एक पत्रकार की अखबार यात्रा की उनतालीसवीं किस्त
पत्रकारिता की कंटीली डगर
भाग- 39
91. एक्सप्रेस की हड़ताल से उठते मुद्दे
इंडियन एक्सप्रेस की 1987 की वह हड़ताल एक अभूतपूर्व हड़ताल थी जो सिर्फ एक्सप्रेस ही नहीं देश की पूरी मीडिया इंडस्ट्री की आखिरी हड़ताल साबित हुई। यह हड़ताल बोनस को लेकर हुई थी। अखबार प्रबंधन 15 प्रतिशत बोनस देने को तैयार था और हडताली बोनस को 20 प्रतिशत करने की मांग कर रहे थे। ईमानदारी से अगर कहें तो बोनस उद्योग मालिक की खुशी पर निर्भर होता है। नियमानुसार बोनस 8.33 प्रतिशत देने की तब अनिवार्यता थी। श्रम कानूनों के तहत उस समय हड़ताल करना किसी भी श्रमिक का कानूनी अधिकार होता था। उसी संवैधानिक व्यवस्था के तहत ही यह अभूतपूर्व हडताल हुई थी। यहां एक राय यह भी उभरती है कि कानूनन जब यही नियम था और यही वास्तविकता भी थी तो फिर यह हड़ताल हुई ही क्यों। इसीलिए कुछ लोग आज भी कह रहे हैं कि इस हड़ताल का मुद्दा असल में क्या था यह आज तक कभी साफ नहीं हुआ। हडताल को तुड़वाने वाले भी पुरस्कृत हुए और हडताल करने वाले और संपादक को भी न बख्शने वाले को भी बख़्शीश मिली। एक उद्योग के अंदर बोनस के मुद्दे पर प्रबंधन और श्रमिकों में ठनती है। लेकिन इतने छोटे मुद्दे को क्यों फिर इतना बडा क्यों बना दिया गया?
आज भी संस्थान के ही कुछ पत्रकार सवाल उठा रहे हैं कि कहीं भी इस पर ध्यान नहीं दिया जा सका कि हडताल के दौरान भी इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता निकलता रहा। यह क्या कंपनी की कोई रणनीति थी और कौन लोग ऐसा कर और करा रहे थे? इस सबकी वजह क्या थी? अखबारों को अखबारों के डीलर कुछ फोटो सेशन के लिए जला भी रहे थे। इस हडताल में एक राजनीतिक दल विशेष के नेताओं ने क्यों शिरकत की? इस हड़ताल में सत्ता का क्या रुख था? इंडियन एक्सप्रेस प्रबंधन पर सत्ता ने क्या कुछ आरोप लगाए थे? इन सवालों पर भी सोचा, समझा और लिखा जाना चाहिए। वैसे सच तो यही है कि श्रमिक हड़तालों को राजनैतिक दल एक अर्से से इस्तेमाल करते आ रहे हैं। इन सभी बातों की पड़ताल के लिए एक रिसर्च की जरूरत तो है ही। आज जो श्रमिक कानून हैं वे सिर्फ दिखावे के रह गए हैं। लेकिन अखबारी दुनिया की इस आखिरी हडताल की बुनियादी बातों पर पूरी गंभीरता से सोचने की जरूरत है। यह हडताल मीडिया की आखिरी हड़ताल रही। इसके बाद तो तमाम अखबार मालिक और मैनेजर खासे ताकतवर भी होते गए। यूनियनें, खासकर कुछ प्लांट यूनियनें आज आखिरी सांसें ले रही होंगी। पत्रकार संगठन भी तो अब केवल लेटरहेड पर ही बचे हैं। अखबारों के दफ्तरों की ये कर्मचारी यूनियनें अब अपनी किस तरह की भूमिका अदा करेंगी कहना मुश्किल है। इन यूनियनों के लोग क्या अब अपनी बनाई प्रोपर्टी को सहेजेंगे या फिर किसी और तरीके से कुछ करेंगे? दक्षिण भारत में तेलंगाना और हैदराबाद में अभी आईजेयू मजबूत दिखता है। इसी तरह की स्थित केरल में और तमिलनाडु में भी दिखती है। पांडिचेरी और उत्तर पूर्व में खासकर असम में राष्ट्रीय अखबारों और पीटीआई में कुछ एक्टिविटी होती जरूर दिखती है। लेकिन वहां भी उदासीनता भयानक है। कुछ साल पहले सैकड़ों पत्रकारों-गैर पत्रकारों को एक साथ नौकरी से निकाल दिए जाने का विरोध तो हुआ पर आज तक उन कर्मचारियों को नौकरी पर वापस नहीं लिया गया है। झारखंड, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश मे कहीं कोई यूनियन नहीं जान पडती।
दूसरी तरफ किसी भी हड़ताल में मजदूरों की भागीदारी शत प्रतिशत नहीं होती है। हो भी नहीं सकती। इंडियन एक्सप्रेस की हड़ताल तो वैसे भी कथित रूप से कांग्रेस ने कराई थी, भले ही बाद में पता चला कि संपादक (अरुण शौरी) भाजपा और आरएसएस के कितने करीबी थे। हड़ताल के पीछे मुद्दा तो बोनस और अन्य मांगें ही थीं। ये मांगें बाकायदा यूनिनन ने की थी और वह एक सही-सच्ची हड़ताल थी जिसे प्रचारकों ने बदनाम किया और कंपनी के साथ जो प्रचारक और संघ के लोग थे उनकी भूमिका देख-याद कर लीजिए उससे सब कुछ साफ हो जाता है। उन्हें यूनियन की मांग या फिर कर्मचारियों की जरूरतों से कोई लेना-देना ही नहीं था। हताशा में हड़तालियों ने हिंसा का सहारा लिया और मारे गए।
हड़ताल तोड़ने की कोशिशें इतने साल बाद अब बताती हैं कि यह मामला संघ और कांग्रेस का आपसी मामला हो सकता है। आज इतने साल बाद भी इसपर उठे सवाल कायम तो हैं। जहां तक हड़ताल के दौरान अखबार निकलने की बात है तो कहने की जरूरत नहीं है कि उस समय आज की तरह तकनीक नहीं होने के कारण मैनेजमेंट की वह कोशिश बुरी तरह नाकाम रही थी। मुद्दे की एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि 'स्वतंत्र प्रेस' ने अपने कर्मचारियों को वेजबोर्ड की सिफारिशों के मुताबिक वेतन नहीं दिया और कंपनी के समर्थक विपक्ष ने वेजबोर्ड की सिफारिशों को लागू कराने में कोई भूमिका नहीं निभाई।
92. जनसत्ता आखिर जनसत्ता क्यों था
जनसत्ता अगर जनसत्ता था तो सिर्फ और सिर्फ प्रभाष जोशी की वजह से था। जनसत्ता के अच्छे होने का श्रेय अगर किसी और को दिया जा सकता है तो इस बात को कि यह इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप का अखबार था या फिर यह कि इसके मालिक रामनाथ गोयनका थे। जनसत्ता की टीम को भी इसकी कामयाबी का श्रेय जाता है पर यह इंडियन एक्सप्रेस समूह की साख और प्रभाष जोशी के स्टाफ सेलेक्शन से भी संभव हुआ था। प्रभाष जोशी के चुनाव में विविधताएं थीं और खुद भी वे अखबार के सारे काम जानते थे और बहुत ही अच्छे ढंग से उसे करते भी थे। अखबार के दैनिक कामकाज से उनका खासा जुड़ाव था और जनसत्ता में कितने ही चर्चित शीर्षक उन्होंने खुद लगाए थे। अखबारों में खबरों के शीर्षक कौन लगाता है और जो लगाता है उसे इसका श्रेय देने का कोई रिवाज नहीं है पर जनसत्ता में कई बार वे बड़े आराम से ऐसे शीर्षक लगा देते थे जो अच्छे होने के साथ-साथ पूरी खबर को बयान कर देते थे और संबंधित खबर के लिए सर्वश्रेष्ठ शीर्षक हो सकते थे। वैसे तो यह सब जानी हुई बातें हैं पर जिन लोगों ने जनसत्ता नहीं पढ़ा है उनके लिए यह सब पढ़ना और जानना एक अजूबा ही होगा।
जनसत्ता के शुरुआती दिनों के हमारे साथी दयानंद पांडेय ने अपने ब्लॉग में लिखा है कि अख़बार छपने के शुरुआती दिनों की बात है। प्रभाष जोशी जी जनरल डेस्क पर बैठे कोई ख़बर लिख रहे थे। उनकी आदत सी थी कि जब कोई ख़ास घटना घटती थी तो वे टहलते हुए जनरल डेस्क पर आ जाते थे और ‘हेलो चीफ सब!’ कह कर सामने की एक कुर्सी खींच कर उसी पर किसी उप संपादक की तरह बैठ जाते थे। फिर वे चीफ सब से उस संबंधित ख़बर से जुड़े तार (टेलीप्रिंटर से आई समाचार एजेंसियों की खबरों के टेक यानी टुकड़े) मांगते और ख़बर लिखने लग जाते। खबर लिख कर शिफ्ट इंचार्ज यानी चीफ सब एडीटर को देते हुए कहते, ‘जैसे चाहिए इसका इस्तेमाल करिए।’ जोशी जी की आदत थी कि जब वे कोई ख़बर लिख रहे होते या कुछ और भी लिख रहे होते तो डिस्टरवेंस बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। पर उस दिन वे लिख रहे थे तभी एक फ़ोन आ गया। फोन मनमोहन तल्ख़ ने रिसीव किया और प्रभाष जी को बताया कि, ‘मोहसिना किदव ई जी का फ़ोन है।’ ‘यह कौन हैं?’ जोशी जी ने बिदक कर पूछा। ‘यूपी के बाराबंकी से सासंद हैं।’ मनमोहन तल्ख़ ने अपनी आदत और रवायत के मुताबिक़ उसमें जोड़ा, ‘बड़ी खूबसूरत महिला हैं।’ ‘तो?’ जोशी जी और बिदके। बोले, ‘कह दीजिए बाद में फ़ोन करें।’ लेकिन पंद्रह मिनट में जब कोई तीन बार मोहसिना किदवई ने फ़ोन कर दिया तो जोशी जी को फ़ोन पर आना पड़ा। दरअसल, मोहसिना किदवई के खि़लाफ जनसत्ता में बाराबंकी डेटलाइन से एक ख़बर छपी थी। उसी के बारे में वे जोशी जी से बात कर रही थीं। वे उधर से जाने क्या कह रही थीं, जो इधर सुनाई नहीं दे रहा था। पर इधर से जोशी जी उनसे जो कुछ कह रहे थे वह तो हमें साफ-साफ सुनाई दे रहा था। जाहिर है मोहसिना किदवई जी उधर से अपने खि़लाफ ख़बर लिखने वाले जनसत्ता के रिपोर्टर की ऐसी तैसी करती हुई उन्हें हटाने की तजवीज दे रही थीं। पर इधर से प्रभाष जोशी जी अपनी तल्ख़ आवाज़ में उन्हें बता रहे थे कि, ‘रिपोर्टर जैसा भी है उसे न आपके कहने पर रखा गया है, न आपके कहने से उसे हटाया जाएगा। रही बात आप के प्रतिवाद की तो आप उसे लिख कर भेज दीजिए, अगर ठीक लगा तो वह भी छाप दिया जाएगा।’ उधर से मोहसिना किदवई ने फिर कुछ कहा तो जोशी जी ने पूरी ताकत से उनसे कहा कि, ‘जनादेश की बात तो हमें आप समझाइए नहीं। आप पांच साल में एक बार जनादेश लेती हैं तो हम रोज जनादेश लेते हैं। और लोग पैसे खर्च करके अख़बार ख़रीदते हैं और जनादेश देते हैं। बाक़ी आपको जो कुछ भी करना हो आप कर सकती हैं, इसके लिए आप स्वतंत्र हैं।’ इतना कह कर प्रभाष जी ने फ़ोन रख दिया। जनता द्वारा अख़बारों को दिए गए इस जनादेश की ताकत का इस तरह बखान सिर्फ और सिर्फ संपादक प्रभाष जोशी ही कर सकते थे। आज के समय में विज्ञापन को ख़बर बता कर, पैसे लेकर ख़बर छापने वाले संपादक किस बूते पर और किस मुंह से अखबार और कलम की इस ताकत का बखान कर सकते हैं?
एक दूसरा वाकया बिहार का है। बिहार में उन दिनों लालू यादव की सरकार थी। पटना से बिहार के विशेष संवाददाता थे सुरेंद्र किशोर। लालू यादव और सुरेंद्र किशोर साथ ही पढ़े थे। पर यह सर्वविदित था कि खबर लिखने में सुरेंद्र किशोर कभी किसी के प्रति कोई सॉफ्ट कार्नर नहीं रखते थे। वे किसी को नहीं छोड़ते थे। सुरेंद्र किशोर की खबरों से लालू यादव खासे परेशान रहते थे। एक बार लालू यादव ने प्रभाष जोशी जी को फोन करके सुरेंद्र किशोर की भर पेट शिकायत की और कहा कि “आपका रिपोर्टर सुरेंद्र किशोर हमेशा मेरे खिलाफ उलूल जलूल लिखता रहता है, उसे आप नौकरी से निकाल दीजिए।” इसपर प्रभाष जी ने लालू यदव से ठीक वही लाइन कही कि “न तो सुरेंद्र किशोर को हमने आपके कहने से रखा है और न हम आपके कहने से उनको हटाएंगे। आपको अपने बारे में छपी खबरों पर अगर कुछ कहना है तो उसे आप लिखकर भेज दीजिए, जरूरी लगा तो हम उसे भी छाप देंगे।” प्रभाष जोशी के साहस की इस तरह की और भी कई कहानियां हैं।
जनसत्ता यानी न भूतो, न भविष्यति। हिंदी पट्टी में ख़बरों के मामले में जनसत्ता जैसा तल्ख तेवर वाला अख़बार पहले कभी देखा नहीं गया था और आज तक भी ऐसा कोई अखबार नहीं आया है। यही वजह रही जो चंद दिनों में ही जनसत्ता ढाई लाख की प्रसार संख्या को पार करने लगा। कभी मीटिंग में उन दिनों जोशी जी बताते नहीं अघाते थे कि उस समय देश में सर्वाधिक प्रसार संख्या वाला अख़बार पश्चिम बंगाल से छपनेवाला बांग्ला भाषा का अखबार आनंद बाज़ार पत्रिका था। प्रभाष जी उस समय उसकी प्रसार संख्या सात लाख बताते थे और कहते थे कि अगर बांग्ला में कोई अख़बार सात लाख बिक सकता है तो फिर हिंदी में क्यों नहीं? पर उन्हीं दिनों प्रभाष जोशी को जनसत्ता में एक विशेष संपादकीय लिखकर पाठकों से निवेदन करके कहना पड़ा कि “कृपया अब जनसत्ता ख़रीद कर नहीं, मांग कर पढ़िए। हम अब इससे ज्यादा नहीं छाप सकते।” इस पर प्रभाष जी दफ्तर में मीटिंग में अंदर की बात बताते थे कि मालिक रामनाथ गोयनका जी ने जनसत्ता की इस बढ़ती मांग पर उनसे कहा है कि या तो दो मशीनें लगाकर अख़बार अब पांच लाख छापिए या फिर उसे यहीं ढ़ाई लाख पर रोक दीजिए। बीच का कोई रास्ता नहीं था इसलिए जनसत्ता को ढाई लाख पर ही रोक देना पड़ा। अख़बार की छपाई, कागज का खर्च और व्यापार की लाभ-हानि का यह एक तकनीकी गुणा भाग था।
93. अंग्रेजी अखबारों का जूठन नहीं था जनसत्ता
जनसत्ता का प्रकाशन जब शुरू हुआ तो जनसत्ता के साथ-साथ हिंदी पत्रकारिता की धरती पर प्रभाष जोशी नाम का एक देदिप्यमान सूरज भी उदित हुआ। जनसत्ता और उसके यशस्वी संपादक प्रभाष जोशी दोनों की चमक उन दिनों देखने लायक़ होती थी। एक दूसरे की चमक से दोनों ही आप्लावित थे। दिल्ली की मीडिया में वह भी उन दिनों एक ग़ज़ब का मंजर हुआ करता था। जो भी अखबार देखता था वह जनसत्ता और उसके संपादक के रूप में प्रभाष जोशी का नाम देखता था और तब वह बरबस ही पूछ बैठता था कि, ‘यह आदमी अब तक कहां छिपा हुआ था।’ हिन्दी में यह नाम तो पहले भी था पर इतनी चमक और धमक उसके हिस्से नहीं थी और इसीलिए लोग प्रभाष जोशी को नहीं जान पाए थे। उन दिनों हिन्दी में लोग सिर्फ धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, अज्ञेय, कमलेश्वर, मनोहर श्याम जोशी, राजेंद्र अवस्थी, कन्हैयालाल नंदन, अक्षय कुमार जैन, गोपाल प्रसाद व्यास, इलाचंद्र जोशी, मोहन राकेश, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, महेश्वर दयालु गंगवार, रामानंद दोषी और सुरेंद्र प्रताप सिंह जैसे साहित्यकारों को ही जानते और मानते थे। लगभग ये सभी लोग हिन्दी पत्रिकाओं के संपादक थे। हिन्दी के दैनिक अख़बारों के संपादकों की उन दिनों कोई हैसियत ही नहीं समझी जाती थी। उन दिनों हिन्दी के सभी दैनिक अख़बारों की हालत बिल्कुल दरिद्रता वाली थी। प्रभाष जोशी नाम के सूरज ने हिंदी साहित्य और पत्रकारिता की धरती पर जो रोशनी फैलाई, उसे जो ऊष्मा प्रदान किया और उसके पटल पर जो सुंदरता विखेरी वह अविरल, अद्भुत और अविस्मरणीय थी।
हमेशा से अंगरेजी अख़बारों की जूठन और उतरन पर जीने खाने वाली हिन्दी पत्रकारिता को दरअसल प्रभाष जोशी के संपादन में निकलने वाले जनसत्ता ने अंगरेजी अख़बारों के उस जूठन और उतरन के सहारे जीने से मना कर दिया था। प्रभाष जोशी ने अंगरेजी अख़बारों के छिछले अनुवादों से पटे पड़े हिंदी के अख़बारों के संपादकीय या संपादकीय पेज वाले लेखों में अंगरेजी अख़बारों के कचरे से पूरी तरह छुट्टी दिला दी। टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप के हिन्दी अखबार नवभारत टाइम्स के प्रबंधन ने हिन्दी पत्रकारिता में अचानक आए इस बदलाव की समय रहते पहचान कर ली थी और इंदौर के प्रतिष्ठित अखबार नई दुनिया से राजेंद्र माथुर को लेकर आ गए थे। प्रभाष जोशी भी इसी अखबार से निकलकर आए थे। जो काम प्रभाष जोशी जनसत्ता में कर रहे थे, वही काम राजेंद्र माथुर नवभारत टाइम्स में आकर किया करते थे। शायद दोनों की पृष्ठभूमि एक होने की वजह से ही यह एकरूपता थी। राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी दोनों में कई बातें एकसमान थीं। पत्रकारिता की समझ, लिखने की क्षमता और हिंदी पत्रकारिता को बदल डालने की बेचैनी इन दोनों पत्रकारों में कूट-कूट कर भरी हुई थी और वह दूर से भी दिखाई दे जाती थी।हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप का हिन्दी अखबार हिन्दुस्तान तो बहुत बाद में नींद से जागा था। तब तक हिन्दी पत्रकारिता की नदी में काफी पानी बहा दिया जा चुका था।हिन्दुस्तान को तो नकल करनेवाला अखबार ही माना गया।
प्रभाष जोशी को जनसत्ता में स्टाफ रखने से लेकर ख़बर और कंटेंट तक की जितनी आजादी मालिक से मिली हुई थी उतनी किसी और अखबार के संपादक को नहीं थी। जैसे जब केंद्र में कोई प्रधानमंत्री या राज्यों में मुख्यमंत्री अपनी कैबिनेट बनाता है तो क्षेत्रीय संतुलन और जातीय संतुलन का ध्यान रखते हुए अपने करीबियों का भी खयाल रखता है। साथ-साथ वह अपनी पसंद और नीति को भी ध्यान में रखता है। प्रभाष जोशी ने जनसत्ता में नियुक्तियां करते समय बहुत कुछ यही किया था। जनसत्ता में वे हर क्षेत्र के लोगों को लेकर आए थे। जनसत्ता में हर तरह के लोग थे। हमारे एक साथी बालासुंदरम गिरि हिन्दी में भले उन्नीस थे पर वे तमिल के जानकार थे। जनसत्ता में मराठी और उर्दू जानने वाले साथी भी लिए गए थे। दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल से भी लोग लाए गए थे। बहरहाल प्रभाष जोशी जी की किचेन कैबिनेट में तब दो ही लोग थे। बनवारी और हरिशंकर व्यास। दोनों लोग बिना किसी लिखित परीक्षा के लिए गए थे। ये दोनों लोग प्रभाष जोषी की आंख और कान थे। पर थे दोनों एक दूसरे के पूरी तरह उलट। बिल्कुल दो ध्रुव। बनवारी जी सर्वोदयी थे तो हरिशंकर व्यास संघी। बनवारी जी खादी पहनने वाले तो हरिशंकर व्यास पालिएस्टर। दोनों की सोच समझ में भी बहुत का फर्क था। ज़मीनी हकीकत भी दोनों के अलग-अलग थे। इस तरह जनसत्ता में कुल तीन धाराएं थीं। तीनों बेजोड़। शायद इसी विचित्र कांबीनेशन की वजह से जनसत्ता अखबार जनसत्ता ब्रांड बन पाया था।
जनसत्ता का एक स्लोगन यानी नारा था- सबकी खबर ले, सबको खबर दे । इसे हमारे साथी कुमार आनंद ने रचा था। प्रभाष जोशी जी ने एक मीटिंग बुलाकर सभी साथियों से जनसत्ता के लिए एक-एक स्लोगन लिखने को कहा। यह भी कह दिया कि स्लोगन को कविता के अंदाज में लिखा जाना चाहिए। सभी ने इसे बड़े उत्साह से लिखा। पर कुमार आनंद का लिखा स्लोगन ही पास हुआ। प्रभाष जोशी जी को सबसे ज़्यादा यही स्लोगन पंसद आया। फिर तो देश भर में जनसत्ता के लिए लगाए गए तमाम होर्डिंग्स पर और विज्ञापनों में भी यही स्लोगन लिखा गया। यही स्लोगन आम फहम हो गया। उन दिनों जनसत्ता सबकी ख़बर ले, सबको ख़बर दे का एक पर्याय बन गया था। देश के हर खासो-आम को उन दिनों जनसत्ता के पन्नों में अपनी आवाज़ सुनाई देती थी और अपना चेहरा दिखाई देता था। जनसत्ता को उन दिनों लोग रामनाथ गोयनका या फिर इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप का अख़बार नहीं, प्रभाष जोशी का अख़बार जानते थे। हिन्दी पत्रकारिता के पटल पर यह एक अविश्मरणीय और बहुत बड़ी घटना थी। पहली बार किसी अंग्रेजी संस्थान में हिंदी की तूती इस तरह बजी कि न भूतो न भविष्यति। खासियत यह भी थी कि जनसत्ता अख़बार और पत्रिका दोनों का मज़ा एक साथ देता था। यह चीज उस समय हिन्दी पत्रकारिता में कहीं और नहीं थी। जनसत्ता में सप्ताह के दो-दो दिन ख़ास ख़बर और खोज ख़बर का फीचर पेज होता था। इसके अलावा एक-एक दिन खेल, कला और सिनेमा का पेज भी बनता था। और हर रविवार को पूरे चार पन्नों का साहित्य रविवारी जनसत्ता । इन पन्नों के जरिए देशभर की जनपदीय और मुफस्सिल की पत्रकारिता से जुड़ने और वहां के लोगों को अखबार से जोड़ने का यह अद्भुत और एक दुर्लभ प्रयोग किया गया था। इसमें अखबार के संवाददाताओं के अलावा भी कोई भी लेखक-पत्रकार किसी भी विषय पर किसी भी तरह का प्रामाणिक ख़बर लिख कर बेहिचक और आराम से छप सकता था। यह प्रयोग बहुत सफल रहा और इस तरह जनसत्ता में लोग खूब छपे। इससे भी जनसत्ता को खूब ख्याति मिली। उन दिनों कलकत्ता से छपने वाली आनंद बाजार पत्रिका ग्रुप की हिन्दी समाचार पत्रिका रविवार ने हिंदी पत्रकारिता में जो तेवर और जो रवानगी पिरोई थी उसी तेवर और रवानगी को जनसत्ता ने परवान चढ़ा दिया।
– गणेश प्रसाद झा
आगे अगली कड़ी में....
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