एक पत्रकार की अखबार यात्रा की सातवीं किश्त
पत्रकारिता की कंटीली डगर
भाग- 7
15. कोयले की काली कमाई और अपराध का सिंडिकेट
नेशनल मीडिया में धनबाद माफिया के नाम से कुख्यात रहे सूर्यदेव सिंह एक खूंखार किस्म के व्यक्ति थे और बंदूक के बल पर पूरे धनबाद कोयलांचल पर उनका नियंत्रण यानी आतंक कायम था। कोयले की दलाली में अपराध का उनका एक बड़ा और ताकतवर सिंडिकेट काम करता था। इस सिंडिकेट के नियंत्रक थे खुद सूर्यदेव सिंह और इस नेटवर्क का मुख्यालय था उनका महल ‘सिंह मेनसन’। उन दिनों बाहूबली शब्द प्रचलन में नहीं आया था पर यह शब्द सूर्यदेव सिंह के सामने काफी बौना पड़ता था। इसी से आप अंदाजा लगा लीजिए कि सूर्यदेव सिंह का टेररिस्तान कितना बड़ा और व्यापक था। पूरे धनबाद कोयलांचल से उत्पादित कोयले का 40 से 50 फीसदी हिस्सा अघोषित रूप से सूर्यदेव सिंह की झोली में चला जाता था। यह एक तरह की कोयला चोरी होती थी पर यह खुलेआम होती थी। इसमें चोरी-छिपे जैसा कुछ भी नहीं होता था। इसमें कोयला क्षेत्र की सरकारी कंपनी बीसीसीएल (भारत कोकिंग कोल लिमिटेड) के छोटे से लेकर आला अफसर तक हर कोई शामिल होता था और इस चोरी में सबको हिस्सा मिलता था। एक मोटे उनुमान के मुताबिक धनबाद कोयलांचल से देश के कुल कोयला उत्पादन का लगभग 80 फीसदी कोयला प्राप्त होता है। ऐसे में आप कल्पना कर सकते हैं कि कुल उत्पादन का आधा कोयला माफिया सूर्यदेव सिंह झटक ले जाते थे तो उनको उससे हर महीने और हर साल कितनी अवैध यानी काली कमाई होती होगी।
धनबाद कोयलांचल में कोयले की काली कमाई उस समय नहीं थी जब कोयला खदान निजी मालिकों के थे। उस समय कोयला मजदूरों की यूनियनों का संचालन करने के नाम पर गुंडागीरी करनेवाले कुछ गुंडे जरूर थे जो खदान मजदूरों से मेंबरशिप फीस के नाम पर मिलनेवाली रकम पर पलते और ऐश करते थे। पर कोयला खदानों पर उनका कोई नियंत्रण नहीं होता था। तब के खदान मालिक उन्हें कुछ हप्ता देकर शांत कर लेते थे। वे गुंडे कोयले में कोई हिस्सेदारी नहीं ले पाते थे। ऐसे गुडों में उस समय के छद्म मजदूर नेताओं बीपी सिंह, एके राय और एसके राय का नाम लिया जाता है। कोयले की संगठित लूट 1971 में कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण के कुछ सालों बाद से शुरू हुई जब इन छद्म मजदूर नेताओं को लगा कि कोयले से मोह पालनेवाले निजी खदान मालिक अब बेदखल हो चुके हैं और सरकार के कोयला अफसरों में कोयले और खदानों के प्रति कोई मोह नहीं हैं और ये अफसरान कमीशन की रकम के एवज में पूरी कोयला इंडस्ट्री तक को बेच डालने पर राजी हैं। बस यहीं से शुरू हुआ कोयला चोरी के नाम पर पूरे कोलफील्ड का आधा कोयला डकार जाने का खेल।
धनबाद कोयलांचल में माफियों का दखल तब और बढ़ने लगा जब राजनैतिक पार्टियां विधानसभा चुनावों में उन्हें टिकट देने लगीं और वे चुनाव जीतकर विधायक बनने लगे। दशकों से कोयलांचल में आतंक का राज चला रहे इन कोयला माफियों का यह टेरर आज भी उसी तरह कायम है। धनबाद माफिया सूर्यदेव सिंह के झरिया विधानसभा सीट से विधायक बनने से राजनीति में माफिया की दखल का शुरू हुआ सिलसिला आज भी बरकरार है। आज भी सभी राजनैतिक पार्टियां सूर्यदेव सिंह के परिवारजनों को ही टिकट देकर अपना उम्मीदवार बनाती हैं। जीत भी उनमें से ही किसी की होती है। पूरे धनबाद कोयलांचल और खासकर झरिया सीट पर आज तक सिंह मेनसन का ही कब्जा होता आया है।
