सोमवार, 21 मार्च 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 6

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की छठी किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 6

11. प्रेस परिषद का फैसला

जनमत अखबार के खिलाफ प्रेस काउंसिल में दायर किए गए इस मुकदमे की एक सुनवाई कलकत्ता के ग्रेट ईस्टर्न होटल में आयोजित हुई थी जिसमें मुझे हाजिर होने के लिए बुलाया गया था। मैं उस सुनवाई हाजिर हुआ था। उस सुनवाई में प्रेस परिषद की पूरी बेंच बैठी थी। बाद में इस मुकदमे में मेरी जीत हुई थी। फैसला मेरे पक्ष में आया था। फैसले में धनबाद जिला और पुलिस प्रशासन को गलत और कसूरवार ठहराया गया था। पर जनमत की नौकरी से निकाले जाने के मामले में प्रेस काउंसिल मेरी कोई मदद नहीं कर पाया क्योंकि प्रेस परिषद के चार्टर के मुताबिक जनमत का मुझे नौकरी से निकाल देना एक सर्विस मैटर था और यह उनके चार्टर से बाहर का विषय था। प्रेस परिषद ने मुझे बाकायदा पत्र लिखकर इसकी सूचना भी दी थी। यह फैसला 1986 में आया था।

12. पढाई और पत्रकारिता की सनक

रांची विश्वविद्यालय से मेरा रिश्ता पिता के रिटायरमेंट के साथ ही खत्म हो गया। बाद में बीए और एमए की पढ़ाई मैंने भागलपुर विश्वविद्यालय से पूरी की और अपनी पत्रकारिता को जारी रखते हुए पूरी की। हाथ मैंने कानून की पढ़ाई में भी आजमाया। भागलपुर विश्वविद्यालय के टीएनबी लॉ कॉलेज से एलएलबी कर रहा था। पर पटना के अखबार पाटलिपुत्र टाइम्र्स और फिर जनसत्ता चंडीगढ़ में नौकरी मिल जाने पर चंडीगढ़ चले जाने की वजह से कानून की पढ़ाई को पूरा नहीं कर पाया। एलएलबी अधूरी रह गई। इसका मुझे आज भी बहुत मलाल है। पत्रकारिता में एमए (एमजेएमसी) तो बहुत बाद में किया। जब मैं दैनिक जागरण, पटना में था तो नालंदा खुला विश्वविद्यालय से एमजेएमसी करने का मौका मिल गया।

उन दिनों भी हमारी पीढ़ी के पत्रकारों के लिए पत्रकारिता की पढ़ाई करना उतना महत्वपूर्ण नहीं होता था। पत्रकारिता के पेशे में आनेवाले नए-नए लड़के ऐसी डिग्रियां लेकर जरूर आया करते थे। जनसत्ता के दिल्ली संस्करण में काम करते हुए तो पत्रकारिता में एमए करके आनेवाले दर्जनों प्रशिक्षु पत्रकारों को न्यूज डेस्क पर काम करना सिखाने का मौका मिला। ऐसे प्रशिक्षु पत्रकारों को खबरों की एडिटिंग के तरीके और खास तौर पर एजेंसी की खबरों का अनुवाद और संपादन सिखाना होता था। य़ूएनआई और पीटीआई की अंग्रेजी खबरों का उनका किया हुआ अनुवाद छपने लायक नहीं होता था। उसे बहुत मांजना पड़ता था। कई दफा तो फिर से भी लिखना पड़ जाता था। इन समाचार एजेंसियों की हिन्दी की खबरों का उनका किया हुआ संपादन भी गड़बड़ ही होता था। खबरों की कंपाइलिंग तो उन प्रशिक्षुओं के बस की होती ही नहीं थी।

13. माफिया का अखबार

फरवरी 1984 में जनमत की नौकरी से निकाले जाने के बाद मैं अपने गांव लौट आया और एक दफा फिर पड़ाई-लिखाई और इसके साथ-साथ फ्रीलांसिंग पत्रकारिता का सिलसिला शुरू हो गया। तभी कुछ समय बाद 29 अक्तूबर 1985 को मुझे जनमत में मेरे साथी रहे गिरीश कुमार मिश्र का एक पोस्टकार्ड पत्र डाक से मिला। पत्र में गिरीशजी ने लिखा था, ‘बनखंडी मिश्र अपना पुराना अखबार दैनिक चुनौती का पुनर्प्रकाशन 23 अक्तूबर (विजयादशमी) से करने जा रहे हैं। बिहार बिल्डिंग झरिया में 2000 रुपए प्रतिमाह किराए पर इसका कार्यालय एवं प्रेस स्थापित किया गया है। दो लाख रुपए का एक नूतन फ्लैट मशीन मिश्रजी अमृतसर से लेकर आए हैं। एक लाख के आसपास नए टाइप वगैरह के लगे हैं। काफी सजधज के साथ दैनिक चुनौती अब आवाज एवं जनमत को चुनौती देने जनता के सामने आ रहा है। मैंने त्यागी जी से आपकी सेवाओं के लिए बात की है। आप मिश्रजी से पत्राचार करके आगे की स्थिति का खुलासा कर लें।‘ फिर मैंने गिरीशजी के कहे मुताबिक बनखंडी मिश्र जी को एक पत्र भेजकर उनके आनेवाले अखबार में काम करने की इच्छा जाहिर कर दी।

इसके बाद 14 नवंबर 1985 को मुझे गिरीश कुमार मिश्र का भेजा एक निमंत्रण पत्र डाक से मिला। यह निमंत्रण पत्र धनबाद जिले के झरिया शहर से एक नए दैनिक अखबार दैनिक चुनौती के प्रवेशांक के विमोचन समारोह का था जो 12 नवंबर 1985 को होने जा रहा था। निमंत्रण पत्र में लिखा था कि अखबार का यह विमोचन मजदूर नेता एवं झरिया विधानसभा क्षेत्र के विधायक सूर्यदेव सिंह करेंगे। निमंत्रण पत्र में अखबार के संपादक के रूप में बनखंडी मिश्र और प्रकाशक के रूप में अरुण कुमार त्यागी का नाम छपा था। इसके तुरंत बाद 17 नवंबर 1985 को गिरीशजी का एक और पोस्टकार्ड भी आया। पोस्टकार्ड में उन्होंने लिखा था, ‘कल आपके नाम एक टेलीग्राम प्रेषित किया है। यह पत्र भी लिख रहा हूं। पत्र पाने के साथ ही पूरी तैयारी करते हुए दैनिक चुनौती को अपनी सेवाएं देने आ जाइए। देर मत करिए। मैं यह पत्र मिश्रजी के आदेशानुसार भेज रहा हूं। मिश्रजी को आपका पत्र मिल गया है। आशा है आप पत्र पाने के साथ ही आ रहे हैं।‘ गिरीश जी का यह पोस्टकार्ड मिलने के बाद मैं झरिया रवाना हो गय़ा और दैनिक चुनौती में नौकरी शुरू कर दी।

दैनिक चुनौती को झरिया शहर से बनखंडी मिश्र पहले एक साप्ताहिक टेबलॉयड के रूप में निकालते थे। एक चवन्नी कीमत का उनका यह अखबार झरिया शहर में एक सांध्य दैनिक के रूप में खूब प्रचलित हो गया था। पर इसका प्रकाशन कुछ समय बाद बंद हो गया था। दैनिक चुनौती का दफ्तर झरिया शहर के बीचोबीच स्थित शहर के बहुचर्चित सिनेमा गृह बिहार टॉकीज की बिल्डिंग में था। झरिया मेरा बचपन का शहर था इसलिए मैं इस शहर और इस बिहार टॉकीज को बहुत अच्छे से जानता था। जल्दी ही समझ में आ गया कि अखबार धनबाद माफिया सूर्यदेव सिंह का ही है और सारा पैसा उन्हीं का लगा हुआ है। बनखंडी मिश्र अखबार के संपादक तो थे पर वे सिर्फ बराए नाम थे। शुरू में मेरे मित्र गिरीशजी को भी इस बात की भनक नहीं लग पाई होगी कि इस अखबार में धनबाद माफिया सूर्यदेव सिंह का पैसा लगा है। अखबार की संपादकीय पॉलिसी में सूर्यदेव सिंह के राजनैतिक रणनीतिकारों, गनरों, शूटरों और लठैतों का सीधा-सीधा दखल होता था। सूर्यदेव सिंह के एक खास आदमी और उनके गनर देवानंद सिंह मैनेजर के तौर पर अखबार के दफ्तर में बैठते थे। वही इस अखबार में सभी तरह के मैनेजर भी थे और एचआर भी। तनख्वाह देना और छुट्टियां मंजूर करना सब उन्हीं का काम होता था। मेरी तनख्वाह 500 रुपए इन देवानंद सिंह ने ही तय की थी। दफ्तर के रोजाना के छोटे-मोटे खर्चों के लिए भी पैसे वही देते थे। दफ्तर के रोज के चाय-पानी के लिए भी चायवाले को रोजाना पैसे वही दिया करते थे।

दैनिक चुनौती उस समय की पुरानी हेंड कंपोजिंग प्रिंटिंग तकनीक से छपता था। खबरें इधर-उधर के जुगाड़ से लेकर छापी जाती थी। समाचार एजेंसी की खबरों का प्रिंट कॉपी एजेंसी के दफ्तर से मंगाया जाता था। अखबार के दफ्तर में एजेंसी का टेलीप्रिंटर लगा हुआ नहीं था। मेरी जिम्मेदारी सिर्फ खबरें बनाने की थी। विज्ञापनों से मेरा कोई नाता नहीं होता था। एक दिन सूर्यदेव सिंह के मतलब का कोई विज्ञापन छपना था जो किन्हीं कारणों से नहीं छप सका था। शायद किसी चूक के कारण नहीं छप पाया था। पर मुझे इसकी कोई जानकारी नहीं थी। अगले दिन सूर्यदेव सिंह के एक खास गनर ज्ञानी झा उर्फ गिन्नी ने मुझे बिहार टॉकीज की उस बिल्डिंग की निचली मंजिल के अपने दफ्तर में बुलवाया और पूछा कि वह विज्ञापन क्यों नहीं छपा। मैंने उस बारे में अपनी अनभिज्ञता जताई तो वे मुझ पर आगबबूला हो गए और मुझपर चिल्लाकर बोले, ‘आगे से याद रखिएगा। अगर दोबारा कोई गलती हुई तो पंखे में उल्टा टांग देंगे। तुम जवाहर के भाई हो इसलिए आज छोड़ देते हैं।‘ ज्ञानी झा की इस धमकी से मैं बहुत डर गया। फिर भी किसी तरह काम करता रहा। कुछ दिनों बाद

 दफ्तर में संपादक बनखंडी मिश्र या फिर उनके किसी खास व्यक्ति के खिलाफ कुछ गंभीर आरोपों की कानीफूसी होने की घटना सुनाई पड़ी जो किसी तरह मैनेजर देवानंद तक भी पहुंच गई। देवानंद को लगा कि इस कानीफूसी के पीछे मैं ही हूं और उन्होंने मुझे यह कहकर नौकरी से निकाल दिया कि ‘जिस थाली में खाते हो उसी में छेद करते हो।‘ अचानक नौकरी से निकाले जाने की कोई वजह मुझे समझ नहीं आई क्योंकि मेरी तरफ से कोई गलती नहीं हुई थी। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था जो नौकरी से निकाले जाने की वजह बन सकती हो। सबकुछ ठीक-ठाक ही चल रहा था। फिर भी जब माफिया का ऐसा फरमान था तो नौकरी तो जानी ही थी। चली गई।

यहां मजे की बात यह थी कि ज्ञानी झा उर्फ गिन्नी मेरे बड़े सगे मौसेरे भाई जवाहरलाल झा के गांव राजपुर, जिला बांका के थे और उनका घर मेरी मौसी के घर के पास ही था। ज्ञानी झा और जवाहरलाल झा दोनों साथ ही खेले-कूदे और बड़े हुए थे। पर ज्ञानी झा ने सूर्यदेव सिंह के साथ रहकर झरिया कोयलांचल में अकूत पैसा कमाया था। उन्होंने सूर्यदेव सिंह की बदौलत झरिया में अपना एक साम्राज्य कायम कर लिया लिया था। जवाहर भैया उन दिनों धनबाद के ही ईस्ट गोपालीचक कोलियरी में सरकारी नौकरी करते थे। लिहाजा मुझे धमकाने की बात जब मेरे जवाहर भैया को पता चली तो उन्होंने गिन्नी से कहा,- ‘अरे गिनियां, तेरी इतनी हिम्मत रे जो मेरे भाई को धमका दिया।‘

14. बिहार टॉकीज की कहानी

माफिया नेता के गनर ज्ञानी झा का मुझे पंखे से उल्टा टांगने की धमकी देना माफिया नेता सूर्यदेव सिंह की टार्चर करने की पुरानी परंपरा की ही एक कड़ी थी। झरिया शहर में मैंने ढेरों लोगों के मुंह से सुना था कि बिहार टॉकीज और उसकी पूरी इमारत (बिहार विल्डिंग) को उसके मूल मालिक से सूर्यदेव सिंह ने जबरन लिखवाकर हथिया लिया था। यानी छीन लिया था। लोग बताते थे कि बिहार टॉकीज कलकत्ता के एक खदान मालिक की हुआ करती थी। मालिक और उसके बेटे को माफिया सूर्यदेव सिंह ने उसी इमारत में पंखे से उल्टा टांग दिया था औऱ फिर उन दोनों से पूरी इमारत का बिक्रीनीमा स्टांप पेपर पर लिखवा लिया था। बाप-बेटे से कहा गया था कि अगर जिंदा रहना चाहते हो तो चुपचाप अभी के अभी बिहार छोड़ दो। अगर बिहार में कहीं नजर आए तो जिंदा नहीं बचोगे। और यही हुआ भी था। दोनों बाप-बेटा चुपचाप अपने राज्य पश्चिम बंगाल लौट गए थे और वे दोबारा कभी बिहार नहीं आए। बिहार टॉकीज और उसकी पूरी इमारत को हथियाने के बाद सिनेमा हॉल से होनेवाली कमाई और इमारत से होनेवाली किराए की मोटी आमदनी भी माफिया नेता सूर्यदेव सिंह ही ले जाने लगे थे। पर सुनने में आया था कि कलकत्ता जाकर बिहार टॉकीज के मालिक ने वहां हाईकोर्ट में एक मुकदमा दायर कर दिया था।

बिहार टॉकीज का मुकदमा भी बड़ा दिलचस्प है। धनबाद के जानकार लोग बताते हैं कि बिहार बिल्डिंग मूल रूप से एक खदान ‘सेलेक्टेड झरिया कोलियरी कंपनी लिमिटेड’ के मालिक की संपत्ति थी। यह बिल्डिंग उन मालिक की एक कोलियरी इलाके में ही स्थित थी। यानी कोलियरी की जमीन पर ही थी। 1948 में यह कोलियरी (इसकी जमीन) उन्होंने झरिया के राजा शिब प्रसाद  सिंह के वारिस पुत्रों से खरीदी थी। बाद में इस कंपनी ने अपनी उस जमीन में से 3.65 बीघा जमीन (प्लॉट नंबर- 1013, मौजा- झरिया, जिला धनबाद) अपनी ही एक अलग कंपनी ‘झरिया टॉकीज एंड कोल्ड स्टोरेज प्राइवेट लिमिटेड’ को ट्रांसफर कर दी। इस कंपनी ने 1950 में बिहार सरकार से इजाजत लेकर सार्वजनिक मनोरंजन के लिए एक सिनेमा हॉल झरिया टॉकीज का निर्माण किया। बाद में उसका नाम बिहार टॉकीज रखा गया। कोयला खदानों का जब राष्ट्रीयकरण हुआ तो कोयला खदानों की तरह खदान की जमीन पर स्थित यह बिहार बिल्डिंग भी केंद्र सरकार के अधीन चली गई। तब इसका मालिकाना हक केंद्र सरकार की कंपनी ‘कोल इंडिया लिमिटेड’ की ईकाई- ‘भारत कोकिंग कोल लिमिटेड’ के पास चला गया। कलकत्ता हाईकोर्ट में दायर मुकदमे में उसके मालिकों ने तर्क दिया था कि मनोरंजन स्थल होने के कारण बिहार टॉकीज एक सार्वजनिक इस्तेमाल में आ रही संपत्ति थी इसलिए यह कोयला श्रेत्र के राष्ट्रीयकरण कानून के दायरे में नहीं आता। यह मुकदमा बहुत सालों तक चलता रहा और इस केस की फइलों पर कलकत्ता हाईकोर्ट और पटना हाईकोर्ट में सुनवाई चलती रही। अंत में फरवरी 1992 में कलकत्ता हाईकोर्ट की बड़ी बेंच का फैसला आया और यह फैसला बिहार टॉकीज के मूल मालिकों के पक्ष में गया और भारत कोकिंग कोल लिमिटेड की आखिरी अपील भी खारिज हो गई। पर तब तक अघोषित तौर पर इस बिहार टॉकीज पर सूर्यदेव सिंह और परिवार यानी उनके सिंह मेनसन का ही अवैध कब्जा कायम रहा और वही लोग बंदूक की नोक पर हर तरह से उसका निरंतर दोहन करते रहे बताते हैं।

दैनिक चुनौती के संपादक बनखंडी मिश्र दफ्तर में अक्सर अपने ही संपादकीय विभाग के पत्रकारों को बात-बात पर तरह-तरह से जलील और अपमानित किया करते थे। ऐसा करना उनकी आदत में शुमार था। पत्रकारों को वे सूअर और सूअर का बच्चा कहा करते थे। वे कोयलांचल के माफियों की बहुत तारीफ भी करने लगे थे। खासकर, सूर्यदेव सिंह और उनके छोटे भाई बच्चा सिंह की तो वे तारीफ करते अघाते नहीं थे। सूर्यदेव सिंह के महल ‘सिंह मेनसन’ की दिन में कई-कई बार तारीफ करना तो उनके लिए ईश्वर की आराधना करने जैसा पवित्र काम बन गया था। दफ्तर में अपने मातहत पत्रकारों के बीच ‘सिंह मेनसन’ और सूर्यदेव सिंह की चर्चा करते समय बनखंडी मिश्र काफी खुश नजर आते थे और उस समय उनका चेहरा काफी खिला-खिला होता था। कोयलांचल के काफी पुराने पत्रकार रहे बनखंडी मिश्र के मुंह से धनबाद माफिया सूर्यदेव सिंह के काले कारनामों के बारे में कभी एक शब्द नहीं निकलता था। उन दिनों उनके (बनखंडी मिश्र) काफी सारे धतकरम भी सुनने को मिल जाते थे। एक समय में झरिया के काफी जुझारू और साहसी पत्रकार रहे बनखंडी मिश्र का अब ऐसा आचरण क्यों हो गया था यह समझ से परे है। उन्हें जाननेवाले कुछ लोग बताते हैं कि निरंतर माफियों के बीच रहने और उनके संपर्क में आने और अपनी कमजोर आर्थिक परिस्थितियों की वजह से आखिरकार हारकर उन माफियों से ही समझौता कर लेने के बाद से उनमें माफियों वाले कई गुण समा गए थे। उन्हीं दिनों कलकत्ता से छपनेवाली हिन्दी समाचार पत्रिका परिवर्तन ने भी धनबाद कोयलांचल पर एक रिपोर्ट छापी थी जिसमें बनखंडी मिश्र के अखबार दैनिक चुनौती और उनके धतकरमों के बारे में काफी कुछ छपा था। बाद में झरिया के कुछ पुराने पत्रकार साथियों ने बताया था कि परिवर्तन के इस खुलासे से बनखंडी मिश्र सकते में आ गए थे और कई हफ्तों तक लाज के मारे घर से नहीं निकले थे। मेरे पुराने संपादक बनखंडी मिश्रजी अब काफी वयोवृद्ध हो गए हैं।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में...

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