मंगलवार, 15 मार्च 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर-4

 


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की चौथी किश्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 4

9. जनमत के जवाब पर मेरा काउंटर जवाब

इस मामले की प्रेस परिषद से की गई मेरी शिकायत पर जनमत प्रबंधन की ओर से प्रेस परिषद को भेजे गए इस उपरोक्त जवाब पर प्रेस परिषद ने मुझसे मेरा काउंटर जवाब मांगा जो मैंने भेज दिया। मेरी वह काउंटर जवाब वाली चिट्ठी इस तरह थी-

(पाठक क्षमा करें। मेरी इस चिट्ठी की भाषा थोड़ी कमजोर, हास्यास्पद और अटपटी सी लगेगी क्योंकि इसकी भाषा मेरी पत्रकारिता के शुरुआती वर्षों की है और वह मंजी हुई भाषा तो बिल्कुल नहीं है। पर मैं अपने उस पत्र को यहां जस का तस प्रस्तुत कर रहा हूं।)

 

Ref. No.- AA/C/84/1035, Dated- 26/12/1984.

सेवा में,

अध्यक्ष,

भारतीय प्रेस परिषद

फरीदकोट हाउस (निचली मंजिल)

कॉपरनिकस मार्ग

नई दिल्ली- 110001.

विषय- आपका पत्र पत्रांक- 13/31/84, दिनांक- 24/11/84.

महोदय,

मेरे मामले में दैनिक जनमत के संपादक ने आपको जो स्पष्टीकण भेजा है वह पूरे का पूरा बकवास है और सत्य को छिपाने के लिए गलत और बनावटी बातों का सहारा लिया गया है। लेकिन सत्य सत्य है और रहेगा। उसे बनावटी बातों के पर्दों से ढकना कदापि संभव नहीं है। मैंने  जनमत में रहते हुए जो कुछ भी देखा और अनुभव किया उसका एक-एक रंच जनमत को कानून के कठघरे में खड़ा करता है।

दैनिक जनमत के प्रकाशन को लगभग दो वर्ष (प्रवेशांक- 5 जनवरी, 1983) होने को है। जनमत संपादक का यह कथन कि इस अखबार को मात्र दो श्रमजीवी पत्रकार ही चलाते हैं और संपादन संबंधी अधिकांश कार्य भी यही दोनों करते हैं, सरासर झूठ है। जनमत पूरे 6 पृष्ठों का निकलता है। यह कदापि संभव नहीं कि मात्र दो पत्रकार प्रतिदिन के 6 पृष्ठों की पूरी सामग्री लिख लें  और फिर उसे संपादित भी कर डालें। दो पत्रकारों के बूते पर दैनिक अखबार का नियमित प्रकाशन बिल्कुल संभव नहीं। ऐसी किसी बात की कल्पना मात्र करना भी मूर्खता ही होगी। अपने कार्यकाल में मैं देखता रहा था कि प्रबंधक श्री सतीश चंद्र प्रतिदिन मात्र दो कॉलम का  संपादकीय और लगभग एक कॉलम का व्यंग्य (गुरु चेला संवाद) ही लिखा करते थे। बाकी सब कुछ वहां अखबार में कार्यरत 8 (आठ) उप संपादकों के मत्थे जाता था।

अखबार के संपादक श्री यू डी रावल शायद ही कभी कुछ लिखते थे। वे तभी कुछ लिखते थे जब वे धनबाद में कभी-कभार किसी विशेष आयोजनों में अपने अखबार जिसके लिए वे धनबाद संवाददाता के रूप में अधिकृत और एक्रेडेटेड हैं, की तरफ से रपटकारी के लिए जाया करते थे। यही हाल श्री सतीश चंद्र का भी था और वे भी संपादकीय और व्यंग्य के अपने दैनिक नियमित लेखन के अतिरिक्त यदि कुछ लिखते थे तो वह कभी-कभार ही। श्री यूडी रावल कलकत्ता के अंग्रेजी दैनिक स्टेट्समैन के धनबाद संवाददाता हैं तथा श्री सतीश चंद्र पटना के अंग्रेजी दैनिक इंडियन नेशन के धनबाद संवाददाता। इन दोनों ही पत्रकारों का अधिकांश समय दिन भर की भागदौड़ तथा जहां-तहां के जलसों-आयोजनों आदि में शरीक होने में बीतता है। ये नियमित रूप से कुछ घंटों के लिए जनमत कार्यालय आते तो हैं परंतु उनका यह समय अखबारी व्यवस्था की देखरेखसंसाधनों के जुटावअखबारी व्यवस्था से  संबंधित कार्यालयी कागजातों का निपटानआगंतुकों से भेंट-मुलाकात तथा अपने-अपने अखबारों के लिए खबरें/रपटें लिखने में बीत जाता है। श्री सतीशजी उन्हीं व्यस्तताओं में से कुछ समय निकालकर जनमत के लिए दो-तीन कॉलमों की सामग्री नियमित ढंग से  किसी प्रकार लिख लिया करते हैं। फिर घोर व्यस्तता की इस स्थिति में वे जो 6-पृष्ठीय  जनमत की पूरी दैनिक सामग्री रोजाना लिखने और उसे संपादित कर लेने की बात करते हैंबिल्कुल गले नहीं उतरती। पूरे पृष्ठों के लिए पर्याप्त संख्या में टेलीप्रिंटर पर आई अंग्रेजी खबरों का हिन्दी अनुवादहिन्दी टेलीप्रिंटर खबरों का संपादनदैनिक डाक से आई खबरों में काट-छांटसुधार व संपादन तथा लेख/रपट आदि की सामग्रियों का समुचित संकलन-संपादन कोई कम काम नहीं जो पलक झपकते निपट जाए। इतना काम कर डालने का वादा अगर कोई दो व्यक्ति अपने बूते पर करता है तो वह एक फरेब नहीं तो और क्या। जनमत संपादक के इस फरेबी कथन का मतलब यह बनता है कि उनके अखबार में उप संपादक नाम की कोई वस्तु है ही नहीं जबकि असलियत यह है कि जनमत में मेरे कार्यकाल के दिनों में  मुझ समेत कुल 8 (आठ) उप संपादक कार्यरत थे। उन सभी उप संपादकों की सूची मैं संलग्न कर रहा हूं। आप भी चाहें तो अपने स्तर से उन सबों से संपर्क कर सही बात का पता कर सकते हैं।

 

जनमत संपादक का यह कथन भी बिल्कुल झूठ और फरेबी है कि मैंने अखबार में प्रशिक्षणार्थी पत्रकार के रूप में अवैतनिक कार्य करने की पहल की थी और स्वयं को डिग्रीधारी तथा साहित्य में डॉक्टरेट बताया था। सच तो यह है कि साप्ताहिक दिनमान (नई दिल्ली) के 10-16 जुलाई, 83 के अंक में जनमत द्वारा प्रदत्त उप संपादकों की रिक्तियों का विज्ञापन देखकर मैंने दिनांक 20 जुलाई, 83 को जनमत संपादक को अपना आवेदन विधिवत भेजा था। आवेदन के साथ मैंने अपनी समस्त शैक्षणिक योग्यता, विशेष योग्यता तथा पत्रकारिता संबंधी अपने प्रमाणपत्रों की अभिप्रमाणित प्रतियां संलग्न की थी। मैं न तो उस समय डिग्रीधारी या डॉक्टरेट था और न अब ही हूं। अत: डिग्री या डॉक्टरेट होने की कोई बात बनती ही कहां है। मैंने तो डिग्री या डॉक्टरेट का कोई प्रमाणपत्र भेजा नहीं था और न कभी इन योग्यताओं का कोई दावा ही किया था। फिर उन्हें मेरे डिग्रीधारी या साहित्य में डॉक्टरेट होने की बात दिखाई कहां दी और उन्होंने वगैर समुचित प्रमाण के ऐसी फिजूल की बातों को सही और विश्वसनीय कैसे मान लिया। हां, मैंने अपनी होमियोपैथी ड़ाक्टरी प्रमाण पत्र की अभिप्रमाणित प्रतिलिपि उन्हें आवेदन के साथ भेजी थी। क्या यही प्रमाण पत्र संपादक महेदय को साहित्य में डॉक्टरेट होने का प्रमाण पत्र दिखाई दिया और यदि दिखाई दिया तो फिर यही डॉक्टरी प्रमाण पत्र उन्हें बाद चलकर उसके सही और असली होमियोपैथी डॉक्टरी प्रमाण पत्र के रूप में कैसे दिख गया। यदि वे मेरे द्वारा दाखिल  किसी डिग्री या साहित्य में डॉक्टरेट का कोई असली-नकली प्रमाणपत्र बतौर प्रमाण प्रस्तुत करते तो कोई बात भी बनती और उनके आरोप को भी बल मिलता। ऐसे तो उनका यह आरोप चंडूखाने की गप्प से ज्यादा कुछ नहीं लगता।

मैंने जनमत में अवैतनिक काम करने की न तो कभी कोई पहल की थी और न कभी वहां प्रशिक्षणार्थी के रूप में था ही। मेरे आवेदन पर विचार कर जनमत संपादक ने खुद मुझे बाकायदा पत्र लिखकर साक्षात्कार हेतु बुलाया था। उनके बुलावा पत्र दिनांक 23 सितंबर, 1983 की नकल संलग्न है। बुलावा मिलते ही मैं दिनांक 6 अक्तूबर, 1983 को संपादक के समक्ष साक्षात्कार के लिए उपस्थित हुआ था। संपादक यूडी रावल और प्रबंधक सतीश चंद्र ने मेरा साक्षात्कार लिया और साक्षात्कारोपरांत दोनों ने पत्र के उप संपादक पद पर मेरी मौखिक नियुक्ति कर ली थी और अगले ही दिन यानी 7 अक्तूबर, 83 से शाम की पाली में मैं डेस्क पर काम करने लगा था।

मेरी यह नियुक्ति वैतनिक थी। संपादक व प्रबंधक दोनों ने साक्षात्कार के दिन पहले तो चार सौ रुपए माहवार देने की बात कही, लेकिन फिर अखबार के नया होने की बात बताकर और उप संपादक पद की मेरी अनुभवहीनता बताकर प्रथम दो माह तक ढाई सौ रुपए माहवार देने की बात कही। दोनों ने मुझे यह भी कहा था कि थोड़े ही दिनों बाद वे अपने अखबारी प्रतिष्ठान में पालेकर पुरस्कार अनुरूप वेतनमान लागू करेंगे और तब मुझे भी उसी अनुरूप वेतन दिया जाएगा। उन दिनों वहां कार्यरत मेरे अन्य उप संपादक सहकर्मियों को भी 250 से 300 रुपए के वेतनमान ही दिए जा रहे थे। मात्र एक उप संपादक श्री हरिहर झा जो धनबाद के ही एक अन्य दैनिक आवाज के भगोड़े मुख्य उप संपादक थे और जनमत में अपनी पत्नी श्रीमती अनामिका झा के नाम से मुख्य उप संपादक पद पर कार्यतर थे, को जनमत प्रबंधन से बारह सौ रुपए माहवार का वेतन मिलता था। एक अन्य उप संपादक राजकपूर जो रात्रिकालीन उप संपादक थे और साथ ही साथ अखबार के सर्कुलेशन का पूरा काम भी देखते थे, को पांच सौ (500) रुपए मिलते थे। परंतु इनकी नियुक्ति भी ढाई सौ रुपए माहवार के वेतनमान पर ही की गई थी। नियुक्ति के कुछ दिनों बाद से जब वे सर्कुलेशन का काम भी देखने लगे तो उनका वेतनमान 250 रुपए से बढ़ाकर 500 रुपए माहवार कर दिया गया था। वगैर वेतन के जनमत में कोई भी उप संपादक कार्यरत नहीं था।

