने लगी। अखबारों में संपादक नाम की संस्था धीरे-धीरे कमजोर होने लगी और संपादकीय विभाग पर मैनेजरों और मालिकों का नियंत्रण कायम होने लगा। खबरों को पीछे की सीट पर धकेल कर विज्ञापन आगे की सीट पर आ बैठा। इस खतरनाक दौर का असर वर्ष 2000 के आते-आते हर जगह दिखाई देने लगा। फिर कुछ ही सालों में लगभग सभी अखबारों में संपादक प्रभावहीन बना दिए गए और वे तब सिर्फ नाम के ही संपादक रह गए। मैनेजर और मालिक ही अखबारों के वास्तविक संपादक बन गए। मालिकों ने अखबारों की प्रिंटलाइन में संपादक की जगह अपना नाम छपवाना शुरू कर दिया। आज हालत यह है कि देश के हर   छोटे-बड़े अखबार में मालिक का नाम प्रमुखता से छप रहा है। मेरी जितनी समझ है उसके हिसाब से इस खतरनाक परंपरा की शुरुआत सबसे पहले टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार समूह में हुई। उसकी देखादेखी हिन्दुस्तान टाइम्स अखबार समूह ने की और वहां भी संपादक भंगी बना दिए गए। अखबारों के कंटेंट पर भी मैनेजरों और मालिकों का नियंत्रण हो गया। प्रबंधन की तरफ से भिजवाई गई सामग्री अखबारों में छपने लगी। इसमें समाचार भी शामिल होने लगे। शहरों के बाजार के हिसाब से संपादक बनाए जाने लगे। कोई दिल्ली मार्केट का संपादक बना दिया गया तो कोई मुंबई मार्केट का। संपादकों के पास यह अधिकार भी नहीं रहने दिया गया कि वे अपनी मर्जी और पसंद से किसी पत्रकार को अपने यहां नौकरी पर रख सकें। संपादकों को बेआबरू करके निकाले जाने की कई घटनाएं हुईं। कुल मिलाकर अखबारों के दफ्तर पैसा कमाने वाली बनियों की दुकान बन कर रह गए।

थोड़े ही दिनों बाद अखबारों के दफ्तरों का खुलापन भी खत्म हो गया और उनमें कॉरपोरेट कल्चर पूरी तरह हावी होता गया। इस कॉरपोरेटी व्यवस्था में बाहर के पत्रकारों या लेखकों के लिए किसी अखबार के संपादक से मिलना लगभग असंभव या बहुत कठिन बना दिया गया। अखबारों के दफ्तरों में प्रवेश पर अनुमतियों और बात-बात में पर्चा कटवाने का ताला जड़ दिया गया। नतीजा यह हुआ कि अखबारों के दफ्तर जो कभी लेखकों, साहित्यकारों और पत्रकारों के जमघट हुआ करते थे वे उन कलमकारों से दूर होते गए। बाद में नियम बना दिए गए कि कोई लेखक, साहित्यकार या पत्रकार अखबारों के दफ्तर में चौकीदारों (सिक्यूरिटी गार्डों) से इजाजत लेकर प्रवेश तो कर सकते हैं पर वे दफ्तर के रिसेप्शन से आगे नहीं जा सकते। एडिटोरियल तक जाने की उनको किसी भी सूरत में इजाजत नहीं होती थी। उनको दफ्तर में जिस किसी पत्रकार से या संपादक से मिलना होता था तो चौकीदार ही उनकी पर्ची उन पत्रकार या संपादक तक पहुंचाता औऱ फिर अगर वह पत्रकार समय निकालकर उनसे मिलने की स्थिति में होता था तो उसे वहीं रिसेप्शन में आना होता था। संपादक अगर किसी आगंतुक लेखक, साहित्यकार या पत्रकार से मिलना चाहते थे तो वे उस आगंतुक को भीतर अपने कक्ष में बुलवाते वरना आगंतुकों को वहीं रिशेप्शन से लौट जाना पड़ता। इस व्यवस्था ने अखबारों के दफ्तरों और कलमकारों के बीच एक गहरी खाई बना दी। अखबारों के दफ्तरों में उनका आना-जाना बहुत कम हो गया। इसका अखबारों को बाहर से मिलनेवाली लेखकीय सामग्रियों पर बहुत बुरा असर पड़ा और लेखकों-पत्रकारों ने अखबारों के लिए लिखना कम कर दिया। अखबारों को मिलनेवाली स्तरीय सामग्री कम होती गई और वे घिसे-पिटे से होते गए। इसका अखबारों की विश्वसनीयता और उसकी साख पर भी बहुत बुरा असर पड़ा। कुछ साल बाद, खासकर 2010 के बाद अखबारों ने स्वतंत्र पत्रकारों को दिया जानेवाला लेखन का पारिश्रमिक घटाना शुरू कर दिया और अगले कुछ सालों में उसे लगभग बंद ही कर दिया गया। अब बड़े अखबार घराने भी कुछ स्थापित नामों को छोड़ दें तो पारिश्रमिक के नाम पर किसी को एक धेला नहीं देते। अखबारों ने अब मुफ्त में लेख और रिपोर्ताज वगैरह हासिल करने के लिए जुगाड़ वाली व्यवस्था कर ली है। और पत्रकार भी अपना नाम जिंदा रखने और समाज में अपनी कमाई हुई इज्जत को बरकरार रखने के लिए मुफ्त में लिखना जारी रखे हुए हैं। इसे आप यह भी कह सकते हैं कि आज के समय में पत्रकार मुफ्त में लिखने को मजबूर हैं। अगर कोई पत्रकार अखबार से कभी कोई पारिश्रमिक मांगने की भूल कर बैठता है तो अखबार का संपादक उसे कोई पैसे तो नहीं ही देता, तत्काल उससे अपना सहयोग बंद कर देने के लिए कह डालता है।

123. समय के गर्त में समा गए कई बड़े अखबार

देश के कई बड़े और प्रतिष्ठित माने जानेवाले अखबार जैसे जनसत्ता, स्टेट्समैन, द इंडिपेंडेंट, आज और स्वतंत्र भारत सब के सब समय के गर्त में समा गए। वजह चाहे जो भी रही हो पर आज भी इन अखबारों के लेखक, पत्रकार और इसे पढ़ने वाले कभी भी नहीं चाहते थे कि ऐसे अखबार बेमौत मर जाएं। जिन अखबारों की कभी मिसाल दी जाती थी, आज वो खुद वजूद में नहीं हैं। सही कहते हैं की हर किसी की एक नियत उम्र होती है, सबका अपना-अपना वक्त होता है। अपने समय के इन प्रतिष्ठित अखबारों का वक्त गुजर गया।

एक जमाने में कोलकाता में अमृत बाजार, आनंद बाजार और स्टेट्समैन ही जाने जाते थे। अब सिर्फ आनंद बाजार बचा हुआ है। स्टेट्समैन वालों का अंग्रेजी का और बांग्ला में स्टेट्समैन अखबार है। अखबार कोलकाता शहर के चौरंगी स्थित स्टेट्समैन हाउस के पिछवाड़े से जैसे-तैसे निकलता है। अखबार के कर्मचारियों को महीनों तक वेतन भी‌ नहीं मिलता है। अब अखबार के दफ्तर की बड़ी-सी जगह भी एक मॉल में तब्दील हो गई है। इस मॉल का नाम है न्यू एज टेक मॉल । कहते हैं कोलकाता के चौरंगी स्थित इस बेशकीमती संपत्ति स्टेट्समैन हाउस को लियांस प्रोपर्टीज नामक एक बिल्डर कंपनी ने खरीद लिया है! यह खबर बहुत ही दुखद है। आज यह अखबार भी बुरे हाल में है।

इस अखबार के आखिरी पारसी संपादक रूसी मोदी थे। बाद में बरसों तक सुनंदा दासगुप्त रहे जो सिंगापुर टाइम्स से आए थे। अखबार को घटिया श्रेणी में निकालते रहने के लिए 1983 में रवींद्र कुमार संपादक बने थे। आखिरी दिनों में पांच ‌साल‌‌ पहले तक‌ रवींद्र कुमार ही इसके संपादक/मैनेजर दोनों थे। अब इस अखबार के दिल्ली संस्करण को किसी जैन ने खरीद लिया है। ये नए मालिक कर्मचारियों को अच्छा पैसा देना नहीं चाहते।

वर्ष 1875 में शुरू हुआ स्टेट्समैन अखबार एक समय में सलीके का अखबार हुआ करता था। इमरजेंसी समाप्त होने के बाद इसमें छपी बहुत सी खबरें अनुवाद करके क्षेत्रीय अखबारों में छपती थी। इसे बहुत इज्जतदार अखबार माना जाता था। जिसके हाथ में यह अखबार होता था उसे इंटेलेक्चुअल माना जाता था और लोग उसे बड़ी इज्जत की नजर से देखते थे। यह भी कहा जाता था कि अच्छी अंग्रेजी सीखनी हो तो स्टेट्समैन पढ़ो। यही स्टेट्समैन अखबार अब बिक गया है। इस अखबार से जुड़े रहे लेखक, पत्रकार जिन्होंने अपनी मेहमत से इसे स्टेट्समैन बनाया वे अब यह सब देखकर दुखी हो रहे हैं, पर चाहकर भी कुछ कर नहीं पा रहे हैं।

स्टेट्समैन अखबार अब सिर्फ एक नाम का दैनिक रह गया है। उसके मालिकों, प्रबंधकों और संपादकों का गठजोड़ एक अच्छे भले दैनिक की कैसे हत्या करता है उसका एक जबरदस्त उदाहरण आज का स्टेट्समैन अखबार है। पहले विश्वामित्र, सन्मार्ग, नई दुनिया और कई दूसरे अखबार अपने मालिकों में धन की हवस के चलते अखबारों से अर्जित भूमि को बेचा करते थे। अखबारों की साख को पहले कम से कम स्टाफ में खराब करो और फिर उसे जमीन और मशीन समेत बेच दो। यह नजरिया पहले हिंदी अखबारों में ही था, लेकिन अब अंग्रेजी में भी शुरू हो गया है। इसकी एक पहल अंग्रेजी के प्रतिष्ठित अखबार स्टेट्समैन ने कर दी है। कल दूसरे अखबार भी यही रास्ता अपना सकते हैं।

'स्टेट्समैन' यानी भारत में अंग्रेजों का साथी अखबार। यह वाक्य अखबार के संपादकीय पेज पर अस्सी के दशक तक छपता रहा। कभी अंग्रेज इस अखबार के संपादक होते थे। तब देश के मिशनरी स्कूलों और देश के अपने अफसरों के लिए यह अखबार लगभग अनिवार्य था जिससे वे अपनी अंग्रेजी भाषा ठीक कर सकें। लेकिन नब्बे के उदारीकरण के तहत इस अखबार के संपादक और फैसला लेने वालों की टीम ने तय किया कि इस अखबार को दिल्ली में कनाट प्लेस और कोलकाता की चौर॔गी में सरकारों से लगभग मुफ्त में मिली जमीनों का उपयोग बदलते दौर के लिहाज से किया जाए। पहल दिल्ली के कनाट प्लेस में शुरुआत के साथ हुई। बाद में चौर॔गी में भी हुआ। कनाट प्लेस से अखबार नोएडा पहुंच गया । बेशकीमती जमीन पर खड़े भवन को आधुनिक रूप दिया गया और उसके बाद वहां  बड़ी-बडी कंपनियों के दफ्तर खुल गए। अखबार अब लगभग फाइल कापी में सिमट कर रह गया है। पत्रकार जो वहां काम कर रहे हैं वे बहुत कम पैसों पर वहां समय बिता रहे हैं। अब अंग्रेजी बेहतर करने वाले इस अखबार को नहीं उठाते। चौरंगी में अब यह मॉल बन कर जन के उपयोग में रहेगा और वहां बडी कंपनियों के कार्यालय छा जाएंगे। आखिर मौके की जगह जो है। स्टेट्समैन अखबार बराए नाम मॉल के पीछे बने एक छोटे से घर से निकलता रहेगा जिससे अखबार को मिली सरकारी सुविधाएं न छिनें। पर यह सरकार के साथ धोखा और पहले से तय नियमों-शर्तों का सरासर उल्लंघन है। पत्रकारिता की आत्मा की रक्षा के लिए केंद्र और राज्यों की सरकारों को अखबार की संपत्ति बेचने की अखबार मालिकों की इस प्रवृत्ति पर तत्काल रोक लगानी चाहिए। बेहतर यही होगा कि नियमों का उल्लंघन करने के आरोप में सरकार अखबारों को मुफ्त में दी गई जमीन वापस ले ले।

124. पत्रकारिता में प्रशासनिक अफसरशाही 

अस्सी के दशक में अखबारों में संपादकीय प्रशासनिक अफसरशाही का सूत्रपात हुआ। इसमें अखबारों में अफसरशाही शुरू हो गई जिसके शिकार ज्यादातर पत्रकार ही हुए। खासकर अखबार को गढ़नेवाले अच्छे और मेहनती पत्रकार। एक खास तरह की राजनैतिक रणनीति, विचारधारा, वैचारिक मतभेद, वैमनस्यता और आपसी कटुता की वजह से अच्छा काम कर रहे पत्रकार इधर से उधर किए जाते रहे और कई बार तो नौकरी से भी निकाले जाते रहे। इस उठापटक से अखबारों की कार्यशैली तो बिगड़ी ही उसकी तासीर भी क्षतिग्रस्त हुई। जो पत्रकार मेहनत से अखबारों को गढ़ते हुए उन्हें एक अच्छी पहचान दे रहे थे वे दूसरी जगहों पर जाकर अन्यमनस्क से हो गए और फिर आगे कभी मन लगाकर काम नहीं कर पाए। इस तरह प्रशासनिक अफसरशाही के शिकार बने पत्रकारों में एक धारणा बन गई कि चाहे कितना भी मेहनत करो, कोई मालिक या संपादक सगा नहीं होता। इस धारणा के असर से लोग धीरे-धीरे रूटीन होते गए जिससे अखबारों की खासियत खत्म होती चली गई। आंचलिक अखबारों में तो यह प्रयोग अच्छा रहा पर महानगरों में नहीं चल पाया। इस प्रशासनिक अफसरशाही का वार जनसत्ता में भी बहुत हुआ। पहला वार तब हुआ जब जनसत्ता के सांचे में ढले हुए एक बेहतरीन और मेहनती पत्रकार को दिल्ली से हटाकर चंडीगढ़ भेज दिया गया और वहां से फिर उनकी बंबई रवानगी कर दी गई। उनकी जगह जो आए या लाए गए उनका समाचार विभाग में कभी कोई खास योगदान नहीं रहा। फिर परेशान होकर उन्होंने नौकरी छोड़ दी और दूसरे अखबारों में काम करने चले गए। इससे जनसत्ता को नुकसान ही हुआ। छोटी-छोटी गलतियों और बातों को लेकर कुछ बहुत अच्छे पत्रकार नौकरी से निकाल दिए गए। इस संपादकीय प्रशासनिक अफसरशाही की वजह से कई अच्छे पत्रकार जनसत्ता की नौकरी छोड़कर दूसरी जगहों पर चले गए। उनके निकलने के बाद फिर उन जैसी तासीर वाले अच्छे लोग जनसत्ता को कभी नहीं मिले। दैनिक जागरण में तो लोग बताते हैं कि वहां ट्रांसफर सबसे अधिक होता है और लोग इससे हमेशा घबराए रहते हैं कि पता नहीं कब कहां भेज दिया जाए। मेरा मानना है कि अखबार या चैनल आदमी से ही बनता है। कुछ पत्रकार ऐसे होते हैं जो अपनी मेहनत से अखबार को बुलंदियों पर पहुंचा देते हैं तो कुछ ऐसे भी होते हैं जो उसे पतन के गर्त में धकेल देते हैं। जब तक आपके पास अच्छे लोग रहेंगे अखबार अच्छा निकलेगा। इसलिए जरूरी है कि अच्छे लोगों को रोककर रखें। उन्हें भूल से भी चलता न करें। उन्हें छोड़कर भी जाने न दें। उनकी पारिवारिक जरूरतों का खयाल रखें। उनकी गलतियों को क्षमा कर दें। पर अखबार मालिकों और संपादकों का अहंकार ऐसा होने नहीं देता। शायद यही प्रकृति का नियम भी है। कुछ भी स्थाई यानी हमेशा के लिए नहीं होता। अच्छी चीज ज्यादा दिनों तक अच्छी नहीं रहती, खराब हो ही जाती है। कई बार उसके अपने लोग ही उसे खराब कर डालते हैं।  

- गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....

शनिवार, 3 दिसंबर 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 51

 

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की इक्यावनवीं किस्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 51


120. मीडिया पर भ्रष्टाचार के आरोप क्या झूठे हैं?

 

पत्रकारों के भ्रष्टाचार पर कुछ भी लिखना बर्र के छत्ते में पत्थर फेंकने और मुसीबत मोल लेने जैसा काम है। इसमें बिगाड़ का भी बड़ा खतरा है। पर पत्रकार अगर भ्रष्ट हैं तो इसके बारे में देश और दुनिया को जानने का अधिकार है और उनको जानना चाहिए। हम पत्रकार हैं तो उनकी तरफ भी हमें इशारा करना ही होगा। और यह काम भी पत्रकारों का ही है और उन्हें ही यह काम करना होगा। इशारा इसलिए कि पत्रकार कोई जांच एजेंसी तो हैं नहीं जो वे भ्रष्ट पत्रकारों का नाम गिनाएंगे। वैसे इसकी सच्चाई लोग नहीं जान रहे ऐसी बात तो बिल्कुल नहीं है। आज देश का हर आदमी बोलता रहता है कि मीडिया बिकी हुई है। पत्रकार बिके हुए हैं। अखबार मालिक बिके हुए हैं। आप के पास जो दौलत है वह एक नंबर का है या दो नंबर का यह आपका पड़ोसी और मोहल्ले वाले खूब अच्छी तरह जानते हैं। अगर मीडिया ईमानदार होती और पत्रकार दूध के धुले होते तो सभी पत्रकार संपन्न भी होते। पत्रकारों की ऐसी दुर्दशा नहीं दिखती। पत्रकार भ्रष्ट हैं और उन्होंने अपनी पत्रकारिता का गलत इस्तेमाल कर रैकेट चलाया यानी दलाली करके दौलत कमाया ऐसा लिखने पर उन पत्रकारों को बहुत बुरा लगता है जिन्होंने किसी न किसी रूप में इसके जरिए खुद को अनैतिक रूप से लाभान्वित किया है। पर वैसे पत्रकारों की भी संख्या कम नहीं है जो कह रहे हैं कि पत्रकारों का भ्रष्टाचार भी उजागर होना चाहिए। कई पत्रकारों ने मुझसे कहा कि यह सब मत लिखो। बंद कर दो लिखना। जाहिर है कई पत्रकार मेरी इस लेखनी से बहुत नाराज हैं। पर मैं बिगाड़ के डर से ईमान की बात कहने से पीछे नहीं हटूंगा। यह लेखनी कुछ लोगों को कष्ट दे सकती है, पर पत्रकारिता का यह ऐसा पक्ष है जिसके बारे में लिखा जाना बहुत जरूरी है। और लिखने से ही पत्रकारिता का भला भी हो सकेगा।

 

आज हमारे ही बीच के कुछ पत्रकारों ने तो इतना कमा लिया है कि उनकी आगे की दो-चार पीढ़ियों का बहुत शानोशौकत से गुजारा हो जाएगा। पत्रकारिता में जीते जी जिस पत्रकार ने करोड़ों-अरबों की संपत्ति अर्जित कर ली है उसका बुढ़ापा तो बड़ा आनंदमय होगा। पर आज हमें अखबारों में पूरी जिंदगी श्रमजीवी बने रहे उन पत्रकारों के बारे में भी गंभीरता से सोचना चाहिए जिन्होंने जीते जी कोई संपत्ति नहीं कमाई वैसे पत्रकारों का बुढ़ापा कैसे कटता होगा। इस पेशे में तो कोई पेंशन भी नहीं है। जवानी के जुनून और पत्रकारिता में अपनी लेखनी से व्यवस्था को बदल डालने के हौसले की उड़ान में भला अपना भविष्य किसे दिखाई पड़ता है। उस समय तो सबकुछ अखबार ही दिखाई दे रहा होता है। अपनी इस भूल का अहसास तो तब होता है जब बुढ़ापे में सच की भूमि पर समय उससे हिसाब मांगता है। इसीलिए पत्रकारिता में भ्रष्टाचार पर लिखना जरूरी हो जाता है।

 

121. मुफ्त में मिली जमीन पर से विदा हो गए अखबार

 

अंग्रेजों के खिलाफ चलाए गए आजादी आंदोलन में देश के अखबारों की बहुत बड़ी और सक्रिय भूमिका रही। इसलिए आजादी के बाद बनी भारत की पहली सरकार ने अखबारों को राजधानी दिल्ली के पॉश इलाकों में मुफ्त में बेशकीमती जमीन उपलब्ध कराई ताकि अखबार ठीक ढंग से निकल सकें। अखबारों को जरूरत से ज्यादा जमीन दी गई ताकि वे उसपर लंबी-चौड़ी इमारत खड़ी कर लें और अखबार निकालने के लिए अपनी जरूरतभर इमारत अपने पास रखकर इमारत के बाकी हिस्से को किराए पर उठा दें और किराए की नियमित आमदनी की उस रकम से अखबार चलाएं। ऐसा इसलिए किया गया ताकि अखबारों को दफ्तर का किराया न देना पड़े और उसे कभी पैसों का टोटा न हो। अखबार आत्मनिर्भर बनें। पर कुछ जानकार कहते हैं कि सरकार ने उस समय अखबारों को इमारत किराए पर उठाने के लिए नहीं कहा था, वहां इमारत के बाकी हिस्से में अखबार में काम करनेवाले कर्मचारियों को रहने के लिए जगह देने की बात कही गई थी। अखबार मालिकों और सरकार के बीच इन बातों का लिखित समझौता भी हुआ था। इस समझौते में एक शर्त भी है और यह भी लिखा है कि जब तक मुफ्त में आवंटित किए गए उस जमीनों पर से अखबार निकलते यानी छपते रहेंगे तब तक वह जमीन अखबारों के पास रहेगी। जब वहां से अखबार निकलने यानी छपने बंद हो जाएंगे तब वह जमीन वापस सरकार की हो जाएगी। आजादी आंदोलन में भाग लेनेवाले अखबार मालिकों की वह पीढ़ी आज जीवित नहीं है। उन देशभक्त अखबार मालिकों के बेटे-पोते और नाती-नातिन को आज देश भक्ति नहीं सिर्फ बिजनेस और पैसा दिखाई दे रहा है। उन्होंने अखबार को फिजीकली पॉश इलाकों की उन जमीनों पर से हटा दिया और उसे पड़ोसी राज्य के सेटेलाइट टाउनशिप में लेते गए। पिछले कई सालों से अखबार राजधानी दिल्ली में सरकार से मिली खैराती जमीन पर से छपने बंद हो गए हैं और अब वे पड़ोसी राज्य के सेटेलाइट टाउनशिप से छपने लगे हैं। दिखावे के लिए खेराती जमीन पर एक छोटा सा नाम का दफ्तर रहने दिया गया है। बाकी खैराती जमीन पर बनी पूरी की पूरी इमारत महंगे किराए पर चढ़ा दी गई है, सिर्फ पैसा कमाने के लिए। किसी भी अखबार ने अपनी इमारत में अपने किसी कर्मचारी को रहने के लिए कभी कोई जगह नहीं दी है। इस तरह अखबार मालिक सरकार की आंखों में धूल झोंक रहे हैं। यह सरकार से तय हुए समझौते का सीधा-सीधा उल्लंघन है औऱ इस तरह अखबार मालिकों से खैरात में उन्हें राजधानी दिल्ली के पॉश इलाकों में दी गई सारी जमीन उनसे छीन ली जानी चाहिए। पर केंद्र की सरकार कानून तोड़नेवाले अखबार मालिकों पर हाथ डालने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है। राजधानी दिल्ली से छपनेवाले उन राष्ट्रीय अखबारों ने सालों से दिल्ली छोड़ दिया है और पड़ोसी राज्य के एक जिले से छप रहे हैं तो इस तरह वे अब राष्ट्रीय अखबार की हैसियत से नीचे गिरकर महज एक जिले के अखबार भर बन कर रह गए हैं।


- गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....




 


शुक्रवार, 25 नवंबर 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 50

 

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की पचासवीं किस्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 50


117. दिल्ली में सक्रिय हिंदी संपादक सप्लायर गैंग

 

पत्रकारों के भ्रष्टाचार की कहानियां और मीडिया के इस भ्रष्टाचार का रहस्य बहुत गहरा जान पड़ता है। आप इसके कुएं में जितना गहरे उतरते जाएंगे उतना अधिक रहस्य सामने आता जाएगा। देश की राजधानी दिल्ली ही अब पत्रकारिता की राजधानी बन गई है। सबकुछ इसी राजधानी से तय होने लगा है। जानकारी मिली है कि दिल्ली में हिंदी के कुछ बड़े संपादक टाइप पत्रकारों का एक ऐसा ताकतवर  गिरोह है जो देश भर में कहीं से भी हिंदी का कोई अखबार या पत्रिका शुरू हो, उसके लिए संपादक की सप्लाई यही गिरोह करता है। सिर्फ संपादक ही नहीं, उसकी सेकेंड और थर्ड लाइन में कौन लोग होंगे यह भी यही गिरोह तय करता है। जानकारों का कहना है कि शातिर पत्रकारों का यह गिरोह अखबारों-पत्रिकाओं में रचनाकारों, अनुवादकों और संवाददाताओं की आपूर्ति करने का भी ठेका लेता है। इसके लिए बाकायदा डील होती है। कुछ-कुछ उसी तरह जैसे किसी पुलिस थाने का कोतवाल या फिर किसी जिले का एसपी बनने के लिए डीलिंग हुआ करती है। यह गिरोह देश की कई नामचीन पत्रिकाओं और मौजूदा डॉट कॉम मीडिया कंपनियों के अलावा भारत में विदेशी प्रकाशकों का हिंदी और अंग्रेजी एजेंट बनकर भी अच्छा कमीशन बना लेता है। इस गिरोह को आप बड़े धंधेबाज और बड़े दलाल पत्रकारों का गिरोह भी कह सकते हैं। कुल मिलाकर यह गिरोह अमेरिका के लॉस एंजेल्स और शिकागो के ड्रग कार्टेल गिरोह की तरह ही है। यानी भारत का मीडिया कार्टेल।

शातिर हिंदी संपादकों का यह गिरोह और उनका यह धंधा पिछले आठ-दस सालों में विकसित हुआ है। रीजनल से राष्ट्रीय बने हिंदी के कुछ बड़े अखबारों की शाखाओं में यह गिरोह ज्यादा सक्रिय रहा है। प्रभाष जोशी के समय यह गिरोह टूटा था, पर फिर सक्रिय हो गया। इस रैकेट में भोपाल, इंदौर, लखनऊ, जयपुर, चंडीगढ़, पटना और गुवाहाटी शहर शामिल है। जानकार कहते हैं कि राजधानी दिल्ली में प्रेस क्लब से इस अघोषित गिरोह का अघोषित दफ्तर चलता है।

यही गिरोह तय करता है कि कहां किस अखबार या पत्रिका में कौन संपादक बनेगा या बनकर जाएगा। संपादक इसी गैंग की मर्जी का होता है। जाहिर है हर जगह संपादक इसी गैंग के लोग या फिर इसी गैंग के पसंद के लोग होते हैं। कुछ पत्रकार संपादक बनने के लिए इस गैंग से जुड़कर गिरोह के दादाओं की मनुहार करने लगते हैं। गैंग से जुड़नेवाले पत्रकार संपादक नहीं तो कम से कम सहायक संपादक, मैगजीन संपादक या समाचार संपादक जैसा कुछ बनवा दिए जाते हैं। दिमाग पर थोड़ा जोर डालेंगे और पिछले कुछ सालों पर नजर दौड़ाएंगे तो आपको खुद पता चल जाएगा और आपको पत्रकारों में ऐसे कुछ खास नाम मिलेंगे जो देश के अलग-अलग राज्यों और शहरों में संपादक बनकर आते-जाते रहते हैं। इस गिरोह के कुछ डीलर संपादकों से मेरा भी सामना हुआ है। कुछ मेरे साथी पत्रकार भी हैं जो बाद में इस गिरोह से जुड़कर कई जगह संपादक बने। यह और बात है कि उनमें डीलरशिप वाले गुण मौजूद थे और भरपूर बड़बोलापन भी था।

 

118. मालिकों के लिए विदेशी मुद्रा और लड़की का इंतजाम

 

पत्रकारों को कैरियर में आगे बढ़ने के लिए अपने संपादकों और मालिकों को खुश करना पड़ता है और इसके लिए उन्हें अपनी नौकरी के दौरान अखबारनवीसी के अलावा कई और भी नैतिक-अनैतिक काम करने पड़ते हैं। पर यह छोटे पत्रकारों पर अमूमन लागू नहीं होता। खासकर संपादक, समाचार संपादक और ब्यूरो प्रमुखों से ऐसे काम कराए जाते हैं। राज्यों से निकलनेवाले अखबारों के दिल्ली स्थित ब्यूरो कार्यालयों के प्रमुख अपने मालिकों के लिए यह सब काम करते हैं। कभी-कभी अपने संपादक के लिए भी। इसमें एक काम मालिक की विदेश यात्राओं के लिए विदेशी मुद्रा का इंतजाम करना होता है। इसके अलावा मालिक जब किसी काम से दिल्ली पधारें तो उनकी अय्यासी के लिए लड़की की व्यवस्था करना भी उनकी जिम्मेदारी होती है। बाकी मालिक के आने-जाने के लिए हवाई टिकट का इंतजाम और दिल्ली शहर में आने-जाने के लिए कार वगैरह की व्यवस्था तो नार्मल चीजें होती हैं। सुनकर थोड़ा अटपटा लगता है और सिर भी शर्म से झुक जाता है पर जानकार बताते हैं कि बात यह बिल्कुल सच है और ऐसा होता है। यह सब बहुत समय से होता रहा है। देशभर के मीडिया घरानों का दिल्ली में जो सामूहिक बंगला है उसमें बने कमरों में सिर्फ खबरे ही नहीं लिखी जाती, मालिकों को खुश करने के लिए क्या कुछ करना है उसका इंतजाम कहां से और कैसे होगा उसकी डीलिंग भी यहां से की जाती है। अखबार मालिकों के इस सामूहिक भवन में बैठनेवाले कम से कम एक ऐसे ब्यूरो प्रमुख को तो मैं जानता ही था जो यह सब काम करते थे। वे मेरे बहुत वरिष्ठ भी रहे थे इसलिए कई बार अपनी मजबूरियां और परेशानियां बता भी देते थे। मैं जब भी उनसे मिलने गया उनके केबिन में कोई न कोई लड़की उनसे अकेले में बतियाते जरूर मिल जाती थी। वे लड़कियां वहां की स्टाफ नहीं होती थीं। तो क्या वे लड़कियां उनसे नौकरी मांगने आती थीं और वे उनको नौकरी दे देते थे या वे उनको नौकरी देने की स्थिति में होते थे। ऐसा कुछ तो बिल्कुल नहीं था। तो फिर मामला क्या था? जानकार बताते हैं कि अखबार मालिकों को जब सरकार से या सरकार के किसी मंत्रालय से अपना या अपने अखबार का कोई बड़ा काम कराना होता है तो वे इसके लिए संबंधित मंत्रालय के मंत्री या अधिकारी या सत्तारूढ़ राजनैतिक दल के किसी नेता को खुश करने के लिए अपने ब्यूरो चीफ से पैसों के लेनदेन के अलावा और भी कई तरह के जरूरी इंतजाम कराते हैं और उसी सब इंतजामों के तहत यह सब भी किया कराया जाता है। जिन मंत्रियों, अफसरों या नेताओं को खुश करना होता है उनको सुरा-सुंदरी उपलब्ध कराई जाती है। मतलब अखबार का दिल्ली ब्यूरो चीफ बाकी सब होने के अलावा एक दलाल भी होता है। बाकी आपसब जानते ही हैं कि आजकल लक्ष्मी और सुरा-सुंदरी के बिना कोई बड़ा काम नहीं होता। अब जब अखबार मालिक अपने काम के लिए इस तरह गंगा बहा रहा होता है तो उसमें संपादक और ब्यूरो चीफ भी थोड़ा हाथ धो लेते हैं और अगर मौका मिला तो नहा भी लेते हैं।

 

119. पत्रकार चलपति राव से सीखें ईमानदारी

 

