मंगलवार, 5 अप्रैल 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर - 10


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की दसवीं किश्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 10

21. जनसत्ता का बड़ा कैनवास

धनबाद और पटना में  रहते हुए जनसत्ता में खोज खबर और खास खबर पेज पर लिखने का क्रम तो चल ही रहा थाजनसत्ता में नौकरी के लिए भी प्रयास करता रहा था। जनसत्ता में उन दिनों जिलों से रूटीन की खबरें भेजने और छपने के लिए भी बहुत मारामारी थी। जनसत्ता का जिला संवाददाता बनने के लिए भी बहुत सारे पत्रकार लाइन में लगे रहते थे। धनबाद के अखबारों में काम करने के दौरान मैंने नेशनल एक्सपोजर के लिए जनसत्ता के लिए जिले से खबरें लिखने के लिए उसका संवाददाता बनने की कोशिश की थी पर सफलता नहीं मिली थी। जनसत्ता के दिल्ली दफ्तर से जवाब आया था कि अखबार फिलहाल हर जिले में संवाददाता रखने की स्थिति में नहीं है। फिलहाल और नए संवाददाता भी नहीं रखे जा रहे। जनसत्ता के दिल्ली संस्करण में शुरू में जब भर्तियां हो रही थी तो आवेदन करने से ही चूक गया था और बाद में अर्जी भेजने पर दो बार प्रशिक्षु उप संपादक के लिए मौका मिल रहा था इसलिए गया नहीं। एक मौका नवंबर 1985 में मिला था जब 18-11-1985 के पत्र में तत्कालीन समाचार संपादक श्यामसुंदर आचार्य जी ने मुझे 2 दिसंबर 1985 को लिखित परीक्षा के लिए दिल्ली जनसत्ता के दफ्तर बुलाया था। उस समय मैं धनबाद में दैनिक चुनौती में उप संपादक था। फिर दूसरा मौका जुलाई 1986 में मिला था जब 29 जुलाई 1986 के पत्र में संपादक प्रभाष जोशी के सचिव राम बाबू ने मुझे लिखित परीक्षा के लिए 17 अगस्त 1986 को जनसत्ता के दिल्ली दफ्तर बुलाया था। दोनों चिट्ठियां जनसत्ता के दिल्ली संस्करण में नौकरी के लिए थीं। उस समय मैं पटना में पाटलिपुत्र टाइम्स में उप संपादक था। उप संपादक रहते प्रशिक्षु उप संपादक बनने कैसे जा सकता था सो नहीं गया।

पर जब चंडीगढ़ संस्करण के लिए उप संपादक पद पर भर्ती का विज्ञापन आया तो मैंने कोई गलती नहीं की और अर्जी भेज दी। उस समय भी मैं पटना में पाटलिपुत्र टाइम्स में था। उन दिनों पंजाब में आतंकवाद चरम पर था इसलिए मां मुझे वहां जाने देना नहीं चाहती थी। कुछ ही महीने पहले पिताजी का निधन हुआ था। घर का सारा बोझ अब मुझ पर ही आ गया था। गरीबी से जूझता परिवार था। पत्रकारिता में आगे भी बढ़ना था और इसके लिए बाहर निकलना भी जरूरी था। फिर जनसत्ता में मौका मिलने की संभावना की थोड़ी सी उम्मीद दिखाई दे रही  थी इसलिए रिस्क लेना मुनासिब लग रहा था। बिहार में लोग खूब बोलते हैं नो रिस्कनो गेम। सो मैंने भी रिस्क लेना उचित समझा।

अर्जी भेजने के चंद दिनों बाद लिखित परीक्षा के लिए एक बुलावा पत्र आया। दिनांक-17-03-1987 की उस चिट्ठी में संपादक प्रभाष जोशी के हस्ताक्षर का मोनोग्राम प्रिंट था। पत्र में जनसत्ता के नई दिल्ली और चंडीगढ़ दोनों दफ्तरों का पता लिखा था। टाइपराइटर पर लिखा गया यह पत्र कोई साधारण पत्र नहीं था। यह पत्र अपने आप में बहुत ही मजेदार था। पत्र में लिखा था-

दि:  17-3-1987

प्रिय,

मुझे खुशी हुई कि आप जनसत्ता  का चंडीगढ़ संस्करण निकालने में रुचि रखते हैं।

आप कृपया 26 मार्च को सेक्टर 15, लाला लाजपतराय भवनचंडीगढ़ में आइए। हम आपसे पत्रकारिता के सभी पहलुओं पर लिखवाएंगे।

