शनिवार, 15 अक्टूबर 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 43


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की तैंतालीसवीं किस्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 43


100. अखबार की व्यवस्थाओं पर दिल खोल कर खर्च

कंपनी ने अखबार की व्यवस्थाओं पर दिल खोल कर खर्च किया। कंप्यूटर का जमाना आने से पहले की बात करें तो हिन्दुस्तान टाइम्स समूह के मालिक बिड़लाजी ने अपने जमाने में अखबार की व्यवस्थाओं पर भले ही उतना खर्च नहीं किया फिर भी वह राजधानी से छपनेवाले किसी भी अखबार के दफ्तर से कमतर कभी नहीं था। दफ्तर की व्यवस्थाओं के मामले में इंडियन एक्सप्रेस के लाला से तो कई गुणा अव्वल। जब अखबारों में डेस्क पर कंप्यूटर लगने लगे तो बाकी अखबारों ने पहले लगाया और हिन्दुस्तान टाइम्स ने बहुत बाद में। पर देर आए दुरुस्त आए की लाइन पर काम करते हुए उसने सबसे बेहतर व्यवस्था बनाई। दफ्तर को बिल्कुल मनभावन बना डाला।

हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप में काम करनेवाले लोग हमेशा से बड़े ढीले, सुविधाभोगी और कामचोर रहे। यह ग्रुप हमेशा से सरकारों के साथ मिलकर चलनेवाला रहा और आज तक कभी व्यवस्था विरोधी नहीं बन पाया। इन वजहों से इस ग्रुप के अखबारों में कभी आज तक तीखा तेवर नहीं आ सका। मेरे समय में ही चीजें बदलनी शुरू हो गईं थीं पर तेवर पुरानेवाले ही रहे थे। उन्हीं दिनों एक बार अखबार ने देश की आजादी के पुरोधा सुभाष चंद्र बोस पर उनकी गुमशुदगी को लेकर एक बेहतरीन सिरीज चलाई थी। शायद सिरीज का शीर्षक था- वे सुभाष बोस नहीं थे तो कौन थे?  सिरीज अंग्रेजी और हिन्दी दोनों अखबारों में साथ-साथ चल रही थी। इस सिरीज को एक जानेमाने बंगाली रिसर्चर अपनी गहन शोध के आधार पर लिख रहे थे। जब सिरीज कुछ आगे बढ़ी और सुभाष बाबू के गायब होने की कहानी साफ होनी शुरू हुई तो कहते हैं एक दिन अचानक कांग्रेस मुख्यालय से इस सिरीज को बंद करने का कड़ा फरमान आ गया और सिरीज तत्काल बंद कर दी गई। अखबार ने कांग्रेस के उस फरमान के आगे सिर झुका लिया।

इस अखबार का तेवर आज तक कभी नहीं बदला। पर बाकी चीजों में तो अब अच्छा खासा बदलाव आ गया है। पहले तो लगता था जैसे कर्मचारियों ने कंपनी को बंधक बना लिया है। शायद इन्हीं कारणों से सभी पुराने लोगों को बड़े बेआबरू होकर वहां से निकलना पड़ा। इस लड़ाई में जो थोड़े अच्छे लोग थे वे घुन की तरह पिस गए। कंपनी मालकिन बिड़लाजी की बेटी शोभना भरतीया के बिदेश से पढ़कर लौटे पुत्र ने विरासत की कमान संभालने की ट्रेनिंग लेनी शुरू कर दी थी और वे दफ्तर में बैठकर कामकाज देखने-समझने लगे थे। बाद में शोभना भरतीया ने दफ्तर की इस कदर ओवरहॉलिंग की कि एक भी पुराने कर्मचारी को नहीं रहने दिया। कुछ साल पहले जो लोग ठेके पर लाए गए थे धीरे-धीरे उन सबको भी चलता कर दिया। पर उस समय तक दूसरे अखबारों में भी बड़े पैमाने पर वेजबोर्ड की तनख्वाह पानेवाले पुराने परमानेंट पत्रकारों और गैर-पत्रकारों को निकाल बाहर करने और नई भर्तियां ठेके यानी सीटीसी पर करने का सिलसिला शुरू हो गया था। बहुत सारे परमानेंट कर्मचारियों को वेतनवृद्धि का प्रलोभन देकर इस्तीफा दिलवाकर पहले ठेके पर लिया गया और फिर साल-दो साल बाद उनकी छुट्टी कर दी गई। एक बात यह भी देखने को मिली कि हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप में पुराने लोगों में जो गिनती के थोड़े-बहुत अच्छे और काम के लोग थे, खासकर पत्रकार बिरादरी के लोग उन्होंने इस ग्रुप से बाहर निकलने के बाद पैसे की किल्लत भले झेली हो पर नई जगहों पर जाकर अपने पेशे में उन्होंने ज्यादा निखार पाया। वहां की उस पुरानी पर आरामतलब व्यवस्था की जड़ता में वे लोग अखबार के लिए चाहकर भी कुछ अच्छा नहीं कर पा रहे थे।

101. अखबार बेचने के लिए झूठ-फरेब का सहारा

वर्ष 2001 में दिल्ली में एक ब्लैक मंकी यानी उत्पाती बंदर की कहानी शुरू हुई जो सच्चाई नहीं बल्कि एक कोरी कल्पना मात्र थी जिसने जल्दी ही पूरी राजथानी में एक मास हिस्टीरिया का रूप ले लिया था। बाद में इसे एक बड़ी कॉरपोरेटिक व्यापारिक साजिश के तौर पर भी देखा गया। दिल्ली और आसपास की झुग्गियों और निम्नवर्गीय इलाकों में कहा गया कि आधी रात को बड़े-बड़े बालों वाला एक हमलावर काला बंदर (ब्लैक मंकी) प्रकट होता है और सोते हुए लोगों को नोचकर भाग जाता है। अखबारों में इस काले बंदर को तरह-तरह का भयानक प्राणी बताकर उसके बारे में तरह-तरह की कहानियां गढ़ी जाने लगी। अखबारों में इस काले बंदर के बारे में नमक-मिर्च लगा-लगाकर खबरें छापी जाने लगी। खबर लिखी जाने लगी कि इस विचित्र प्राणी के दहशत से डर कर कई लोगों ने उंची इमारतों से छलांग लगा दी और उनकी मौत हो गई। ऐसा हुआ भी होगा। अखबारों ने तो ब्लैक मंकी की ढेरों कहानियां छापी पर दिल्ली पुलिस को पूरे शहर में कहीं कभी कोई ब्लैक मंकी नहीं मिला।

हिन्दुस्तान टाइम्स प्रबंधन ने अपने अखबारों के संपादकों को बाकायदा निर्देश जारी कर दिया कि ब्लैक मंकी की चटपटी खबरों को अधिक से अधिक छापा जाए। हिन्दुस्तान अखबार के तत्कालीन संपादक अजय उपाध्याय ने इस झूठ को छापने पर थोड़ा एतराज किया तो प्रबंधन ने उनको कड़ी हिदायत देकर कहा कि ऐसा मालिक के निर्देश पर कहा जा रहा है। उनसे प्रबंधन ने कहा कि ब्लैक मंकी की चटपटी खबरें छापने से अखबार का सर्कुलेशन खूब बढ़ रहा है इसलिए हमें ऐसी खबरों को बढ़ावा देना है। इस तरह हिन्दुस्तान ने भीब्लैक मंकी का झूठ जमकर बेचा। निम्नवर्गीय और निम्न-मध्यम वर्ग की कॉलोनियों में फैले इस मंकी मैनकी अफवाह को राजधानी के लगभग सभी छोटे-बड़े अखबारों ने एक झूठी त्रासदी बनाकर पेश किया और इसे जमकर भुनाया। कुछ समाज विज्ञानी तो बाद में यह भी कहने लगे कि यह किसी बड़े अखबार समूह की ही गढ़ी हुई कारस्तानी थी।

अखबार को चर्चा में लाने और इसके जरिए उसका सर्कुलेशन बढ़ाने के लिए मालिकान अक्सर झूठ का सहारा लेते हैं। इसे समझाने के लिए राजस्थान पत्रिकाकी ओर से अपनाया गया एक वाकया बताता हूं। इस अखबार ने एक बार लेख लिखा कि सरकार की परिवार नियोजन योजनाओं की वजह से हजारों-लाखों आत्माएं जिनको इस धरा पर जन्म लेना था वे जन्म नहीं ले पाए और वे सभी त्रिशंकु की तरह आसमान में ही लटके हुए हैं। इस तरह वे बेकसूर आत्माएं सरकार की इस गलत योजना की वजह से अकारण ही कष्ट भोग रही हैं। सरकार की इस योजना ने प्रकृति के तय नियमों में अड़ंगा डाल दिया जिससे उन आत्माओं का आगे का भविष्य भी उलट-पुलट और गड्डमड्ड हो गया। अखबार के इस लेख पर एक बड़ी बहस छिड़ गई और उसके पक्ष-विपक्ष में विचारों की लड़ाई चल पड़ी जिसे अखबार लगातार छापता रहा। बहस चलती रही और पत्रिका की खूब चर्चा होती रही और उसका सर्कुलेशन भी खूब बढ़ गया।

ऐसी ही एक बहस 1987 में जनसत्ता ने शती प्रथा के समर्थन में एक संपादकीय लिखकर छेड़ दी थी। अखबार ने राजस्थान के देवराला गांव में एक महिला रूपकंवर के अपने दिवंगत पति की चिता पर बैठकर सती हो जाने की घटना का समर्थन कर दिया था। इस पर भी अखबार के खिलाफ जोरदार प्रदर्शन हुआ था और लंबी बहस चल पड़ी थी। इस संपादकीय को लेकरजनसत्ता पर सती प्रथा का महिमामंडन करने के आरोप भी लगे थे। जनसत्ता के दफ्तर और अखबार के संपादक का घेराव भी किया गया था। लंबे समय तक अखबार में इस प्रकरण पर चर्चाएं चलती रही थीं। अखबार ने इस पर लंबी चर्चा चलाकर खूब सुर्खी बटोरी थी और इससे जनसत्ता का सर्कुलेशन भी खूब बढ़ गया था।

हिन्दुस्तान में मेरी नौकरी तीन साल के कांट्रेक्ट वाली थी। तीन साल बीत जाने के बाद भी मेरी नौकरी जारी रही थी। अनुबंध के नवीकरण की चिट्ठी मुझे तीन साल के पुराने अनुबंध के खत्म होने के करीब दो महीने बाद मिली थी। अनुबंध को आगे बढ़ाने की यह चिट्ठी सिर्फ एक साल के लिए दी गई थी। यानी मैं वहां सिर्फ साल भर और नौकरी कर सकता था। इस चिट्ठी के मिलने के साथ ही नौकरी की चिंता शुरू हो गई थी कि अगर साल भर बाद इस अनुबंध को फिर से आगे नहीं बढ़ाया गया तो मुझे फिर से बेरोजगारी झेलनी पड़ जाएगी और फिर एक नई नौकरी तलाशनी पड़ेगी। परिवार की आर्थिक हालत अच्छी नहीं होने की वजह से  मेरे लिए यह चिंता बहुत बड़ी थी। एक साल का एक्सटेंशन देने का मतलब ही था कि इसे अब और आगे नहीं बढ़ाया जाएगा। और हुआ भी वही। अगला एक साल पूरा होते-होते अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार जाती रही। जिनके कहने पर मुझे यह नौकरी मिली थी उनके सत्ता से हट जाने से कंपनी को मुझे हटाने और नई सरकार की सिफारिश पर मेरी जगह किसी और को नैकरी देने का अवसर मिल रहा था। सो एक दिन कंपनी ने नौकरी का मेरा अनुबंध रद्द कर दिया।

102. सिंधिया खानदान की सिफारिश का ठुकराया जाना

टेलीविजन पत्रकारिता के प्रारंभिक दिनों में मैंने एक समय में जैन टीवी के लिए बाहर से कुछ फुटकर काम किया था। उसी दौरान कांग्रेसी नेता राजमाता विजयाराजे सिंधिया से परिचय हुआ था। फिर कांग्रेस अखबार में काम करने के दौरान भी कुछ कांग्रेसी नेताओं से भी अपना परिचय हो गया था। उनमें एक नाम माधवराव सिंधिया जी का भी था। हिन्दुस्तान की इस नौकरी को दोबारा पाने के लिए मैंने अब कांग्रेस के कद्दावर नेता माधवराव सिंधिया के पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया से मदद मांगी। यह तो सर्वविदित था किहिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप में सिंधिया परिवार की खूब चलती है और माधवराव सिंधिया यानी बड़े महाराजजी की बात कंपनी कभी नहीं उठाती थी। उनकी सिफारिश पर लोग नौकरी पर रख लिए जाते थे। पर एक विमान हादसे में माधवराव सिंधिया की असमय मौत हो गई थी। अब मदद करनेवाले उनके पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया ही थे। सो मैं उनके पास ही गया। ज्योतिरादित्य सिंधिया मेरी मदद को राजी हो गए और उन्होंने मेरी अर्जी और सीवी अपनी सिफारिश के साथ हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप की मालकिन शोभना भरतिया जी को भेज दी। पर दुर्भाग्यवश उनकी सिफारिश स्वीकार नहीं की गई। शोभना भरतीया ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को भेजी अपने जवाबी चिट्ठी में कहा कि गणेश प्रसाद झाहिन्दुस्तान में तीन साल से अधिक समय तक नौकरी कर चुके हैं और उनके उस पुराने अनुबंध को कुछ तकनीकी कारणों की वजह से अब और आगे नहीं बढ़ाया जा सकता।

ज्योतिरादित्य सिंधिया की इस पैरवी को शोभना भरतीया द्वारा ठुकरा दिए जाने पर सिंधिया परिवार में बहुत ज्यादा प्रतिक्रिया हुई। इससे ज्योतिरादित्य और उनके परिवार के लोग बहुत नाराज हुए। मैं जब उनके घर गया तो ज्योतिरादित्य के सहायकों ने बताया किशोभना भरतीया जी ने महाराज जी के आदेश को ठुकराकर महाराज जी का बहुत अनादर किया है। यह बहुत बड़ी चिंता की बात है। आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ था। महराजजी (ज्योतिरादित्य सिंधिया) ने और बड़े महाराजजी (माधवराव सिंधिया) ने आज तक जिस किसी की भी सिफारिश भेजी है सब का काम हुआ है। आज तक कभी भी किसी के भी मामले में महाराज जी के आदेश को नहीं ठुकराया गया था। आज अगर बड़े महाराजजी होते और उनका कोई आदेश इस तरह ठुकरा दिया गया होता तो बहुत कुछ हो सकता था।हिन्दुस्तान टाइम्स के मालिकों पर बड़े महाराजजी ने बहुत बड़े-बड़े अहसान किए हैं।


– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....



पत्रकारिता की कंटीली डगर- 44


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की चौवालीसवीं किस्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 44


103. बैंकों द्वारा कार लोन के जाल में फंसाने की कहानी

हिन्दुस्तान में नौकरी शुरू करने के बाद हिन्दुस्तान टाइम्स कंपनी ने सभी कर्मचारियों का सैलरी एकाउंट एक निजी बैंक एचडीएफसी में खुलवा दिया था। इस बैंक में खाता खुलने के बाद एचडीएफसी और तमाम दूसरे निजी मल्टीनेशनल बैंकों के एजेंट हिन्दुस्तान टाइम्स के दफ्तर में अपना कार लोन, हाउसिंग लोन और पर्सनल लोन बेचने के लिए दौड़ लगाने लगे थे। इन बैंकों में एचडीएफसी, स्टैंडर्ड चार्टर्ड, एएनजेड ग्रिंडलेज बैंक और एचएसबीसी शामिल थे। इन बैंकों ने एचडीएफसी बैंक से हिन्दुस्तान टाइम्स के सभी कर्मचारियों का डाटा यानी नाम-पता हासिल कर लिया और फिर अपना लोन बेचने के लिए उन कर्मचारियों का घर और दफ्तर में पीछा करने लगे। इन बैंकों के एजेंटों ने फर्जी लाभ पहुंचाने का प्रलोभन देकर कई कर्मचारियों को अपनी जाल में फंसा लिया। हर किसी को कुछ न कुछ बेच दिया। मैं भी इनके कार लोन के जाल में फंस गया। मेरे घर पर तीन बैंकों के एजेंट साथ मिलकर आने लगे। इनमें स्टैंडर्ड चार्टर्ड, एचएसबीसी और एबीएन एमरो के एजेंटों ने मुझे समझा-बुझाकर और झूठा भरोसा देकर मारुति की ओमनी कार बेच दी। एजेंटों ने मुझे कहा कि इस कार का कॉमर्शियल इस्तेमाल भी होता है और वे मेरी गाड़ियां अपने पहचानवाले के टैक्सी स्टैंड या फिर किसी दफ्तर में लगवा दैंगे और मुझे पेट्रोल, ड्राइवर का खर्च और गाड़ी की ईएमआई काटकर हर गाड़ी पर हर महीने करीब आठ हजार रुपए बच जाएंगे। एजेंटों ने कहा कि उनलोगों ने मेरे जैसे अपने कई कस्टमर्स की गाड़ियां इसी तरह लगवा रखी है और यह बहुत फायदे का धंधा है। पर मैंने कहा कि मुझे गाड़ियों के धंधे के बारे में कुछ भी नहीं मालूम और वैसे भी मुझे गाड़ी की कोई जरूरत नहीं है। फिर मुझे हिन्दुस्तान की इस ठेके की नौकरी में आठ हजार की तनख्वाह मिलती है जिससे हर महीने गाड़ियों के कर्ज की ईएमआई देना बिल्कुल संभव नहीं है। पर एजेंटों ने कहा कि इसमें मेरी तनख्वाह के पैसे तो खर्च होने ही नहीं हैं। सारा इंतजाम तो गाड़ियों से होनेवाली कमाई से ही हो जाना है। और फिर गाड़ियो से मुझे नियमित आमदनी भी होती रहेगी। इस तरह उन्होंने मुझे समझा-बुझाकर फंसा लिया। एजेंटों ने कहा कि मुझे सिर्फ कार डीलर से गाड़ियों की डिलीवरी भर ले लेनी है। उसके बाद का सारा काम और सारा सरदर्द उनका। मैंने उनकी इन बातों में छिपे रहस्य को उस समय समझ नहीं पाया और उनपर यकीन करके कारलोन के सारे पेपर्स साइन कर दिए।

मैंने कार डीलर से गाड़ियों की डिलीवरी भी ले ली। तीनों गाड़ियां घर आ गईं। मैंने अगले दिन उन सभी एजेंटों को फोन करके बता दिया कि मैं गाड़ियां ले आया इसलिए अब आप इन्हें लगवाने का काम करें। बैंक एजेंटों ने कहा कि वे हफ्ते भर में गाड़ियां लगवा देंगे। एक हफ्ता निकल गया पर वे नहीं आए और न उनका कोई फोन आया। मैंने उन्हें फिर फोन किया कि जल्दी कीजिए। उन्होंने कहा कि दो-चार दिन में काम हो जाएगा। पर वे नहीं आए। मैंने फिर फोन किया तो फोन नहीं उठने लगा। एक एजेंट ने कहा कि वह बिजी था इसलिए समय नहीं मिला सो एक हफ्ता और रुक जाइए। कई दिनों बाद एक दूसरे एजेंट ने बताया कि वह किसी काम से दिल्ली से बाहर है इसलिए हफ्ते-दो हफ्ते का समय और लगेगा। समय निकलता गया। बाद में उन एजेंटों ने मेरा फोन उठाना ही बंद कर दिया। इसी तरह बैंक के एजेंटों को बार-बार फोन करने और उनका इंतजार करने में दो महीने का समय गुजर गया पर एजेंट झांकने तक नहीं आए। मेरे बैंक खाते में कुछ पैसे बचे थे और उसी से इन गाड़ियों की किश्तें कट रही थीं। मैंने बैंक जाकर उनके मैनेजरों से संपर्क किया तो वहां बताया गया कि बैंक गाड़ियां लगवाने का काम नहीं करती। आप अगर अपनी गाड़ियां कहीं लगवाना चाहते हैं तो आपको यह काम खुद ही करना पड़ेगा। एजेंटों ने आपको कैसे कह दिया कि वे आपकी गाड़ियां लगवा देंगे। एजेंट ऐसा कोई काम नहीं कर सकते। उन्हें इसकी इजाजत भी नहीं है। बैंक अधिकारियों की यह बात सुनकर मैं ठगा सा रह गया।

बैंक एजेंटों के कहने पर मैंने इन गाड़ियों के लिए अपने पीएफ से सारे पैसे जो लगभग तीन लाख रुपए थे निकलवा लिया था। पीएफ के उन्हीं पैसों से इन गाड़ियों का डाउन पेमेंट और अन्य खर्च चुकाया था। मुझे उन बैंक एजेंटों ने एक उज्जवल भविष्य का सुनहरा सपना दिखाया था। पर मैं तो कहीं का नहीं रहा था। उन्हीं दिनोंहिन्दुस्तान में मेरे साथी विजेंद्र रावत जी ने मुझे आगाह किया था कि इन एजेंटों पर ज्यादा भरोसा करना ठीक नहीं है सो पहले एक गाड़ी लेकर देख लो कि उससे कितनी आमदनी हो पाती है। फिर दो और ले लेना। पर बैंक के एजेंट मेरे इस अनुरोध को मानने को बिल्कुल तैयार नहीं हुए थे। एजेंटों ने मुझे कहा था कि लोन का सारा काम पूरा हो गया है और बैंक ने डीलर को गाड़ियों की पूरी पेमेंट दे दी है और ऐसे में गाड़ियों की डिलीवरी रोकी नहीं जा सकती।

चार-पांच महीनों तक बैंक में जो थोड़े पैसे थे उससे इन गाड़ियों की ईएमआई चुकता होती गई पर उसके बाद मेरे ईएमआई के चेक बाउंस होने लगे। बैंकों ने नोटिस भेज दिया और बैंक से बार-बार फोन आने लगे। रिकवरी वाले बार-बार घर आने लगे। फोन पर धमकियां दी जाने लगीं। रिकवरीवाले फोन करके गालीयां भी देते थे। गाड़ियां वहां घर पर थीं नहीं लिहाजा कुछ महीने बाद बैंकों ने कोर्ट में मुकदमा दायर कर दिया। चेक बाउंस के भी कई-कई केस दर्ज करा दिए गए। बैंकों ने मुझपर गलत आरोप लगाया कि मैंने लोन लेकर पैसे नहीं चुकाए और गाड़ी भी बेच दी। मैंने कोई गाड़ी नहीं बेची थी। मैं तो उन गाड़ियों को कहीं न कहीं लगवाने की फिराक में था जो नहीं हो पा रहा था। इन गाड़ियों में मेरी मेहनत की कमाई के तीन लाख रुपए फंसे थे और उसकी मुझे चिंता थी। कार लोन के ये मामले तीस हजारी और पटियाला हाउस कोर्ट में चल रहे थे। मैं हर तारीख पर जाता था। अदालत को पूरी बात बताई थी। बैंकों को कोर्ट की डांट भी लगी थी। जज महोदय ने बैंक के वकील और अधिकारी से कहा था कि बाकी सबको तो फंसाते ही हो, पत्रकार को भी फंसा लिया। जज महोदय ने मेरी सैलरी स्लिप देखकर बैंक के वकील से कहा था कि इनकी पूरी तनख्वाह भी अगर ले ली जाए तो भी कार का लोन चुकता नहीं हो सकता। इतनी कम तनख्वाह वाले आदमी को आपने (बैंक) कार लोन दे कैसे दिया। मेरी कुल तनख्वाह महज 8225 रुपए थी और एक-एक गाड़ी की ईएमआई लगभग 7000 (सात हजार) रुपए थी। यानी हर महीने करीब 21000 (इक्कीस हजार) रुपए की ईएमआई थी। इसे फंसाना ही तो कहेंगे। अदालत को मैंने इस तरह फंसाने की पूरी कहानी बोलकर और लिखकर बता दी थी। अदालत ने मुझसे पूछा कि क्या मैं हर महीने 2000 रुपए देने की हालत में हूं। मैंने मना कर दिया क्योंकि इतने पैसे बचते ही नहीं थे तो देता कहां से। मैंने कोर्ट से कहा कि मुझे गाड़ी नहीं चाहिए। गाड़ी वापस ले लीजिए और गाड़ी में मेरा जो पैसा लगा है वह मुझे वापस दिलवा दीजिए। एक बैंक (एबीएन एमरो) ने कोर्ट में माननीय जज महोदय से कहा कि इनके (गणेश प्रसाद झ) घर का सारा सामान बेचकर पैसा बैंक को लोन बकाए में दिलवा दीजिए। इस पर जज साहब ने बैंक के वकील को खूब झाड़ लगाई थी। जज साहब ने बैंक के वकील से कहा था कि कोर्ट से पूछकर लोन दिया था क्या। किराए के एक कमरे में गुजारा करनेवाला आदमी कहां से इतना भारी लोन चुकाएगा।

अदालतों में कार लोन का मेरा केस चल ही रहा था कि इसी बीच स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक ने दिल्ली पुलिस को पैसे देकर अपने कार लोन के केस में मुझे घर से उठवा लिया। मुझे पटियाला हाउस कोर्ट की एक अदालत ने न्यायिक हिरासत में भेज दिया। मैं अकेला रहता था लिहाजा घरवालों को दिल्ली आकर मेरी जमानत लेने में कई दिन लग गए। इस गिरफ्तारी के अगले ही दिनहिन्दुस्तान टाइम्स प्रबंधन ने नौकरी का मेरा अनुबंध रद्द कर दिया और मुझे नौकरी से निकाल दिया। मैंने तीनों गाड़ियां दिल्ली पुलिस को सौंपकर अदालतों को रिपोर्ट की तब जाकर इन लुटेरे और मायावी बैंकों से मेरा पिंड छूटा। बैंकों के दिखाए इस सुनहरे सपने में मेरा सबकुछ लुट गया। इसमें सब कुछ मिलाकर मुझे लगभग 4 लाख का नुकसान हुआ और नौकरी भी चली गई। मुकदमा लड़ने और जमानत कराने में मित्रों और रिश्तेदारों से कर्ज भी लेना पड़ा सो अलग। बैंकों और उनके एजेंटों ने सुनहरे सपने दिखाकर मुझे कंगाल बना दिया। 


104. गाड़ियां एनटीपीसी कहलगांव में लगवाने की कोशिश

बैंकों के एजेंटों ने जब गाड़ियां नहीं लगवाई तो उनकी ईएमआई को लेकर मैं परेशान रहने लगा। मैंने दिल्ली में भी कुछ प्रयास किया पर सफल नहीं हो पाया। फिरजनसत्ता में मेरे साथी आर्येंद्र उपाध्याय ने एक रास्ता सुझाया कि गाड़ियां एनटीपीसी कहलगांव में लगवा दी जाएं तो ठीक रहेगा और वहां से नियमित पैसे भी मिलते रहेंगे। आर्येंद्र के एक मित्र वहां कहलगांव एनटीपीसी में जनसंपर्क अधिकारी थे। दोनों ने पत्रकारिता की पढ़ाई साथ-साथ की थी सो अच्छी पहचान थी। आर्येंद्र ने इसके लिए अपने पीआरओ मित्र से बात कर ली। उनके मित्र ने इसमें पूरी मदद का भरोसा दिया और गाड़ियां कहलगांव लाने को कहा। मैंने तीनों गाड़ियां ट्रांसपोर्टर के जरिए भागलपुर भिजवा दी जहां से उसे कहलगांव एनटीपीसी के दफ्तर ले जाया गया। आर्येंद्र के पीआरओ मित्र ने मेरी गाड़ियां देखी। गाड़ियां एकदम नई थीं सो उनको पसंद भी आई। गाड़ियों के कागजात मांगे गए जो मैंने दिलवा दिया। आगे की विभागीय मंजूरी के लिए दो हफ्ते का समय मांगा गया। वहां से मैंने गाड़ियां मुंगेर के अपने घर मंगवा ली। करीब दो हफ्ते बाद उन गाड़ियों को फिर वहां एनटीपीसी में भेजने को कहा गया जो मैंने भिजवाया। वहां गाड़ियों की एकबार फिर जांच पड़ताल हुई। सबकुछ ठीक ही था पर एनटीपीसी के एक वरीय अधिकारी ने गाड़ियां फिलहाल लेने से मना कर दिया। कहा कि अभी जिस ट्रांसपोर्टर का टेंडर चल रहा है उसके टेंडर की समाप्ति हो जाने पर ही आगे का कुछ विचार करेंगे। लिहाजा मैंने गाड़ियां वापस दिल्ली मंगवा ली।

दिल्ली में ही मयूर बिहार थाने के एक पुलिस अधिकारी ने एक बार मुझे इसी तरह एक चर्चा में बताया कि दिल्ली के आश्रम से आगरा के लिए दिनभर प्राइवेट गाड़ियां चलती रहती हैं जो फुटकर सवारियां लेकर जाती हैं। अगर वहां किसी अच्छे ड्राइवर को चलाने के लिए गाड़ियां दे दी जाएं तो बात बन सकती है। इससे भी गाड़ियों की ईएमआई का इंतजाम हो जा सकता है। उन पुलिस अधिकारी ने मुझे इस बारे में आश्रम जाकर पूरी बात पता करने की सलाह दी। मैं एक दिन आश्रम गया और चौराहे पर घंटों खड़े रहकर नजारा देखता रहा। वहां से होकर आगरे के लिए फुटकर सवारियां लेकर नॉन कामर्शियल प्राइवेट गाड़ियां तो खूब चल रही थीं। छोटी-बड़ी और एसी-नॉनएसी हर तरह की प्राइवेट और नॉन कामर्शियल गाड़ियां। पर कामर्शियल गाड़ियां भी चल रही थीं। ट्रफिक पुलिस का एक अधिकारी वहां खड़ा था और उन प्राइवेट नॉन कामर्शियल गाड़ियों को पकड़-पकड़कर ताबड़तोड़ उनके चालान काट रहा था। कुछ देर तक यह नजारा देखने के बाद मैंने ट्राफिक पुलिस के उस अधिकारी से बात की औऱ अपनी गाड़ियों की पूरी बात और समस्या उनको बताई। मेरा मामला समझने के बाद उस अधिकारी ने मुझे कहा कि मैं भूल से भी अपनी गाड़ियां इस तरह फुटकर सवारियां ले जाने के लिए न चलवाऊं। इससे मैं किसी बड़ी उलझन में पड़ जा सकता हूं। पुलिस अधिकारी ने बताया कि इस तरह दिल्ली से सड़क के रास्ते आगरा जानेवालों में विदेशी पर्यटक भी होते हैं। अगर रास्ते में कोई सड़क दुर्घटना हो जाए और उसमें किसी विदेशी पर्यटक की मौत हो जाए तो फिर मामला दो देशों के बीच का होने की वजह से बहुत बड़ा बन जाता है औऱ अगर आपकी प्राइवेट नंबरवाली नॉन कामर्शियल गाड़ी के साथ ऐसा कुछ हो गया तो फिर आपका बाकी जीवन जेल में ही कटेगा। उस अधिकारी ने बताया कि प्राइवेट नंबरवाली नॉन कामर्शियल गाड़ी में सवारियां ढोना यानी गाड़ी का कॉमर्शियल इस्तेमाल करना गैरकानूनी है और ऐसे मामलों में दुर्घटना होने पर इंस्योरेंस कंपनी कोई क्लेम यानी मुआवजा भी नहीं देती। उन्होंने हाल के दुर्घटना के एक ऐसे ही मामले का उदाहरण भी दिया जिसमें कुछ विदेशी पर्यटकों की मौत हो गई थी और उस प्राइवेट नंबरवाली नॉन कामर्शियल गाड़ी का मालिक और ड्राइवर गिरफ्तार हो गया था और जेल में था। उस पुलिस अधिकारी की बात और सलाह से मुझे गाड़ियों को लेकर निराशा जरूर हुई पर उनकी बात मुझे अच्छी लगी। मैं यह सोचकर लौट आया कि उस पुलिस अधिकारी ने सही सलाह देकर मुझे कम से कम एक नई मुसीबत में फंसने से तो बचा ही लिया। मुझे तब यह भी समझ आ गया कि कहीं भी इन गाड़ियों को सवारियां ढोने के लिए लगाना खतरे से खाली नहीं है और बैंकों के एजेंटों ने अपने और बैंकों के फायदे के लिए मुझे उन गाड़ियों से कमाई कराने का झूठा प्रलोभन और झांसा देकर लोन में चक्कर में फंसा लिया है।

दिल्ली में मेरी गाड़ियां मेरी सोसायटी के बाहर सड़क किनारे पेवमेंट पर खड़ी रहती थी। सोसायटी मेनेजमेंट को भी इसपर एतराज होने लगा था। कुछ महीने बाद आर्येंद्र ने फिर कोशिश की और कहलगांव एनटीपीसी के अपने पीआरओ मित्र से एक बार फिर निवेदन किया। आर्येंद्र के मित्र के कहने पर मैंने फिर ट्रांसपोर्टर से अपनी तीनों गाड़ियां वहां कहलगांव भिजवाई। वहां एनटीपीसी में फिर से सबकुछ जांचा परखा गया। पर सफलता इस बार भी नहीं मिली। पीआरओ की तमाम कोशिशों के वावजूद बड़े अधिकारी ने कह दिया कि गाड़ियां एसी नहीं हैं इसलिए नहीं ली जा सकतीं। मुझे गाड़ियां एनटीपीसी से वापस लानी पड़ी। पर इस बार गाड़ियों को वापस दिल्ली लाने के लिए मेरे पास पैसे बिल्कुल नहीं थे और मैं अब किसी से उधार भी मांग सकने की हालत में नहीं था। सो मैंने अपनी तीनों गाड़ियां अपने गांव से करीब 20 किलोमीटर दूर तारापुर शहर में एक परिचित के घर के पास के खाली मैदान (सरकारी जमीन) पर खड़ी कर दी। बाद में इसी जगह से उन गाड़ियां को कोर्ट के आदेश पर पुलिसवाले दिल्ली लेकर गए। कोर्ट का गाड़ी लाने का आदेश सिर्फ स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक के मामले में हुआ था और केवल एक गाड़ी को ले जाने का हुआ था। पर बाकी दोनों बैंकों ने उन्हीं पुलिसवालों को पैसे देकर तीनों गाड़ियां दिल्ली मंगवा ली थी। मैं भी इन गाड़ियों से पिंड छुड़ाना चाहता था सो तीनों गाड़ियां उठवा दी। बाद में बाकी दो मामलों में जजों ने बैंकों को खूब डांट लगाई थी कि बिना अदालती आदेश के उन्होंने गाड़ियां क्यों उठवा ली। 

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....

(यह मेरे ब्लॉग ganeshprasadjha.blogspot.com पर भी उपलब्ध है)


शनिवार, 8 अक्टूबर 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 42


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की बयालीसवीं किस्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 42


98. ट्रेड यूनियन की गुंडई, मक्कारी और प्रोफेशनलिज्म की कमी

हिन्दुस्तान में अपनी चंद वर्षों की नौकरी में मैं इस अखबार और वहां की स्थितियों को थोड़ा-बहुत जितना समझ पाया उसके मुताबिक वहां न्यूज डेस्क संभालने वाले जानकार पत्रकार बहुत कम थे। वहां ज्यादातर वैसे लोग थे जो पहले प्रूफरीडिंग का काम देखते थे और कंप्यूटरीकरण के बाद प्रबंधन ने नई व्यवस्था में उनको समायोजित करने के लिए उनको उप संपादक बना दिया था और उन्हें कंप्यूटर पर पेज बनाने की जिम्मेदारी सौंप दी गई थी। इसलिए उनमें एजेंसी की अंग्रेजी की खबरों का अनुवाद, हार्ड न्यूज लिखने, खबरों को संपादित करने, कंपाइल करने और उन्हें री-राइट करने आदि की क्षमता नहीं दिखाई देती थी। वहां साहित्यिक लेखन करनेवाले और बच्चों की पत्रिकाओं के लिए लिखनेवाले लोग थे। वहां ऐसे भी कई पत्रकार थे जिनको अखबारनवीसी से कोई खास मतलब नहीं था और वे मूल रूप से छोटे-मोटे व्यापारीप्रोपर्टी डीलर या दुकानदार सरीखे लोग थे। पर हिन्दुस्तान में उन दिनों बिड़लाजी का राज था इसलिए उनकी भी वहां रोजी-रोटी बहुते मजे से चल रही थी। अखबार और दफ्तर में हर तरफ एक जड़ता दिखाई देती थी। कामचोरी और मक्कारी तो वहां के कर्मचारियों में कूट-कूट कर भरी थी। पर मैं जिस समय वहां गया था वह अखबार में तकनीकी बदलाव का दौर था और कंपनी को प्रोफेशनल लोगों की जरूरत थी। इसके लिए अखबार की स्थितियों में जरूरी बदलाव करने का काम कुछ-कुछ शुरू हो गया था। अंग्रेजी यानी हिन्दुस्तान टाइम्स में स्थितियां हमेशा से चुस्त-दुरुस्त थी और वहां प्रोफेशनलिज्म दिखाई देता था। पर तकनीकी रूप से आधुनिकीकरण वहां भी हुआ था जिससे वहां भी स्थितियां तेजी से बदल रही थीं।हिन्दुस्तान टाइम्स में काम करनेवाले अच्छे और जानकार लोग थे जिस कारण वहां प्रोफेशनलिज्म था। ऐसा इसलिए क्योंकि हिन्दुस्तान टाइम्स उनका फ्लैगशिप अखबार था और वही कंपनी का ब्रेड़-बटर भी था। हिन्दुस्तान तो कुछ समय या कहें कि कुछ साल पहले तक तो एक विज्ञापन का अखबार ही हुआ करता था और यही माना भी जाता था। लोग उसे खबर पढ़ने के लिए नहीं, सिर्फ टेंडर वाले विज्ञापन देखने के लिए ही खरीदा करते थे। हिन्दुस्तान में विज्ञापन ठसाठस भरा होता था और अखबार को उससे मोटी आमदनी होती थी। शायद इसी वजह से कंपनी ने हिन्दुस्तान के कर्मचारियों की गुंडई और मक्कारी को भी हृदय से लगाकर रखा था। लोग कहते थे कि बिड़लाजी हमेशा यही मानते थे कि उनके उन मक्कार कर्मचारियों की ही किस्मत से उनका व्यापार इस कदर तेजी से फलता-फूलता रहा है।

हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप के दफ्तर में कंप्यूटर सिस्टम और दूसरे सारे तामझाम बिल्कुल नए लग गए थे। पूरे दफ्तर के पुरानेपन को हटाकर उसे एक नया लुक दे दिया गया था। साफ-सफाई भी बहुत अधिक थी।हिन्दुस्तान की बात करें तो वहां सब कुछ बहुत सुंदर था पर वहां पत्रकारिता वाला वैसा माहौल नहीं था जैसा कि एक बड़े अखबार में होना चाहिए। खबरों के प्रति सीरियसनेस का वहां घोर अभाव था। सबकुछ टेक-इट-ईजी वाले अंदाज में होता था। हां, दफ्तर में लोगों का व्यवहार बड़ा मधुर था। कर्मचारियों में एक दूसरे के प्रति काफी सम्मान का भाव रहता था। वहां डेस्क के लोगों की खबरों के प्रति गंभीरता को इसी से काफी बेहतर ढंग से आंका जा सकता है कि लोग वहां कंप्यूटर पर ताश के पत्ते खेलने में मशगूल रहते थे और तरह-तरह के पॉर्न वीडियोज के क्लिप देखा करते थे। अखबार में अनुशासन तो बिल्कुल ही नहीं था। और प्रोफेशनलिज्म न होने की वजह से कर्मचारियों में प्रतिस्पर्धा और प्रतियोगिता का भाव भी बिल्कुल नहीं था।

हिन्दुस्तान में मैंने बड़े ही गजब-गजब की चीजें होती देखी और वहां गजब-गजब के लोग भी देखे। वहां कुछ गलत एलीमेंट भी घुसे हुए थे जो लंबे समय से वहां रहने की वजह से काफी प्रभावशाली बन गए थे। वहां मैंने कई ऐसे लोग देखे जो वहां के परमानेंट कर्मचारी थे पर वे काम पर कभी दफ्तर नहीं आते थे। उनकी हाजिरी फिर भी लग जाती थी। वहीं जानकारी मिली थी कि वहां रमाकांत गोस्वामी और मयूरी भारद्वाज नाम के दो रिपोर्टर कार्यरत बताए जाते थे जो हिन्दुस्तान के ही कर्मचारी थे बताते हैं जिन्हें लोगों ने कभी दफ्तर में आते और वहां काम करते नहीं देखा था। बिना कभी दफ्तर आए और बिना कभी कोई काम किए ही उनकी हाजिरी लग जाती थी। संपादकीय विभाग में ही एक और सज्जन थे जो दफ्तर से ही अपना प्रोपर्टी डीलर का काम किया करते थे। वे कभी दफ्तर में आकर काम नहीं करते ते। वे दफ्तर के ग्राउंडफ्लोर पर स्थित रिशेप्शन में ही आकर बैठ जाते थे और वहीं से बैठकर वे अपना प्रपर्टी डीलर वाला काम किया करते थे। वे अपने मिलने-जुलने वालों को भी दफ्तर के रिसेप्शन पर ही बुला लिया करते थे। वे सिर्फ तनख्वाह लेने के दिन ही दफ्तर में दिखाई पड़ते थे। हिन्दुस्तान में कर्मचारी एटेंडेंस रजिस्टर पर हस्ताक्षर करके अपनी हाजिरी दर्ज नहीं करते थे। इसके लिए संपादक के दफ्तर में एक कर्मचारी नियुक्त था जो कंपनी का क्लर्क था और संपादक का पीए भी वही हुआ करता था। वही चेहरा देख-देखकर सबकी हाजिरी दर्ज करता था। यूनियन से जुड़े और उनकी कृपा वाले कुछ लोग कभी दफ्तर नहीं आते थे वे बिना दफ्तर आए उस क्लर्क से अपनी हाजिरी बनवा लेते थे। उन लोगों ने दफ्तर की पूरी व्यवस्था को अपनी गिरफ्त में ले रखा था। इसे हाईजैक करना भी कह सकते हैं। वे आंदोलनकारी लोग अपनी इच्छा से सबकुछ नियंत्रित करते थे। अखबार काफी सुविधासंपन्न था पर अखबार की दशा अच्छी नहीं थी। वहां अखबार निकालना बहुत कठिन काम होता था। यह सब वहां की ट्रेड यूनियन के लोगों की गुंडई की वजह से होता था। वहां की यूनियन बड़ी तगड़ी थी और यूनियन के लोगों ने कंपनी और उसके मालिक को अपनी मुट्ठी में दबोच रखा था। कंपनी के मैनेजर और मेनेजमेंट के इंचार्ज नरेश मोहन भी पूरी तरह से यूनियन की मुट्ठी में थे और अपनी इच्छा से कुछ भी नहीं कर पा रहे थे।

कंपनी के जो पुराने कर्मचारी थे वे लोग वहां हमेशा मनमानी करते थे। जब मर्जी आना और जब मन हो चले जाना। वे लोग काम करना नहीं चाहते थे। उनसे कोई काम करा भी नहीं सकता था। हर डिपार्टमेंट में यही हाल था। यहां तक कि दफ्तर का परमानेंट चपरासी भी काम नहीं करता था और चुपचाप बैठा रहता था। चपरासी के काम के लिए दर्जनों लड़के तीन-तीन महीने के ठेके पर रखे जाते थे जो हर विभाग में तैनात किए जाते थे। वही लोग काम करते थे। ट्रेड यूनियन के लोग कंपनी पर दबाव डालकर पुराने लोगों को प्रोमोशन भी दिलवाते थे। यूनियन के लोग कभी भी अखबार में नए लोगों की भर्तियां नहीं होने देते थे। उन्हें लगता था कि नए लोग आएंगे तो काम में सुधार हो जाएगा और तब मक्कारी करने का उनका राज नहीं चल पाएगा। इसे हम संस्थान की नासमझी या नाकामी भी कहें तो गलत नहीं होगा।

मेरे समय में कई प्रोफेशनल पत्रकार तीन-तीन साल के कांट्रेक्ट पर भर्ती किए गए थे पर ट्रेड यूनियन के लोगों ने उन नए कर्मचारियों को करीब छह महीने तक दफ्तर में घुसने तक नहीं दिया था। इनमें मेरे साथी पत्रकार सुबोध मिश्र, अरविंद शरण और दीपक मंडल भी थे। न्यूज का पूरा वर्कलोड हम लोगों पर ही होता था जिसमें अंग्रेजी खबरों का हिन्दी अनुवाद भी शामिल होता था। हम कांट्रेक्ट वाले पत्रकार अखबार के बंधुआ मजदूर थे।

हिन्दुस्तान में कुछ अच्छे पत्रकार जरूर थे पर उस माहौल में रहकर वे भी कुंठित हो चुके थे और उनके ही रंग में रंग गए थे। ऐसे अच्छे और टैलेंटेड पत्रकार बाद में अपनी क्षमता के बूते बीबीसी जैसी समाचार संस्था और डोयचेवेले रेडियो से जुड़ गए और नौकरी करने विदेश भी गए।

हिन्दुस्तान में संपादक भी बहुत जल्दी-जल्दी बदल जाते थे। संपादक भी ज्यादातर वैसे ही आए जिनका रुझान हार्ड न्यूज की तरफ बिल्कुल नहीं था। वे साहित्यिक और लेखकीय प्रकृति वाले थे। मुझे अपने समय के किसी संपादक में खबरों के प्रति गंभीरता और रिएक्शन नहीं दिखाई दिया। ज्यादातर संपादक भी वहां आकर सुविधाभोगी ही बन गए थे।

हिन्दुस्तान में अक्सर राजनैतिक दलों के नेताओं की सिफारिश पर मशीनमैन, प्रूफरीडर, चपरासी और दूसरे चतुर्थवर्गीय कर्मचारी रखे जाते थे। वे आते ही खुद को कंपनी मालिक का दामाद ही समझने लगते थे। कांग्रेस की वहां ज्यादा चलती थी लिहाजा कांग्रेसी नेताओं के सिफारिशी ही वहां ज्यादा थे। कांग्रेसी नेता हरकिशनलाल भगत के वहां कई लोग थे जो वहां बरसों से काम कर रहे थे और काफी ताकतवर बन गए थे। इन सिफारिशी लोगों में मक्कारी और काम न करने की प्रवृति घर कर गई थी।

कंपनी ने अपने फ्लैगशिप अखबार हिन्दुस्तान टाइम्सको ट्रेड यूनियन की गिरफ्त में जाने से किसी तरह बचाकर रखा था। इसके लिए उन्होंने यूनियनवालों से अंदरखाने कुछ डील कर ऱखी थी बताते हैं जिस कारण यूनियनवाले अंग्रेजी में ज्यादा दखल नहीं दिया करते थे। इसी वजह से हिन्दुस्तान टाइम्स में प्रोफेशनलिज्म बरकरार था। पर बदलाव के उस दौर में हिन्दुस्तान टाइम्स में भी कांट्रक्ट पर काफी लोग लिए गए थे, खासकर पत्रकार। कंपनी ने दफ्तर की व्यवस्था को सुधारने और चीजों को नियंत्रण में लाने के लिए बदलाव के उस संधिकाल में ही कई नए पद भी सृजित किए थे। कार्यकारी निदेशक (ईडी), प्रेसीडेंट, वायस प्रेसीडेंट वगैरह पद तभी बनाए गए थे।

99. संपादकों ने अखबार से करोड़ों बनाए

हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप में खासकर उसके अंग्रेजी अखबार हिन्दुस्तान टाइम्स में कई-कई अंग्रेजीदॉ संपादक आए और उन्होंने अखबार के कंटेंट पर ध्यान देने की बजाए उसकी साज-सज्जा पर ज्यादा ध्यान दिया। इन संपादकों ने मालिक को अपने-अपने आईडियॉज बेचकर करोड़ों रुपए अलग से कमाए। इस अखबार समूह के अंग्रजी अखबार हिन्दुस्तान टाइम्स का फॉन्ट पहले भी खराब नहीं था, पर उन संपादकों ने मालिक को अखबार का फॉन्ट न्यूयार्क टाइम्स औरलंदन टाइम्स जैसा करने का आईडिया दिया और इसके लिए विदेशों से एक्सपर्ट बुलवाए गए। करोड़ों खर्च करवाकर फॉन्ट बदले गए। इस तरह कंटेंट की बजाए फॉन्ट बदल देने से बिड़लाजी का अखबार न्यूयार्क टाइम्स और लंदन टाइम्स सरीखा बना या नहीं यह तो पता नहीं पर कहते हैं उन चालाक संपादकों ने अखबार मालिक को मूर्ख बनाकर इस दलाली में करोड़ों रुपए जरूर बना लिए। इसीलिए तो कहते हैं कि धनकुबेरों को मूर्ख बनाना ज्यादा मुश्किल नहीं है, बस आपके पास इसके लिए धुरफंदी वाला हुनर होना चाहिए। हिन्दी के संपादकों में इस हुनर की हमेशा से कमी थी। उधर अखबार मालिक के पास अपने हिन्दी अखबार के लिए वैसा कोई भारी भरकम बजट भी कभी उपलब्ध नहीं था। हिन्दुस्तान तो हमेशा उपेक्षा का शिकार ही बनता रहा।

– गणेश प्रसाद झा

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गुरुवार, 6 अक्टूबर 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 41


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की इकतालीसवीं किस्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 41


97. प्रधानमंत्री की सिफारिश और हिन्दुस्तान में नौकरी

जनसत्ता में ओम थानवी के डंसने के बाद मुझे दिल्ली में रहकर नौकरी तलाशने में काफी परेशानी हुई। कई महीने गुजर गए और मुझे खाली बैठना पड़ा। जनसत्ता की नौकरी कोलकाता जाने के आदेश की वजह से फंस गई थी। नई नौकरी मिल नहीं रही थी। पटना हिन्दुस्तान में पटना के ही पुराने अखबार पाटलिपुत्र टाइम्स के मेरे पुराने कथाकार साथी अवधेश प्रीत ने पटना में एक बार मुझे कहा था कि कोई पॉलिटिकल पैरवी लगाओ औरहिन्दुस्तान में घुस जाओ। फिर पटना हिन्दुस्तान में ट्रांसफर करा लो और मस्त रहो। उन दिनों मैं दिल्लीजनसत्ता में ही था। अवधेश जी की कही यही बात मुझे याद आई। जब कहीं नौकरी नहीं मिली तो मैंने हारकर अपनी परेशानियां बताते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेय़ी को एक चिट्ठी भेजी। वह चिट्ठी मैंने सरकार में हमेशा संकट मोचन की भूमिका निभानेवाले प्रमोद महाजन जी के जरिए अटलजी को भिजवाई। दो दिन बाद मुझे रंजन भट्टाचार्य जी ने फोन किया और मुझे हौजखास इलाके के अपने दफ्तर बुलाया। उनसे यह मेरी पहली मुलाकात थी। उन्होंने मुझे दो जगह नौकरी दिलवाने में मेरी मदद करने की बात कही और कहा कि इनमें जहां भी मैं चाहूं वे मुझे नौकरी दिलवाने में मेरी हरसंभव मदद कर सकते हैं। उन्होंने मुझेहिन्दुस्तान और राष्ट्रीय सहारा का नाम बताया। मैंने उनको हिन्दुस्तान में ही काम दिलवाने को कहा। उन्होंने कहा कि वे मेरे लिए हिन्दुस्तान टाइम्स की मालकिन शोभना भरतीया जी से बात करके उनसे निवेदन करेंगे। उनके अखबार में अगर कोई जगह खाली होगी तो मुझे निश्चित ही वहां नौकरी मिल जाएगी।

रंजन भट्टाचार्य जी ने अगले ही दिन शोभना भरतीयाजी से बात कर ली। पर उनसे इस मुलाकात के लगभग दो-तीन हफ्तों तक मुझे हिदुस्तान से कोई फोन नहीं आया। उन दिनों अजय उपाध्याय हिन्दुस्तान के संपादक थे।जनसत्ता में मामला गड़बड़ होने के बाद मैं उनसे नौकरी के लिए पहले भी कई बार मिल चुका था पर वे मुझे बिल्कुल घास नहीं डाल रहे थे। शोभना भरतीया जी से रंजन भट्टाचार्य जी की बातचीत होने के बाद शोभना भरतीया जी ने अपने संपादक अजय उपाध्याय को मुझे नौकरी पर रखने को कह दिया लेकिन अजय जी जानबूझकर अखबार की मालकिन की कही बातों को इग्नोर करते रहे। जब कई हफ्तों तक मुझे कहीं से कोई फोन नहीं आया तो मैंने रंजन भट्टाचार्य जी से फिर निवेदन किया। तब रंजनजी ने फिर शोभना भरतीया जी से मेरे लिए बात की। इसपर तो शोभना जी ने अजय उपाध्याय जी की क्लास ही ले ली। फिर क्या था, अगले ही दिन मुझे अजय उपाध्याय जी के दफ्तर से फोन आ गया और मुझे हिन्दुस्तान के दफ्तर बुला लिया गया।

हिन्दुस्तान में हफ्ते भर में ही नौकरी की सारी औपचारिकताएं पूरी हो गईं और मुझे हिन्दुस्तान में नौकरी मिल गई। पर यह नौकरी मुझे सिर्फ तीन साल के लिए कांट्रैक्ट (सीटीसी) पर मिली थी। उन दिनोंहिन्दुस्तान में ठेके का सिस्टम बस शुरू ही हुआ था और वहां ठेके पर नौकरी पाने वाला मैं दूसरा पत्रकार था। मुझसे करीब छह महीने पहले वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी समाचार संपादक पद पर आए थे। पर मैं करीब सात महीने तक बेरोजगार होकर घर बैठा रहा था। उन्हीं दिनों, पर मेरे बाद हिन्दुस्तान में अविनाश झा भी आए। वे पहले से अजय उपाध्याय जी से परिचित थे। एक बार वहीं दफ्तर में अविनाश जी ने मुझसे कहा कि अजय जी हिन्दुस्तान में आपकी (गणेश झा की) नियुक्ति के पहले एक बार मुझसे (अविनाश जी से) पूछ रहे थे कि ये गणेश झा कौन हैं? उनके लिए बार-बार चेयरमैन का फोन आ रहा था कि गणेश जा को अखबार में नौकरी पर रखना है, पर मैं टाल रहा था। बाद में शोभना जी ने कहा कि पीएमओ से बोला गया है इसलिए उनको रखना ही है। तब जाकर मुझे उनको बुलाकर नौकरी देनी पड़ी। अविनाश जी के इस खुलासे से मुझे पता चला कि अजय जी जानबूझकर मेरी नियुक्ति टाल रहे थे। वह मुझे लेना ही नहीं चाह रहे थे। इसीलिए उन्होंने पहले भी मुझे कई बार टरका दिया था। पहले तो मैं बिना किसी परिचय और सिफारिश के ही उनसे कई बार मिला था और नौकरी मांगी थी। पर वे हर बार मुझे मना ही करते रहे थे। पर बाद में वे अपने कई लोगों को हिन्दुस्तानलेकर आए थे। पीएमओ की सिफारिश और चेयरमैन के आदेश के वावजूद उन्होंने मुझे कभी कोई पदोन्नति या वेतनवृद्धि नहीं दी। उन्होंने मुझसे जनसत्ता की सैलरी स्लिप मांग ली और वहां जो मेरा पद था वहीं दिया। अजय उपाध्याय जी ने मुझे वेतन में सिर्फ हजार रुपए बढ़ाकर दिया। अजय उपाध्याय जी से पहले आलोक मेहता जी और उनसे भी पहले हरिनारायण निगमहिन्दुस्तान के संपादक थे। मैं आलोकजी से भी कई बार नौकरी मांगने गया था। पर हर बार खाली हाथ ही लौटना पड़ जाता था। हरिनारायण निगम जी सहृदय तो थे और बातचीत भी बड़ी अच्छी करते थे। पर नौकरी मुझे उन्होंने भी नहीं दी थी। निगम जी से शायद मैं उन दिनों नौकरी मांगने जाया करता था जब मैं चंडीगढ जनसत्तासे निकलने के बाद के बुरे दिनों में मित्रों की मदद से दिल्ली में रहकर नौकरी के लिए संघर्ष कर रहा था।

उन दिनों बिड़ला जी का जमाना था और हिन्दुस्तान टाइम्स की नौकरी को लोग सरकारी नौकरी से कम नहीं मानते थे। कई मामलों में तो सरकारी नौकरी से भी बढ़िया ही मानते थे। पर हिन्दुस्तान टाइम्स में कर्मचारियों का बड़ा ही मजबूत ट्रेड यूनियन था। यह ट्रेड यूनियन फौजदारी किस्म का था। इतना मजबूत कि जरा-जरा सी बात पर कर्मचारी लोग हड़ताल कर देते थे और दफ्तर में तोड़फोड़ करने लगते थे। इस ताकतवर यूनियन से निपटने के लिए प्रबंधन ने अपने यहां नौकरियों में ठेका यानी कांट्रैक्ट सिस्टम की शुरुआत कर दी थी। यूनियनवाले इस ठेका प्रणाली का भी पुरजोर विरोध कर रहे थे। यह सब कहने को था तो कर्मचारियों के हित में, पर उन दिनों सभी कहते थे कि हिन्दुस्तान टाइम्स के कर्मचारी बड़े ही कामचोर होते हैं। वहां यूनियनवाले किसी बाहरी आदमी को कंपनी में नौकरी के लिए आने नहीं देते थे। वे लोग वहां कंपनी में सिर्फ अपना ही एकछत्र राज चाहते थे। नियुक्ति का विरोध होगा इसलिए प्रबंधन ने मुझे हिन्दुस्तान अखबार के इंटरनेट संस्करण के लिए नियुक्त किया। प्रबंधन ने यूनियनवालों को बताया कि गणेश झा की नियुक्ति अखबार में नहीं बल्कि हिन्दुस्तान के इंटरनेट संस्करण के लिए की गई है। जब तक हिन्दुस्तान का इंटरनेट एडिशन चलेगा तभी तक के लिए उनकी यह नियुक्ति प्रभावी रहेगी। यूनियनवाले इस पर राजी हो गए। फिर भी यूनियन ने मेरी नियुक्ति का कुछ-कुछ विरोध तो किया ही। पर मेरी नियुक्ति के समय हिन्दुस्तान टाइम्समें इंटरनेट संस्करण का कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार ही नहीं हुआ था। और जब तक मैं वहां रहा अखबार को इंटरनेट पर लाने की कोई तैयारी नहीं की गई। दरअसल, मेरी नियुक्ति पर यूनियन के विरोध को शांत करने के लिए प्रबंधन को उनसे मेरी नियुक्ति अखबार के इंटरनेट संस्करण के लिए करने का झूठ बोलना पड़ा था। मैनेजमेंट ने यूनियनवालों से कहा कि जब तक इंटरनेट एडिशन शुरू नहीं हो जाता तब तक के लिए गणेश झा अखबार के डेस्क पर काम करेंगे।

हिन्दुस्तान टाइम्स का यूनियन था भी बहुत खूंखार। छोटी-छोटी बातों पर यूनियन के लोग मैनेजरों को पीट देते थे और प्रिंटिंग विभाग में भारी तोड़फोड़ कर देते थे। इस तरह की यूनियनबाजी उचित नहीं लगती थी। यह एक अति वाली स्थिति थी। यही वजह रही जो वहां यूनियन का अंत बड़ी ही बेदर्दी से किया गया और एकसाथ सैकड़ों कर्मचारियों की नौकरी चली गई। मुझे लगता है अगर यूनियनवाले हिसाब से चल रहे होते तो शायद आज भी वहां सारे लोग आनंद का जीवन जी रहे होते। बिड़ला जी (केके बिड़ला) की कंपनी में नौकरी सरकारी नौकरी से किसी मायने में कमतर नहीं होती थी। कुछ लोग तो बिड़ला जी की कंपनी में नौकरी को सरकारी नौकरी से कहीं ज्यादा लाभकर और बेहतर बताते थे। बाद में जब बिड़लाजी की बेटी शोभना भरतीया ने करोबार संभाला तब भी स्थितियां वैसी की वैसी ही रहीं। पर वर्ष 2000 के बाद से स्थतियां कुछ-कुछ बदलती गईं। जब शोभना भरतीया जी का बेटा विदेश में मेनेजमेंट पढ़कर भारत आया और कारोबार को समझना शुरू किया तो उन्होंने अपनी मां को जो फंडा बताया उससे एकाएक सबकुछ बदलना शुरू हो गया। दरअसल उनका यह फंडा सारे कर्मचारियों को बदल डालो यानी सबको निकाल बाहर करो वाला था। तब से सबकुछ ठेका प्रणाली यानी कांट्रेक्ट सिस्टम पर जाने लगा। यहीं से खत्म हो गया मालिक और कर्मचारियों का आपसी आत्मीय रिश्ता जिसकी बदौलत बिड़लाजी भारत में एक पनबाड़ी से इतने बड़े कारोबारी में तब्दील हो सके थे। बिड़ला जी की कलकत्ता की वह पान की दुकान आज भी याद दिलाती है कि बड़े बिड़लाजी (घनश्यामदास बिड़ला) कभी इसी दुकान में पान लगाया करते थे।

– गणेश प्रसाद झा

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पत्रकारिता की कंटीली डगर- 40

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की चालीसवीं किस्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 40

94. प्रभाष जोशी का जनसत्ता  प्रेम और उनकी जीवटता

प्रभाष जोशी ने जनसत्ता  में एक साप्ताहिक कॉलम लिखना शुरू किया जिसका नाम था कागद कारे । वे इसे हर रविवार को लिखते थे रविवारी जनसत्ता में। उनका यह कॉलम शायद इकलौता ऐसा कॉलम है जो इतने लंबे समय तक यानी कोई 17 साल तक लगभग अविराम लिखा गया। अपनी बाईपास सर्जरी होने के बावजूद बंबई के अस्पताल से भी वे कागद कारे लिखते ही रहे। इतनी संलग्नता और इतनी जीवटता  आज तक किसी और कॉलमिस्ट में नहीं देखी गई। ख़ासकर ऐसे समय में जब अपने देश का एक प्रधानमंत्री बाईपास सर्जरी के लिए गणतंत्र की परेड भी छोड़ देता है। पर प्रभाष जोशी मरते हुए भी अपना कालम नहीं छोड़ते हैं। इसके जरिए वे सच कहना नहीं छोड़ते हैं। सोचिए कि प्राण त्यागने की घड़ी आ पहुंची है और वे कागद कारे छपने के लिए भेज रहे हैं इसकी सूचना वे जनसत्ता में भेजना भी नहीं भूलते हैं। यह सब सिर्फ प्रभाष जोशी ही कर सकते थे। एक समय में कागद कारे पढ़ना लोगों के लिए अनिवार्य सा बन गया था। कभी प्रभाष जोशी हिंन्दी को शब्दों के दुरुपयोग और अज्ञानता के बोझ से उबारने के लिए ‘सावधान पुलिया संकीर्ण है’ जैसे लेख लिखा करते थे। राजनीति और समाज के चौखटे तो उनके नियमित लेखन के हिस्से थे। कई बार वे लामबंद भी हुए। पर अपने अंतिम कुछ वर्षों में वे पत्रकारिता में बढ़ते पाप और इसके नर्क बन जाने को लेकर, ब्यूरो के नीलाम होने को लेकर और विज्ञापन को ख़बर बनाकर छापने को लेकर जिस तरह से और जिस कदर टूट पड़े थे और किसी एक्टिविस्ट की तरह इसके खिलाफ जिस तरह हल्ला बोल रहे थे, वह हैरतंगेज भी था और लोमहर्षक भी। अपनी उस उम्र और तमाम तरह की बीमारियों से जूझते रहने के बावजूद पत्रकारिता और काम के प्रति उनके समर्पण और इस सबके लिए उनके जीवट होने का यह एक मजबूत तर्क भी है। उनका निकाला और बनाया हुआ जनसत्ता आज बहुत बुरी स्थिति में है और किसी तरह घिसट रहा है। पर मुझे यकीन है इन तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद इसकी गिनती हिन्दी के अच्छे प्रकाशनों में ही होगी।

