एक पत्रकार की अखबार यात्रा की पहली कड़ी
पत्रकारिता की कंटीली डगर
भाग- 1
1. बचपन और परवरिश
वैसे तो मेरे परिवार या फिर खानदान का पत्रकारिता से दूर-दूर तक का भी कोई रिश्ता नहीं था। मेरे दादाजी अयोध्यानाथ झा ज्योतिषाचार्य और कर्मकांडी ब्राह्मण थे तो पिता बुद्धिनाथ झा कोयला कंपनी में एकाउंटेंट यानी बड़ाबाबू। खबरों में उनकी कभी कोई दिलचस्पी नहीं थी। घर में तो कभी कोई अखबार भी नहीं आता था। छात्र जीवन में पिता अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ चले आजादी आंदोलन में जरूर कुछ-कुछ सक्रिय थे और मुंगेर जिले के असरगंज डाकखाने में आग लगाने में शामिल रहने और पकड़े जाने पर जेल भी गए थे। पिता की नौकरी अविभाजित बिहार के धनबाद कोयलांचल के झरिया शहर में केशवजी पीतांबर दोबारी (केपी दोबारी) कोलियरी में थी। वे अंग्रेजों के जमाने से वहां काम कर रहे थे। लिहाजा मैं उसी कोयले के शहर में पैदा हुआ। आजादी से ठीक दस साल बाद। मैंने बचपन से लेकर जवानी तक कोयला देखा है। आज भी मेरे मन में कोयला रचा बसा हुआ है। अपनी अखबारनवीसी के दौरान भी मैने कोयले पर खूब काम किया है।
मेरा बचपन झरिया शहर में केशवजी पीतांबर दोबारी (केपी दोबारी) कोलियरी के कंपनी क्वार्टर में ही बीता। मेरी शुरू की पढ़ाई-लिखाई वहीं झरिया कोयलांचल के एक प्राइमरी सरकारी स्कूल में हुई। पिता के दफ्तर से करीब दो सौ गज की दूरी पर था मेरा पहला स्कूल। स्कूल का नाम था प्राथमिक विद्यालय, प्योर झरिया। यह स्कूल डीडी ठक्कर की कोलियरी क्षेत्र में था। इस कोलियरी में भूगर्भीय आग लगी हुई थी। स्कूल के हेडमास्टर बंगाली झा कभी किसी को पीटते नहीं थे इसलिए स्कूल में डर नहीं लगता था। इस स्कूल से निकलने के बाद मुझे चौथी कक्षा में झरिया बाजार के बीचोबीच फतहपुर मोहल्ले में स्थित अपर प्राइमरी सरकारी स्कूल- अपर प्राइमरी विद्यालय, फतहपुर में डाला गया। यह स्कूल पांचवीं तक ही था इसलिए इसके बाद छठी कक्षा में मुझे वहां से थोड़ी दूर पर स्थित सरकारी हाईस्कूल- झरिया एकाडेमी में दाखिला दिलवाया गया। यह स्कूल घर से तकरीबन 4 किलोमीटर दूर था और रास्ता पूरी तरह से पैदल वाला।
स्कूल का रास्ता कई कोयला खदानों और चंद मोहल्लों के बीच से होकर जाता था। रास्ते में बकरियों का एक हाट ‘बकरहट्टा’ भी आता था जिससे होकर गुजरते समय बड़ी तेज बदबू आती थी। तब सायकिलें बहुत कम और इने गिने लोगों के पास ही हुआ करती थी। बच्चों की छोटी सायकिलों का तो उस समय कोई कॉनसेप्ट ही नहीं दिखता था। हां, झरिया के बाजारों में चार आने घंटे के किराए पर सायकिलें मिलती थीं, पर वह सायकिल चलाना सीखने के लिए होती थी। मेरे पिता की ऐसी हैसियत नहीं थी कि वे मुझे सायकिल खरीद कर देते। स्कूल बसों का भी कोई कॉनसेप्ट उन दिनों शायद बहुत कम या फिर नहीं होता था। मां घर में ही हाथ से खाकी कपड़े का झोला यानी बस्ता सिल देती थी। मां की हाथ की सिलाई बेजोड़ होती थी। मां अपने कई कपड़े भी अपने हाथ से सिल लिया करती थी। हां, अच्छे प्राइवेट स्कूलों में पढ़नेवाले बड़े घरों के बच्चे जरूर स्टील के बक्से वाला महंगा बस्ता लेकर स्कूल जाते थे। पर मां के हाथ के सिले बस्ते में मुझे पूरा आनंद मिलता था। मैंने कभी पिता से नहीं कहा कि मुझे स्टील के बक्से वाला बस्ता ला दो। आर्थिक कारणों से तब हमारे घर में कोई घड़ी भी नहीं होती थी। पिताजी घड़ी नहीं बांधते थे। मैं सुबह 9.30 बजे स्कूल के लिए निकलता था। मेरी मां रोज पड़ोस में रहनेवाले आजमगढ़, उत्तर प्रदेश के जमैठा गांव के देवता बाबू (देवता प्रसाद सिंह) से टाइम पूछा करती थी। देवता बाबू उसी कोयला खदान में माइनिंग सरदार थे। उन दिनों टेबुल घड़ी का जमाना था। मैं पिताजी से टेबुल घड़ी की मांग किया करता था, पर वे नहीं दे पा रहे थे। मैं बाजार में टेबुल घड़ी देख भी आया था। कीमत थी साठ रुपए। मैं अपने गुल्लक के पैसे से 60 रुपए की टेबुल घड़ी खरीदना भी चाह रहा था, पर गुल्लक में कभी इतने पैसे जमा ही नहीं हो पा रहे थे।
उस समय स्कूल जाने के लिए मुझे रोजाना घर से दस पैसे मिला करते थे। पर तब दस पैसे भी बहुत होते थे। मेरे हाईस्कूल के बाहर एक ठेलेवाला गुपचुप, आलू टिक्की वगैरह बेचता था। दस पैसे में तीन गुपचुप या दो आलू टिक्की आ जाते थे। गुपचुप में दालमोठ, आलू, दही, चटनी आदि भरी होती थी जो बहुत ब़ढ़िया जायका देती थी। पानीपुरी तो पांच पैसे में ही तीन आ जाती थी। चूरन वाला दो पैसे में जरूरत से ज्यादा खट्टे-मीठे चूरन दे देता था। बस इस तरह दस पैसे में ही दिन भर भरपूर आनंद मिल जाता था।
किताबें, कॉपियां और टिफिन मिलाकर मेरा बस्ता कुछ ज्यादा ही भारी हो जाता था और उसे पीठ पर लादकर रोजाना चार किलोमीटर जाना और चार किलोमीटर आना थोड़ा तकलीफदेह हो जाता था। मैं माता-पिता की इकलौती संतान था इसलिए पिताजी ने मेरा बस्ता ढोने के लिए मेरे ही उम्र के मजबूत कदकाठी के एक मुसहर (बिहार की एक हरिजन जाति) लड़के को रख लिया था। उस हरिजन लड़के का नाम था फेतरा। फेतरा मेरे स्कूल के लिए घर से निकलने के समय से थोड़ पहले ही मेरे घर आ जाता था। वह मेरा भारी बस्ता लिए मेरे स्कूल तक जाता था और मुझे स्कूल के गेट पर छोड़कर लौट आता था। फेतरा फिर स्कूल से छुट्टी होने के समय वहीं मेरे स्कूल के गेट पर हाजिर रहता था और मेरा बस्ता उठाए मेरे साथ ही लौटता था। फेतरा मेरे साथ छठी और सातवीं क्लास तक रहा। उन दिनों सातवीं क्लास में बिहार में बोर्ड की परीक्षा होती थी और 1967 में मैंने सातवीं की बोर्ड परीक्षा दी थी। आठवीं में जाने पर मैंने अपना वजन खुद उठाना सीख लिया था।
नौवीं कक्षा में पिताजी ने मेरा स्कूल बदल दिया। मुझे झरिया शहर से करीब 4 किसोमीटर दूर धनसार में एक प्राइवेट और उस समय के नामी स्कूल लक्ष्मीनारायण विद्या मंदिर में दाखिला दिलवाया गया। मेरे पिता जिस निजी खदान मालिक के यहां नौकरी करते थे उनके परिवार के बच्चे भी इसी स्कूल में पढ़ते थे। वे लोग तो अपनी एंबेसेडर कार से जाते थे, पर मैं बस से जाता था। बस पकड़ने के लिए मुझे घर से करीब ढाई किलोमीटर दूर भगतडीह तक पैदल जाना होता था क्योंकि झरिया-धनबाद मेन रोड वहीं से होकर गुजरती थी। उन दिनों भगतडीह से धनसार तक का स्टूडेंट बस किराया दस पैसे हुआ करता था। पर तब उस दस पैसे का बड़ा मोल था।
भगतडीह के पास ही था झरिया शहर का एक मात्र डिग्री कॉलेज- राजा शिवा प्रसाद कॉलेज यानी आरएसपी कॉलेज जो छात्रों की गुंडागर्टी के लिए कुख्यात था। आरएसपी के लड़कों का पूरे जिले में खौफ होता था। आरएसपी के लड़कों से उन दिनों कोई बस वाला किराया मांगने की हिम्मत नहीं करता था। टैक्सीवाले भी मुफ्त में बिठा लेते थे। किराया मांगने पर बस या टेक्सी में तोड़फोड़ की पूरी गारंटी होती थी। बस कंडक्टर के किराया मांगने पर आरएसपी कहना भर काफी होता था। आरएसपी एक फ्री पास का काम करता था। मैं जाता तो स्कूल था, पर कुछ महीनों बाद मैंने भी यही नुस्खा आजमाना शुरू कर दिया और मैं इसमें कामयाब रहा। धीरे-धीरे सभी बस वाले मुझे पहचानने भी लग गए। फिर तो दसवीं और ग्यारहवीं में बस किराया कभी नहीं देना पड़ा।
2. पत्रकारिता का अंकुर
पत्रकारिता के अपने इस पेशे से जीवन में कुछ खास न कर पाने की वजह से इसे मैं जीवन में किसी खौरा कुत्ता का काटना तो नहीं कहूंगा, पर मेरे अंतर्मन में पत्रकारिता की पहली लौ इसी लक्ष्मीनारायण विद्या मंदिर हाई स्कूल में जली। इस स्कूल में चार दैनिक अखबार और समसामयिक और कथा-कहानियों की कुछ साप्ताहिक-मासिक पत्रिकाएं नियमित तौर पर आती थीं। अखबारों में पटना से प्रकाशित अंग्रेजी अखबार ‘द इंडियन नेशन’, ’द सर्चलाइट’, और हिंदी के ‘आर्यावर्त’ और ‘प्रदीप’ होते थे। ये सारे स्कूल के बरामदे में एक स्टैंड पर लगा दिए जाते थे। टिफिन टाइम में खाना खा चुकने के बाद समय बचने पर हमें वहां स्टैंड पर लगे इन अखबारों-पत्रिकाओं को पढ़ने की अनुमति होती थी।
शहर या आसपास कभी कोई छोटी-बड़ी घटना घटित होती थी तो हमें उसी दिन कोनोंकान उसका पता लग जाता था। फिर अगले दिन या कई बार एक दिन बाद उस घटित घटना की खबर अखबारों में छपा देखता था तो जानने की उत्सुकता होती थी कि यह बात अखबारों में कैसे छप जाती है। इस उत्सुकता ने मेरे मन में अखबार पढ़ने की रुचि पैदा कर दी। ठीक यही वह समय था जब पत्रकारिता ने मेरे दिमाग पर चोट की। इसे यूं कहें कि तभी मुझे पत्रकारिता के कीड़े ने काट लिया। मेरे लिए तो यह पत्रकारिता की ज्ञानप्राप्ति ही थी। फिर तो मैं स्कूल में रोज अखबार पढ़ता और आए दिन धनबाद शहर या आसपास की कोई न कोई खबर पढ़ने को मिलती। फिर मन में कई सवाल उठने लगे कि घटनाओं की सूचना अखबारों तक कैसे पहुंचती है, इन्हें कौन लिखता है, कौन पहुंचाता है और कैसे पहुंचाता है वगैरह-वगैरह। पर यह सब बताए कौन? किससे पूछूं?
स्कूल के प्रिंसिपल थे प्यारेलाल रॉबिनसन। बड़े शांत रहनेवाले पर काफी कड़क। एक दिन मैंने उन्हीं से पूछ दिया। हिम्मत करके एक ही सांस में सारे सवाल दाग दिए। मैं नौवीं क्लास का विद्यार्थी और वह भी इस स्कूल में पहला साल। कुछ सेकेंड तक तो वे चुपचाप मुझे देखते रहे। फिर बोले- ‘हर जिले में हर अखबार का एक आदमी होता है जो उसका रिपोर्टर होता है। वही आदमी अखबारों में घटना का समाचार लिखकर भेजता है। और अखबार में एक छापाखाना होता है जो अखबार में उन समाचारों को कागज पर छापता है। ‘फिर आगे बोले- अखबार का रिपोर्टर रोज शहर में घूमता रहता है और जब कहीं कोई घटना होती है तो उसको सबसे पहले मालूम हो जाता है और वह समाचार लिखकर डाक से अखबार में भेज देता है।‘ फिर डांट भी लगा दी- ‘तुम इन बातों पर ध्यान मत दो, अपनी पढ़ाई में मन लगाओ।‘ तब मेरे उन प्रिंसिपल साहब को यह अंदाजा नहीं होगा कि उनका यह छात्र आगे चलकर एक पत्रकार बनेगा और वह भी नेशनल मीडिया का।
पिताजी कभी नहीं चाहते थे कि मैं पत्रकार बनूं। वे तो मुझे इंजीनियर बनाना चाहते थे। पर मैं कहता था कि डॉक्टर बनूंगा। पिताजी की इच्छा थी कि मैं माइनिंग इंजीनियर बनूं ताकि मैं कोयला खदान की नौकरी कर सकूं। पिताजी को कोयला खदान से बहुत प्रेम था। उनकी इच्छा के मुताबिक मैंने इंडियन स्कूल ऑफ माइन्स, धनबाद के इंट्रांस परीक्षा में भी बैठा था पर निकाल नहीं पाया था। मेरे बीआईटी सिन्द्री, बंगाल इंजीनियरिंग और आईआईटी के इंट्रांस टेस्ट का भी यही नतीजा हुआ था। कॉलेज के शुरुआती दिनों में मेरी दिलचस्पी कुछ-कुछ चिकित्सा विज्ञान की तरफ मुड़ गई थी। कॉलेज से छूटने के बाद मैं अक्सर पिताजी के मित्र और झरिया शहर के बड़े चिकित्सक डॉक्टर श्रीपद बनर्जी के राजा तालाब के पास लछमिनियां मोड़ स्थित निजी डिस्पेंसरी में कंपाउंडर का काम सीखने जाने लगा था।
इंटरमीडियट की पढाई पूरी होते-होते पिताजी कोयला खदान की अपनी नौकरी से रिटायर हो गए। रिटायरमेंट के समय वे निजी कोयला खदान नहीं, भारत सरकार के कोयला उपक्रम भारत कोकिंग कोल लिमिटेड के अधिकारी थे। वर्ष 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। ज्यादातर कोयला खदान निजी कंपनी मालिकों के हाथ से छिनकर केंद्र सरकार के नियंत्रण में आ गए थे। जो थोड़े कोयला खदान निजी हाथों में बचे रह गए थे उन्हें कुछ समय बाद दूसरे दौर के राष्ट्रीयकरण में केंद्र के अधीन ले लिया गया था।
- गणेश प्रसाद झा
आगे अगली कड़ी में.....
- गणेश प्रसाद झा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें