मंगलवार, 3 मई 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 17

 एक पत्रकार की अखबार यात्रा की सत्रहवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 17

37. समंदर किनारे अखबारनवीसी

बंबई जनसत्ता में नौकरी के लिए देश की आर्थिक राजधानी की मेरी यह पहली यात्रा थी। एक विलक्षण सा शहर जहां अमीरों और गरीबों, गगनचुंबी इमारतों और टीन की छतोंवाली खोलियों तथा लाखों के फैशनेबल कपड़ों में दिखनेवाली बालाओं और घुटनों तक साड़ी समेटे रहनेवाली औरतों की भयंकर जद्दोजद का अंतहीन सिलसिला मिलता है। एक आसमान में उड़ रहा है तो दूसरा जमीन पर बिलबिला रहा है। किसी को एक दूसरे की तकलीफ पूछने का वक्त नहीं है। सभी एक ही दिशा में बस लगातार भाग रहे होते हैं। जैसे चींटियों और टिड्डियो की फौज कूच कर रही हो। ऐसा नजारा पहले कभी नहीं देखा था। समंदर यानी हिंद महासागर के हिस्से अरब सागर का भी पहली बार दीदार किया। पूरे शहर की फिजां में एक खास तरह की बदबू मिली जो समंदर और उसकी मछलियों से भभक-भभक कर आती रहती थी। इसे बंबई की खुशबू कहिए। इसे बंबईकर यानी बंबई के रहवासी बास मारना कहते हैं। सुबह- सुबह बंबई वीटी पर ट्रेन खाली हुई। वहां सें मुझे कोलाबा के ससून डॉक जाना था। स्टेशन से सीधी सड़क और कोई तीन किलोमीटर का रास्ता। पर पता नहीं था किधर है और कितनी दूर है। टैक्सी ले ली। टैक्सीवाले को बता दिया कोलाबा का ससून डॉक चलो। उसने पूछा ससून डॉक में कहां जाना है। मैंने बताया इंडियन एक्सप्रेस का गेस्ट हाउस। पर टैक्सीवाला मुझे किसी दूसरे रास्ते से काफी घुमाकर ले गया। उसे टैक्सी के मीटर को बढ़ाना जो था। वह मुझे ससून डॉक से आगे कफ परेड लेता गया। वहां पूछकर पता किया और फिर ससून डॉक वापस आया। बदमाश टैक्सीवाले ने मुझे ससून डॉक के गेट के पास मेन रोड पर ही उतार दिया। कहा अंदर मच्छी का कचरा रहता है, गाड़ी में बास मारेगा। तुम जाओ। मैं दो बड़े सूटकेस ले गया था सो गेस्ट हाउस तक ले जाने में बड़ी परेशानी हुई। गेस्ट हाउस का गार्ड दिल्ली दफ्तर से आया जानकर मुझे पहले माले पर ले गया। वहां तीन कमरे का एक प्लैट था। बाकी और भी प्लैट्स थे। वहां दिल्ली जनसत्ता के दो परिचित साथी मिले। सतीश पेडणेकर और इंद्र कुमार जैन। स्थानीय संपादक राहुल देव जी भी वहीं एक कमरे में अकेले रहते थे। बाकी दो और साथी थे। मध्य प्रदेश के बिलासपुर के सदानंद गोडबोले और इंदौर के रविराज प्रणामी। फिर कुछ द्नों बाद दो साथी और आ गए। इंदौर से ही विभूति शर्मा और हेमंत पाल। राहुलजी के कमरे में सोने के लिए एक कामचलाऊ तख्त था। बाकी एक कमरे में फर्श पर एक गद्दा बिछा था। सतीश पेडणेकर, रविराज प्रणामी और मैं एक कमरे में सोते थे। तीसरे कमरे में विभूति शर्मा और हेमंत पाल। खाना हमलोग बाहर कोलाबा के एक  नामी रेस्टोरेंट कैलाश पर्वत में खाते थे। खाना बहुत महंगा था। सस्ते खाने का वहां कोई जुगाड़ नहीं था। कोलाबा बंबई का पॉश इलाका है। हर चीज वहां हद से ज्यादा महंगी थी। एक कपड़ा प्रेस कराने के लिए 1989 में उस समय 75 पैसे देने पड़ते थे। दिल्ली में तब 50 पैसे का रेट था। कुछ महीने बाद राहुलजी अपनी पत्नी और नन्हीं सी बिटिया को लाए तो हमने उनको एक बड़ा कमरा दे दिया। फिर हमने कोलाबा के एक होटलवाले से गैस के एक सिलिंडर का जुगाड़ किया और खाना बनना शुरू हुआ। शुरू में राहुलजी की पत्नी सबका खाना बनाने लगीं। खाना बनाने में हम भी थोड़ा-थोड़ा हाथ बंटाते थे। पर हमें यह अच्छा नहीं लगा। फिर हमने खाना बनाने के लिए एक बाई रख ली। घर का खाना मिलने लगा तो थोडी राहत मिली।

38. जादुई शहर बंबई

बंबई शहर बड़ा ही खूबसूरत, मनमोहक और चकाचौंधवाला है। नाइटलाइफ के लिए तो यह शहर बड़ा ही मशहूर है और कुख्यात भी। उस समय भी था। वहां दो तरह की सिटी ट्रेनें यानी लोकल चलती हैं। एक स्लो और दूसरी फास्ट। मैं पहली बार बंबई गया था। शहर के बारे में मुझे कुछ भी पता नहीं था। दो साल वहां रहकर भी मैं बंबई को बहुत थोड़ा ही देख और समझ पाया। रविराज प्रणामी के पास एक मोटर साइकिल थी जिसे वे इंदौर से लेकर आए थे। उनकी हीरो होंडा-एसएस-100 थी तो थोड़ी पुरानी पर दौड़ती बड़ी तेज थी। रवि की इस मोटरसाइकिल पर ही मैंने बंबई के आसपास के कुछ इलाके देखे। बंबई की पुलिस नियम-कायदों के प्रति बड़ी पाबंद होती है। रवि की मोटर साइकिल पर मध्य प्रदेश का नंबर था। पुलिसवाले जब-तब नंबर देखकर रोक लेते थे। अखबार का नाम लेने पर भी कहते थे कि सर, नंबर ट्रांसफर करा लीजिए। आप काफी दिनों से बंबई में ही चला रहे हैं। अब जल्दी बदलवा लीजिए। कई बार मैं साप्ताहिक अवकाश के दिन बेस्ट की डबल डेकर बस पर ऊपर चढ़कर बैठ जाता था और जहां तक बस जाती थी वहां तक जाता और फिर उसी से लौट आता था। इसी तरह मैंने बंबई शहर को निहारा था। रवि कई बार समंदर किनारे ले जाते थे जहां हम बीच का आनंद उठाते थे और पाव-भाजी खाते थे।

बंबई में समुद्री बीच पर यानी समंदर किनारे की रेत पर तेल मालिश का भी एक मजेदार धंधा होता है। मालिश का धंदा शाम ढलने के बाद शुरू होता है। बीच पर आपको कई–कई तेल मालिशवाले मिल जाएंगे। वे लोहे के तार से बनी एक टंगनी में तरह-तरह के तेलों की कई शीशियां लिए वहां घूमते रहते है। बड़े मनमोहक अंदाज में मालिश... मालिश... बोलते आपके बगल से गुजर जाते हैं। बस कपड़े उतार कर बीच की रेत पर लेट जाइए और करा लिजिए मालिश। मालिशवाले पूरे शरीर का दर्द खींच लेते बताते हैं। पर मैंने कभी मालिश नहीं करवाई। मालिशवाले काफी हट्ठे-कट्ठे होते हैं, बिल्कुल पहलवान टाइप। उन्हें देखकर ही मन में डर पैदा हो जाता था। पता नहीं कहीं पकड़कर रगड़ मार दी तो हड्डी का कचूमर निकल जाएगा।

पाव-भाजी का बंबई में बड़ा क्रेज है पर हम हिन्दी पट्टी वालों को यह कम ही पसंद आता था। पर मजबूरी में तो खाते ही थे क्योंकि और कुछ यानी उत्तर भारतीय जैसा कुछ महीं मिल रहा होता था। एक बार मैं, रविराज और सदानंद गोड़बोले 31 दिसंबर की रात सड़कों पर नए साल का जश्न मनाते लोगों को देखने निकले। उस रात सड़कों पर बेतहाशा भीड़ थी। सड़कों पर बहुत तेज रफ्तार था। हम पैदल ही नरीमन पॉइंट से मरीन ड्राइव तक टहलते चले गए। सोचा कुछ खाया जाए। कई अच्छे रेस्टोरेंटों में गए पर हर जगह खाने के लिए सिर्फ पाव-भाजी ही उपलब्ध था। हमने आपस में कहा कि इतना बड़ा शहर जो देश की आर्थिक राजधानी कहलाता है और खाने को मिल रहा है सिर्फ पाव-भाजी। मजबूरी में आखिरकार हम एक बड़े रेस्टोरंट में पाव-भाजी खाने बैठ ही गए। बैरे से पूछा तो उसने बताया कि आज कोई दूसरी चीज नहीं मिलेगी। तभी हमें समझ में आया कि बंबई में बड़ा-पाव कितना ज्यादा बड़ा होता है।

39. कोलाबा में समुद्री मछलियों का अंतरराष्ट्रीय व्यापार

बंबई का कोलाबा बिल्कुल समंदर के किनारे स्थित है। बंबईया मराठी भाषी लोग इसे कुलाबा बोलते हैं। यहां एक प्रसिद्ध डॉकयार्ड है जिसका नाम है ससून डॉक। इस डॉकयार्ड से दिनरात समुद्री मछलियां निकाली जाती हैं। यहां से निकाली गई और प्रोसेस की गई समुद्री मछलियां पूरे भारत में तो क्या पूरी दुनिया में भेजी जाती हैं। इस डॉक पर सैकड़ों की तादाद में मछलीमार नौकाएं खड़ी रहती हैं जिनमें शक्तिशाली मोटर लगा होता है और एक बड़ा सा मजबूत जाल भी होता है। समुद्री मछलियां छोटी से छोटी और बड़ी से बहुत बड़ी भी होती हैं। खुछ खास तरह की मछलियों को प्रोसेस करने के लिए यहां निजी कंपनियों के कई बड़े-बड़े प्लांट हैं जो प्रोसेस्ड मछलियों को फ्रीज करके सीधे विदेश भेज देती हैं। बाकी छोटी-बड़ी साधारण मछलियों को बर्फ के टुकड़ों के साथ बड़े-बड़े चौकोर डब्बों में पैक कर रेल से देश के अलग-अलग हिस्सों में भेजा जाता है। बर्फ की सिल्लियों को तोड़ने के लिए वहां डॉक किनारे कई-कई क्रशर मशीन दिन भर काम करते रहते हैं। बिल्कुल छोटी-छोटी मछलियों को साफ करने के लिए दर्जनों की संख्या में महिलाएं सुबह से ही काम पर लग जाती हैं। मछुआरों और मछलियों की सफाई, धुलाई, प्रोसेसिंग, पैकिंग, लदाई, ढुलाई आदि में लगे सैकड़ों लोगों की इस डॉकयार्ड पर भीड़ लगी रहती है। उनकी रोजी-रोटी इसी डॉक से जुड़ी होती है। मछलियों से भरे पैक किए बड़े-बड़े डब्बे ठेलों पर लादकर चर्च गेट और वीटी स्टेशनों पर ले जाया जाता है जहां ट्रेनों के लगेज में इन्हें देश के विभिन्न हिस्सों के लिए बुक करा दिया जाता है। वहां डॉक पर बिल्कुल ट्राफिक जाम वाली स्थिति होती है। फिर इस मछली कारोबार से जुड़े कामगारों की सेवा करने के लिए चाय बेचनेवाले, लकड़ी की पटरी पर बिठाकर हजामत बनानेवाले फुटपाथी नाई और कुछ डॉक्टर वगैरह भी अपना कारोबार चलाने के लिए यहां मौजूद होते हैं। पास के कुछ रेस्टोरेटों का कारेबार भी इन्हीं मछली कामगारों के भरोसे ही फलता-फूलता है। शुरू के दिनों में हमने वहां के उन मछुआरों और मछली कामगारों से इस मछली व्यवसाय और उनकी बारीकियों के बारे में जाना। इस पूरे कारोबार को समझने के लिए हम उन मछली प्रोसेसिंग प्लांटों को भी देख आए। ससून डॉक पर स्थित इन मछली प्रोसेसिंग प्लांटों में कुछ खास तरह की बेहद महंगी मछलियों को साफ करके उन्हें मिठाई पैक करनेवाले डिब्बों की तरह के गत्ते के डिब्बों में डालकर उनमें पानी भर दिया जाता है और उनहें फ्रीजर में डाल दिया जाता है। जब वे जम जाते हैं तो उन्हें एक कार्टून में पैक करके माइनस-20 डिग्री सेल्सियस तापमान वाले कमरे में स्टोर कर लिया जाता है। फिर उन्हें डीप फ्रिजर लगे ट्रकों में लोड कर शिप पर पहुंचाया जाता है। शिप के अंदर बने डिप फ्रीजर में रखकर उन्हें दुनिया के अलग-अलग देशों में भेजा जाता है जहां वे बहुत महंगी दरों पर बिकती हैं। खाड़ी के देशों में इनकी बहुत मांग है।

एक बार कुछ मछुआरो ने हमें अपने साथ समंदर में अपनी मछलीमार नौका पर बिठाकर ले चलने का प्रस्ताव भी दिया। पर यह भी कहा कि साहेब आपलोग हमारे साथ समंदर में नहीं रह पाओगे। उन्होंने समंदर में मछली मारने के दौरान आनेवाली परिस्थितियों के बारे में भी बताया जो सुनकर काफी डरावनी लगी। मछुआरों ने बताया कि समंदर में उनका ट्रिप कम से कम एक हफ्ते का तो होता ही है, पर कभी-कभी मछलियां कम मिलने पर यह समय और दो-चार दिनों के लिए बढ़ भी जाता है। अगर उनकी नौका कुछ ही समय में मछलियों से भर जाती है तो वे जल्ही यानी तीन-चार दिनों में ही लौट आते हैं। समंदर में उतरते समय यानी ट्रिप पर जाते समय वे अपने साथ पर्याप्त भोजन सामग्री मसलन आटा-चावल, नमक-तेल-मसाले, हरी सब्जियां, जरूरी बरतन, बाल्टी, माचिस, स्टोव, पर्याप्त किरासन तेल और डीजल, कपड़े, बिछावन और कुछ जरूरी टूल्स वगैरह ले जाते हैं। वे अपने साथ एक रेडियो सेट भी ऱखते हैं जिसपर वे कठिन समुद्री परिस्थितियों में मौसम विभाग की सूचनाएं और संबंधित चेतावनियां सुनते रहते हैं। मछुआरों ने बताया कि कुछ ऐसी मछलियां हैं जो काफी महंगी बिकती हैं और विदेशों में भेज दी जाती हैं यानी उनका अक्सर निर्यात ही होता है। अगर उन्हें ऐसी मछलियां मिल जाती हैं तो उनकी कमाई काफी बढ़ जाती है। अगर ऐसी मचलियां ज्यादा मात्रा में मिल जाती हैं तब तो उनकी बल्ले-बल्ले हो जाती है। उन्होंने ऐसी मंहगी मछलियां भी हमें दिखाई।

कोलाबा में समंदर किनारे के वुड हाउस रोड पर मछुआरे मछली पकड़ने में इस्तेमाल होनेवाले प्लास्टिक की रंग-बिरंगी पतली-पतली रस्सियों से बड़े-बड़े जाल भी बुनते नजर आ जाते थे। कुछ मछुआरे नियमित तौर पर जाल बुनने का ही काम तरते हैं। ऐसे मछुआरों का पूरा परिवार जाल बनाने में स्यस्त रहता है। वहां समंदर किनारे खूंटे गाड़कर इन जालों को काफी चौड़ाई में बुना जाता है। जाल बनाने वाले एक मछुआरे ने ही बताया था कि वहां इन मछलीमार जालों की अच्छी खासी मांग रहती है और वे इसी से पर्याप्त कमा लेते हैं जिससे उनका परिवार चल जाता है।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....


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