जनसत्ता में अब तक सारे साथी ऐसी लिखित कसौटी पर खरे उतरने के बाद ही लिए गए हैं। इसके कोई हफ्ते भर बाद साक्षात्कार करेंगे और मेरिट लिस्ट में आए साथियों को लेकर काम शुरु कर देंगे। 26 मार्च को दिन में ग्यारह बजे आना है।

शुभकामनाओं सहित,

आपका,

प्रभाष जोशी

संपादक

पुनश्च:

आने जाने का द्वितीय श्रेणी का रेल भाड़ा भी दिया जाएगा।

जनसत्ता के इस बुलावे पर बिहार से कुल चार पत्रकार लिखित परीक्षा के लिए चंडीगढ़ पहुंचे थे। मैं, प्रियरंजन भारती, कुमार रंजन और हरजिंदर। हमलोग थे तो बिहार के अलग-अलग हिस्से से, पर उस समय सभी लोग पटना में ही काम कर रहे थे। उन दिनों पंजाब में आतंकवाद अपने चरम पर था और राजधानी चंडीगढ़ की सड़कों पर अभूतपूर्व सुरक्षा व्यवस्था थी। ऐसी अभूतपूर्व सुरक्षा व्यवस्था हमने पहली बार देखी। शहर के चप्पे-चप्पे पर रेत से भरी बोरियों से बनाए गए घेरे के भीतर से एके-47 रायफलें ताने सेना के जवान खड़े रहते थे। जेहन में तो पूरा डर बैठ गया। वह सब देखकर ही लगने लगा कि हम बहुत खतरनाक जगह पर आ गए हैं। एक जगह मैंने हिम्मत करके राइफल ताने एक सैनिक को अपना परिचय देकर उससे पूछ डाला कि क्या वाकई बहुत डरावने हालात हैं यहां। इन डरावनी स्थितियों से बिल्कुल बेफिक्र उस सैनिक ने इत्मीनान से जवाब दिया- बिल्कुल चिंता मत करो और डरो मत, सिर्फ अपनी सेफ्टी रखना।

हमलोग चंडीगढ़ के लाला लाजपत राय हॉल में आयोजित इस लिखित परीक्षा में शामिल हुए। वहां कुल सात घंटे तक हम बस लिखते ही रहे थे। पत्रकारिता के तमाम पहलुओं पर सवाल पूछे गए थे और खबरें भी लिखवाई गई थीं। अंग्रेजी समाचार एजेंसियों की खबरों की कठिन मानी जाने वाली कुछ बड़ी कापियां अनुवाद करने के लिए दी गई थीं। एक बड़ी सी खबर को आधा छोटा भी करना था और एक झूठी खबर भी दी गई थी जिसपर यह पूछा गया था कि इस खबर का आप क्या करेंगे। अखबार के पेज का लेआउट भी बनवाया गया था। यानी पूरा टेस्ट ले लिया गया था। जरा सी चूक हुई और आप गए काम से।

जनसत्ता के इस चंडीगढ़ संस्करण में इंडिया टुडे पत्रिका के भोपाल ब्यूरो प्रमुख एन के सिंह को स्थानीय संपादक बनाया जाना तय हुआ था। हमारे इस लिखित परीक्षा में एन के सिंह भी हमसे मिलने आए थे। पर वे बाद में चंडीगढ़ नहीं आए। बाद में सुनने में आया कि पंजाब में आतंकवाद और उसके खौफ की वजह से उनकी पत्नी ने उनको चंडीगढ़ जाने से रोक दिया। शुरू में कुछ समय तक तो हम बिना संपादक के ही अखबार निकालते रहे। दिल्ली जनसत्ता के समाचार संपादक रहे देवप्रिय अवस्थी चंडीगढ़ में भी हमारे समाचार संपादक थे और उन्होंने ही तब तक स्थानीय संपादक की जिम्मेदारी भी निभाई थी। देवप्रिय अवस्थी जी की अगुवाई में ही हम सबने वहां हिन्दी के स्थापित अखबार पंजाब केसरी से मुकाबले की रणनीति भी बनाई थी। बाद में पंजाब के निवासी और फिजिक्स में पीएचडी और रिसर्च फेलो रहे एक नॉन जर्नलिस्ट जितेंद्र बजाज को चंडीगढ़ जनसत्ता का पहला स्थानीय संपादक बना दिया गया था।

चंडीगढ़ की लिखित परीक्षा देकर आने के कुछ ही दिनों बाद दिल्ली से संपादक प्रभाष जोशी का एक तार आया था। तार में इंटरव्यू के लिए 12 अप्रैल को चंडीगढ़ इंडियन एक्सप्रेस के दफ्तर बुलाया गया था। इंटरव्यू वाले इस तार का संदेश कुछ इस तरह था-

REACH INDIAN EXPRESS CHANDIGARH FOR INTERVIEW JANSATTA. ON 12TH APRIL-12 NOON---EDITOR

लिखित परीक्षा देकर आए हम सभी चार साथी तार पाकर इंटरव्यू के लिए दोबारा चंडीगढ़ पहुंचे। वहां इंटरव्यू में जनसत्ता को खड़ा करनेवाले उसके तीन संपादकों की प्रभावशाली टीम बैठी थी जिसमें सर्वश्री प्रभाष जोशी, बनवारी जी और हरिशंकर व्यास थे। जनसत्ता का इंटरव्यू भी उतना ही कठिन था जितना रिटन टेस्ट। इंटरव्यू में प्रभाषजी ने मुझसे पूछा कि कितना पैसा लेंगे। मैंने कहा कि जितना आप देंगे। तब प्रभाषजी ने हिसाब लगाकार बताया कि 950 का बेसिक होगा और उसपर डीए, मकान किराया और अंतरिम राहत वगैरह कुल मिलाकर 1600 रुपए मिलेंगे। मुझे पटना में पाटलिपुत्र टाइम्स में उस समय 930 रुपए मिलते थे। मुझे तो लगा कि यह तो उससे काफी ज्यादा है। मैंने उनको कह दिया कि ठीक है। उस समय मुझे वेतन तय करने-कराने का कोई प्रपंच और गुर वगैरह विल्कुल मालूम नहीं था। उधर लखनऊ के राजीव मित्तल इन मामलों में चालाक थे सो वे प्रभाषजी से अपने लिए 5 इनक्रीमेंट तय करा ले गए। अनजान होने के कारण मैं घाटे में रहा। उस समय वहां इंडियन एक्सप्रेस की चंडीगढ़ यूनिट के प्रबंधक थे सुशील गोयनका जो इंडियन एक्सप्रेस के मूल मालिक रामनाथ गोयनका के परिवार के ही थे। सुशील गोयनका जी ने इंटरव्यू में आए हम सभी लोगों का बहुत अच्छा स्वागत किया था। इंटरव्यू के बाद हमें चंडीगढ़ शहर के एक अच्छे गेस्ट हाउस में ठहराया था।

इंटरव्यू के अगले दिन हमें बता दिया गया कि किस-किस का चयन हुआ है। सबको नियुक्ति पत्र भी दे दिया गया। बिहार के पटना से गए हम चार साथियों में से तीन- मैं, प्रियरंजन भारती और हरजिंदर सफल रहे थे। हमलोग नियुक्ति पत्र लेकर पटना लौट आए थे। हमें दो हप्ते बाद नौकरी पर हाजिर होने को कहा गया था क्योंकि जनसत्ता का प्रकाशन शुरू होने की तारीख तय कर दी गई थी। हमें उस तारीख से पहले ही पहुंचकर अखबार की डमी निकालना था। हममें से सिर्फ कुमार रंजन को चयन न होने के कारण निराश लौटना पड़ा था। पर फिर उन्हें दिल्ली में ही समाचार एजेंसी पीटीआई में जनसत्ता से भी अच्छी तनख्वाह पर नौकरी मिल गई थी। चंडीगढ़ जनसत्ता की न्यूज डेस्क संपादकीय टीम में हिन्दी पट्टी से हम तीनों के अलावा मध्य प्रदेश के इंदौर से प्रदीप पंडित, उत्तर प्रदेश के लखनऊ से राजीव मित्तल, उत्तर प्रदेश से ही सुधांशु मिश्र, राजस्थान के कोटा से नीलम गुप्ता और हिमाचल प्रदेश के ऊना से सुशील कुमार लिए गए थे।

नियुक्ति पत्र लेने के बाद हम लोगों ने दफ्तर से ही यह पता लगा लिया कि शहर में कुछ समय तक रहने के लिए कौन-कौन सी जगह हो सकती है जो किफायती होने के साथ-साथ आसानी से उपलब्ध भी हो सके। हमें बताया गया कि सेक्टर-20 में अग्रवाल धर्मशाला है जो हमारे ठहरने के लिए सही जगह होगी। फिर चंडीगढ़ पहुंचने पर हम सारे लोगों ने उसे ही अपना ठिकाना बनाया था। हम लोग करीब 4-5 महीने वहीं डटे रहे। वहां डॉर्मीटरी में एक बिस्तर का किराया उस समय सिर्फ दस रुपए था। एक-एक कमरे में तीन से चार बिस्तर लगते थे। हर चार दिन बाद धर्मशाला का मैनेजर हमारे कमरे बदल देता था और रजिस्टर में नई इंट्री कर लिया करता था। ऐसा इसलिए क्योंकि उन दिनों आतंकवाद चरम पर था और वहां लागू नियमों के अनुसार किसी आगंतुक को चार दिन से ज्यादा धर्मशाला में ठहराने की इजाजत नहीं थी। पर हमलोग अखबारवाले थे और शहर के एक बड़े अखबार समूह में नियुक्त थे इसलिए हमें वहां टिकाए रखने के लिए यह खास इंतजाम किया गया था।

अग्रवाल धर्मशाला के ठीक सामने सड़क थी और सड़क के दूसरी तरफ सेक्टर-20 का मार्केट कांप्लेक्स था। चंडीगढ़ सेक्टरों में बसा हुआ एक साफ सुथरा और व्यवस्थित शहर है। हर सेक्टर का अपना एक अलग मार्केट कांप्लेक्स यानी बाजार है जिसमें आम जरूरतों का लगभग सबकुछ उपलब्ध होता है। अपने सेक्टर-20 के इसी मार्केट में एक व्यवस्थित रेस्टोरेंट भी था जहां हम सारे लोग सुबह का नाश्ता और दोपहर का खाना खाते थे। कभी-कभी रात का खाना भी। वहीं चाय का एक बढ़िया ठीया भी था। सुबह नाश्ते में चंडीगढ़ में दही परांठे लेने का प्रचलन था जो हमें भी खूब पसंद आया। वहां जनसत्ता के दफ्तर में कैंटीन तो था पर वहां खाना नहीं बनता था। सिर्फ चाय, मट्ठी, ब्रेड-बटर और ब्रेड पकौड़े ही मिलते थे। वहां इंडियन एक्सप्रेस कई साल पहले से छपता था पर उसके लोगों ने कैंटीनवालों से कभी खाना बनाने की मांग ही नहीं की थी। हमने हल्ला मचाया तब जाकर वहां खाना बनना शुरू हुआ। कैंटीन की चाय में दूध ज्यादा और पत्ती बहुत कम डली होती थी जिस कारण चाय में मजा नहीं आता था। हम हिन्दी पट्टी के लोग कैंटीनवाले को कड़क चाय लाने को कहते थे। पर पंजाब, हरियाणा और हिमाचल वाले साथी अधिक दूध और कम पत्ती वाली चाय ही पसंद करते थे। हमारे समाचार संपादक देवप्रिय अवस्थी जी कड़क चाय की मेरी बात पर चुटकी लेते थे और कहते थे, झा साहब तुम्हारे बिहार में दूध तो होता नहीं, यहां पंजाब में बहुत दूध होता है। जिन दिनों मैं पटना में पाटलिपुत्र टाइम्स में था उन्हीं दिनों अवस्थी जी पटना में नवभारत टाइम्स में समाचार संपादक हुआ करते थे। मैं जब कभी साथियों से मिलने नवभारत टाइम्स जाता था तो वहां अवस्थी जी से जरूर मिलता था। अवस्थी जी चंडीगढ़ जनसत्ता में हमारे अभिभावक ही थे। हमलोग सभी वहां एक परिवार की तरह रहते थे।

अग्रवाल धर्मशाला के ठीक सामने की सड़क से ही हमें दफ्तर जाने के लिए चंडीगढ़ प्रशासन द्वारा चलाई जा रही सिटी सर्विस की सरकारी बसें मिल जाती थी। हमारा दफ्तर शहर के एक छोर पर इंडस्ट्रियल एरिया में था। 186-B, इंडस्ट्रियल एरिया, चंडीगढ़-160002.। बस से हम राम दरबार उतरते थे। वहां से हमारा दफ्तर पैदल एक मिनट की दूरी पर था। अग्रवाल धर्मशाला में हमारे लगभग पांच महीने बड़े आनंद से बीते। धीरे-धीरे हम मकान तलाशते गए और वहां से एक-एक कर निकलते गए। एक तो चरम पर आतंकवाद और दूसरे हमारे लिए एक नया शहर। इसलिए हमें अपना आशियाना तलाशने और रहने की व्यवस्थाएं करने में महीनों लग गए। चंडीगढ़ में खाना थोड़ा महंगा था, पर रहना जरूर सस्ता था। उन दिनों वहां मकान का किराया पटना और दिल्ली की तुलना में काफी कम था।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में...

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