शुक्रवार, 11 मार्च 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर-2

 एक पत्रकार की अखबार यात्रा की दूसरी किश्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग-2


3. प्रोफेशनलिज्म की शुरुआत

यह चिकित्सा विज्ञान में मेरी रुचि का ही असर था जो पिता के रिटायर होने के बाद फरवरी 1975 में गांव लौटकर मैंने मुंगेर के टीएचएच होमियोपैथिक मेडिकल कॉलेज में डीएचएमएस कोर्स में एडमीशन कराया। इसके बाद 1979 में पत्रकारिता की विधिवत शुरुआत करते हुए छोटे-छोटे अखबारों में खबर लिखना शुरू किया। पटना के अखबार आर्यावर्त के र्मुंगेर जिला संवाददाता (स्ट्रिंगर) लक्ष्मीकांत मिश्र शहर से एक साप्ताहिक टेबलॉयड अखबार निकालते थे। अखबार का नाम था अग्रसर जिसमें मुंगेर जिले और आसपास के इलाकों की खबरें और कुछ लेख वगैरह होते थे। मेरे गांव के एक स्कूल शिक्षक धर्मनारायण झा ने पत्रकारिता में मेरी रुचि देखकर लक्ष्मीकांत मिश्रजी से मेरी सिफारिश कर दी थी। उनका पत्रकार लक्ष्मीकांत मिश्र जी से काफी पुराना परिचय था। इस तरह मैं मुंगेर जिले के अपने तारापुर शहर से लक्ष्मीकांत मिश्रजी के अखबार अग्रसर का अवैतनिक संवाददाता नियुक्त हो गया था। अग्रसर के हर अंक में मेरी खबरें होती थी। जल्दी ही मैं पटना के एक साप्ताहिक टेबलॉयड अखबार स्प्लिंटर का मुंगेर जिला संवाददाता भी बन गया और उसमें जिले भर की खबरें लिखने लगा। इस अखबार के संपादक थे शर्मांजु किशोर जो हम उम्र थे। लिहाजा उनसे मित्रवत संबंध बन गया और मैं स्प्लिंटर में खूब लिखने-छपने लगा।

उन दिनों मुंगेर से पत्रकार भरत सागर भी एक साप्ताहिक टेबलॉयड अखबार निकालते थे। नाम था शानदार । यह शहर का बहुचर्चित टेबलॉयड अखबार था। होमियोपैथी की पढ़ाई के दौरान मुंगेर के तमाम पत्रकारों से मिलना-जुलना और परिचय बनाना और स्थानीय अखबारों के लिए लिखना मेरी आदत सी हो गई थी। भरत जी से भी मुलाकात उसी दौरान हुई थी। भरतजी भी हम उम्र थे और वे मुझे बहुत ही जुझारू किस्म के इंसान लगते थे। इसलिए उनसे भी खूब छनती थी और मैं शानदार में खूब छपता था। उन दिनों खतरा उठाकर शानदार में छोटे-छोटे मामलों का भंडाफोड़ करने में मुझे बहुत आनंद आता था। शानदार का पूरे मुंगेर जिले में और आसपास अपना एक रुतबा था और एक दहशत भी कि पता नहीं यह अखबार कब किसके खिलाफ क्या लिख दे। 1980 में शानदार में एक खोजी रिपोर्ट लिखकर मुंगेर के तारापुर में चल रहे एक फर्जी शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय का भंडाफोड़ करना और उसके बाद हुई ठगों की गिरफ्तारी आज भी लोगों को याद है। शानदार अब नहीं छपता। मित्र भरत सागरजी पिछले कई सालों से हैदराबाद में बसे हुए हैं।

उन दिनों आज की तरह चप्पे-चप्पे से अखबार नहीं निकला करते थे। सिर्फ राजधानी के पत्रकार ही दैनिक अखबार से अपनी पत्रकारिता के सफर की शुरुआत कर पाते थे। बाकी मुफस्सिल और जिलों के पत्रकारों के लिए तो साप्ताहिक टेबलॉयड अखबार ही सफर शुरु करने का जरिया बनते थे। पत्रकारिता के सफर पर आगे बढ़ना बहुत कठिन और दुरूह कार्य होता था। उस समय आज की तरह सिखानेवाले भी नहीं होते थे और न तो पत्रकारिता की डिग्रियां देनेवाले विश्वविद्यालय और संस्थान ही थे। सबकुछ अपने बूते ही करना होता था और आगे भी बढ़ना होता था।

मैं खुद को बहुत भाग्यशाली मानता हूं कि उसी दौरान मैं टाइम्स ग्रुप की प्रतिष्ठित और बेहद प्रभावषाली साप्ताहिक पत्रिका दिनमान में भी छप सका। दिनमान की वह स्टोरी बड़ी अनूठी सी थी। उन दिनों बिहार में गंगा की लहरों पर माफियों की रंगदारी चलती थी। गंगा पर माफियों का ही नाव-जहाज चलता था। किसी गैर का नाव-जहाज नहीं चलने दिया जाता था। इसी पर कुछ जानने-समझने मैं एक दिन भागलपुर के सुल्तानगंज गंगा घाट के ‘जहाज घाट’ पर गया था जहां से नदी पार कराने के लिए नावें और जहाज (स्टीमर) चलते थे। वहीं ‘जहाज घाट’ पर मैंने देखा कि गंगा के उस पार अगुआनी घाट जानेवाले एक जहाज पर लोग सवार हो रहे हैं और सामान भी लादे जा रहे हैं। तभी तीन-चार लोग दौड़ते हुए आए और जहाज के अंदर घुस गए। उनमें से एक ने जहाज में चंद मिनट पहले सवार हुए एक मुसाफिर को पकड़ लिया और उसे ताबड़तोड़ चाकुओं से गोद दिया जिससे उसकी वहीं जहाज पर ही मौत हो गई। हत्यारों को किसी ने पकड़ने की हिम्मत नहीं की और वे सुरक्षित भाग निकले। अपनी आंखों के सामने घटी इस घटना को मैंने दिनमान में लिख भेजा जो 3 से 9 अक्तूबर 1982 के अंक में पेज नंबर 34 पर बॉक्स में छपा था। आधे पन्ने की उस बाईलाइन स्टोरी का शीर्षक था- ऐसा भी होता है इस देश में। दिनमान ने इस बाईलाइन स्टोरी का पारिश्रमिक मुझे 50 रुपए दिया था जो मनिआर्डर से 26/02/1983 को आया था। मुझ मुफस्सिल पत्रकार के लिए उस समय यह रकम कम नहीं थी। उस समय इससे मुझे जो खुशी मिली थी उसकी कीमत तो और भी ज्यादा थी।

4. श्रमजीवी पत्रकारिता

धनबाद कोयलांचल से छपनेवाला जनमत मेरा पहला दैनिक अखबार था। इस अखबार में मेरी नियुक्ति उप संपादक के रूप में 7 अक्टूबर 1983 को हुई थी। इससे एक दिन पहले 6 अक्तूबर को मैं नौकरी के लिए साक्षात्कार में उपस्थित हुआ था। उस समय इस अखबार को सतीश चंद्र और यूडी रावल मिलकर निकालते थे। यूडी रावल का नाम अखबार के संपादक के रूप में छपता था। पर यूडी रावल समाचार एजेंसी पीटीआई और कलकत्ता के अंग्रेजी दैनिक द स्टेट्समैन के धनबाद जिला संवाददाता भी थे। उधर अखबार के प्रबंधक सतीशचंद्र पटना के अंग्रेजी अखबार द इंडियन नेशन के धनबाद संवाददाता (स्ट्रिंगर) के रूप में भी काम कर रहे थे।

दिल्ली की साप्ताहिक समाचार पत्रिका दिनमान के 10 जुलाई से 16 जुलाई 1983 के अंक में जनमत अखबार में उप संपादक की रिक्तियों का एक विज्ञापन छपा था। जनमत में उप संपादक की नौकरी के लिए मेरा 20 जुलाई 1983 का आवेदन धनबाद में रह रहे स्कूल के मेरे साथी यतींद्र कुमार बोल ने संपादक यूडी रावल तक पहुंचाया था। संपादक यूडी रावल ने आवेदन में संलग्न मेरी छपी खबरों की कतरनें देखकर सितंबर महीने में मुझे मुंगेर के पते पर बाकायदा पत्र भेजकर उप संपादक पद के लिए साक्षात्कार में उपस्थित होने के लिए बुलाया था। संपादक यूडी रावल के हस्ताक्षर से जनमत अखबार के लेटरहेड पर 23-09-1983 की तारीख को लिखी गई इस चिट्ठी में लिखा था-  

दिनांक 23-9-83.