पहले बिहार और विभाजन के बाद से झारखंड की राजनीति में धनबाद माफिया की इस पैठ की मुख्य वजह है कोयले की काली कमाई से अर्जित धनबाद माफिया की अकूत संपत्ति जिसमें से कोयला अफसरों के अलावा प्रदेश और दिल्ली की सत्ता तक को हमेशा से हिस्सा जाता रहा है। धनबाद कोलफील्ड से होनेवाले कुल उत्पादन का आधा कोयला हमेशा से सिंह मेनसन का होता है और आधा देश का। इसे ऐसे समझें कि कोयला खदान देश का, कोयला उत्पादन में लगे अफसरों और मजदूरों को तनख्वाह देश की सरकारी कोयला इंडस्ट्री दे। कोयला उत्पादन में इस्तेमाल होनेवाले तमाम उपकरण और मशीनरी देश की सरकारी कोयला इंडस्ट्री खरीदे। फिर भी देश को मिले सिर्फ आधा कोयला और कोयला इंडस्ट्री में आतंक का राज चलानेवाला माफिया आधा कोयला मुफ्त में डकार ले जाए। यानी जितना कोयला देश का उतना ही कोयला धनबाद माफिया का। यानी बराबर की हिस्सेदारी। बंदूक की नोक पर आधा मेरा, आधा तेरा। अब चूंकि देश के कुल कोयला उत्पादन का 80-90 फीसदी धनबाद कोलफील्ड से होता है, इसलिए इस हिसाब से धनबाद माफिया के मुख्यालय ‘सिंह मेनसन’ की अर्थव्यवस्था भारत सरकार की कोयला कंपनी ‘कोल इंडिया लिमिटेड’ की अर्थव्यवस्था के बाराबर हुई। इसी से आप अंदाजा लगा लीजिए कि सिंह मेनसन की अर्थव्यवस्था कितनी बड़ी थी और है। इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था से तो कमोबेस एक राज्य चलाया जा सकता है। यानी धनबाद माफिया के मुख्यालय ‘सिंह मेनसन’ की औकात एक राज्य के बराबर होती है। तभी तो सभी राजनैतिक दल कोयलांचल में माफिया को पालने, पश्रय देने और आगे बढ़ाने में लगे रहते हैं।
सांसद और फिर देश के आठवें प्रधानमंत्री रहे चंद्रशेखर सिंह (10 नवंबर 1990 से 21 जून 1991) से धनबाद माफिया की जगजाहिर दोस्ती कोई ऐसे थोड़े ही थी। चंद्रशेखरजी सांसद रहते जब-जब धनबाद आते थे तो उनकी सभाएं होती थीं और उन सभाओं में जमीन पर एक डबल बेड का बड़ा सा चादर बिछा दिया जाता था जिसपर उनकी अपील पर लोग पार्टी फंड के लिए ही सही, दिल खोलकर नोट न्योछावर करते थे और सभा खत्म होने के बाद नोटों से भरी एक बड़ी सी गठरी चंद्रशेखर जी अपने साथ ले जाते थे। लेकिन धनबाद माफिया सूर्यदेव सिंह से चंद्रशेखरजी का यह रिश्ता सिर्फ इन्हीं गठरियों की वजह से नहीं था। ये गठरियां तो बड़ी छोटी चीज होती थीं। बिल्कुल नाचीज जिसकी कोई औकात नहीं। सिंह मेनसन के लिए ये गठरियां राई क्या, एक धूलकण के बराबर भी औकात नहीं रखतीं थीं। और जब इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था हो तो किसी प्रभावशाली और कद्दावर सांसद या देश के भावी प्रधानमंत्री के वरदहस्त के लिए तो अगर साल भर की कमाई भी न्योछावर करनी पड़े तो समझो कम ही है। लेकिन यह भी सही है कि धनबाद माफिया और ‘सिंह मेनसन’ से करीबी रिश्ता सिर्फ एक ही कद्दावर सांसद या प्रधानमंत्री का नहीं रहा होगा। आखिर धनबाद माफिया और ‘सिंह मेनसन’ पर केंद्र सरकारों का वरदहस्त तो हमेशा ही बना रहा है। आज भी है। तभी तो धनबाद कोलफील्ड में माफिया और उसका आतंक आज भी जिंदा है और बदस्तूर कायम है। धनबाद कोयलांचल पर आज भी ‘सिंह मेनसन’ का ही कंट्रोल है। और यह बात