रविवार, 7 अगस्त 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 32

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की बत्तीसवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 32

76. बड़े अखबार का रंगीनमिजाज संपादक

मुझे पत्रकारिता की अपनी इस यात्रा में एक ऐसे संपादक भी मिले जो बहुत ही रंगीनमिजाज और अय्यास किस्म के थे और सुरा और सुंदरी के रंग में आकंठ डूबे हुए थे। औरत उन संपादकजी की सबसे बड़ी कमजोरी थी। उनकी रंगीनमिजाजी की अनगिनत कहानियां भी सुनने को मिली। उन रंगीनमिजाज संपादकजी को करीब से जाननेवाले मेरे पत्रकार मित्रों ने उनकी रंगीनमिजाजी की कहानियां कुछ इस तरह से बयान की।- 

संपादकजी अक्सर बाहर की रिपोर्टिंग के खास-खास मौके तलाशते रहते थे और वहां खुद ही रिपोर्टिंग करने चले जाते थे। अपने अखबार के किसी रिपोर्टर को वहां नहीं जाने देते थे। जब भी वे ऐसे रिपोर्टिंग ट्रिप पर जाते तो अपनी प्रेमिकाओं को भी साथ ले जाया करते थे। उनके कुछ परिचित और लगुए-भगुए और छुटभैये वहां उनके लिए फर्जी नामों से होटल के कमरे बुक कराकर रखते थे। उन दिनों होटलों में ठहरने और कमरा बुक कराने के लिए किसी आईडी की जरूरत नहीं होती थी। दिखावे के लिए संपादकजी और उनकी प्रेमिका के लिए कमरा दो अलग-अलग होटलों में बुक कराया जाता था। संपादकजी की कई-कई प्रेमिकाएं थीं और वे हरेक के साथ मौज-मस्ती किया करते थे। वे ज्यादातर अलग-अलग हिल स्टेशनों पर जाया करते थे। हर बार उनके साथ कोई न कोई लड़की जरूर होती थी।

उन रंगीनमिजाज संपादकजी की फितरत थी गरीबी में जी रही सुंदरियों को फांसना ताकि पैसे और सुविधाएं फेंककर उनको सेक्स के अपने जाल में आसानी से उलझाया जा सके। संपादकजी ने एक बड़े राज्य से कटकर अलग हुए एक पश्चिमी पर्वतीय राज्य की एक ऐसी लड़की पर अपना जाल फेंका था जो एक गरीब परिवार की थी। उस समय वह लड़की एक विश्वविद्यालय में पीजी की छात्रा थी। उसके पिता किसी सरकारी बोर्ड के दफ्तर में चपरासी का काम करते थे। पिता की कमाई से किसी तरह घर चल जाता था और बिटिया पढ़ भी रही थी। कहते हैं वह लड़की कमाल की सुंदर थी। उसे उस विश्वविद्यालय के एक सीनियर प्रोफेसर ने अपने प्रेम जाल में फंसा रखा था और उसे भोगता भी था। उसी प्रोफेसर ने उस सुंदरी को विश्वविद्यालय में टॉपर भी बनवा दिया था। एक बार कहीं किसी पब्लिक समारोह में संपादकजी को वह सुंदरी दिख गई थी। कहते हैं विश्वविद्यालय के ही एक प्रोफेसर ने एक कार्यक्रम में उस लड़की का संपादकजी से परिचय कराया था। फिर संपादकजी ने उसका पता लगवाया और उसका पारिवारिक डाटा मंगवाकर वहां तक अपनी पहुंच कायम की। इसके बाद शुरू हुआ उस सुंदरी के परिवार तक पैसों और जरूरत की चीजों की फ्री सप्लाई का सिलसिला। थोड़े ही दिनों बाद संपादकजी ने सुंदरी को अपने ही शहर में अपने ही नजदीक घर दिलवा दिया। फिर तो सुंदरी के घर में हर तरह के सामानों की आपूर्ति भी संपादकजी ही कराने लगे। सब्जी-तरकारी से लेकर आटा-चावल और कपड़े तक। जब कभी जरूरत पड़ती तो सुंदरी के घर पर प्लंबर और बिजली मिस्त्री भी संपादकजी अपने दफ्तर से ही भिजवा दिया करते थे। संपादकजी के दफ्तर के लोग भी धीरे-धीरे यह सब जानने लगे थे। पर डर से कोई कुछ बोल नहीं पाता था। संपादकजी विवाहित थे सो थोड़े ही दिनों में बात संपादकजी की पत्नी तक भी पहुंच गई। फिर तो संपादकजी की पत्नी ने इसे लेकर घर में काफी बखेड़ा करना शुरू कर दिया। त्रिया चरित्र का खेल शुरू हो गया। रोज उनके घर में कलह होने लगा। संपादकजी लगभग रोज अपनी बेकसूर पत्नी की बड़ी बेरहमी से पिटाई भी करने लगे थे। संपादकजी के घर में घरेलू हिंसा की यह बात धीरे-धीरे उनके आसपास के घरों और फिर उनके मोहल्ले में फैली और फिर उनके दफ्तर के लोगों और शहर में उनके परिचितों तक भी पहुंच गई।