सेवा में,

डा. गणेश प्रसाद झा, ‘पत्रकार’

73, पायनियर भवन, कुआंगढ़ी,

सुपौर (तारापुर) मुंगेर,

बिहार- 813221.

महाशय,

उप संपादक पद के लिए आपका 20 जुलाई 83 का प्रार्थना पत्र हमें पिछले दिनों मिला है। आपसे अनुरोध है कि आप अपने योग्यता एवं पत्रकारिता अनुभव के प्रमाणपत्रों के साथ यथाशीघ्र साक्षात्कार के लिए हमारे कार्यालय में सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे के बीच किसी दिन अपने खर्च पर उपस्थित हों।

साक्षात्कार में उपस्थित होने के लिए आपको किसी प्रकार का भत्ता नहीं दिया जाएगा।

सधन्यवाद,

आपका,

(यू.डी.रावल)

सम्पादक

इस तरह 7 अक्तूबर 1983 को मैंने जनमत में उप संपादक की नौकरी शुरू की थी। वहां मेरी तनख्वाह 250 रुपए थी। (जनमत के संपादक की यह चिट्टी यहां मैंने क्यों छाप दी इसकी चर्चा मैं आगे करूंगा और इसकी वजह भी बताउंगा।)

जनमत अखबार का दफ्तर धनसार के शास्त्रीनगर में था जो मेरे स्कूल लक्ष्मीनारायण विद्या मंदिर से थोड़ी ही दूरी पर था। तब धनबाद रेलवे स्टेशन के पिछवाड़े के मनईटांड मोहल्ले में 60 रुपए में मुझे किराए का एक कमरा मिल गया था और बैंक मोड़ में एक मारवाड़ी बासा में 120 रुपए में दोनों वक्त का भर पेट और स्वादिष्ट भोजन मिल जाता था। टेलीप्रिंटर पर आनेवाली समाचार एजेंसी की खबरों का संपादन करना मैंने इसी अखबार में रहते हुए सीखा था। यहां यह भी बता देना चाहता हूं कि जनमत पहले एक साप्ताहिक अखबार हुआ करता था जिसे कोयलांचल के पत्रकार विक्रमादित्य लाल ने निकालना शुरू किया था। बहुत सालों बाद इसे धनबाद के दो पत्रकारों सतीशचंद्र और यूडी रावल ने दैनिक अखबार बनाया था। जनमत दैनिक का प्रवेशांक 05 फरवरी 1983 को निकला था।