भी सही है कि अगर देश की सरकार और देश का प्रधानमंत्री नहीं चाहेगा तो धनबाद कोयलांचल में किसी भी सूरत में कोई माफिया और उसका आतंक जिंदा नहीं बचा रह सकता। आज तक देश को ऐसा कोई प्रधानमंत्री नहीं मिला जो धनबाद कोयलांचल को माफिया मुक्त करने की सोच भी रखता हो। इसलिए हम कह सकते हैं कि धनबाद कोयलांचल में कोयला माफिया और उसका टेरर सरकार की इच्छा से ही कायम है। इससे नुकसान किसी सांसद, भावी प्रधानमंत्री, प्रधानमंत्री या सरकारी अफसर को नहीं, देश को और उसकी आम जनता को हो रहा है।
सूर्यदेव सिंह 1977 से 1991 तक जनता दल के टिकट पर झरिया विधानसभा सीट से विधायक रहे थे। जून 1991 में उनके निधन के बाद झरिया से जनता दल के कद्दावर नेता राजू यादव की उम्मीदवारी होनी तय हो गई थी। पर तभी उनकी हत्या हो गई। उस समय सूर्यदेव सिंह जीवित थे और राजू यादव की हत्या का आरोप सूर्यदेव सिंह पर ही लगा था। फिर राजू यादव की पत्नी आबो देवी 1991 से 1999 तक जनता दल के टिकट पर झरिया से विधायक रहीं। यही वह समय रहा जब ‘सिंह मेनसन’ से बाहर का कोई व्यक्ति झरिया सीट से विधायक बना। फिर 1999 में सूर्यदेव सिंह के छोटे भाई बच्चा सिंह झरिया सीट से विधायक बने और फिर झारखंड सरकार के पहले मंत्रिमंडल में मंत्री भी रहे। पर पारिवारिक झगड़े की वजह से अगली बार उन्होंने यह सीट छोड़ दी और बोकारो से चुनाव लड़ा। सूर्यदेव सिंह की पत्नी कुंती सिंह 2004 से 2014 तक झरिया सीट से भाजपा के टिकट पर विधायक रहीं। अब उनके पुत्र संजीव सिंह और संजीव सिंह की पत्नी रागिनी सिंह दोनों भाजपा के टिकट पर चुनाव जीतकर विधायक हैं। पर पिछले कुछ सालों से सिंह मेनसन के वारिसों यानी सूर्यदेव सिंह के बेटो-भतीजों में कोयले पर माफियागीरी के धंधे, इस धंधे से अर्जित अकूत पैत्रिक संपत्ति, कोयलांचल पर नियंत्रण और सूर्यदेव सिंह द्वारा खड़ा किए गए मजदूर संगठन ‘जनता मजदूर संघ’ पर नियंत्रण को लेकर आपस में काफी अदावत चल रही है। यह पारिवारिक अदावत मरने-मारने की खतरनाक स्थिति तक पहुंच गई है।
वर्ष 2014 में सूर्यदेव सिंह के पुत्र संजीव सिंह भाजपा के टिकट पर झरिया सीट से चुनाव लड़ रहे थे। उनकी टक्कर सूर्यदेव सिंह के छोटे भाई बच्चा सिंह के पुत्र नीरज सिंह से थी जो उसी सीट से कांग्रेस के टिकट पर उम्मीदवार थे। बच्चा सिंह की हवेली का नाम है ‘रघुकुल’। इसलिए यह राजनैतिक लड़ाई ‘सिंह मेनसन’ और ‘रघुकुल’ के बीच थी। उनकी पारिवारिक अदावत भी ‘सिंह मेनसन’ और ‘रघुकुल’ के बीच ही चल रही है। वर्ष 2017 में नीरज सिंह की हत्या हो गई और इस हत्या का आरोप सूर्यदेव सिंह के पुत्र विधायक संजीव सिंह पर लगा। जानकारी के मुताबिक संजीव सिंह अभी जेल में हैं। बाद में 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने संजीव सिंह की पत्नी रागिनी सिंह को उम्मीदवार बनाया और कांग्रेस ने नीरज सिंह की विधवा पत्नी पूर्णिमा सिंह को। दोनों बहुओं की इस लड़ाई में कांग्रेस की पूर्णिमा सिंह चुनाव जीत गईं। यानी ‘रघुकुल’ की जीत हुई और ‘सिंह मेनसन’ की हार। पर झरिया कोलफील्ड पर कंट्रोल तो कोयला माफिया के घराने का ही कायम रहा।
16. धनबाद में चारण की पत्रकारिता
