एक पत्रकार की अखबार यात्रा की छब्बीसवीं किश्त
पत्रकारिता की कंटीली डगर
भाग- 26
60. जनसत्ता के पत्रकारों ने दे दी अखबार बंद करने की धमकी
16 नवंबर को दिल्ली जनसत्ता के दफ्तर में सुबह से ही माहौल गर्म हो गया था। दफ्तर के कुछ वरिष्ठ लोगों को दिल्ली यूनिट के महाप्रबंधक राजीव तिवारी के दफ्तर से सुबह ही इस बात की भनक लग गई थी कि आज कुछ बड़ा होनेवाला है और प्रधान संपादक प्रभाष जोशी अखबार से हटा दिए जाएंगे। पर यह अपुष्ट खबर ही थी क्योंकि महाप्रबंधक राजीव तिवारी अभी कोई खुलासा नहीं कर रहे थे। फैसला बहुत बड़ा था इसलिए मालिक के निर्देश पर महाप्रबंधक चुपचाप दफ्तर के माहौल का जायजा ले रहे थे। डर था जनसत्ता में कहीं कोई विद्रोह न भड़क जाए। दरअसल, महाप्रबंधक को नए मालिक विवेक गोयनका यह संदेश मिल चुका था कि आज जनसत्ता के प्रधान संपादक प्रभाष जोशी रिटायर हो रहे हैं और उनकी जगह लेंगे बंबई जनसत्ता के स्थानीय संपादक राहुल देव। महाप्रबंधक को बंबई से मिले उस आदेश में प्रभाष जोशी को जनसत्ता का सलाहकार संपादक बना देने का कहीं कोई जिक्र नहीं था। यानी प्रभाष जोशी जनसत्ता से सिरे से आउट किए जा रहे थे। आदेश मालिक का था इसलिए इसमें कोई किंतु-परंतु होने का कोई प्रश्न ही नहीं था। थोड़ी ही देर में यह खबर लीक भी हो गई। यह खबर तुरंत जनसत्ता के लगभग सभी वरिष्ठ लोगों तक पहुंचा दी गई। उस समय मोबाइल फोन और सोशल मीडिया नहीं था इसलिए सिर्फ लैंडलाइन फोन से ही यह सूचना पहुंचाई गई। ज्यादातर लोग तुरंत-फुरंत जो जिस हालत में थे उसी हालत में दफ्तर पहुंच गए। जल्दबाजी में जनसत्ता के संपादकीय विभाग में ही एक बैठक की गई और उसमें तय हुआ कि अगर प्रभाष जोशी जनसत्ता में नहीं रहेंगे तो अखबार को छपने भी नहीं दिया जाएगा। यह भी तय हुआ कि राहुल देव को जनसत्ता के संपादक के रूप में किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं किया जाएगा। इसके लिए चाहे जो भी करना पड़े। फिर तय हुआ कि पहले कंपनी के चेयरमैन (मालिक) विवेक गोयनका से बात कर ली जाए। वे क्या बोलते हैं उसपर फिर आगे की कार्रवाई तय करेंगे।
जनसत्ता की तरफ से हमारे वरिष्ठ साथी राम बहादुर राय और अंबरीश कुमार को इसके लिए अधिकृत किया गया। दोनों लोग महाप्रबंथक के पास गए पर महाप्रबंधक ने उन्हें अपने कक्ष में नहीं घुसने दिया। महाप्रबंधक अपने कक्ष के दरवाजे पर आकर दरवाजा पकड़कर खड़े हो गए। दरवाजे की फांक से ही राम बहादुर राय साहब और अबरीशजी ने महाप्रबंधक राजीव तिवारी से कहा कि चेयरमैन विवेक गोयनका जी से हमारी बात करा दीजिए। इसपर महापबंधक ने बड़े ही रूखे अंदाज में कहा कि चेयरमैन अभी बहुत बिजी चल रहे हैं और उनके पास अभी बात करने के लिए समय नहीं है। इसपर राय साहब और अंबरीशजी ने महाप्रबंधक से कहा कि आप सिर्फ इतना कीजिए कि चेयरमैन को हमारा इतना सा संदेश भिजवा दीजिए कि अगर प्रभाष जोशी जनसत्ता में नहीं रहेंगे तो हम कल का जनसत्ता भी नहीं छपने देंगे।
दोपहर होते-होते जनसत्ता के बाकी बचे लोगों में से भी ज्यादातर लोग जनसत्ता के दफ्तर पहुंच चुके थे। माहौल काफी तनावपूर्ण हो चुका था। इसी बीच बंबई जनसत्ता के स्थानीय संपादक राहुल देव ने अपने करीबी जनसत्ता के एक पूर्व पत्रकार आलोक तोमर को फोन किया और पूछा कि दिल्ली जनसत्ता के दफ्तर में अभी कैसा माहौल है। मुझे अभी वहां जनसत्ता के दफ्तर पहुंचना है। मेरे वहां पहुंचने पर कहीं कोई मारपीट तो नहीं हो जाएगी। आलोक तोमर ने यह सूचना जनसत्ता के साथियों को पहुंचा दी। जनसत्ता के दफ्तर में माहौल तो गर्म था ही, इस सूचना से वहां का वातावरण और भी तनावपूर्ण हो गया। राहुल देव जी खतरा भांप गए और उस दिन दिल्ली नहीं आए।
उधर दिल्ली यूनिट के महाप्रबंधक दफ्तर की पल-पल की सूचना मालिक विवेक गोयनका को पहुंचा रहे थे। शाम चार दजे के करीब बंबई से चेयरमैन का एक नया आदेश आ गया। इस नए आदेश में लिखा था कि जनसत्ता के प्रधान संपादक प्रभाष जोशी आज रिटायर हो रहे हें। बंबई जनसत्ता के स्थानीय संपादक राहुल देव आज से जनसत्ता के कार्यकारी संपादक होंगे। इसके अलावा आदेश में यह भी लिखकर आया था कि प्रभाष जोशी आज से जनसत्ता के सलाहकार संपादक होंगे।
कंपनी मालिक विवेक गोयनका को दिल्ली के महाप्रबंधक से मिली फीड से यह अनुमान लग गया कि दिल्ली जनसत्ता में माहौल बहुत खताब है और प्रभाष जोशी को पूरी तरह से निकाल देने का मतलब होगा बगावत और अगर वैसा कुछ हो गया तो फिर जनसत्ता को छपना नामुमकिन हो जाएगा। शायद इसी डर की वजह से उन्होंने सुबह के अपने आदेश में बदलाव करके प्रभाष जोशी को जनसत्ता में प्रधान संपादक नहीं तो कम से कम सलाहकार संपादक के रूप में बनाए रखने का आदेश दे दिया ताकि जनसत्ता में बगावत थम जाए। अगले दिन राहुल देव भी चार्ज लेने दिल्ली जनसत्ता के दफ्तर पहुंच गए।
61. प्रभाषजी के घर उनके लाए पत्रकारों का जमावड़ा
प्रभाष जोशी जी को जनसत्ता के प्रधान संपादक पद से कार्यमुक्त किए जाने के अगले दिन यानी 17 नवंबर, 1995 की सुबह जनसत्ता के संपादकीय विभाग और रिपोर्टिंग के सारे के सारे पत्रकार पूर्वी दिल्ली के लक्ष्मी नगर स्थित उनके घर पहुंच गए। सबने उनके सामने ही जनसत्ता की नौकरी से सामूहिक इस्तीफे की पेशकश कर दी। सभी ने उनसे कहा, “हम सबों को जनसत्ता में आप लेकर आए हैं। अब जब आप ही जनसत्ता नहीं रहेंगे तो फिर हम वहां नौकरी क्यों करें। हम सारे लोग आज ही सामूहिक रूप से जनसत्ता की नौकरी से इस्तीफा देने जा रहे हैं।“ हम लोग उनके घर पर चार—पांच घंटे बैठे रहे। पर प्रभाष जोशी जी इस घटना से इस कदर आहत हुए थे और दुखी थे कि उनके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकल पा रहा था। वे हमारे बीच बिल्कुल गुमसुम बैठे रहे और उनकी आंखों से इस आहत और दर्द के आंसू टपकते रहे। उनकी वह चुप्पी बहुत कुछ बयां कर रही थी। यह तो प्रभाषजी के भरोसे की हत्या हुई थी और उनके अपने ही भरोसेमंद ने उनकी पीठ में जोरदार चाकू घोंप दिया था। और भरोसे की हत्या का आंसू जल्दी नहीं सूखता। वहां उनके घर पर कई घंटों तक बिल्कुल पिन ड्रॉप साइलेंस जैसी स्थिति बनी रही थी। कोई कुछ बोल ही नहीं पा रहा था। सिर्फ हमारे आंसू ही बोल रहे थे। हममें से ऐसा एक भी साथी नहीं था जो उस दिन प्रभाषजी के घर पर न रोया हो। आज जब मैं उस दिन की इस घटना के दृश्य को यहां शब्दों में लिखने की कोशिश कर रहा हूं तो मेरी आंखों में बारंबार आंसू छलक जा रहे हैं।
हम सभी साथी तो अपने-अपने राज्यों में आंचलिक पत्रकार थे। इन्हीं प्रभाष जोशी जी ने हमें वहां से निकालकर जनसत्ता के एक राष्ट्रीय मंच पर ला खड़ा कर दिया था जिससे हम सभी नाम वाले हो गए थे। प्रभाष जी ने बुरी तरह आहत होने के वावजूद मालिक विवेक गोयनका जी की प्रतिष्ठा का पूरा-पूरा खयाल रखते हुए हमसे कह दिया कि उन्होंने ही कंपनी को लिखकर दे दिया है कि वे अब जनसत्ता के प्रधान संपादक का अपना उत्तरदायित्व नहीं निभा पाएंगे। उस दिन 17 नवंबर, 1995 की तारीख थी जो जनसत्ता की तेरहवीं सालगिरह थी और प्रभाष जी उसी दिन से अपना पद और जनसत्ता की तमाम जिम्मेदारियां छोड़ देने पर अड़े हुए थे। प्रभाषजी ने इसके लिए अपना एक विदाई लेख भी लिखकर रख लिया था जिसे वे जाने से पहले जनसत्ता को देकर जानेवाले थे। पर हममें से कोई इस बात के लिए तैयार नहीं था। हम सब तो उनसे बस यही कहते रहे कि आप अपना वह पत्र वापस ले लीजिए और हमारे प्रधान संपादक बने रहिए। हम तो उन्हें मनाकर अपने साथ दफ्तर लिवा लाने वहां उनके घर गए थे, पर प्रभाष जी ने दुखी मन से हमें ही परिस्थिति समझाकर मना कर दिया और हमें आदेश भी दे दिया कि उनका एक भी आदमी यानी हममें से कोई इस्तीफा नहीं देगा।
प्रभाष जोशी जी को जनसत्ता में रोकने के लिए के विशेष संवाददाता कुमार आनंद ने इंडियन एक्सप्रेस समूह के अध्यक्ष विवेक गोयनका के नाम एक सामूहिक पत्र तैयार कराया जिसपर हम सभी साथियों ने हस्ताक्षर किया। पत्र में मालिक विवेक गोयनका से अनुरोध किया गया था कि वे हर हाल में प्रभाषजी को जनसत्ता छोड़ने से रोकें और उनहें पहले की तरह जनसत्ता के प्रधान संपादक पद पर बने रहने दें वरना हम सारे लोग इस्तीफा देने से भी नहीं हिचकेंगे। पत्र में लिखा गया था कि उसी दिन शाम तक इस बात का फैसला हो जाना चाहिए कि प्रभाष जोशी जी जनसत्ता से नहीं हटेंगे और जनसत्ता में प्रधान संपादक बने रहेंगे। हम लोगों ने विनती करके प्रभाषजी को उस दिन शाम तक अखबार छोड़ने का कोई भी कदम न उठाने के लिए मना लिया था। ऐसा ही पत्र जनसत्ता के कोलकाता और चंडीगढ़ दफ्तर में भी तैयार करवाया गया और उसपर वहां के पत्रकारों से हस्ताक्षर लिए गए थे।
पत्र में लिखा गया था कि “अखबार से जुड़े लगभग सभी लोग प्रभाषजी के बिना जनसत्ता की कल्पना तक नहीं कर पा रहे हैं। उनके बिना अखबार की साख का क्या होगा? इसका एक्सप्रेस समूह की साख पर भी बुरा असर होगा। इस तरह के सवालों पर हमने काफी सोचा है। हमें लगता है कि आपको प्रभाषजी को रोकने की हर संभव कोशिश करनी चाहिए।“ पत्र में विवेक गोयनका जी से अनुरोध किया गया था कि वे आज ही दिल्ली आएं और जनसत्ता और पूरे एक्सप्रेस समूह के हित में प्रभाषजी से बात करें। प्रभाषजी को जनसत्ता से अलग न होने दें।
हमारे इस अनुरोध का मालिक विवेक गोयनका पर रत्ती भर भी असर नहीं हुआ। वे दिल्ली नहीं आए। उन्होंने प्रभाषजी से बात भी की या नहीं यह तो नहीं मालूम पर जनसत्ता की व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। पिछली शाम यानी 16 नवंबर 1995 को मालिक विवेक गोयनका की तरफ से राहुल देव को जनसत्ता का कार्यकारी संपादक बनाने का आदेश और एलान हो ही चुका था और अखबार के प्रिंटलाइन में राहुल देव का नाम बतौर कार्यकारी संपादक छप ही गया था और प्रभाष जोशी को अखबार के प्रधान संपादक के पद से हटाकर सलाहकार संपादक बनाकर प्रिंटलाइन में उनका नाम छाप ही दिया गया था सो वह सब आगे भी बरकरार रहा। मालिक के आगे किसी की एक न चली। और ठीक ही कहते हैं कि मालिक किसी का सगा नहीं होता। मालिक के लिए कोई भी कर्मचारी चाहे वह कितना भी बड़ा और ओहदेदार क्यों न हो, वह दूध में गिरी एक मक्खी से ज्यादा औकात नहीं रखता। विवेक गोयनका को इंडियन एक्सप्रेस समूह का स्वामी प्रभाषजी ने ही एड़ी-चोटी एक करके बनवाया था। पर विवेकजी प्रभाषजी के नहीं हुए। समय-समय की बात है, उस बदले हुए समय में प्रभाषजी के आगे राहुल देव बहुत भारी पड़े और राहुलजी ने षड़यंत्र करके प्रभाषजी को धक्के देकर बाहर निकलवा दिया।
राहुल देव ने प्रभाष जोशी को जनसत्ता से दूध की मक्खी की तरह निकालकर बाहर फेंक देने की पूरी व्यूह रचना और तैयारी कर रखी थी, पर जनसत्ता में प्रभाषजी के अपने लोगों ने उनकी इस व्यूह रचना को बींध कर प्रभाष जोशी के लिए किसी तरह एक कामचलाऊ जगह का इंतजाम कराने में सफलता पा ली। प्रभाषजी का कक्ष तो नहीं बदला पर सलाहकार संपादक की इस कुर्सी पर प्रभाशजी कभी शुकून नही पा सके। उनहें तरह-तरह से और बार-बार प्रताड़ित और अपमानित किया जाता रहा। इस तरह अपमान का घूंट पिलाकर सलाहकार संपादक बनाए जाने के बाद से प्रभाषजी हमेशा मौन ही रहने लगे। जनसत्ता से उनका सरोकार ही खत्म हो गया। वे श्रीहीन हो गए। अब उनके पास दफ्तर का उनका वही पुराना कक्ष और उनकी वही पुरानी कुर्सी तो बरकरार थी पर कोई मान-सम्मान नहीं रह गया था। दफ्तर की लाज बचाने के लिए वे मन मारकर किसी तरह अपना कॉलम कागद कारे भर लिख लिया करते थे। जनसत्ता के रोजमर्रा के कामकाज से संबंधित कोई कुछ पहले की तरह अगर उनसे पूछने चला जाता तो वे मना कर देते और कहते राहुल देव से पूछिए।
– गणेश प्रसाद झा
आगे अगली कड़ी में....
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