जनमत में नौकरी करते हुए मेरे साथ पत्रकारिता से जुड़ी कई घटनाएं हुई। सब के सब जनमत से जुड़ी हुई और खोजी पत्रकारिता के चक्कर में हुईं। उन्हीं दिनों तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पुत्र राजीव गांधी अपने एक दौरे पर धनबाद आनेवाले थे। धनबाद के डीसी (जिले के उपायुक्त) ने उनके स्वागत की तैयारी में 20 हजार रुपए के कालीन की खरीद की थी। उन दिनों 20 हजार रुपए बहुत होते थे। यह खरीद धनबाद की ही एक बड़ी दुकान मोदी प्लोर से की गई थी। 7 अक्तूबर को बाजार में घूमते हुए मैं संयोग से उसी दुकान पर चला गया था। वहीं मैंने दुकान मालिक और डीसी के एक स्टॉफ की वहां हो रही बातचीत में यह बात सुन ली। मैंने अनजान और अनाड़ी बनकर इस खबर की पुष्टि की और शाम को अपने दफ्तर पहुंचने पर छोटी सी खबर बनाकर दे दी। पर डेस्क की किसी चूक के कारण यह खबर अगले दिन यानी 8 अक्तूबर को छपने से रह गई। यह खबर 11 अक्तूबर को राजीव गांधी के आगमन के अगले दिन 12 अक्तूबर को सिंगल कॉलम में छपी। खबर की हेडिंग थी- ‘राजीव गांधी के स्वागत की तैयारी में कालीन खरीद पर हजारों रुपए स्वाहा’। यह खबर छपी तो धनबाद के डीसी महोदय आगबबूला हो गए। डीसी ने जनमत के संपादक यूडी रावल और सतीशचंद्र को फोन करके खूब भला-बुरा कहा। उस समय जिला प्रशासन के वि्ज्ञापन के रहमोकरम पर जीनेवाले ऐसे छोटे अखबारों में प्रशासन के खिलाफ कुछ लिखने और उसका थोड़ा भी विरोध करने का साहस नहीं होता था। लिहाजा सारा गुस्सा मुझ पर ही फूटा। मेरी नौकरी तो उस दिन बच गई पर मुझे वार्निंग देकर छोड़ा गया। संपादक ने कहा, ‘मुझे अखबार निकालना है, जिला प्रशासन से पंगा नहीं लेना है। इस तरह तो मेरा विज्ञापन ही बंद हो जाएगा।’

अब एक दूसरी घटना बताता हूं। उन्हीं दिनों एक दिन की बात है। तारीख थी 01 फरवरी 1984 और दिन था बुधवार। मैं धनबाद कोर्ट परिसर में घूम रहा था। तब मेरे पास अपना एक कैमरा भी हुआ करता था। कोर्ट परिसर में एसडीओ दफ्तर के पास पेशी के लिए धनबाद जेल से लाए गए कुछ विचाराधीन कैदी बैठे थे। पेशी के लिए आनेवाले कैदियों को रखने के लिए वहीं एक हाजत यानी लॉकअप भी बना हुआ था। पर कैदियों को वहां नहीं रखकर उन्हें खुले मैदान में बिठा कर रखा गया था। उन्हें जेल से लानेवाले पुलिस के सिपाही भी वहां बैठे थे। वे कैदी पुलिस की हिरासत में थे। उनके हाथों में हथकड़ियां थीं। कमर में मोटा सा रस्सा बंधा था। सिपाहियों ने कैदियों के कमर में लगे रस्से का एक सिरा पकड़ रखा था। पुलिस हिरासत में जेल से लाए गए उन कैदियों में से दो कैदी और उनकी अभिरक्षा में तैनात दो पुलिस जवान आपस में ताश खेल रहे थे। वहीं जमीन पर बिछे अखबार पर मुंगफलियां भी रखी हुई थी जिसका कैदी और पुलिसवाले सभी स्वाद चख रहे थे। पुलिसवालों ने अपनी रायफलें वहीं जमीन पर रख दी थी और बेफिक्र होकर ताश खेलने में मशगूल थे। बाकी पुलिसवाले वहीं थोड़ा परे हटकर बैठे थे और उन्होंने भी अपनी रायफलें जमीन पर रख दी थी और वे भी मूंगफली खा रहे थे।

पुलिस हिरासत में जेल से आए उन कैदियों ने वहीं शराब मंगवाई और वहीं पुलिसवालों के सामने ही पी भी ली। शराब की बोतलें उनके सामने ही रखी थी। मैंने उन कैदियों की फोटो खींच ली। इससे कैदी और उनकी सुरक्षा में लगे पुलिसवाले एकदम से बिदक गए। कैदियों ने आवाज लगाई पकड़ो-पकड़ो। पुलिस के कुछ सिपाही मेरी तरफ दौड़े और मुझे पकड़ लिया और मेरा कैमरा छीन लिया। तुरंत उन पुलिसवालों ने कैमरे की रील निकाल ली। पुलिसवाले मुझे खींचकर वहीं ले गए जहां कैदी बैठे ताश खेल रहे थे। मुझे कैदियों और पुलिसवालों ने घेर लिया। पुलिसवालों के इशारे पर उन कैदियों ने मेरी पिटाई कर दी और उन पुलिसवालो ने भी मुझे पीटा। सबकुछ उन पुलिसवालों के लामने हुआ। बाद में अखबार का नाम लेने और जिले के डिप्टी कमिश्रनर से इसकी शिकायत करने की बात कहने पर पुलिसवाले मुझे पकड़कर थाने ले गए। वहां थानेदार आरपी सिंह ने मुझे गिरफ्तार कर लेने की धमकी दी और दो घंटे तक बेवजह धाने में बिठाए रखा।