कहते हैं पत्नी के जबर्दस्त विरोध का भी संपादकजी पर कोई असर नहीं हुआ। संपादकजी उस प्रेमिका से पूर्ववत इश्क फरमाते रहे। बाद में संपादकजी ने अपने पत्रकारीय रसूख और जुगाड़ से अपनी उस प्रेमिका को उसी विश्विद्यालय में लेक्चरर बनवा दिया। फिर उसे विश्वविद्यालय कैंपस में ही व्याख्याताओं के लिए बने क्वार्टर में घर भी दिलवा दिया। संपादकजी के इस प्रेम प्रसंग का एक दूसरा हिस्सा भी है और वह भी लाजवाब है। संपादकजी की उन लेक्चरर बनी प्रेमिका की एक छोटी बहन भी थी। संपादकजी ने उस पर भी डोरे डाल रखे थे और उसे भी इस्तेमाल किया करते थे। पर वह परिवार संपादकजी से उपकृत था इसलिए कभी कोई विरोध नहीं करता था।

अब आइए एक बार फिर उसी पर्वतीय राज्य में चलते हैं। उस पर्वतीय राज्य की राजधानी के बेहद खूबसूरत शहर के एक बाजार नामक मोहल्ले में एक पंजाबी परिवार रहता था। उनका अपना एक छापाखाना था। यही छापाखाना उनकी कमाई का जरिया था। बेहद जुगाड़ू किस्म के इस रंगीनमिजाज संपादकजी ने किसी तरह जुगाड़ करके उस परिवार के मुखिया से भी परिचय करके दोस्ती कायम कर ली थी। उनकी दो जवान बेटियां थी। संपादकजी अक्सर किसी न किसी बहाने वहां चले जाया करते थे। उनका कमरा हर बार पास के एक होटल में बुक होता था। रंगीनमिजाज संपादकजी ने धीरे-धीरे परिवार की दोनों बेटियों को अपने प्रेम जाल में फांस लिया था। इन दोनों बहनों से भी संपादकजी इश्क किया करते थे और दोनो बहनों का शारीरिक शोषण भी जमकर किया करते थे। दोनों बहनों के इस शारीरिक शोषण को आगे भी अनवरत जारी रखने के लिए उन्होंने उस परिवार से अपना संबंध और गहरा करने के लिए एक तरकीब निकाली। उस परिवार में एक लड़का भी था यानी उन दोनों बहनों का एक भाई भी था। यही लड़का अपने पिता के छापाखाने का सारा काम संभालता था। संपादकजी ने परिवार के उस लड़के की अपनी पहली वाली विश्वविद्यालय वाली यानी लेक्चरर प्रेमिका की छोटी बहन से शादी करा दी। इस शादी में संपादकजी ने भी लेक्चरर प्रेमिका के पिता की भरपूर मदद की। इस शादी के बाद अब उस पंजाबी परिवार में संपादकजी की तीन प्रेमिकाएं हो गईं। दो बहनें और एक उनकी भाभी। संपादकजी का वहां जाना पहले की तरह ही जारी रहा। लोग बताते थे कि इसके बाद से संपादकजी शायद वहां कुछ ज्यादा ही जाने लगे थे। उधर लेक्चरर प्रेमिका से भी संपादकजी का प्रेम चलता ही रहा और संपादकजी ने उनको भी भोगना जारी रखा। जानकार लोग कहते हैं वह प्रेम संबंध आज भी बदस्तूर है।

उन संपादकजी के साथ काम कर चुके लोग बताते हैं कि संपादकजी पर भोली-भाली महिलाओं को परेशान करने और ब्लैकमेल करने के भी आरोप लगते रहे हैं। लोग बताते हैं कि उनपर ऐसे आरोप उनके साथ काम करनेवाले उनके करीब के लोग ही लगाते रहे हैं। लोग बताते हैं कि संपादकजी को फोन करना भी खतरनाक होता था क्योंकि वे किसी की भी फोन पर हो रही बातचीत को चुपचाप रिकार्ड कर लेते थे और फिर उसे ब्लैकमेल किया करते थे। कहते हैं कई लड़कियों के साथ भी ऐसी ब्लैकमेल की घटनाएं हुईं थीं। कहते हैं सेक्सुअल हेरासमेंटे के भी कुछ मामले हुए थे। पर मामला लड़कियों की इज्जत का होता है इसलिए लड़कियां सबकुछ झेलकर भी छुप ही रहती हैं जिस कारण मामला सामने नहीं आ पाता। लोग उस शहर के करीब के एक राज्य के एक शहर के एक होटल में लड़कियों के साथ उनके रंगरेलियां मनाने की भी बात भी दबी जुबान से बताते हैं। कहते हैं उस होटल के मैनेजर ने ही एक बार संपादकजी के ही अखबार के एक पत्रकार के सामने उन रंगरेलियों का खुलासा कर दिया था। होटल का मैनेजर उन संपादकजी को अच्छी तरह पहचानता था और यह भी जानता था कि वे उन दिनों एक बड़े अखबार के स्थानीय संपादक हुआ करते थे।

संपादकजी को अपने अखबार के एक पुराने पत्रकार से नहीं पटती थी सो उन्होंने उस पत्रकार को खूब परेशान किया था। उसका कई बार तबादला किया और फिर एक दिन उससे जबरन इस्तीफा लिखवाकर उसे नौकरी से भी निकाल दिया था। संपादकजी ने उससे अचानक इस्तीफा तो ले लिया पर उसके वेतन और दूसरे बकायों का हिसाब नहीं किया गया। इस घटना से वह पत्रकार गहरे सदमे में चला गया और कुछ समय बाद उसकी मौत हो गई। मौत के बाद उनके बकायों के सेटलमेंट के लिए उनकी धर्मपत्नी बहुत समय तक अपने गांव से चलकर बार-बार शहर में स्थित अखबार के दफ्तर की दौड़ लगाती रहीं थीं। पर संपादकजी अपने उस मातहत कर्मचारी का सेटलमेंट करवाने की बजाए काफी समय तक उसे टालते रहे। जब भी उसकी पत्नी शहर आतीं तो संपादकजी उनको जानबूझकर कोई न कोई बहाना लगाकर टरका देते थे। संपादकजी ने उस दिवंगत पत्रकार की पत्नी को काफी समय तक परेशान किया बताते हैं।

संपादकजी के अखबार में एक और पत्रकार थे जो उस दिवंगत पत्रकार के राज्य से ही आते थे। संपादकजी ने उस पत्रकार से भी जबरन इस्तीफा ले लिया था। ये दोनों पत्रकार संपादकजी को बिल्कुल नहीं सुहाते थे। पर इसकी एक गंभीर और मजेदार वजह थी।

मामला बहुत पुराना है। करीब 20-25 साल पुराना। संपादकजी के अखबार में काम करनेवाले साथियों ने वहां घटित हुई उन घटनाओं के बारे में जो कुछ बताया उसी के आधार पर यह सब लिख पा रहा हूं। उस समय वे संपादकजी उस अखबार के  स्थानीय संपादक हुआ करते थे। कहते हैं एक पर्वतीय राज्य की एक संभ्रांत महिला पत्रकार को उस संपादकजी ने अपने अखबार का जिला संवाददाता नियुक्त कर लिया था। संपादकजी ने उन महिला पत्रकार को अपने अखबार में पक्की नौकरी और अच्छी तनख्वाह देने का झूठा प्रलोभन देकर पटा लिया था और फिर उसका जमकर इस्तेमाल और शारीरिक शोषण किया था। फिर उसे बहुत परेशान करना भी शुरू कर दिया था। मामला सेक्सुअल हेरासमेंट करने का भी था ऐसा उस शहर के पत्रकार बताते थे। जब वह महिला पत्रकार उस संपादकजी से खूब परेशान होने लगी और मामला बर्दाश्त से बाहर हो गया तो उन्होंने उस अखबार समूह के मालिक, अखबार के प्रधान संपादक और शहर के प्रशासन और शहर की पुलिस के बड़े अधिकारियों समेत कई सारे लोगों को चिट्ठी लिखकर संपादकजी की ओर से अपने साथ की जा रही ज्यादतियों का पूरा-पूरा खुलासा कर दिया। उन महिला पत्रकार ने अपने खुलासेवाले उस पत्र की प्रतिलिपियां उस शहर के दूसरे तमाम प्रतिष्ठित अखबारों के संपादकों और शहर के कई प्रमुख पत्रकारों को भी भेज दी थी। इस पत्र से जब मीडिया सर्किल में हंगामा होने लगा तो संपादकजी ने इस चिट्ठी के लिए अपने ही अखबार के दो पत्रकारों को झूठमूठ का जिम्मेदार ठहरा दिया। संपादकजी ने बात फैलानी शुरू कर दी कि इन दोनों पत्रकारों ने उनके खिलाफ साजिश रचकर उन महिला पत्रकार से झूठे आरोपों वाली एक फर्जी चिट्ठी तैयार कराकर पुलिस, प्रशासन और मीडिया के लोगों में सर्कुलेट कराई है।

लोगों ने बताया कि उन महिला पत्रकार ने संपादकजी पर सेक्सुअल हेरासमेंट का आरोप लगाते हुए शहर कोतवाली में एक एफआईआर भी दर्ज कराई थी। महिला पत्रकार ने अपने उस एफआईआर में संपादकजी को आरोपी बना दिया था। उन महिला पत्रकार द्वारा पुलिस में दर्ज कराई गई उस एफआईआर पर शहर की पुलिस के एक डीएसपी ने संपादकजी को समन भेजकर थाने बुला लिया था। पर समन मिलते ही संपादकजी ने शहर की पुलिस के आला अधिकारियों को फोन करके खुद के एक बड़े अखबार समूह का संपादक होने के अपने रसूख और अखबार का धौंस दिखाकर उन्हें खूब डराया-धमकाया था और उनका करियर खराब कर देने की भी धमकी दे दी थी। संपादकजी की उस धौंस से शहर की पुलिस के आला अधिकारी सकते में आ गए थे और उन्होंने इस मामले को तत्काल ठंडे बस्ते में डाल दिया था। उल्टे समन भेजनेवाले शहर पुलिस के उस डीएसपी पर ही विभागीय कार्रवाई शुरू कर दी गई थी।

पर्वतीय राज्य की उन पीड़ित महिला पत्रकार की शिकायती चिट्ठी जब अखबार  समूह के मालिक को मिली तो उन्होंने अखबार के प्रधान संपादक को उस शहर में जाकर इस चिंताजनक मामले की जांच करने और समुचित कार्रवाई करने को कह दिया। मालिक के इस आदेश पर प्रधान संपादक उस शहर में आए थे और अखबार के दफ्तर जाकर अखबार के कर्मचारी यूनियन से भी बात कर मामले के बारे में जानने की कोशिश की थी। उन दिनों संपादकजी की सिफारिश पर अखबार के वे दोनों पत्रकार निलंबित कर दिए गए थे। संपादकजी ने अपने इन दोनों पत्रकर कर्मचारियों पर आरोप लगाया था कि इन दोनों ने ही साजिश रचकर पर्वतीय राज्य की उन पीड़ित महिला पत्रकार से संपादकजी के खिलाफ एक झूठा मामला बनवाकर उस मामले की फर्जी चिट्ठी तैयार करवाई और फिर उस फर्जी चिट्ठी को शहर प्रशासन, शहर पुलिस और देश भर की मीडिया में सर्कुलेट करा दिया।

शहर के लोगों ने बताया कि उस अखबार के दो कर्मचारियों के निलंबन का यह मामला अखबार कर्मचारी यूनियन के पास भी गया था। यूनियन ने भी निलंबन के इस मामले की अपने स्तर से जांच की थी। प्रधान संपादक जब इस मामले की जांच के लिए उस शहर में आए थे तो उन्होंने भी इस मामले पर कर्मचारी यूनियन से बात की थी। कर्मचारी यूनियन के एक पदाधिकारी से उनकी तीखी बहस भी हो गई थी। कर्मचारी यूनियन का कहना था कि अखबार के दोनों कर्मचारी बेकसूर हैं और पर्वतीय राज्य की उन महिला के मामले से इन दोनों का कोई संबंध नहीं है। संपादकजी ने नाहक ही दोनों को निलंबित कर दिया है जबकि चिट्ठी में उन पीड़ित महिला का सारा आरोप उन रंगीनमिजाज संपादकजी पर ही है। अखबार प्रबंधन का यह भी कहना था कि दोनों निलंबित पत्रकारो पर एक दूसरा मामला भी था और वे उसी मामले में निलंबित किए गए थे।

सूत्रों का कहना है कि उस अय्यास संपादकजी की पहल पर अखबार की कंपनी की तरफ से पर्वतीय राज्य की उन पीड़ित महिला पत्रकार की शिकायती चिट्ठी को पुलिस की ओर से किसी फॉरेंसिक लैब में भी भेजा गया था। कंपनी यह चाहती थी कि किसी तरह यह मामला फर्जी साबित हो जाए ताकि उसके रंगीनमिजाज संपादकजी बेदाग निकल जाएं। कंपनी यह भी चाहती थी कि उन महिला पत्रकार की चिट्ठी लिखवाने और फिर उसे सर्कुलेट करवाने में किसी तरह उस अखबार के उन दोनों निलंबित पत्रकारों का हाथ निकल आए। अखबार के प्रधान संपादक की कर्मचारी यूनियन के पदाधिकारियों से फॉरेंसिक लैब की उस कथित रिपोर्ट पर भी तीखी बहस हुई थी। कहते हैं उस फॉरेंसिक लैब रिपोर्ट से वैसा कुछ साबित नहीं हो सका जो अय्यास संपादकजी चाहते थे और जो कंपनी (अखबार प्रबंधन) चाह रही थी। फिर भी अपनी गलती पर पर्दा डालने के लिए संपादकजी ने अपने अखबार के दोनों निलंबित पत्रकारों से जबरन इस्तीफा ले लिया और उन्हें नौकरी से निकाल दिया।

इन सब बातों से इतना तो स्थापित हो ही जाता है कि उस पर्वतीय राज्य की उस महिला पत्रकार के साथ कुछ तो आपत्तिजनक हुआ ही था। वह महिला पत्रकार अपने अखबार और खबरों के काम से अक्सर शहर में उस अखबार के दफ्तर आती रहती थी। दफ्तर आकर वे संपादकजी से मिलती भी थीं। संपादकजी और उस महिला पत्रकार के बीच कुछ तो आपत्तिजनक मामला जरूर था जिसे अखबार के वे दोनों पत्रकार अच्छी तरह जानते थे। एक ही राज्य का होने के नाते दोनों पत्रकारों  की उस महिला पत्रकार से सहानुभूति भी थी। उन महिला पत्रकार ने शहर पुलिस में जो एफआईआर लिखवाई थी वह मामला कहते हैं कोर्ट भी जा पहुंचा था। कहते हैं उस मुकदमे में वे दोनों पत्रकार उस महिला पत्रकार की तरफ से बतौर गवाह शायद पेश भी हुए थे। बाद में अचानक एक दिन खबर आई थी कि उस महिला रिपोर्टर ने बड़े ही रहस्यमय ढंग से आत्महत्या कर ली है या फिर किसी सड़क दुर्घटना में उसकी मौत हो गई है। इसके कुछ समय बाद अखबार के उन दोनों  पत्रकारों को नौकरी से निकाल दिया गया। उनसे जबरन इस्तीफे ले लिए गए। शहर में उस अखबार की उस महिला रिपोर्टर की मौत का मामला आज तक रहस्य ही बना हुआ है। कहते हैं संपादकजी ने अखबार की धौंस देकर शहर की पुलिस से महिला पत्रकार की आबरू के साथ खिलवाड़ करने का वह मामला पुलिस जांच और चार्जशीट के स्टेज में ही रफा-दफा करवा दिया था। शायद अखबारी धौंस, बड़ी-बड़ी सिफारिशों और पैसे के बल पर मामले के तथ्यों में तरमीम कराकर और मामले को हल्का बनवाकर अदालत में भी सबकुछ मैनेज कर लिया गया था जिससे यह मामला खत्म हो गया था।

कहते हैं संपादकजी ने अखबार का स्थानीय संपादक रहते हुए अपने अखबार और पद का दुरुपयोग कर उस शहर की और उस रीजन के कई राज्यों की महिलाओं को अपने अखबार में नौकरी देने का प्रलोभन देकर अपनी जाल में फंसाया और फिर उनका शारीरिक शोषण किया। जानकार कहते हैं कि संपादकजी द्वारा परेशान की गई महिलाओं की एक लंबी फेहरिस्त है। पर समाज में इज्जत का बट्टा लगने और करियर खराब होने के डर से संभ्रांत घरों की ये महिलाएं संपादकजी के खिलाफ कभी खड़ी नहीं हो सकीं। उस अखबार के लोगों ने संपादकजी के चरित्र को बहुत करीब से देखा और अनुभव किया है। उस अखबार के लोग उनका पूरा चरित्र जान गए थे। उस अखबार के लोगों का कहना है कि संपादकजी एक अपराधी किस्म के आदमी हैं जो लोगों के साथ बदमाशी और गुंडई करने में बहुत आगे रहते हैं। जानकार कहते हैं कि पत्रकार तो वो कहीं से भी नहीं हैं। जानकार कहते हैं कि संपादकजी उनको फोन करनेवाले लोगों की फोन बातचीत को बिना बताए चुपचाप रिकार्ड कर लिया करते हैं और फिर उनके विरोधियों को सुनाकर दोनों को अपने फायदे के लिए ब्लैकमेल किया करते हैं। फोन ब्लैकमेलिंग के जरिए वे लोगों को अपनी जाल में फंसाते हैं। लोग बताते हैं कि कई लड़कियां भी इसी तरह उनके जाल में फंस चुकी हैं।

77. जनसत्ता को डुबोने की तैयारी तो पहले से थी

संपादकों की रंगीनमिजाजी की इसी तरह की कहानियां मैंने दिल्ली में टाइम्स ग्रुप की कई पत्रिकाओं को बंद कराने की स्थिति में पहुंचा देने के लिए आए या लाए गए संपादकों के बारे में भी सुना करता था। सुनकर बहुत आश्चर्य होता था और मन में संपादकों के प्रति देवता और भरोसे की जो मूर्ति बनी हुई थी वह निरंतर खंडित होती जा रही थी। हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप जब अपने किसी संपादक को अपमानित करके नौकरी से निकालता था तो यह सुनकर मन में बड़ी तकलीफ होती थी। इसलिए यह सब जानकर लगता था कि उस टाइम्स ग्रुप में प्रबंधन भी शायद ऐसा ही चाहता रहा होगा। 

जनसत्ता जब निकला था तो दिल्ली के लगभग सभी अखबारों में संपादकीय, प्रबंधन, सर्कुलेशन आदि विभागों के कर्मचारियों के वेतन बढा दिए गए थे। उनके प्रबंधन को डर था कि लोग भागकर जनसत्ता चले जाएंगे। ऐसे में जनसत्ता में पहले जो बेहतर वेतनमान लोगों को मिल रहा था वह कहते हैं ढाई-तीन साल बाद कम लगने लगा था। जो तेज तर्रार और पहुंच वाले साथी थे उन्हें इंडिया टुडे के हिंदी संस्करण में ले लिया गया था। उधर बाजार में उन्हीं दिनों नए-नए अखबार संडे मेल और संडे आब्जर्वर भी आ गए थे। जनसत्ता के लोग भी नए मौके की तलाश में टोह लेने अपनी मोटरसाइकिलें दौड़ाते रहते थे। लेकिन सफल वे चंद लोग ही हुए जिनके लिए किसी ने सिफारिश की। फिर भी लोग दरियागंज और दक्षिण दिल्ली से नए निकले अखबारों में मिलने की कोशिश जरूर करते थे। कभी-कभी संपादकों के घर भी चले जाया करते थे।

एक सुबह जब जनसत्ता के एक पत्रकार नौकरी के सिलसिले में एक कवि - संपादक के घर उनसे मिलने चले गए तो वे संपादकजी सजी-धजी एक युवती के साथ विभिन्न मुद्राओं में फोटो सेशन कर रहे थे। उस पत्रकार को आया देख कर उन्हें आश्चर्य हुआ। वे झेंप गए और कहने लगे कि "बेटी के साथ फोटो सेशन कर रहा था। मैं आफिस पहुंच रहा हूं। आप वहीं पहुंचिए। वहीं मिलते हैं।" पर उनको तो पहुंचना नहीं था और वे आफिस नहीं ही पहुंचे।

किसी के प्रति अनुराग रखना एक अलग चीज होती है। खबरों का लेखन-संपादन, खबरें निकालने का तरीका और लेख लिखना, संदर्भ और आंकडे इकट्ठा करने का तरीका और साक्षात्कार आदि का काम तकनीकी तौर पर काफी जटिल काम है। इसके लिए सभ्य तरीके से संवाद संभव है। दफ्तर या अपने पद के रुतबे का गलत इस्तेमाल अपने किए को छिपाने में किसी संपादक को क्यों करना चाहिए। पद का सम्मान जरूरी है। किसी की पर्सनल फाइल पढना, बनवाना, किसी को नौकरी से निकलवा देना यह सब काम सम्मानजनक और संपादक पद की गरिमा के अनुकूल नहीं कहलाता।

जनसत्ता का तो तब एक अलग ही रुतबा हुआ करता था। पर इतने सालों बाद अब लगता है कि जनसत्ता को डुबोने की तैयारी भी बहुत पहले से कर ली गई थी। तभी तो जनसत्ता के ही लोग आज कहते हैं कि प्रभाष जोशी संपादक बहाल करने में एकदम से फेल होते रहे और उन्होंने कई गलत लोगों को संपादक बनाकर जाने-अनजाने अपना और जनसत्ता दोनों का बेड़ा गर्क करवा लिया।

एक समय देश के मीडिया बाजार में जनसत्ता की बड़ी धाक थी। जनसत्ता के क्रमबद्ध विकास के साथ-साथ उसमें एक ऐसा नकारात्मक उभार होना भी शुरू हो गया जो धीरे-धीरे उसकी जड़ों को कमजोर करने लग गया। जनसत्ता एक धूमकेतु की तरह शुरू के तीन-चार साल तक चमका। उसकी चमक का असर यह रहा कि हिंदी के तमाम अखबार कुछ हद तक भाषा और लेआउट और संपादकीय विभाग में वेतन आदि के आधार पर कुछ दुरुस्त हुए। अब वह असर पूरी तरह से खत्म हो चुका है।

अपने प्रकाशन के साल भर या कोई डेढ साल बाद हीजनसत्ता ने अपने पहले पेज पर छापा था कि अब वे इससे ज्यादा नहीं छाप सकते। अब वे लाख की संख्या को पार कर चुके हैं। सो आपलोग कृपया मिल-बांट कर पढें।

इसके छपने के तीन महीने बाद ही इंडिया टुडे की अनुवाद आधारित पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ था जिसमें जनसत्ता के जगदीश उपासने, अशोक कुमार,अच्छे लाल प्रजापति चले गए थे। इंडिया टुडे के इस हिन्दी संस्करण में अनुवाद का काम काफी होता था इसलिए जनसत्ता के सहयोगी गोपनीयता के साथ अनुवाद का काम वहां से लाते थे और करते थे।

जनसत्ता में आखिर कुछ ऐसे तत्व घुस आए जिन्होंने अपने स्वार्थ के लिए पूरे अखबार को ही चौपट कर दिया। इसमें मालिक, प्रबंधन और कथित संपादक और उनके प्रिय संवाददाता और उप संपादक भी शामिल थे। अब यह अखबार सिर्फ एक मुखपत्र बन कर रह गया है। पहले यह स्थिति नहीं थी। आज न तो उसकी कोई धाक है और न अब उसके पाठक ही बचे हैं। रामनाथ गोयनका जी कह गए थे कि जनसत्ता को कभी बंद मत करना और शायद इसीलिए जनसत्ता को आज भी किसी तरह जिंदा रखा जा रहा है। रामनाथ गोयनकाजी के नाती से उनके गोद लिए पुत्र बनकर बिना किसी परिश्रम के एक बड़े अखबार समूह के मालिक बन बैठे विवेक खेतान उर्फ विवेक गोयनका की तो आज तक कभी इस अखबार में दिलचस्पी रही ही नहीं।

 – गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....

शुक्रवार, 5 अगस्त 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 31

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की इकत्तीसवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 31

75. प्रभाष जोशी अभी भी हमारे सेनापति

मध्य प्रदेश के इंदौर जिले के आष्टा गांव में जन्मे और इंदौर में ही पले-बढ़े और पढ़े-लिखे प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी (15/07/1937 - 05/11/2009) हिन्दी पत्रकारिता के प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता में एक नई धारा पैदा कर दी और उसे एक नई दिशा दी। वे आज हमारे बीच नहीं हैं पर वे आज भी हमारे सेनापति हैं। कम से कम तमाम जनसत्ताइय़ों के सेनापति तो हैं ही। प्रभाष जोशी राजनीति और क्रिकेट पत्रकारिता के विशेषज्ञ माने जाते थे। वे एक एक्टिविस्ट भी थे। गांव, शहर, जंगल की खाक छानते हुए सामाजिक विषमताओं का अध्ययन करके वे समाज को खबर तो देते ही थे, उसे दूर करने का भी प्रयास करते रहते थे। वे गांधीवादी विचारधारा के अनुयायी थे। उन्होंने पत्रकारिता की शुरुआत इंदौर से निकलने वाले हिन्दी अखबार नई दुनिया से की। बाद में इंडियन एक्सप्रेस समूह के अहमदाबाद, चंडीगढ़ और दिल्ली के स्थानीय संपादक भी रहे। 1995 में जनसत्ता के प्रधान संपादक पद से हटने के बाद वे कुछ साल तक उसके सलाहकार संपादक के पद पर भी रहे। उनके संपादन में जनसत्ता आम आदमी का अखबार तो बना ही, हिन्दी के बुद्धिजीवियों के लिए भी सर्वाधिक पसंद का अखबार बन गया।

प्रभाष जोशी के लेखों का संग्रह पांच खंडों में छपा है जिनके नाम हैं, ‘जीने के बहाने’, ‘धन्न नरबदा मइया हो’, ‘लुटियन के टीले का भूगोल’, ‘खेल सिर्फ खेल नहीं है’, और ‘जब तोप मुकाबिल हो’।

इसके अलावा उनकी पुस्तकें हैं, ‘मसि कागद’, 21वीं सदी : पहला दशक’, आगे अंधी गली है’, ‘प्रभाष पर्व’, ‘हिन्दू होने का धर्म’, ‘कहने को बहुत कुछ था’, ‘जीने के बहाने’, ‘कागद कारे’ आदि।

‘मसि कागद’ भी जनसत्ता के शुरुआती सालों में छपे उनके सैकड़ों लेखों में से ही संकलित किया गया एक संकलन है। इन लेखों के बल पर जनसत्ता ने हिन्दी के पाठकों में अपनी लोकप्रियता हासिल की। इनमें प्रभाष जोशी राजनीति को नैतिक सवालों से जोड़ते हैं और सिनेमा को समाज से जोड़ते हैं। वे अपने लेखन में पाठकों के प्रति अपनी जवाबदेही को सर्वाधिक महत्व देते हैं। इनमें सामाजिक विसंगतियों को बदलने की बेचैनी भी दिखाई देती है। ‘21वीं सदी : पहला दशक’ पुस्तक में 2000 से 2009 तक जनसत्ता में प्रकाशित उनके लेखों का संकलन है जिसमें राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन की धड़कनें सुनी जा सकती हैं। 21 वीं सदी के आगमन को सत्ताधारी वर्ग ने संपन्नता के स्वप्न के रूप में प्रचारित किया था पर यह सदी देश के सामान्य जन के लिए अभिशाप की तरह सामने आई। आर्थिक उदारीकरण के बुरे परिणाम सामने आने लगे। अपने लेखों में प्रभाष जोशी ने आर्थिक और सामाजिक जीवन में आई मुश्किलों को प्रभावशाली ढंग से विश्लेषित किया है। इन लेखों में एक शोषण-मुक्त भारतीय समाज का स्वप्न भी देखा गया है। ‘आगे अंधी गली है’ में उनके ‘प्रथम प्रवक्ता’ और ‘तहलका’ में छपे कॉलम संकलित हैं। इसमें उनके अखिरी दो वर्ष का लेखन संकलित है। यह पुस्तक प्रभाष जोशी के आखिरी दिनों के वैचारिक मानस को समझने की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।

पत्रकार प्रभाष जोशी पत्रकारिता के उन लोगों की जमात में कभी शामिल नहीं हुए जो लेखनी से समझौते करके राज्यसभा और विधान परिषद् जाने, राजदूत बनने या सरकारी संस्थाओं में पद पाने के लिए लिखते हैं। वे पत्रकारिता के पुरस्कारों के पीछे भी कभी नहीं भागे। उनमें कभी किसी पद्म पुरस्कार की चाह भी नहीं देखी गई। वे पत्रकारों के बीच से आए थे और मृत्यु-पर्यंन्त पत्रकारों के बीच में रहते रहे। उनके व्याख्यान हर विषय पर अकाट्य रहे। उन्हें टीवी चैनलों के टॉक शो में या मुद्दों पर बोलते हुए काफी ध्यान से सुना जाता था। उन्होंने अपने समकालीन हर साहित्यकार और कवि का सम्मान तो किया ही, क्रिकेट जैसे खेल पर भी बहुत सधे हुए अंदाज में और खरी-खरी लिखनेवाले लेखक की तरह लिखा। वे क्रिकेट के दीवाने थे और इसी की दीवानगी ने उन्हें हमसे छीन भी लिय़ा। हमें लगता है कि वे हैदराबाद के भारत-आस्ट्रेलिया के बीच क्रिकेट श्रृंखला के वन डे मैच जिसे वे फटाफट क्रिकेट कहते और लिखते रहे थे के अंतिम मुकाबले में सचिन तेंदुलकर के शानदार खेल से बहुत प्रसन्न होने और जीत की ओर जाते हुए अचानक तेंदुलकर के एक खराब शॉट खेलकर आउट होने और इस तरह से मैच हार जाने को वे बर्दाश्त नहीं कर सके।

बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को गिराए जाने पर 7 दिसंबर 1992 को ‘राम की अग्नि परीक्षा’ शीर्षक से उन्होंने जो लेख लिखा उससे उनकी सोच का स्तर और पत्रकारिता के प्रति उनके उत्तरदायित्व को बखूबी समझा जा सकता है। उन्होंने इसमें लिखा- “राम की जय बोलने वाले धोखेबाज विध्वंसकों ने कल मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रघुकुल की रीत पर अयोध्या में कालिख पोत दी।

हिन्दू आस्था और जीवन परंपरा में विश्वास करनेवाले लोगों का मन आज दुख से भरा और सिर शर्म से झुका हुआ है। अयोध्या में जो लोग एक दूसरे को बधाई दे रहे हैं और बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को ढहाना हिन्दू भावना का विस्फोट बता रहे हैं- वे भले ही अपने को साधु–साध्वी, संत-महात्मा और हिन्दू हितों का रक्षक कहते हों, पर उनमें और इंदिरा गाँधी की हत्या की खबर पर ब्रिटेन में तलवारें निकालकर खुशी से नाचने वाले लोगों की मानसिकता में कोई फर्क नहीं है। 

एक निरस्त्र महिला की अपने अंगरक्षकों द्वारा हत्या पर विजय नृत्य करना जितना राक्षसी है उससे कम निंदनीय, लज्जाजनक और विधर्मी एक धर्म स्थल को ध्वस्त करना नहीं है। वह धर्मस्थल बाबरी मस्जिद भी था और रामलला का मन्दिर भी। ऐसे ढांचे को विश्वासघात से गिरा कर जो लोग समझते हैं कि वे राम का मन्दिर बनाएंगे वे राम को मानते, जानते, समझते नहीं हैं.......

कल अयोध्या में सुप्रीम कोर्ट, संसद और देश को धोखा दिया गया। कहना कि यह हिन्दू भावनाओं का विस्फोट है- झूठ बोलना है। जिस तरह से ढाँचे को ढहाया गया वह किसी भावना के अचानक फूट पड़ने का नहीं, सोच समझ कर रचे गए षड्यंत्र का सबूत है। भाजपा के नहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता भी वहाँ मौजूद थे। वे साधु-महात्मा भी वहां थे जिन्हें मार्गदर्शक मंडल कहा जाता है। विहिप, भाजपा और संघ को अपने अनुशासित कारसेवकों पर बड़ा गर्व है। लेकिन वे सब देखते रहे और ढांचे को ढहा दिया गया। ढांचे को ढहाते समय राम लला की मूर्तियां ले जाना और फिर लाकर रख देना भी प्रमाण है कि जो कुछ भी हुआ वह एक योजना के अनुसार हुआ है। भाजपा की सरकार के प्रशासन और पुलिस का भी कुछ न करना कल्याण सिंह सरकार का षड्यंत्र में शामिल होना है।”

इसी तरह प्रमोद रंजन के सवालों का जवाब देते हुए ‘काले धंधे के रक्षक’ शीर्षक से उन्होंने 6 सितंबर 2009 को जो लिखा वह उनके साहस और पत्रकारिता के प्रति निष्ठा का प्रमाण है। “ वंशवाद और धन के लोभ ने लालू, मुलायम, चौटाला, नितीश कुमार, अजित सिंह और मायावती को मजबूत विपक्ष बनने के बजाय बिन बुलाए कांग्रेस समर्थक क्यों बनाया है? क्योंकि सबके कंकाल सीबीआई के पास हैं। और नंदीग्राम और सिंगूर के बाद वामपंथी किस नैतिक और वैचारिक समर्थन के हकदार हैं? दलितों–पिछड़ों और वाम आंदोलनों के सरोकारों की दुहाई देकर खबरों के बेचने के काले धंधे को माफ करना चाहते हो? देखते नहीं कि ये बनिए की ब्राह्मण पर जातिवादी विजय भर नहीं है जिस पर प्रमोद रंजन जैसे बच्चे ताली बजाएं। यह भ्रष्ट राजनेताओं और पत्रकारिता को काली कमाई का धंधा बनाने वाले मीडिया मालिकों की मिलीभगत है।” प्रभाष जोशी ने पत्रकारिता साहित्य की समीक्षा कम की है और पत्रकारिता अधिक। इसलिए उन्हें पत्रकारिता का समीक्षक कहने की तुलना में पत्रकार कहना ही उचित है।

पत्रकारिता के संत आदरणीय प्रभाष जोशी जी के बारे में जब भी कुछ पढ़ने या फिर लिखने बैठता हूं तो लगता है जैसे पीछे से आकर उन्होंने आज फिर मेरा कंधा दबाया और कहा, “झा साहब सारे एडीशनों को देर रात तक की सभी खबरें भेजकर फिर सबसे कंफर्म कर लेना तभी घर जाना। ध्यान रखना सुबह-सुबह चंडीगढ़ से थानवी जी का कोई फोन नहीं आना चाहिए कि फलां खबर नहीं मिली।” उनके समय में जनसत्ता का मतलब प्रभाष जोशी था। वर्तनी का बहुत कड़ाई से पालन करना होता था। उन संत प्रभाष जोशी ने अखबार का एक अलग खांचा ही गढ़ दिया था जिसका नाम था जनसत्ता । जैसे एक समय में स्टेट्समैन अखबार हाथ में होने से इंटेलेक्चुअल होने की पहचान मिलती थी उसी तरह उन्होंने जनसत्ता पढ़नेवालों को भी यही पहचान दिला दी थी। जनसत्ता का सूत्र वाक्य था- सबकी खबर ले सबको खबर दे । हम डेस्कवालों ने और ब्यूरो के तमाम साथियों ने भी प्रभाष जी की बनाई वर्तनी को इस तरह आत्मसात कर लिया था कि घर-परिवार में कभी किसी को कोई चिट्ठी भी लिखते थे तो वह भी जनसत्ता की वर्तनी में ही होती थी। हमलोग दफ्तर में आपस में मजाक में बोला करते थे कि जनसत्ता के लोगों को तीन भाषाएं सीखनी पड़ती है- अंग्रेजी, हिंदी और जनसत्ता की हिंदी। जनसत्ता की तमाम खबरें एकदम मंजी हुई और एकदम टाइट सबिंग वाली हती थीं। ये थी जनसत्ता की अपनी बिल्कुल अलग पहचान। प्रभाष जी साफ कहते थे कि जनसत्ता अगर बिकेगा तो अपनी दम पर बिकेगा, एक्सप्रेस के दम पर नहीं। प्रभाष जी की बात ही कुछ और थी। उनके जाने के बाद जनसत्ता अब जनसत्ता नहीं रह गया। यहां हरिवंश राय बच्चन जी की कविता जुबान पर आती है--- अब न रहे वो पीनेवाले अब न रही वो मधुशाला। यही होती है आदमी की पहचान। 

प्रभाष जोशी ने अपने अतीत और अपनी गरीबी को भी कभी नहीं छिपाया। कई बार वे सहजता से बोल देते कि परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने के कारण वे ज्यादा नहीं पढ़ पाए और वे अंधे-बहरों के एक स्कूल में पढ़ाने जाया करते थे। इस संत ने हिंदी पत्रकारिता में मील का ऐसा बड़ा और भारी भरकम पत्थर गाड़ दिया जिसे शायद ही कभी कोई सूरमा टस से मस भी कर पाएगा। मुझे इस बात का बहुत गर्व है कि मुझे हिंदी पत्रकारिता के इस संत के साथ बरसों तक काम करने और कई अलग-अलग जिम्मेदारियां निभाने का कृपापूर्ण अवसर मिला। पत्रकारिता के इस अद्भुत संत को शत् शत् नमन।

– गणेश प्रसाद झा

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