वर्षों से चिरकुट हैं हिन्दी के ‘वरिष्ठ’ पत्रकार और संपादक
संजय कुमार सिंह
पत्रकार और जनसत्ता में साथ रहे Ganesh Jha आजकल फेसबुक पर किस्तों में अपनी कहानी लिख रहे हैं। कल की किस्त में उन्होंने बताया है कि 1984 में वे धनबाद के एक अखबार के लिए काम करते थे। एक फोटो या खबर के लिए उनकी पिटाई हो गई पर उनके अखबार ने खबर तक नहीं छापी। दबाव पड़ने पर नौकरी से निकाल दिया और इसकी भी खबर वहां के दूसरे हिन्दी अखबार ने नहीं छापी। वह खबर उस समय भी कोलकाता से प्रकाशित होने वाले मेरे पसंदीदा अखबार द टेलीग्राफ में छपी थी। उन दिनों मैं जमशेदपुर में टेलीग्राफ का नियमित पाठक था। पर हिन्दी अखबारों की यह दशा या दुर्दशा मुझे मालूम नहीं थी।
फिलहाल तो गणेश झा की कहानी पढ़िए
तारीख थी 01 फरवरी 1984 और दिन था बुधवार। मैं धनबाद कोर्ट परिसर में घूम रहा था। तब मेरे पास अपना एक कैमरा भी हुआ करता था। कोर्ट परिसर में एसडीओ दफ्तर के पास पेशी के लिए धनबाद जेल से लाए गए कुछ विचाराधीन कैदी बैठे थे। पेशी के लिए आनेवाले कैदियों को रखने के लिए वहीं एक हाजत यानी लॉकअप भी बना हुआ था। पर कैदियों को वहां नहीं रखकर उन्हें खुले मैदान में बिठा कर रखा गया था। उन्हें जेल से लानेवाले पुलिस के सिपाही भी वहां बैठे थे। वे कैदी पुलिस की हिरासत में थे। उनके हाथों में हथकड़ियां थीं। कमर में मोटा सा रस्सा बंधा था। सिपाहियों ने कैदियों के कमर में लगे रस्से का एक सिरा पकड़ रखा था। पुलिस हिरासत में जेल से लाए गए उन कैदियों में से दो कैदी और उनकी अभिरक्षा में तैनात दो पुलिस जवान आपस में ताश खेल रहे थे। वहीं जमीन पर बिछे अखबार पर मुंगफलियां भी रखी हुई थी जिसका कैदी और पुलिसवाले सभी स्वाद चख रहे थे। पुलिसवालों ने अपनी रायफलें वहीं जमीन पर रख दी थी और बेफिक्र होकर ताश खेलने में मशगूल थे। बाकी पुलिसवाले वहीं थोड़ा परे हटकर बैठे थे और उन्होंने भी अपनी रायफलें जमीन पर रख दी थी और वे भी मूंगफली खा रहे थे।
पुलिस हिरासत में जेल से आए उन कैदियों ने वहीं शराब मंगवाई और वहीं पुलिसवालों के सामने ही पी भी ली। शराब की बोतलें उनके सामने ही रखी थी। मैंने उन कैदियों की फोटो खींच ली। इससे कैदी और उनकी सुरक्षा में लगे पुलिसवाले एकदम से बिदक गए। … कुछ सिपाही मेरी तरफ दौड़े और मुझे पकड़ लिया और मेरा कैमरा छीन लिया। … कैमरे की रील निकाल ली। पुलिसवाले मुझे खींचकर वहीं ले गए जहां कैदी बैठे ताश खेल रहे थे। मुझे कैदियों और पुलिसवालों ने घेर लिया। पुलिसवालों के इशारे पर उन कैदियों ने मेरी पिटाई कर दी और उन पुलिसवालो ने भी मुझे पीटा। सबकुछ उन पुलिसवालों के सामने हुआ। बाद में अखबार का नाम लेने और जिले के डिप्टी कमिश्रनर से इसकी शिकायत करने की बात कहने पर पुलिसवाले मुझे पकड़कर थाने ले गए। वहां थानेदार आरपी सिंह ने मुझे गिरफ्तार कर लेने की धमकी दी और दो घंटे तक थाने में बिठाए रखा।
थानेदार ने मेरा कैमरा तो लौटा दिया पर रील अपने पास ही रख ली। मेरे कैमरे को पुलिसवालों ने क्षतिग्रस्त कर दिया था। मैंने तुरंत धनबाद के पुलिस अधीक्षक (एसपी) से मिलकर अपने साथ हुई इस घटना की लिखित शिकायत की और उनसे छीनी गई कैमरे की रील वापस दिलाने को कहा। पर एसपी ने तत्काल मेरी कोई मदद नहीं की। फिर मैं धनबाद के जिला आयुक्त (डीसी) के पास भी गया और उनसे भी इस घटना की लिखित शिकायत की। वहां से भी मुझे तत्काल कोई मदद नहीं मिली। जैसा कि आमतौर पर होता है, दोनों अधिकारियों ने मेरी बात बस इस कान से सुनी और उस कान से निकाल दी। किसी ने मेरे साथ हुई इस घटना और मेरी बात को कोई तवज्जो नहीं दी।
अखबार के दफ्तर पहुंचकर मैंने संपादक समेत सबको इस घटना के बारे में बताया। डेस्क के साथियों ने कहा कि इसकी खबर छापी जाए। पर संपादक ने कहा, ‘कोई खबर नहीं छपेगी। गणेश झा को अखबार की तरफ से वहां जाने और फोटो खींचने के लिए तो कहा नहीं गया था। वे दफ्तर की इजाजत के बगैर अपनी इच्छा से वहां गए थे और इन्होंने जो कुछ भी किया वह अपनी इच्छा से किया। इसलिए अखबार इस मामले में नहीं पड़ेगा।‘ .... और अगले ही दिन अखबार प्रबंधन ने मुझे नौकरी से निकाल दिया। .... अगले दिन मैं धनबाद के एक अन्य पुराने और प्रतिष्ठित दैनिक आवाज के संपादक ब्रह्मदेव सिंह शर्मा से मिला और उन्हें कैदियों वाली घटना और फिर जनमत प्रबंधन द्वारा नौकरी से निकाल दिए जाने की बात बताई।
मेरी बात तो उन्होंने सुन ली पर कोई मदद नहीं की। वे चाहते तो मुझे अपने अखबार में नौकरी दे सकते थे, पर उन्होंने तो मेरे साथ जो कुछ हुआ उसकी खबर तक नहीं छापी। कोलकाता (तब के कलकत्ता) के प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार ‘द टेलीग्राफ’ के धनबाद संवाददाता और तब के वरिष्ठ पत्रकार अजय मिश्र ने कैदियों वाली इस घटना की खबर अपने अखबार ‘द टेलीग्राफ’ को भेज दी थी जो अखबार के दिनांक 16 फरवरी, 1984 के अंक में पेज नंबर-7 पर प्रमुखता से चार कॉलम में छपी थी। खबर का शी्र्षक था- ‘Click & Be Damned’ और इस खबर में मुझे नौकरी से निकाल दिए जाने की भी प्रमुखता से चर्चा की गई थी।
गणेशा झा ने लिखा नहीं है और मैंने पूछा नहीं - पर कहने की जरूरत नहीं है कि बाद में भी हिन्दी के किसी वीर-बहादुर संपादक या मालिक ने इसे नहीं छापा होगा। पत्रकार साथियों की बात अलग है। इससे आप समझ सकते हैं यह डीएम एसपी के डर था। मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री के आगे ऐसे लोगों का क्या हाल होगा। नेहरू परिवार के हाथ से निकलकर देश की राजनीति जब हिन्दी वालों के हाथ में आई तो हिन्दी के बहुत सारे पत्रकारों के दिन फिर गए। लेकिन हिन्दी पत्रकारिता का वही हाल रहा। अब तो हिन्दी पत्रकारिता हिन्दू पत्रकारिता हो गई है।
गणेश जी, धनबाद से जुडी सभी ख़बरों में फोटो लगाएं
जवाब देंहटाएंकोशिश तो रहेगी। अगर तस्वीरें मिल पाई तो जरूर लगाउंगा।
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