गुरुवार, 14 अप्रैल 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 13


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की तेरहवीं किश्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 13

28. मित्रों की मदद और नौकरी के लिए संघर्ष

चंडीगढ़ से लौटने के बाद दिल्ली में नौकरी के लिए संघर्ष करने के दिनों में दिल्ली में रह रहे बिहार के मेरे कुछ पत्रकार मित्रों ने मेरी खूब और हर तरह से मदद की। इन मित्रों ने मुझे न केवल अपने घर में साथ रखा बल्कि अपने साथ ही मेरे खाने-पीने की भी व्यवस्था की। और तो और, इन सहृदय मित्रों ने दिल्ली में नौकरी तलाशने के लिए अखबारों के दफ्तर आने-जाने के लिए जब-तब मेरे लिए बस के किराए आदि का भी बोझ उठाया। इनमें उन दिनों साप्ताहिक वैचारिक अखबार पांचजन्य में काम कर रहे मुजफ्फरपुर के रवि प्रकाश, उनके छोटे भाई प्रेम प्रकाश, उत्तर प्रदेश के अजय श्रीवास्तव, बिहार के पत्रकार अजित अंजुम और आर्गनाइजर अखबार में काम कर रहे आंध्र प्रदेश के पत्रकार के.ए. बद्रीनाथ थे। ये सभी पत्रकार दिल्ली के करोलबाग के देवनगर में किराए के एक मकान में एक साथ रहते थे। रवि प्रकाश जी ने सबकी सहमति से मुझे भी अपने साथ रख लिया। कांग्रेसी नेता और पूर्व राज्यसभा सांसद संजय निरूपम भी उस समय पांचजन्य में ही पत्रकार थे और उसी मकान में रहते थे। उस समय हम सारे लोग युवा थे।

29. पांचजन्य का सहारा

पांचजन्य में नौकरी दिलवाने के इरादे से रवि प्रकाश जी मुझे एक दिन पांचजन्य के संपादक भानु प्रताप शुक्ल जी से मिलवाने झंडेवालान स्थित उनके आवास केशव कुंज ले गए। मुलाकात के बाद भानुजी ने मुझे अखबार के दफ्तर भी बुलाया। वे मुझे तत्काल नौकरी तो नहीं दे पाए, पर एसाइनमेंट पर नियमित लिखते रहने की व्यवस्था जरूर कर दी। मैं संघी नहीं हूं। कभी संघ की शाखा में नहीं गया। और वामपंथियों से भी मैंने कभी नाता नहीं जोड़ा। संकट में संयोग से एक सहारा मिला तो मैं पांचजन्य में लिखने लगा। संपादक भानुजी ने मेरे लिए ऐसी व्यवस्था कर दी कि रिपोर्टें छपने के तुरंत बाद मुझे उसके पारिश्रमिक का नकद भुगतान मिल जाने लगा। इससे मुझे अपने दौड़-धूप के फुटकर खर्चों में काफी मदद मिलने लगी। उन दिनों दिल्ली में डीटीसी की बसों में किराया रुपया-आठ आना ही हुआ करता था। एक बार कड़की में कम पैसे का टिकट लेकर ही डीटीसी की बस में बैठ गया था और पकड़ लिया गया था तो बीस रुपए का जुर्माना भरना पड़ा था। उसी भयंकर कड़की में एक बार जनसत्ता के दफ्तर में प्रभाष जी से मिलकर शाम को आईटीओ से करोलबाग लौटते समय बस में किसी जेबकतरे ने जेब से बटुआ निकाल लिया था। रविजी ने सुना तो अगले दिन उन्होंने बस किराए के लिए बीस रुपए दिए। रविजी आदतन अक्सर मुझसे पूछ लिया करते थे कि बस के किराए के लिए पैसे जेब में हैं या नहीं। रविजी ने उन दिनों मेरी मदद के लिए जो किया वह कोई नहीं करता। रविजी ने अगर मदद नहीं की होती तो न तो मैं नौकरी ढूंढने के लिए दिल्ली में टिक पाता और न बंबई जनसत्ता जाने की ही कोई स्थिति बनी होती। चंडीगढ़ जनसत्ता से लौटने के बाद मैं अपने गांव में ही पड़ा रह जाता। मेरी स्थिति ऐसी बिल्कुल नहीं थी कि मैं घर से कोई मदद मंगाता क्योंकि पिताजी कई साल पहले ही गुजर चुके थे और घर में आमदनी का कोई जरिया नहीं था। परिवार के लोग तो घर चलाने के लिए मेरे पैसे की बाट जोहते थे। उन दिनों मैं तो यही सोचता रहता था कि अगर पटना से पाटलिपुत्र टाइम्स की परमानेंट नौकरी छोड़कर चंडीगढ़ जनसत्ता नहीं गया होता तो आज ये बुरे दिन न देखते पड़ते। जितेंद्र बजाज ने मुझे कहीं का नहीं रहने दिया था। मैंने उनका कुछ नहीं बिगाड़ा था। मैंने उनके सम्मान में भी कभी कोई कमी नहीं की थी। फिर भी उन्होंने मुझे इतनी कड़ी सजा दे दी। ऐसे में एक ब्राह्मण क्या उन्हें कभी आशीर्वाद देता। फिर भी मैंने उनका मन से भी कभी बुरा नहीं सोचा।

करोलबाग के देवनगर वाले घर में मित्र बद्रीजी बहुत स्वादिष्ट सांभर बनाते थे। बाकी किसी को सांभर बनाना नहीं आता था। सो जब कभी सांभर-चावल खाने की सबकी राय होती थी तो सांभर बद्री जी ही बनाते थे। रविजी के पिता बिहार के मुजफ्फरपुर में रेलवे के अधिकारी थे। वे अक्सर अपनी ड्यूटी में दिल्ली आते रहते थे। रविजी की माताजी मुजफ्फरपुर से ठेकुआ और गुजिया वगैरह बनाकर भेजती रहती थी। रविजी के साथ कई बार मैं भी वह पैकेट लेने नई दिल्ली स्टेशन जाया करता था। हम सारे लोग बिहार से आए उन स्वादिष्ट पकवानों का आनंद लेते थे। हमारे उस कमरे में एक ब्लैक-एंड ह्वाइट टीवी भी था। रविवार को पांचजन्य और ऑर्गनाइजर में सबकी छुट्टी होती थी और दोपहर को जल्दी-जल्दी खाना खत्म करके सभी लोग दूरदर्शन पर फिल्म देखा करते थे। हम खाली समय में पत्रकारिता और देश की राजनीति पर आपसे में गंभीर चर्चाएं भी किया करते थे। मेरे वहां रहते कभी-कभार आरएसएस के विचारक गोविंदाचार्य, राम कुमार भ्रमर, सुंदरलाल पटवा और कई दूसरे चिंतक भी वहां आ जाया करते थे। वैचारिक तौर पर वहां एक अच्छा इंटेलेक्चुअल माहौल होता था।

30. जनसत्ता का दिल्ली स्थित मुंगेर संवाददाता

संकट के उस दौर में मेरे लिए बिना नौकरी के दिल्ली में टिके रहना बड़ा कठिन था। जनसत्ता दिल्ली के डेस्क और रिपोर्टिंग के सभी साथी काफी आत्मीय थे। उनका व्यवहार मेरे लिए ऐसा था जैसे मैं दिल्ली जनसत्ता का ही स्टाफ हूं। मेरा हर रोज जनसत्ता दफ्तर जाना होता ही था। कोशिश हमेशा प्रभाष जी से मिलते रहने और उन्हें अपनी दिक्कतें बताते रहने और नौकरी मांगते रहने की होती थी। जनसत्ता के प्रोविंशियल डेस्क के इंचार्ज मुख्य उप संपादक शंभूनाथ शुक्ल जी थे। उनकी टीम में थे गाजीपुर के पत्रकार अमरेंद्र राय और बिहार के संजय कुमार सिंह। तमाम हिन्दी प्रदेशों के जिलों की खबरें शंभू जी के पास ही पहुंचती थी। मेरी मुफलिसी देखकर उन्होंने मुझसे कहा कि मैं अपने मुंगेर जिले की खबरें लिखकर दे दिया करूं। वे उन्हें छाप दिया करेंगे औऱ इस तरह मुझे उसका भुगतान मिल जाया करेगा तो मेरी कुछ मदद हो जाएगी। अमरेंद्र राय साहब ने सुझाया कि मुंगेर से किसी से वहां की खबरें मंगा लिया करूं और आईएनएस में कुछ रीजनल अखबारों से मुंगेर की कुछ ऐसी खबरें निकाल लिया करूं जिसे फिर से री-राइट कर खबर बनाई जा सके। फिर मैंने वहीं दिल्ली में रहते हुए मुंगेर की खबरें लिखने लगा। खबरें लगातार छपने भी लगीं। उन दिनों जनसत्ता में लगभग रोज मुंगेर की एक खबर होती थी। कोई सोच भी नहीं सकता था कि दिल्ली में रहकर कोई 1300 किलोमीटर दूर स्थित मुंगेर का संवाददाता कैसे हो सकता है। पर मैं था। प्रधान संपादक प्रभाष जोशी जी भी मेरी मदद के लिए प्रोविशिंयल डेस्क की तरफ से की गई इस विशेष व्यवस्था को जानते थे। यह सिलसिला मुझे नियुक्ति देकर बंबई जनसत्ता भेजे जाने तक अनवरत चलता रहा।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....



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