रविवार, 31 जुलाई 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 30

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की तीसवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 30

71. ओम थानवी के बारे में नकारात्मक और आपत्तिजनक कहानियां

वैसे तो चंडीगढ़ जनसत्ता के स्थानीय संपादक ओम थानवी जी हमारे लिए हमेशा आदरणीय ही रहे। मेरा उनसे परिचय उस समय हुआ जब प्रभाष जोशी जी मुझे बंबई जनसत्ता से वापस दिल्ली लेकर आए। दिल्लीजनसत्ता में मुझे जनसत्ता के तमाम संस्करणों के बीच खबरों के कोऑर्डिनेशन का काम दिया गया था। मुझे हर समय जनसत्ता के स्थानीय संपादकों के संपर्क में रहना होता था। दिल्ली जनसत्ता आने के बाद से थानवी जी से लगभग रोज ही बात होने लगी। थानवी जी उन दिनोंजनसत्ता के चंडीगढ़ संस्करण के स्थानीय संपादक हुआ करते थे। थानवी जी के चंडीगढ़ में रहने के दिनों ही उनके बारे में कई तरह की बहुत ही नकारात्मक और आपत्तिजनक बातें, टिप्पणियां और बेहद नकारात्मक कहानियां सुनने को मिली थी। उन नकारात्मक कहानियों में कितनी सच्चाई थी या फिर वे सच थीं भी या नहीं यह तो नहीं कहा जा सकता पर लोग इसकी खूब चर्चा करते थे। उस दौर की वे नकारात्मक और आपत्तिजनक कहानियां उनके आचरण और उनके तरह-तरह के संबंधों को लेकर होती थीं। चंडीगढ़ जनसत्ता के लोग बहुत चटखारे ले-लेकर उनकी उन नकारात्कम और कथित रंगीनमिजाजी की तरह-तरह की कहानियों की खूब चर्चा किया करते थे और उन्हें खूब आनंद के साथ सुनते और दूसरों को भी सुनाया करते थे। ओम थानवी के बारे में उन दिनों चल रही उन नकारात्मक और कथित रंगीनमिजाजी की कहानियों पर कभी यकीन तो नहीं होता था पर वे नकारात्मक और कथित रंगीनमिजाजी की आपत्तिजनक कहानियां चंडीगढ़ और कुछ-कुछ दिल्ली की मीडिया की फिजां में बहुत प्रमुखता से और काफी समय तक चर्चा में जरूर बनी रही थीं।

72. शेखर गुप्ता ने प्रभाष जोशी और जनसत्ता दोनों को मरोड़ा

कंपनी मालिक विवेक गोयनका ने जब शेखर गुप्ता कोइंडियन एक्सप्रेस का संपादक बनाया था तो उनको कंपनी का सीईओ भी बना दिया था। पहले ऐसी परंपरा नहीं होती थी। पत्रकारिता के इस बाजारीकरण से ही यह विकृति आई। इंडियन एक्सप्रेस के संपादक और सीईओ शेखर गुप्ता न तो प्रभाष जोशी को पसंद करते थे और न जनसत्ता को। दरअसल, शेखर गुप्ता को हिन्दी और हिन्दी वालों से बहुत चिढ़ थी। शेखर गुप्ता एकदम से तुले हुए थे कि जनसत्ता को किसी तरह बंद करा दिया जाए। उनकी योजना के मुताबिक एकाएक जनसत्ता के अच्छे खासे फायदे में चल रहे दो संस्करण जनसत्ता चंडीगढ़ और जनसत्ता बंबई बंद कर दिए गए। सीईओ शेखर गुप्ता ने प्रभाष जोशी को अपमानित करने और उन्हें हाशिए पर धकेलने की कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी।

कंपनी मालिक विवेक गोयनका की पत्नी अनन्या गोयनका बिल्कुल नहीं चाहती थीं कि उनके मायके कोलकाता से जनसत्ता बंद हो जाए। इसीलिए प्रभाष जोशी जी कोलकाता संस्करण को बचा सके। लेकिन जिन लोगों को वे बतौर टीम लेकर आए थे, एक के बाद एक करके उन लोगों को कंपनी द्वारा वीआरएस देते रहने के सिलसिले को वे रोक न सकें और न जनसत्ताकोलकाता के साथियों की हैसियत को ही वे थोड़ा भी बदल सके। उस समय खून के आंसू रोते रहे थे प्रभाष जोशी और कोलकाता संस्करण के उनके लाए लोग किं कर्तव्य विमूढ़ होकर यह सब होते देखते रहे थे। कंपनी के वीआरएस लाने के पीछे भी कहते हैं दिमाग शेखर गुप्ता का ही काम कर रहा था। शेखर गुप्ता जनसत्ताऔर प्रभाष जोशी से हिन्दी विरोध की अपनी खुन्नस निकाल रहे थे। उन दिनों जनसत्ता के कार्यकारी संपादक ओम थानवी हमेशा शेखर गुप्ता की सिर्फ हां में हां मिलाने में मशगूल रहते थे। वे भीतर से बहुत खुश थे कि प्रभाष जोशी एक तय योजना के तहत निपटाए जा रहे हैं।

73. प्रभाष जोशी से सबकुछ छीन लेने का खेल भी हुआ

राहुल देव ने साजिश रचकर प्रभाष जोशी से उनका प्रधान संपादक का पद छिनवाकर उन्हें श्रीहीन कर दिया था और खुद जनसत्ता की गद्दी पर बैठ गए थे। जब ओम थानवी आए तो य़े भी प्रभाष जोशी से दुश्मनी की गांठ बांधकर बैठ गए। ओम थानवी ने प्रभाष जोशी को तरह-तरह से अपमानित और प्रताड़ित किया। एक बार जब मैं अपनी एक पीड़ा लेकर मदद के लिए प्रभाषजी के पास गया था तो उन्होंने मेरी कोई मदद करने में अपनी लाचारी दिखाते हुए मुझसे अपनी यह पीड़ा जाहिर कर दी थी। ओम थानवी ने आने के कुछ ही दिनों बाद से प्रभाष जी को अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया था। प्रभाष जी का साप्ताहिक कॉलम कागद कारे अटकने और रुकने लगा था। एकाध हफ्ते यह कॉलम नहीं भी छापा गया। ऐसा करके ओम थानवी ने प्रभाष जोशी को अपनी औकात बता दी और उनको यह संकेत देना भी शुरु कर दिया कि वे अब जनसत्ता से अपनी तशरीफ ले ही जाएं तो अच्छा क्योंकि इसी में उनकी भलाई है। किसी भी मामले में न तो प्रभाष जी से कुछ पूछा जाता था और न तो उनकी कोई बात मानी जाती थी। प्रभाष जी केवल बराएनाम सलाहकार संपादक बने रहे थे। वे सिर्फ दफ्तर आते थे और अपना लेख या कॉलम लिखकर दे दिया करते थे। बस। प्रभाष जी को तंग करने में ओम थानवी ने भी राहुल देव वाला तरीका ही अपनाया था। कुल मिलाकर ओम थानवी ने दफ्तर में ऐसे हालात पैदा कर दिए कि प्रभाष जोशी के लिए वहां रहना बहुत कठिन हो गया।

मेरी जानकारी के मुताबिक कंपनी ने प्रभाष जोशी को पूर्वी दिल्ली के लक्ष्मीनगर में एक मकान दे रखा था जिसका किराया कंपनी चुकाती थी। वह मकान एक तरह से कंपनी लीज पर था। प्रभाष जी के पास कई सालों से दफ्तर की एक एंबेसेडर कार भी थी जिससे वे रोज दफ्तर आया-जाया करते थे। कार का ड्राइवर भी कंपनी का ही दिया हुआ था। कार हमेशा प्रभाष जोशी के डिस्पोजल पर ही रहती थी। प्रभाष जोशी केजनसत्ता के प्रधान संपादक पद से हटने और सलाहकार संपादक बनने के बाद भी वह मकान और ड्राइवर सहित वह कार प्रभाष जोशी के पास ही थी। कई साल तक यह सब प्रभाष जी के पास ही रहा। पर बाद मेंजनसत्ता के ही कुछ वरिष्ठ लोग बताते हैं कि ओम थानवी ने ऐसी चाल चली कि कंपनी ने उनसे वह घर छीन लिया। घर छिनने के बाद प्रभाष जी गाजियाबाद स्थित जनसत्ता हाउसिंग सोसायटी के अपने खुद के मकान में रहने आ गए। फिर भी कंपनी की दी हुई गाड़ी उनके पास ही रही और कंपनी का ड्राइवर भी उनके पास रहा। पर थोड़े समय बाद कंपनी की दी हुई वह कार भी उनसे ले ली गई। यह सब उनके जनसत्ता के सलाहकार संपादक पद पर रहने के दौरान ही घटित हुआ।

कहते हैं एक बार प्रभाष जोशी किराए की कार लेकर दिल्ली शहर में कहीं किसी काम से गए थे तो रास्ते में कहीं उनको जनसत्ता के पूर्व उत्तर प्रदेश ब्यूरो प्रमुख हेमंत शर्मा जी मिल गए। हेमंत शर्मा ने अपने संपादक को इस तरह किराए की कार में चलते देखा तो रोक कर उनसे पूछा कि आप किराए की गाड़ी में क्यों हैं? आपकी दफ्तर की गाड़ी कहां गई? जब प्रभाष जी ने हेमंत जी को बताया कि दफ्तर की गाड़ी कंपनी ने वापस ले ली है तो उनसे यह सुनकर हेमंत जी बहुत दुखी हुए। कहते हैं हेमंत शर्मा ने उसी दिन एक नई कार खरीदकर प्रभाश जोशी जी के घर भिजवा दी। हेमंत शर्मा की अपने गुरू प्रभाष जोशी को यह गुरू दक्षिणा थी। हेमंत शर्मा आज जो कुछ भी हैं वह प्रभाष जोशी की ही कृपा है। इसके कुछ समय बाद प्रभाष जी ने जनसत्ता के सलाहकार संपादक के पद से इस्तीफा दे दिया।

74. प्रभाष जोशी के नाम पर बना न्यास

प्रभाष जोशी का 5 नवंबर 2009 को निधन हो गया। उनके जाने के बाद उसी साल 27 दिसंबर को जनसत्ताके लोगों ने उनकी याद में उनके नाम पर एक न्यास का गठन किया। नाम दिया गया प्रभाष परंपरा न्यास । प्रभाष जोशी दिल्ली केंद्रित पत्रकारिता के पक्ष में नहीं थे। वे हिंदी को इतना सबल बनाना चाहते थे और पत्रकारों को इस तरह वेतन और सुविधाओं से संपन्न करना चाहते थे कि सभी हिंदी भाषी नगरों में पत्रकार एक खोजी और खबर लाने वाला बन सके। उसके लेखन में बोलियों की पकड़ हो और वह अच्छी शैली में हो। प्रभाष जी चले गए पर उनकी इस चाह को न्यास पूरा न कर सका। चंद पढे लिखे विद्वान उनका नाम लेते हुए हिंदू परंपरा का बखान कर देते हैं। कबीर वाणी गा दी जाती है और खा पी कर लोग खिसक लेते हैं। न्यास हमेशा पैसे की कमी का रोना रोता है। न्यास की ओर से कभी खर्चे के ब्योरे सार्वजनिक नहीं किए जाते। 

न्यास की ओर से प्रभाष जी का सारा लिखा छापा जाना था। छापकर उसे सस्ती कीमत पर बेचना था। हिंदी प्रदेशों की राजधानियों में युवा पत्रकारों से सही लेखन पर बातचीत करनी थी। पर यह सब कुछ नहीं हुआ।जनसत्ता के वरिष्ठ लोग कहते हैं कि क्या यह एक जागरूक पत्रकार को आडम्बरी भव्यता में खत्म कर देने की योजना नहीं है? क्या एक पत्रकार के प्रति श्रद्धा का यही उपयुक्त तरीका है?

इस न्यास को लेकर जनसत्ता के लोगों में ही आपस में कई बार विवाद हुआ है। न्यास को आज भी बहुत कम लोग जानते हैं। जनसत्ता से जुड़े सभी लोगों को इसके बारे में पता भी नहीं है। जनसत्ता के भी बहुत कम लोग न्यास की गतिविधियों से वाकिफ हैं। खासकर दिल्ली वालों को ही न्यास की गतिविधियों की जानकारी रहती है। जनसत्ता के ही कुछ लोगों का कहना है कि इस न्यास को कुछ लोगों ने हथिया लिया है और उसके नाम और बल पर राजनीति की जा रही है।

– गणेश प्रसाद झा

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पत्रकारिता कीकंटीली डगर- 29

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की उनतीसवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 29

68. जनसत्ता को मुनाफे की जगह घाटे में दिखाने का खेल

जनसत्ता के जानकार बताते हैं कि जनसत्ता कभी भी धाटे में नहीं रहा। चंडीगढ़ और बंबई संस्करण तो हमेशा से मुनाफे में रहा। चंडीगढ़ संस्करण ने तो अपने पुलआउट से एक-एक दिन में कई-कई लाख रुपए कमाकर दिए। पर कंपनी वाले जनसत्ता के इस मुनाफे को हमेशा इंडियन एक्सप्रेस के खाते में डाल देते थे ताकि उनका फ्लैगशिप अखबार इंडियन एक्सप्रेस हमेशा मुनाफे में नजर आए। हिमाचल प्रदेश में इंडियन एक्सप्रेस का कोई नामलेवा नहीं था पर जनसत्ता वहां जमकर बिकता था। 1995 से 1998 के दौरान हिमाचल में इंडियन एक्सप्रेस की बमुश्किल 15-20 कॉपियां जाती थी पर जनसत्ता की 1500 कॉपियां जाती थी। सर्कुलेशन वाले मांग आने पर भी जनसत्ता की कॉपियां नहीं बढ़ाते थे। कहते थे इंडियन एक्सप्रेस की बढ़ाओ तब जनसत्ता की बढ़ाएंगे। इस तरह कंपनी की पॉलिसी जानबूझकर तरह-तरह की गंदी चाल  चलकर जनसत्ताको हमेशा नीचे गिराते रहने की होती थी। फायदे में चल रहे जनसत्ता के चंडीगढ़ और बंबई संस्करण को जानबूझकर हमेशा नुकसान में दिखा-दिखाकर अनसस्टेनेबल करार देकर फरवरी 1996 में बंद कर दिया गया। यह सब कंपनी मालिक की इजाजत और प्रबंधन के कहने पर ही हो रहा था। यानी कंपनीजनसत्ता को पूरी तबीयत से मार डालने में जुटी थी।

69. जनसत्ता की बर्बादी पर अथ्ययन और बहस की मांग  

जनसत्ता का नाम हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में एक मील का पत्थर बनकर स्थापित हो गया है। इस अखबार ने हिन्दी पत्रकारिता को एक नई दिशा दी। जनसत्ता के पुराने लोग और इसके जानकार कहते हैं कि जनसत्ताके अवसान के कारणों को ठीक से समझने के लिए इस पर भी एक वृहद अध्ययन कराया जाना चाहिए और इसपर एक व्यापक बहस भी होनी चाहिए कि राम बहादुर राय और अच्युतानंद मिश्र जी जनसत्ता छोड़कर नौकरी करने नवभारत टाइम्स क्यों चले गए थे और फिर कुछ समय बाद जनसत्ता क्यों लौट आए थे। बनवारी जी ने दिल्ली जनसत्ता के स्थानीय संपादक पद से इस्तीफा क्यों दे दिया। प्रभाष जोशी के बाद जनसत्ताका संपादक तो बनवारी जी को ही होना चाहिए था।जनसत्ता की कमान राहुल देव के बाद अच्युतानंद मिश्र जी को और उनके बाद ओम थानवी जी को संभालने को क्यों दे दिया गया। और उसके बाद चंडीगढ़ संस्करण के रिपोर्टर मुकेश भारद्वाज को जनसत्ता का कार्यकारी संपादक कैसे और क्यों बना दिया गया। इससे ऐसा लगता है कि जनसत्ता की रीढ़ रहे पुराने जनसत्ताई लोग जनसत्ता को इस तरह तबीयत से मारकर डुबो देने के पीछे कोई इंटर्नल या एक्स्टर्नल सबोटॉज वाला खेल तो नहीं देख रहे हैं जो उस समय भी काम कर रहा था और शायद कहीं न कहीं अभी भी काम कर रहा है। जनसत्ताई लोग आज जिस अध्ययन और बहस की बात कर रहे हैं उससे उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे शायद उस सबोटॉज वाली शक्ति का कुछ खुलासा हो सकेगा। 

70. ओम थानवी पर देश विरोधियों की मदद का आरोप !

फरवरी 2022 में ओम थानवी जयपुर के हरिदेव जोशी पत्रकारिता ओर जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति थे। वहां उनपर आरोप लगे कि उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान अपने पद का दुरुपयोग कर इस विश्वविद्यालय को दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की तरह देश विरोधियों का अड्डा बनाने की खूब कोशिश की। उनपर आरोप लगे कि ओम थानवी के प्रश्रय पर जेएनयू के तमाम ऐसे टुकड़े-टुकड़े गैंग के लोग जयपुर आकर इस विश्वविद्यालय में अड्डा जमाने लगे थे। इससे नाराज होकर राजस्थान के राज्यपाल कलराज मिश्र ने विश्वविद्यालय के बोर्ड ऑफ मेनेजमेंट और परामर्शदात्री समिति की बैठक को दो बार रुकवाया। राजस्थान भाजपा का कहना था कि वे इस विश्वविद्यालय को देश विरोधी तत्वों का अड्डा किसी भी सूरत में नहीं बनने देंगे। हरिदेव जोशी पत्रकारिता विश्वविद्यालय को जयपुर का जेएनयू बनाया जा रहा है जो ठीक नहीं है और यह देशहित में नहीं है।

जयपुर में हरिदेव जोशी पत्रकारिता ओर जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में ओम थानवी की नियुक्ति गलत तरीके से की गई थी। यह तिकड़मी ओम थानवी की एक जुगाड़बाजी थी। उनकी इस नियुक्ति को लेकर काफी विवाद हुआ था और मामला राजस्थान हाईकोर्ट तक पहुंच गया था। राजस्थान के ही पंकज प्रताप सिंह रघुवंशी व अन्य की याचिका पर हाईकोर्ट ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, राजस्थान सरकार, ओम थानवी और हरिदेव जोशी पत्रकारिता और जनसंचार विश्वविद्यालय चारों को नोटिस जारी किया था। मामले में ओम थानवी के पास पीएचडी की डिग्री नहीं होने और प्रोफेसर के पद का 10 साल का अनुभव नहीं होने के वावजूद सारे यूजीसी नियमों और यूनिवर्सिटी कानून को तोड़कर ओम थानवी की की नियुक्ति किए जाने का आरोप लगाया गया था। याचिका पर हाईकोर्ट के जस्टिस मनिन्द्र मोहन श्रीवास्तव और जस्टिस बीरेंद्र कुमार की बेंच ने सुनवाई की।


इस मामले में हाईकोर्ट में सिविल रिट और जनहित याचिका लगाई गई है। याचिकाकर्ता के वकील अरविंद कुमार भारद्वाज की तरफ से हाईकोर्ट को बताया गया कि विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त किए गए ओम थानवी इस पद के लिए जरूरी योग्यता ही नहीं रखते। यूजीसी के नियमों के मुताबिक कुलपति बनने के लिए 10 साल तक प्रोफेसर के रूप में काम करने का अनुभव और पीएचडी की डिग्री होना जरूरी है। याचिका में पूछा गया है कि बिना जरूरी योग्यता के फिर किस आधार पर उन्हें प्रदेश के इकलौते पत्रकारिता विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया है। हाईकोर्ट में ओम थानवी का बायोडाटा और नियुक्ति पत्र पेश किया गया है।

इस मामले में वकील अरविंद कुमार भारद्वाज ने मीडिया को बताया कि पीएचडी करने के बाद ही कोई शिक्षक प्रोफेसर बन सकता है। उससे पहले उसे सहायक और एसोसिएट प्रोफेसर के तौर पर काम करने का अनुभव लेना पड़ता है। हरिदेव जोशी पत्रकारिता और जनसंचार विश्वविद्यालय की नियमावली में लिखा है कि कुलपति के पद के लिए 10 साल का अनुभव होना चाहिए। जबकि ओम थानवी सिर्फ पत्रकारिता के क्षेत्र में अनुभव रखते हैं। कोर्ट में ओम थानवी का बयोडाटा और नियुक्ति पत्र पेश किया गया है जिस आधार पर पाया गया है कि उन्हें 10 साल का प्रोफेसर पद का अनुभव नहीं है। याचिका में कहा गया है कि हरिदेव जोशी पत्रकारिता और जनसंचार विश्वविद्यालय पिछली कांग्रेस सरकार के दौरान खोली गई थी। बाद में भारतीय जनता पार्टी की सरकार के आने के बाद इस विश्वविद्यालय को बंद कर दिया गया था। अब प्रदेश में कांग्रेस की सरकार की फिर से वापसी होने पर विश्वविद्यालय को फिर से शुरू किया गया है। जब से इस पत्रकारिता विश्वविद्यालय को बंद कर दिया गया था तब से इस विश्वविद्यालय की फैकल्टी को राजस्थान विश्वविद्यालय में शिफ्ट कर दिया गया था। राजस्थान विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर मास कम्यूनिकेशन में फैकल्टी पढ़ाती आ रही थी। यह फैकल्टी अब वापस इस हरिदेव जोशी पत्रकारिता और जनसंचार विश्वविद्यालय में लौट आई है।

जनसत्ता से उनके रिटायर होने के कुछ ही दिनों बाद नवंबर 2015 में ओम थानवी को लेकर सोशल मीडिया में एक ऐसी खबर फैली थी कि मोदी सरकार के विरोध में दिल्ली के मावलंकर हॉल में एक प्रतिरोध सभा का आयोजन करने के लिए विपक्ष के एक बड़े सासंद ने उनको दस करोड़ रुपए दिए थे। 

– गणेश प्रसाद झा

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गुरुवार, 7 जुलाई 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 28

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की अट्ठाइसवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 28

66. जनसत्ता का दफ्तर दिल्ली से नोएडा शिफ्ट

वर्ष 1998 के उत्तरार्ध में जनसत्ता पर एक और संकट आया। अखबार पर आर्थिक संकट लादने के उन्हीं दिनों अखबार का दफ्तर दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग वाले एक्सप्रेस बिल्डिंग से हटाकर नोएडा के सेक्टर-2 में किराए की एक बहुत घटिया और छोटी सी बिल्डिंग ए-80 में ले जाया गया। उस बिल्डिंग में पहले से जूते-चप्पलों की एक फैक्ट्री चल रही थी। कंपनी ने दफ्तर शिफ्ट करने का यह निर्णय सिर्फ जनसत्ता के लिए ही लिया। कंपनी ने अपने फ्लैगशिप अखबार इंडियन एक्सप्रेस का दफ्तर एक्सप्रेस बिल्डिंग में ही रहने दिया। तब कंपनी के इस निर्णय से जनसत्ता के लोगों में यह डर बैठ गया कि कंपनी जनसत्ता को इस तरह अलग करके अब कुछ दिनों में उसे बंद कर देना चाहती है। चंडीगढ़ और बंबई संस्करण बंद किए ही जा चुके थे, सो कर्मचारियों में यह डर पैदा होना लाजिमी था। शुरू में जनसत्ता के पत्रकारों ने दफ्तर शिफ्ट करने के इस निर्णय का जमकर विरोध किया। इसमें कर्मचारी यूनियन का भी साथ मिला पर इस सबसे कंपनी पर कोई फर्क नहीं पड़ा। शिफ्टिंग का मामला कुछ हफ्तों के लिए टला जरूर पर आखिरकार जनसत्ता का दफ्तर नोएडा चला ही गया। दफ्तर नोएडा ले जाए जाने के बाद जनसत्ता हर तरफ से कट गया और बिल्कुल अलग-थलग पड़ गया। नोएडा दफ्तर में न कभी कोई प्रेस विज्ञप्ति देने आता था न कोई संपादक या फिर और किसी से मिलने। जनसत्ता मीडिया की दुनिया से भी पूरी तरह से कट सा गया। रोजाना अखबार के पन्ने तैयार करने के बाद उसे एक सीडी में डालकर छपने के लिए बहादुरशाह जफर मार्ग के एक्सप्रेस बिल्डिंग भेजा जाता था। कुछ समय बाद एक छोटी प्रिंटिंग मशीन वहीं नोएडा दफ्तर में लगा दी गई। तभी से जनसत्ता निकालना सिर्फ एक औपचारिकता भर रह गया था। हालात खराब होते देखकर लोग नौकरी छोड़ते गए। कचरा छापने की शुरुआत भी वहीं से हो गई।

जनसत्ता का इतना कुछ सत्यानाश कर-कराके भी संपादक ओम थानवी अपने रौब और गुरूर में ही मस्त रहा करते थे। सरेआम किसी भी बात पर किसी को भी बुरी तरह डांट देना और जलील कर देना उनकी आदत बन गई थी। एक बार बाहर के किसी फ्रीलांसर ने किसी तरह थानवी जी का मोबाइल नंबर हासिल कर लिया था और एक दिन उनको कोन कर बैठा था। थानवी जी इसपर उस पत्रकार को तो फोन पर जलील किया ही था, दफ्तर में भी कई लोगों को बुरी तरह डांटा और जलील कर दिया था कि “मेरा नंबर दफ्तर से बाहर गया कैसे, किसने दिया? ” थानवी जी का अपने दफ्तर के साथियों से भी व्यवहार बहुत ही बुरा था और वे किसी की भी प्रतिष्ठा का खयाल नहीं रखते थे। उनके इस व्यवहार पर लोग दफ्तर में दबी जुबान से बोला करते थे कि अगर ये हमारे संपादक न होते तो उनको थप्पड़ मार देता। जनसत्ता में ओम थानवी का यह आतंक मई 2015 तक कायम रहा।

जनसत्ता के ही कुछ वरिष्ठ लोग ओम थानवी पर कई तरह के संगीन आरोप लगाते हैं। उन आरोपों को अगर सही मानें तो ओम तानवी ने जनसत्ता के लोगों को हटाने के लिए उन्हें तरह-तरह से आपस में लड़वाना भी शुरू कर दिया था। चर्चा जनसत्ता के कोलकाता संस्करण की करते हैं। प्रभाष जोशी ने जनसत्ता का कोलकाता संस्करण शुरू करते समय दिल्ली से समाचार संपादक श्याम सुंदर आचार्य को स्थानीय संपादक बनाकर वहां भेजा था। दिल्ली से ही अमित प्रकाश सिंह को समाचार संपादक बनाकर कोलकाता भेजा गया था। ओम थानवी ने कोलकाता संस्करण के स्थानीय संपादक श्याम सुंदर आचार्य को अचानक एक दिन हटा दिया। वैसे उन्हें तीन बार एक्सटेंशन भी मिल चुका था। फिर दिल्ली से शंभूनाथ शुक्ल को कोलकाता भेज दिया। शंभूनाथ जी के साथ अकु श्रीवास्तव भी कोलकाता भेज दिए गए थे जबकि अकु जनसत्ता चंडीगढ़ में समाचार संपादक थे। शंभूजी को वहां कमान संभालने को कहा गया था। वहां समाचार संपादक अमित प्रकाश सिंह पिछले ग्यारह साल से जमे हुए थे। थानवी जी अमित प्रकाश जी को हटाना चाह रहे थे। उन्होंने शंभूनाथ जी और अमित जी को आपस में भिड़ा दिया। लोग आरोप लगाते हैं कि अमित जी को हटाने के लिए ही शंभू नाथ शुक्ल जी और उनके तब के साथी अकु श्रीवास्तव वहां भेजे गए थे। दोनों लोग कोलकाता के गोयनका अतिथि गृह में तीन महीने तक रुके रहे थे। कंपनी के खर्चे पर उन्हे वहां नाश्ता, खानपान वगैरह भी मिला करता था।

ओम थानवी ने जनसत्ता में और भी कई खेल किए। एक दूसरा वाकया और भी हुआ। लखनऊ के ब्यूरो प्रमुख उस समय हेमंत शर्मा थे जो प्रभाष जी के बहुत खास माने जाते थे। ओम थानवी ने उनको हटा दिया। दिल्ली जनसत्ता डेस्क के साथी रहे अंबरीश कुमार उस समय छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में रहकर वहां से जनसत्ता का संस्करण निकालने का प्रयोग शरद गुप्ता और प्रबंधन के साथ मिलकर कर रहे थे। ओम थानवी ने हेमंत शर्मा की जगह लेने के लिए अंबरीश कुमार को लखनऊ भेज दिया। फिर कुछ समय बाद अंबरीशजी दिल्ली बुला लिए गए। उनके बाद अमित प्रकाश जी को कोलकाता से लखनऊ भेज दिया गया। कुछ समय बाद अमित प्रकाश जी को लखनऊ  से दिल्ली ब्यूरो में बुला लिया गया। पर इस तमाम उलटफेर से जनसत्ता को कोई लाभ हुआ हो ऐसा तो कभी नहीं लगा। हां, इस सबसे जनसत्ता के लोग काफी परेशान हुए और कंपनी पर भारी भरकम अतिरिक्त और नाजायज आर्थिक बोझ जरूर पड़ा। इस सबके पीछे ओम थानवी का ही दिमाग था या फिर वे किसी और से गाइड हो रहे थे इसका पता नहीं चल पाया। इस सारे बेवजह के तबादलों का औचित्य क्या था या ऐसा किसलिए किया गया इसका भी कभी पता नहीं चल पाया। पर इतना तो समझ आता है कि ओम थानवी अपने को प्रभाष जोशी से भी बड़ा संपादक साबित करने और अपने प्रचंड अहंकार और गुरूर की तुष्टि के लिए ही शायद इस दिमागी फितुर का इस्तेमाल कर रहे थे।

जनसत्ता के जानकार कहते हैं कि जनसत्ता के अवसान के कारणों को ठीक से समझने के लिए इस पर भी एक वृहद अध्ययन कराया जाना चाहिए और एक व्यापक बहस भी होनी चाहिए कि राम बहादुर राय और अच्युतानंद मिश्र जी जनसत्ता छोड़कर नौकरी करने नवभारत टाइम्स क्यों चले गए थे और फिर कुछ समय बाद जनसत्ता क्यों लौट आए थे। बनवारी जी ने दिल्ली जनसत्ता के स्थानीय संपादक पद से इस्तीफा क्यों दे दिया। प्रभाष जोशी के बाद जनसत्ता का संपादक तो बनवारी जी को ही होना चाहिए था। जनसत्ता की कमान राहुल देव के बाद अच्युतानंद मिश्र जी को और उनके बाद ओम थानवी जी को संभालने को क्यों दे दिया गया। और उसके बाद चंडीगढ़ संस्करण के रिपोर्टर मुकेश भारद्वाज को जनसत्ता का कार्यकारी संपादक कैसे और क्यों बना दिया गया। इससे ऐसा लगता है कि जनसत्ता की रीढ़ रहे पुराने जनसत्ताई लोग जनसत्ता को इस तरह तबीयत से मारकर डुबो देने के पीछे कोई इंटर्नल या एक्स्टर्नल सबोटॉज वाला खेल तो नहीं देख रहे हैं जो उस समय भी काम कर रहा था और शायद कहीं न कहीं अभी भी काम कर रहा है। जनसत्ताई लोग आज जिस अध्ययन और बहस की बात कर रहे हैं उससे उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे शायद उस सबोटॉज वाली शक्ति का कुछ खुलासा हो सकेगा। 

67. कोलकाता ट्रांसफर की मेरी कहानी

नोएडा दफ्तर में ही एक दिन मैं रात 8 बजे से 2 बजे तक की शिफ्ट में था। मैं 8 बजे दफ्तर पहुंचा ही था और एजेंसी की पहली कॉपी हाथ में ली ही थी कि ओम थानवी के निजी सहायक अमर छाबड़ा मेरे लिए पर्सनल डिपार्टमेंट की एक चिट्ठी लेकर आ गए। चिट्ठी दो प्रतियों में थी जिसकी दूसरी प्रति पर मुझसे पावती का हस्ताक्षर मांगा गया। मैंने चिट्ठी पढ़ी तो मेने पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। पूरे शरीर में तुरंत नर्वसनेस का करंट दौड़ गया। चिट्ठी मुझे त्तत्काल प्रभाव से तुरंत कोलकाता ट्रांसफर कर दिए जाने की थी। ट्रांसफर लेटर में लिखा था कि मुझे कल यानी अगले ही दिन कोलकाता जनसत्ता के दफ्तर में पहुंचकर काम पर हाजिर होने की रिपोर्ट करनी है। चिट्ठी के साथ मुझे कोई एअर टिकट या फिर ट्रेन टिकट नहीं दिया गया था। चिट्ठी में लिखा था कि नियमानुसार सात दिनों की ट्रांसफर लीव (ट्रांसफर अवकाश) मुझे वहां कोलकाता में बाद में दी जाएगी। अब अगर मैं दफ्तर से सीधे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन चला भी जाता और वहां स्टेशन पर पहुंचते ही मुझे कोलकाता के लिए राजधानी एक्सप्रेस मिल भी जाती तो भी मैं कम से कम अगली सुबह तो कोलकाता जनसत्ता के दफ्तर नहीं ही पहुंच पाता। थानवी जी ने दफ्तर से हवाई जहाज का टिकट मुझे दिलवाया नहीं था।

अपने कोलकाता ट्रांसफर की यह चिट्ठी लेकर मैं तुरंत प्रभाष जोशी जी के पास गया। प्रभाशजी अपने कक्ष में ही बैठे थे। मैं उनके कक्ष में गया और हाथ जोड़कर यह चिट्ठी उनको दे दी। उन्होंने उस चिट्ठी को ध्यान से पढ़ा औऱ माथा ठोक लिया। फिर मुझसे बोले, “यह ठीक नहीं हुआ, पर मैं इसमें आपकी कोई मदद नहीं कर पाउंगा क्योंकि इनसे (थानवी जी) मेरी पटती नहीं है। आप श्रीशजी से मिलो। शायद वे कुछ मदद कर सकें।“ मैं श्रीश जी यानी हमारे आदरणीय समाचार संपादक श्रीश चंद्र मिश्र के पास गया और उनको वह चिट्ठी दिखाई और प्रभाषजी की कही बात भी उनको बताई। पर श्रीश जी ने तो पहले ही हाथ खड़े कर दिए। श्रीश जी बोले, “आपको तो पता ही है कि थानवी जी किसी की नहीं सुनते। और उनके सामने मेरी क्या औकात है यह भी आप जानते हैं।  समझ लो आप कि इस अखबार का आनेवाला समय बहुत खराब है।“

कहीं से कोई मदद मिलने की उम्मीद न देखकर मैं कार्यकारी संपादक ओम थानवी जी के पास गया। वे अपने कक्ष में ही थे। मैंने उनसे खूब विनती की कि मुझे अभी कहीं न भेजें, यहीं रहने दें। उन दिनों पिछले कई महीनों से मैं बीमार चल रहा था और दिल्ली एम्स से मेरा इलाज चल रहा था जिसे दफ्तर के सभी लोग जानते थे। थानवी जी को भी मेरी बीमारी का अच्छी तरह पता था। फिर भी मैंने बीमारी की यह बात उनको बताई। पर वे कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे। उन्होंने मेरी विनती नहीं सुनी। उन्होंने काफी रूखे अंदाज में मुझसे कहा कि बीमार चल रहे हैं तो इलाज तो कोलकाता में भी हो सकता है। मैंने थानवी जी के पांव भी पकड़े और खूब विनती की पर उन्होंने मेरी एक भी नहीं सुनी। उन्होंने मुझे कहा कि कोलकाता तो जाना ही पड़ेगा।

ट्रांसफर के इस मुद्दे पर पूरा जनसत्ता दफ्तर मेरे साथ था। मेरे साथियों ने ओम थानवी की इस हठधर्मिता को कर्मचारी यूनियन के पास पहुंचा दिया। यूनियन ने मेरे इस मामले को संपादक के पास बड़ी मजबूती से उठाया। पर ओम थानवी ने अपना जिद्दीपना बरकरार रखते हुए कहा कि कोलकाता डेस्क पर लोगों की कमी है इसलिए वे गणेश झा को वहां भेज रहे हैं। इस पर कर्मचारी यूनियन ने दलील दी कि अभी करीब महीने भर पहले कोलकाता डेस्क से दो लोगों को आपने दिल्ली बुला लिया है। अगर वहां डेस्क पर लोग कम थे तो फिर आपने दो लोग यहां क्यों बुलाए? इसपर ओम थानवी के पास कोई जवाब नहीं था। पर वे मुझे कोलकाता भेजने पर अड़ गए। इस पर यूनियन ने उनसे यह कह कर एक साल का समय मांगा कि तब तक गणेश झा का इलाज पूरा हो जाएगा और फिर वे कोलकाता चले जाएंगे। पर थानवी जी को यह भी मंजूर नहीं था। यूनियन भी बिल्कुल अड़ गई। आखिर में थानवी जी मुझे पांच महीने का समय देने को राजी हुए। शर्त यह रखी कि मैं अगले पांच महीने तक कोलकाता जनसत्ता का कर्मचारी रहते हुए डिपुटेशन पर दिल्ली जनसत्ता में काम करूंगा और मेरी तनख्वाह कोलकाता दफ्तर से ही आएगी। पांच महीने का समय पूरा होते ही मुझे कोलकाता जाना होगा। मुझे प्रबंधन का यह आदेश लिखित में दे दिया गया। इसी आदेश के तहत मैंने पांच महीने तक दिल्ली में काम किया। पर पांच महीने पूरा होने के बाद मैं कोलकाता नहीं गया। मैं दिल्ली में नौकरी की तलाश करने लगा। मैंने जनसत्ता संपादक और इंडियन एक्सप्रेस प्रबंधन से इस अवधि को और आगे बढाने की गुहार लगाई। पर संपादक और प्रबंधन ने मेरी प्रार्थना ठुकरा दी और मुझे सात दिनों के भीतर कोलकाता दफ्तर में रिपोर्ट करने का लिखित आदेश दे दिया। मैं फिर भी नहीं गया। मुझे दूसरी नोटिस दी गई। फिर तीसरी नोटिस भी आ गई। अब कुल मिलाकर कंपनी मुझे इसी आधार पर नौकरी से निकालने की तैयारी करने लगी। कंपनी ने इसी मुद्दे पर इन-हाउस जांच कमेटी बिठा दी। एक वकील को लगा दिया गया। मैं फिर भी कोलकाता नहीं गया। मैं तो दिल्ली में नौकरी की तलाश में लगा रहा। इस बीच, मुझे दिल्ली में ही हिन्दुस्तान में नौकरी मिल गई और मैंने जनसत्ता की नौकरी से इस्तीफा दे दिया। मेरे इस्तीफे से पूरा इंडियन एक्सप्रेस प्रबंधन खुश हुआ और कुछ ही घंटों में मेरा पूरा हिसाब कर दिया गया। मेरा सारा भुगतान दिल्ली दफ्तर ने ही किया। कोलकाता तो सिर्फ कहने के लिए था। आखिर यह प्रबंधन की नौटंकी और अहंकारी ओम थानवी की जिद जो थी।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....

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पत्रकारिता की कंटीली डगर- 27 (संशोधित)

Revised Copy

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की सत्ताइसवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 27

62. राहुल देव के प्रति बढ़ता असंतोष

राहुल देव षड़यंत्र करके जनसत्ता के कार्यकारी संपादक बन तो गए पर वे जनसत्ता के लोगों को कभी स्वीकार्य नहीं हुए। इसकी मुख्य वजह यह रही कि दिल्ली जनसत्ता के सहायक संपादकों की तो बात छोड़िए, वहां अब तक के तमाम समाचार संपादक और मुख्य उपसंपादक भी पत्रकारिता के अनुभवों और लेखनी के मामलों में राहुल देव से काफी आगे बैठते थे। राहुल देव जब तक बंबई के स्थानीय संपादक थे तब तक वे दिल्ली की टीम से दूर थे और इसलिए किसी को उनसे कोई मतलब नहीं था, पर जब वे यहां लाकर सबके ऊपर बिठा दिए गए तो लोग बिदक गए। बंबई जनसत्ता के स्थानीय संपादक रहते उनका वहां जो चरित्र रहा उसने भी उनके प्रति चल रही इस नाराजगी में घी का ही काम किया। राहुल देव के दिल्ली आते ही जनसत्ता के गिनती के दो-चार लोगों को चोड़कर बाकी सभी लोग उनके खिलाफ हो गए। उन्होंने उम्मीद की थी कि बंबई जनसत्ता की तरह दिल्ली जनसत्ता के लोग भी उनकी आरती उतारेंगे, पर हुआ इसके उलट। दो-चार लोगों को छोड़कर बाकी कोई भी उन्हें पसंद नहीं करता था। दिल्ली जनसत्ता के लोगों ने राहुल देव को सिर्फ एक नाम का संपादक बनाकर एक कमरे में समेट दिया। जनसत्ता के रोजमर्रा के फैसलों में भी उनकी बहुत कम भूमिका रहने लगी। अखबार में क्या खबरें हैं, क्या कुछ जा रहा है और क्या कुछ जाना चाहिए इस सबमें उनकी कोई दिलचस्पी नहीं रहती थी। इंडियन एक्सप्रेस का कर्मचारी यूनियन भी शुरू से ही राहुल देव के खिलाफ था।

कर्मचारियों में व्याप्त इस नाराजगी को दूर करने के लिए राहुल देव ने लोगों को खुश करने के लिए उन्हें तरक्की दी जो कई वर्षों से नहीं मिली थी। लेकिन इससे लोगों में संतोष पैदा होने की बजाय असंतोष ही ज्यादा पैदा हुआ क्योंकि कुछ लोगों को एक साथ दो तरक्की दे दी गई। यही नहीं, अपने मित्र प्रदीप सिंह को उन्होंने रिपोर्टिंग / ब्यूरो से उठाकर बंबई जनसत्ता का स्थानीय संपादक बना दिया। प्रदीप सिंह से कहीं सीनियर और स्पष्ट रूप से सक्षम और योग्य लोगों से न तो पूछा गया और न उन्हें प्रदीप सिंह की तरह कुछ ईनाम ही दिया गया। इसके बाद राहुल देव से अगर किसी को उम्मीद थी तो वह जाती रही। जनसत्ता में राहुल देव के पास करने के लिए कुछ खास था ही नहीं।

अपने मित्र प्रदीप सिंह को तरक्की देने और स्थानीय संपादक बनाकर उन्हें मुंबई जनसत्ता भेजने के अलावा राहुल देव के पास जनसत्ता की टीम से करवाने के लिए कोई काम या योजना नहीं थी। उन्होंने अपने स्टाफ को कुछ नया करने के लिए भी कभी प्रेरित नहीं किया। उन्होंने उन्हें कभी कोई आईडिया भी नहीं दिया। वे जनसत्ता में कभी कोई खास सामग्री भी नहीं लिख पाए। वे संपादक होने के नाते जनसत्ता पर अपनी कोई बौद्धिक छाप नहीं छोड़ पाए। उनके संपादक रहते जनसत्ता का सर्कुलेशन तेजी से नीचे गिरा। उन्होंने यहां रहकर कुछ खास नहीं किया और जनसत्ता छोड़ दिया या फिर वे एक्सप्रेस टीवी की नौकरी करने चले गए।

जनसत्ता को राहुल देव के चंगुल से बाहर निकालने और बचाने के लिए दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में लोग बैठकें कर उनको यहां से चलता करने की रणनीति पर विचार करने लगे थे। जनसत्ता बचाओ की इस मुहिम में देश के कई गांधीवादी, कई बड़ी साहित्यिक हस्तियां और कुछ बड़े विद्वान भी शरीक होते थे। इसका अच्छा असर भी हुआ और राहुलजी बमुश्किल डेढ़-दो साल ही जनसत्ता की कमान अपने पास रख पाए। आखिरकार जनवरी 1999 में जनसत्ता से उन्हें जाना ही पड़ गया।

राहुल देव के संपादक बनने के बाद प्रभाष जोशी का पूरा मठ उजड़ने लगा था। राहुल देव का नया खेमा तैयार होने में अधिक वक्त नहीं लगा था पर वो स्टाफ में उस तरह कभी स्वीकार्य नहीं हुए जिस तरह कभी प्रभाष जोशी थे। उन दिनों जनसत्ता में एक मुहावरा प्रचलन में था कि राहुल जी ने अपने पैर के आकार से बड़ा जूता पहन लिया है। राहुल देव अधिक समय तक तो नहीं रहे, पर उनके संपादक बनने के बाद जनसत्ता की हनक खत्म होती चली गई थी। उनके आने पर बनवारी जी नौकरी छोड़कर चले गए थे। दिनमान से आए कद्दावर पत्रकार जनसत्ता के सहायक संपादक जवाहरलाल कौल पूरी तरह से राहुल देव के आगे सरेंडर कर गए थे। परिस्थिति को देखते-समझते हुए समाचार संपादक श्रीश चंद्र मिश्र भी राहुल जी के साथ हो लिए थे।  राहुल देव काफी तिकड़मी थे और उन्होंने अपना जनसंपर्क बहुत मजबूत कर लिया था। प्रभाष जोशी के बाद जनसत्ता का स्टाफ संपादक के रूप में अगर किसी को सहज रूप में स्वीकार कर सकता था तो वो सिर्फ और सिर्फ बनवारी जी थे। लेकिन जनसत्ता के ही कुछ लोगों की राय में प्रभाष जी ने ही उन्हें निबटा भी दिया था। प्रभाष जी ने जनसत्ता में सेकेंड लाइन का नेतृत्व कभी पनपने ही नहीं दिया। कई बार निबटे हुए आदमी को यह अहसास भी बहुत देर से होता है कि उसे किसने निबटाया,  जैसे प्रभाष जी को अपना निबटना ही काफी देर से पता चल पाया था।

63. अखबार की आर्थिक हालत हुई खराब

प्रभाष जोशी को जनसत्ता के प्रधान संपादक पद से हटाए जाने के बाद जनसत्ता की साख बहुत खराब हुई। अखबार में असंतोष पनपा जिससे लोगों में अपनी नौकरी के प्रति असुरक्षा की भावना पैदा हुई। तरक्की और वेतनवृद्धि लंबे समय से न मिलने की वजह से लोगों के मन मे नकारात्मक भावनाएं ज्यादा बलवती हुईं। लोग जनसत्ता से बाहर नौकरी की संभावनाएं तलाशने लगे। इससे स्टाफ का ध्यान जनसत्ता की बेहतरी के काम पर कम और अपनी नौकरी की सुरक्षा की चिंता पर ज्यादा लगी रहती थी। कंपनी मालिक अपने फ्लैगशिप अखबार इंडियन एक्सप्रेस पर तो पैसा खर्च करना चाह रहे थे पर जनसत्ता पर नहीं। इससे अखबार की माली हालत बिगड़ने की खबरें आने लगीं। फिर मैनेजर कहने लगे कि जनसत्ता सफेद हाथी बन गया है। उन्हीं दिनों एक चर्चा यह भी चली कि कंपनी मालिक विवेक गोयनका अब अखबार का धंधा छोड़कर टायर के कारोबार में प्रवेश करेंगे। अखबार का कारोबार छोड़कर टायर बेचने की इस चर्चा को फिजां में छोड़ने के पीछे क्या मकसद रहा होगा यह तो कभी साफ नहीं हुआ पर विवेक गोयनका ने टायर का कारोबार शुरू किया हो ऐसा भी कभी सुनने में नहीं आया। हां, कंपनी के मैनेजर जनसत्ता के कर्मचारियों के पास अक्सर यह रोना जरूर रोते रहा करते थे कि अखबार बहुत घाटे में जा रहा है इसलिए मालिक इसे अब और चलाने के पक्ष में नहीं हैं। बाद में जब ओम थानवी जनसत्ता के संपादक बनाए गए तो उन्होंने अखबार घाटे में होने और बंद कर दिए जाने की बात को जमकर हवा दी और ऐसा करके उन्होंने जनसत्ता के कर्मचारियों में एक डर पैदा करने की पुरजोर कोशिश की। तभी कंपनी वीआरएस योजना भी लेकर आई।

64. स्टाफ को खुर्द-बुर्द करने के लिए लाए गए ओम थानवी

राहुल देव के जाने के बाद चंडीगढ़ जनसत्ता के स्थानीय संपादक ओम थानवी को जनसत्ता का कार्यकारी संपादक बना दिया गया। ओम थानवी बहुत ही गुस्सैल, दबंगई स्वाभाव, अहंकारी, गुरूर वाले और बेहद रूखे व्यवहार वाले व्यक्ति थे। चंडीगढ़ जनसत्ता में भी उनसे कोई खुश नहीं ऱहा। जब तक वे वहां रहे, सबको उन्होंने परेशान ही किया। उनके कार्यव्यवहार से दुखी होकर दिल्ली में भी लोगों ने जनसत्ता छोड़ना शुरू कर दिया। जो लोग अब तक किसी तरक्की या फिर कुछ वेतन बढ़ोतरी मिलने की उम्मीद में चल रहे थे और लंबे समय से बहुत कम पैसे में भी जनसत्ता में टिके हुए थे उन्हें अब कोई उम्मीद नहीं रही थी और वे लोग जनसत्ता छोड़कर जाने लगे। उन दिनों इस बात की खूब चर्चा थी कि ओम थानवी का यहां मूल काम जनसत्ता के लोगों को खुर्द-बुर्द करने का ही था। उन्हें इसी काम के लिए तरक्की देकर चंडीगढ़ से दिल्ली लाया गया था। काम दिया गया था पुराने और महंगे लोगों से जनसत्ता को मुक्त करना। उन्होंने शंभू नाथ शुक्ल को जनसत्ता के कोलकाता संस्करण का स्थानीय संपादक बना दिया। गणेश प्रसाद झा को बिना कोई तरक्की या वेतनवृद्धि दिए कोलकाता जाने को कह दिया गया। कुछ और भी तबादले हुए। अमित प्रकाश सिंह का भी कोलकाता तबादला कर दिया दया। दूसरी ओर उन्हीं दिनों कंपनी स्टाफ कम करने के लिए वीआरएस योजना लेकर आ गई। वीआरएस के बदले लोगों को तीन से पांच लाख तक दिए गए। काम का माहौल भी लगातार खराब होता गया। धीरे-धीरे लोग कम होते गए और अखबार में बहुत ज्यादा कचरा छपने लगा। जनसत्ता डेस्क के अरविंद उप्रेती, अरिहन जैन, सुधीर जैन, संजय कुमार सिंह, संजय सिन्हा, प्रताप सिंह समेत कई साथियों ने वीआरएस ले लिया या फिर नौकरी छोड़कर चले गए। बाद में और भी कई लोगों ने नौकरी छोड़ी।

ओम थानवी ने हिन्दी भाषी राज्यों के प्रमुख जिलों में काम करनेवाले जनसत्ता के जिलास्तरीय संवाददाताओं (स्ट्रिंगरों) को भी एक झटके में निकाल बाहर कर दिया। दो-चार स्ट्रिगरों को छोड़कर बाकी सब निकाल दिए गए। जनसत्ता के इन जिला संवाददाताओं को कभी कोई वेतन नहीं दिया जाता था। उन्हें सिर्फ एक सौ रुपए माहवार मिलते थे और छपी खबरों पर दो रुपए पंद्रह पैसे प्रति कॉलम सेंटीमीटर के हिसाब से पारिश्रमिक का भुगतान किया जाता था। ओम थानवी ने कॉलम सेंटीमीटर पर पैसा पानेवाले इन स्ट्रिंगरों को भी हटा दिया। नतीजा यह हुआ कि जिलों से खबरें आनी पूरी तरह बंद हो गईं। इसका असर यह हुआ कि जिलों में जनसत्ता बिकना भी लगभग बंद हो गया। यहां तक कि कुछ समय बाद हिन्ही भाषी राज्यों के जिले में जनसत्ता दिखना भी बंद हो गया। कुल मिलाकर ओम थानवी जनसत्ता में नौकरी छीन लेनेवाले संपादक ही साबित हुए।

ओम थानवी ने जनसत्ता में छपनेवाली तस्वीरों का भुगतान भी बंद करवा दिया। राज्यों की राजधानियों में जनसत्ता के ब्यूरो में जो बाहर के फोटोग्राफरों से खबरों से संबंधित तस्वीरें ली जाती थी उसका भुगतान होता था, पर ओम थानवी ने इसे बंद करवा दिया। पर कंपनी की तरफ से इंडियन एक्सप्रेस के लिए ऐसी कोई पाबंदी नहीं लगाई गई और कंपनी उनके लिए तस्वीरें देनेवाले फोटोग्राफरों को भुगतान करती रही। कई बार जनसत्ता के स्टेट ब्यूरो प्रमुख को बाहर से तस्वीरें लेने पर फोटोग्राफर को अपनी जेब से पैसे देने पड़ते थे क्योंकि जब तस्वीरों का भुगतान नहीं मिलने लगा तो फोटोग्राफर जनसत्ता को तस्वीरें देने से मना करने लगे थे।

ओम थानवी जनसत्ता आए ही थे लोगों को हटाने के लिए और अपने कड़वे व्यवहार से उन्होंने यही किया भी। उनके समय में सबसे ज्यादा लोगों ने जनसत्ता छोड़ा और उन्होंने फिर सिफारिशी भर्तियां शुरू कर दी। इसके पीछे मकसद जनसत्ता को बंद करना नहीं था, सस्ते में चलाते रहना था। पर बहुत लोग उनकी और प्रबंधन की इस रणनीति को समझ नहीं पाए। ओम थानवी ने जनसत्ता में दूसरों की या इसे इस तरह कहें कि जनसत्ता के नामी-गिरामी पत्रकारों की नौकरियों की कीमत पर अपनी नौकरी शानदार तरीके से पूरी की। ओम थानवी ने जनसत्ता में खूब मौज काटे और कंपनी के पैसे से खूब विदेश घूमे और पूरी दुनिया का चक्कर लगा लिया और तरह-तरह के लोगों से संबंध बनाए जिसका फायदा उन्हें बाद में राजस्थान के जयपुर स्थित हरिदेव जोशी पत्रकारिता और जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति बनने के रूप में मिला।

65. सबको धमकाने और डर दिखानेवाले संपादक

ओम थानवी ने दिल्ली जनसत्ता में अपने पदार्पण के कुछ ही समय बाद दफ्तर में ऐसा माहौल बनाने की हर संभव कोशिश की जिसमें लोग अशांत और तनावग्रस्त महसूस करने लगें और परेशान होकर खुद ही नौकरी छोड़ दें। जनसत्ता के तमाम संस्करणों में काफी समय से स्टाफ की बेहद कमी थी। उन्होंने इस तरफ तो कोई ध्यान नहीं दिया, पत्रकारों को बेवजह यहां से वहां ट्रांसफर करने लगे। बिना जरूरत और मतलब के इस कवायद में जमे जमाए पत्रकारों पर ही गाज गिराई गई। उनका फोकस इस बात पर अधिक था कि किसे कहां भेजने से वह ज्यादा परेशान होगा और जिससे उनके नौकरी छोड़ने की ज्यादा संभावना बनेगी। इसी मुहिम के तहत कोलकाता से दो पत्रकारों को दिल्ली बुला लिया गया। कोलकाता में स्टाफ पहले से ही काफी कम था, इन दो लोगों को वहां से खिसका देने से वहां डेस्क पर स्थिति और बिगड़ गई। चंडीगढ़ और बंबई संस्करण को वे पहले ही बंद करा चुके थे। ले दे कर सिर्फ कोलकाता ही बचा रह गया था। पर कोलकाता संस्करण की हालत बेहद खराब हो चली थी। ऐसी चर्चा जोरों पर चल रही थी कि कोलकाता संस्करण बहुत जल्द बंद कर दिया जाएगा और बंबई की तरह सारे स्टाफ का हिसाब कर दिया जाएगा। थानवी जी यूनियनवालों को यह कहकर अक्सर धमकाया करते थे कि मालिक विवेक गोयनका अब और नुकसान झेलने की स्थिति में नहीं हैं और इसलिए वे जनसत्ता को अब आगे चलाते रहने के मूड में बिल्कुल नहीं हैं। यह सब कहकर उन्होंने प्रोमोशन और सैलरी बढाए जाने की बची-खुची संभावनाओं को भी सिरे से खारिज करते हुए बड़ी सफाई से सबके मुंह पर खामोशी का ताला जड़ दिया।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में.....

शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 27


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की सत्ताइसवीं किश्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 27


62. राहुल देव के प्रति बढ़ता असंतोष

 

राहुल देव षड़यंत्र करके जनसत्ता के कार्यकारी संपादक बन तो गए पर वे जनसत्ता के लोगों को कभी स्वीकार्य नहीं हुए। इसकी मुख्य वजह यह रही कि दिल्ली जनसत्ता के सहायक संपादकों की तो बात छोड़िए, वहां अब तक के तमाम समाचार संपादक और मुख्य उपसंपादक भी पत्रकारिता के अनुभवों और लेखनी के मामलों में राहुल देव से काफी आगे बैठते थे। राहुल देव जब तक बंबई के स्थानीय संपादक थे तब तक वे दिल्ली की टीम से दूर थे और इसलिए किसी को उनसे कोई मतलब नहीं था, पर जब वे यहां लाकर सबके ऊपर बिठा दिए गए तो लोग बिदक गए। बंबई जनसत्ता के स्थानीय संपादक रहते उनका वहां जो चरित्र रहा उसने भी उनके प्रति चल रही इस नाराजगी में घी का ही काम किया। राहुल देव के दिल्ली आते ही जनसत्ता के गिनती के दो-चार लोगों को चोड़कर बाकी सभी लोग उनके खिलाफ हो गए। उन्होंने उम्मीद की थी कि बंबई जनसत्ता की तरह दिल्ली जनसत्ता के लोग भी उनकी आरती उतारेंगे, पर हुआ इसके उलट। दो-चार लोगों को छोड़कर बाकी कोई भी उन्हें पसंद नहीं करता था। दिल्ली जनसत्ता के लोगों ने राहुल देव को सिर्फ एक नाम का संपादक बनाकर एक कमरे में समेट दिया। जनसत्ता के रोजमर्रा के फैसलों में भी उनकी बहुत कम भूमिका रहने लगी। अखबार में क्या खबरें हैं, क्या कुछ जा रहा है और क्या कुछ जाना चाहिए इस सबमें उनकी कोई दिलचस्पी नहीं रहती थी। इंडियन एक्सप्रेस का कर्मचारी यूनियन भी शुरू से ही राहुल देव के खिलाफ था।

कर्मचारियों में व्याप्त इस नाराजगी को दूर करने के लिए राहुल देव ने लोगों को खुश करने के लिए उन्हें तरक्की दी जो कई वर्षों से नहीं मिली थी। लेकिन इससे लोगों में संतोष पैदा होने की बजाय असंतोष ही ज्यादा पैदा हुआ क्योंकि कुछ लोगों को एक साथ दो तरक्की दे दी गई। यही नहीं, अपने मित्र प्रदीप सिंह को उन्होंने रिपोर्टिंग / ब्यूरो से उठाकर स्थानीय संपादक बना दिया। प्रदीप सिंह से कहीं सीनियर और स्पष्ट रूप से सक्षम और योग्य लोगों से न तो पूछा गया और न उन्हें प्रदीप सिंह की तरह कुछ ईनाम ही दिया गया। इसके बाद राहुल देव से अगर किसी को उम्मीद थी तो वह जाती रही। जनसत्ता में राहुल देव के पास करने के लिए कुछ खास था ही नहीं।

अपने मित्र प्रदीप सिंह को तरक्की देने और स्थानीय संपादक बनाकर उन्हें मुंबई जनसत्ता भेजने के अलावा राहुल देव के पास जनसत्ता की टीम से करवाने के लिए कोई काम या योजना नहीं थी। उन्होंने अपने स्टाफ को कुछ नया करने के लिए भी कभी प्रेरित नहीं किया। उन्होंने उन्हें कभी कोई आईडिया भी नहीं दिया। वे जनसत्ता में कभी कोई खास सामग्री भी नहीं लिख पाए। वे संपादक होने के नाते जनसत्ता पर अपनी कोई बौद्धिक छाप नहीं छोड़ पाए। उनके संपादक रहते जनसत्ता का सर्कुलेशन तेजी से नीचे गिरा। उन्होंने यहां रहकर कुछ खास नहीं किया और जनसत्ता छोड़ दिया या फिर वे एक्सप्रेस टीवी की नौकरी करने चले गए।

जनसत्ता को राहुल देव के चंगुल से बाहर निकालने और बचाने के लिए दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में लोग बैठकें कर उनको यहां से चलता करने की रणनीति पर विचार करने लगे थे। जनसत्ता बचाओ की इस मुहिम में देश के कई गांधीवादी, कई बड़ी साहित्यिक हस्तियां और कुछ बड़े विद्वान भी शरीक होते थे। इसका अच्छा असर भी हुआ और राहुलजी बमुश्किल डेढ़-दो साल ही जनसत्ता की कमान अपने पास रख पाए। आखिरकार जनसत्ता से उन्हें जाना ही पड़ गया।

 

63. अखबार की आर्थिक हालत हुई खराब

 

प्रभाष जोशी को जनसत्ता के प्रधान संपादक पद से हटाए जाने के बाद जनसत्ता की साख बहुत खराब हुई। अखबार में असंतोष पनपा जिससे लोगों में अपनी नौकरी के प्रति असुरक्षा की भावना पैदा हुई। तरक्की और वेतनवृद्धि लंबे समय से न मिलने की वजह से लोगों के मन मे नकारात्मक भावनाएं ज्यादा बलवती हुईं। लोग जनसत्ता से बाहर नौकरी की संभावनाएं तलाशने लगे। इससे स्टाफ का ध्यान जनसत्ता की बेहतरी के काम पर कम और अपनी नौकरी की सुरक्षा की चिंता पर ज्यादा लगी रहती थी। कंपनी मालिक अपने फ्लैगशिप अखबार इंडियन एक्सप्रेस पर तो पैसा खर्च करना चाह रहे थे पर जनसत्ता पर नहीं। इससे अखबार की माली हालत बिगड़ने की खबरें आने लगीं। फिर मैनेजर कहने लगे कि जनसत्ता सफेद हाथी बन गया है। उन्हीं दिनों एक चर्चा यह भी चली कि कंपनी मालिक विवेक गोयनका अब अखबार का धंधा छोड़कर टायर के कारोबार में प्रवेश करेंगे। अखबार का कारोबार छोड़कर टायर बेचने की इस चर्चा को फिजां में छोड़ने के पीछे क्या मकसद रहा होगा यह तो कभी साफ नहीं हुआ पर विवेक गोयनका ने टायर का कारोबार शुरू किया हो ऐसा भी कभी सुनने में नहीं आया। हां, कंपनी के मैनेजर जनसत्ता के कर्मचारियों के पास अक्सर यह रोना जरूर रोते रहा करते थे कि अखबार बहुत घाटे में जा रहा है इसलिए मालिक इसे अब और चलाने के पक्ष में नहीं हैं। बाद में जब ओम थानवी जनसत्ता के संपादक बनाए गए तो उन्होंने अखबार घाटे में होने और बंद कर दिए जाने की बात को जमकर हवा दी और ऐसा करके उन्होंने जनसत्ता के कर्मचारियों में एक डर पैदा करने की पुरजोर कोशिश की। तभी कंपनी वीआरएस योजना भी लेकर आई।

 

64. स्टाफ को खुर्द-बुर्द करने के लिए लाए गए ओम थानवी

 

राहुल देव के जाने के बाद चंडीगढ़ जनसत्ता के स्थानीय संपादक ओम थानवी को जनसत्ता का कार्यकारी संपादक बना दिया गया। ओम थानवी बहुत ही गुस्सैल, दबंगई स्वाभाव, अहंकारी, गुरूर वाले और बेहद रूखे व्यवहार वाले व्यक्ति थे। चंडीगढ़ जनसत्ता में भी उनसे कोई खुश नहीं ऱहा। जब तक वे वहां रहे, सबको उन्होंने परेशान ही किया। उनके कार्यव्यवहार से दुखी होकर दिल्ली में भी लोगों ने जनसत्ता छोड़ना शुरू कर दिया। जो लोग अब तक किसी तरक्की या फिर कुछ वेतन बढ़ोतरी मिलने की उम्मीद में चल रहे थे और लंबे समय से बहुत कम पैसे में भी जनसत्ता में टिके हुए थे उन्हें अब कोई उम्मीद नहीं रही थी और वे लोग जनसत्ता छोड़कर जाने लगे। उन दिनों इस बात की खूब चर्चा थी कि ओम थानवी का यहां मूल काम जनसत्ता के लोगों को खुर्द-बुर्द करने का ही था। उन्हें इसी काम के लिए तरक्की देकर चंडीगढ़ से दिल्ली लाया गया था। काम दिया गया था पुराने और महंगे लोगों से जनसत्ता को मुक्त करना। उन्होंने शंभू नाथ शुक्ल को जनसत्ता के कोलकाता संस्करण का स्थानीय संपादक बना दिया। गणेश प्रसाद झा को बिना कोई तरक्की या वेतनवृद्धि दिए कोलकाता जाने को कह दिया गया। कुछ और भी तबादले हुए। अमित प्रकाश सिंह का भी कोलकाता तबादला कर दिया दया। दूसरी ओर उन्हीं दिनों कंपनी स्टाफ कम करने के लिए वीआरएस योजना लेकर आ गई। वीआरएस के बदले लोगों को तीन से पांच लाख तक दिए गए। काम का माहौल भी लगातार खराब होता गया। धीरे-धीरे लोग कम होते गए और अखबार में बहुत ज्यादा कचरा छपने लगा। जनसत्ता डेस्क के अरविंद उप्रेती, अरिहन जैन, सुधीर जैन, संजय कुमार सिंह, संजय सिन्हा, प्रताप सिंह समेत कई साथियों ने वीआरएस ले लिया और नौकरी छोड़कर चले गए। और भी कई लोगों ने नौकरी छोड़ी। ओम थानवी ने हिन्दी भाषी राज्यों के प्रमुख जिलों में काम करनेवाले जनसत्ता के जिलास्तरीय संवाददाताओं (स्ट्रिंगरों) को भी एक झटके में निकाल बाहर कर दिया। दो-चार स्ट्रिगरों को छोड़कर बाकी सब निकाल दिए गए। जनसत्ता के इन जिला संवाददाताओं को कभी कोई वेतन नहीं दिया जाता था। उन्हें सिर्फ एक सौ रुपए माहवार मिलते थे और छपी खबरों पर दो रुपए साठ पैसे प्रति कॉलम सेंटीमीटर के हिसाब से पारिश्रमिक का भुगतान किया जाता था। थानवी जी ने इन स्ट्रिंगरों से वह भी छीन लिया। नतीजा यह हुआ कि जिलों से खबरें आनी पूरी तरह बंद हो गईं। इसका असर यह हुआ कि जिलों में जनसत्ता बिकना भी लगभग बंद हो गया। यहां तक कि कुछ समय बाद हिन्ही भाषी राज्यों के जिले में जनसत्ता दिखना भी बंद हो गया। कुल मिलाकर ओम थानवी जनसत्ता में नौकरी छीन लेनेवाले संपादक ही साबित हुए।

 

65. सबको धमकाने और डर दिखानेवाले संपादक

ओम थानवी ने दिल्ली जनसत्ता में अपने पदार्पण के कुछ ही समय बाद दफ्तर में ऐसा माहौल बनाने की हर संभव कोशिश की जिसमें लोग अशांत और तनावग्रस्त महसूस करने लगें और परेशान होकर खुद ही नौकरी छोड़ दें। जनसत्ता के तमाम संस्करणों में काफी समय से स्टाफ की बेहद कमी थी। उन्होंने इस तरफ तो कोई ध्यान नहीं दिया, पत्रकारों को बेवजह यहां से वहां ट्रांसफर करने लगे। बिना जरूरत और मतलब के इस कवायद में जमे जमाए पत्रकारों पर ही गाज गिराई गई। उनका फोकस इस बात पर अधिक था कि किसे कहां भेजने से वह ज्यादा परेशान होगा और जिससे उनके नौकरी छोड़ने की ज्यादा संभावना बनेगी। इसी मुहिम के तहत कोलकाता से दो पत्रकारों को दिल्ली बुला लिया गया। कोलकाता में स्टाफ पहले से ही काफी कम था, इन दो लोगों को वहां से खिसका देने से वहां डेस्क पर स्थिति और बिगड़ गई। चंडीगढ़ और बंबई संस्करण को वे पहले ही बंद करा चुके थे। ले दे कर सिर्फ कोलकाता ही बचा रह गया था। पर कोलकाता संस्करण की हालत बेहद खराब हो चली थी। ऐसी चर्चा जोरों पर चल रही थी कि कोलकाता संस्करण बहुत जल्द बंद कर दिया जाएगा और बंबई की तरह सारे स्टाफ का हिसाब कर दिया जाएगा। थानवी जी यूनियनवालों को यह कहकर अक्सर धमकाया करते थे कि मालिक विवेक गोयनका अब और नुकसान झेलने की स्थिति में नहीं हैं और इसलिए वे जनसत्ता को अब आगे चलाते रहने के मूड में बिल्कुल नहीं हैं। यह सब कहकर उन्होंने प्रोमोशन और सैलरी बढाए जाने की बची-खुची संभावनाओं को भी सिरे से खारिज करते हुए बड़ी सफाई से सबके मुंह पर खामोशी का ताला जड़ दिया।


– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....


 

 

बुधवार, 22 जून 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 26

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की छब्बीसवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 26

60. जनसत्ता के पत्रकारों ने दे दी अखबार बंद करने की धमकी

16 नवंबर को दिल्ली जनसत्ता के दफ्तर में सुबह से ही माहौल गर्म हो गया था। दफ्तर के कुछ वरिष्ठ लोगों को दिल्ली यूनिट के महाप्रबंधक राजीव तिवारी के दफ्तर से सुबह ही इस बात की भनक लग गई थी कि आज कुछ बड़ा होनेवाला है और प्रधान संपादक प्रभाष जोशी अखबार से हटा दिए जाएंगे। पर यह अपुष्ट खबर ही थी क्योंकि महाप्रबंधक राजीव तिवारी अभी कोई खुलासा नहीं कर रहे थे। फैसला बहुत बड़ा था इसलिए मालिक के निर्देश पर महाप्रबंधक चुपचाप दफ्तर के माहौल का जायजा ले रहे थे। डर था जनसत्ता में कहीं कोई विद्रोह न भड़क जाए। दरअसल, महाप्रबंधक को नए मालिक विवेक गोयनका यह संदेश मिल चुका था कि आज जनसत्ता के प्रधान संपादक प्रभाष जोशी रिटायर हो रहे हैं और उनकी जगह लेंगे बंबई जनसत्ता के स्थानीय संपादक राहुल देव। महाप्रबंधक को बंबई से मिले उस आदेश में प्रभाष जोशी को जनसत्ता का सलाहकार संपादक बना देने का कहीं कोई जिक्र नहीं था। यानी प्रभाष जोशी जनसत्ता से सिरे से आउट किए जा रहे थे। आदेश मालिक का था इसलिए इसमें कोई किंतु-परंतु होने का कोई प्रश्न ही नहीं था। थोड़ी ही देर में यह खबर लीक भी हो गई। यह खबर तुरंत जनसत्ता के लगभग सभी वरिष्ठ लोगों तक पहुंचा दी गई। उस समय मोबाइल फोन और सोशल मीडिया नहीं था इसलिए सिर्फ लैंडलाइन फोन से ही यह सूचना पहुंचाई गई। ज्यादातर लोग तुरंत-फुरंत जो जिस हालत में थे उसी हालत में दफ्तर पहुंच गए। जल्दबाजी में जनसत्ता के संपादकीय विभाग में ही एक बैठक की गई और उसमें तय हुआ कि अगर प्रभाष जोशी जनसत्ता में नहीं रहेंगे तो अखबार को छपने भी नहीं दिया जाएगा। यह भी तय हुआ कि राहुल देव को जनसत्ता के संपादक के रूप में किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं किया जाएगा। इसके लिए चाहे जो भी करना पड़े। फिर तय हुआ कि पहले कंपनी के चेयरमैन (मालिक) विवेक गोयनका से बात कर ली जाए। वे क्या बोलते हैं उसपर फिर आगे की कार्रवाई तय करेंगे।

जनसत्ता की तरफ से हमारे वरिष्ठ साथी राम बहादुर राय और अंबरीश कुमार को इसके लिए अधिकृत किया गया। दोनों लोग महाप्रबंथक के पास गए पर महाप्रबंधक ने उन्हें अपने कक्ष में नहीं घुसने दिया। महाप्रबंधक अपने कक्ष के दरवाजे पर आकर दरवाजा पकड़कर खड़े हो गए। दरवाजे की फांक से ही राम बहादुर राय साहब और अबरीशजी ने महाप्रबंधक राजीव तिवारी से कहा कि चेयरमैन विवेक गोयनका जी से हमारी बात करा दीजिए। इसपर महापबंधक ने बड़े ही रूखे अंदाज में कहा कि चेयरमैन अभी बहुत बिजी चल रहे हैं और उनके पास अभी बात करने के लिए समय नहीं है। इसपर राय साहब और अंबरीशजी ने महाप्रबंधक से कहा कि आप सिर्फ इतना कीजिए कि चेयरमैन को हमारा इतना  सा संदेश भिजवा दीजिए कि अगर प्रभाष जोशी जनसत्ता में नहीं रहेंगे तो हम कल का जनसत्ता भी नहीं छपने देंगे।

दोपहर होते-होते जनसत्ता के बाकी बचे लोगों में से भी ज्यादातर लोग जनसत्ता के दफ्तर पहुंच चुके थे। माहौल काफी तनावपूर्ण हो चुका था। इसी बीच बंबई जनसत्ता के स्थानीय संपादक राहुल देव ने अपने करीबी जनसत्ता के एक पूर्व पत्रकार आलोक तोमर को फोन किया और पूछा कि दिल्ली जनसत्ता के दफ्तर में अभी कैसा माहौल है। मुझे अभी वहां जनसत्ता के दफ्तर पहुंचना है। मेरे वहां पहुंचने पर कहीं कोई मारपीट तो नहीं हो जाएगी। आलोक तोमर ने यह सूचना जनसत्ता के साथियों को पहुंचा दी। जनसत्ता के दफ्तर में माहौल तो गर्म था ही, इस सूचना से वहां का वातावरण और भी तनावपूर्ण हो गया। राहुल देव जी खतरा भांप गए और उस दिन दिल्ली नहीं आए।

उधर दिल्ली यूनिट के महाप्रबंधक दफ्तर की पल-पल की सूचना मालिक विवेक गोयनका को पहुंचा रहे थे। शाम चार दजे के करीब बंबई से चेयरमैन का एक नया आदेश आ गया। इस नए आदेश में लिखा था कि जनसत्ता के प्रधान संपादक प्रभाष जोशी आज रिटायर हो रहे हें। बंबई जनसत्ता के स्थानीय संपादक राहुल देव आज से जनसत्ता के कार्यकारी संपादक होंगे। इसके अलावा आदेश में यह भी लिखकर आया था कि प्रभाष जोशी आज से जनसत्ता के सलाहकार संपादक होंगे।

कंपनी मालिक विवेक गोयनका को दिल्ली के महाप्रबंधक से मिली फीड से यह अनुमान लग गया कि दिल्ली जनसत्ता में माहौल बहुत खताब है और प्रभाष जोशी को पूरी तरह से निकाल देने का मतलब होगा बगावत और अगर वैसा कुछ हो गया तो फिर जनसत्ता को छपना नामुमकिन हो जाएगा। शायद इसी डर की वजह से उन्होंने सुबह के अपने आदेश में बदलाव करके प्रभाष जोशी को जनसत्ता में प्रधान संपादक नहीं तो कम से कम सलाहकार संपादक के रूप में बनाए रखने का आदेश दे दिया ताकि जनसत्ता में बगावत थम जाए। अगले दिन राहुल देव भी चार्ज लेने दिल्ली जनसत्ता के दफ्तर पहुंच गए।

61. प्रभाषजी के घर उनके लाए पत्रकारों का जमावड़ा

प्रभाष जोशी जी को जनसत्ता के प्रधान संपादक पद से कार्यमुक्त किए जाने के अगले दिन यानी 17 नवंबर, 1995 की सुबह जनसत्ता के संपादकीय विभाग और रिपोर्टिंग के सारे के सारे पत्रकार पूर्वी दिल्ली के लक्ष्मी नगर स्थित उनके घर पहुंच गए। सबने उनके सामने ही जनसत्ता की नौकरी से सामूहिक इस्तीफे की पेशकश कर दी। सभी ने उनसे कहा, “हम सबों को जनसत्ता में आप लेकर आए हैं। अब जब आप ही जनसत्ता नहीं रहेंगे तो फिर हम वहां नौकरी क्यों करें। हम सारे लोग आज ही सामूहिक रूप से जनसत्ता की नौकरी से इस्तीफा देने जा रहे हैं।“ हम लोग उनके घर पर चार—पांच घंटे बैठे रहे। पर प्रभाष जोशी जी इस घटना से इस कदर आहत हुए थे और दुखी थे कि उनके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकल पा रहा था। वे हमारे बीच बिल्कुल गुमसुम बैठे रहे और उनकी आंखों से इस आहत और दर्द के आंसू टपकते रहे। उनकी वह चुप्पी बहुत कुछ बयां कर रही थी। यह तो प्रभाषजी के भरोसे की हत्या हुई थी और उनके अपने ही भरोसेमंद ने उनकी पीठ में जोरदार चाकू घोंप दिया था। और भरोसे की हत्या का आंसू जल्दी नहीं सूखता। वहां उनके घर पर कई घंटों तक बिल्कुल पिन ड्रॉप साइलेंस जैसी स्थिति बनी रही थी। कोई कुछ बोल ही नहीं पा रहा था। सिर्फ हमारे आंसू ही बोल  रहे थे। हममें से ऐसा एक भी साथी नहीं था जो उस दिन प्रभाषजी के घर पर न रोया हो। आज जब मैं उस दिन की इस घटना के दृश्य को यहां शब्दों में लिखने की कोशिश कर रहा हूं तो मेरी आंखों में बारंबार आंसू छलक जा रहे हैं।

हम सभी साथी तो अपने-अपने राज्यों में आंचलिक पत्रकार थे। इन्हीं प्रभाष जोशी जी ने हमें वहां से निकालकर जनसत्ता के एक राष्ट्रीय मंच पर ला खड़ा कर दिया था जिससे हम सभी नाम वाले हो गए थे। प्रभाष जी ने बुरी तरह आहत होने के वावजूद मालिक विवेक गोयनका जी की प्रतिष्ठा का पूरा-पूरा खयाल रखते हुए हमसे कह दिया कि उन्होंने ही कंपनी को लिखकर दे दिया है कि वे अब जनसत्ता के प्रधान संपादक का अपना उत्तरदायित्व नहीं निभा पाएंगे। उस दिन 17 नवंबर, 1995 की तारीख थी जो जनसत्ता की तेरहवीं सालगिरह थी और प्रभाष जी उसी दिन से अपना पद और जनसत्ता की तमाम जिम्मेदारियां छोड़ देने पर अड़े हुए थे। प्रभाषजी ने इसके लिए अपना एक विदाई लेख भी लिखकर रख लिया था जिसे वे जाने से पहले जनसत्ता को देकर जानेवाले थे। पर हममें से कोई इस बात के लिए तैयार नहीं था। हम सब तो उनसे बस यही कहते रहे कि आप अपना वह पत्र वापस ले लीजिए और हमारे प्रधान संपादक बने रहिए। हम तो उन्हें मनाकर अपने साथ दफ्तर लिवा लाने वहां उनके घर गए थे, पर प्रभाष जी ने दुखी मन से हमें ही परिस्थिति समझाकर मना कर दिया और हमें आदेश भी दे दिया कि उनका एक भी आदमी यानी हममें से कोई इस्तीफा नहीं देगा।

 प्रभाष जोशी जी को जनसत्ता में रोकने के लिए के विशेष संवाददाता कुमार आनंद ने इंडियन एक्सप्रेस समूह के अध्यक्ष विवेक गोयनका के नाम एक सामूहिक पत्र तैयार कराया जिसपर हम सभी साथियों ने हस्ताक्षर किया। पत्र में मालिक विवेक गोयनका से अनुरोध किया गया था कि वे हर हाल में प्रभाषजी को जनसत्ता छोड़ने से रोकें और उनहें पहले की तरह जनसत्ता के प्रधान संपादक पद पर बने रहने दें वरना हम सारे लोग इस्तीफा देने से भी नहीं हिचकेंगे। पत्र में लिखा गया था कि उसी दिन शाम तक इस बात का फैसला हो जाना चाहिए कि प्रभाष जोशी जी जनसत्ता से नहीं हटेंगे और जनसत्ता में प्रधान संपादक बने रहेंगे। हम लोगों ने विनती करके प्रभाषजी को उस दिन शाम तक अखबार छोड़ने का कोई भी कदम न उठाने के लिए मना लिया था। ऐसा ही पत्र जनसत्ता के कोलकाता और चंडीगढ़ दफ्तर में भी तैयार करवाया गया और उसपर वहां के पत्रकारों से हस्ताक्षर लिए गए थे। 

पत्र में लिखा गया था कि “अखबार से जुड़े लगभग सभी लोग प्रभाषजी के बिना जनसत्ता की कल्पना तक नहीं कर पा रहे हैं। उनके बिना अखबार की साख का क्या होगा? इसका एक्सप्रेस समूह की साख पर भी बुरा असर होगा। इस तरह के सवालों पर हमने काफी सोचा है। हमें लगता है कि आपको प्रभाषजी को रोकने की हर संभव कोशिश करनी चाहिए।“ पत्र में विवेक गोयनका जी से अनुरोध किया गया था कि वे आज ही दिल्ली आएं और जनसत्ता और पूरे एक्सप्रेस समूह के हित में प्रभाषजी से बात करें। प्रभाषजी को जनसत्ता से अलग न होने दें।

हमारे इस अनुरोध का मालिक विवेक गोयनका पर रत्ती भर भी असर नहीं हुआ। वे दिल्ली नहीं आए। उन्होंने प्रभाषजी से बात भी की या नहीं यह तो नहीं मालूम पर जनसत्ता की व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। पिछली शाम यानी 16 नवंबर 1995 को मालिक विवेक गोयनका की तरफ से राहुल देव को जनसत्ता का कार्यकारी संपादक बनाने का आदेश और एलान हो ही चुका था और अखबार के प्रिंटलाइन में राहुल देव का नाम बतौर कार्यकारी संपादक छप ही गया था और प्रभाष जोशी को अखबार के प्रधान संपादक के पद से हटाकर सलाहकार संपादक बनाकर प्रिंटलाइन में उनका नाम छाप ही दिया गया था सो वह सब आगे भी बरकरार रहा। मालिक के आगे किसी की एक न चली। और ठीक ही कहते हैं कि मालिक किसी का सगा नहीं होता। मालिक के लिए कोई भी कर्मचारी चाहे वह कितना भी बड़ा और ओहदेदार क्यों न हो, वह दूध में गिरी एक मक्खी से ज्यादा औकात नहीं रखता। विवेक गोयनका को इंडियन एक्सप्रेस समूह का स्वामी प्रभाषजी ने ही एड़ी-चोटी एक करके बनवाया था। पर विवेकजी प्रभाषजी के नहीं हुए। समय-समय की बात है, उस बदले हुए समय में प्रभाषजी के आगे राहुल देव बहुत भारी पड़े और राहुलजी ने षड़यंत्र करके प्रभाषजी को धक्के देकर बाहर निकलवा दिया।

राहुल देव ने प्रभाष जोशी को जनसत्ता से दूध की मक्खी की तरह निकालकर बाहर फेंक देने की पूरी व्यूह रचना और तैयारी कर रखी थी, पर जनसत्ता में प्रभाषजी के अपने लोगों ने उनकी इस व्यूह रचना को बींध कर प्रभाष जोशी के लिए किसी तरह एक कामचलाऊ जगह का इंतजाम कराने में सफलता पा ली। प्रभाषजी का कक्ष तो नहीं बदला पर सलाहकार संपादक की इस कुर्सी पर प्रभाशजी कभी शुकून नही पा सके। उनहें तरह-तरह से और बार-बार प्रताड़ित और अपमानित किया जाता रहा। इस तरह अपमान का घूंट पिलाकर सलाहकार संपादक बनाए जाने के बाद से प्रभाषजी हमेशा मौन ही रहने लगे। जनसत्ता से उनका सरोकार ही खत्म हो गया। वे श्रीहीन हो गए। अब उनके पास दफ्तर का उनका वही पुराना कक्ष और उनकी वही पुरानी कुर्सी तो बरकरार थी पर कोई मान-सम्मान नहीं रह गया था। दफ्तर की लाज बचाने के लिए वे मन मारकर किसी तरह अपना कॉलम कागद कारे भर लिख लिया करते थे। जनसत्ता के रोजमर्रा के कामकाज से संबंधित कोई कुछ पहले की तरह अगर उनसे पूछने चला जाता तो वे मना कर देते और कहते राहुल देव से पूछिए।

 – गणेश प्रसाद झा

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सोमवार, 20 जून 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 25

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की पच्चीसवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 25

58. दाऊद ने दे दी थी विवेक अग्रवाल और अनिल सिन्हा की हत्या की सुपारी

जनसत्ता में दाऊद इब्राहिम की गिरफ्तारी और टाइगर मेमन की हत्या की यह झूठी खबर छपने के तुरंत बाद क्राइम रिपोर्टर विवेक अग्रवाल को कराची से दाऊद इब्राहिम ने फोन किया और कहा कि यह झूठी खबर छापकर उन्होंने बहुत बड़ी गलती कर दी। दाऊद ने बंबई में काम कर रहे अपने एक हिटमैन को विवेक अग्रवाल की हत्या की सुपारी दे दी। विवेक हैरान थे कि उन्होंने तो कुछ लिखा ही नहीं और उनको तो इस खबर के बारे में कुछ मालूम भी नहीं है। फिर दाऊद ने नाहक उनकी हत्या की सुपारी दे डाली। बंबई जनसत्ता में जो खबर छपी थी उसमें कोई बाईलाइन नहीं थी। सिर्फ जनसत्ता संवाददाता गया था। प्रभाष जोशी जी ने खबर में अनिल सिन्हा की बाईलाइन देने की इजाजत दे दी थी। पर पेज बनते समय उसकी बाईलाइन बड़े रहस्यमय तरीके से हटा दी गई। पेज पेस्टिंग विभाग के जमादार जी बना रहे थे और पेज डेस्क प्रभारी जावेद इकबाल ने बनवाया था। दाऊद की वह खबर पेज पर जमादार जी ने ही चिपकाई थी। पेज बनाते समय जमादारजी ने बड़े से पेज मेकिंग हॉल में सबके सामने कहा था कि "कल अगर यह खबर सही निकलती है तो मैं नौकरी से इस्तीफा दे दूंगा। ये खबर सही हो ही नहीं सकती।" जमादारजी की यह बात सुनकर वहीं हॉल में बगल में पेज बनवा रहे इंडियन एक्सप्रेस, फानेंसियल एक्सप्रेस, समकालीन और लोकसत्ता के पत्रकारों और पेस्टिंग कर्मचारियों ने आपस में बोलना शुरू किया कि ऐसी अपुष्ट और झूठ निकल जा सकने वाली खबर जनसत्ता वाले क्यों लगा रहे हैं। राहुलजी भी पेज बनाते समय वहां गए थे जब वहां इस तरह की बातें बोली जा रही थीं। पर राहुलजी ने खबर को रोका नहीं। खबर से अनिल सिन्हा की बाईलाइन हटा दी गई। शायद राहुल देव का निर्देश था कि बाईलाइन हटा ली जाए। शायद राहुलजी को भी अनिल सिन्हा पर किसी संभावित हमले का अंदेशा था। विवेक अग्रवाल को अपने सूत्रों से अपनी हत्या की सुपारी दिए जाने की खबर मिल गई और उन्होंने मान लिया कि अब उनकी हत्या हो जाएगी। उन्होंने घर से निकलना बंद कर दिया। उन्होंने दाऊद के हिटमैन को समझाने की कोशिश की कि यह खबर उन्होंने नहीं, रिपोर्टर अनिल सिन्हा ने लिखी है। पर हिटमैन उनकी बात मानने को तैयार नहीं हुआ। विवेक का मरना तय हो गया था। दो दिन बाद जब जनसत्ता के विभिन्न संस्करणों का बंडल आया तो विवेक की सांसें फिर से चलनी शुरू हुईं। विवेक ने जनसत्ता का दिल्ली, चंडीगढ़ और कलकत्ता संस्करण हिटमैन को दिखा दिया। इन संस्करणों में छपी खबरों में अनिल सिन्हा की बाईलाइन थी। इन अखबारों को देखने के बाद ही हिटमैन ने मामला समझा और विवेक को बख्श दिया। अब हिटमैन की बंदूक की नली अनिल सिन्हा की तरफ घूम गई। अनिल सिन्हा ने भी मारे जाने के डर से घर से निकलना बंद कर दिया। वे घर के भीतर भी खिड़की से दूर ही रहने लगे थे। डर था कि कहीं दाऊद का कोई शूटर टेलीस्कोपिक हथियार से बाहर से ही निशाना न लगा ले। विवेक अग्रवाल और अनिल सिन्हा करीब दो हफ्तों तक डर से सो नहीं पाए। बाद में मामला समझने के बाद जब दाऊद शांत हुए तब जाकर इन दोनों की जान में जान आई। दोनों को नया जन्म मिला।

इस झूठी खबर को लेकर दफ्तर में एक दिन स्थानीय संपादक राहुल देव की ऋषिकेश राजोरिया से गरमागरम बहस हो गई। ऋषिकेश का कहना था कि इस झूठी खबर के मामले की इन-हाउस जांच होनी चाहिए जिससे यह जिम्मेदारी तय हो सके कि गलती किससे हुई। इस पर राहुल देव चिल्लाने लगे कि झूठी खबर छप गई तो छप गई। क्या करूं? मैं इस्तीफा दे दूं? इस खबर के झूठ निकल जाने पर दिल्ली में भी डेस्क के कई साथी कहने लगे थे कि अगले दिन अखबार में यह छापा जाना चाहिए था कि किसने यह खबर दी थी और बिना किसी सबूत के उसकी बात पर यकीन क्यों कर लिया गया। पर इस सिलसिले में कुछ नहीं किया गया। न कोई जांच हुई, न कोई कार्रवाई।

59. प्रभाष जोशी का पत्ता काटकर राहुल देव बने संपादक

वह साल था 1995 और 16 नवंबर की तारीख थी। सबकुछ आम दिनों की तरह सामान्य ही था। प्रभाष जोशी जी दफ्तर में ही थे और अपने कक्ष में बैठकर उस दिन का संपादकीय लिख रहे थे। दिल्ली संस्करण के स्थानीय संपादक बनवारी जी भी अपने कक्ष में थे। मैं 3 बजे शाम से 9 बजे रात की पाली में था। अचानक दफ्तर में गहमा-गहमी बढ़ गई। दिल्ली दफ्तर के जेनरल मैनेजर जी आऱ सक्सेना को कंपनी के हेडक्वार्टर बंबई से अखबार समूह के नए मालिक विवेक गोयनका (विवेक खेतान) का कोई बहुत खास और बहुत अर्जेंट मैसेज आ गया था। मालिक का आदेश था कि आज जनसत्ता के प्रधान संपादक प्रभाष जोशी रिटायर हो गए हैं और आज से उनका नाम अखबार के प्रधान संपादक के रूप में नहीं जाएगा। आज से जनसत्ता के बंबई संस्करण के स्थानीय संपादक राहुल देव अखबार के कार्यकारी संपादक बनाए गए हैं। आज से राहुल देव का नामजनसत्ता के कार्यकारी संपादक के रूप में छपेगा। प्रभाष जोशी आज से जनसत्ता के सलाहकार संपादक होंगे।

विवेक गोयनका के इस आदेश से पूरे दफ्तर में खलबली मच गई और सिर्फ जनसत्ता ही नहीं, इंडियन एक्सप्रेसऔर फाइनेंसियल एक्सप्रेस के लोग भी मालिक का यह आदेश सुनकर सन्न रह गए। जनसत्ता में तो तत्काल मुर्दनी छा गई। यह क्या हो गया? जनसत्ता में तो कोई कभी ऐसा सोच भी नहीं सकता था। कंपनी में प्रभाष जोशी की बहुत बड़ी हैसियत थी।

डाक संस्करण का पहला और अंतिम पेज बन रहा था। वरिष्ठ मुख्य उप संपादक मनोहर नायक पेस्टर से पहले पेज पर खबरें लगवा रहे थे। तभी जनरल मैनेजर जीआर सक्सेना हांफते हुए संपादकीय विभाग में आए और समाचार संपादक श्रीश चंद्र मिश्र के पास गए। उनके हाथ में एक टेलीप्रिंटर संदेश था। उन्होंने फुसफुसाकर श्रीश जी से कुछ कहा और उनको वह संदेश दिखाया। संदेश अखबार समूह के नए मालिक विवेक गोयनका का था जो बंबई से आया था। तुरंत सक्सेना जी और श्रीश जी पेज बनवा रहे मुख्य उपसंपादक मनोहर नायक जी के पास जाकर खड़े हो गए। मैनेजर सक्सेना जी ने मनोहर नायक जी को भी मालिक का वह संदेश दिखाया। तब तक पूरे संपादकीय विभाग में यह खबर आग की तरह फैल चुकी थी कि प्रभाष जोशी जी प्रधान संपादक पद से हटा दिए गए और अब बंबई के राहुल देव जनसत्ता के संपादक होंगे। पूरे जनसत्तासंपादकीय विभाग में सन्नाटा छा गया। थोड़ी देर बाद टेलीप्रिंटर विभाग से एक सज्जन एक संदेश लिए मेरे पास आए। संदेश मेरे नाम था जो मालिक विवेक गोयनका की तरफ से आय़ा था। अंग्रेजी में लिखे इस संदेश में लिखा था कि “जनसत्ता के प्रधान संपादक प्रभाष जोशी आज रिटायर हो रहे हैं। उनकी जगह बंबईजनसत्ता के स्थानीय संपादक राहुल देव को जनसत्ताका कार्यकारी संपादक बनाया गया है। आज से अखबार के प्रिंटलाइन में राहुल देव का नाम कार्यकारी संपादक के रूप में छपेगा और प्रभाष जोशी का नाम सलाहकार संपादक के रूप में जाएगा। प्रभाष जोशी का नाम राहुल देव के नाम के नीचे की लाइन में जाएगा। कृपयाजनसत्ता के प्रिंटलाइन में अभी से यह जरूरी बदलाव सुनिश्चित करें।“

मालिक विवेक गोयनका के इस आदेश का पालन तो होना ही था, प्रमुखता से हो भी रहा था। डाक संस्करण से ही प्रिंटलाइन में यह बदलाव करवा दिया गया। मुझे जिम्मेदारी मिली थी कि मैं पेज छूटते समय पेज पर यह देख लूं कि प्रिंटलाइन में आदेशानुसार बदलाव हो गया है। मैंने देख लिया कि जरूरी बदलाव कर दिया गया है। और इस तरह उस दिन जयप्रकाश शाही जी की भविष्यवाणी पूरी तरह सच साबित हो गई। राहुल देव ने प्रभाष जोशी को आखिरकार धक्का दे ही दिया।

जनसत्ता के पन्ने पर संपादक का नाम बदलने की यह कवायद पूरी किए जाने के तुरंत बाद दिल्ली संस्करण के स्थानीय संपादक बनवारी जी अपने कक्ष से निकल कर प्रभाषजी के कक्ष में गए और उनसे मुलाकात की। कुछ बातें की। वे कुछ मिनट तक प्रभाषजी के कमरे में रहे और फिर वहां से निकलकर महाप्रबंधक जीआर सक्सेना के पास गए और उनको अपना इस्तीफा सौंपा और चुपचाप दफ्तर से बाहर निकल गए। वे दोबारा फिर कभी एक्सप्रेस बिल्डिंग नहीं आए। बनवारीजी बहुत ही शांत प्रकृति के स्वाभिमानी व्यक्ति रहे। वे 1983 में टाइम्स ग्रुप की समाचार पत्रिका दिनमान की नौकरी छोड़कर प्रभाषजी के साथ जनसत्ता शुरू करने आए थे और तभी से जनसत्ता के ही होकर रह गए थे। प्रभाष जोशी जी उन्हें लेकर आए थे। जनसत्ता में शुरू में सिर्फ तीन ही लोग थे। प्रभाष जोशी, बनवारी और हरिशंकर व्यास। व्यासजी ने इस घटना के कुछ ही महीने पहले इस्तीफा दे दिया था। इतने बड़े कद के बनवारीजी अपने से बहुत-बहुत जूनियर राहुल देव के नीचे कैसे काम कर सकते थे। सो उन्होंने राहुल देव का नाम सुनते ही तुरंत इस्तीफा दे दिया। यही उचित भी था।

59. रिटायर नहीं, साजिश के शिकार हुए प्रभाष जोशी

जनसत्ता के प्रधान संपादक प्रभाष जोशी का जन्म 15 जुलाई 1937 को हुआ था। इस तरह नियमानुसार उनको 58 साल की उम्र पूरी होने पर 14 जुलाई 1995 को रिटायर हो जाना था। पर कंपनी ने उनको रिटायर नहीं किया। उन्होंने अपनी तरफ से कभी रिटायर होने की इच्छा भी जाहिर नहीं की थी। वैसे कोई कंपनी अपने कर्मचारी को उससे पूछकर रिटायर नहीं करती। प्रभाषजी तो जनसत्ता के जन्मदाता थे। वे तो इंडियन एक्सप्रेस अखबार समूह के मालिक रामनाथ गोयनक जी के एकदम खासमखास थे। वे जब कभी कुछ कह देते थे तो रामनाथ गोयनकाजी उसपर कभी कोई किंतु-परंतु नहीं करते थे। प्रभाषजी के कहने का मतलब ही होता था मालिक रामनाथ गोयनका जी का आदेश। रामनाथ गोयनका जी के नाती विवेक खेतान को कानूनन रामनाथ गोयनका जी का गोद लिया पुत्र बनवाकर और विवेक खेतान से विवेक गोयनका बनवाकर उन्हें पूरे इंडियन एक्सप्रेस अखबार समूह यानी पूरी कंपनी का उत्तराधिकारी और मालिक बनवानेवाले प्रभाष जोशी जी ही तो थे। विवेक गोयनका के लिए इतना कुछ करनेवाले प्रभाष जोशी जी को कौन रिटायर कर सकता था। शायद विवेक गोयनका भी नहीं। वे तो जनसत्ता के जीवनभर के प्रधान संपादक थे।

जानकार बताते हैं कि बहुत कम लोग जानते होंगे कि रामनाथ गोयनका जी जीते जी लिखकर गए हैं किजनसत्ता को कभी बंद नहीं करना है और प्रभाष जोशी इसके प्रधान संपादक बने रहेंगे। रामनाथ गोयनका जी ने प्रभाष जोशी जी को जनसत्ता का सलाहकार संपादक बना देने जैसी कभी कोई बात नहीं की थी। रामनाथ गोयनका जी यह भी लिखकर गए हैं कि प्रभाषजी का जीवनकाल पूर्ण होने के बाद भी इंडियन एक्सप्रेसकंपनी उनके आश्रितों का पूरा-पूरा खयाल रखती रहेगी। वर्ष 1994 में जब प्रभाष जोशी जी को हर्ट अटैक आया था और बंबई में उनकी बाईपास सर्जरी हुई थी तो घर आने के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ने की इच्छा जरूर जाहिर की थी। मालिक विवेक गोयनका को उन्होंने अपनी इस इच्छा से अवगत भी कराया था। पर नए मालिक विवेक गोयनका जी ने उनका यह अनुरोध नहीं माना था। प्रभाष जी को जनसत्ता का प्रधान संपादक बनाए रखा गया था। जनसत्ता का मतलब था प्रभाष जोशी और प्रभाष जोशी का मतलब था जनसत्ता । प्रभाष जोशी जी प्रधान संपादक के रूप में जनसत्ता को निरंतर अपनी सेवाएं देते जा रहे थे। फिर उनको 16 नवंबर 1995 को अचानक प्रधान संपादक के पद से कार्यमुक्त कर दिया गया। उसी दिन जनसत्ता के बंबई संस्करण के स्थानीय संपादक राहुल देव को जनसत्ताके तमाम संस्करणों का कार्यकारी संपादक बना दिया गया। अगर कंपनी को प्रभाष जी को रिटायर ही करना था तो फिर उसी दिन कर देना था जिस दिन प्रभाष जी ने अपने जीवन के 58 साल पूरे किए थे। यानी 14 जुलाई 1995 को। पर वे तो 58 साल पूरे होने के महीनों बाद तक भी अपने पद पर बने रहे। जानकार बताते हैं कि कंपनी मालिक ने प्रभाष जोशी को कार्यमुक्त कर अपने उस आदेश को रिटायरमेंट का एक झूठा नाम दे दिया। दरअसल, प्रभाष जोशी एक गहरी साजिश के शिकार हो गए और इस इन-हाउस साजिश के सूत्रधार थे जनसत्ताके बंबई संस्करण के स्थानीय संपादक राहुल देव जिनको प्रभाषजी अपने एक खास सहयोगी की सिफारिश पर इलाहाबाद की समाचार पत्रिका माया से निकालकर लाए थे। जिसे प्रभाष जी ने नौकरी दी, संस्करण का स्थानीय संपादक बनाया और दूध पिलाया उसी ने उनको डंस लिया। जानकार लोग मानते हैं कि राहुल देव ने ऐसी साजिश रची कि रामनाथ गोयनका जी का वचन भी झूठा हो गया और प्रभाष जोशी जी श्रीहीन बना दिए गए। जयप्रकाश शाही ने यही तो भविष्यवाणी की थी।

– गणेश प्रसाद झा

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