उन दिनों धनबाद कोयलांचल में पत्रकारिता का मारक रूप शायद ही कभी देखने को मिला हो। इसके पीछे सिर्फ एक ही वजह थी और वह थी धनबाद माफिया सूर्यदेव सिंह की दहशत। भला जिंदा रहना कौन नहीं चाहता। कोयलांचल में चलनेवाले घपले की सच्चाई लिखने का साफ-साफ मतलब था सूर्यदेव सिंह के खिलाफ लिखना। और सूर्यदेव सिंह के खिलाफ लिखने का मतलब था अपनी जान से हाथ धो बैठना। यही वजह रही कि कोयलांचल का सच कभी बाहर नहीं आता था। वहां सिर्फ चारण की पत्रकारिता होती थी। आज भी कमोबेस या यूं कहें कि पूरी तरह पहले जैसी स्थिति ही कायम है। सूर्यदेव सिंह भले आज नहीं हैं पर उनका ‘सिंह मेनसन’ आज भी है और ‘सिंह मेनसन’ का भी कोयलांचल में वैसा ही दहशत कायम है। और तो और, ‘सिंह मेनसन’ के प्रतिद्वंद्वी ‘रघुकुल’ के बंदूक भी कोयलांचल में कुछ कम कहर नहीं बरपाते। इसलिए कोयलांचल का आज का मीडिया भी ‘सिंह मेनसन’ और ‘रघुकुल’ का चारण ही बनकर काम कर रहा है। यही सच्चाई है। कोयलांचल के किसी भी अखबार में ‘सिंह मेनसन’ और ‘रघुकुल’ के खिलाफ कभी भी एक शब्द नहीं छपता। यहां तक कि नेशनल मीडिया भी इनके खिलाफ कभी कुछ छापने की हिम्मत नहीं कर पाता। पीटीआई और यूएनआई जैसी ताकतवर नेशनल न्यूज एजेंसियां भी इन दोनों माफिया घरानों के खिलाफ कभी कुछ लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाती। हां, कोयलांचल के इन दोनों माफिया घरानों के लोगों के छींकने-खांसने तक की बातें आज भी रोज अखबारों की खबरें बनती ही हैं।
दरअसल, कुछ सिद्धांतवादी और कड़क पत्रकारों को छोड़ दें तो कोयलांचल के ज्यादातर स्थानीय पत्रकार चाहे वे वहां के स्थानीय अखबारों के हों या फिर वहां से छपनेवाले नेशनल अखबारों के, सभी एक सी ही मानसिकता के होते हैं और ‘सिंह मेनसन’ और ‘रघुकुल’ में जाकर चाय पी लेने भर को वे अपना अहोभाग्य समझ लेते हैं। धनबाद में ‘सिंह मेनसन’ और ‘रघुकुल’ में अक्सर जानेवाले दरबारी पत्रकारों की कमी नहीं है। कोयलांचल के इन माफिया घरानों को खाद-पानी देनेवाले कोयला कंपनी ‘भारत कोकिंग कोल लिमिटेड’ के सरकारी अफसरान भी इन पत्रकारों से वही सब कुछ और उतना कुछ ही बोलते हैं जो और जितना ये माफिया घराने उनसे कहलवाना चाहते हैं। कोयलांचल में घटित होनेवाला सच तो कभी बाहर ही नहीं आता। आने भी नहीं दिया जाता। और कोयलांचल के चारण पत्रकार उन सच्चाइयों का सूंघकर पता भी नहीं लगाना चाहते। वरना न्यूज एजेंसी पीटीआई का स्ट्रिंगर मात्र होना भी अपने आप में बहुत बड़ी बात होती है। पीटीआई में किसी के खिलाफ एक पैराग्राफ भी कुछ जारी हो जाना तख्ता पलट करवाने की औकात रखता है। पर जनमत अखबार के अपने संपादक रहे पीटीआई के धनबाद संवाददाता यूडी रावल साहब ने अपने जमाने में धनबाद माफिया सूर्यदेव सिंह के कारनामों के बारे में एक लाइन भी कभी नहीं लिखा। वे अगर चाह लेते तो धनबाद इधर से उधर हो सकता था। इसे चारण की पत्रकारिता ही तो कहेंगे। धनबाद कोयलांचल के बारे में कभी अगर किसी ने सच बात लिखी हो तो वह है विदेशी समाचार एजेंसी रॉयटर । रॉयटर ने ही ‘भारत कोकिंग कोल लिमिटेड’ के अफसरों से सच उगलवाया है। रॉयटर की रिपोर्टों से ही कोयलांचल को निगलने में इन माफिया घरानों और बीसीसीएल के अफसरों की मिलीभगत की कहानी अधिकृत रूप में दुनिया के सामने आ पाई।
– गणेश प्रसाद झा
आगे अगली कड़ी में....
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें