एक पत्रकार की अखबार यात्रा की चौवालीसवीं किस्त
पत्रकारिता की कंटीली डगर
भाग- 44
103. बैंकों द्वारा कार लोन के जाल में फंसाने की कहानी
हिन्दुस्तान में नौकरी शुरू करने के बाद हिन्दुस्तान टाइम्स कंपनी ने सभी कर्मचारियों का सैलरी एकाउंट एक निजी बैंक एचडीएफसी में खुलवा दिया था। इस बैंक में खाता खुलने के बाद एचडीएफसी और तमाम दूसरे निजी मल्टीनेशनल बैंकों के एजेंट हिन्दुस्तान टाइम्स के दफ्तर में अपना कार लोन, हाउसिंग लोन और पर्सनल लोन बेचने के लिए दौड़ लगाने लगे थे। इन बैंकों में एचडीएफसी, स्टैंडर्ड चार्टर्ड, एएनजेड ग्रिंडलेज बैंक और एचएसबीसी शामिल थे। इन बैंकों ने एचडीएफसी बैंक से हिन्दुस्तान टाइम्स के सभी कर्मचारियों का डाटा यानी नाम-पता हासिल कर लिया और फिर अपना लोन बेचने के लिए उन कर्मचारियों का घर और दफ्तर में पीछा करने लगे। इन बैंकों के एजेंटों ने फर्जी लाभ पहुंचाने का प्रलोभन देकर कई कर्मचारियों को अपनी जाल में फंसा लिया। हर किसी को कुछ न कुछ बेच दिया। मैं भी इनके कार लोन के जाल में फंस गया। मेरे घर पर तीन बैंकों के एजेंट साथ मिलकर आने लगे। इनमें स्टैंडर्ड चार्टर्ड, एचएसबीसी और एबीएन एमरो के एजेंटों ने मुझे समझा-बुझाकर और झूठा भरोसा देकर मारुति की ओमनी कार बेच दी। एजेंटों ने मुझे कहा कि इस कार का कॉमर्शियल इस्तेमाल भी होता है और वे मेरी गाड़ियां अपने पहचानवाले के टैक्सी स्टैंड या फिर किसी दफ्तर में लगवा दैंगे और मुझे पेट्रोल, ड्राइवर का खर्च और गाड़ी की ईएमआई काटकर हर गाड़ी पर हर महीने करीब आठ हजार रुपए बच जाएंगे। एजेंटों ने कहा कि उनलोगों ने मेरे जैसे अपने कई कस्टमर्स की गाड़ियां इसी तरह लगवा रखी है और यह बहुत फायदे का धंधा है। पर मैंने कहा कि मुझे गाड़ियों के धंधे के बारे में कुछ भी नहीं मालूम और वैसे भी मुझे गाड़ी की कोई जरूरत नहीं है। फिर मुझे हिन्दुस्तान की इस ठेके की नौकरी में आठ हजार की तनख्वाह मिलती है जिससे हर महीने गाड़ियों के कर्ज की ईएमआई देना बिल्कुल संभव नहीं है। पर एजेंटों ने कहा कि इसमें मेरी तनख्वाह के पैसे तो खर्च होने ही नहीं हैं। सारा इंतजाम तो गाड़ियों से होनेवाली कमाई से ही हो जाना है। और फिर गाड़ियो से मुझे नियमित आमदनी भी होती रहेगी। इस तरह उन्होंने मुझे समझा-बुझाकर फंसा लिया। एजेंटों ने कहा कि मुझे सिर्फ कार डीलर से गाड़ियों की डिलीवरी भर ले लेनी है। उसके बाद का सारा काम और सारा सरदर्द उनका। मैंने उनकी इन बातों में छिपे रहस्य को उस समय समझ नहीं पाया और उनपर यकीन करके कारलोन के सारे पेपर्स साइन कर दिए।
