एक पत्रकार की अखबार यात्रा की अट्ठाइसवीं किश्त
पत्रकारिता की कंटीली डगर
भाग- 28
66. जनसत्ता का दफ्तर दिल्ली से नोएडा शिफ्ट
वर्ष 1998 के उत्तरार्ध में जनसत्ता पर एक और संकट आया। अखबार पर आर्थिक संकट लादने के उन्हीं दिनों अखबार का दफ्तर दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग वाले एक्सप्रेस बिल्डिंग से हटाकर नोएडा के सेक्टर-2 में किराए की एक बहुत घटिया और छोटी सी बिल्डिंग ए-80 में ले जाया गया। उस बिल्डिंग में पहले से जूते-चप्पलों की एक फैक्ट्री चल रही थी। कंपनी ने दफ्तर शिफ्ट करने का यह निर्णय सिर्फ जनसत्ता के लिए ही लिया। कंपनी ने अपने फ्लैगशिप अखबार इंडियन एक्सप्रेस का दफ्तर एक्सप्रेस बिल्डिंग में ही रहने दिया। तब कंपनी के इस निर्णय से जनसत्ता के लोगों में यह डर बैठ गया कि कंपनी जनसत्ता को इस तरह अलग करके अब कुछ दिनों में उसे बंद कर देना चाहती है। चंडीगढ़ और बंबई संस्करण बंद किए ही जा चुके थे, सो कर्मचारियों में यह डर पैदा होना लाजिमी था। शुरू में जनसत्ता के पत्रकारों ने दफ्तर शिफ्ट करने के इस निर्णय का जमकर विरोध किया। इसमें कर्मचारी यूनियन का भी साथ मिला पर इस सबसे कंपनी पर कोई फर्क नहीं पड़ा। शिफ्टिंग का मामला कुछ हफ्तों के लिए टला जरूर पर आखिरकार जनसत्ता का दफ्तर नोएडा चला ही गया। दफ्तर नोएडा ले जाए जाने के बाद जनसत्ता हर तरफ से कट गया और बिल्कुल अलग-थलग पड़ गया। नोएडा दफ्तर में न कभी कोई प्रेस विज्ञप्ति देने आता था न कोई संपादक या फिर और किसी से मिलने। जनसत्ता मीडिया की दुनिया से भी पूरी तरह से कट सा गया। रोजाना अखबार के पन्ने तैयार करने के बाद उसे एक सीडी में डालकर छपने के लिए बहादुरशाह जफर मार्ग के एक्सप्रेस बिल्डिंग भेजा जाता था। कुछ समय बाद एक छोटी प्रिंटिंग मशीन वहीं नोएडा दफ्तर में लगा दी गई। तभी से जनसत्ता निकालना सिर्फ एक औपचारिकता भर रह गया था। हालात खराब होते देखकर लोग नौकरी छोड़ते गए। कचरा छापने की शुरुआत भी वहीं से हो गई।
जनसत्ता का इतना कुछ सत्यानाश कर-कराके भी संपादक ओम थानवी अपने रौब और गुरूर में ही मस्त रहा करते थे। सरेआम किसी भी बात पर किसी को भी बुरी तरह डांट देना और जलील कर देना उनकी आदत बन गई थी। एक बार बाहर के किसी फ्रीलांसर ने किसी तरह थानवी जी का मोबाइल नंबर हासिल कर लिया था और एक दिन उनको कोन कर बैठा था। थानवी जी इसपर उस पत्रकार को तो फोन पर जलील किया ही था, दफ्तर में भी कई लोगों को बुरी तरह डांटा और जलील कर दिया था कि “मेरा नंबर दफ्तर से बाहर गया कैसे, किसने दिया? ” थानवी जी का अपने दफ्तर के साथियों से भी व्यवहार बहुत ही बुरा था और वे किसी की भी प्रतिष्ठा का खयाल नहीं रखते थे। उनके इस व्यवहार पर लोग दफ्तर में दबी जुबान से बोला करते थे कि अगर ये हमारे संपादक न होते तो उनको थप्पड़ मार देता। जनसत्ता में ओम थानवी का यह आतंक मई 2015 तक कायम रहा।
