रविवार, 13 मार्च 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 3

 एक पत्रकार की अखबार यात्रा की तीसरी किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 3

7. भारतीय प्रेस परिषद में मुकदमा

जनमत की नौकरी से निकाले जाने के बाद मैं मुंगेर अपने गांव लौट गया। कैदियों और पुलिसवालों के साथ हुई घटना और इसे लेकर जनमत प्रबंधन द्वारा अखबार की नौकरी से निकाले जाने के मामले की लिखित शिकायत मैंने भारतीय प्रेस परिषद से कर दी। प्रेस परिषद ने मेरी शिकायती चिट्ठी जनमत प्रबंधन को भेजकर उनसे मेरी शिकायत के तमाम पहलुओं पर  जवाब मांगा। जनमत प्रबंधन की ओर से प्रेस परिषद को भेजा गया जवाब झूठों का पुलिंदा था। पर जनमत प्रबंधन का यह जबाब काफी मजेदार था। अखबार प्रबंधन ने मुझ पर मेरे कामकाज को लेकर कई तोहमत लगाए। कोर्ट परिसर में कैदियों और पुलिस से मेरे साथ हुई झड़प के बारे में उन्होंने कहा कि मेंने अपनी इच्छा से कैदियों की तस्वीर खींची थी और अखबार की तरफ से मुझे वहां नहीं भेजा गया था। यह भी कहा कि जनमत में फोटो का ब्लॉक बनाने की व्यवस्था नहीं है इसलिए तस्वीरों से अखबार का कोई लेनादेना नहीं होता। जनमत प्रबंधन ने अपने जबाब में यह भी कहा कि कैदियों और पुलिसवालों से झड़प के बाद मैं काफी डर गया था और आतंकित हो गया था और इसी डर की वजह से मैंने चुपचाप नौकरी छोड़ दी और अखबार प्रबंधन को बिना कुछ बताए धनबाद छोड़कर भाग गया।

जनमत प्रबंधन ने प्रेस परिषद को भेजे अपने जवाब में लिखा कि जनमत को मात्र दो श्रमजीवी पत्रकार मिलकर निकालते हैं और खबरों का संपादन संबंधी अधिकांश काम भी यही दोनों मिलकर कर लेते हैं। यह भी कि उनके अखबार में उप संपादक सरीखा कोई पत्रकार नहीं है। पर यह सरासर झूठ था। जनमत पूरे छह पेज का निकलता था। यह कभी संभव नहीं था कि दो लोग मिलकर रोजाना पूरे छह पेज की सामग्री लिख लें और फिर उसे संपादित भी कर लें। सच तो यह था कि सतीश चंद्र प्रतिदिन सिर्फ दो कॉलम का संपादकीय और एक कॉलम के आसपास एक व्यंग्य ‘गुरु चेला संवाद’ लिखते थे। अखबार की बाकी तमाम सामग्री तैयार करना वहां काम करनेवाले 8 उप संपादकों की टीम के जिम्मे होता था। अखबार के संपादक यूडी रावल तो शायद ही कभी कुछ लिखते थे। इसके अलावा अगर ये दोनों कुछ लिखते थे तो वह उनके उन अखबारों के लिए रिपोर्टिंग होती थी जिसके वो संवाददाता नियुक्त थे।

जनमत प्रबंधन ने अपने जवाब में एक झूठ यह भी लिखा कि मेरी नियुक्ति एक प्रशिक्षु पत्रकार के रूप में अवैतनिक रूप में हुई थी। पर सच तो यह था कि मुझे 250 रुपए की तनख्वाह मिलती थी। मैंने तो बाकायदा उप संपादक पद की रिक्तियों के विज्ञापन को देखकर अपना आवेदन भेजा था। जनमत संपादक ने पत्र लिखकर मुझे उप संपादक के इंटरव्यू के लिए बुलाया था। वहां मेरे जैसे और भी कई पत्रकार थे और उनलोगों की तनख्वाह भी 250-300 रुपए माहवार थी।

8. प्रेस परिषद को जनमत का जवाब

इस मुकदमे में मेरी शिकायत पर जनमत प्रबंधन की ओर से दिनांक 09 नवंबर, 1984 को अपने लेटर हेड पर भारतीय प्रेस परिषद को भेजा गया जवाब कुछ इस तरह था-

सेवा में,

उप सचिव,

प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया

नई दिल्ली- 110001

विषय- आपका पत्रांक- 13/31/34 सेक्ट

महाशय,

आपके उपर्युक्त पत्र के संबंथ में निवेदन है कि दैनिक जनमत बिल्कुल नया पत्र है और दो श्रमजीवी पत्रकारों द्वारा चलाया जा रहा है। संपादन संबंधी अधिकांश कार्य वे स्वयं करते हैं।

डा. गणेश प्रसाद झा नामक सज्जन अक्तूबर, 1983 के प्रथम सप्ताह में जनमत कार्यालय आए और पत्रकारिता के प्रशिक्षण के लिए अवैतनिक कार्य करने की पहल की। उन्होंने अपने को डिग्रीधारी और साहित्य में डॉक्टरेट बतलाया। उनकी बातों पर विश्वास कर हमने उन्हें प्रशिक्षणार्थी के रूप में काम करने की अनुमति दी इस शर्त के साथ कि उनकी योग्यता सही साबित हुई और वे काम के योग्य पाए जाएंगे तभी उनकी नियुक्ति के प्रश्न पर विचार किया जाएगा।