मैंने कार डीलर से गाड़ियों की डिलीवरी भी ले ली। तीनों गाड़ियां घर आ गईं। मैंने अगले दिन उन सभी एजेंटों को फोन करके बता दिया कि मैं गाड़ियां ले आया इसलिए अब आप इन्हें लगवाने का काम करें। बैंक एजेंटों ने कहा कि वे हफ्ते भर में गाड़ियां लगवा देंगे। एक हफ्ता निकल गया पर वे नहीं आए और न उनका कोई फोन आया। मैंने उन्हें फिर फोन किया कि जल्दी कीजिए। उन्होंने कहा कि दो-चार दिन में काम हो जाएगा। पर वे नहीं आए। मैंने फिर फोन किया तो फोन नहीं उठने लगा। एक एजेंट ने कहा कि वह बिजी था इसलिए समय नहीं मिला सो एक हफ्ता और रुक जाइए। कई दिनों बाद एक दूसरे एजेंट ने बताया कि वह किसी काम से दिल्ली से बाहर है इसलिए हफ्ते-दो हफ्ते का समय और लगेगा। समय निकलता गया। बाद में उन एजेंटों ने मेरा फोन उठाना ही बंद कर दिया। इसी तरह बैंक के एजेंटों को बार-बार फोन करने और उनका इंतजार करने में दो महीने का समय गुजर गया पर एजेंट झांकने तक नहीं आए। मेरे बैंक खाते में कुछ पैसे बचे थे और उसी से इन गाड़ियों की किश्तें कट रही थीं। मैंने बैंक जाकर उनके मैनेजरों से संपर्क किया तो वहां बताया गया कि “बैंक गाड़ियां लगवाने का काम नहीं करती। आप अगर अपनी गाड़ियां कहीं लगवाना चाहते हैं तो आपको यह काम खुद ही करना पड़ेगा। एजेंटों ने आपको कैसे कह दिया कि वे आपकी गाड़ियां लगवा देंगे। एजेंट ऐसा कोई काम नहीं कर सकते। उन्हें इसकी इजाजत भी नहीं है।“ बैंक अधिकारियों की यह बात सुनकर मैं ठगा सा रह गया।
बैंक एजेंटों के कहने पर मैंने इन गाड़ियों के लिए अपने पीएफ से सारे पैसे जो लगभग तीन लाख रुपए थे निकलवा लिया था। पीएफ के उन्हीं पैसों से इन गाड़ियों का डाउन पेमेंट और अन्य खर्च चुकाया था। मुझे उन बैंक एजेंटों ने एक उज्जवल भविष्य का सुनहरा सपना दिखाया था। पर मैं तो कहीं का नहीं रहा था। उन्हीं दिनोंहिन्दुस्तान में मेरे साथी विजेंद्र रावत जी ने मुझे आगाह किया था कि इन एजेंटों पर ज्यादा भरोसा करना ठीक नहीं है सो पहले एक गाड़ी लेकर देख लो कि उससे कितनी आमदनी हो पाती है। फिर दो और ले लेना। पर बैंक के एजेंट मेरे इस अनुरोध को मानने को बिल्कुल तैयार नहीं हुए थे। एजेंटों ने मुझे कहा था कि लोन का सारा काम पूरा हो गया है और बैंक ने डीलर को गाड़ियों की पूरी पेमेंट दे दी है और ऐसे में गाड़ियों की डिलीवरी रोकी नहीं जा सकती।
चार-पांच महीनों तक बैंक में जो थोड़े पैसे थे उससे इन गाड़ियों की ईएमआई चुकता होती गई पर उसके बाद मेरे ईएमआई के चेक बाउंस होने लगे। बैंकों ने नोटिस भेज दिया और बैंक से बार-बार फोन आने लगे। रिकवरी वाले बार-बार घर आने लगे। फोन पर धमकियां दी जाने लगीं। रिकवरीवाले फोन करके गालीयां भी देते थे। गाड़ियां वहां घर पर थीं नहीं लिहाजा कुछ महीने बाद बैंकों ने कोर्ट में मुकदमा दायर कर दिया। चेक बाउंस के भी कई-कई केस दर्ज करा दिए गए। बैंकों ने मुझपर गलत आरोप लगाया कि मैंने लोन लेकर पैसे नहीं चुकाए और गाड़ी भी बेच दी। मैंने कोई गाड़ी नहीं बेची थी। मैं तो उन गाड़ियों को कहीं न कहीं लगवाने की फिराक में था जो नहीं हो पा रहा था। इन गाड़ियों में मेरी मेहनत की कमाई के तीन लाख रुपए फंसे थे और उसकी मुझे चिंता