थाने में दो घंटे की लंबी बिना वजह की पूछताछ के बाद मुझे छोड़ दिया गया। थानेदार ने मेरा कैमरा तो लौटा दिया पर रील अपने पास ही रख ली। मेरे कैमरे को पुलिसवालों ने क्षतिग्रस्त कर दिया था। मैंने तुरंत धनबाद के पुलिस अधीक्षक (एसपी) से मिलकर अपने साथ हुई इस घटना की लिखित शिकायत की और उनसे छीनी गई कैमरे की रील वापस दिलाने को कहा। पर एसपी ने तत्काल मेरी कोई मदद नहीं की। फिर मैं धनबाद के जिला आयुक्त (डीसी) के पास भी गया और उनसे भी इस घटना की लिखित शिकायत की। वहां से भी मुझे तत्काल कोई मदद नहीं मिली। जैसा कि आमतौर पर होता है, दोनों अधिकारियों ने मेरी बात बस इस कान से सुनी और उस कान से निकाल दी। किसी ने मेरे साथ हुई इस घटना और मेरी बात को कोई तवज्जो नहीं दी।

अखबार के दफ्तर पहुंचकर मैंने संपादक समेत सबको इस घटना के बारे में बताया। डेस्क के साथियों ने कहा कि इसकी खबर छापी जाए। पर संपादक ने कहा, ‘कोई खबर नहीं छपेगी। गणेश झा को अखबार की तरफ से वहां जाने और फोटो खींचने के लिए तो कहा नहीं गया था। वे दफ्तर की इजाजत के वगैर अपनी इच्छा से वहां गए थे और इन्होंने जो कुछ भी किया वह अपनी इच्छा से किया। इसलिए अखबार इस मामले में नहीं पड़ेगा।‘ जनमत ने कोई खबर नहीं छापी। उल्टे इस घटना ने मेरी नौकरी पर खतरे की तलवार एक दफा फिर लटका दी। प्रबंधन ने फिर मुझे नौकरी से निकाल दिए जाने की कड़ी चेतावनी दे दी।

इस घटना को जनमत ने भले ही दबा दिया, पर मामला दबा नहीं। धनबाद के पत्रकारों में इस खबर की खूब चर्चा रही। शहर के पत्रकार इस घटना को प्रेस की आजादी पर हमला मान रहे थे। उस समय वहां के कुछ बड़े पत्रकारों ने जनमत के दफ्तर आकर मेरी इस हिम्मत की तारीफ की। कुछ पत्रकारों ने मेरे साथ हुई इस घटना के बारे में जिला प्रशासन से सवाल-जवाब भी किया। जो जिला प्रशासन अब तक इस मामले को दबाने में लगा था उसकी अब जान सांसत में पड़ती दिखी। जिला प्रशासन ने जनमत अखबार के प्रबंधन पर दबाव बनाया, धमकाया और शायद मुझे नौकरी से निकालने का इशारा भी किया। इसका खूब असर हुआ और अगले ही दिन अखबार प्रबंधन ने मुझे नौकरी से निकाल दिया।

जनमत मेरा पहला अखबार धा और यह मेरी पहली वैतनिक नौकरी भी धी। नौकरी से निकाले जाने पर मुझे बहुत दुख हुआ। अगले दिन मैं धनबाद के एक अन्य पुराने और प्रतिष्ठित दैनिक आवाज के संपादक ब्रह्मदेव सिंह शर्मा से मिला और उन्हें कैदियों वाली घटना और फिर जनमत प्रबंधन द्वारा नौकरी से निकाल दिए जाने की बात बताई। मेरी बात तो उन्होंने सुन ली पर कोई मदद नहीं की। वे चाहते तो मुझे अपने अखबार में नौकरी दे सकते थे, पर उन्होंने तो मेरे साथ जो कुछ हुआ उसकी खबर तक नहीं छापी।