डा. झा ने कार्य प्रारंभ करते ही समाचार देना और अनुशासनहीनता दिखाना शुरू किया। जैसा कि डा. झा ने स्वयं आपके नाम प्रेषित अपने पत्र में स्वीकार किया है। उसने 7 अक्तूबर से कार्य प्रारम्भ किया और 11 अक्तूबर को ‘राजीव गांधी के स्वागत की तैयारी में कालीन खरीद पर हजारों रुपए स्वाहा’ शार्षक अनर्गल और बेबुनियाद समाचार दे दिया जो शत प्रतिशत झूठा समाचार साबित हुआ। उस गलत समाचार के कारण हमें बहुत आघात लगा। डा. झा को श्री राजीव गांधी की सभा का समाचार लाने हेतु भेजा गया, मगर वे वहां से सीधे अपने घर चले गए, जहां से दशहरे के बहुत दिन बाद वापस लौटे और उसके तुरंत बाद संपादकीय विभाग के दो प्रशिक्षणार्थियों में अनुशासनहीनता भरने के लिए जनमत में एक गलत समाचार छाप दिया जिसमें जनमत के वरिष्ठ पत्रकारों के साथ-साथ धनबाद के तमाम वरिष्ठ पत्रकारों पर झूठे आरोप लगाए गए। पूछने पर पता चला कि जिस बैठक का समाचार छपा, वह बैठक हुई ही नहीं थी। डा. झा ने दो प्रशिक्षणार्थी सहकर्मियों को गलत ढंग से फुसला कर गलत समाचार 9 नवंबर, 1983 के अंक में प्रकाशित करा दिया, जिसकी कतरन संलग्न है।

इन कारणों से हमने प्रारंभ में ही उन्हें कार्यमुक्त करने का निर्णय लिया, जिसका उल्लेख डा. झा ने आपके पास प्रेषित पत्र में इस तरह किया है- “मुझे नौकरी से निकालने की कौड़ी कमोबेश मेरी नियुक्ति के समय से ही चली जाने लगी थी।“

निश्चित है कि कार्य प्रारंभ करते-करते जो इतनी अनुशासनहीनता और गैर जिम्मेदारी बरते उसे कोई भी अपने यहां रखना नहीं चाहेगा। फिर भी डा. झा के विशेष अनुरोध पर उन्हें प्रशिक्षण पाने की सुविधा हम देते रहे। मगर उन्होंने अपने आचरण में कोई सुधार नहीं किया। हमारे यहां  ब्लॉक बनाने की व्यवस्था नहीं है। इसलिए चित्रों से हमारा मतलब नहीं होता। 1 फरवरी को जिस छायांकन को लेकर पुलिस से उनका झगड़ा हुआ, उस छायांकन से भी हमारा कोई संबंध नहीं था। उस घटना के बाद वे स्वयं आतंकित हो गए और प्रबंधन को कोई सूचना दिए वगैर चले गए। चूंकि वे हमारे यहां प्रशिक्षणार्थी थे और तीन महीने तक भी काम नहीं किया था, इसलिए न तो उन्हें उपसंपादक का पद दिया गया था, न उनकी नौकरी का स्थायीकरण हुआ था। स्थायीकरण के लिए कम से कम छह महीने की निरंतर और दोषरहित सेवा आवश्यक होती है, जो डा. झा के साथ नहीं हो पाया।

बाद में यह भी पता चला कि डा. झा स्नातक भी नहीं हैं और अपने नाम के साथ जो डाक्टर उपाथि लिखते हैं वह होमियोपैथी डाक्टरी की उपाधि है।

इस तरह डा. झा ने जो भी आरोप लगाए हैं, वे सारे बेबुनियाद आरोप हैं। संपादन कार्य के लिए वे शैक्षणिक रूप से अयोग्य, अनुशासनहीन और अमर्यादित व्यक्ति हैं। ये न तो जनमत में उप संपादक के पद पर थे, न उनकी नौकरी का पुष्टिकरण हुआ था। फिर पुलिसवालों से मारपीट कर वे स्वयं डर कर शहर छोड़कर चले गए। हम यों भी उनकी शैक्षणिक अयोग्यता, गलत रिपोर्टिंग, अनुशासनहीनता, गैर जिम्मेदारी आदि के कारण उनकी सेवा के पुष्टिकरण के पक्ष में नहीं थे।

आशा है, इस पत्र द्वारा स्थिति स्पष्ट हो गई होगी।

आपका विश्वासी,

यूडी रावल

संपादक

इस चिट्ठी पर प्रेस परिषद का इंदराज नंबर- (PCI. Dy. No.-1601, Dated- 14/11/84.)

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में...



1 टिप्पणी:

  1. झा जी आप अच्छा लिख रहे हैं। इसे जारी रखें। मैं आपके सभी आलेख पढ़ रहा हूँ।

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