थी। कार लोन के ये मामले तीस हजारी और पटियाला हाउस कोर्ट में चल रहे थे। मैं हर तारीख पर जाता था। अदालत को पूरी बात बताई थी। बैंकों को कोर्ट की डांट भी लगी थी। जज महोदय ने बैंक के वकील और अधिकारी से कहा था कि बाकी सबको तो फंसाते ही हो, पत्रकार को भी फंसा लिया। जज महोदय ने मेरी सैलरी स्लिप देखकर बैंक के वकील से कहा था कि इनकी पूरी तनख्वाह भी अगर ले ली जाए तो भी कार का लोन चुकता नहीं हो सकता। इतनी कम तनख्वाह वाले आदमी को आपने (बैंक) कार लोन दे कैसे दिया। मेरी कुल तनख्वाह महज 8225 रुपए थी और एक-एक गाड़ी की ईएमआई लगभग 7000 (सात हजार) रुपए थी। यानी हर महीने करीब 21000 (इक्कीस हजार) रुपए की ईएमआई थी। इसे फंसाना ही तो कहेंगे। अदालत को मैंने इस तरह फंसाने की पूरी कहानी बोलकर और लिखकर बता दी थी। अदालत ने मुझसे पूछा कि क्या मैं हर महीने 2000 रुपए देने की हालत में हूं। मैंने मना कर दिया क्योंकि इतने पैसे बचते ही नहीं थे तो देता कहां से। मैंने कोर्ट से कहा कि मुझे गाड़ी नहीं चाहिए। गाड़ी वापस ले लीजिए और गाड़ी में मेरा जो पैसा लगा है वह मुझे वापस दिलवा दीजिए। एक बैंक (एबीएन एमरो) ने कोर्ट में माननीय जज महोदय से कहा कि इनके (गणेश प्रसाद झ) घर का सारा सामान बेचकर पैसा बैंक को लोन बकाए में दिलवा दीजिए। इस पर जज साहब ने बैंक के वकील को खूब झाड़ लगाई थी। जज साहब ने बैंक के वकील से कहा था कि कोर्ट से पूछकर लोन दिया था क्या। किराए के एक कमरे में गुजारा करनेवाला आदमी कहां से इतना भारी लोन चुकाएगा।
अदालतों में कार लोन का मेरा केस चल ही रहा था कि इसी बीच स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक ने दिल्ली पुलिस को पैसे देकर अपने कार लोन के केस में मुझे घर से उठवा लिया। मुझे पटियाला हाउस कोर्ट की एक अदालत ने न्यायिक हिरासत में भेज दिया। मैं अकेला रहता था लिहाजा घरवालों को दिल्ली आकर मेरी जमानत लेने में कई दिन लग गए। इस गिरफ्तारी के अगले ही दिनहिन्दुस्तान टाइम्स प्रबंधन ने नौकरी का मेरा अनुबंध रद्द कर दिया और मुझे नौकरी से निकाल दिया। मैंने तीनों गाड़ियां दिल्ली पुलिस को सौंपकर अदालतों को रिपोर्ट की तब जाकर इन लुटेरे और मायावी बैंकों से मेरा पिंड छूटा। बैंकों के दिखाए इस सुनहरे सपने में मेरा सबकुछ लुट गया। इसमें सब कुछ मिलाकर मुझे लगभग 4 लाख का नुकसान हुआ और नौकरी भी चली गई। मुकदमा लड़ने और जमानत कराने में मित्रों और रिश्तेदारों से कर्ज भी लेना पड़ा सो अलग। बैंकों और उनके एजेंटों ने सुनहरे सपने दिखाकर मुझे कंगाल बना दिया।
104. गाड़ियां एनटीपीसी कहलगांव में लगवाने की कोशिश