मेरे सभी नौ उप संपादक सहकर्मियों को वेतन मिलता था। वहां उप संपादक, संवाददाता (कार्यालय संवाददाता, विशेष संवाददाता, नगर संवाददाता तथा स्टाफ रिपोर्टर) सब वैतनिक नियुक्ति वाले थे। जनमत के नगर संवाददाता अजीम खां को भी 250 रुपए माहवार का वेतनमान मिलता था। कोई अवैतनिक काम करनेवाला जनमत में नहीं था। संपादकीय या फिर गैर संपादकीय सभी तरह के कामगार/कर्मचारी वेतनभोगी थे। आप चाहें तो मेरे सहकर्मियों से पूछ लें कि सही क्या है।

जनमत संपादक का यह आरोप भी मनगढंत और झूठ है कि मैंने कार्य प्रारंभ करते ही अनर्गल खबरें लिख दी और अनुशासनहीनता दिखलानी शुरू की। मैंने जनमत में कभी कोई अनर्गल खबर या सामग्री नहीं लिखी। मेरी समस्त खबरें तथ्यपरक और असलियत की कसौटी पर कसी हुई होती थी। मेरा यह पत्रकारिता समर्पित जीवन आज तक कभी कलंकित नहीं रहा। ढेरों पत्र-पत्रिकाओं जहां-जहां मैं अब तक छपता रहा और छपा हूं वे इसकी गवाह हैं। जब तक मैं जनमत में रहा भारी दबाव में रहा और हमेशा स्वयं को कुंठित ही महसूसता रहा। मुझे वहां कभी किसी काम की स्वच्छंदता नहीं रही। ऐसे में अनुशासनहीन बनने का सवाल ही कहां पैदा होता है।

राजीव गांधी के लिए कालीन खरीद वाली मेरी खबर में कुछ भी गलत नहीं। खबर का एक-एक शब्द यथार्थ है। जनमत में अपनी नियुक्ति के पहले ही दिन 7 अक्तूबर, 83 की दोपहर मैं एक पत्र डालने धनसार डाकघर गया था। डाकघर के ठीक सामने कालीन की एक फर्म है- मोदी फ्लोर। यह फर्म कालीन तो बेचती ही है, टेलीविजन सेट भी बेचती है। फर्म की दूकान में टीवी लगी थी। संयोग भी ऐसा था कि उस दिन भारत-पाक क्रिकेट के नागपुर में खेले जा रहे तीसरे टेस्ट का टीवी प्रसारण भी आ रहा था। धनबाद में टीवी पर तस्वीरें कितनी साफ या धुंधली आती हैं यह देखने के इरादे से मैं मोदी फ्लोर में प्रविष्ट हो गया। अंदर घुसते ही सामने काउंटर पर कई लोगों को कालीन का सौदा करते देखा। खरीदनेवाले तीन सज्जन थे जो कुर्सियों पर विराजमान थे तथा वहीं पास में उनका दो मुलाजिम था। मुलाजिम सरकारी थे क्योंकि उनके हाथों में फाइलें थीं और उनके कंधे से लाल कपड़े की पट्टी के सहारे पीतल का जाना पहचाना अंडाकार डिस्क (जैसा कि प्रशासनिक उच्चाधिकारियों के सरकारी मुलाजिम पहने होते हैं) लटक रहा था। देखते ही मैं पहचान गया कि खरीदार प्रशासनिक अधिकारीगण ही हैं। अधिकारीगण काउंटर पर सेल्समैन बने दूकान (फर्म) के मालिक से बहुरंगी खूबसूरत कीमती कालीनों के कैटलग देख रहे थे। अंततोगत्वा मैंने देखा कि अधिकारियों ने कालीन की रंग व डिजाइन पसंद की और अपनी पसंदीदा कालीनें निकलवाकर बंधवाई। फिर वे अथिकारीगण बाहर खड़ी कार में बैठे और चले गए। दुकान में रह गए उनके मुलाजिमों से पूछा तो पता चला कि कालीन के खरीदार अधिकारीगण धनबाद के उपसमाहर्ता, जिला आपूर्ति पदाधिकारी तथा अनुमंडलाधिकारी धनबाद थे तथा कालीन की यह खरीद आगामी 11 अक्तूबर को राजकुमार यानी राजीव गांधी के धनबाद आगमन पर उनकी स्वागत की तैयारी हेतु की गई है।

राजीव गांधी के लिए राजकुमार शब्द उन मुलाजिमों के मुंह से ही निकले थे। अधिकारियों के रवाना हो जाने के बाद पीछे से उनके साथ आए दोनों मुलाजिमों को मैंने अधिकारियों द्वारा बंधवा रखी गई खूबसूरत पसंदीदा कालीनें दुकान से निकलवाकर रिक्शे पर लादकर ले जाते भी देखा था। दुकान के काउंटर पर जूठी प्लेटें-चम्मच व छुरी-कांटे रखे थे जो साफ बता रहे थे कि खरीदार अधिकारियों की फर्म की ओर से अच्छी खातिरदारी की गई है। फर्म के सेल्समैन को मैंने जब बातों में बहकाकर अंजान बनते हुए पूछा तो उसने भी इस कालीन खरीद को सरकारी बताया तथा मुलाजिमों की बात की पुष्टि की। मैं भी इस खरीद का खुद चश्मदीद था सो मुझे खबर की सत्यता पर पूरा यकीन हो गया। मैंने कुछ क्षणों तक दुकान में लगी टीवी पर आ रही तस्वीरें देखी तथा तस्वीरों की अस्पष्टता व धुंधलेपन पर दो-चार बातें सेल्समैन से बतियाकर जनमत कार्यालय चला गया।

जनमत में डेस्क पर काम कर रहे उप संपादकों (सतीश कुमार तथा गिरीश कुमार) को मैंने यह चटपटी खबर सुनाई जिसे सभी ने पसंद किया। फिर मैंने खबर लिखकर उन्हें दे दी और चूंकि मेरी पाली शाम की थी इसलिए मैं अपने मित्र के घर चला गया जहां मैं उन दिनों ठहरा था। यह खबर डेस्क की किसी भूल या अनियमितता के कारण कई दिनों तक अनछपी पड़ी रही और विलंब से राजीव गांधी के आगमन के अगले दिन 12 अक्तूबर, 83 के अंक में आई। खबर काफी सनसनीखेज थी- राजीव के लिए कालीन खरीद में हजारों रुपए स्वाहा। धनबाद प्रशासन पर इस खबर की काफी तीखी प्रतिक्रिया हुई। यह प्रतिक्रिया बहुत कुछ इसलिए भी कि हमेशा से धनबाद प्रशासन के जेबी अखबार होने की भूमिका निभा रहे जनमत में एकाएक यह तीखी विरोधी खबर कैसे और क्यों छप गई। और वह भी उस दिन जिस दिन राजीव गांधी के दौरे की खबरों और उनके भाषणों से खचाखच भरे पूरे का पूरा जनमत राजीव की दुहाई दे रहा था।

राजीव गांधी से संबंधित इस खबर पर हुई प्रशासनिक प्रतिक्रिया का पता मुझे अक्तूबर के अंत में चला जब मैं छुट्टी से धनबाद वापस लौटा। छुट्टी के बाद मैं 28 अक्तूबर, 83 को जब जनमत कार्यालय काम पर उपस्थित हुआ तो संपादक श्री यूडी रावल ने इस खबर बाबत मुझे डांटा-फटकारा और नौकरी से निकालने की धमकी दी। श्री रावल का कहना था कि जिस अखबार को उन्होंने काफी मेहनत करके प्रतिष्ठित किया है उसे मेरे इस प्रशासन विरोधी खबर से काफी नुकसान पहुंचा है। मैंने जब श्री रावल को अपनी उस खबर की सत्यता बताई थी तो वे मान गए थे परंतु फिर भी उन्होंने मुझे धनबाद प्रशासन के खिलाफ कोई भी समाचार भविष्य में लिखने से मना कर दिया था।

मेरी इस खबर के लिए जैसा कि मुझे छुट्टी से धनबाद लौटने पर मालूम हुआ था, जनमत संपादक श्री यूडी रावल को धनबाद के उप समाहर्ता श्री (डा.) जे एस बरारा ने फोन पर काफी डांट पिलाई थी। फोन वार्ता को करीब से सुननेवाले मेरे एक शुभचिंतक ने मुझे बताया था कि उप समाहर्ता ने फोन पर राजीव गांधी के स्वागत हेतु हजारों रुपए मूल्य के कालीनों की खरीद की बात को स्वीकारते हुए कहा था कि इस अति गोपनीय खरीद को चंद प्रशासनिक उच्चाधिकारी ही जानते हैं, फिर यह बात जनमत तक कैसे पहुंच गई और फिर खबर भी बन गई। उप समाहर्ता ने श्री रावल से तुरंत इस खबर का प्रशासनिक खंडन छापने को कहा। श्री रावल की तो सिट्टी-पिट्टी गुम थी ही, सो वे खंडन छापने की बात झट से मान गए। इस टेलीफोन वार्ता के शीघ्र बाद उप समाहर्ता ने खबर की सत्यता को झुठलाते हुए एक तुड़ा-मुड़ा घुमावदार बनावटी खंडन भिजवाया जो जनमत में छपा। इस खंडन (स्पष्टीकरण) में उप समाहर्ता ने कालीनों की खरीद को झुठलाते हुए तीन हजार रुपयों की कारपेट खरीद की बात कबूल की। उप समाहर्ता के शब्दों में ........ छपे समाचार के प्रसंग में कहना है कि कोई कालीन की खरीद नहीं की गई है। सर्किट हाउस में सिर्फ फटे हुए कारपेट को ढका गया है जिसके लिए मात्र तीन हजार रुपए के कारपेट खरीदे गए हैं। इस खबर के संदर्भ में मुझे कहना है कि मैंने धनसार स्थित कालीन की दुकान मोदी फ्लोर में अपनी आंखों से जो कुछ होता देखा और अनुभव किया वही अपनी उस खबर में लिखा। उस खबर की सत्यता पर मुझे रंच मात्र का भी सुबहा नहीं था। प्रशासन ने तो अपना भ्रष्टाचार छिपाने हेतु खबर का खंडन किया। यह खंडन भी सटीक नहीं बैठता। उप समाहर्ता ने कालीन खरीद की बात को झुठलाते हुए जिस कारपेट खरीद की बात कबूल की है वह भी शाब्दिक रूप में कालीन का ही बोध कराता है। भार्गव बुक डीपो, वाराणसी से प्रकाशित अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोष– Bhargavas Standard Illustrated Dictionary of The English Language (April, 1972 Reprint edition) के पृष्ठ संख्या 124 पर अंग्रेजी के शब्द कारपेट (Carpet) का हिन्दी अर्थ कालीनगलीचा और दरी बताया गया है। मैंने जिस कालीन शब्द का प्रयोग अपनी खबर में किया है वह क्या अंग्रेजी शब्द Carpet का शुद्ध हिन्दी अर्थ नहीं। फिर उप समाहर्ता ने भी तो अपने स्पष्टीकरण में तीन हजार रुपयों के व्यय की बात स्वीकारी है। इस स्वीकारोक्ति से क्या मेरी इस खबर की पूरी पुष्टि नहीं हो जाती कि राजीव के लिए कालीन खरीद में हजारों रुपए स्वाहा कर डाले गए। तीन हजार रुपयों का वह व्यय क्या हजारों रुपए के व्यय से परिभाषित नहीं किया जा सकता। अत: इसमें कोई शक-सुबहा नहीं बचता कि मेरी वह खबर सही थी और उप समाहर्ता ने जो खंडन किया वह सरासर गलत था। एक तरह से तो उस स्पष्टीकरण में उप समाहर्ता ने मेरी उक्त खबर की पुष्टि ही कर दी है। फिर मैं गलत कहांऐसे में इस खबर से जनमत को (संपादक/प्रबंधन को) क्यों कर कोई आघात लग सकता है। पत्र के संपादक ने इस खबर से जो आघात लगने की बात कही वह कतई समझ नहीं आती। हां, यदि कुछ हुआ तो वह यह कि जनमत के निरंतर धनबाद प्रशासन का एक जेबी अखबार बने रहने की परंपरा इस खबर से खंडित हो गई। जनमत संपादक ने तो अपना पलड़ा मेरे इस मामले में भारी बनाने के लिए और स्वयं को दूध का धोया सिद्ध करने के इरादे से मेरे ऊपर तरह-तरह के झूठे और मनगढ़ंत आरोप लाद दिए हैं।

मुझे जनमत की ओर से राजीव गांधी की सभा का समाचार लाने नहीं भेजा गया था। संपादक का यह आरोप सरासर झूठ है कि मुझे 11 अक्तूबर, 83 को जनमत की ओर से राजीव गांधी की सभा का समाचार लाने भेजा गया था और मैं उधर से सभा स्थल से ही सीधे अपने घर (मुंगेर) चला आया (गया) था। मैं अपनी इच्छा से राजीव गांधी की सभा में गया था और खबरें जुटाई थी तथा छायांकन भी किया था। सब अपनी इच्छा से और अपने अलग उपयोग के लिए, जनमत के लिए नहीं। राजीव गांधी की सभा दोपहर को हुई थी और मेरी जनमत की ड्यूटी शाम के पांच बजे शुरू होती थी। मेरे पास दिन भर का पूरा समय खाली होता था जिसका उपयोग मैं धनबाद में जनमत में रहते हुए हमेशा अपने निजी और अलग से पत्रकारिता में करता था और जहां-तहां दूसरी जगहों पर लिखता-छपता था। मैंने 11 अक्तूबर, 83 को शाम 5 बजे से रात्रि के 11-12 बजे तक जनमत के संपादकीय डेस्क पर बाकायदा अपनी ड्यूटी दी थी और काम किया था, राजीव की सभा से लौटने के बाद। राजीव की सभा में तो जनमत संपादक यूडी रावल, प्रबंधक श्री सतीश चंद्र, पत्र के नगर संवाददाता श्री अजीम खां और मेरे उप संपादक सहकर्मी श्री विजय कुमार श्रीवास्तव भी थे और संपादक श्री रावल को छोड़कर बाकी के हम लोग सभी साथ-साथ ही प्रबंधक श्री सतीश चंद्र की निजी कार में बैठकर सभास्थल तक गए थे जिसमें मैं भी था। जनमत संपादक श्री रावल और जनमत के कोयलांचल संवाददाता श्री महेंद्र भगानिया पहले ही चल दिए थे औऱ हवाई अड्डे से ही राजीव के साथ सभास्थल गोल्फ ग्राउंड पहुंचे थे। सभा की समाप्ति पर मैं और श्री विजय कुमार श्रीवास्तव (दोनों उप संपादक) साथ-साथ जनमत कार्यालय लौटा था। फिर मेरे सभास्थल से सीधे घर चले जाने की बात कहां सिद्ध होती है। 11 अक्तूबर की रात मैंने जनमत में काम किया और फिर रात में वहीं जनमत कार्यालय (प्रेस कक्ष) में ही सो गया। जनमत के रात्रिकालीन उप संपादक श्री राजकपूर उस रात भी वहीं थे और उन्होंने ही मुझे कोई साढ़े तीन बजे रात (12 अक्तूबर के 03.30 बजे) सोते से जगाया था। फिर मैंने श्री कपूर से उस समय 12 अक्तूबर, 83 के जनमत का ताजा अंक जो उस वक्त छपकर निकलने वाला था, लिया और अपना सामान उठाकर धनबाद रेल स्टेशन रवाना हो गया था जहां से सुबह 04.45 बजे खुलनेवाली धनबाद-पटना चलनेवाली पाटलिपुत्र एक्सप्रेस पकड़कर मुंगेर आया था। उस रात मैंने अपना सामान जनमत की ड्यूटी खत्म होने के बाद अपने मित्र के घर से लाकर जनमत प्रेस कक्ष में रख लिया थ और वहीं सो भी गया था।

जनमत की ओर से उप संपादक पद के लिए साक्षात्कार का बुलावा मिलने पर मैं मुंगेर से धनबाद पहुंचा था और अपने एक मित्र के घर पर धनबाद में ठहरा था। 6 अक्तूबर, 83 को  साक्षात्कार लिए जाने के शीघ्र बाद मुझे नियुक्त कर लिया गया था और मैं 7 अक्तूबर, 83 से जनमत उप संपादक के रूप में काम भी करने लगा था। मैं अपने मित्र के घर पर ही रुका हुआ था। मैं अपने साथ बिस्तर तथा अपना अन्य सामान वहां धनबाद लेकर नहीं गया था। सारा सामान ले जाने का उस समय कोई सवाल नहीं था क्योंकि मैं तो साक्षात्कार हेतु गया था और यह निश्चित तो था नहीं कि मुझे तुरंत नियुक्त ही कर लिया जाएगा। 7 अक्तूबर से 11 अक्तूबर तक मैंने वहां काम किया। 10 अक्तूबर को ही मैंने जनमत संपादक को छुट्टी के लिए एक अर्जी दे रखी थी यह कहकर कि मैं यहां सामान के साथ नहीं आया हूं और चूंकि मुझे अब यहीं रहकर जनमत की सेवा करनी है अत: मुझे घर जाकर अपना बिस्तर व अन्य जरूरत भर का सामान लाने हेतु 10 (दस) दिनों की छुट्टी दी जाए। मैंने 12 अक्तूबर से 21 अक्तूबर तक की दस दिनों की छुट्टी मांगी थी। दस दिनों की छुट्टी इसलिए कि मुझे घर जाकर कुछ पैसे की भी व्यवस्था करनी थी अन्यथा फिर धनबाद लौटकर रहता-खाता कैसे। वेतन तो मुझे महीने भर बाद ही मिलती। तब तक मुझे मकान किराया व भोजन खर्च के पैसे की तो घर से ही व्यवस्था करके आनी थी। एक गरीब परिवार का होने के नाते महीने भर का खर्च जुटाने के लिए समय की आवश्यकता थी। घर पर पहले के विखरे कुछ काम काज भी निपटाने थे। यही सोच कर मैंने 12 से 21 अक्तूबर तक की 10 दिनों की छुट्टी मांगी थी। यह छुट्टी संपादक श्री यूडी रावल ने मुझे मंजूर भी की थी। तभी मैं घर आया था। 12 अक्तूबर को यानी 11 अक्तूबर, 83 तक जनमत में काम करने के बाद इस तरह जनमत संपादक का यह आरोप कि मैं राजीव गांधी के सभास्थल से सीधे घर चला आया था और वह भी बिना जनमत प्रबंधन को बताए, बिल्कुल झूठ है। हां, यह आरोप उनका बिल्कुल सही है कि मैं दशहरे के बाद जनमत में काम पर उपस्थित हुआ। हुआ असल में यह कि मुंगेर के साफ सुथरे पर्यावरण से धनबाद के धुआंकश गंदे वातावरण में जो मैं जाकर कई दिन रहा वह नया-नया होने के कारण मेरे स्वास्ध्य को अनुकूल और फिट नहीं रहा। और इसी के फलस्वरूप मैं घर लौटते ही बीमार हो गया। धनबाद के कार्बनयुक्त वातावरण में बाहर से पहुंचने वाला हर नया आदमी शुरू-शुरू में एक बार बीमार होता है। और जब उसे वहां के प्रदूषित पर्यावरण में रहने की आदत लग जाती है तो वह वहीं सामान्य हो जाता है। मेरे साथ भी यही हुआ। स्वस्थ होने में थोड़ा विलंब हुआ और मैं 27 अक्तूबर की रात धनबाद पहुंचा था तथा अगले दिन 28 अक्तूबर, 83 की शाम की अपनी पाली से अपनी ड्यूटी मैंने करनी फिर शुरू की थी। उस समय तो श्री रावल मान गए थे और अब वे मेरे इस विलंब पर आरोप का मुलम्मा चढ़ा रहे हैं। उस समय तो उन्होंने मेरे इस विलंब और छुट्टी के दिनों का वेतन भी नहीं काटा था। मुझे जब अक्तूबर, 83 माह का वेतन 3 नवंबर, 83  को मिला तो वह वेतन 250 रुपए प्रति माह के दर पर कुल 201 रुपए 60 पैसे था। यानी 7 अक्तूबर से 31 अक्तूबर, 83 तक का पूरा वेतन कुल 25 दिनों का।

जनमत संपादक ने 9 नवंबर, 83 के जनमत में छपे जिस खबर (झरिया में युवा पत्रकारों की बैठक) का हवाला देते हुए मुझ पर जो उसके झूठ होने और गढ़ कर छापने तथा संपादकीय विभाग के दो प्रशिक्षणार्थियों को फुसलाने और उनमें अनुशासनहीनता भरने का आरोप लगाया है वह भी बेबुनियाद है। यह खबर कोई झूठ और गढ़ी गई नहीं वरण प्रतिशत सही और वास्तव में हुई एक बैठक की खबर है (थी)। यह बैठक 4 नवंबर को झरिया के डोयचेवेले लिस्नर्स क्लब में आयोजित हुई थी। इस बैठक में धनबाद जिले के कोई दर्जन भर युवा पत्रकारों ने भाग लिया था। इस पत्रकार बैठक में भाग लेने वाले पत्रकार बड़े और सरकारी मान्यताप्राप्त पत्रकार नहीं थे। छोटे-छोटे स्तर से काम करनेवाले युवा पत्रकारों ने ही इस बैठक में भाग लिया था। इस बैठक का आयोजन भी छोटे स्तर के पत्रकारों ने ही किया था जो तमझाम वाला बिल्कुल नहीं था। बैठक में आए अधिकांश पत्रकार मुझ जैसे आधारहीन स्थितियों वाले थे जो मेरी ही तरह कई-कई साप्ताहिक अखबारों या फिर किसी क्षेत्रीय दैनिक के संवाददाता थे। कुछ पत्रकार मेरी तरह दैनिक पत्र के उप संपादक भी थे। दैनिक जनमत के भी कई उप संपादक इस बैठक में आए थे जिनमें एक मैं भी था। बैठक की अध्यक्षता मैंने की थी। बैठक का मुख्य उद्देश्य मौजूदा व्यवस्था द्वारा छोटे-छोटे स्तर से काम कर रहे पत्रकारों विशेषकर युवा पत्रकारों की निरंतर उपेक्षा होने के खिलाफ आवाजें उठाना था ताकि सरकार लघु पत्रिकाओं और लघु समाचारपत्रों के संवाददाताओं को भी मान्यता प्रदान करने की सोचे। हमने इस बैठक में ऐसी आवाज बुलंद भी की थी। धनबाद के जिला सूचना अधिकारी से हम पत्रकारों को इन दिनों यह खबर मिली थी कि सरकार ने साप्ताहिक अखबारों के संवाददाताओं को भी एक्रेडेशन देने का कोई प्रावधान किया है। इसी बात पर हम युवा पत्रकारों ने एक बैठक कर युवा पत्रकारों विशेषकर छोटे पत्रों से जुड़े युवा पत्रकारों की स्थिति में सुधार के लिए कुछ आवाज उठाने एवं सरकार के समक्ष अपने विचार व सुझाव रखने का निर्णय लिया था। इसी परिप्रेक्ष्य में यह पत्रकार बैठक हुई थी। बैठक के नहीं होने का कोई सवाल ही नहीं है।

झरिया शहर में आयोजित इस पत्रकार बैठक में उपस्थित पत्रकारों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किए थे। किसी पत्रकार वक्ता ने किसी पत्रकार पर न तो कोई आरोप ही लगाए थे और न किसी पत्रकार के खिलाफ कोई शब्द ही कहे थे। जनमत के किसी वरिष्ठ पत्रकार पर या फिर धनबाद के किसी वरिष्ठ पत्रकार पर इस बैठक में कोई आरोप नहीं लगाए गए और न तो किसी पत्रकार ने जनमत के या फिर जिले के किसी वरिष्ठ पत्रकार के खिलाफ कुछ कहा ही। बैठक में तो  उपस्थित पत्रकारों ने युवा पत्रकारों के प्रति सरकारी बेरुखी की निंदा भर्त्सना की थी तथा युवा पत्रकारों को अविलंब सरकारी मान्यताप्राप्त पत्रकारों की श्रेणी में लाने के लिए सरकार से मांग की थी। बैठक में सरकार द्वारा गिनती के मुट्ठी भर पत्रकारों को ही प्रश्रय देने तथा पत्रकारिता के नाम पर मिलनेवाली सुख सुविधाओं के केंद्रीयकरण होने साथ ही समस्त सरकारी सुख सुविधाओं का लाभ उन्हीं चंद गिनती के पत्रकारों को मिलने की बात कह कर यह मांग की गई थी कि सरकार ये सुविधाएं सभी छोटे-बड़े युवा पत्रकारों को भी मुहैया करे। बैठक में युवा पत्रकारों को पीत पत्रकारिता से अलग रहने, सैद्धांतिक रूप से सही बने रहने तथा नैतिकता पर मजबूती से खड़े रहने को कहा गया था। मौजूदा पत्रकारिता धारा में युवा पत्रकारों को योगदान व उनकी भूमिका को भी बैठक मे उजागर किया गया था एवं उनपर व्यापक चर्चाएं हुईं थीं। पत्रकारिता की नैतिकता की बात उठाई गई थी तथा पत्रकारों में व्याप्त भ्रष्टाचार को समाप्त करने की बातें भी कही गईं थीं। यही सब बातें तो जनमत में खबर रूप में छपी थी। कोई अनैतिक बात न तो बैठक में हुई थी और न जनमत की उस खबर में छपी थी। जो कुछ छपा है वह बिल्कुल नैतिक और शालीन है। किसी पर कोई आरोप का कोई जिक्र नहीं है। फिर जनमत संपादक को उस खबर में धनबाद के वरिष्ठ पत्रकारों और जनमत के वरिष्ठ पत्रकारों पर लगाए गए आरोप जिनका कहीं कोई उल्लेख ही उस खबर में नहीं है, कहां और कैसे झलक गए। यदि उन्हें झलके तो उन पंक्तियों को उन्होंने अपने आरोप में उल्लिखित क्यों नहीं कर डाला। कोई भी पाठक या जानकार उस खबर को पढ़कर आसानी से उसकी नैतिकता व शालीनता की बात कह देगा। आप भी इस पर विचार कर सकते हैं कि जनमत संपादक का यह आरोप कितनी दूर तक सही है। मुझे तो इस आरोप में कहीं कोई रंच मात्र की भी सच्चाई नहीं दिखाई दे रही। बैठक में बोलनेवाले सभी पत्रकार वक्ताओं के विचार तो जनमत में प्रकाशित इस खबर में  स्थानाभाव के कारण आ भी नहीं सके। मात्र गिनती के पत्रकारों के विचारों को ही जनमत के कॉलमों में अंटाया जा सका।

जनमत संपादक ने मुझ पर जनमत संपादकीय विभाग के दो प्रशिक्षणार्थियों मे अनुशासनहीनता भरने और दो प्रशिक्षणार्थी सहकर्मियों को गलत ढंग से फुसलाने व गलत समाचार छापने का जो आरोप गढ़ा है वह सरासर झूठ है। 9 नवंबर, 83 के अंक में छपे जिस खबर का जिक्र उन्होंने किया है वह खबर प्रतिशत सही है जिसकी चर्चा मैं ऊपर कर चुका हूं। न तो मैंने कभी किसी को जनमत में फुसलाया ही और न किसी में कभी अनुशासनहीनता ही भरी। दूसरे यह कि जनमत में काम करने वाला एक भी व्यक्ति किसी भी तरह का या किसी भी रूप में प्रशिक्षणार्थी नहीं, चाहे वह संपादकीय विभाग हो या फिर कोई अन्य विभाग। मैं जनमत का वेतनभोगी बाकायदा नियुक्त उप संपादक था। मेरा कोई सहकर्मी किसी भी तरह का प्रशिक्षणार्थी नहीं था। मेरे सभी सात सहकर्मी ने मेरी ही तरह जनमत के वेतनभोगी और बाकायदा नियुक्त उप संपादक थे। जनमत के कुल वेतनभोगी उप संपादकों की संख्या मुझ समेत तब आठ थी। कोई अवैतनिक उप संपादक नहीं था।

जनमत संपादक का यह कथन सही है कि उनके अखबार में ब्लॉक बनाने की सुविधा नहीं है। लेकिन उनका यह कथन सही नहीं है कि चित्रों से उनका मतलब नहीं है। जनमत में जब-तब फोटो छपते हैं। मेरे चार महीने के कार्यकाल में भी कई बार फोटो छपे हैं। इन छायाचित्रों के ब्लॉक पटना/कलकत्ता से बनवाकर लाए गए थे। हां, 1 फरवरी, 84 को धनबाद में कैदी-पुलिस के आपसी संबंधों से उपजे आपत्तिजनक दृष्यों के उन छायांकनों से जनमत का कोई सरोकार नहीं था जिनको लेकर मेरा पुलिस वालों से तब झगड़ा हो गया था जब पुलिसवालों ने मुझे हाजती कैदियों से बुरी तरह पिटवा दिया था तथा मेरे कैमरे को तुड़वा-फुड़वा दिया था और कैमरे की फिल्म छीन ली थी व मुझे मारा-पीटा व गरदनियां दी थी। जनमत संपादक ने एक बार तब मेरे छायांकनों को जनमत में छापने की इच्छा व्यक्त की थी जब 27 दिसंबर, 83 के दैनिक जनसत्ता में धनबाद में कोयला चोरी पर मेरी एक सचित्र रपट छपी देखी थी। कोयला चोरी के विषय पर मैंने उन दिनों धनबाद में काफी कुछ काम किया था। जनसत्ता में छपी मेरी वह रपट थी – काले हीरे की लूट। जनमत संपादक श्री रावल ने तब कोयला चोरी विषय पर मेरी सभी चित्रें देखी थी और उनमें से कई छायांकन जनमत के लिए पसंद की थी परंतु इससे पूर्व की मेरे उन छायाचित्रों का वे ब्लॉक बनवाते और फिर उसे जनमत में छापते मुझे उन्होंने नौकरी से निकाल दिया। कैदी वाले छायांकन से जनमत का भले कोई मतलब नहीं हो लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं होता कि मुझे पुलिस पीटे-पिटवाए और जनमत में उसकी खबर तक न छपे, जबकि मैं जनमत का उप संपादक था। अपने एक कर्मचारी के साथ घटी निर्मम पिटाई की घटना को जनमत संपादक द्वारा जनमत में जगह नहीं दिया जाना क्या कर्मचारियों के प्रति पत्र संपादक की नीयत में खोट होने का अहसास नहीं कराता। पुलिस-कैदी संबंध का फोटो खींचकर मैंने अपने पेशे के कर्तव्य का ही निर्वाह किया था, कोई अपराध नहीं किया था। फिर उन्होंने इस छटना को खबर क्यों नहीं बनाया। वे तो स्वयं को निरपेक्ष और दूध के धोए तभी साबित कर सकते थे जब वे मेरे साथ घटी इस घटना की निष्पक्ष खबर छापते और पुलिसवालों की खबर लेते। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उल्टे मुझे ही डांटा-फटकारा और यहां तक कि धनबाद के एक प्रतिष्ठित वरिष्ठ पत्रकार कलकत्ता के अंग्रेजी दैनिक टेलीग्राफ के धनबाद संवाददाता श्री अजय कुमार मिश्र से भी झगड़ा कर लिया जब कि श्री मिश्र ने मेरे साथ घटी इस घटना और फिर इसकी खबर जनमत में न छपने बाबत उनसे (संपादक श्री यूडी रावल) पूछा। नौकरी से निकालते वक्त भी संपादक व अखबार प्रबंधन की ओर से मुझे यही कहा गया था कि, तुमने अपनी पिटाई की खबर जनमत में न छपने बाबत अजय कुमार मिश्र को क्यों बताया।‘.जनमत संपादक/प्रबंधन का यह कहना क्या उचित था।

जनमत की नौकरी से निकाल दिए जाने के बाद मैं बिल्कुल सड़क पर आ गया और धनबाद जैसे अति महंगे शहर में जीने-खाने का कोई जरिया नहीं रहने के कारण ही मैंने धनबाद छोड़ दिया और यहां अपने गांव मुंगेर चला आया। पुलिस के साथ हुए झगड़े के कारण धनबाद में मैं कतई आतंकित और भयभीत नहीं हुआ था। धनबाद के तमाम प्रबुद्ध पत्रकार व मेरे मित्रगण मेरे साथ थे औऱ वहां मुझे कोई भय नहीं था। सवाल रोजी-रोटी का था जो मुझसे छिन गया था। फिर मैं वहां कैसे टिक सकता था। फिर भी नौकरी से निस्कासन के कई हफ्ते बाद तक मैं वहां जमा रहा औऱ फिर गांव लौट आया। जनमत संपादक का यह कहना कि मैं आतंकित हो गया और अखबार प्रबंधन को सूचित किए वगैर गांव लौट आया सरासर झूठ और बनावटी है।

 

मैं जनमत में प्रशिक्षणार्थी नहीं था। मैं जनमत का उप संपादक था। धनबाद के कई-कई वरिष्ठ और प्रतिष्ठित पत्रकार जो बराबर जनमत आते-जाते थे, यह बखूबी जानते थे कि मैं जनमत का उप संपादक हूं, प्रशिक्षणार्थी नहीं तथा मुझे जनमत संपादक/प्रबंधन ने बाकायदा वेतनभोगी उप संपादक बहाल कर रखा था। उन पत्रकारों में कइयों ने मेरे निस्कासन और पुलिस से हुए झगड़े और मेरी पिटाई बाबत खबरें भी अपने-अपने अखबारों में लिखी। आप चाहें तो मैं उन पत्रकारों से कहलवा सकता हूं। उन अखबारों में मेरे बाबत छपी खबरों की कतरनें आपको भेज सकता हूं, यदि आप ऐसा कुछ प्रमाण चाहें। धनबाद के अपने ढेर सारे मित्रों जिनमें मेरे पत्रकार मित्र भी शामिल हैं, से मैं जनमत में अपनी उप संपादक की हैसियत से बहाली बाबत गवाह दिलवा सकता हूं, जब कभी आप जिस रूप में चाहेंगे। जैसा चाहें और उचित समझें, मुझे आदेश दें।

आशा है, जनमत संपादक द्वारा गढ़े गए बनावटी आरोपों पर मेरे उपरोक्त तथ्यपरक विचारों व कथन से आप मेरे इस मामले में सच की गहराई तक सरलता से जा सकेंगे।

पूर्ण सहयोग व न्याय की इन्हीं उम्मीदों में,

आपका,

(डा. गणेश प्रसाद झा)

दिनांक- 26-12-84.

– गणेश प्रसाद झा


आगे अगली कड़ी में...


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें