सोमवार, 28 मार्च 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 8


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की आठवीं किश्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 8

17. प्रादेशिक अखबार में नौकरी

धनबाद के क्षेत्रीय अखबार दैनिक चुनौती में माफिया नेता के गनर ज्ञानी झा उर्फ गिन्नी की धमकी मिलने के बाद से ही मैं वहां से जल्द से जल्द निकलने की फिराक में था। मैनेजर देवानंद सिंह के निस्कासन आदेश ने इसमें एक ट्रिगर का काम किया औऱ मैंने तुरंत पटना के अखबार पाटलिपुत्र टाइम्स में उप समाचार संपादक रह चुके और उस समय इलाहाबाद की प्रतिष्ठित मासिक समाचार पत्रिका माया के राज्य ब्यूरो प्रमुख विकास कुमार झा को पटना ट्रंक कॉल पर फोन लगाया और उनको नौकरी छिन जाने की बात बताई। विकास जी ने मुझे तत्काल पटना बुलाया और पटना से प्रकाशित राष्ट्रीय अखबार आज के स्थानीय संपादक सत्य प्रकाश असीम के पास भेज दिया। विकास जी ने असीम जी से मेरे बारे में पहले ही बात कर ली थी इसलिए मुझे जाते ही नौकरी पर रख लिया गया। न कोई टेस्ट और न कोई इंटरव्यू। आज देश का बहुत पुराना और विश्वसनीय मल्टी एडीशन अखबार था इसलिए उसका न्यूज नेटवर्क भी काफी बड़ा था। आज उन दिनों भी फोटो टाइपसेटिंग तकनीक से छपता था। जनमत और दैनिक चुनौती की तरह हेंड कंपोजिंग से नहीं। आज काफी पुराना अखबार है और यह उन दिनों पटना ही नहीं, पूरे बिहार में एक प्रतिष्ठित और चर्चित अखबार हुआ करता था। बिहार की हिन्दी पत्रकारिता के कई बड़े नाम वहां काम करते थे। वहां डेस्क पर भी कई विद्वान और अच्छे पत्रकार साथी मिले। आज में कई समाचार एजेंसियों की टेलीप्रिंटर सेवाएं ली जाती थी इसलिए वहां रहकर मुझे और ज्यादा सीखने का मौका मिला। हिन्दी-अंग्रेजी की कई-कई समाचार एजेंसियों की खबरों को एक लाथ मिलाकर खबरों की विस्तृत कंपाइलिंग और उनकी एडिटिंग का काम सीखने का अवसर भी मिला। आज का अपना निजी समाचार नेटवर्क भी किसी समाचार एजेंसी की तरह ही काफी बड़ा था, खासकर हिन्दी भाषी राज्यों में जहां जिलों से लेकर प्रखंडों और कस्बों तक में उनके अपने संवाददाता काम करते थे।

पटना में आज का दफ्तर रेलवे स्टेशन के पास ही फ्रेजर रोड पर था और उससे लगभग तीन-चार किलोमीटर के फासले पर कदमकुआं में शहर के नए बहुचर्चित अखबार पाटलिपुत्र टाइम्स का दफ्तर था। पाटलिपुत्र टाइम्स में मैं बहुत पहले से लिखता-छपता था और वहां के संपादक से लेकर डेस्क और रिपोर्टिंग के तमाम लोगों से बहुत अच्छी पहचान बन गई थी। पाटलिपुत्र टाइम्स में कई ऐसे पत्रकार भी थे जो दूसरे राज्यों से आए थे। संपादक माधवकांत मिश्र उत्तर प्रदेश के थे जो दिल्ली की बहुचर्चित पत्रिका सूर्या इंडिया से लाए गए थे। डेस्क पर हिन्दी भाषा में बिल्कुल मंजे हुए पत्रकार अवधेश प्रीत तब के मद्य प्रदेश और अब के छत्तीसगढ़ के बीसलपुर से थे। अखबार में बहुत ही सौहार्दपूर्ण माहौल था जो अमूमन कम ही जगहों पर देखने को मिलता है। आज में काम करते हुए भी मैं किसी-किसी दिन खाली समय में टहलते हुए पाटलिपुत्र टाइम्स भी चला जाया करता था। मेरे धनबाद से पटना आ जाने और मुझे आज में नौकरी मिल जाने से पाटलिपुत्र टाइम्स में लगभग सभी को खुशी हुई थी। अखबार के समाचार संपादक और मेरे बड़े भाई के तुल्य ज्ञानवर्धन मिश्र और डेस्क के कुछ साथियों ने तो कहा था, चलिए धनबाद माफिया के अखबार दैनिक चुनौती से आपका पिंड छूट गया।

आज में काम करते हुए चंद हप्ते ही बीते थे, महीना भी पूरा नहीं हुआ था कि मैं एक दिन फिर दोपहर को यूं ही टहलते हुए पाटलिपुत्र टाइम्स के दफ्तर चला गया था। संपादकीय विभाग में दाखिल होते ही समाचार संपादक ज्ञानवर्धन मिश्रजी ने मेरी तरफ देखकर हंसते हुए कहा, आईए गणेशजी, मेरे पास बैठिए। मैंने उनको प्रणाम किया और उनके पास एक खाली कुर्सी पर बैठ गया। फिर ज्ञानवर्धन भैया बोले, गणेशजी, आज से और अभी से आपको यहीं काम करना है। असीम जी को मैं बता दूंगा और मना भी लूंगा, आप उसकी चिंता न करें। उनकी इस बात पर मै हक्का-बक्का रह गया। मुझे तो कुछ कहते ही नहीं बन रहा था। ज्ञानवर्धन भैया ने बगल में डेस्क पर बैठे चीफ सब एडीटर (मुख्य उप संपादक) महेंद्र श्रीवास्तव जी से कहा, महेंद्र भैया, गणेश जी को खबर दीजिए। ज्ञानवर्धन भैया को ऐसा कहते ही महेंद्र भैया ने मुझे एजेंसी की एक खबर पकड़ा दी। मेरी पीठ पर ज्ञानवर्धन भैया आकर खड़े हो गए। उनका दोनों हाथ मेरे दोनों कंधों पर था। मैं खबर बनाने लगा। मन में खुशी भी हुई कि चलो जिस अखबार में इतने समय से लिख-छप रहा हूं और नौकरी करने की इच्छा भी पाल रहा था उसी में नौकरी मिल गई और चिंता यह हो रही थी कि धनबाद से निकालकर मुझे राजधानी पटना लानेवाले विकास कुमार मिश्र जी और सत्य प्रकाश असीम जी क्या सोचेंगे। उन दोनों के सामने तो मैं मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहूंगा। यही सब सोचते हुए मैं लगातार खबरें बनाता जा रहा था। तभी संपादक विनोदानंद ठाकुर वहां आ गए और उन्होंने मेरा स्वागत करते हुए और मुझे बधाई देते हुए कहा कि दस दिनों के भीतर वे मुझे नियुक्ति पत्र दे देंगे। और इस तरह मैं पटना के बहुचर्चित अखबार पाटलिपुत्र टाइम्स का पत्रकार बन गया।

पाटलिपुत्र टाइम्स में मुझे अचानक और बिना किसी परिश्रम के नौकरी मिल गई थी। उन दिनों पटना से बिड़ला ग्रुप के दो अखबार निकलते थे। अंग्रेजी में द सर्चलाइट और हिन्दी में प्रदीप छपता था। और उन दोनों अखबारों को बंद कर उनकी जगह अंग्रेजी में हिन्दुस्तान टाइम्स और हिन्दी में हिन्दुस्तान का प्रकाशन शुरू हो गया था। यह परिवर्तन मेरे पाटलिपुत्र टाइम्स की नौकरी शुरू करने के ठीक एक दिन पहले ही हुआ था। इस मौके पर अचानक एक दिन पहले ही पाटलिपुत्र टाइम्स के ज्यादातर पत्रकार नौकरी छोड़कर बिड़लाजी के अखबार में नौकरी करने चले गए थे। यह सब अचानक और एक ही झटके में हुआ था। पाटलिपुत्र टाइम्स में काफी कम पत्रकार बचे रह गए थे। अखबार निकालने के लिए लोग कम पड़ रहे थे। और यही मुख्य वजह थी जो मुझे वहां बिना किसी परिश्रम के आसानी से और तत्काल नौकरी पर रख लिया गया था। पर मेरे लिए तो यह एक शौभाग्य ही साबित हो रहा था। वजह जो भी हो, पर मैं तो इसे ज्ञानवर्धन भैया की असीम कृपा ही मानता हूं। वरना मेरी जगह कोई और भी हो सकता था। पटना में तो उन दिनों भी ढेरों अच्छे नौजवान फ्रीलांसर्स थे जो हमेशा नौकरी पाने के लिए प्रयासरत रहते थे। ज्ञानवर्धन भैया हमेशा से एक अभिभावक जैसा ही अपनत्व रखते थे। जिस समय मैं पाटलिपुत्र टाइम्स का कर्मचारी नहीं था और सिर्फ एक फ्रीलांसर की हैसियत से वहां लिखता-छपता था उस समय भी वे मेरे अभिभावक ही थे। आज भी वे जब भी मिलते हैं या फोन करते हैं तो इसी हैसियत से मिलते और बात करते हैं।

पाटलिपुत्र टाइम्स की नौकरी काफी आनंददायक थी। अखबार का माहौल भी सुखद था। वहां रहकर मैंने एजेंसी की खबरों के संपादन में परिपक्वता और महारत हासिल की और कई बार अच्छी और बहुचर्चित पॉलिटिकल और क्रिमिनल आउटडोर रिपोर्टिंग भी की। मनमाफिक लिखा और छपा भी। इस अखबार ने मुझे पत्रकारिता में एक नई ऊंचाई दी। अगर मेरी याददाश्त सही है तो मेरे पाटलिपुत्र टाइम्स में रहते हुए ही न्यूज एजेंसी पीटीआई ने अपनी हिन्दी समाचार सेवा पीटीआई भाषा की शुरुआत की थी। बाद में इस समाचार सेवा का नाम सिर्फ भाषा हो गया।

18. हत्याकांड की खबर और माफिया की धमकी

पाटलिपुत्र टाइम्स की नौकरी के दौरान मेरे गृह जिले मुंगेर के तारापुर में चार लोगों की हत्या की एक सनसनीखेज घटना हुई। इस सामूहिक हत्याकांड में तारापुर के विधायक शकुनी चौधरी का नाम आया था। मामला पॉलिटिकल था और मेरे इलाके का था इसलिए अखबार नें मुझे वहां रिपोर्टिंग के लिए भेज दिया। शकुनी चौधरी की छवि एक माफिया नेता की थी और उनपर पहले भी कई बार हत्या के आरोप लग चुके थे। पहले वे सेना में थे और उनके बारे में कहा जाता था कि वे सेना की नौकरी छोड़कर भाग आए थे। लोग कहा करते थे कि वे सेना के भगोड़े थे। अखबार के एसाइनमेंट पर मैं तारापुर गया और उन लोगों के घर भी गया जिनकी हत्या हुई थी। मेरी रिपोर्ट भी इसी लाइन पर निकल कर आई। पर मुझपर जान का खतरा भांप कर चीफ सब महेंद्र भैया (महेंद्र श्रीवास्तव) ने खबर में मेरी बाईलाइन नहीं जाने दी। खबर पाटलिपुत्र संवाददाता के नाम से छपी। खबर 13 जनवरी, 1987 को छपी और उसकी जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई, खासकर तारापुर और पटना के राजनैतिक गलियारों में।

सामूहिक हत्याकांड की इस खबर के छपने के चंद दिनों बाद 03/03/1987 को पटना में अखबार के दफ्तर के पते पर मेरे नाम लिफाफे में एक चिट्ठी आई जिसमें मुझे सीधे-सीधे सपरिवार जान से मार डालने की धमकी दी गई थी। हाथ से लिखी गई इस चिट्ठी में लिखनेवाले ने अपना नाम कारू सिंह लिखा था। उस समय कारू सिंह विधायक शकुनी चौधरी के गनर हुआ करते थे। पत्र में लिखा था कि अगर मैंने आगे से कभी कारू सिंह और विधायक शकुनी चौधरी के खिलाफ कुछ भी लिखा तो मुझे और मेरे परिवार के लोगों की हत्या कर दी जाएगी। पत्र में कारू सिंह ने लिखा था कि उन्होंने तारापुर पुलिस को पैसे देकर चार लोगों की हत्या कराई है और अब जो कुछ भी होगा वह पुलिस का होगा। पत्र में आगे लिखा था कि कारू सिंह के हर काम में विधायक शकुनी चौधरी शामिल होते हैं।

कारू सिंह की धमकी वाली हाथ से लिखी गई उस चिट्ठी का मजबून कुछ इस तरह था-

 सेवा में,

श्री गणेश प्रसाद झा जी

उप संपादक, पाटलिपुत्र टाइम्स

आपसे मेरा कहना है कि आप अपने को बड़ा नहीं समझें अन्यथा आपका घर भी संग्रामपुर में है और आप बराबर मेरे बारे में अखबार में कुछ लिख देते हैं। मैंने कुछ भी किया उससे आपको क्या मतलब। अगर मैं चार आदमी को पुलिस से मिलकर मरवाया तो मुफ्त में नहीं। वह लोग मेरे जान के पीछे था। और तारापुर पुलिस जब सारा काम किया फिर मेरा नाम क्यों। तुमको पता नहीं की हमारे डर से तारापुर का कोई जनता नहीं बोल सकता है और पुलिस भी हिम्मत नहीं कर सकती है। अभी तारापुर के प्रखंड विकास पदाधिकारी भी तुम्हारे जैसै बम बम कर रहे थे। एक रोज जब उनसे मैंने मुलाकात कर लिया आज देखो 15 लाख रुपए का सारा काम मुझे दिए। तुम्हें यद दिला देता हूं मैंरे सब काम में विधायक जी साथ हैं, चाहे वह ठीकेदारी हो चाहे और भी कोई काम हो तथा यह भी जान लो मैं एस.यू.सी.आई पार्टी का भी सदस्य हूं और कॉमरेड मिथिलेश सिंह भी मेरे लिए सबकुछ कर सकता है। अभी तो प्रमुख तथा नारायण यादव एवं तरिणी सिंह हमारे खिलाफ हैं। मेरा क्या बिगाड़ सकते हैं। तुम यदि अपना खैर चाहते हो तो मेरे तथा विधायक के बारे में कुछ नहीं निकालो और नहीं इस पत्र का जिक्र किसी से करो वरना तुम्हारा सारा घर परिवार उजड़ जाएगा। और कोई अखबार तुम्हें मदद नहीं करेगा। अगर इस कांड में कुछ होगा तो पुलिस को होगा। हमको क्या मतलब है। आगे अब तुम जानो सोच समझ कर काम करो।

तुम्हारा,

कारू सिंह

(अंग्रेजी में हस्ताक्षर)

इस खबर को अगले दिन 7 मार्च, 1987 को पटना में समाचार एजेंसी यू.एन.आई ने कुछ इस तरह जारी किया-

PRIORITY

PN FOUR

THREATENING

PATNA, MAR 7 (UNI) MR GANESH PRASAD JHA A SUB- EDITOR OF LOCAL HINDI DAILY “PATLIPUTRA TIMES” HAS RECEIVED A LETTER THREATNING TO KILL HIM AND HIS FAMILY.

MR JHA IN A STATEMENT TODAY ALONGWITH THE COPY OF THE LETTER SAID THAT THIS WAS A SEQUEL TO HIS REPORT IN NEWSPAPER POLICE ENCOUNTER ON JANUARY 13 RPT ONE THREE ALLEGING THAT THE ENCOUNTER WAS FAKE AND DONE IN CONNIVANCE WITH AN INDEPENDENT MLA SAKUNI CHOUDHARY AND HIS RIGHTHAND KARU SINGH.

THE LETTER BEARING THE NAME OF KARU SINGH SAID THAT ANY ATTEMPT TO MALIGN THE NAME OF MR CHOUDHARY AND HIS NAME WILL ONLY LEAD TO HIS DEATH AND HIS FAMILY.

MR JHA WHO INCIDENTALLY HAILS FROM THE SAME VILLAGE TO WHICH MR CHOUDHARY AND MR SINGH BELONG SAID HIS FAMILY WAS IN DANGER WHO HAS SOUGHT IMMEDIATE PROTECTION FROM THE GOVERNMENT. UNI  SK . ANJ 1545.

--

CA 21

THREATNING

PATNA, MAR 7 (UNI) MR GANESH PRASAD JHA, A SUB-EDITOR OF LOCAL HINDI DAILY +PATLIPUTRA TIMES+ HAS RECEIVD A LETTER THREATNING HIM AND MEMBERS OF HIS FAMILY WITH DEATH.

IN A STATEMENT ALONG WITH THE COPY OF THE LETTER MR JHA SAID TODAY THAT HE HAD FILED A REPORT ON TARAPUR POLICE ENCOUNTER ON JANUARY 13 RPT ONE THREE STATING THAT THE ENCOUNTER WAS FAKE AND DONE IN CONNIVANCE WITH AN INDEPENDENT MLA SAKUNI CHOUDHURY AND HIS RIGHTHAND KARU SINGH.

THE LETTER BEARING THE NAME OF KARU SINGH SAID THAT ANY  +ATTEMPT TO MALIGN HIM AND MR CHOUDHURY WILL ONLY LEAD TO HIS DEATH AND  HIS FAMILY+.

MR JHA SOUGHT PROTECTION FROM THE GOVERNMENT. UNI SK MM KLC

1832

शकुनी चौधरी के गुर्गे कारू सिंह की इस धमकी वाली चिट्ठी से पाटलिपुत्र टाइम्स के संपादक और समाचार संपादक भी डर गए। उन्हें मेरी और मेरे परिवारजनों की सुरक्षा की काफी चिंता हो गई। उन्होंने इस मामले में अखबार में कुछ भी न छापने को कहा और मुझे इस मामले में चुप ही रहने की सलाह दी। पर मेरा मन नहीं मान रहा था। मैंने अगले दिन एक चिट्ठी तैयार की और चमकी वाली चिट्ठी को उसके साथ नत्थी कर पटना में दोनों समाचार एजेंसियों यूएनआई और पीटीआई को दे आया। थोड़ी ही देर में दोनों समाचार एजेंसियों ने खबर जारी कर दी। तब जाकर पाटलिपुत्र टाइम्स के समाचार संपादक ज्ञानवर्धन भैया (ज्ञानवर्धन मिश्र) इस खबर को छापने को राजी हुए और मुझे भी अपने अखबार के लिए एक अच्छी खबर लिख देने को कहा। अगले दिन पटना के तमाम अखबारों में और दिल्ली और कलकत्ता के भी लगभग सभी हिन्दी और अंग्रेजी के अखबारों में यह खबर छपी थी। उन दिनों पटना में विधानसभा का सत्र भी चल रहा था। लिहाजा सभी अखबारों के पत्रकारों ने तारापुर के निर्दलीय विधायक शकुनी चौधरी से इस पर सवाल पूछ दिया। शकुनी चौधरी धमकी देने या दिलवाने वाली बात से साफ मुकर गए। कारू सिंह का उन्होंने बचाव किया और कहा कि कारू सिंह ऐसा नहीं कर सकता। उन्होंने कहा कि यह चिट्ठी किसी की शरारत हो सकती है और उनका इसमें कोई हाथ नहीं है। उन्होंने अपने बयान में यह भी जड़ दिया कि अगर गणेश झा यह साबित कर दें कि उन्हें धमकी दिलवाने में शकुनी चौधरी का हाथ है तो वे राजनीति से संन्यास ले लेंगे। और अगर गणेश झा अपने इस आरोप को साबित नहीं कर सकें तो वे अपनी पत्रकारिता से संन्यास ले लें। बाद में इस पूरे प्रकरण और तारापुर में विधायक शकुनी चौधरी की माफियागीरी के आतंक की खबर को पटना के कई साप्ताहिक टेबलॉयड्स ने भी छापा।

इस खबर की वजह से कुछ समय बाद मेरे प्रति शकुनी चौधरी के व्यवहार में काफी नरमी आ गई और कटुता धीरे-धीरे खत्म हो गई। फिर वे मित्रवत हो गए। शकुनी चौधरी कुछ समय तक लोकसभा के सांसद भी रहे। वे 1998-99 में समता पार्टी के टिकट पर बिहार के खगड़िया लोकसभा सीट से सांसद चुनकर आए थे। सांसद रहते एक बार उन्होंने दिल्ली में मुझे अपने सरकारी आवास पर खाने पर भी आने को कहा था। उस समय मैं जनसत्ता में था। अब कई बार जब उनसे किन्हीं सार्वजनिक आयोजनों पर मुलाकातें होती हैं तो वे कभी-कभी उस पुरानी खबर का जिक्र करके ठहाके लगाने से भी नहीं चूकते। अपने राजनैतिक कैरियर की शुरूआत में निर्दलीय चुनाव लड़कर विधानसभा पहुंचनेवाले शकुनी चौधरी ने समता पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (युनाइटेड) और हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा में रहकर राजनीति की। शकुनी चौधरी ने अभी कुछ साल पहले राजनीति से संन्यास ले लिया है। अब उनके पुत्र सम्राट चौधरी कई सालों से राजनीति में हैं और अभी बिहार विधानपरिषद के विधायक और सरकार में पंचायतीराज मंत्री हैं। शकुनी चौधरी की पत्नी पार्वती देवी भी तारापुर सीट से विधायक रहीं हैं।

– गणेश प्रसाद झा


आगे अगली कड़ी में...

गुरुवार, 24 मार्च 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 7

 एक पत्रकार की अखबार यात्रा की सातवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 7

15. कोयले की काली कमाई और अपराध का सिंडिकेट

नेशनल मीडिया में धनबाद माफिया के नाम से कुख्यात रहे सूर्यदेव सिंह एक खूंखार किस्म के व्यक्ति थे और बंदूक के बल पर पूरे धनबाद कोयलांचल पर उनका नियंत्रण यानी आतंक कायम था। कोयले की दलाली में अपराध का उनका एक बड़ा और ताकतवर सिंडिकेट काम करता था। इस सिंडिकेट के नियंत्रक थे खुद सूर्यदेव सिंह और इस नेटवर्क का मुख्यालय था उनका महल ‘सिंह मेनसन’। उन दिनों बाहूबली शब्द प्रचलन में नहीं आया था पर यह शब्द सूर्यदेव सिंह के सामने काफी बौना पड़ता था। इसी से आप अंदाजा लगा लीजिए कि सूर्यदेव सिंह का टेररिस्तान कितना बड़ा और व्यापक था। पूरे धनबाद कोयलांचल से उत्पादित कोयले का 40 से 50 फीसदी हिस्सा अघोषित रूप से सूर्यदेव सिंह की झोली में चला जाता था। यह एक तरह की कोयला चोरी होती थी पर यह खुलेआम होती थी। इसमें चोरी-छिपे जैसा कुछ भी नहीं होता था। इसमें कोयला क्षेत्र की सरकारी कंपनी बीसीसीएल (भारत कोकिंग कोल लिमिटेड) के छोटे से लेकर आला अफसर तक हर कोई शामिल होता था और इस चोरी में सबको हिस्सा मिलता था। एक मोटे उनुमान के मुताबिक धनबाद कोयलांचल से देश के कुल कोयला उत्पादन का लगभग 80 फीसदी कोयला प्राप्त होता है। ऐसे में आप कल्पना कर सकते हैं कि कुल उत्पादन का आधा कोयला माफिया सूर्यदेव सिंह झटक ले जाते थे तो उनको उससे हर महीने और हर साल कितनी अवैध यानी काली कमाई होती होगी।

धनबाद कोयलांचल में कोयले की काली कमाई उस समय नहीं थी जब कोयला खदान निजी मालिकों के थे। उस समय कोयला मजदूरों की यूनियनों का संचालन करने के नाम पर गुंडागीरी करनेवाले कुछ गुंडे जरूर थे जो खदान मजदूरों से मेंबरशिप फीस के नाम पर मिलनेवाली रकम पर पलते और ऐश करते थे। पर कोयला खदानों पर उनका कोई नियंत्रण नहीं होता था। तब के खदान मालिक उन्हें कुछ हप्ता देकर शांत कर लेते थे। वे गुंडे कोयले में कोई हिस्सेदारी नहीं ले पाते थे। ऐसे गुडों में उस समय के छद्म मजदूर नेताओं बीपी सिंह, एके राय और एसके राय का नाम लिया जाता है। कोयले की संगठित लूट 1971 में कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण के कुछ सालों बाद से शुरू हुई जब इन छद्म मजदूर नेताओं को लगा कि कोयले से मोह पालनेवाले निजी खदान मालिक अब बेदखल हो चुके हैं और सरकार के कोयला अफसरों में कोयले और खदानों के प्रति कोई मोह नहीं हैं और ये अफसरान कमीशन की रकम के एवज में पूरी कोयला इंडस्ट्री तक को बेच डालने पर राजी हैं। बस यहीं से शुरू हुआ कोयला चोरी के नाम पर पूरे कोलफील्ड का आधा कोयला डकार जाने का खेल।

धनबाद कोयलांचल में माफियों का दखल तब और बढ़ने लगा जब राजनैतिक पार्टियां विधानसभा चुनावों में उन्हें टिकट देने लगीं और वे चुनाव जीतकर विधायक बनने लगे। दशकों से कोयलांचल में आतंक का राज चला रहे इन कोयला माफियों का यह टेरर आज भी उसी तरह कायम है। धनबाद माफिया सूर्यदेव सिंह के झरिया विधानसभा सीट से विधायक बनने से राजनीति में माफिया की दखल का शुरू हुआ सिलसिला आज भी बरकरार है। आज भी सभी राजनैतिक पार्टियां सूर्यदेव सिंह के परिवारजनों को ही टिकट देकर अपना उम्मीदवार बनाती हैं। जीत भी उनमें से ही किसी की होती है। पूरे धनबाद कोयलांचल और खासकर झरिया सीट पर आज तक सिंह मेनसन का ही कब्जा होता आया है।

पहले बिहार और विभाजन के बाद से झारखंड की राजनीति में धनबाद माफिया की इस पैठ की मुख्य वजह है कोयले की काली कमाई से अर्जित धनबाद माफिया की अकूत संपत्ति जिसमें से कोयला अफसरों के अलावा प्रदेश और दिल्ली की सत्ता तक को हमेशा से हिस्सा जाता रहा है। धनबाद कोलफील्ड से होनेवाले कुल उत्पादन का आधा कोयला हमेशा से सिंह मेनसन का होता है और आधा देश का। इसे ऐसे समझें कि कोयला खदान देश का, कोयला उत्पादन में लगे अफसरों और मजदूरों को तनख्वाह देश की सरकारी कोयला इंडस्ट्री दे। कोयला उत्पादन में इस्तेमाल होनेवाले तमाम उपकरण और मशीनरी देश की सरकारी कोयला इंडस्ट्री खरीदे। फिर भी देश को मिले सिर्फ आधा कोयला और कोयला इंडस्ट्री में आतंक का राज चलानेवाला माफिया आधा कोयला मुफ्त में डकार ले जाए। यानी जितना कोयला देश का उतना ही कोयला धनबाद माफिया का। यानी बराबर की हिस्सेदारी। बंदूक की नोक पर आधा मेरा, आधा तेरा। अब चूंकि देश के कुल कोयला उत्पादन का 80-90 फीसदी धनबाद कोलफील्ड से होता है, इसलिए इस हिसाब से धनबाद माफिया के मुख्यालय ‘सिंह मेनसन’ की अर्थव्यवस्था भारत सरकार की कोयला कंपनी ‘कोल इंडिया लिमिटेड’ की अर्थव्यवस्था के बाराबर हुई। इसी से आप अंदाजा लगा लीजिए कि सिंह मेनसन की अर्थव्यवस्था कितनी बड़ी थी और है। इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था से तो कमोबेस एक राज्य चलाया जा सकता है। यानी धनबाद माफिया के मुख्यालय ‘सिंह मेनसन’ की औकात एक राज्य के बराबर होती है। तभी तो सभी राजनैतिक दल कोयलांचल में माफिया को पालने, पश्रय देने और आगे बढ़ाने में लगे रहते हैं। 

सांसद और फिर देश के आठवें प्रधानमंत्री रहे चंद्रशेखर सिंह (10 नवंबर 1990 से 21 जून 1991) से धनबाद माफिया की जगजाहिर दोस्ती कोई ऐसे थोड़े ही थी। चंद्रशेखरजी सांसद रहते जब-जब धनबाद आते थे तो उनकी सभाएं होती थीं और उन सभाओं में जमीन पर एक डबल बेड का बड़ा सा चादर बिछा दिया जाता था जिसपर उनकी अपील पर लोग पार्टी फंड के लिए ही सही, दिल खोलकर नोट न्योछावर करते थे और सभा खत्म होने के बाद नोटों से भरी एक बड़ी सी गठरी चंद्रशेखर जी अपने साथ ले जाते थे। लेकिन धनबाद माफिया सूर्यदेव सिंह से चंद्रशेखरजी का यह रिश्ता सिर्फ इन्हीं गठरियों की वजह से नहीं था। ये गठरियां तो बड़ी छोटी चीज होती थीं। बिल्कुल नाचीज जिसकी कोई औकात नहीं। सिंह मेनसन के लिए ये गठरियां राई क्या, एक धूलकण के बराबर भी औकात नहीं रखतीं थीं। और जब इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था हो तो किसी प्रभावशाली और कद्दावर सांसद या देश के भावी प्रधानमंत्री के वरदहस्त के लिए तो अगर साल भर की कमाई भी न्योछावर करनी पड़े तो समझो कम ही है। लेकिन यह भी सही है कि धनबाद माफिया और ‘सिंह मेनसन’ से करीबी रिश्ता सिर्फ एक ही कद्दावर सांसद या प्रधानमंत्री का नहीं रहा होगा। आखिर धनबाद माफिया और ‘सिंह मेनसन’ पर केंद्र सरकारों का वरदहस्त तो हमेशा ही बना रहा है। आज भी है। तभी तो धनबाद कोलफील्ड में माफिया और उसका आतंक आज भी जिंदा है और बदस्तूर कायम है। धनबाद कोयलांचल पर आज भी ‘सिंह मेनसन’ का ही कंट्रोल है। और यह बात भी सही है कि अगर देश की सरकार और देश का प्रधानमंत्री नहीं चाहेगा तो धनबाद कोयलांचल में किसी भी सूरत में कोई माफिया और उसका आतंक जिंदा नहीं बचा रह सकता। आज तक देश को ऐसा कोई प्रधानमंत्री नहीं मिला जो धनबाद कोयलांचल को माफिया मुक्त करने की सोच भी रखता हो। इसलिए हम कह सकते हैं कि धनबाद कोयलांचल में कोयला माफिया और उसका टेरर सरकार की इच्छा से ही कायम है। इससे नुकसान किसी सांसद, भावी प्रधानमंत्री, प्रधानमंत्री या सरकारी अफसर को नहीं, देश को और उसकी आम जनता को हो रहा है।

सूर्यदेव सिंह 1977 से 1991 तक जनता दल के टिकट पर झरिया विधानसभा सीट से विधायक रहे थे। जून 1991 में उनके निधन के बाद झरिया से जनता दल के कद्दावर नेता राजू यादव की उम्मीदवारी होनी तय हो गई थी। पर तभी उनकी हत्या हो गई। उस समय सूर्यदेव सिंह जीवित थे और राजू यादव की हत्या का आरोप सूर्यदेव सिंह पर ही लगा था। फिर राजू यादव की पत्नी आबो देवी 1991 से 1999 तक जनता दल के टिकट पर झरिया से विधायक रहीं। यही वह समय रहा जब ‘सिंह मेनसन’ से बाहर का कोई व्यक्ति झरिया सीट से विधायक बना। फिर 1999 में सूर्यदेव सिंह के छोटे भाई बच्चा सिंह झरिया सीट से विधायक बने और फिर झारखंड सरकार के पहले मंत्रिमंडल में मंत्री भी रहे। पर पारिवारिक झगड़े की वजह से अगली बार उन्होंने यह सीट छोड़ दी और बोकारो से चुनाव लड़ा। सूर्यदेव सिंह की पत्नी कुंती सिंह 2004 से 2014 तक झरिया सीट से भाजपा के टिकट पर विधायक रहीं। अब उनके पुत्र संजीव सिंह और संजीव सिंह की पत्नी रागिनी सिंह दोनों भाजपा के टिकट पर चुनाव जीतकर विधायक हैं। पर पिछले कुछ सालों से सिंह मेनसन के वारिसों यानी सूर्यदेव सिंह के बेटो-भतीजों में कोयले पर माफियागीरी के धंधे, इस धंधे से अर्जित अकूत पैत्रिक संपत्ति, कोयलांचल पर नियंत्रण और सूर्यदेव सिंह द्वारा खड़ा किए गए मजदूर संगठन ‘जनता मजदूर संघ’ पर नियंत्रण को लेकर आपस में काफी अदावत चल रही है। यह पारिवारिक अदावत मरने-मारने की खतरनाक स्थिति तक पहुंच गई है।

वर्ष 2014 में सूर्यदेव सिंह के पुत्र संजीव सिंह भाजपा के टिकट पर झरिया सीट से चुनाव लड़ रहे थे। उनकी टक्कर सूर्यदेव सिंह के छोटे भाई बच्चा सिंह के पुत्र नीरज सिंह से थी जो उसी सीट से कांग्रेस के टिकट पर उम्मीदवार थे। बच्चा सिंह की हवेली का नाम है ‘रघुकुल’। इसलिए यह राजनैतिक लड़ाई ‘सिंह मेनसन’ और ‘रघुकुल’ के बीच थी। उनकी पारिवारिक अदावत भी ‘सिंह मेनसन’ और ‘रघुकुल’ के बीच ही चल रही है। वर्ष 2017 में नीरज सिंह की हत्या हो गई और इस हत्या का आरोप सूर्यदेव सिंह के पुत्र विधायक संजीव सिंह पर लगा। जानकारी के मुताबिक संजीव सिंह अभी जेल में हैं। बाद में 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने संजीव सिंह की पत्नी रागिनी सिंह को उम्मीदवार बनाया और कांग्रेस ने नीरज सिंह की विधवा पत्नी पूर्णिमा सिंह को। दोनों बहुओं की इस लड़ाई में कांग्रेस की पूर्णिमा सिंह चुनाव जीत गईं। यानी ‘रघुकुल’ की जीत हुई और ‘सिंह मेनसन’ की हार। पर झरिया कोलफील्ड पर कंट्रोल तो कोयला माफिया के घराने का ही कायम रहा।

16. धनबाद में चारण की पत्रकारिता

उन दिनों धनबाद कोयलांचल में पत्रकारिता का मारक रूप शायद ही कभी देखने को मिला हो। इसके पीछे सिर्फ एक ही वजह थी और वह थी धनबाद माफिया सूर्यदेव सिंह की दहशत। भला जिंदा रहना कौन नहीं चाहता। कोयलांचल में चलनेवाले घपले की सच्चाई लिखने का साफ-साफ मतलब था सूर्यदेव सिंह के खिलाफ लिखना। और सूर्यदेव सिंह के खिलाफ लिखने का मतलब था अपनी जान से हाथ धो बैठना। यही वजह रही कि कोयलांचल का सच कभी बाहर नहीं आता था। वहां सिर्फ चारण की पत्रकारिता होती थी। आज भी कमोबेस या यूं कहें कि पूरी तरह पहले जैसी स्थिति ही कायम है। सूर्यदेव सिंह भले आज नहीं हैं पर उनका ‘सिंह मेनसन’ आज भी है और ‘सिंह मेनसन’ का भी कोयलांचल में वैसा ही दहशत कायम है। और तो और, ‘सिंह मेनसन’ के प्रतिद्वंद्वी ‘रघुकुल’ के बंदूक भी कोयलांचल में कुछ कम कहर नहीं बरपाते। इसलिए कोयलांचल का आज का मीडिया भी ‘सिंह मेनसन’ और ‘रघुकुल’ का चारण ही बनकर काम कर रहा है। यही सच्चाई है। कोयलांचल के किसी भी अखबार में ‘सिंह मेनसन’ और ‘रघुकुल’ के खिलाफ कभी भी एक शब्द नहीं छपता। यहां तक कि नेशनल मीडिया भी इनके खिलाफ कभी कुछ छापने की हिम्मत नहीं कर पाता। पीटीआई और यूएनआई जैसी ताकतवर नेशनल न्यूज एजेंसियां भी इन दोनों माफिया घरानों के खिलाफ कभी कुछ लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाती। हां, कोयलांचल के इन दोनों माफिया घरानों के लोगों के छींकने-खांसने तक की बातें आज भी रोज अखबारों की खबरें बनती ही हैं।

दरअसल, कुछ सिद्धांतवादी और कड़क पत्रकारों को छोड़ दें तो कोयलांचल के ज्यादातर स्थानीय पत्रकार चाहे वे वहां के स्थानीय अखबारों के हों या फिर वहां से छपनेवाले नेशनल अखबारों के, सभी एक सी ही मानसिकता के होते हैं और ‘सिंह मेनसन’ और ‘रघुकुल’ में जाकर चाय पी लेने भर को वे अपना अहोभाग्य समझ लेते हैं। धनबाद में ‘सिंह मेनसन’ और ‘रघुकुल’ में अक्सर जानेवाले दरबारी पत्रकारों की कमी नहीं है। कोयलांचल के इन माफिया घरानों को खाद-पानी देनेवाले कोयला कंपनी ‘भारत कोकिंग कोल लिमिटेड’ के सरकारी अफसरान भी इन पत्रकारों से वही सब कुछ और उतना कुछ ही बोलते हैं जो और जितना ये माफिया घराने उनसे कहलवाना चाहते हैं। कोयलांचल में घटित होनेवाला सच तो कभी बाहर ही नहीं आता। आने भी नहीं दिया जाता। और कोयलांचल के चारण पत्रकार उन सच्चाइयों का सूंघकर पता भी नहीं लगाना चाहते। वरना न्यूज एजेंसी पीटीआई का स्ट्रिंगर मात्र होना भी अपने आप में बहुत बड़ी बात होती है। पीटीआई में किसी के खिलाफ एक पैराग्राफ भी कुछ जारी हो जाना तख्ता पलट करवाने की औकात रखता है। पर जनमत अखबार के अपने संपादक रहे पीटीआई के धनबाद संवाददाता यूडी रावल साहब ने अपने जमाने में धनबाद माफिया सूर्यदेव सिंह के कारनामों के बारे में एक लाइन भी कभी नहीं लिखा। वे अगर चाह लेते तो धनबाद इधर से उधर हो सकता था। इसे चारण की पत्रकारिता ही तो कहेंगे। धनबाद कोयलांचल के बारे में कभी अगर किसी ने सच बात लिखी हो तो वह है विदेशी समाचार एजेंसी रॉयटर । रॉयटर ने ही ‘भारत कोकिंग कोल लिमिटेड’ के अफसरों से सच उगलवाया है। रॉयटर की रिपोर्टों से ही कोयलांचल को निगलने में इन माफिया घरानों और बीसीसीएल के अफसरों की मिलीभगत की कहानी अधिकृत रूप में दुनिया के सामने आ पाई।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....

सोमवार, 21 मार्च 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 6

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की छठी किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 6

11. प्रेस परिषद का फैसला

जनमत अखबार के खिलाफ प्रेस काउंसिल में दायर किए गए इस मुकदमे की एक सुनवाई कलकत्ता के ग्रेट ईस्टर्न होटल में आयोजित हुई थी जिसमें मुझे हाजिर होने के लिए बुलाया गया था। मैं उस सुनवाई हाजिर हुआ था। उस सुनवाई में प्रेस परिषद की पूरी बेंच बैठी थी। बाद में इस मुकदमे में मेरी जीत हुई थी। फैसला मेरे पक्ष में आया था। फैसले में धनबाद जिला और पुलिस प्रशासन को गलत और कसूरवार ठहराया गया था। पर जनमत की नौकरी से निकाले जाने के मामले में प्रेस काउंसिल मेरी कोई मदद नहीं कर पाया क्योंकि प्रेस परिषद के चार्टर के मुताबिक जनमत का मुझे नौकरी से निकाल देना एक सर्विस मैटर था और यह उनके चार्टर से बाहर का विषय था। प्रेस परिषद ने मुझे बाकायदा पत्र लिखकर इसकी सूचना भी दी थी। यह फैसला 1986 में आया था।

12. पढाई और पत्रकारिता की सनक

रांची विश्वविद्यालय से मेरा रिश्ता पिता के रिटायरमेंट के साथ ही खत्म हो गया। बाद में बीए और एमए की पढ़ाई मैंने भागलपुर विश्वविद्यालय से पूरी की और अपनी पत्रकारिता को जारी रखते हुए पूरी की। हाथ मैंने कानून की पढ़ाई में भी आजमाया। भागलपुर विश्वविद्यालय के टीएनबी लॉ कॉलेज से एलएलबी कर रहा था। पर पटना के अखबार पाटलिपुत्र टाइम्र्स और फिर जनसत्ता चंडीगढ़ में नौकरी मिल जाने पर चंडीगढ़ चले जाने की वजह से कानून की पढ़ाई को पूरा नहीं कर पाया। एलएलबी अधूरी रह गई। इसका मुझे आज भी बहुत मलाल है। पत्रकारिता में एमए (एमजेएमसी) तो बहुत बाद में किया। जब मैं दैनिक जागरण, पटना में था तो नालंदा खुला विश्वविद्यालय से एमजेएमसी करने का मौका मिल गया।

उन दिनों भी हमारी पीढ़ी के पत्रकारों के लिए पत्रकारिता की पढ़ाई करना उतना महत्वपूर्ण नहीं होता था। पत्रकारिता के पेशे में आनेवाले नए-नए लड़के ऐसी डिग्रियां लेकर जरूर आया करते थे। जनसत्ता के दिल्ली संस्करण में काम करते हुए तो पत्रकारिता में एमए करके आनेवाले दर्जनों प्रशिक्षु पत्रकारों को न्यूज डेस्क पर काम करना सिखाने का मौका मिला। ऐसे प्रशिक्षु पत्रकारों को खबरों की एडिटिंग के तरीके और खास तौर पर एजेंसी की खबरों का अनुवाद और संपादन सिखाना होता था। य़ूएनआई और पीटीआई की अंग्रेजी खबरों का उनका किया हुआ अनुवाद छपने लायक नहीं होता था। उसे बहुत मांजना पड़ता था। कई दफा तो फिर से भी लिखना पड़ जाता था। इन समाचार एजेंसियों की हिन्दी की खबरों का उनका किया हुआ संपादन भी गड़बड़ ही होता था। खबरों की कंपाइलिंग तो उन प्रशिक्षुओं के बस की होती ही नहीं थी।

13. माफिया का अखबार

फरवरी 1984 में जनमत की नौकरी से निकाले जाने के बाद मैं अपने गांव लौट आया और एक दफा फिर पड़ाई-लिखाई और इसके साथ-साथ फ्रीलांसिंग पत्रकारिता का सिलसिला शुरू हो गया। तभी कुछ समय बाद 29 अक्तूबर 1985 को मुझे जनमत में मेरे साथी रहे गिरीश कुमार मिश्र का एक पोस्टकार्ड पत्र डाक से मिला। पत्र में गिरीशजी ने लिखा था, ‘बनखंडी मिश्र अपना पुराना अखबार दैनिक चुनौती का पुनर्प्रकाशन 23 अक्तूबर (विजयादशमी) से करने जा रहे हैं। बिहार बिल्डिंग झरिया में 2000 रुपए प्रतिमाह किराए पर इसका कार्यालय एवं प्रेस स्थापित किया गया है। दो लाख रुपए का एक नूतन फ्लैट मशीन मिश्रजी अमृतसर से लेकर आए हैं। एक लाख के आसपास नए टाइप वगैरह के लगे हैं। काफी सजधज के साथ दैनिक चुनौती अब आवाज एवं जनमत को चुनौती देने जनता के सामने आ रहा है। मैंने त्यागी जी से आपकी सेवाओं के लिए बात की है। आप मिश्रजी से पत्राचार करके आगे की स्थिति का खुलासा कर लें।‘ फिर मैंने गिरीशजी के कहे मुताबिक बनखंडी मिश्र जी को एक पत्र भेजकर उनके आनेवाले अखबार में काम करने की इच्छा जाहिर कर दी।

इसके बाद 14 नवंबर 1985 को मुझे गिरीश कुमार मिश्र का भेजा एक निमंत्रण पत्र डाक से मिला। यह निमंत्रण पत्र धनबाद जिले के झरिया शहर से एक नए दैनिक अखबार दैनिक चुनौती के प्रवेशांक के विमोचन समारोह का था जो 12 नवंबर 1985 को होने जा रहा था। निमंत्रण पत्र में लिखा था कि अखबार का यह विमोचन मजदूर नेता एवं झरिया विधानसभा क्षेत्र के विधायक सूर्यदेव सिंह करेंगे। निमंत्रण पत्र में अखबार के संपादक के रूप में बनखंडी मिश्र और प्रकाशक के रूप में अरुण कुमार त्यागी का नाम छपा था। इसके तुरंत बाद 17 नवंबर 1985 को गिरीशजी का एक और पोस्टकार्ड भी आया। पोस्टकार्ड में उन्होंने लिखा था, ‘कल आपके नाम एक टेलीग्राम प्रेषित किया है। यह पत्र भी लिख रहा हूं। पत्र पाने के साथ ही पूरी तैयारी करते हुए दैनिक चुनौती को अपनी सेवाएं देने आ जाइए। देर मत करिए। मैं यह पत्र मिश्रजी के आदेशानुसार भेज रहा हूं। मिश्रजी को आपका पत्र मिल गया है। आशा है आप पत्र पाने के साथ ही आ रहे हैं।‘ गिरीश जी का यह पोस्टकार्ड मिलने के बाद मैं झरिया रवाना हो गय़ा और दैनिक चुनौती में नौकरी शुरू कर दी।

दैनिक चुनौती को झरिया शहर से बनखंडी मिश्र पहले एक साप्ताहिक टेबलॉयड के रूप में निकालते थे। एक चवन्नी कीमत का उनका यह अखबार झरिया शहर में एक सांध्य दैनिक के रूप में खूब प्रचलित हो गया था। पर इसका प्रकाशन कुछ समय बाद बंद हो गया था। दैनिक चुनौती का दफ्तर झरिया शहर के बीचोबीच स्थित शहर के बहुचर्चित सिनेमा गृह बिहार टॉकीज की बिल्डिंग में था। झरिया मेरा बचपन का शहर था इसलिए मैं इस शहर और इस बिहार टॉकीज को बहुत अच्छे से जानता था। जल्दी ही समझ में आ गया कि अखबार धनबाद माफिया सूर्यदेव सिंह का ही है और सारा पैसा उन्हीं का लगा हुआ है। बनखंडी मिश्र अखबार के संपादक तो थे पर वे सिर्फ बराए नाम थे। शुरू में मेरे मित्र गिरीशजी को भी इस बात की भनक नहीं लग पाई होगी कि इस अखबार में धनबाद माफिया सूर्यदेव सिंह का पैसा लगा है। अखबार की संपादकीय पॉलिसी में सूर्यदेव सिंह के राजनैतिक रणनीतिकारों, गनरों, शूटरों और लठैतों का सीधा-सीधा दखल होता था। सूर्यदेव सिंह के एक खास आदमी और उनके गनर देवानंद सिंह मैनेजर के तौर पर अखबार के दफ्तर में बैठते थे। वही इस अखबार में सभी तरह के मैनेजर भी थे और एचआर भी। तनख्वाह देना और छुट्टियां मंजूर करना सब उन्हीं का काम होता था। मेरी तनख्वाह 500 रुपए इन देवानंद सिंह ने ही तय की थी। दफ्तर के रोजाना के छोटे-मोटे खर्चों के लिए भी पैसे वही देते थे। दफ्तर के रोज के चाय-पानी के लिए भी चायवाले को रोजाना पैसे वही दिया करते थे।

दैनिक चुनौती उस समय की पुरानी हेंड कंपोजिंग प्रिंटिंग तकनीक से छपता था। खबरें इधर-उधर के जुगाड़ से लेकर छापी जाती थी। समाचार एजेंसी की खबरों का प्रिंट कॉपी एजेंसी के दफ्तर से मंगाया जाता था। अखबार के दफ्तर में एजेंसी का टेलीप्रिंटर लगा हुआ नहीं था। मेरी जिम्मेदारी सिर्फ खबरें बनाने की थी। विज्ञापनों से मेरा कोई नाता नहीं होता था। एक दिन सूर्यदेव सिंह के मतलब का कोई विज्ञापन छपना था जो किन्हीं कारणों से नहीं छप सका था। शायद किसी चूक के कारण नहीं छप पाया था। पर मुझे इसकी कोई जानकारी नहीं थी। अगले दिन सूर्यदेव सिंह के एक खास गनर ज्ञानी झा उर्फ गिन्नी ने मुझे बिहार टॉकीज की उस बिल्डिंग की निचली मंजिल के अपने दफ्तर में बुलवाया और पूछा कि वह विज्ञापन क्यों नहीं छपा। मैंने उस बारे में अपनी अनभिज्ञता जताई तो वे मुझ पर आगबबूला हो गए और मुझपर चिल्लाकर बोले, ‘आगे से याद रखिएगा। अगर दोबारा कोई गलती हुई तो पंखे में उल्टा टांग देंगे। तुम जवाहर के भाई हो इसलिए आज छोड़ देते हैं।‘ ज्ञानी झा की इस धमकी से मैं बहुत डर गया। फिर भी किसी तरह काम करता रहा। कुछ दिनों बाद

 दफ्तर में संपादक बनखंडी मिश्र या फिर उनके किसी खास व्यक्ति के खिलाफ कुछ गंभीर आरोपों की कानीफूसी होने की घटना सुनाई पड़ी जो किसी तरह मैनेजर देवानंद तक भी पहुंच गई। देवानंद को लगा कि इस कानीफूसी के पीछे मैं ही हूं और उन्होंने मुझे यह कहकर नौकरी से निकाल दिया कि ‘जिस थाली में खाते हो उसी में छेद करते हो।‘ अचानक नौकरी से निकाले जाने की कोई वजह मुझे समझ नहीं आई क्योंकि मेरी तरफ से कोई गलती नहीं हुई थी। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था जो नौकरी से निकाले जाने की वजह बन सकती हो। सबकुछ ठीक-ठाक ही चल रहा था। फिर भी जब माफिया का ऐसा फरमान था तो नौकरी तो जानी ही थी। चली गई।

यहां मजे की बात यह थी कि ज्ञानी झा उर्फ गिन्नी मेरे बड़े सगे मौसेरे भाई जवाहरलाल झा के गांव राजपुर, जिला बांका के थे और उनका घर मेरी मौसी के घर के पास ही था। ज्ञानी झा और जवाहरलाल झा दोनों साथ ही खेले-कूदे और बड़े हुए थे। पर ज्ञानी झा ने सूर्यदेव सिंह के साथ रहकर झरिया कोयलांचल में अकूत पैसा कमाया था। उन्होंने सूर्यदेव सिंह की बदौलत झरिया में अपना एक साम्राज्य कायम कर लिया लिया था। जवाहर भैया उन दिनों धनबाद के ही ईस्ट गोपालीचक कोलियरी में सरकारी नौकरी करते थे। लिहाजा मुझे धमकाने की बात जब मेरे जवाहर भैया को पता चली तो उन्होंने गिन्नी से कहा,- ‘अरे गिनियां, तेरी इतनी हिम्मत रे जो मेरे भाई को धमका दिया।‘

14. बिहार टॉकीज की कहानी

माफिया नेता के गनर ज्ञानी झा का मुझे पंखे से उल्टा टांगने की धमकी देना माफिया नेता सूर्यदेव सिंह की टार्चर करने की पुरानी परंपरा की ही एक कड़ी थी। झरिया शहर में मैंने ढेरों लोगों के मुंह से सुना था कि बिहार टॉकीज और उसकी पूरी इमारत (बिहार विल्डिंग) को उसके मूल मालिक से सूर्यदेव सिंह ने जबरन लिखवाकर हथिया लिया था। यानी छीन लिया था। लोग बताते थे कि बिहार टॉकीज कलकत्ता के एक खदान मालिक की हुआ करती थी। मालिक और उसके बेटे को माफिया सूर्यदेव सिंह ने उसी इमारत में पंखे से उल्टा टांग दिया था औऱ फिर उन दोनों से पूरी इमारत का बिक्रीनीमा स्टांप पेपर पर लिखवा लिया था। बाप-बेटे से कहा गया था कि अगर जिंदा रहना चाहते हो तो चुपचाप अभी के अभी बिहार छोड़ दो। अगर बिहार में कहीं नजर आए तो जिंदा नहीं बचोगे। और यही हुआ भी था। दोनों बाप-बेटा चुपचाप अपने राज्य पश्चिम बंगाल लौट गए थे और वे दोबारा कभी बिहार नहीं आए। बिहार टॉकीज और उसकी पूरी इमारत को हथियाने के बाद सिनेमा हॉल से होनेवाली कमाई और इमारत से होनेवाली किराए की मोटी आमदनी भी माफिया नेता सूर्यदेव सिंह ही ले जाने लगे थे। पर सुनने में आया था कि कलकत्ता जाकर बिहार टॉकीज के मालिक ने वहां हाईकोर्ट में एक मुकदमा दायर कर दिया था।

बिहार टॉकीज का मुकदमा भी बड़ा दिलचस्प है। धनबाद के जानकार लोग बताते हैं कि बिहार बिल्डिंग मूल रूप से एक खदान ‘सेलेक्टेड झरिया कोलियरी कंपनी लिमिटेड’ के मालिक की संपत्ति थी। यह बिल्डिंग उन मालिक की एक कोलियरी इलाके में ही स्थित थी। यानी कोलियरी की जमीन पर ही थी। 1948 में यह कोलियरी (इसकी जमीन) उन्होंने झरिया के राजा शिब प्रसाद  सिंह के वारिस पुत्रों से खरीदी थी। बाद में इस कंपनी ने अपनी उस जमीन में से 3.65 बीघा जमीन (प्लॉट नंबर- 1013, मौजा- झरिया, जिला धनबाद) अपनी ही एक अलग कंपनी ‘झरिया टॉकीज एंड कोल्ड स्टोरेज प्राइवेट लिमिटेड’ को ट्रांसफर कर दी। इस कंपनी ने 1950 में बिहार सरकार से इजाजत लेकर सार्वजनिक मनोरंजन के लिए एक सिनेमा हॉल झरिया टॉकीज का निर्माण किया। बाद में उसका नाम बिहार टॉकीज रखा गया। कोयला खदानों का जब राष्ट्रीयकरण हुआ तो कोयला खदानों की तरह खदान की जमीन पर स्थित यह बिहार बिल्डिंग भी केंद्र सरकार के अधीन चली गई। तब इसका मालिकाना हक केंद्र सरकार की कंपनी ‘कोल इंडिया लिमिटेड’ की ईकाई- ‘भारत कोकिंग कोल लिमिटेड’ के पास चला गया। कलकत्ता हाईकोर्ट में दायर मुकदमे में उसके मालिकों ने तर्क दिया था कि मनोरंजन स्थल होने के कारण बिहार टॉकीज एक सार्वजनिक इस्तेमाल में आ रही संपत्ति थी इसलिए यह कोयला श्रेत्र के राष्ट्रीयकरण कानून के दायरे में नहीं आता। यह मुकदमा बहुत सालों तक चलता रहा और इस केस की फइलों पर कलकत्ता हाईकोर्ट और पटना हाईकोर्ट में सुनवाई चलती रही। अंत में फरवरी 1992 में कलकत्ता हाईकोर्ट की बड़ी बेंच का फैसला आया और यह फैसला बिहार टॉकीज के मूल मालिकों के पक्ष में गया और भारत कोकिंग कोल लिमिटेड की आखिरी अपील भी खारिज हो गई। पर तब तक अघोषित तौर पर इस बिहार टॉकीज पर सूर्यदेव सिंह और परिवार यानी उनके सिंह मेनसन का ही अवैध कब्जा कायम रहा और वही लोग बंदूक की नोक पर हर तरह से उसका निरंतर दोहन करते रहे बताते हैं।

दैनिक चुनौती के संपादक बनखंडी मिश्र दफ्तर में अक्सर अपने ही संपादकीय विभाग के पत्रकारों को बात-बात पर तरह-तरह से जलील और अपमानित किया करते थे। ऐसा करना उनकी आदत में शुमार था। पत्रकारों को वे सूअर और सूअर का बच्चा कहा करते थे। वे कोयलांचल के माफियों की बहुत तारीफ भी करने लगे थे। खासकर, सूर्यदेव सिंह और उनके छोटे भाई बच्चा सिंह की तो वे तारीफ करते अघाते नहीं थे। सूर्यदेव सिंह के महल ‘सिंह मेनसन’ की दिन में कई-कई बार तारीफ करना तो उनके लिए ईश्वर की आराधना करने जैसा पवित्र काम बन गया था। दफ्तर में अपने मातहत पत्रकारों के बीच ‘सिंह मेनसन’ और सूर्यदेव सिंह की चर्चा करते समय बनखंडी मिश्र काफी खुश नजर आते थे और उस समय उनका चेहरा काफी खिला-खिला होता था। कोयलांचल के काफी पुराने पत्रकार रहे बनखंडी मिश्र के मुंह से धनबाद माफिया सूर्यदेव सिंह के काले कारनामों के बारे में कभी एक शब्द नहीं निकलता था। उन दिनों उनके (बनखंडी मिश्र) काफी सारे धतकरम भी सुनने को मिल जाते थे। एक समय में झरिया के काफी जुझारू और साहसी पत्रकार रहे बनखंडी मिश्र का अब ऐसा आचरण क्यों हो गया था यह समझ से परे है। उन्हें जाननेवाले कुछ लोग बताते हैं कि निरंतर माफियों के बीच रहने और उनके संपर्क में आने और अपनी कमजोर आर्थिक परिस्थितियों की वजह से आखिरकार हारकर उन माफियों से ही समझौता कर लेने के बाद से उनमें माफियों वाले कई गुण समा गए थे। उन्हीं दिनों कलकत्ता से छपनेवाली हिन्दी समाचार पत्रिका परिवर्तन ने भी धनबाद कोयलांचल पर एक रिपोर्ट छापी थी जिसमें बनखंडी मिश्र के अखबार दैनिक चुनौती और उनके धतकरमों के बारे में काफी कुछ छपा था। बाद में झरिया के कुछ पुराने पत्रकार साथियों ने बताया था कि परिवर्तन के इस खुलासे से बनखंडी मिश्र सकते में आ गए थे और कई हफ्तों तक लाज के मारे घर से नहीं निकले थे। मेरे पुराने संपादक बनखंडी मिश्रजी अब काफी वयोवृद्ध हो गए हैं।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में...

गुरुवार, 17 मार्च 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर-5


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की पांचवीं किश्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 5

10. मुकदमे में बिहार सरकार का झूठ

धनबाद में पुलिस और कैदियों के साथ हुई मेरी झड़प और मेरी मार-पिटाई को लेकर दायर मेरे इस मुकदमे में प्रेस परिषद ने बिहार सरकार से भी जवाब मांगा था। प्रेस परिषद को भेजा गया बिहार सरकार का जवाब पूरी तरह मनगढंत, झूठ और एक फेस सेविंग था। सरकार के सचिव ने अपने जवाब में धनबाद जिला प्रशासन और पुलिस का ही पक्ष लिया और पुलिस के साथ हुई झड़प की घटना में मेरे आरोपों को सिरे से नकारते हुए पग-पग पर मेरी ही गलती बता दी। बिहार सरकार की चिट्ठी का मजबून कुछ इस तरह था-

Text of Bihar Govt reply to PCI

S. No. 28 (R)

No.Q/Press-Misc- 106/84/1178/C

Government of Bihar- Home (Special) Department.

 

From:

Shri A.K.Upadhyay,

Additional Secretary to Government.

 

To:

The Secretary,

Press Council Of India

Faridkot house (Ground Floor),

Copernicus Marg,

New Delhi-110001.

 

Patna, the 27 May, 1985.

Sub:- Complaint of Dr, G.P. Jha, Journalist, against the Dhanbad Police.

Sir,

With reference to your letter no.13/31/84- Sectt. Dated 15-12-84 on the above subject, I am directed to say that the allegations made in the complaint petition dated 3/9/84 of Dr G.P. Jha, Journalist have been looked into and facts are as below:-

(i)       Dr G.P. Jha has alleged that on 1.2.84 while he was taking photographs of the objectionable activities of the under trial prisoners in Dhanbad Court, on instigation of the police, the prisoners caught hold of him, severely assaulted him and badly damaged the camera which was later snatched away by the police.

It appears from the enquiry that when some prisoners were being taken from jail to Dhanbad Court on 1.2.84, they noticed a man taking their photographs. They objected to it on the ground that the photographs might be used against them during T.I. Parade. The prisoners made known their objections to the escorting police. The man with the camera was brought to the police station by the Havildar. According to the statement of these prisoners, there was only some hot exchanges of words with the man taking the photographs, and no incident “marpit” took place. The above statement of the prisoners was also supported by Havildar Suraj Singh and the Constable who were with the police party on that day. The Station Dairy Entry in Dhanbad Police Station on 1.2.84 also indicates that the person concerned was brought to the police station where the reel from the camera was taken out and deposited in the Malkhana.

 

(ii)      Dr. G.P.Jha has further alleged that he went to S.P. Dhanbad with a petition containing facts about the incident but the S.P. misbehaved with him and refused to acknowledge receipt of the petition.

It appears from the enquiry report that the above allegation against the S.P. is baseless. As can be easily appreciated, the S.P. is not supposed to personally grant a receipt for applications received. If any receipt is sought for, it has to be obtained from the office.

 

(iii)     Dr. G.P. Jha has also alleged that he went to the Deputy Commissioner, Dhanbad and submitted a written petition about the above incident.

The Deputy Commissioner, Dhanbad has reported that Dr.G.P.Jha had given him a written petition on 6.2.84 containing some allegations against Dhanbad police and on receipt of the petition, he got the matter inquired into through the S.P., Dhanbad. The allegations were, however not substantiated.

 

(iv)     Dr. G.P.Jha has, in his complaint petition to the Press Council of India, made certain allegations against the management of “Janmat”. The state Government are not concerned with these allegations against the proprietor and management of “Janmat”.

2. I am to request that the Press Council of India may kindly reject the complaint petition of Dr. G.P.Jha, Journalist, in the light of the facts stated above.

3, This also disposes of the Press Council of India’s letter of even number, dated 27/4/85. The letter of Dr..Jha, dated 15/3/85, enclosed with the above letter of the Press Council of India, contains the above points which are there in his complaint petition, dated 3/9/84, and which have been dealt with above.

Yours faithfully,

Sd/-

Additional Secretary to Government.

 

L.D.S.

24,5.

(PCI Dy No. 869, DATED: 05/06/85.)

– गणेश प्रसाद झा


आगे अगली कड़ी में...



मंगलवार, 15 मार्च 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर-4

 


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की चौथी किश्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 4

9. जनमत के जवाब पर मेरा काउंटर जवाब

इस मामले की प्रेस परिषद से की गई मेरी शिकायत पर जनमत प्रबंधन की ओर से प्रेस परिषद को भेजे गए इस उपरोक्त जवाब पर प्रेस परिषद ने मुझसे मेरा काउंटर जवाब मांगा जो मैंने भेज दिया। मेरी वह काउंटर जवाब वाली चिट्ठी इस तरह थी-

(पाठक क्षमा करें। मेरी इस चिट्ठी की भाषा थोड़ी कमजोर, हास्यास्पद और अटपटी सी लगेगी क्योंकि इसकी भाषा मेरी पत्रकारिता के शुरुआती वर्षों की है और वह मंजी हुई भाषा तो बिल्कुल नहीं है। पर मैं अपने उस पत्र को यहां जस का तस प्रस्तुत कर रहा हूं।)

 

Ref. No.- AA/C/84/1035, Dated- 26/12/1984.

सेवा में,

अध्यक्ष,

भारतीय प्रेस परिषद

फरीदकोट हाउस (निचली मंजिल)

कॉपरनिकस मार्ग

नई दिल्ली- 110001.

विषय- आपका पत्र पत्रांक- 13/31/84, दिनांक- 24/11/84.

महोदय,

मेरे मामले में दैनिक जनमत के संपादक ने आपको जो स्पष्टीकण भेजा है वह पूरे का पूरा बकवास है और सत्य को छिपाने के लिए गलत और बनावटी बातों का सहारा लिया गया है। लेकिन सत्य सत्य है और रहेगा। उसे बनावटी बातों के पर्दों से ढकना कदापि संभव नहीं है। मैंने  जनमत में रहते हुए जो कुछ भी देखा और अनुभव किया उसका एक-एक रंच जनमत को कानून के कठघरे में खड़ा करता है।

दैनिक जनमत के प्रकाशन को लगभग दो वर्ष (प्रवेशांक- 5 जनवरी, 1983) होने को है। जनमत संपादक का यह कथन कि इस अखबार को मात्र दो श्रमजीवी पत्रकार ही चलाते हैं और संपादन संबंधी अधिकांश कार्य भी यही दोनों करते हैं, सरासर झूठ है। जनमत पूरे 6 पृष्ठों का निकलता है। यह कदापि संभव नहीं कि मात्र दो पत्रकार प्रतिदिन के 6 पृष्ठों की पूरी सामग्री लिख लें  और फिर उसे संपादित भी कर डालें। दो पत्रकारों के बूते पर दैनिक अखबार का नियमित प्रकाशन बिल्कुल संभव नहीं। ऐसी किसी बात की कल्पना मात्र करना भी मूर्खता ही होगी। अपने कार्यकाल में मैं देखता रहा था कि प्रबंधक श्री सतीश चंद्र प्रतिदिन मात्र दो कॉलम का  संपादकीय और लगभग एक कॉलम का व्यंग्य (गुरु चेला संवाद) ही लिखा करते थे। बाकी सब कुछ वहां अखबार में कार्यरत 8 (आठ) उप संपादकों के मत्थे जाता था।

अखबार के संपादक श्री यू डी रावल शायद ही कभी कुछ लिखते थे। वे तभी कुछ लिखते थे जब वे धनबाद में कभी-कभार किसी विशेष आयोजनों में अपने अखबार जिसके लिए वे धनबाद संवाददाता के रूप में अधिकृत और एक्रेडेटेड हैं, की तरफ से रपटकारी के लिए जाया करते थे। यही हाल श्री सतीश चंद्र का भी था और वे भी संपादकीय और व्यंग्य के अपने दैनिक नियमित लेखन के अतिरिक्त यदि कुछ लिखते थे तो वह कभी-कभार ही। श्री यूडी रावल कलकत्ता के अंग्रेजी दैनिक स्टेट्समैन के धनबाद संवाददाता हैं तथा श्री सतीश चंद्र पटना के अंग्रेजी दैनिक इंडियन नेशन के धनबाद संवाददाता। इन दोनों ही पत्रकारों का अधिकांश समय दिन भर की भागदौड़ तथा जहां-तहां के जलसों-आयोजनों आदि में शरीक होने में बीतता है। ये नियमित रूप से कुछ घंटों के लिए जनमत कार्यालय आते तो हैं परंतु उनका यह समय अखबारी व्यवस्था की देखरेखसंसाधनों के जुटावअखबारी व्यवस्था से  संबंधित कार्यालयी कागजातों का निपटानआगंतुकों से भेंट-मुलाकात तथा अपने-अपने अखबारों के लिए खबरें/रपटें लिखने में बीत जाता है। श्री सतीशजी उन्हीं व्यस्तताओं में से कुछ समय निकालकर जनमत के लिए दो-तीन कॉलमों की सामग्री नियमित ढंग से  किसी प्रकार लिख लिया करते हैं। फिर घोर व्यस्तता की इस स्थिति में वे जो 6-पृष्ठीय  जनमत की पूरी दैनिक सामग्री रोजाना लिखने और उसे संपादित कर लेने की बात करते हैंबिल्कुल गले नहीं उतरती। पूरे पृष्ठों के लिए पर्याप्त संख्या में टेलीप्रिंटर पर आई अंग्रेजी खबरों का हिन्दी अनुवादहिन्दी टेलीप्रिंटर खबरों का संपादनदैनिक डाक से आई खबरों में काट-छांटसुधार व संपादन तथा लेख/रपट आदि की सामग्रियों का समुचित संकलन-संपादन कोई कम काम नहीं जो पलक झपकते निपट जाए। इतना काम कर डालने का वादा अगर कोई दो व्यक्ति अपने बूते पर करता है तो वह एक फरेब नहीं तो और क्या। जनमत संपादक के इस फरेबी कथन का मतलब यह बनता है कि उनके अखबार में उप संपादक नाम की कोई वस्तु है ही नहीं जबकि असलियत यह है कि जनमत में मेरे कार्यकाल के दिनों में  मुझ समेत कुल 8 (आठ) उप संपादक कार्यरत थे। उन सभी उप संपादकों की सूची मैं संलग्न कर रहा हूं। आप भी चाहें तो अपने स्तर से उन सबों से संपर्क कर सही बात का पता कर सकते हैं।

 

जनमत संपादक का यह कथन भी बिल्कुल झूठ और फरेबी है कि मैंने अखबार में प्रशिक्षणार्थी पत्रकार के रूप में अवैतनिक कार्य करने की पहल की थी और स्वयं को डिग्रीधारी तथा साहित्य में डॉक्टरेट बताया था। सच तो यह है कि साप्ताहिक दिनमान (नई दिल्ली) के 10-16 जुलाई, 83 के अंक में जनमत द्वारा प्रदत्त उप संपादकों की रिक्तियों का विज्ञापन देखकर मैंने दिनांक 20 जुलाई, 83 को जनमत संपादक को अपना आवेदन विधिवत भेजा था। आवेदन के साथ मैंने अपनी समस्त शैक्षणिक योग्यता, विशेष योग्यता तथा पत्रकारिता संबंधी अपने प्रमाणपत्रों की अभिप्रमाणित प्रतियां संलग्न की थी। मैं न तो उस समय डिग्रीधारी या डॉक्टरेट था और न अब ही हूं। अत: डिग्री या डॉक्टरेट होने की कोई बात बनती ही कहां है। मैंने तो डिग्री या डॉक्टरेट का कोई प्रमाणपत्र भेजा नहीं था और न कभी इन योग्यताओं का कोई दावा ही किया था। फिर उन्हें मेरे डिग्रीधारी या साहित्य में डॉक्टरेट होने की बात दिखाई कहां दी और उन्होंने वगैर समुचित प्रमाण के ऐसी फिजूल की बातों को सही और विश्वसनीय कैसे मान लिया। हां, मैंने अपनी होमियोपैथी ड़ाक्टरी प्रमाण पत्र की अभिप्रमाणित प्रतिलिपि उन्हें आवेदन के साथ भेजी थी। क्या यही प्रमाण पत्र संपादक महेदय को साहित्य में डॉक्टरेट होने का प्रमाण पत्र दिखाई दिया और यदि दिखाई दिया तो फिर यही डॉक्टरी प्रमाण पत्र उन्हें बाद चलकर उसके सही और असली होमियोपैथी डॉक्टरी प्रमाण पत्र के रूप में कैसे दिख गया। यदि वे मेरे द्वारा दाखिल  किसी डिग्री या साहित्य में डॉक्टरेट का कोई असली-नकली प्रमाणपत्र बतौर प्रमाण प्रस्तुत करते तो कोई बात भी बनती और उनके आरोप को भी बल मिलता। ऐसे तो उनका यह आरोप चंडूखाने की गप्प से ज्यादा कुछ नहीं लगता।

मैंने जनमत में अवैतनिक काम करने की न तो कभी कोई पहल की थी और न कभी वहां प्रशिक्षणार्थी के रूप में था ही। मेरे आवेदन पर विचार कर जनमत संपादक ने खुद मुझे बाकायदा पत्र लिखकर साक्षात्कार हेतु बुलाया था। उनके बुलावा पत्र दिनांक 23 सितंबर, 1983 की नकल संलग्न है। बुलावा मिलते ही मैं दिनांक 6 अक्तूबर, 1983 को संपादक के समक्ष साक्षात्कार के लिए उपस्थित हुआ था। संपादक यूडी रावल और प्रबंधक सतीश चंद्र ने मेरा साक्षात्कार लिया और साक्षात्कारोपरांत दोनों ने पत्र के उप संपादक पद पर मेरी मौखिक नियुक्ति कर ली थी और अगले ही दिन यानी 7 अक्तूबर, 83 से शाम की पाली में मैं डेस्क पर काम करने लगा था।

मेरी यह नियुक्ति वैतनिक थी। संपादक व प्रबंधक दोनों ने साक्षात्कार के दिन पहले तो चार सौ रुपए माहवार देने की बात कही, लेकिन फिर अखबार के नया होने की बात बताकर और उप संपादक पद की मेरी अनुभवहीनता बताकर प्रथम दो माह तक ढाई सौ रुपए माहवार देने की बात कही। दोनों ने मुझे यह भी कहा था कि थोड़े ही दिनों बाद वे अपने अखबारी प्रतिष्ठान में पालेकर पुरस्कार अनुरूप वेतनमान लागू करेंगे और तब मुझे भी उसी अनुरूप वेतन दिया जाएगा। उन दिनों वहां कार्यरत मेरे अन्य उप संपादक सहकर्मियों को भी 250 से 300 रुपए के वेतनमान ही दिए जा रहे थे। मात्र एक उप संपादक श्री हरिहर झा जो धनबाद के ही एक अन्य दैनिक आवाज के भगोड़े मुख्य उप संपादक थे और जनमत में अपनी पत्नी श्रीमती अनामिका झा के नाम से मुख्य उप संपादक पद पर कार्यतर थे, को जनमत प्रबंधन से बारह सौ रुपए माहवार का वेतन मिलता था। एक अन्य उप संपादक राजकपूर जो रात्रिकालीन उप संपादक थे और साथ ही साथ अखबार के सर्कुलेशन का पूरा काम भी देखते थे, को पांच सौ (500) रुपए मिलते थे। परंतु इनकी नियुक्ति भी ढाई सौ रुपए माहवार के वेतनमान पर ही की गई थी। नियुक्ति के कुछ दिनों बाद से जब वे सर्कुलेशन का काम भी देखने लगे तो उनका वेतनमान 250 रुपए से बढ़ाकर 500 रुपए माहवार कर दिया गया था। वगैर वेतन के जनमत में कोई भी उप संपादक कार्यरत नहीं था।

मेरे सभी नौ उप संपादक सहकर्मियों को वेतन मिलता था। वहां उप संपादक, संवाददाता (कार्यालय संवाददाता, विशेष संवाददाता, नगर संवाददाता तथा स्टाफ रिपोर्टर) सब वैतनिक नियुक्ति वाले थे। जनमत के नगर संवाददाता अजीम खां को भी 250 रुपए माहवार का वेतनमान मिलता था। कोई अवैतनिक काम करनेवाला जनमत में नहीं था। संपादकीय या फिर गैर संपादकीय सभी तरह के कामगार/कर्मचारी वेतनभोगी थे। आप चाहें तो मेरे सहकर्मियों से पूछ लें कि सही क्या है।

जनमत संपादक का यह आरोप भी मनगढंत और झूठ है कि मैंने कार्य प्रारंभ करते ही अनर्गल खबरें लिख दी और अनुशासनहीनता दिखलानी शुरू की। मैंने जनमत में कभी कोई अनर्गल खबर या सामग्री नहीं लिखी। मेरी समस्त खबरें तथ्यपरक और असलियत की कसौटी पर कसी हुई होती थी। मेरा यह पत्रकारिता समर्पित जीवन आज तक कभी कलंकित नहीं रहा। ढेरों पत्र-पत्रिकाओं जहां-जहां मैं अब तक छपता रहा और छपा हूं वे इसकी गवाह हैं। जब तक मैं जनमत में रहा भारी दबाव में रहा और हमेशा स्वयं को कुंठित ही महसूसता रहा। मुझे वहां कभी किसी काम की स्वच्छंदता नहीं रही। ऐसे में अनुशासनहीन बनने का सवाल ही कहां पैदा होता है।

राजीव गांधी के लिए कालीन खरीद वाली मेरी खबर में कुछ भी गलत नहीं। खबर का एक-एक शब्द यथार्थ है। जनमत में अपनी नियुक्ति के पहले ही दिन 7 अक्तूबर, 83 की दोपहर मैं एक पत्र डालने धनसार डाकघर गया था। डाकघर के ठीक सामने कालीन की एक फर्म है- मोदी फ्लोर। यह फर्म कालीन तो बेचती ही है, टेलीविजन सेट भी बेचती है। फर्म की दूकान में टीवी लगी थी। संयोग भी ऐसा था कि उस दिन भारत-पाक क्रिकेट के नागपुर में खेले जा रहे तीसरे टेस्ट का टीवी प्रसारण भी आ रहा था। धनबाद में टीवी पर तस्वीरें कितनी साफ या धुंधली आती हैं यह देखने के इरादे से मैं मोदी फ्लोर में प्रविष्ट हो गया। अंदर घुसते ही सामने काउंटर पर कई लोगों को कालीन का सौदा करते देखा। खरीदनेवाले तीन सज्जन थे जो कुर्सियों पर विराजमान थे तथा वहीं पास में उनका दो मुलाजिम था। मुलाजिम सरकारी थे क्योंकि उनके हाथों में फाइलें थीं और उनके कंधे से लाल कपड़े की पट्टी के सहारे पीतल का जाना पहचाना अंडाकार डिस्क (जैसा कि प्रशासनिक उच्चाधिकारियों के सरकारी मुलाजिम पहने होते हैं) लटक रहा था। देखते ही मैं पहचान गया कि खरीदार प्रशासनिक अधिकारीगण ही हैं। अधिकारीगण काउंटर पर सेल्समैन बने दूकान (फर्म) के मालिक से बहुरंगी खूबसूरत कीमती कालीनों के कैटलग देख रहे थे। अंततोगत्वा मैंने देखा कि अधिकारियों ने कालीन की रंग व डिजाइन पसंद की और अपनी पसंदीदा कालीनें निकलवाकर बंधवाई। फिर वे अथिकारीगण बाहर खड़ी कार में बैठे और चले गए। दुकान में रह गए उनके मुलाजिमों से पूछा तो पता चला कि कालीन के खरीदार अधिकारीगण धनबाद के उपसमाहर्ता, जिला आपूर्ति पदाधिकारी तथा अनुमंडलाधिकारी धनबाद थे तथा कालीन की यह खरीद आगामी 11 अक्तूबर को राजकुमार यानी राजीव गांधी के धनबाद आगमन पर उनकी स्वागत की तैयारी हेतु की गई है।

राजीव गांधी के लिए राजकुमार शब्द उन मुलाजिमों के मुंह से ही निकले थे। अधिकारियों के रवाना हो जाने के बाद पीछे से उनके साथ आए दोनों मुलाजिमों को मैंने अधिकारियों द्वारा बंधवा रखी गई खूबसूरत पसंदीदा कालीनें दुकान से निकलवाकर रिक्शे पर लादकर ले जाते भी देखा था। दुकान के काउंटर पर जूठी प्लेटें-चम्मच व छुरी-कांटे रखे थे जो साफ बता रहे थे कि खरीदार अधिकारियों की फर्म की ओर से अच्छी खातिरदारी की गई है। फर्म के सेल्समैन को मैंने जब बातों में बहकाकर अंजान बनते हुए पूछा तो उसने भी इस कालीन खरीद को सरकारी बताया तथा मुलाजिमों की बात की पुष्टि की। मैं भी इस खरीद का खुद चश्मदीद था सो मुझे खबर की सत्यता पर पूरा यकीन हो गया। मैंने कुछ क्षणों तक दुकान में लगी टीवी पर आ रही तस्वीरें देखी तथा तस्वीरों की अस्पष्टता व धुंधलेपन पर दो-चार बातें सेल्समैन से बतियाकर जनमत कार्यालय चला गया।

जनमत में डेस्क पर काम कर रहे उप संपादकों (सतीश कुमार तथा गिरीश कुमार) को मैंने यह चटपटी खबर सुनाई जिसे सभी ने पसंद किया। फिर मैंने खबर लिखकर उन्हें दे दी और चूंकि मेरी पाली शाम की थी इसलिए मैं अपने मित्र के घर चला गया जहां मैं उन दिनों ठहरा था। यह खबर डेस्क की किसी भूल या अनियमितता के कारण कई दिनों तक अनछपी पड़ी रही और विलंब से राजीव गांधी के आगमन के अगले दिन 12 अक्तूबर, 83 के अंक में आई। खबर काफी सनसनीखेज थी- राजीव के लिए कालीन खरीद में हजारों रुपए स्वाहा। धनबाद प्रशासन पर इस खबर की काफी तीखी प्रतिक्रिया हुई। यह प्रतिक्रिया बहुत कुछ इसलिए भी कि हमेशा से धनबाद प्रशासन के जेबी अखबार होने की भूमिका निभा रहे जनमत में एकाएक यह तीखी विरोधी खबर कैसे और क्यों छप गई। और वह भी उस दिन जिस दिन राजीव गांधी के दौरे की खबरों और उनके भाषणों से खचाखच भरे पूरे का पूरा जनमत राजीव की दुहाई दे रहा था।

राजीव गांधी से संबंधित इस खबर पर हुई प्रशासनिक प्रतिक्रिया का पता मुझे अक्तूबर के अंत में चला जब मैं छुट्टी से धनबाद वापस लौटा। छुट्टी के बाद मैं 28 अक्तूबर, 83 को जब जनमत कार्यालय काम पर उपस्थित हुआ तो संपादक श्री यूडी रावल ने इस खबर बाबत मुझे डांटा-फटकारा और नौकरी से निकालने की धमकी दी। श्री रावल का कहना था कि जिस अखबार को उन्होंने काफी मेहनत करके प्रतिष्ठित किया है उसे मेरे इस प्रशासन विरोधी खबर से काफी नुकसान पहुंचा है। मैंने जब श्री रावल को अपनी उस खबर की सत्यता बताई थी तो वे मान गए थे परंतु फिर भी उन्होंने मुझे धनबाद प्रशासन के खिलाफ कोई भी समाचार भविष्य में लिखने से मना कर दिया था।

मेरी इस खबर के लिए जैसा कि मुझे छुट्टी से धनबाद लौटने पर मालूम हुआ था, जनमत संपादक श्री यूडी रावल को धनबाद के उप समाहर्ता श्री (डा.) जे एस बरारा ने फोन पर काफी डांट पिलाई थी। फोन वार्ता को करीब से सुननेवाले मेरे एक शुभचिंतक ने मुझे बताया था कि उप समाहर्ता ने फोन पर राजीव गांधी के स्वागत हेतु हजारों रुपए मूल्य के कालीनों की खरीद की बात को स्वीकारते हुए कहा था कि इस अति गोपनीय खरीद को चंद प्रशासनिक उच्चाधिकारी ही जानते हैं, फिर यह बात जनमत तक कैसे पहुंच गई और फिर खबर भी बन गई। उप समाहर्ता ने श्री रावल से तुरंत इस खबर का प्रशासनिक खंडन छापने को कहा। श्री रावल की तो सिट्टी-पिट्टी गुम थी ही, सो वे खंडन छापने की बात झट से मान गए। इस टेलीफोन वार्ता के शीघ्र बाद उप समाहर्ता ने खबर की सत्यता को झुठलाते हुए एक तुड़ा-मुड़ा घुमावदार बनावटी खंडन भिजवाया जो जनमत में छपा। इस खंडन (स्पष्टीकरण) में उप समाहर्ता ने कालीनों की खरीद को झुठलाते हुए तीन हजार रुपयों की कारपेट खरीद की बात कबूल की। उप समाहर्ता के शब्दों में ........ छपे समाचार के प्रसंग में कहना है कि कोई कालीन की खरीद नहीं की गई है। सर्किट हाउस में सिर्फ फटे हुए कारपेट को ढका गया है जिसके लिए मात्र तीन हजार रुपए के कारपेट खरीदे गए हैं। इस खबर के संदर्भ में मुझे कहना है कि मैंने धनसार स्थित कालीन की दुकान मोदी फ्लोर में अपनी आंखों से जो कुछ होता देखा और अनुभव किया वही अपनी उस खबर में लिखा। उस खबर की सत्यता पर मुझे रंच मात्र का भी सुबहा नहीं था। प्रशासन ने तो अपना भ्रष्टाचार छिपाने हेतु खबर का खंडन किया। यह खंडन भी सटीक नहीं बैठता। उप समाहर्ता ने कालीन खरीद की बात को झुठलाते हुए जिस कारपेट खरीद की बात कबूल की है वह भी शाब्दिक रूप में कालीन का ही बोध कराता है। भार्गव बुक डीपो, वाराणसी से प्रकाशित अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोष– Bhargavas Standard Illustrated Dictionary of The English Language (April, 1972 Reprint edition) के पृष्ठ संख्या 124 पर अंग्रेजी के शब्द कारपेट (Carpet) का हिन्दी अर्थ कालीनगलीचा और दरी बताया गया है। मैंने जिस कालीन शब्द का प्रयोग अपनी खबर में किया है वह क्या अंग्रेजी शब्द Carpet का शुद्ध हिन्दी अर्थ नहीं। फिर उप समाहर्ता ने भी तो अपने स्पष्टीकरण में तीन हजार रुपयों के व्यय की बात स्वीकारी है। इस स्वीकारोक्ति से क्या मेरी इस खबर की पूरी पुष्टि नहीं हो जाती कि राजीव के लिए कालीन खरीद में हजारों रुपए स्वाहा कर डाले गए। तीन हजार रुपयों का वह व्यय क्या हजारों रुपए के व्यय से परिभाषित नहीं किया जा सकता। अत: इसमें कोई शक-सुबहा नहीं बचता कि मेरी वह खबर सही थी और उप समाहर्ता ने जो खंडन किया वह सरासर गलत था। एक तरह से तो उस स्पष्टीकरण में उप समाहर्ता ने मेरी उक्त खबर की पुष्टि ही कर दी है। फिर मैं गलत कहांऐसे में इस खबर से जनमत को (संपादक/प्रबंधन को) क्यों कर कोई आघात लग सकता है। पत्र के संपादक ने इस खबर से जो आघात लगने की बात कही वह कतई समझ नहीं आती। हां, यदि कुछ हुआ तो वह यह कि जनमत के निरंतर धनबाद प्रशासन का एक जेबी अखबार बने रहने की परंपरा इस खबर से खंडित हो गई। जनमत संपादक ने तो अपना पलड़ा मेरे इस मामले में भारी बनाने के लिए और स्वयं को दूध का धोया सिद्ध करने के इरादे से मेरे ऊपर तरह-तरह के झूठे और मनगढ़ंत आरोप लाद दिए हैं।

मुझे जनमत की ओर से राजीव गांधी की सभा का समाचार लाने नहीं भेजा गया था। संपादक का यह आरोप सरासर झूठ है कि मुझे 11 अक्तूबर, 83 को जनमत की ओर से राजीव गांधी की सभा का समाचार लाने भेजा गया था और मैं उधर से सभा स्थल से ही सीधे अपने घर (मुंगेर) चला आया (गया) था। मैं अपनी इच्छा से राजीव गांधी की सभा में गया था और खबरें जुटाई थी तथा छायांकन भी किया था। सब अपनी इच्छा से और अपने अलग उपयोग के लिए, जनमत के लिए नहीं। राजीव गांधी की सभा दोपहर को हुई थी और मेरी जनमत की ड्यूटी शाम के पांच बजे शुरू होती थी। मेरे पास दिन भर का पूरा समय खाली होता था जिसका उपयोग मैं धनबाद में जनमत में रहते हुए हमेशा अपने निजी और अलग से पत्रकारिता में करता था और जहां-तहां दूसरी जगहों पर लिखता-छपता था। मैंने 11 अक्तूबर, 83 को शाम 5 बजे से रात्रि के 11-12 बजे तक जनमत के संपादकीय डेस्क पर बाकायदा अपनी ड्यूटी दी थी और काम किया था, राजीव की सभा से लौटने के बाद। राजीव की सभा में तो जनमत संपादक यूडी रावल, प्रबंधक श्री सतीश चंद्र, पत्र के नगर संवाददाता श्री अजीम खां और मेरे उप संपादक सहकर्मी श्री विजय कुमार श्रीवास्तव भी थे और संपादक श्री रावल को छोड़कर बाकी के हम लोग सभी साथ-साथ ही प्रबंधक श्री सतीश चंद्र की निजी कार में बैठकर सभास्थल तक गए थे जिसमें मैं भी था। जनमत संपादक श्री रावल और जनमत के कोयलांचल संवाददाता श्री महेंद्र भगानिया पहले ही चल दिए थे औऱ हवाई अड्डे से ही राजीव के साथ सभास्थल गोल्फ ग्राउंड पहुंचे थे। सभा की समाप्ति पर मैं और श्री विजय कुमार श्रीवास्तव (दोनों उप संपादक) साथ-साथ जनमत कार्यालय लौटा था। फिर मेरे सभास्थल से सीधे घर चले जाने की बात कहां सिद्ध होती है। 11 अक्तूबर की रात मैंने जनमत में काम किया और फिर रात में वहीं जनमत कार्यालय (प्रेस कक्ष) में ही सो गया। जनमत के रात्रिकालीन उप संपादक श्री राजकपूर उस रात भी वहीं थे और उन्होंने ही मुझे कोई साढ़े तीन बजे रात (12 अक्तूबर के 03.30 बजे) सोते से जगाया था। फिर मैंने श्री कपूर से उस समय 12 अक्तूबर, 83 के जनमत का ताजा अंक जो उस वक्त छपकर निकलने वाला था, लिया और अपना सामान उठाकर धनबाद रेल स्टेशन रवाना हो गया था जहां से सुबह 04.45 बजे खुलनेवाली धनबाद-पटना चलनेवाली पाटलिपुत्र एक्सप्रेस पकड़कर मुंगेर आया था। उस रात मैंने अपना सामान जनमत की ड्यूटी खत्म होने के बाद अपने मित्र के घर से लाकर जनमत प्रेस कक्ष में रख लिया थ और वहीं सो भी गया था।

जनमत की ओर से उप संपादक पद के लिए साक्षात्कार का बुलावा मिलने पर मैं मुंगेर से धनबाद पहुंचा था और अपने एक मित्र के घर पर धनबाद में ठहरा था। 6 अक्तूबर, 83 को  साक्षात्कार लिए जाने के शीघ्र बाद मुझे नियुक्त कर लिया गया था और मैं 7 अक्तूबर, 83 से जनमत उप संपादक के रूप में काम भी करने लगा था। मैं अपने मित्र के घर पर ही रुका हुआ था। मैं अपने साथ बिस्तर तथा अपना अन्य सामान वहां धनबाद लेकर नहीं गया था। सारा सामान ले जाने का उस समय कोई सवाल नहीं था क्योंकि मैं तो साक्षात्कार हेतु गया था और यह निश्चित तो था नहीं कि मुझे तुरंत नियुक्त ही कर लिया जाएगा। 7 अक्तूबर से 11 अक्तूबर तक मैंने वहां काम किया। 10 अक्तूबर को ही मैंने जनमत संपादक को छुट्टी के लिए एक अर्जी दे रखी थी यह कहकर कि मैं यहां सामान के साथ नहीं आया हूं और चूंकि मुझे अब यहीं रहकर जनमत की सेवा करनी है अत: मुझे घर जाकर अपना बिस्तर व अन्य जरूरत भर का सामान लाने हेतु 10 (दस) दिनों की छुट्टी दी जाए। मैंने 12 अक्तूबर से 21 अक्तूबर तक की दस दिनों की छुट्टी मांगी थी। दस दिनों की छुट्टी इसलिए कि मुझे घर जाकर कुछ पैसे की भी व्यवस्था करनी थी अन्यथा फिर धनबाद लौटकर रहता-खाता कैसे। वेतन तो मुझे महीने भर बाद ही मिलती। तब तक मुझे मकान किराया व भोजन खर्च के पैसे की तो घर से ही व्यवस्था करके आनी थी। एक गरीब परिवार का होने के नाते महीने भर का खर्च जुटाने के लिए समय की आवश्यकता थी। घर पर पहले के विखरे कुछ काम काज भी निपटाने थे। यही सोच कर मैंने 12 से 21 अक्तूबर तक की 10 दिनों की छुट्टी मांगी थी। यह छुट्टी संपादक श्री यूडी रावल ने मुझे मंजूर भी की थी। तभी मैं घर आया था। 12 अक्तूबर को यानी 11 अक्तूबर, 83 तक जनमत में काम करने के बाद इस तरह जनमत संपादक का यह आरोप कि मैं राजीव गांधी के सभास्थल से सीधे घर चला आया था और वह भी बिना जनमत प्रबंधन को बताए, बिल्कुल झूठ है। हां, यह आरोप उनका बिल्कुल सही है कि मैं दशहरे के बाद जनमत में काम पर उपस्थित हुआ। हुआ असल में यह कि मुंगेर के साफ सुथरे पर्यावरण से धनबाद के धुआंकश गंदे वातावरण में जो मैं जाकर कई दिन रहा वह नया-नया होने के कारण मेरे स्वास्ध्य को अनुकूल और फिट नहीं रहा। और इसी के फलस्वरूप मैं घर लौटते ही बीमार हो गया। धनबाद के कार्बनयुक्त वातावरण में बाहर से पहुंचने वाला हर नया आदमी शुरू-शुरू में एक बार बीमार होता है। और जब उसे वहां के प्रदूषित पर्यावरण में रहने की आदत लग जाती है तो वह वहीं सामान्य हो जाता है। मेरे साथ भी यही हुआ। स्वस्थ होने में थोड़ा विलंब हुआ और मैं 27 अक्तूबर की रात धनबाद पहुंचा था तथा अगले दिन 28 अक्तूबर, 83 की शाम की अपनी पाली से अपनी ड्यूटी मैंने करनी फिर शुरू की थी। उस समय तो श्री रावल मान गए थे और अब वे मेरे इस विलंब पर आरोप का मुलम्मा चढ़ा रहे हैं। उस समय तो उन्होंने मेरे इस विलंब और छुट्टी के दिनों का वेतन भी नहीं काटा था। मुझे जब अक्तूबर, 83 माह का वेतन 3 नवंबर, 83  को मिला तो वह वेतन 250 रुपए प्रति माह के दर पर कुल 201 रुपए 60 पैसे था। यानी 7 अक्तूबर से 31 अक्तूबर, 83 तक का पूरा वेतन कुल 25 दिनों का।

जनमत संपादक ने 9 नवंबर, 83 के जनमत में छपे जिस खबर (झरिया में युवा पत्रकारों की बैठक) का हवाला देते हुए मुझ पर जो उसके झूठ होने और गढ़ कर छापने तथा संपादकीय विभाग के दो प्रशिक्षणार्थियों को फुसलाने और उनमें अनुशासनहीनता भरने का आरोप लगाया है वह भी बेबुनियाद है। यह खबर कोई झूठ और गढ़ी गई नहीं वरण प्रतिशत सही और वास्तव में हुई एक बैठक की खबर है (थी)। यह बैठक 4 नवंबर को झरिया के डोयचेवेले लिस्नर्स क्लब में आयोजित हुई थी। इस बैठक में धनबाद जिले के कोई दर्जन भर युवा पत्रकारों ने भाग लिया था। इस पत्रकार बैठक में भाग लेने वाले पत्रकार बड़े और सरकारी मान्यताप्राप्त पत्रकार नहीं थे। छोटे-छोटे स्तर से काम करनेवाले युवा पत्रकारों ने ही इस बैठक में भाग लिया था। इस बैठक का आयोजन भी छोटे स्तर के पत्रकारों ने ही किया था जो तमझाम वाला बिल्कुल नहीं था। बैठक में आए अधिकांश पत्रकार मुझ जैसे आधारहीन स्थितियों वाले थे जो मेरी ही तरह कई-कई साप्ताहिक अखबारों या फिर किसी क्षेत्रीय दैनिक के संवाददाता थे। कुछ पत्रकार मेरी तरह दैनिक पत्र के उप संपादक भी थे। दैनिक जनमत के भी कई उप संपादक इस बैठक में आए थे जिनमें एक मैं भी था। बैठक की अध्यक्षता मैंने की थी। बैठक का मुख्य उद्देश्य मौजूदा व्यवस्था द्वारा छोटे-छोटे स्तर से काम कर रहे पत्रकारों विशेषकर युवा पत्रकारों की निरंतर उपेक्षा होने के खिलाफ आवाजें उठाना था ताकि सरकार लघु पत्रिकाओं और लघु समाचारपत्रों के संवाददाताओं को भी मान्यता प्रदान करने की सोचे। हमने इस बैठक में ऐसी आवाज बुलंद भी की थी। धनबाद के जिला सूचना अधिकारी से हम पत्रकारों को इन दिनों यह खबर मिली थी कि सरकार ने साप्ताहिक अखबारों के संवाददाताओं को भी एक्रेडेशन देने का कोई प्रावधान किया है। इसी बात पर हम युवा पत्रकारों ने एक बैठक कर युवा पत्रकारों विशेषकर छोटे पत्रों से जुड़े युवा पत्रकारों की स्थिति में सुधार के लिए कुछ आवाज उठाने एवं सरकार के समक्ष अपने विचार व सुझाव रखने का निर्णय लिया था। इसी परिप्रेक्ष्य में यह पत्रकार बैठक हुई थी। बैठक के नहीं होने का कोई सवाल ही नहीं है।

झरिया शहर में आयोजित इस पत्रकार बैठक में उपस्थित पत्रकारों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किए थे। किसी पत्रकार वक्ता ने किसी पत्रकार पर न तो कोई आरोप ही लगाए थे और न किसी पत्रकार के खिलाफ कोई शब्द ही कहे थे। जनमत के किसी वरिष्ठ पत्रकार पर या फिर धनबाद के किसी वरिष्ठ पत्रकार पर इस बैठक में कोई आरोप नहीं लगाए गए और न तो किसी पत्रकार ने जनमत के या फिर जिले के किसी वरिष्ठ पत्रकार के खिलाफ कुछ कहा ही। बैठक में तो  उपस्थित पत्रकारों ने युवा पत्रकारों के प्रति सरकारी बेरुखी की निंदा भर्त्सना की थी तथा युवा पत्रकारों को अविलंब सरकारी मान्यताप्राप्त पत्रकारों की श्रेणी में लाने के लिए सरकार से मांग की थी। बैठक में सरकार द्वारा गिनती के मुट्ठी भर पत्रकारों को ही प्रश्रय देने तथा पत्रकारिता के नाम पर मिलनेवाली सुख सुविधाओं के केंद्रीयकरण होने साथ ही समस्त सरकारी सुख सुविधाओं का लाभ उन्हीं चंद गिनती के पत्रकारों को मिलने की बात कह कर यह मांग की गई थी कि सरकार ये सुविधाएं सभी छोटे-बड़े युवा पत्रकारों को भी मुहैया करे। बैठक में युवा पत्रकारों को पीत पत्रकारिता से अलग रहने, सैद्धांतिक रूप से सही बने रहने तथा नैतिकता पर मजबूती से खड़े रहने को कहा गया था। मौजूदा पत्रकारिता धारा में युवा पत्रकारों को योगदान व उनकी भूमिका को भी बैठक मे उजागर किया गया था एवं उनपर व्यापक चर्चाएं हुईं थीं। पत्रकारिता की नैतिकता की बात उठाई गई थी तथा पत्रकारों में व्याप्त भ्रष्टाचार को समाप्त करने की बातें भी कही गईं थीं। यही सब बातें तो जनमत में खबर रूप में छपी थी। कोई अनैतिक बात न तो बैठक में हुई थी और न जनमत की उस खबर में छपी थी। जो कुछ छपा है वह बिल्कुल नैतिक और शालीन है। किसी पर कोई आरोप का कोई जिक्र नहीं है। फिर जनमत संपादक को उस खबर में धनबाद के वरिष्ठ पत्रकारों और जनमत के वरिष्ठ पत्रकारों पर लगाए गए आरोप जिनका कहीं कोई उल्लेख ही उस खबर में नहीं है, कहां और कैसे झलक गए। यदि उन्हें झलके तो उन पंक्तियों को उन्होंने अपने आरोप में उल्लिखित क्यों नहीं कर डाला। कोई भी पाठक या जानकार उस खबर को पढ़कर आसानी से उसकी नैतिकता व शालीनता की बात कह देगा। आप भी इस पर विचार कर सकते हैं कि जनमत संपादक का यह आरोप कितनी दूर तक सही है। मुझे तो इस आरोप में कहीं कोई रंच मात्र की भी सच्चाई नहीं दिखाई दे रही। बैठक में बोलनेवाले सभी पत्रकार वक्ताओं के विचार तो जनमत में प्रकाशित इस खबर में  स्थानाभाव के कारण आ भी नहीं सके। मात्र गिनती के पत्रकारों के विचारों को ही जनमत के कॉलमों में अंटाया जा सका।

जनमत संपादक ने मुझ पर जनमत संपादकीय विभाग के दो प्रशिक्षणार्थियों मे अनुशासनहीनता भरने और दो प्रशिक्षणार्थी सहकर्मियों को गलत ढंग से फुसलाने व गलत समाचार छापने का जो आरोप गढ़ा है वह सरासर झूठ है। 9 नवंबर, 83 के अंक में छपे जिस खबर का जिक्र उन्होंने किया है वह खबर प्रतिशत सही है जिसकी चर्चा मैं ऊपर कर चुका हूं। न तो मैंने कभी किसी को जनमत में फुसलाया ही और न किसी में कभी अनुशासनहीनता ही भरी। दूसरे यह कि जनमत में काम करने वाला एक भी व्यक्ति किसी भी तरह का या किसी भी रूप में प्रशिक्षणार्थी नहीं, चाहे वह संपादकीय विभाग हो या फिर कोई अन्य विभाग। मैं जनमत का वेतनभोगी बाकायदा नियुक्त उप संपादक था। मेरा कोई सहकर्मी किसी भी तरह का प्रशिक्षणार्थी नहीं था। मेरे सभी सात सहकर्मी ने मेरी ही तरह जनमत के वेतनभोगी और बाकायदा नियुक्त उप संपादक थे। जनमत के कुल वेतनभोगी उप संपादकों की संख्या मुझ समेत तब आठ थी। कोई अवैतनिक उप संपादक नहीं था।

जनमत संपादक का यह कथन सही है कि उनके अखबार में ब्लॉक बनाने की सुविधा नहीं है। लेकिन उनका यह कथन सही नहीं है कि चित्रों से उनका मतलब नहीं है। जनमत में जब-तब फोटो छपते हैं। मेरे चार महीने के कार्यकाल में भी कई बार फोटो छपे हैं। इन छायाचित्रों के ब्लॉक पटना/कलकत्ता से बनवाकर लाए गए थे। हां, 1 फरवरी, 84 को धनबाद में कैदी-पुलिस के आपसी संबंधों से उपजे आपत्तिजनक दृष्यों के उन छायांकनों से जनमत का कोई सरोकार नहीं था जिनको लेकर मेरा पुलिस वालों से तब झगड़ा हो गया था जब पुलिसवालों ने मुझे हाजती कैदियों से बुरी तरह पिटवा दिया था तथा मेरे कैमरे को तुड़वा-फुड़वा दिया था और कैमरे की फिल्म छीन ली थी व मुझे मारा-पीटा व गरदनियां दी थी। जनमत संपादक ने एक बार तब मेरे छायांकनों को जनमत में छापने की इच्छा व्यक्त की थी जब 27 दिसंबर, 83 के दैनिक जनसत्ता में धनबाद में कोयला चोरी पर मेरी एक सचित्र रपट छपी देखी थी। कोयला चोरी के विषय पर मैंने उन दिनों धनबाद में काफी कुछ काम किया था। जनसत्ता में छपी मेरी वह रपट थी – काले हीरे की लूट। जनमत संपादक श्री रावल ने तब कोयला चोरी विषय पर मेरी सभी चित्रें देखी थी और उनमें से कई छायांकन जनमत के लिए पसंद की थी परंतु इससे पूर्व की मेरे उन छायाचित्रों का वे ब्लॉक बनवाते और फिर उसे जनमत में छापते मुझे उन्होंने नौकरी से निकाल दिया। कैदी वाले छायांकन से जनमत का भले कोई मतलब नहीं हो लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं होता कि मुझे पुलिस पीटे-पिटवाए और जनमत में उसकी खबर तक न छपे, जबकि मैं जनमत का उप संपादक था। अपने एक कर्मचारी के साथ घटी निर्मम पिटाई की घटना को जनमत संपादक द्वारा जनमत में जगह नहीं दिया जाना क्या कर्मचारियों के प्रति पत्र संपादक की नीयत में खोट होने का अहसास नहीं कराता। पुलिस-कैदी संबंध का फोटो खींचकर मैंने अपने पेशे के कर्तव्य का ही निर्वाह किया था, कोई अपराध नहीं किया था। फिर उन्होंने इस छटना को खबर क्यों नहीं बनाया। वे तो स्वयं को निरपेक्ष और दूध के धोए तभी साबित कर सकते थे जब वे मेरे साथ घटी इस घटना की निष्पक्ष खबर छापते और पुलिसवालों की खबर लेते। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उल्टे मुझे ही डांटा-फटकारा और यहां तक कि धनबाद के एक प्रतिष्ठित वरिष्ठ पत्रकार कलकत्ता के अंग्रेजी दैनिक टेलीग्राफ के धनबाद संवाददाता श्री अजय कुमार मिश्र से भी झगड़ा कर लिया जब कि श्री मिश्र ने मेरे साथ घटी इस घटना और फिर इसकी खबर जनमत में न छपने बाबत उनसे (संपादक श्री यूडी रावल) पूछा। नौकरी से निकालते वक्त भी संपादक व अखबार प्रबंधन की ओर से मुझे यही कहा गया था कि, तुमने अपनी पिटाई की खबर जनमत में न छपने बाबत अजय कुमार मिश्र को क्यों बताया।‘.जनमत संपादक/प्रबंधन का यह कहना क्या उचित था।

जनमत की नौकरी से निकाल दिए जाने के बाद मैं बिल्कुल सड़क पर आ गया और धनबाद जैसे अति महंगे शहर में जीने-खाने का कोई जरिया नहीं रहने के कारण ही मैंने धनबाद छोड़ दिया और यहां अपने गांव मुंगेर चला आया। पुलिस के साथ हुए झगड़े के कारण धनबाद में मैं कतई आतंकित और भयभीत नहीं हुआ था। धनबाद के तमाम प्रबुद्ध पत्रकार व मेरे मित्रगण मेरे साथ थे औऱ वहां मुझे कोई भय नहीं था। सवाल रोजी-रोटी का था जो मुझसे छिन गया था। फिर मैं वहां कैसे टिक सकता था। फिर भी नौकरी से निस्कासन के कई हफ्ते बाद तक मैं वहां जमा रहा औऱ फिर गांव लौट आया। जनमत संपादक का यह कहना कि मैं आतंकित हो गया और अखबार प्रबंधन को सूचित किए वगैर गांव लौट आया सरासर झूठ और बनावटी है।

 

मैं जनमत में प्रशिक्षणार्थी नहीं था। मैं जनमत का उप संपादक था। धनबाद के कई-कई वरिष्ठ और प्रतिष्ठित पत्रकार जो बराबर जनमत आते-जाते थे, यह बखूबी जानते थे कि मैं जनमत का उप संपादक हूं, प्रशिक्षणार्थी नहीं तथा मुझे जनमत संपादक/प्रबंधन ने बाकायदा वेतनभोगी उप संपादक बहाल कर रखा था। उन पत्रकारों में कइयों ने मेरे निस्कासन और पुलिस से हुए झगड़े और मेरी पिटाई बाबत खबरें भी अपने-अपने अखबारों में लिखी। आप चाहें तो मैं उन पत्रकारों से कहलवा सकता हूं। उन अखबारों में मेरे बाबत छपी खबरों की कतरनें आपको भेज सकता हूं, यदि आप ऐसा कुछ प्रमाण चाहें। धनबाद के अपने ढेर सारे मित्रों जिनमें मेरे पत्रकार मित्र भी शामिल हैं, से मैं जनमत में अपनी उप संपादक की हैसियत से बहाली बाबत गवाह दिलवा सकता हूं, जब कभी आप जिस रूप में चाहेंगे। जैसा चाहें और उचित समझें, मुझे आदेश दें।

आशा है, जनमत संपादक द्वारा गढ़े गए बनावटी आरोपों पर मेरे उपरोक्त तथ्यपरक विचारों व कथन से आप मेरे इस मामले में सच की गहराई तक सरलता से जा सकेंगे।

पूर्ण सहयोग व न्याय की इन्हीं उम्मीदों में,

आपका,

(डा. गणेश प्रसाद झा)

दिनांक- 26-12-84.

– गणेश प्रसाद झा


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