कोलकाता (तब के कलकत्ता) के प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार ‘द टेलीग्राफ’ के धनबाद संवाददाता और तब के वरिष्ठ पत्रकार अजय मिश्र राजीव गांधी के स्वागत के लिए कालीन की खरीद वाली मेरी खबर छपने के बाद से मेरे काम से बहुत खुश रहते थे। उन्होंने कैदियों वाली इस घटना की खबर अपने अखबार ‘द टेलीग्राफ’ को भेज दी थी जो अखबार के दिनांक 16 फरवरी, 1984 के अंक में पेज नंबर-7 पर प्रमुखता से चार कॉलम में छपी थी। खबर का शी्र्षक था- ‘Click & Be Damned’ और इस खबर में मुझे नौकरी से निकाल दिए जाने की भी प्रमुखता से चर्चा की गई थी। यह सब जनमत प्रबंधन को बहुत नागवार लगा था। तब सुनने में आया था कि इस खबर को लेकर जनमत के मालिकान शतीश चंद्र और यूडी रावल की अजय मिश्र से काफी चख-चख भी हो गई थी।

‘The Telegraph’ अखबार के 16/02/1984 के अंक में Regional Roundup पेज नंबर 7 पर संवाददाता अजय मिश्र की 4 कॉलम की बाईलाइन रिपोर्ट कुछ इस तरह छपी थी-

BIHAR

Click And Be Damned

Dhanbad, The recent assault on a journalist by guardians of the law has proved once again that in the event of a clash between the media and the police, it is the former which suffers even if the later is at fault.

On February 1 Mr.Ganesh Prasad Jha, a young journalist working for the local daily ‘Janmat’, took photographs of policeman playing cards with under trails outside the SDO’s office, where the lockup is located. The under trials had been brought from Dhanbad jail to be produced before the court, but had not been incarcerated for reasons that have not been explained.

When the photographer saw them, two policemen were playing cards with the under trails. Their rifles were behind them on the ground. Two other policeman were sitting a little further away, near the boundary wall, eating peanuts. Their rifles were also lying on the ground.

Physical Assault: Mr Jha rightly finding the scene unusual being taking photographs, one of the policemen sitting near the wall saw him at work, caught hold of him and dragged him to where the card players were in sitting. Instigated by the police the under trails also gave the journalist a severe beating.

When Mr Jha threatened to report the matter to the Deputy Commissioner, the policemen took him to the police station. Here Mr Jha was threatened with arrest by the OC, Mr R.P.Singh, but was ultimately released after two hours. The police, however, kept his roll of film.

Mr Jha immediately reported the incident to Mr Satish Chandra, a senior staffer of ‘Janmat‘ and also a correspondent of the Patna Daily Indian Nation. Eventually, however, no action was taken.

Reactions of incident: When this correspondent met the editor of Janmat, Mr U.D.Rawel (also the correspondent of the news agency PTI & a Calcutta based English daily) to ask why the incident had not been reported in his paper & why the DC & SP of the area had not been informed, Mr Rawel flared up & said, “why should we antagonize the police because of an aira gaira (no body)?” When reminded that Mr Jha was an employee of his, Mr Rawel said, “let us see what we can do.”

What the editor did was unceremoniously dismiss Mr Jha the next morning. The reason given was that he had given vent to his feelings to this correspondent. Meanwhile, the matter was brought to the notice of Deputy Commissioner.

Mr B.D. Singh Sharma, the editor of Awaj, another daily which was aware of the incident, said that Mr Jha had called on him the morning after his dismissal  from Janmat. When asked why he had also suppressed the news, he said, “we thought that they (Mr Rawel and Mr Satish Chandra) would take it as an attack.”

