सोमवार, 25 अप्रैल 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 16

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की सोलहवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 16

34. नई दुनिया और राजस्थान पत्रिका से नौकरी का ऑफर

चंडीगढ़ छोड़ने से ठीक पहले मैंने कुछ अखबारों को नौकरी की इच्छा जाहिर करते हुए चिट्ठी लिख भेजी थी। उसपर पता  मैंने बिहार के अपने गांव का डाल दिया था। लौटकर मुंगेर पहुंचने के कुछ हप्ते बाद नई दुनिया,  इंदौर और राजस्थान पत्रिका, जयपुर से नौकरी के लिए बुलावे का टेलीग्राम आ गया। नई दुनिया के संपादक अभय छजलानी जी ने अपने भोपाल संस्करण के लिए नौकरी पर लेने की बात कही थी। उधर राजस्थान पत्रिका ने अपने जयपुर संस्करण में नौकरी का ऑफर दिया था। दोनों अखबारों ने अपने टेलीग्राम संदेश में लिखा था कि आने-जाने का दूसरे दर्जे का रेल और बस किराया दिया जाएगा। उन दिनों अखबारों के मालिकान पत्रकारों को कफी इज्जत बख्शते थे और उन्हें इज्जत के साथ किराया देकर बुलाते थे।

मैंने तय किया कि इंदौर भी जाना है और जयपुर भी। जहां तनख्वाह अधिक होगी वहां धुनी रमा लूंगा। मैं बिहार से सीधे इंदौर पहुंचा। वहां अभयजी ने बड़े प्रेम से बिठाया और बीकानेरी भुजिया के साथ चाय पिलाई। बातचीत शुरू हुई और उन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने अभी-अभी नई दुनिया का भोपाल संस्करण शुरू किया है। उन्होंने मुझे भोपाल में काम करने के लिए कहा। हमारी बातचीत काफी लंबी चली। अभयजी बात तो विभिन्न विषयों पर और तरह-तरह की करते रहे पर तनख्वाह कितनी देंगे इसपर वे कुछ नहीं बोल रहे थे। फिर मैंने ही पूछ लिया कि आप मुझे देंगे क्या। उन्होंने चंडीगढ़ जनसत्ता में मिलनेवाली तनख्वाह पूछी तो मैंने दो हजार बता दी। उस समय जनसत्ता चंडीगढ़ में मेरी तनख्वाह दो हजार को छू रही थी। मैंने सही बात बता दी। अभयजी ने कहा कि उनका अखबार जनसत्ता जितना बड़ा नहीं है इसलिए वे मुझे एक हजार रुपए ही दे पाएंगे। मैंने मना कर दिया। मेरे मना करने पर भी वे मुझे लगातार कई घंटे बिठाए रहे और बातचीत करते रहे और चाय और भुजिया का दौर भी चलता रहा। खींच-खांचकर तनख्वाह को उन्होंने 1100 रुपए तक पहुंचाया, पर इससे आगे वे नहीं बढ़ पाए। मैंने बार-बार उनको अपनी असमर्थता ही बताई। मैं मना करता रहा और वे मुझे मनाते रहे। फिर अंत में उन्होंने मुझे आने-जाने का किराया मेरे बताए अनुसार दिलवाया। वहां से विदा लेते समय उन्होंने मुझ से नई दुनिया का भोपाल दफ्तर भी देखते जाने का आग्रह किया और कहा कि अगर वहां काम करने का मन बने तो वहीं भोपाल दफ्तर से उनको सूचित कर दूं। उन्होंने मुझे भोपाल जाने का भी किराया अलग से दिलवाया। मैं इंदौर से बस लेकर भोपाल नई दुनिया के दफ्तर पहुंचा और वहां का डेस्क का कामकाज देखा। 

अभय छजलानी जी को मैं काम के लिए मना कर ही आया था सो फिर भोपाल से बस से ही जयपुर चल दिया। भोपाल बस अड्डे से शाम पांच बजे चली राजस्थान रोडवेज की मेरी बस पूरी रात दौड़ती रही और अगले दिन दोपहर करीब डेढ़ बजे पिंक सिटी जयपुर के बस अड्डे पहुंची। मध्य प्रदेश और राजस्थान में मैंने रोडवेज बसों का गजब का नेटवर्क देखा। बसों का यह जाल बिल्कुल पंजाब के रोडवेज नेटवर्क की तरह था। इनकी तुलना में बिहार रोडवेज का नेटवर्क कहीं नहीं ठहरता था। भोपाल से जयपुर जितनी लंबी दूरी की बस सेवा बिहार में मैंने नहीं देखी थी। सुनी तक नहीं थी। मैं बात आभी की नहीं उस समय की कर रहा हूं। जयपुर बस अड्डे पर मैंने रेलवे स्टेशनों की तरह बाकायदा शौचालय, स्नानागार, क्लॉक रुम और प्रतिक्षालय देखा। वहीं बस अड्डे पर मैंने क्लॉक रुम में अपना सामान रखा और फ्रेश हुआ। फिर शाम को राजस्थान पत्रिका के दफ्तर केसरगढ़ पहुंचा। अखबार का यह दफ्तर किसी राजमहल में था। वहां पत्रिका के मालिक कुलिशजी से मुलाकात हुई। कुलिशजी ने भी चाय और भुजिया खूब खिलाई और देर तर बातचीत करते रहे। छजलानी जी की तरह कुलिशजी ने भी मुझे खूब मनाया पर तनख्वाह में सिर्फ 900 रुपए देने की हामी भरी। बात आगे चलती रही तो उन्होंने सौ रुपए का ग्रेस और दे दिया। बस इसी पर उन्होंने फुलस्टॉप लगा दिया। बात बननी थी नहीं इसलिए मैंने मना कर दिया। उन्होंने दफ्तर से मुझे किराया दिलवाया और मैं फिर जयपुर बस अड्डे पहुंच गया। वहीं से मैंने दिल्ली की बस पकड़ी और दिल्ली से करोलबाग अपने मित्रों के घर चला गया। यहीं से फिर शुरू हुआ था दिल्ली में मेरा संघर्ष।   

35. मुंबई जनसत्ता में नौकरी

प्रभाष जी के आदेश पर मैंने जनसत्ता का दोबारा टेस्ट दिया। जनसत्ता का मेरा यह तीसरा टेस्ट था। इस टेस्ट के बाद एकाध महीने का समय फिर गुजर गया। फिर एक दिन जब मैं प्रभाष जी से मिला तो उन्होंने मुझसे कहा, “टेस्ट की आपकी कॉपी तो ठीक थी, पर मैं आपको यहां दिल्ली में अभी नहीं रख सकता। मैं आपको बंबई भेज रहा हूं। वहां राहुल देव हैं। आप जाइए। वहां कोलाबा के ससून डॉक में कंपनी का गेस्ट हाउस है। उसी गेस्ट हाउस में आपको रहना है। अपने सतीश पेडणेकर भी वहीं रह रहे हैं।“ उन्होंने तुरंत मेरे सामने ही बंबई के स्थानीय संपादक राहुल देव को फोन लगाया और उनसे कहा, “मैं गणेश प्रसाद झा को बंबई आपके पास भेज रहा हूं। इनको वहां डेस्क पर रखना है। इनको अपन ने चंडीगढ़ में रखा था। ये कई जगह काम कर चुके हैं और अच्छा काम जानते हैं और यहां फीचर और एडिट पेज पर लिखते रहते हैं।“ फिर प्रभाष जी ने एक सादे न्यूजप्रिंट कागज पर चंद लाइनों की एक चिट्ठी लिखी और उसे अपने पीए राम बाबू से लिफाफे में बंद करवाया। फिर वह चित्ठी मुझे देते हुए मुझसे बोले, “यह चिट्ठी राहुल देव को दे देना।“ उन्होंने आगे कहा, “मैं आपको वहां थोड़े समय के लिए भेज रहा हूं। फिर दिल्ली बुला लूंगा।“ फिर उन्होंने मुझसे पूछा, “बंबई जाने के लिए रेल टिकट लेने के लिए पैसे हैं या टिकट दफ्तर को ही लेना पड़ेगा।“ टिकट के लिए पैसे तो मेरे पास थे नहीं, पर मैं उनसे दफ्तर से टिकट कराने की बात नहीं बोल पाया। मैंने कहा कि टिकट के लिए पैसे की व्यवस्था मैं कर लूंगा।

प्रभाष जी के कमरे से निकलकर मैं बेसमेंट में जनसत्ता के डेस्क पर गया और अपने सभी साथियों को यह सूचना दी की प्रभाष जी ने मुझे बंबई जाने को कहा है। इस शुभ सूचना पर सभी साथियों को खुशी हुई। सबने मुझे शुभकामनाएं दी। इस सूचना से शंभूनाथ शुक्ल और अमरेंद्र राय साहब तो बहुत ही प्रसन्न हुए।

करोलबाग लौट कर घर पर मित्रों को जब बंबई जनसत्ता में नौकरी मिलने की यह खबर सुनाई तो सभी बहुत आनंदित हुए। मुझसे ज्यादा खुशी मेरे उन मित्रों को हो रही थी। प्रभाष जी ने मुझे वहां राहुल देव जी को देने के लिए अपने हाथ से लिखकर जो चिट्ठी सौंपी थी वह कोई साधारण चिट्ठी नहीं थी। वह तो एक नियुक्ति पत्र था। अजय श्रीवास्तव को उस चिट्ठी को लेकर बड़ी उत्सुकता हो रही थी कि आखिर प्रभाष जी ने उसमें क्या लिखा है। उन्होंने मुझसे कहा, “लिफाफे को खोलिए, इसे पढ़ते हैं क्योंकि यह आपके भविष्य का सवाल है। जान तो लीजिए कि इसमें क्या लिखा है।“ मेरे ना-ना करते अजयजी ने उस लिफाफे को बिना कोई क्षति पहुंचाए बड़ी बारीकी और सफाई से खोल दिया। फिर उस चिट्ठी को पढ़कर लिफाफे को अच्छी तरह चिपकाया गया। चिट्ठी में वही लिखा था जो प्रभाषजी ने मेरे सामने राहुलजी को फोन करके कहा था। पर उन्होंने एक लाइन और यह लिखी थी कि इनसे काम कराकर देख लेना। पर इस तरह बिना इजाजत उनका वह लिफाफा खोलना प्रभाष जी के आदेश और मुझ पर उनके भरोसे का उल्लंघन ही तो था जो हम सभी ने किया। फिर मैंने पांचजन्य में छपी अपनी कुछ रिपोर्टों का बकाया भुगतान लिया और कांग्रेस अखबार से भी मुझे कुछ पैसे मिल गए जिससे बंबई के रेल टिकट और बाकी के खर्चों का भी इंतजाम हो गया। जेब में बंबई के लिए कुछ पैसे भी बच गए। मुझे बंबई की ट्रेन पर बिठाने रवि प्रकाश, प्रेम प्रकाश, अजय श्रीवास्तव और के.ए.बद्रीनाथ नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उस ट्रेन तक साथ गए थे।

36. आंतरिक विरोध रही होगी वजह

मुझे जनसत्ता में दोबारा नौकरी देने में इतनी देरी होना, प्रधान संपादक प्रभाष जोशी जी का बार-बार मामले को टालना, मुझे बार-बार टेस्ट देने को कहना कुछ इस तरह के संकेत दे रहा था जिससे लगने लगा था कि प्रभाषजी के हाथ कुछ बंधे हुए से हैं और वे चाहकर भी मुझे दोबारा लेने का फैसला नहीं कर पा रहे हैं। शायद वे इसी वजह से मेरी प्रार्थना पर चुप रहते थे और बार-बार मुझे टाल रहे थे। उन्होंने मुझे भोपाल के अखबार चौथा संसार में नौकरी दिलाने का ऑफर दिया था पर दिल्ली जनसत्ता में नौकरी देने की मेरी प्रार्थना पर वे चुप हो जाते थे। शायद किन्हीं कारणों से वे मुझे दिल्ली से दूर रखना चाह रहे थे। भोपाल में चौथा संसार में नौकरी दिलवाने का ऑफर देते समय और बाद में बंबई जनसत्ता भेजते समय दोनों बार उन्होंने मुझसे कहा था कि यहां दिल्ली में जगह नहीं है। प्रभाष जी को मेरी परेशानियों से सहानुभूति तो थी, पर ऐसा लग रहा था कि शायद दफ्तर की किसी अंदरूनी राजनीति या किसी आंतरिक शक्ति की वजह से वे मेरे मामले में कोई फैसला नहीं कर पा रहे थे। वे बार-बार टालमटोल कर समय ले रहे थे शायद इसलिए कि इस बीच मुझे अपने प्रयासों से ही कहीं नौकरी मिल जाए और मैं जनसत्ता में नौकरी के लिए अपना प्रयास छोड़ दूं। इस मामले पर इंडियन एक्सप्रेस के कर्मचारी यूनियन से लंबे वक्त तक जुड़े रहे एक सज्जन ने मुझे कहा, “प्रभाष जी आपको दोबारा नहीं ले सकते क्योंकि अगर लिया तो डेस्क पर ही इसका विरोध हो जाएगा और लोग झंडा उठा लेंगे। और अगर कहीं इसमें यूनियन का साथ मिल गया तो फिर हड़ताल जैसी सूरत भी बन जा सकती है। प्रभाष जी ऐसा कोई रिस्क नहीं ले सकते इसलिए वे आपके मामले में चुप्पी साधे हुए हैं।“ उन सज्जन ने आगे कहा, “दिल्ली से बाहर के संस्करणों में प्रभाष जी जो चाहें कर लें, पर दिल्ली में उन्हें कर्मचारियों को साथ लेकर चलना होगा और उनकी इच्छाओं का सम्मान करना पड़ेगा।“ दफ्तर की अंदरूनी राजनीति जो भी हो, पर दिल्ली जनसत्ता के मेरे साथियों ने कभी भी किसी भी रूप में मेरा विरोध नहीं किया।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....

(यह मेरे ब्लॉग ganeshprasadjha.blogspot.com पर भी उपलब्ध है)

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