जनसत्ता के ही कुछ वरिष्ठ लोग ओम थानवी पर कई तरह के संगीन आरोप लगाते हैं। उन आरोपों को अगर सही मानें तो ओम तानवी ने जनसत्ता के लोगों को हटाने के लिए उन्हें तरह-तरह से आपस में लड़वाना भी शुरू कर दिया था। चर्चा जनसत्ता के कोलकाता संस्करण की करते हैं। प्रभाष जोशी ने जनसत्ता का कोलकाता संस्करण शुरू करते समय दिल्ली से समाचार संपादक श्याम सुंदर आचार्य को स्थानीय संपादक बनाकर वहां भेजा था। दिल्ली से ही अमित प्रकाश सिंह को समाचार संपादक बनाकर कोलकाता भेजा गया था। ओम थानवी ने कोलकाता संस्करण के स्थानीय संपादक श्याम सुंदर आचार्य को अचानक एक दिन हटा दिया। वैसे उन्हें तीन बार एक्सटेंशन भी मिल चुका था। फिर दिल्ली से शंभूनाथ शुक्ल को कोलकाता भेज दिया। शंभूनाथ जी के साथ अकु श्रीवास्तव भी कोलकाता भेज दिए गए थे जबकि अकु जनसत्ता चंडीगढ़ में समाचार संपादक थे। शंभूजी को वहां कमान संभालने को कहा गया था। वहां समाचार संपादक अमित प्रकाश सिंह पिछले ग्यारह साल से जमे हुए थे। थानवी जी अमित प्रकाश जी को हटाना चाह रहे थे। उन्होंने शंभूनाथ जी और अमित जी को आपस में भिड़ा दिया। लोग आरोप लगाते हैं कि अमित जी को हटाने के लिए ही शंभू नाथ शुक्ल जी और उनके तब के साथी अकु श्रीवास्तव वहां भेजे गए थे। दोनों लोग कोलकाता के गोयनका अतिथि गृह में तीन महीने तक रुके रहे थे। कंपनी के खर्चे पर उन्हे वहां नाश्ता, खानपान वगैरह भी मिला करता था।
ओम थानवी ने जनसत्ता में और भी कई खेल किए। एक दूसरा वाकया और भी हुआ। लखनऊ के ब्यूरो प्रमुख उस समय हेमंत शर्मा थे जो प्रभाष जी के बहुत खास माने जाते थे। ओम थानवी ने उनको हटा दिया। दिल्ली जनसत्ता डेस्क के साथी रहे अंबरीश कुमार उस समय छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में रहकर वहां से जनसत्ता का संस्करण निकालने का प्रयोग शरद गुप्ता और प्रबंधन के साथ मिलकर कर रहे थे। ओम थानवी ने हेमंत शर्मा की जगह लेने के लिए अंबरीश कुमार को लखनऊ भेज दिया। फिर कुछ समय बाद अंबरीशजी दिल्ली बुला लिए गए। उनके बाद अमित प्रकाश जी को कोलकाता से लखनऊ भेज दिया गया। कुछ समय बाद अमित प्रकाश जी को लखनऊ से दिल्ली ब्यूरो में बुला लिया गया। पर इस तमाम उलटफेर से जनसत्ता को कोई लाभ हुआ हो ऐसा तो कभी नहीं लगा। हां, इस सबसे जनसत्ता के लोग काफी परेशान हुए और कंपनी पर भारी भरकम अतिरिक्त और नाजायज आर्थिक बोझ जरूर पड़ा। इस सबके पीछे ओम थानवी का ही दिमाग था या फिर वे किसी और से गाइड हो रहे थे इसका पता नहीं चल पाया। इस सारे बेवजह के तबादलों का औचित्य क्या था या ऐसा किसलिए किया गया इसका भी कभी पता नहीं चल पाया। पर इतना तो समझ आता है कि ओम थानवी अपने को प्रभाष जोशी से भी बड़ा संपादक साबित करने और अपने प्रचंड अहंकार और गुरूर की तुष्टि के लिए ही शायद इस दिमागी फितुर का इस्तेमाल कर रहे थे।
जनसत्ता के जानकार कहते हैं कि जनसत्ता के अवसान के कारणों को ठीक से समझने के लिए इस पर भी एक वृहद अध्ययन कराया जाना चाहिए और एक व्यापक बहस भी होनी चाहिए कि राम बहादुर राय और अच्युतानंद मिश्र जी जनसत्ता छोड़कर नौकरी करने नवभारत टाइम्स क्यों चले गए थे और फिर कुछ समय बाद जनसत्ता क्यों लौट आए थे। बनवारी जी ने दिल्ली जनसत्ता के स्थानीय संपादक पद से इस्तीफा क्यों दे दिया। प्रभाष जोशी के बाद जनसत्ता का संपादक तो बनवारी जी को ही होना चाहिए था। जनसत्ता की कमान राहुल देव के बाद अच्युतानंद मिश्र जी को और उनके बाद ओम थानवी जी को संभालने को क्यों दे दिया गया। और उसके बाद चंडीगढ़ संस्करण के रिपोर्टर मुकेश भारद्वाज को जनसत्ता का कार्यकारी संपादक कैसे और क्यों बना दिया गया। इससे ऐसा लगता है कि जनसत्ता की रीढ़ रहे पुराने जनसत्ताई लोग जनसत्ता को इस तरह तबीयत से मारकर डुबो देने के पीछे कोई इंटर्नल या एक्स्टर्नल सबोटॉज वाला खेल तो नहीं देख रहे हैं जो उस समय भी काम कर रहा था और शायद कहीं न कहीं अभी भी काम कर रहा है। जनसत्ताई लोग आज जिस अध्ययन और बहस की बात कर रहे हैं उससे उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे शायद उस सबोटॉज वाली शक्ति का कुछ खुलासा हो सकेगा।
