एक पत्रकार की अखबार यात्रा की पंद्रहवीं किश्त
पत्रकारिता की कंटीली डगर
भाग- 15
33. प्रभाष जोशी के आदेश पर दो बार टेस्ट
चंडीगढ़ जनसत्ता से निकाले जाने के बाद मैं दिल्ली में रहकर नौकरी की तलाश कर रहा था। पर चंडीगढ़ जनसत्ता के स्थानीय संपादक जितेंद्र बजाज जी की ओर से य़ह कलंक चस्पा कर दिया जाना मुझे लगातार सालता और अपमानित महसूस कराता रहा था कि बिहार के लोगों को अंग्रेजी तो नहीं ही आती, हिंदी भी ठीक से नहीं आती। इसलिए मैं वहां प्रधान संपादक प्रभाष जोशी जी से बार-बार मिलकर उनसे यही अनुरोध करता रहता था कि मुझे अखबार का हर काम अच्छी तरह आता है और आप मुझे फिर से नौकरी पर रख लीजिए। चाहें तो पहले काम कराकर देख लीजिए। उन्हीं दिनों जनसत्ता का बंबई संस्करण शुरू होनेवाला था। जनसत्ता दिल्ली के वरिष्ठ साथी शंभूनाथ शुक्ल और अमरेंद्र राय ने मुझसे कहा कि जल्दी ही जनसत्ता का बंबई संस्करण आनेवाला है। प्रभाष जी से कहिए कि मुझे बंबई में रख लीजिए।
प्रभाष जी से मिलकर नौकरी मांगने का मेरा सिलसिला लगातार चल ही रहा था। एक बार प्रभाष जी ने मुझसे कहा, “यहां जनसत्ता में तो जगह नहीं है, मैं आपको भोपाल भेज देता हूं। वहां अपने देवप्रिय अवस्थी जी चौथा संसार निकाल रहे हैं। यह अच्छा अखबार है। आप वहीं चले जाओ, मैं अवस्थी जी को बोल देता हूं। वहां कोई दिक्कत नहीं होगी।” पर मैंने उनसे हाथ जोड़कर विनती की कि वहां नहीं, मुझे आप जनसत्ता में ही रख लीजिए। मेरी इस विनती पर प्रभाष जी बोले, “जनसत्ता की नौकरी फिर से पाने के लिए आपको फिर से टेस्ट देना होगा।“ मैं तुरंत राजी हो गया। मुझे भी लग रहा था कि चंडीगढ़ जनसत्ता का काम न आने का कलंक दोबारा टेस्ट देने और उसे पास करने से ही मिटेगा। फिर उन्होंने एक दिन मुझे टेस्ट देने के लिए बुला लिया। दिल्ली दफ्तर में ही मैंने जनसत्ता का करीब सात-आठ घंटे चलनेवाला प्रचलित और आईएएस की परीक्षा के टक्कर का माना जानेवाला बेहद कठिन टेस्ट दिया। टेस्ट अच्छा रहा और चंडीगढ़ में दिए टेस्ट से भी अव्वल रहा।
इसके बाद मैं उस टेस्ट के रिजल्ट और नौकरी की बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगा। पर काफी समय गुजर गया और इस बारे में कोई खबर नहीं मिली। मैं फिर प्रभाष जी से मुलाकात करने लगा और फिर से वही विनती दोहराने लगा। प्रभाष जी ने कहा कि उन्होंने अभी तक टेस्ट की मेरी कॉपी नहीं देखी। उन्होंने मुझे कहा, “बनवारी जी से पता करो कि उन्होंने आपकी कॉपी देखी है या नहीं।“ पर जब बनवारी जी से पूछा तो वे बोले, “आपकी कॉपी मेरे पास आई ही नहीं। दफ्तर में पता करो कहीं रखी हो तो भिजवाओ।“ पर मेरी उस टेस्ट कॉपी का दफ्तर में कहीं कोई आता-पता नहीं मिला। मैं फिर निराश हो गया। पर प्रभाष जी से मिलना और विनती करने का सिलसिला जारी रखा।
एक दिन देर शाम प्रभाष जी दफ्तर के बाहर सीढ़ियों पर मिल गए। वे घर लौट रहे थे। मैंने हाथ जोड़े तो उन्होंने मुझे दफ्तर की अपनी एंबेसेडर कार में पीछे की सीट पर अपने बगल में बिठा लिया। कार चली तो रास्ते में उन्होंने मुझे अपनी एक आपबीती सुनाई। उन्होंने कहा कि उनका बचपन भी बेहद गरीबी में बीता है। आर्थिक परेशानियों की वजह से उनकी पढ़ाई बाधित हुई। अपने खर्चे के लिए वे इंदौर में अंधों-बहरों के एक स्कूल में पढ़ाने का काम किया करते थे। उन्होंने मुझे संकट की इस घड़ी में हिम्मत से काम लेने को कहा। उन्होंने मुझे जमनापार लक्ष्मीनगर में छोड़ा जहां से मैं बस से करोलबाग अपने मित्रों के घर लौटा। फिर एक दिन प्रभाष जी ने मुझे कहा, “टेस्ट की आपकी कॉपी मिल नहीं रही है इसलिए आप फिर से एक बार टेस्ट दे दो।“ मैंने फिर उन्हें हामी भर दी। फिर उन्होंने मुझे एक दिन टेस्ट के लिए बुलाया। मैंने तीसरी बार भी जनसत्ता का आईएएस की परीक्षा की बराबरी वाला वह कठिन टेस्ट दिया।
– गणेश प्रसाद झा
आगे अगली कड़ी में....
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