एक पत्रकार की अखबार यात्रा की अढ़तालीसवीं किस्त
पत्रकारिता की कंटीली डगर
भाग- 48
112. प्रतिष्ठित अखबार में बिजनेसमैन भी पत्रकार
बिहार में पत्रकारिता करने के दिनों में मैंने बहुत कुछ अजीबोगरीब भी देखा। पटना में एक बड़े अखबार की हैसियत हासिल कर लेनेवाले एक प्रतिष्ठित अखबार में उन दिनों एक ऐसे पत्रकार भी काम कर रहे थे जिनका उनदिनों शहर में अपना व्यवस्थित कारोबार भी हुआ करता था। वे अखबार में पत्रकार की नौकरी सिर्फ इसलिए करते थे ताकि अखबार और पत्रकारिता की हनक से उनके कारोबार का स्याह पक्ष कभी उजागर न हो और वे किसी कानूनी शिकंजे में न पड़ें और उनका कारोबार बिना किसी रोकटोक के बदस्तूर रहे। दफ्तर के संपादकीय विभाग में उनका काम अपनी कमियों को छिपाने के लिए दूसरों पर हर समय रौब जमाना होता था। वे हमेशा दूसरों की लाइन को छोटी दिखाने की कोशिश में लगे रहते थे ताकि उनकी अपनी कमजोर लाइन बड़ी नजर आने लगे। उनमें जातिवाद कूट-कूट कर भरा था और दफ्तर के साथियों से उनका व्यवहार भी कुछ-कुछ इसी लाइन पर होता था। पर वे अखबार मालिक के राज्य से आए साथियों पर कभी कोई टोकाटाकी करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे। अखबार मालिक के शहर के लोगों पर टिप्पणी करने का तो कोई सवाल ही नहीं था और न ऐसा करने की उनकी कोई कूवत ही थी। एक प्रतिष्ठित अखबार के एक साधारण रिपोर्टर तो ऐसे थे जिनकी अवैध कमाई की उन दिनों डेस्क पर खूब चर्चा होती थी और लोग कहते थे कि उस समय उनकी हैसियत करोड़ रुपए से ऊपर जा चुकी थी। उनकी तनख्वाह उस समय कोई 15-20 हजार रही होगी। पटना शहर के जिस महत्वपूर्ण बीट को वे कवर करते थे उसमें उनकी जबरदस्त हनक थी। दफ्तर में कुछ लोग उनका बिहार के एक बड़े माफिया राजनेता से कनेक्शन होने की बात भी बताते थे। पर यह सब बिल्कुल सार्वजनिक मामला था और संपादक को भी इसका बखूबी पता था। फिर भी अखबार में उनकी नौकरी सुरक्षित रूप से चल रही थी। इसका मतलब आप जो भी समझें पर यही सच्चाई थी। राजधानी पटना में पत्रकारों को सरेआम पीटकर अधमरा कर देने वाले उस माफिया के पे-रोल पर बिहार के दूसरे अखबारों में काम करनेवाले और भी कई पत्रकार थे। बिहार में बड़े पत्रकारों के करप्ट होने का वह एक ऐसा दौर था जब यह चर्चा सुनाई दी कि उस प्रतिष्ठित अखबार के भी कुछ बड़े पत्रकारों और अखबार के नियंताओं ने पटना शहर के पॉश इलाकों में थोड़े ही समय के भीतर नामी-बेनामी तरीके से धड़ाधड़ कई मकान खरीद डाले। कुछ समय बाद यह भी सुनने में आया था कि इस भ्रष्टाचार की बात अखबार के मुख्यालय शहर तक भी पहुंच गई थी और अखबार के मालिक को देर-सबेर इसकी भनक लग गई थी। बाद चलकर मालिक ने इस भ्रष्टाचार का कुछ संज्ञान भी ले लिया था। अखबार के एकाध लोग खुर्द-बुर्द भी किए गए थे। पर कहते हैं कि मालिक भी भ्रष्टाचार में काफी गहराई तक जड़ें जमा चुके उन बड़े पत्रकारों और अखबार के नियंताओं पर कुछ खास एक्शन नहीं ले पाए क्योंकि कड़ी कार्रवाई होने पर बिहार में उस अखबार की चूलें हिल जाने का भी गंभीर खतरा था। कहते हैं अखबार के इन बड़े पत्रकारों और नियंताओं के पास उसप्रतिष्ठित अखबार के स्याह पक्ष की पूरी की पूरी कुंडली विराजमान है जो अखबार की सेहत के लिए बहुत ही खतरनाक साबित हो सकती है।
113. बिहार में अपहरण उद्योग से भी जुड़े रहे पत्रकार