67. कोलकाता ट्रांसफर की मेरी कहानी
नोएडा दफ्तर में ही एक दिन मैं रात 8 बजे से 2 बजे तक की शिफ्ट में था। मैं 8 बजे दफ्तर पहुंचा ही था और एजेंसी की पहली कॉपी हाथ में ली ही थी कि ओम थानवी के निजी सहायक अमर छाबड़ा मेरे लिए पर्सनल डिपार्टमेंट की एक चिट्ठी लेकर आ गए। चिट्ठी दो प्रतियों में थी जिसकी दूसरी प्रति पर मुझसे पावती का हस्ताक्षर मांगा गया। मैंने चिट्ठी पढ़ी तो मेने पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। पूरे शरीर में तुरंत नर्वसनेस का करंट दौड़ गया। चिट्ठी मुझे त्तत्काल प्रभाव से तुरंत कोलकाता ट्रांसफर कर दिए जाने की थी। ट्रांसफर लेटर में लिखा था कि मुझे कल यानी अगले ही दिन कोलकाता जनसत्ता के दफ्तर में पहुंचकर काम पर हाजिर होने की रिपोर्ट करनी है। चिट्ठी के साथ मुझे कोई एअर टिकट या फिर ट्रेन टिकट नहीं दिया गया था। चिट्ठी में लिखा था कि नियमानुसार सात दिनों की ट्रांसफर लीव (ट्रांसफर अवकाश) मुझे वहां कोलकाता में बाद में दी जाएगी। अब अगर मैं दफ्तर से सीधे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन चला भी जाता और वहां स्टेशन पर पहुंचते ही मुझे कोलकाता के लिए राजधानी एक्सप्रेस मिल भी जाती तो भी मैं कम से कम अगली सुबह तो कोलकाता जनसत्ता के दफ्तर नहीं ही पहुंच पाता। थानवी जी ने दफ्तर से हवाई जहाज का टिकट मुझे दिलवाया नहीं था।
अपने कोलकाता ट्रांसफर की यह चिट्ठी लेकर मैं तुरंत प्रभाष जोशी जी के पास गया। प्रभाशजी अपने कक्ष में ही बैठे थे। मैं उनके कक्ष में गया और हाथ जोड़कर यह चिट्ठी उनको दे दी। उन्होंने उस चिट्ठी को ध्यान से पढ़ा औऱ माथा ठोक लिया। फिर मुझसे बोले, “यह ठीक नहीं हुआ, पर मैं इसमें आपकी कोई मदद नहीं कर पाउंगा क्योंकि इनसे (थानवी जी) मेरी पटती नहीं है। आप श्रीशजी से मिलो। शायद वे कुछ मदद कर सकें।“ मैं श्रीश जी यानी हमारे आदरणीय समाचार संपादक श्रीश चंद्र मिश्र के पास गया और उनको वह चिट्ठी दिखाई और प्रभाषजी की कही बात भी उनको बताई। पर श्रीश जी ने तो पहले ही हाथ खड़े कर दिए। श्रीश जी बोले, “आपको तो पता ही है कि थानवी जी किसी की नहीं सुनते। और उनके सामने मेरी क्या औकात है यह भी आप जानते हैं। समझ लो आप कि इस अखबार का आनेवाला समय बहुत खराब है।“
कहीं से कोई मदद मिलने की उम्मीद न देखकर मैं कार्यकारी संपादक ओम थानवी जी के पास गया। वे अपने कक्ष में ही थे। मैंने उनसे खूब विनती की कि मुझे अभी कहीं न भेजें, यहीं रहने दें। उन दिनों पिछले कई महीनों से मैं बीमार चल रहा था और दिल्ली एम्स से मेरा इलाज चल रहा था जिसे दफ्तर के सभी लोग जानते थे। थानवी जी को भी मेरी बीमारी का अच्छी तरह पता था। फिर भी मैंने बीमारी की यह बात उनको बताई। पर वे कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे। उन्होंने मेरी विनती नहीं सुनी। उन्होंने काफी रूखे अंदाज में मुझसे कहा कि बीमार चल रहे हैं तो इलाज तो कोलकाता में भी हो सकता है। मैंने थानवी जी के पांव भी पकड़े और खूब विनती की पर उन्होंने मेरी एक भी नहीं सुनी। उन्होंने मुझे कहा कि कोलकाता तो जाना ही पड़ेगा।
