शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 27


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की सत्ताइसवीं किश्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 27


62. राहुल देव के प्रति बढ़ता असंतोष

 

राहुल देव षड़यंत्र करके जनसत्ता के कार्यकारी संपादक बन तो गए पर वे जनसत्ता के लोगों को कभी स्वीकार्य नहीं हुए। इसकी मुख्य वजह यह रही कि दिल्ली जनसत्ता के सहायक संपादकों की तो बात छोड़िए, वहां अब तक के तमाम समाचार संपादक और मुख्य उपसंपादक भी पत्रकारिता के अनुभवों और लेखनी के मामलों में राहुल देव से काफी आगे बैठते थे। राहुल देव जब तक बंबई के स्थानीय संपादक थे तब तक वे दिल्ली की टीम से दूर थे और इसलिए किसी को उनसे कोई मतलब नहीं था, पर जब वे यहां लाकर सबके ऊपर बिठा दिए गए तो लोग बिदक गए। बंबई जनसत्ता के स्थानीय संपादक रहते उनका वहां जो चरित्र रहा उसने भी उनके प्रति चल रही इस नाराजगी में घी का ही काम किया। राहुल देव के दिल्ली आते ही जनसत्ता के गिनती के दो-चार लोगों को चोड़कर बाकी सभी लोग उनके खिलाफ हो गए। उन्होंने उम्मीद की थी कि बंबई जनसत्ता की तरह दिल्ली जनसत्ता के लोग भी उनकी आरती उतारेंगे, पर हुआ इसके उलट। दो-चार लोगों को छोड़कर बाकी कोई भी उन्हें पसंद नहीं करता था। दिल्ली जनसत्ता के लोगों ने राहुल देव को सिर्फ एक नाम का संपादक बनाकर एक कमरे में समेट दिया। जनसत्ता के रोजमर्रा के फैसलों में भी उनकी बहुत कम भूमिका रहने लगी। अखबार में क्या खबरें हैं, क्या कुछ जा रहा है और क्या कुछ जाना चाहिए इस सबमें उनकी कोई दिलचस्पी नहीं रहती थी। इंडियन एक्सप्रेस का कर्मचारी यूनियन भी शुरू से ही राहुल देव के खिलाफ था।

कर्मचारियों में व्याप्त इस नाराजगी को दूर करने के लिए राहुल देव ने लोगों को खुश करने के लिए उन्हें तरक्की दी जो कई वर्षों से नहीं मिली थी। लेकिन इससे लोगों में संतोष पैदा होने की बजाय असंतोष ही ज्यादा पैदा हुआ क्योंकि कुछ लोगों को एक साथ दो तरक्की दे दी गई। यही नहीं, अपने मित्र प्रदीप सिंह को उन्होंने रिपोर्टिंग / ब्यूरो से उठाकर स्थानीय संपादक बना दिया। प्रदीप सिंह से कहीं सीनियर और स्पष्ट रूप से सक्षम और योग्य लोगों से न तो पूछा गया और न उन्हें प्रदीप सिंह की तरह कुछ ईनाम ही दिया गया। इसके बाद राहुल देव से अगर किसी को उम्मीद थी तो वह जाती रही। जनसत्ता में राहुल देव के पास करने के लिए कुछ खास था ही नहीं।

अपने मित्र प्रदीप सिंह को तरक्की देने और स्थानीय संपादक बनाकर उन्हें मुंबई जनसत्ता भेजने के अलावा राहुल देव के पास जनसत्ता की टीम से करवाने के लिए कोई काम या योजना नहीं थी। उन्होंने अपने स्टाफ को कुछ नया करने के लिए भी कभी प्रेरित नहीं किया। उन्होंने उन्हें कभी कोई आईडिया भी नहीं दिया। वे जनसत्ता में कभी कोई खास सामग्री भी नहीं लिख पाए। वे संपादक होने के नाते जनसत्ता पर अपनी कोई बौद्धिक छाप नहीं छोड़ पाए। उनके संपादक रहते जनसत्ता का सर्कुलेशन तेजी से नीचे गिरा। उन्होंने यहां रहकर कुछ खास नहीं किया और जनसत्ता छोड़ दिया या फिर वे एक्सप्रेस टीवी की नौकरी करने चले गए।

जनसत्ता को राहुल देव के चंगुल से बाहर निकालने और बचाने के लिए दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में लोग बैठकें कर उनको यहां से चलता करने की रणनीति पर विचार करने लगे थे। जनसत्ता बचाओ की इस मुहिम में देश के कई गांधीवादी, कई बड़ी साहित्यिक हस्तियां और कुछ बड़े विद्वान भी शरीक होते थे। इसका अच्छा असर भी हुआ और राहुलजी बमुश्किल डेढ़-दो साल ही जनसत्ता की कमान अपने पास रख पाए। आखिरकार जनसत्ता से उन्हें जाना ही पड़ गया।

 

63. अखबार की आर्थिक हालत हुई खराब

 

प्रभाष जोशी को जनसत्ता के प्रधान संपादक पद से हटाए जाने के बाद जनसत्ता की साख बहुत खराब हुई। अखबार में असंतोष पनपा जिससे लोगों में अपनी नौकरी के प्रति असुरक्षा की भावना पैदा हुई। तरक्की और वेतनवृद्धि लंबे समय से न मिलने की वजह से लोगों के मन मे नकारात्मक भावनाएं ज्यादा बलवती हुईं। लोग जनसत्ता से बाहर नौकरी की संभावनाएं तलाशने लगे। इससे स्टाफ का ध्यान जनसत्ता की बेहतरी के काम पर कम और अपनी नौकरी की सुरक्षा की चिंता पर ज्यादा लगी रहती थी। कंपनी मालिक अपने फ्लैगशिप अखबार इंडियन एक्सप्रेस पर तो पैसा खर्च करना चाह रहे थे पर जनसत्ता पर नहीं। इससे अखबार की माली हालत बिगड़ने की खबरें आने लगीं। फिर मैनेजर कहने लगे कि जनसत्ता सफेद हाथी बन गया है। उन्हीं दिनों एक चर्चा यह भी चली कि कंपनी मालिक विवेक गोयनका अब अखबार का धंधा छोड़कर टायर के कारोबार में प्रवेश करेंगे। अखबार का कारोबार छोड़कर टायर बेचने की इस चर्चा को फिजां में छोड़ने के पीछे क्या मकसद रहा होगा यह तो कभी साफ नहीं हुआ पर विवेक गोयनका ने टायर का कारोबार शुरू किया हो ऐसा भी कभी सुनने में नहीं आया। हां, कंपनी के मैनेजर जनसत्ता के कर्मचारियों के पास अक्सर यह रोना जरूर रोते रहा करते थे कि अखबार बहुत घाटे में जा रहा है इसलिए मालिक इसे अब और चलाने के पक्ष में नहीं हैं। बाद में जब ओम थानवी जनसत्ता के संपादक बनाए गए तो उन्होंने अखबार घाटे में होने और बंद कर दिए जाने की बात को जमकर हवा दी और ऐसा करके उन्होंने जनसत्ता के कर्मचारियों में एक डर पैदा करने की पुरजोर कोशिश की। तभी कंपनी वीआरएस योजना भी लेकर आई।

 

64. स्टाफ को खुर्द-बुर्द करने के लिए लाए गए ओम थानवी

 

राहुल देव के जाने के बाद चंडीगढ़ जनसत्ता के स्थानीय संपादक ओम थानवी को जनसत्ता का कार्यकारी संपादक बना दिया गया। ओम थानवी बहुत ही गुस्सैल, दबंगई स्वाभाव, अहंकारी, गुरूर वाले और बेहद रूखे व्यवहार वाले व्यक्ति थे। चंडीगढ़ जनसत्ता में भी उनसे कोई खुश नहीं ऱहा। जब तक वे वहां रहे, सबको उन्होंने परेशान ही किया। उनके कार्यव्यवहार से दुखी होकर दिल्ली में भी लोगों ने जनसत्ता छोड़ना शुरू कर दिया। जो लोग अब तक किसी तरक्की या फिर कुछ वेतन बढ़ोतरी मिलने की उम्मीद में चल रहे थे और लंबे समय से बहुत कम पैसे में भी जनसत्ता में टिके हुए थे उन्हें अब कोई उम्मीद नहीं रही थी और वे लोग जनसत्ता छोड़कर जाने लगे। उन दिनों इस बात की खूब चर्चा थी कि ओम थानवी का यहां मूल काम जनसत्ता के लोगों को खुर्द-बुर्द करने का ही था। उन्हें इसी काम के लिए तरक्की देकर चंडीगढ़ से दिल्ली लाया गया था। काम दिया गया था पुराने और महंगे लोगों से जनसत्ता को मुक्त करना। उन्होंने शंभू नाथ शुक्ल को जनसत्ता के कोलकाता संस्करण का स्थानीय संपादक बना दिया। गणेश प्रसाद झा को बिना कोई तरक्की या वेतनवृद्धि दिए कोलकाता जाने को कह दिया गया। कुछ और भी तबादले हुए। अमित प्रकाश सिंह का भी कोलकाता तबादला कर दिया दया। दूसरी ओर उन्हीं दिनों कंपनी स्टाफ कम करने के लिए वीआरएस योजना लेकर आ गई। वीआरएस के बदले लोगों को तीन से पांच लाख तक दिए गए। काम का माहौल भी लगातार खराब होता गया। धीरे-धीरे लोग कम होते गए और अखबार में बहुत ज्यादा कचरा छपने लगा। जनसत्ता डेस्क के अरविंद उप्रेती, अरिहन जैन, सुधीर जैन, संजय कुमार सिंह, संजय सिन्हा, प्रताप सिंह समेत कई साथियों ने वीआरएस ले लिया और नौकरी छोड़कर चले गए। और भी कई लोगों ने नौकरी छोड़ी। ओम थानवी ने हिन्दी भाषी राज्यों के प्रमुख जिलों में काम करनेवाले जनसत्ता के जिलास्तरीय संवाददाताओं (स्ट्रिंगरों) को भी एक झटके में निकाल बाहर कर दिया। दो-चार स्ट्रिगरों को छोड़कर बाकी सब निकाल दिए गए। जनसत्ता के इन जिला संवाददाताओं को कभी कोई वेतन नहीं दिया जाता था। उन्हें सिर्फ एक सौ रुपए माहवार मिलते थे और छपी खबरों पर दो रुपए साठ पैसे प्रति कॉलम सेंटीमीटर के हिसाब से पारिश्रमिक का भुगतान किया जाता था। थानवी जी ने इन स्ट्रिंगरों से वह भी छीन लिया। नतीजा यह हुआ कि जिलों से खबरें आनी पूरी तरह बंद हो गईं। इसका असर यह हुआ कि जिलों में जनसत्ता बिकना भी लगभग बंद हो गया। यहां तक कि कुछ समय बाद हिन्ही भाषी राज्यों के जिले में जनसत्ता दिखना भी बंद हो गया। कुल मिलाकर ओम थानवी जनसत्ता में नौकरी छीन लेनेवाले संपादक ही साबित हुए।

 

65. सबको धमकाने और डर दिखानेवाले संपादक

ओम थानवी ने दिल्ली जनसत्ता में अपने पदार्पण के कुछ ही समय बाद दफ्तर में ऐसा माहौल बनाने की हर संभव कोशिश की जिसमें लोग अशांत और तनावग्रस्त महसूस करने लगें और परेशान होकर खुद ही नौकरी छोड़ दें। जनसत्ता के तमाम संस्करणों में काफी समय से स्टाफ की बेहद कमी थी। उन्होंने इस तरफ तो कोई ध्यान नहीं दिया, पत्रकारों को बेवजह यहां से वहां ट्रांसफर करने लगे। बिना जरूरत और मतलब के इस कवायद में जमे जमाए पत्रकारों पर ही गाज गिराई गई। उनका फोकस इस बात पर अधिक था कि किसे कहां भेजने से वह ज्यादा परेशान होगा और जिससे उनके नौकरी छोड़ने की ज्यादा संभावना बनेगी। इसी मुहिम के तहत कोलकाता से दो पत्रकारों को दिल्ली बुला लिया गया। कोलकाता में स्टाफ पहले से ही काफी कम था, इन दो लोगों को वहां से खिसका देने से वहां डेस्क पर स्थिति और बिगड़ गई। चंडीगढ़ और बंबई संस्करण को वे पहले ही बंद करा चुके थे। ले दे कर सिर्फ कोलकाता ही बचा रह गया था। पर कोलकाता संस्करण की हालत बेहद खराब हो चली थी। ऐसी चर्चा जोरों पर चल रही थी कि कोलकाता संस्करण बहुत जल्द बंद कर दिया जाएगा और बंबई की तरह सारे स्टाफ का हिसाब कर दिया जाएगा। थानवी जी यूनियनवालों को यह कहकर अक्सर धमकाया करते थे कि मालिक विवेक गोयनका अब और नुकसान झेलने की स्थिति में नहीं हैं और इसलिए वे जनसत्ता को अब आगे चलाते रहने के मूड में बिल्कुल नहीं हैं। यह सब कहकर उन्होंने प्रोमोशन और सैलरी बढाए जाने की बची-खुची संभावनाओं को भी सिरे से खारिज करते हुए बड़ी सफाई से सबके मुंह पर खामोशी का ताला जड़ दिया।


– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....


 

 

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