एक पत्रकार की अखबार यात्रा की तीसवीं किश्त
पत्रकारिता की कंटीली डगर
भाग- 30
71. ओम थानवी के बारे में नकारात्मक और आपत्तिजनक कहानियां
वैसे तो चंडीगढ़ जनसत्ता के स्थानीय संपादक ओम थानवी जी हमारे लिए हमेशा आदरणीय ही रहे। मेरा उनसे परिचय उस समय हुआ जब प्रभाष जोशी जी मुझे बंबई जनसत्ता से वापस दिल्ली लेकर आए। दिल्लीजनसत्ता में मुझे जनसत्ता के तमाम संस्करणों के बीच खबरों के कोऑर्डिनेशन का काम दिया गया था। मुझे हर समय जनसत्ता के स्थानीय संपादकों के संपर्क में रहना होता था। दिल्ली जनसत्ता आने के बाद से थानवी जी से लगभग रोज ही बात होने लगी। थानवी जी उन दिनोंजनसत्ता के चंडीगढ़ संस्करण के स्थानीय संपादक हुआ करते थे। थानवी जी के चंडीगढ़ में रहने के दिनों ही उनके बारे में कई तरह की बहुत ही नकारात्मक और आपत्तिजनक बातें, टिप्पणियां और बेहद नकारात्मक कहानियां सुनने को मिली थी। उन नकारात्मक कहानियों में कितनी सच्चाई थी या फिर वे सच थीं भी या नहीं यह तो नहीं कहा जा सकता पर लोग इसकी खूब चर्चा करते थे। उस दौर की वे नकारात्मक और आपत्तिजनक कहानियां उनके आचरण और उनके तरह-तरह के संबंधों को लेकर होती थीं। चंडीगढ़ जनसत्ता के लोग बहुत चटखारे ले-लेकर उनकी उन नकारात्कम और कथित रंगीनमिजाजी की तरह-तरह की कहानियों की खूब चर्चा किया करते थे और उन्हें खूब आनंद के साथ सुनते और दूसरों को भी सुनाया करते थे। ओम थानवी के बारे में उन दिनों चल रही उन नकारात्मक और कथित रंगीनमिजाजी की कहानियों पर कभी यकीन तो नहीं होता था पर वे नकारात्मक और कथित रंगीनमिजाजी की आपत्तिजनक कहानियां चंडीगढ़ और कुछ-कुछ दिल्ली की मीडिया की फिजां में बहुत प्रमुखता से और काफी समय तक चर्चा में जरूर बनी रही थीं।
72. शेखर गुप्ता ने प्रभाष जोशी और जनसत्ता दोनों को मरोड़ा
कंपनी मालिक विवेक गोयनका ने जब शेखर गुप्ता कोइंडियन एक्सप्रेस का संपादक बनाया था तो उनको कंपनी का सीईओ भी बना दिया था। पहले ऐसी परंपरा नहीं होती थी। पत्रकारिता के इस बाजारीकरण से ही यह विकृति आई। इंडियन एक्सप्रेस के संपादक और सीईओ शेखर गुप्ता न तो प्रभाष जोशी को पसंद करते थे और न जनसत्ता को। दरअसल, शेखर गुप्ता को हिन्दी और हिन्दी वालों से बहुत चिढ़ थी। शेखर गुप्ता एकदम से तुले हुए थे कि जनसत्ता को किसी तरह बंद करा दिया जाए। उनकी योजना के मुताबिक एकाएक जनसत्ता के अच्छे खासे फायदे में चल रहे दो संस्करण जनसत्ता चंडीगढ़ और जनसत्ता बंबई बंद कर दिए गए। सीईओ शेखर गुप्ता ने प्रभाष जोशी को अपमानित करने और उन्हें हाशिए पर धकेलने की कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी।
कंपनी मालिक विवेक गोयनका की पत्नी अनन्या गोयनका बिल्कुल नहीं चाहती थीं कि उनके मायके कोलकाता से जनसत्ता बंद हो जाए। इसीलिए प्रभाष जोशी जी कोलकाता संस्करण को बचा सके। लेकिन जिन लोगों को वे बतौर टीम लेकर आए थे, एक के बाद एक करके उन लोगों को कंपनी द्वारा वीआरएस देते रहने के सिलसिले को वे रोक न सकें और न जनसत्ताकोलकाता के साथियों की हैसियत को ही वे थोड़ा भी बदल सके। उस समय खून के आंसू रोते रहे थे प्रभाष जोशी और कोलकाता संस्करण के उनके लाए लोग किं कर्तव्य विमूढ़ होकर यह सब होते देखते रहे थे। कंपनी के वीआरएस लाने के पीछे भी कहते हैं दिमाग शेखर गुप्ता का ही काम कर रहा था। शेखर गुप्ता जनसत्ताऔर प्रभाष जोशी से हिन्दी विरोध की अपनी खुन्नस निकाल रहे थे। उन दिनों जनसत्ता के कार्यकारी संपादक ओम थानवी हमेशा शेखर गुप्ता की सिर्फ हां में हां मिलाने में मशगूल रहते थे। वे भीतर से बहुत खुश थे कि प्रभाष जोशी एक तय योजना के तहत निपटाए जा रहे हैं।
73. प्रभाष जोशी से सबकुछ छीन लेने का खेल भी हुआ
राहुल देव ने साजिश रचकर प्रभाष जोशी से उनका प्रधान संपादक का पद छिनवाकर उन्हें श्रीहीन कर दिया था और खुद जनसत्ता की गद्दी पर बैठ गए थे। जब ओम थानवी आए तो य़े भी प्रभाष जोशी से दुश्मनी की गांठ बांधकर बैठ गए। ओम थानवी ने प्रभाष जोशी को तरह-तरह से अपमानित और प्रताड़ित किया। एक बार जब मैं अपनी एक पीड़ा लेकर मदद के लिए प्रभाषजी के पास गया था तो उन्होंने मेरी कोई मदद करने में अपनी लाचारी दिखाते हुए मुझसे अपनी यह पीड़ा जाहिर कर दी थी। ओम थानवी ने आने के कुछ ही दिनों बाद से प्रभाष जी को अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया था। प्रभाष जी का साप्ताहिक कॉलम कागद कारे अटकने और रुकने लगा था। एकाध हफ्ते यह कॉलम नहीं भी छापा गया। ऐसा करके ओम थानवी ने प्रभाष जोशी को अपनी औकात बता दी और उनको यह संकेत देना भी शुरु कर दिया कि वे अब जनसत्ता से अपनी तशरीफ ले ही जाएं तो अच्छा क्योंकि इसी में उनकी भलाई है। किसी भी मामले में न तो प्रभाष जी से कुछ पूछा जाता था और न तो उनकी कोई बात मानी जाती थी। प्रभाष जी केवल बराएनाम सलाहकार संपादक बने रहे थे। वे सिर्फ दफ्तर आते थे और अपना लेख या कॉलम लिखकर दे दिया करते थे। बस। प्रभाष जी को तंग करने में ओम थानवी ने भी राहुल देव वाला तरीका ही अपनाया था। कुल मिलाकर ओम थानवी ने दफ्तर में ऐसे हालात पैदा कर दिए कि प्रभाष जोशी के लिए वहां रहना बहुत कठिन हो गया।
मेरी जानकारी के मुताबिक कंपनी ने प्रभाष जोशी को पूर्वी दिल्ली के लक्ष्मीनगर में एक मकान दे रखा था जिसका किराया कंपनी चुकाती थी। वह मकान एक तरह से कंपनी लीज पर था। प्रभाष जी के पास कई सालों से दफ्तर की एक एंबेसेडर कार भी थी जिससे वे रोज दफ्तर आया-जाया करते थे। कार का ड्राइवर भी कंपनी का ही दिया हुआ था। कार हमेशा प्रभाष जोशी के डिस्पोजल पर ही रहती थी। प्रभाष जोशी केजनसत्ता के प्रधान संपादक पद से हटने और सलाहकार संपादक बनने के बाद भी वह मकान और ड्राइवर सहित वह कार प्रभाष जोशी के पास ही थी। कई साल तक यह सब प्रभाष जी के पास ही रहा। पर बाद मेंजनसत्ता के ही कुछ वरिष्ठ लोग बताते हैं कि ओम थानवी ने ऐसी चाल चली कि कंपनी ने उनसे वह घर छीन लिया। घर छिनने के बाद प्रभाष जी गाजियाबाद स्थित जनसत्ता हाउसिंग सोसायटी के अपने खुद के मकान में रहने आ गए। फिर भी कंपनी की दी हुई गाड़ी उनके पास ही रही और कंपनी का ड्राइवर भी उनके पास रहा। पर थोड़े समय बाद कंपनी की दी हुई वह कार भी उनसे ले ली गई। यह सब उनके जनसत्ता के सलाहकार संपादक पद पर रहने के दौरान ही घटित हुआ।
कहते हैं एक बार प्रभाष जोशी किराए की कार लेकर दिल्ली शहर में कहीं किसी काम से गए थे तो रास्ते में कहीं उनको जनसत्ता के पूर्व उत्तर प्रदेश ब्यूरो प्रमुख हेमंत शर्मा जी मिल गए। हेमंत शर्मा ने अपने संपादक को इस तरह किराए की कार में चलते देखा तो रोक कर उनसे पूछा कि आप किराए की गाड़ी में क्यों हैं? आपकी दफ्तर की गाड़ी कहां गई? जब प्रभाष जी ने हेमंत जी को बताया कि दफ्तर की गाड़ी कंपनी ने वापस ले ली है तो उनसे यह सुनकर हेमंत जी बहुत दुखी हुए। कहते हैं हेमंत शर्मा ने उसी दिन एक नई कार खरीदकर प्रभाश जोशी जी के घर भिजवा दी। हेमंत शर्मा की अपने गुरू प्रभाष जोशी को यह गुरू दक्षिणा थी। हेमंत शर्मा आज जो कुछ भी हैं वह प्रभाष जोशी की ही कृपा है। इसके कुछ समय बाद प्रभाष जी ने जनसत्ता के सलाहकार संपादक के पद से इस्तीफा दे दिया।
74. प्रभाष जोशी के नाम पर बना न्यास
प्रभाष जोशी का 5 नवंबर 2009 को निधन हो गया। उनके जाने के बाद उसी साल 27 दिसंबर को जनसत्ताके लोगों ने उनकी याद में उनके नाम पर एक न्यास का गठन किया। नाम दिया गया प्रभाष परंपरा न्यास । प्रभाष जोशी दिल्ली केंद्रित पत्रकारिता के पक्ष में नहीं थे। वे हिंदी को इतना सबल बनाना चाहते थे और पत्रकारों को इस तरह वेतन और सुविधाओं से संपन्न करना चाहते थे कि सभी हिंदी भाषी नगरों में पत्रकार एक खोजी और खबर लाने वाला बन सके। उसके लेखन में बोलियों की पकड़ हो और वह अच्छी शैली में हो। प्रभाष जी चले गए पर उनकी इस चाह को न्यास पूरा न कर सका। चंद पढे लिखे विद्वान उनका नाम लेते हुए हिंदू परंपरा का बखान कर देते हैं। कबीर वाणी गा दी जाती है और खा पी कर लोग खिसक लेते हैं। न्यास हमेशा पैसे की कमी का रोना रोता है। न्यास की ओर से कभी खर्चे के ब्योरे सार्वजनिक नहीं किए जाते।
न्यास की ओर से प्रभाष जी का सारा लिखा छापा जाना था। छापकर उसे सस्ती कीमत पर बेचना था। हिंदी प्रदेशों की राजधानियों में युवा पत्रकारों से सही लेखन पर बातचीत करनी थी। पर यह सब कुछ नहीं हुआ।जनसत्ता के वरिष्ठ लोग कहते हैं कि क्या यह एक जागरूक पत्रकार को आडम्बरी भव्यता में खत्म कर देने की योजना नहीं है? क्या एक पत्रकार के प्रति श्रद्धा का यही उपयुक्त तरीका है?
इस न्यास को लेकर जनसत्ता के लोगों में ही आपस में कई बार विवाद हुआ है। न्यास को आज भी बहुत कम लोग जानते हैं। जनसत्ता से जुड़े सभी लोगों को इसके बारे में पता भी नहीं है। जनसत्ता के भी बहुत कम लोग न्यास की गतिविधियों से वाकिफ हैं। खासकर दिल्ली वालों को ही न्यास की गतिविधियों की जानकारी रहती है। जनसत्ता के ही कुछ लोगों का कहना है कि इस न्यास को कुछ लोगों ने हथिया लिया है और उसके नाम और बल पर राजनीति की जा रही है।
– गणेश प्रसाद झा
आगे अगली कड़ी में....
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