पत्रकारों का सत्ता के करीब होना कोई नई बात नहीं है। पत्रकार तो सत्ताधीशों की रसोई तक में घुसकर खबर निकाल लाया करते हैं। इसे पत्रकारिता जगत में बुरा नहीं बल्कि सराहनीय माना जाता है। पर सत्ताधारी लोगों के घरों में पैठ रखनेवाले पत्रकार अगर सत्ताधीशों के काले धंधों में शामिल होने लगें तो उसे विध्वंशक ही माना जाता है। पर बिहार में ऐसे उदाहरण हैं जब पत्रकारों ने सत्ताधीशों के काले कारनामों में कई तरीकों से अपनी संलिप्तता कायम की औऱ उससे खूब पैसे बनाए। पटना की मीडिया में कई ऐसे पत्रकार हुए जिनका संबंध सत्ता से होने के साथ-साथ सूबे के बड़े-बड़े गुडों और माफिया गिरोहों से भी रहा। कहते हैं पटना के ही एक प्रतिष्ठित अखबार में कभी एक ऐसे दबंग पत्रकार भी हुआ करते थे जिनका संबंध बिहार में जंगलराज के दिनों में चलनेवाले अपहरण उद्योग से भी जोड़ा जाता था। वे जंगलराज के दिनों में उस समय की सत्ता के बहुत ही करीब थे। उन पत्रकार महोदय का अतीत भी बहुत खूंखार था सो वे हर समय रिवाल्वर लेकर चलते थे और दफ्तर भी रिवाल्वर के लाथ ही आया करते थे। उनके साथ के लोग बताते थे कि बिहार में जिन दिनों जंगलराज था उन दिनों राज्य में चलनेवाले अपहरण के कारोबार में वे पत्रकार महोदय अपहर्ताओं और अपहृत व्यक्ति के परिवारजनों के बीच बिचौलिए की भूमिका निभाया करते थे और अपहृत व्यक्ति के परवारजनों से मोटी रकम लेकर अपहृत को छुड़वाने का काम करते थे। कहते हैं उस पत्रकार महोदय ने बिचौलिया बनने के इस कारोबार से जंगलराज के दिनों में करोड़ों रुपए बना लिए थे। पर जानकार बताते थे कि बिहार में जंगलराज के दिनों में चलनेवाले इस अपहरण उद्योग से बिचौलिया बनकर पैसा कमानेवाले और भी कुछ पत्रकार थे जो उस समय की सत्ता के बहुत करीब माने जाते थे। कहते हैं बिहार के वैसे पत्रकारों के आज अमेरिका और दूसरे बड़े देशों से कनेक्शन हैं। पर रैकेटियर पत्रकारों के बारे में मैं यहां यह सब जो कह रहा हूं वह कोई नई बात नहीं है। पत्रकारों के लिए ऐसे रैकेट तो मैंने दिल्ली और बंबई में भी देखे। खासकर अखबारों के संपादकों और बड़े रिपोर्टरों में। हां, बिहार में थोड़ा फर्क था और वह यह कि बिहार के पत्रकार पैसा कमाने के लिए जंगलराज में चल रहे अपहरण उद्योग का ही हिस्सा बन गए थे।
पत्रकार खबर छापकर भी पैसे कमाते हैं और खबर रोककर भी। पर खबर छापने से ज्यादा खबर रोकने के पैसे मिल जाते हैं। जितना बड़ा मामला होता है उसकी खबर रोकने के उतने ही ज्यादा पैसे मिलते हैं। पर इसके लिए जरूरी है कि आपके पास खबर ऐसी हो जो एकदम एक्सक्लूसिव हो यानी वह खबर सिर्फ आपके पास ही होनी चाहिए। इसे एक तरह की ब्लैकमेलिंग भी कह सकते हैं। कॉरपोरेट ब्लैकमेलिंग। और इस तरह की ब्लैकमेलिंग में वाकई बहुत पैसा है। यह काम स्टिंग ऑपरेशन के जरिए भी बहुत होता है। टीवी न्यूज चैनलों की अपनी चंद दिनों की नौकरी में मैंने इस खेल को थोड़ा करीब से देखा, जाना, समझा और महसूस भी किया। कॉरपोरेट घरानों की स्टिंग कराकर फिर उसकी क्लिप की एक झलक उन घरानों को दिखाकर या सिर्फ उस स्टिंग की जानकारी भर देकर मोटा पैसा वसूल लिया जाता है। अगर आपके पास मजबूत और दमदार स्टिंग है तो फिर मुंहमांगी रकम भी मिल जाती है। हां, स्टिंग ऑपरेशन आपको इस विधा के पेशेवर लोगों को अपने साथ लेकर कराने होते हैं। स्टिंग करनेवाले पेशेवर लोग इस काम में अत्याधुनिक और महंगे उपकरणों का इस्तेमाल करते हैं। ये पेशेवर लोग न्यूज चैनलों से स्टिंग किए जानेवाले मामले की औकात देखकर फिर उसके हिसाब से ही पैसा मांगते हैं। स्टिंग करनेवाले पेशेवर लोग स्टिंग ऑपरेशन करने में काफी रिस्क भी लेते हैं। यह काफी मेहनत का काम है। इसीलिए वे मोटा पैसा भी मांगते हैं। इसलिए बढ़िया स्टिंग कराना थोड़ा महंगा बैठता है। अगर आपने स्टिंग करा लिया पर किसी कारण से पार्टी को ब्लैकमेल नहीं कर पाए तो फिर स्टिंग की स्टोरी चैनल पर दिखाकर खूब वाहवाही बटोरिए और टीआरपी बढ़ाइए जिससे आपके चैनल की भी साख बढ़ेगी।
– गणेश प्रसाद झा
आगे अगली कड़ी में....
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