आजादी के दिनों की हिंदी पत्रकारिता में ऐसे व्यक्तित्व होते थे जिनमें अपने देशसमाज और अखबार के प्रति एक समर्पण और उत्साह हुआ करता था। उनमें समर्पण और ईमानदारी कूट-कूट कर भरी होती थी। इसके ईमानदार और बेहतरीन उदाहरण थे नेशनल हेराल्ड के एक दक्षिण भारतीय पत्रकार मणिकोंडा चलपति राव जोनेशनल हेराल्ड के दिल्ली संस्करण के संपादक थे। चलपति राव साहब हुमायूं रोड स्थित अपने घर से आईटीओ स्थित अखबार के दफ्तर डीटीसी की बस से ही आते जाते थे। रिटायरमेंट के बाद वे पंडारा रोड पर रहने लगे थे। वे रोज सुबह अपने घर के पीछे थोड़ी दूरी पर स्थित एक चाय दुकान पर चाय पीने जाया करते थे। सत्तर के दशक में एक सुबह (25 मार्च 1983) वे उसी चाय दुकान पर चाय पीने गए तो वहीं गिर पड़े और वहीं उनका निधन हो गया। चायवाला उनको पहचानता था इसलिए उसने तिलक मार्ग थाने को इसकी सूचना दे दी। पुलिस आई और उनकी लाश उठाकर ले गई। लाश थाने से सीधे मुर्दाघर पहुंचा दी गई। उधर उनके घर पर आनेवाली कामवाली ने जब उन्हें वहां नहीं देखा तो उसने इसकी सूचना उनके पुराने दफ्तर नेशनल हेराल्डको दी। दफ्तर के लोगों ने उनकी तलाश शुरू की तो अगले दिन जाकर उनकी लाश मुर्दाघर में पड़ी मिली। और तब जाकर उनकी पहचान हुई। उनकी पहचान होने पर शहर में खासा हंगामा हुआ। राव साहब अविवाहित थे और अकेले रहते थे। उनका विवाह तो अंग्रेजी भाषा और पत्रकारिता से हुआ था। वे बेहद ईमानदार और एक अच्छे लेखक थे। कहते हैं उनके कमरे में न कोई फर्नीचर था और न कोई सामान। उनके कमरे में सिर्फ एक टू-इन-वन रेडियो टेपरिकार्डर और कुछ झोले वगैरह ही थे। एक फक्कड़ की तरह जीवन जीते थे राव साहब। राव साहब घोषित तौर पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बहुत करीबी थे फिर भी उन्होंने नेहरूजी से कभी कोई सेवा स्वीकार नहीं की। नेशनल हेराल्ड में उनके संपादकत्व के 30 साल पूरे होने पर आयोजित एक सभा में इंदिरा गांधी ने उनकी खूब तारीफ की थी। वे अपने दफ्तर से तनख्वाह भी बहुत कम ही लेते थे। कहते हैं एक बार जब वे हिन्दुस्तान टाइम्स में काम करते थे तो अखबार के मैनेजर देवदास गांधी ने उनका वेतन बढ़ा दिया था, पर राव साहब ने बढ़ी हुई तनख्वाह लेने से मना कर दिया। उन्होंने देवदासजी से कहा था,बस कीजिए देवदासजी। इस तरह पैसे देकर आप मुझे बर्बाद मत कीजिए। आप जानकर हैरान होंगे कि उन्होंने 1969 में पद्मभूषण पुरस्कार लेने से भी मना कर दिया था। आज देश में कितने ऐसे ईमानदार संपादक मिलेंगे?


– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....


 


शुक्रवार, 18 नवंबर 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 49

 

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की उनचासवीं किस्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 49


114. देश में करोड़पति पत्रकारों की बड़ी फौज कैसे?

वैसे तो करोड़ रुपए की संपत्ति होना आज की तारीख में कोई बड़ी चीज नहीं है। गांवों में पांच-सात बीघा जमीन होने भर से आदमी करोड़ रुपए की औकात वाला बन जाता है। पर इतनी जमीन आज के लमय में खरीद लेना आसान नहीं है। इतनी जमीन किसी के पास दादाओं-पड़दादाओं की अर्जित तो हो सकती है, पर कोई एक आदमी अपनी जिंदगी में इतनी जमीन बना ले यह आसान नहीं है और ईमानदारी की कमाई से तो बिल्कुल ही संभव नहीं है। हां, आज के समय में कुछ बड़े न्यूज चैनलों के ब्रांड बन गए पुरुष और महिला एंकरों को करोड़-सवा करोड़ की तनख्वाह मिलने लगी है तो उससे कुछ साल में कोई पत्रकार करोड़पति जरूर बन सकता है। पर इतनी मोटी तनख्वाह पानेवाले पत्रकार तो गिने-चुने ही हैं। मैं बात आज की नहीं, कोई दस-बीस-तीस साल पहले की कर रहा हूं। उस समय एक औसत पत्रकार की तनख्वाह हजार रुपए से लेकर तीन हजार और छह हजार रुपए के करीब हुआ करती थी। इतनी ही तनख्वाह पानेवाले कई पत्रकार कुछ ही समय में देखते ही देखते लाख नहीं, करोड़ नहीं, करोड़ों रुपए की संपत्ति के मालिक बन गए। पत्रकारों की इस अमीरी को आप क्या कहेंगे? क्या इतनी तनख्वाह में किसी महानगर में घर का खाना-खर्चा निकालकर किसी हालत में इतना अधिक पैसा जोड़ा जा सकता है। जवाब होगा नहीं। फिर इन पत्रकारों ने इतनी दौलत कैसे बना ली जो वे करोड़ और करोड़ों के मालिक बन बैठे। आप इसपर थोड़ा तजबीज करेंगे तो पाएंगे कि करोड़ और करोड़ों की संपत्ति बनाने के इस जादुई धंधे के पीछे ब्लैकमेलिंग का काला कारोबार ही है। और कोई दूसरा करिश्माई तरकीब है ही नहीं जो एक पत्रकार को केवल अखबारनवीसी से चंद बरसों में इस कदर दौलतमंद बना दे। हां, एक जरिया पॉलीटिकल लायजनिंग का भी है जो रातोंरात किसी पत्रकार की किस्मत बदल सकता है। सरकार में किसी मंत्री-संत्री से किसी बड़े कारोबारी का अंटका पड़ा कोई बड़ा और कठिन काम करवा दीजिए तो उस कारोबारी के साथ-साथ आपकी भी किस्मत बदल जाएगी। किसी बड़े आदमी या कारोबारी की गरदन कहीं फंस गई हो तो उसे छुड़वाने से भी आपकी किस्मत बदल सकती है। चुनाव के समय किसी पार्टी के पक्ष में हवा बनाने के लिए भी पैसे दिए जाने की परंपरा रही है। बड़ी पार्टियां छुनाव के समय बहुत पैसे खर्च करती हैं। पर ऐसे ज्यादातर पैसे अखबारों और समाचार चैनलों को विज्ञापनों के जरिए मिलते हैं। कुछ बड़े नेता लोग भी पैसे खर्च करके अपने पक्ष में हवा बनवाते हैं।

मैंने अपने साथ के और पहचान के कई औसत पत्रकारों को अपनी आंखों के सामने इस तरह महानगरों में चल-अचल संपत्ति खरीदकर दौलतमंद और करोड़ों का मालिक बनते देखा है। एक उप संपादक या रिपोर्टर के लिए मुंबई में आठ करोड़ का मकान खरीद लेना बिना ब्लैकमेलिंग के संभव नहीं है। दिल्ली के एक बड़े अखबार समूह के एक हिंदी अखबार के पत्रकार ने बाद में न्यूज चैनलों में जाकर दिल्ली एनसीआर में कई जगह प्राइम लोकेशनवाले प्लॉट करीद लिए। पत्रकारिता करके अपने घर-परिवार का विदेशी कनेक्शन स्थापित कर लेनेवाले पत्रकार तो बहुतेरे हैं। उनके बच्चे विदेशों में पढ़ रहे हैं या रह रहे हैं। खुद भी उन्होंने कई-कई देशों की यात्राएं कर डाली है। जहां एक औसत पत्रकार आज भी रेल से आनेजाने के लिए बड़ी मुश्किल से स्लीपर का टिकट ले पाता है, वहीं उसके साथ के ज्यादातर औसत पत्रकार एसी में ही चला करते हैं। जिन दिनों दिल्ली से पटना, लखनऊ और जबलपुर का स्लीपर का टिकट 250-300 रुपए के आसपास होता था जो ज्यादातर साथियों को महंगा लगता था, पर दिल्ली के कई पत्रकार उस समय भी एसी का ही टिकट मंगवाते थे। ऐसे पत्रकार मित्र हमेशा लग्जरी वाली लाइफस्टाइल की बातें किया करते थे और उसी जीवनशैली को जीते भी थे। राजधानी दिल्ली में पत्रकारिता की आग में तपनेवाले पटरी पर के एक वरिष्ठ पत्रकार का कहना है कि जब किसी पत्रकार के मुंह से बात-बात में लग्जरी टपकने लगे तो समझ लीजिए बंदा बहुत माल बना रहा है। जो दौलत बटोरने के इस समीकरण को नहीं सीख पाए और ईमानदारी की रोटी खाते रहे वे आज भी नमक-तेल-धनियां-मिरचाई का ही हिसाब जोड़ते दिख रहे हैं।

115. पत्रकारिता में तीरंदाजी का बड़ा खेल 


पत्रकारिता को गंदा करने वाले तत्वों और पत्रकारिता की ठेकेदारी करनेवाले पत्रकारों की तादाद कम नहीं है। अखबार के जरिए ब्लैकमेलिंग और कमाई की कहानियां हर शहर में सुनाई देती हैं। स्थानीय स्तर पर लोगों से दलाली की रकम वसूल सकने वाले बड़े अखबारों के पत्रकारों की संख्या भी अच्छी खासी है। हर प्रदेश की राजधानी और व्यावसायिक शहरों जैसे मुंबई, इंदौरलखनऊपटना आदि से भी ऐसी कहानियां आती हैं जिसमें किसी गरीब और औसत पत्रकार के एकाएक रईस बन जाने की कथा लिखी होती है।

मध्य प्रदेश के इंदौर शहर से छपनेवाले हिन्दी के प्रतिष्ठित अखबार नई दुनिया के बारे में वहां के कुछ बेहद पुराने पत्रकार बताते हैं कि नई दुनिया का 1979-81 का दौर स्वर्णिम और बेहद गौरव का वर्ष कहा जाता है। इन्हीं वर्षों में राहुल बारपुतेराजेंद्र माथुर, एनके सिंह, जय सिंह (जिन्होंने मालवी भाषा में एक उपन्यास लिखा था) और अखबार के मालिक अभय छजलानी चर्चा में होते थे। नई दुनिया में पहले पेज पर क्या खबर जानी है उसके जानकार यही लोग होते थे। इन सब के परस्पर मजबूत नजरिए ने नई दुनिया को एक बेमिसाल दैनिक बना दिया था। इस अखबार में उन्हीं प्रारंभिक दिनों में अखबार के पहले प्रशिक्षु रहे कुछ पत्रकार बताते हैं कि उस समय अखबार में स्थानीय पेज के इंचार्ज पत्रकार दिन में चार बजे दफ्तर आते थे और आठ बजे तक पेज का मेकअप कराकर घर चले जाते थे। पूरे शहर में उनकी तूती बोलती थी। उनका इतना असर था कि सरकार ने अखबार के मालिक और टेनिस के खेल प्रेमी रहे अभय छजलानी जी के लिए शहर के एक पॉश इलाके में न केवल जमीन दिलवाई बल्कि बाद में उनको वहां एक भव्य स्टेडियम भी बनाकर दिया। तब वहां के पत्रकार चर्चा किया करते थे कि अभयजी के पास न जाने कहां-कहां और कितने मकान हैं। हो सकता है उस समय यह बात सच भी रही हो।

इसी तरह लखनऊ में अस्सी नब्बे के दशक में और फिर बाद में भी न जाने कितने पत्रकारों ने पत्रकारिता के नाम पर अकूत संपत्ति बनाई। कुछ तो राजनेता भी बन गए। कई पत्रकारों ने लखनऊदिल्ली के आसपास ही नहीं,उत्तराखंड तक में अपने लिए ग्रीष्मकालीन आवास बनवा लिए। दिल्ली की बजाए अब सारे राष्ट्रीय दैनिक यूपी के एक जिले में सिमट कर खुद को राष्ट्रीय अखबार होने का दावा करते हैं। पर वास्तव में अब वे जिला स्तर के ही दैनिक रह गए हैं। यही हाल रायपुर में है जिसके बारे में काफी कुछ छपा भी है। तब वहां के मुख्यमंत्री एक पूर्व आईएएस अधिकारी थे। उनके पुत्र आज राजनीति में दौलत संभालने में लगे हैं। ऐसा ही पटना,जयपुरजम्मूश्रीनगर तक में भी हुआ। अखबारों की ताकतउनसे कमाई के पत्रकारों के मौकेमालिकों में उनके प्रति ईर्ष्या बढ़ाते गए। संपादक पद पर मालिक आ गए और संपादक उनके मैनेजर और प्रेत लेखक बन गए। राष्ट्रीय अखबारों मे आमतौर पर राजनीतिब्यूरो,खेलधर्म-ज्योतिष और स्थानीय खबर और व्यापार के पन्नों को उपहार संस्कृति में मान लिया गया है। राहुल बारपुतेराजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी इन आरोपों में कभी नहीं घिरे। पर आज जो कुछ हो रहा है वह सब हमलोग देख ही रहे हैं। अखबारों के पेज बिक जाते हैं। न्यूज चैनलों का पूरा का पूरा शो ही बिक जाता है। पैसे लेकर मनमाफिक इंटरव्यू आयोजित होते हैं और शो क्रिएट किए जाते हैं।


दक्षिण भारत का एक बड़ा मीडिया हाउस जिसका नाम बताने की जरूरत नहीं है, उसके मालिक अपने शुरुआती दिनों में अचार बना कर बेचते थे। धीरे-धीरे उन्होंने प्रगति की और अखबार शुरू कर लिया। अखबार की प्रगति के साथ वे फिल्म निर्माण में भी उतर गए और अपने नाम से एक फिल्म सिटी ही बना डाली। धीरे धीरे सैटेलाइट चैनल का जमाना आया तो कुछ चैनल भी लांच कर दिया और उसे बहुत सफलतापूर्वक चलाते भी रहे। आज तेलंगाना के सैकड़ों किलोमीटर के लंबे-चौड़े पर्वतीय भूभाग पर उनका साम्राज्य कायम है। पर क्या यह सब ईमानदारी की कमाई से अर्जित किया गया होगा या ऐसे ही हो गया होगाबिना किसी रैकेट के। अगर ऐसे ही हो जाता होता तो और भी बहुत सारे लोग कर लिया करते। इसलिए इतना तो मान ही लीजिए कि इन सब सफलताओं के पीछे एक बहुत बड़ा खेल हुआ होता है। और अचारवाले के किए हुए इस खेल को ही मीडिया में तीरंदाजी का खेल कहते हैं।


हर क्षेत्र में तीरंदाज होते हैं। उनमें शायद एक तरह की खानदानी जीन होती है जो वह गुर सिखा देती है जिसके कारण वे मौकों का लाभ उठाने लगते हैं। वे लोग मेहनती तो नहीं होते पर वे खुद को उद्योग मालिकोंप्रबंधकों,नेताओंअफसरों और समाज में उनको महान बताते हुए अपना बखान करते हुए उनसे झूठे-सच्चे तरीकों से पारिवारिकराजनैतिक और सामाजिक रिश्ते अलबत्ता विकसित कर लेते हैं। इसके चलते एक तरह की बार्टर प्रणाली विकसित हो जाती है जो उन्हें ऐश्वर्य की ओर ले जाती है। पत्रकारों का राज्यसभा जाना भी एक तीरंदाजी ही तो है जिसके लिए बड़े-बड़े पत्रकार-संपादक लालाइत रहते हैं।


मुझमें ऐसा कोई गुण या हुनर कभी नहीं रहा। इसलिए मैं इस चक्कर में भी कभी नहीं पड़ा। इसी कारण मैं कभी चारण भी नहीं बन सका। इस जिद के कारण ही मैं खुद को किसी बड़े और पहुंचवाले पत्रकारों की श्रेणी में या उनके बहुत दूर-दूर तक भी कहीं नहीं रख सका। यहां तक कि उनके पिछलग्गू होने तक की स्थिति भी अपनी कभी नहीं बन पाई। ऐसे में मैं यह नहीं जानता कि खबरों की ट्रेडिंग किस स्तर पर होती है और उसका लाभ कैसे मिलता है जिसे बांटते हुए अपना नेटवर्क बनाया जाता है। पर यह सब खूब होता है। खबरों की ट्रेडिंग भी खूब होती है और इसके लिए बड़े पत्रकारों का अपना नेटवर्क भी खूब होता है। संपादकों का भी अपना एक नेटवर्क होता है। यह नेटवर्क बहुत ताकतवर होता है। नेटवर्क वाला वह संपादक इस हालत में हो जाता है कि खबर रोकने से क्या लाभ होगा और मिलने वाली रकम का हिस्सा कैसे बांटना है जिससे काम करने वाले साथ बने रहें और आगे भी गुड़ आता रहे।


ऐसे भी कई संपादक हैं जो लंबे समय तक संपादक तो रहे पर अपना कभी कोई नेटवर्क नहीं बना पाए। कमाने की इस विद्या में माहिर संपादकीय कर्मियों के बारे में कहें तो वे चाहे समाचार के पन्नों पर हों या डाक, व्यापार या खेल के पन्ने पर या फिर वे राजनीतिक टिप्पणीकार हों, वे वहां से भी अच्छा खासा कमा ही लेते हैं। इसी कारण वे मरते दम तक पत्रकार बने रहना चाहते हैं। फिर खुद के कृतित्व को अभिलेखागार में रखने के लिए उद्विग्न भी दिखते हैं। ऐसे पत्रकार कम नहीं हैं जबकि उनका लिखा सारा कुछ किताबों में भी छपा ही होता है।


अंग्रेजी के पत्रकार पहले खासा कमाते रहे हैं। भाषाई अखबारों के कर्मियों ने इनसे ही यह गुर सीखा। हालांकि आज विजुअल मीडियाछोटे स्तर पर यू-ट्यूब से जुडे लोग इसमें ज्यादा कामयाब हैं। गैर हिंदी भाषाओं में सक्रिय लोग इसके उदाहरण हैं। इन क्षेत्रों में अग्रेजी पत्रकार कुछ ही हैं। हो सकता है भाषा पर उनका उतना कमांड न हो। संगीतसंवाद डिलीवरीनाटकीयता और प्रस्तुति वगैरह ज्यादा खर्चीला होता हो।

 

116. अस्तित्व की लड़ाई और चाय का ठेला


जो पत्रकार तीरंदाजी नहीं सीख पाए या कभी ऐसा नहीं कर पाए वे आज हेंड टू माउथ वाली स्थिति में हैं या फिर उससे भी नीचे आ गए हैं। ज्यादातर ईमानदार पत्रकार आज बहुत बुरी हालत में जी रहे हैं। नौकरी से निकले वैसे पत्रकारों का एक बड़ा तबका जिसमें कई सारे दौलतमंद पत्रकार भी शामिल हो गए हैं, आज यू-ट्यूबर बन गए हैं। हालत यह है कि जिसे देखो मोबाइल लिए पत्रकार बना हुआ है। पर यह भी जान लीजिए कि इस यू-ट्यब की पत्रकारिता में भी बड़े-बड़े रैकेट तक हो रहे हैं और जमकर तीरंदाजी की जा रही है। जो पहले नौकरी में रहते हुए तीरंदाज थे वे यहां भी उसके लिए जुगाड़ बना ही ले रहे हैं। ऐसे बहुत से पत्रकार हैं जो अब नौकरी में नहीं हैं और इस यू-ट्यूब की पत्रकारिता के जरिए आजकल काफी संपन्नता का जीवन जी रहे हैं। पर कहते हैं इसमें थोड़े ऐसे भी हैं जिनके लिए यह बमुश्किल दो वक्त की दाल-रोटी जुटाने का एक जरिया मात्र है।

दूसरी तरफ जो वास्तव में श्रमजीवी पत्रकार हैं उनके लिए यह समय अस्तित्व की लड़ाई है। इसीलिए अच्छे पत्रकार को अब कंपनियां सम्मानजनक जिंदगी जीने लायक वेतन नहीं देना चाहतीं क्योंकि लोग सस्ते में और बगैर पैसे के भी काम करने को तैयार हैं। यहां तक कि कुछ सुविधा शुल्क और विज्ञापन आदि देने को भी तैयार हैं। सब तो नहीं लेकिन बहुत से पत्रकार प्रापर्टी डीलिंग और दलाली करने वाले भी बन गए हैं। आखिर मीडिया हाउस को भी तो चलाने के लिए पैसा चाहिए।


नौकरी जाने से कठिन हालात में पड़ गए पत्रकार आज मजबूरी में चाय भी बेचने लगे हैं। कुछ पत्रकार थोड़े से पैसे में लोगों के दरखास्त लिखने और फार्म भरने का भी काम कर रहे हैं। वैसे चाय का ठेला यानी सड़कों-चौराहों पर छोटा टी-स्टाल लगाने का धंधा बुरा नहीं है। यह इज्जत की ही रोटी देती है। पर पत्रकारों का इस ओर जाना चिंता का विषय जरूर है। वह दिन दूर नहीं जब वास्तविक पत्रकार सम्मानजनक नौकरी न मिलने पर चाय की दुकानपटरी दुकानदार या अन्य कोई रोजगार ढूंढने को मजबूर होंगे। आखिर भूखे मरने से तो अच्छा है ही। वास्तविक पत्रकारों की जगह धीरे-धीरे तिकड़मबाज कब्जियाते जा रहे हैं। यह आगे भी होगा। बहुत कम पत्रकार ऐसे होंगे जो पंद्रह बीस साल की नौकरी के बाद संपादक या उसके समकक्ष पहुंच पाएंगे।


– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....