-Ajay Mishra

जनमत प्रबंधन ने मुझे नौकरी से निकालने के कुछ महीनों बाद कई और पत्रकारों को भी निकाल बाहर किया। तीन महीने बाद 19 मई 1984 को सुधीर की नौकरी छीन ली गई। फिर गिरीश वर्मा निकाल दिए गए। प्रबंधन से प्रताड़ित होने पर 1 मई 1984 को हमारे वरिष्ठ साथी हरिहर झा ने भी इस्तीफा दे दिया और अपने पुराने अखबार आवाज लौट गए।

 

5. पेशागत टकराव

जनमत की मेरी नौकरी शुरू होने के चंद दिनों बाद ही 17 नवंबर 1983 से दिल्ली से इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप के हिन्दी अखबार जनसत्ता का प्रकाशन शुरू हो गया था। डमी तो कई महीने पहले से निकलने लगा था। मैं इस अखबार को धनबाद जिले की खबरें भेजने लगा था। धनबाद में कोयले की खुलेआम चोरी होती थी। आज भी होती है। छोटे पैमाने पर कहें तो पूरे कोयलांचल में लगभग हर जगह हजारों हजार लोग रोजाना सायकिलों पर बोरियों में लादकर कोयला चोरी से उठा ले जाते थे।

कोयले की यह चोरी वहां के लिए आम बात थी और उस तरफ कभी किसी स्थानीय पत्रकार का ध्यान नहीं जाता था। मैंने इस अनोखी कोयला चोरी की खबर तस्वीर के साथ जनसत्ता को भेजी जो तस्वीर समेत छप गई थी। जनसत्ता उस समय एकदम नया-नया अखबार था और हर तरफ उसकी भरपूर चर्चा होती थी। खबर छपी थी इसलिए धनबाद में भी अखबार की खूब चर्चा हुई। खासकर मीडिया वालों के बीच तो इसकी और ज्यादा चर्चा थी। पर मजा ये कि जनमत के संपादक यूडी रावल दफ्तर में सबको जनसत्ता अखबार दिखा-दिखाकर कह रहे थे कि उन्होंने जनसत्ता के लिए भी लिखना शुरू कर दिया है और यह रही कोयला चोरी पर उनकी खास खबर। मैंने कोयला चोरी की वह फोटो दप्तर के कुछ साथियों को कई दिन पहले ही दिखा दी थी। इसलिए वे साथी तो समझ गए कि जनसत्ता में छपी खबर मेरी यानी गणेश झा की है और संपादक जी सरासर झूठ बोल रहे हैं। उस दिन भी कोयला चोरी वाली वह फोटो मेरे पास थी। डेस्क के मेरे एक साथी विजय श्रीवास्तव वह फोटो और जनसत्ता की कॉपी लेकर संपादक यूडी रावल के कमरे में गए और उन्हें दिखाकर कहा कि खबर तो गणेश झा की है जिसका सबूत यह फोटो है जो उन्होंने खुद कई दिन पहले खींची थी और हमलोगों को दिखाई भी थी। अब यूडी रावल को काटो तो खून नहीं। उनका झूठ पकड़ जो लिया गया था। फिर संपादकजी ने तुरंत मुझे अपने कमरे में बुलाया और डेस्क के साथियों के सामने जनसत्ता में छपी उस खबर के लिए मुझे बधाई दे दी। पर इस सबसे संपादक यूडी रावल भीतर ही भीतर मुझसे जल भुन रहे थे। उनका इस तरह मुझसे बार-बार नाराज होते रहना मेरी नौकरी के लिए खतरे की घंटी थी।

उन्हीं दिनों धनबाद के डिगवाडीह में क्रिकेट का रणजी ट्रॉफी मैच हुआ था जिसमें अजहरुद्दीन पहली बार रणजी खेलने आए थे। मैंने जनमत से छुट्टी लेकर जनसत्ता के लिए यह मैच कवर किया था। अगर यहां कोई यह कहे कि जनमत में उप संपादक की नौकरी करते हुए मैंने जनसत्ता या किसी दूसरे अखबार के लिए खबरें लिखकर अनुशासनहीनता की तो मैं यहां यह कहूंगा कि संपादक यूडी रावल और सतीश चंद्र दोनों एक-एक अखबार के धनबाद से जिला संवाददाता यानी स्ट्रिंगर थे और फिर भी अलग से अपना अखबार निकालते थे और उसके प्रबंधक और संपादक बने हुए थे।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में...

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