ट्रांसफर के इस मुद्दे पर पूरा जनसत्ता दफ्तर मेरे साथ था। मेरे साथियों ने ओम थानवी की इस हठधर्मिता को कर्मचारी यूनियन के पास पहुंचा दिया। यूनियन ने मेरे इस मामले को संपादक के पास बड़ी मजबूती से उठाया। पर ओम थानवी ने अपना जिद्दीपना बरकरार रखते हुए कहा कि कोलकाता डेस्क पर लोगों की कमी है इसलिए वे गणेश झा को वहां भेज रहे हैं। इस पर कर्मचारी यूनियन ने दलील दी कि अभी करीब महीने भर पहले कोलकाता डेस्क से दो लोगों को आपने दिल्ली बुला लिया है। अगर वहां डेस्क पर लोग कम थे तो फिर आपने दो लोग यहां क्यों बुलाए? इसपर ओम थानवी के पास कोई जवाब नहीं था। पर वे मुझे कोलकाता भेजने पर अड़ गए। इस पर यूनियन ने उनसे यह कह कर एक साल का समय मांगा कि तब तक गणेश झा का इलाज पूरा हो जाएगा और फिर वे कोलकाता चले जाएंगे। पर थानवी जी को यह भी मंजूर नहीं था। यूनियन भी बिल्कुल अड़ गई। आखिर में थानवी जी मुझे पांच महीने का समय देने को राजी हुए। शर्त यह रखी कि मैं अगले पांच महीने तक कोलकाता जनसत्ता का कर्मचारी रहते हुए डिपुटेशन पर दिल्ली जनसत्ता में काम करूंगा और मेरी तनख्वाह कोलकाता दफ्तर से ही आएगी। पांच महीने का समय पूरा होते ही मुझे कोलकाता जाना होगा। मुझे प्रबंधन का यह आदेश लिखित में दे दिया गया। इसी आदेश के तहत मैंने पांच महीने तक दिल्ली में काम किया। पर पांच महीने पूरा होने के बाद मैं कोलकाता नहीं गया। मैं दिल्ली में नौकरी की तलाश करने लगा। मैंने जनसत्ता संपादक और इंडियन एक्सप्रेस प्रबंधन से इस अवधि को और आगे बढाने की गुहार लगाई। पर संपादक और प्रबंधन ने मेरी प्रार्थना ठुकरा दी और मुझे सात दिनों के भीतर कोलकाता दफ्तर में रिपोर्ट करने का लिखित आदेश दे दिया। मैं फिर भी नहीं गया। मुझे दूसरी नोटिस दी गई। फिर तीसरी नोटिस भी आ गई। अब कुल मिलाकर कंपनी मुझे इसी आधार पर नौकरी से निकालने की तैयारी करने लगी। कंपनी ने इसी मुद्दे पर इन-हाउस जांच कमेटी बिठा दी। एक वकील को लगा दिया गया। मैं फिर भी कोलकाता नहीं गया। मैं तो दिल्ली में नौकरी की तलाश में लगा रहा। इस बीच, मुझे दिल्ली में ही हिन्दुस्तान में नौकरी मिल गई और मैंने जनसत्ता की नौकरी से इस्तीफा दे दिया। मेरे इस्तीफे से पूरा इंडियन एक्सप्रेस प्रबंधन खुश हुआ और कुछ ही घंटों में मेरा पूरा हिसाब कर दिया गया। मेरा सारा भुगतान दिल्ली दफ्तर ने ही किया। कोलकाता तो सिर्फ कहने के लिए था। आखिर यह प्रबंधन की नौटंकी और अहंकारी ओम थानवी की जिद जो थी।
– गणेश प्रसाद झा
आगे अगली कड़ी में....
(यह मेरे ब्लॉग ganeshprasadjha.blogspot.com पर भी उपलब्ध है)
जनसत्ता जैसे प्रतिष्ठित समाचार पत्र के ओम थानवी जी का आपके प्रति जो व्यवहार किया गया वह सर्वथा अनुचित ही नहीं एक ऊँचे पद का अहम् है। चलिए यह जानकार बड़ी ख़ुशी हुई कि आपकी काबिलियत को हिंदुस्तान ने पहचाना। जी-जान से समर्पित काम करने वालों की हर किसी को जरुरत होती हैं , बस अच्छे काम के लोगों की पहचान करने में समय लगता है। हार्दिक शुभकामनाएं आपको!
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