बैंकों के एजेंटों ने जब गाड़ियां नहीं लगवाई तो उनकी ईएमआई को लेकर मैं परेशान रहने लगा। मैंने दिल्ली में भी कुछ प्रयास किया पर सफल नहीं हो पाया। फिरजनसत्ता में मेरे साथी आर्येंद्र उपाध्याय ने एक रास्ता सुझाया कि गाड़ियां एनटीपीसी कहलगांव में लगवा दी जाएं तो ठीक रहेगा और वहां से नियमित पैसे भी मिलते रहेंगे। आर्येंद्र के एक मित्र वहां कहलगांव एनटीपीसी में जनसंपर्क अधिकारी थे। दोनों ने पत्रकारिता की पढ़ाई साथ-साथ की थी सो अच्छी पहचान थी। आर्येंद्र ने इसके लिए अपने पीआरओ मित्र से बात कर ली। उनके मित्र ने इसमें पूरी मदद का भरोसा दिया और गाड़ियां कहलगांव लाने को कहा। मैंने तीनों गाड़ियां ट्रांसपोर्टर के जरिए भागलपुर भिजवा दी जहां से उसे कहलगांव एनटीपीसी के दफ्तर ले जाया गया। आर्येंद्र के पीआरओ मित्र ने मेरी गाड़ियां देखी। गाड़ियां एकदम नई थीं सो उनको पसंद भी आई। गाड़ियों के कागजात मांगे गए जो मैंने दिलवा दिया। आगे की विभागीय मंजूरी के लिए दो हफ्ते का समय मांगा गया। वहां से मैंने गाड़ियां मुंगेर के अपने घर मंगवा ली। करीब दो हफ्ते बाद उन गाड़ियों को फिर वहां एनटीपीसी में भेजने को कहा गया जो मैंने भिजवाया। वहां गाड़ियों की एकबार फिर जांच पड़ताल हुई। सबकुछ ठीक ही था पर एनटीपीसी के एक वरीय अधिकारी ने गाड़ियां फिलहाल लेने से मना कर दिया। कहा कि अभी जिस ट्रांसपोर्टर का टेंडर चल रहा है उसके टेंडर की समाप्ति हो जाने पर ही आगे का कुछ विचार करेंगे। लिहाजा मैंने गाड़ियां वापस दिल्ली मंगवा ली।
दिल्ली में ही मयूर बिहार थाने के एक पुलिस अधिकारी ने एक बार मुझे इसी तरह एक चर्चा में बताया कि दिल्ली के आश्रम से आगरा के लिए दिनभर प्राइवेट गाड़ियां चलती रहती हैं जो फुटकर सवारियां लेकर जाती हैं। अगर वहां किसी अच्छे ड्राइवर को चलाने के लिए गाड़ियां दे दी जाएं तो बात बन सकती है। इससे भी गाड़ियों की ईएमआई का इंतजाम हो जा सकता है। उन पुलिस अधिकारी ने मुझे इस बारे में आश्रम जाकर पूरी बात पता करने की सलाह दी। मैं एक दिन आश्रम गया और चौराहे पर घंटों खड़े रहकर नजारा देखता रहा। वहां से होकर आगरे के लिए फुटकर सवारियां लेकर नॉन कामर्शियल प्राइवेट गाड़ियां तो खूब चल रही थीं। छोटी-बड़ी और एसी-नॉनएसी हर तरह की प्राइवेट और नॉन कामर्शियल गाड़ियां। पर कामर्शियल गाड़ियां भी चल रही थीं। ट्रफिक पुलिस का एक अधिकारी वहां खड़ा था और उन प्राइवेट नॉन कामर्शियल गाड़ियों को पकड़-पकड़कर ताबड़तोड़ उनके चालान काट रहा था। कुछ देर तक यह नजारा देखने के बाद मैंने ट्राफिक पुलिस के उस अधिकारी से बात की औऱ अपनी गाड़ियों की पूरी बात और समस्या उनको बताई। मेरा मामला समझने के बाद उस अधिकारी ने मुझे कहा कि मैं भूल से भी अपनी गाड़ियां इस तरह फुटकर सवारियां ले जाने के लिए न चलवाऊं। इससे मैं किसी बड़ी उलझन में पड़ जा सकता हूं। पुलिस अधिकारी ने बताया कि इस तरह दिल्ली से सड़क के रास्ते आगरा जानेवालों में विदेशी पर्यटक भी होते हैं। अगर रास्ते में कोई सड़क दुर्घटना हो जाए और उसमें किसी विदेशी पर्यटक की मौत हो जाए तो फिर मामला दो देशों के बीच का होने की वजह से बहुत बड़ा बन जाता है औऱ अगर आपकी प्राइवेट नंबरवाली नॉन कामर्शियल गाड़ी के साथ ऐसा कुछ हो गया तो फिर आपका बाकी जीवन जेल में ही कटेगा। उस अधिकारी ने बताया कि प्राइवेट नंबरवाली नॉन कामर्शियल गाड़ी में सवारियां ढोना यानी गाड़ी का कॉमर्शियल इस्तेमाल करना गैरकानूनी है और ऐसे मामलों में दुर्घटना होने पर इंस्योरेंस कंपनी कोई क्लेम यानी मुआवजा भी नहीं देती। उन्होंने हाल के दुर्घटना के एक ऐसे ही मामले का उदाहरण भी दिया जिसमें कुछ विदेशी पर्यटकों की मौत हो गई थी और उस प्राइवेट नंबरवाली नॉन कामर्शियल गाड़ी का मालिक और ड्राइवर गिरफ्तार हो गया था और जेल में था। उस पुलिस अधिकारी की बात और सलाह से मुझे गाड़ियों को लेकर निराशा जरूर हुई पर उनकी बात मुझे अच्छी लगी। मैं यह सोचकर लौट आया कि उस पुलिस अधिकारी ने सही सलाह देकर मुझे कम से कम एक नई मुसीबत में फंसने से तो बचा ही लिया। मुझे तब यह भी समझ आ गया कि कहीं भी इन गाड़ियों को सवारियां ढोने के लिए लगाना खतरे से खाली नहीं है और बैंकों के एजेंटों ने अपने और बैंकों के फायदे के लिए मुझे उन गाड़ियों से कमाई कराने का झूठा प्रलोभन और झांसा देकर लोन में चक्कर में फंसा लिया है।
दिल्ली में मेरी गाड़ियां मेरी सोसायटी के बाहर सड़क किनारे पेवमेंट पर खड़ी रहती थी। सोसायटी मेनेजमेंट को भी इसपर एतराज होने लगा था। कुछ महीने बाद आर्येंद्र ने फिर कोशिश की और कहलगांव एनटीपीसी के अपने पीआरओ मित्र से एक बार फिर निवेदन किया। आर्येंद्र के मित्र के कहने पर मैंने फिर ट्रांसपोर्टर से अपनी तीनों गाड़ियां वहां कहलगांव भिजवाई। वहां एनटीपीसी में फिर से सबकुछ जांचा परखा गया। पर सफलता इस बार भी नहीं मिली। पीआरओ की तमाम कोशिशों के वावजूद बड़े अधिकारी ने कह दिया कि गाड़ियां एसी नहीं हैं इसलिए नहीं ली जा सकतीं। मुझे गाड़ियां एनटीपीसी से वापस लानी पड़ी। पर इस बार गाड़ियों को वापस दिल्ली लाने के लिए मेरे पास पैसे बिल्कुल नहीं थे और मैं अब किसी से उधार भी मांग सकने की हालत में नहीं था। सो मैंने अपनी तीनों गाड़ियां अपने गांव से करीब 20 किलोमीटर दूर तारापुर शहर में एक परिचित के घर के पास के खाली मैदान (सरकारी जमीन) पर खड़ी कर दी। बाद में इसी जगह से उन गाड़ियां को कोर्ट के आदेश पर पुलिसवाले दिल्ली लेकर गए। कोर्ट का गाड़ी लाने का आदेश सिर्फ स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक के मामले में हुआ था और केवल एक गाड़ी को ले जाने का हुआ था। पर बाकी दोनों बैंकों ने उन्हीं पुलिसवालों को पैसे देकर तीनों गाड़ियां दिल्ली मंगवा ली थी। मैं भी इन गाड़ियों से पिंड छुड़ाना चाहता था सो तीनों गाड़ियां उठवा दी। बाद में बाकी दो मामलों में जजों ने बैंकों को खूब डांट लगाई थी कि बिना अदालती आदेश के उन्होंने गाड़ियां क्यों उठवा ली।
– गणेश प्रसाद झा
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