95. सीधे प्रधानमंत्री से लोहा लेनेवाला अखबार

इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता ऐसे अखबारों में गिने जाते हैं जो किसी जिले के एसपी और डीएम से नहीं, सीधे देश के प्रधानमंत्री से लोहा लेता रहता है। और वह इसके नतीजे की भी कभी परवाह नहीं करता है। 1987 में इन अखबारों में हुई हड़ताल की वजह भी प्रधानमंत्री से पंगा लेना ही था। अपने शरीर पर उस ऐतिहासिक हड़ताल का दंश झेलनेवाले जनसत्ता के दिल्ली संस्करण के मेरे साथी संजय कुमार सिंह ने अपनी किताब पत्रकारिता जो मैंने देखा, जाना, समझा में लिखा है कि इंडियन एक्सप्रेस अखबार समूह के दिल्ली केंद्र में 1987 में हुई हड़ताल जब खत्म हुई तो शहर में लगे होर्डिंग पर लिखा था, इंडियन एक्सप्रेस एंड जनसत्ता आर बैक – इनस्पाइट ऑफ देम (इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता लौट आया है – उनलोगों के बावजूद)। यह सूचना खासकर उन लोगों के लिए थी जिन्हें 47 दिनों तक सरकार विरोधी ‘खुराक’ से वंचित रहना पड़ा था। पर ‘उनलोगों’ के लिए देश के मशहूर सत्ता विरोधी प्रतिष्ठान का संदेश अलग से था। यह अरुण शौरी के नाम से पहले पन्ने पर अंग्रेजी में छपे आलेख में था जिसकी शुरुआत हिन्दी में, “जोर है कितना दामन में तेरे, देख लिया है देखेंगे” से हुई थी। इसे अखबार में अंदर के पन्ने पर छपे पहले संपादकीय, “गुड मॉर्निंग मिस्टर गांधी” में भी दोहराया गया था।

इंडियन एक्सप्रेस के साथ सरकार की यह भिड़ंत 13 मार्च 1987 के इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह की एक चिट्ठी से शुरू हुई थी जो उन्होंने प्रधानमंत्री राजीव गांधी को लिखी थी। इसमें उन्होंने संसद में दिए गए प्रधानमंत्री के बयान की सच्चाई पर सवाल उठाए थे। वह चिट्ठी बहुत गुस्से में लिखी गई थी। इंडियन एक्सप्रेस में छपने के बाद वह चिट्ठी बहुत चर्चित हो गई थी। उस दौर में इंडियन एक्सप्रेस ने जो खबरें छापीं और सरकार ने जो जवाबी कार्रवाई की दोनों ही जबर्दस्त थे। रामनाथ गोयनका के उस समय के करीबी और सलाहकार एस गुरुमूर्ति और उनके चार्टर्ड एकाउंटेंट को गिरफ्तार कर लिया गया था। रामनाथ गोयनका, उनकी बेटी सरोज गोयनका और नाती विवेक खेतान को बार-बार पूछताछ के लिए बुलाकर खूब परेशान किया गया था। पर इतना कुछ करके भी सरकार इंडियन एक्सप्रेस का कुछ बिगाड़ नहीं पाई थी। कोशिश तो उसने बहुत की और नवंबर 1987 के तीसरे हफ्ते में कंपनी कानून बोर्ड ने धारा 237 (बी) के तहत नोटिस जारी करके इंडियन एक्सप्रेस के मामलों में व्यापक जांच के आदेश दे दिए थे। इस बारे में रामनाथ गोयनका और कानून के कई जानकारों ने सहमति जताई थी कि यह इंडियन एक्सप्रेस के बोर्ड में सरकारी निर्देशकों की नियुक्ति की शुरुआत हो सकती है। रामनाथ गोयनका ने कहा था कि यह सरकार की ऐसी चाल है जो अखबार की आजादी को नष्ट कर देगी और अखबार के चरित्र को ही खराब कर देगी। इसके बावजूद इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स (आईएफडब्ल्यूजे) मांग कर रहा था कि इंडियन एक्सप्रेस बोर्ड का पुनर्गठन किया जाए और इसमें पत्रकारों और कानून के जानकारों के साथ-साथ जानीमानी हस्तियों और पाठकों के साथ सरकार द्वारा नियुक्त एक रिसीवर को शामिल किया जाए। ऐसे लोगों का मानना था कि इंडियन एक्सप्रेस पत्रकारीय अधिकता और सक्रियता का दोषी है। वे इससे जुड़े बृहत्तर मसले को देख नहीं देख रहे थे या जानबूझकर देखना नहीं चाह रहे थे।

उस समय का सरकार विरोधी इंडियन एक्सप्रेस मुख्य रूप से विपक्षी दलों की आवाज था। पर उनसे भी अखबार को वैसा समर्थन नहीं मिला जैसा मिलना चाहिए था। ज्यादातर विपक्षी नेताओं की दलील थी कि अखबार कानून से ऊपर नहीं हैं। इंडियन एक्सप्रेस ने अगर कानून का उल्लंघन किया है तो कानून को कार्रवाई करने देना चाहिए। कुछ विपक्षी नेताओं का कहना था कि दूसरे अखबारों ने भी अगर ऐसा किया है तो उनके खिलाफ भी कार्रवाई होनी चाहिए पर यह कोई नहीं देख रहा था कि इंडियन एक्सप्रेस के किलाफ कार्रवाई उसके सरकार विरोधी होने के कारण चुनकर की जा रही थी, नियमों का उल्लंघन करने के लिए नहीं। इससे पहले खबर थी कि सरकार ने इंडियन एक्सप्रेस को दी गई जमीन का पट्टा रद्द करके वापस एक्सप्रेस बिल्डिंग की उस इमारत में घुसने का फैसला कर लिया था। सरकार का तर्क था कि कंपनी ने उस जगह का इस्तेमाल अखबार प्रकाशन से अलावा किसी और काम के लिए किया है और इसके लिए दिल्ली के भूमि व शहरी विकास अधिकारी से इजाजत नहीं ली गई है। पर यह भी नहीं हो पाया। इसके बावजूद इंडियन एक्सप्रेस के तेवर अब अगर वैसे नहीं हैं तो इसका कारण उसके मालिक से लेकर संपादक तक का बदल जाना ज्यादा है, सरकारी दमन का असर कम हो जाना कम। इसके अलावा इंडियन एक्सप्रेस समूह शुरू में ही कभी विज्ञापनों के भरोसे नहीं रहा और इसीलिए सरकार विरोधी होकर भी टिका रह सका। यह समूह बुनियादी तौर पर अपनी बिल्डिंग के किराए से चलता था। बाद में संपत्ति के आपसी बंटवारे में सबकुछ बदल गया और यह संभव नहीं रह गया। हां, अपनी उन विभिन्न तरह की दमनात्मक कार्रवाइयों के जरिए सरकार ने बाकी मीडिया समूहों को तो सीख दे ही दी और जिनमें पहले ही कोई दम नहीं था उनकी मौजूदा हालत आज भी लोग देख ही रहे हैं। और जो पैसे कमाने के लिए इस धंधे में आए उनका तो कहना ही क्या।

जहां तक इंडियन एक्सप्रेस, संपादक अरुण शौरी या मालिक रामनाथ गोयनका की बात है, राजीव गांधी की सरकार गिरने के बाद भी यह अखबार सरकार का भोंपू नहीं बना। और कहने वाले भले ही कहते हैं कि इंडियन एक्सप्रेस ने वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनाने की हर संभव कोशिश की और इसी क्रम में इंडियन एक्सप्रेस  के ही संपादक रहे शेखर गुप्ता ने प्रभाष जोशी और देवीलाल के निधन के बाद उनपर यह आरोप लगाया कि प्रभाष जोशी ने देवीलाल के दिए रुपए विश्वनाथ प्रताप सिंह को पहुंचाए थे। चौथी दुनिया के संपादक संतोष भारतीय ने इसके लिए शेखर गुप्ता की भारी निन्दा की थी और कहा था कि वे दो दिवंगत हो गए लगों के खिलाफ बेबुनियाद आरोप लगा रहे हैं जबकि वे जानते हैं कि दोनों लोग अब अपना बचाव नहीं कर सकते। यही नहीं, शेखर गुप्ता ने यह आरोप वर्षों बाद लगाया और गवाह के रूप में तीन पद्म पुरस्कार विजेता पत्रकारों का नाम लिया। संतोष भारतीय ने उन तीनों पद्म पुरस्कार विजेताओं से अलग-अलग बात कर ली और उस बातचीत में तीनों ने मना कर दिया। इस तरह, शेखर गुप्ता ने प्रभाष जोशी पर आरोप लगाकर इस बात की भी पुष्टि कर दी कि इंडियन एक्सप्रेस ने वीपी सिंह के पक्ष में अगर कुछ किया भी होगा तो वह गलत या गैर कानूनी नहीं होगा। दूसरी ओर, अरुण शौरी ने उस समय के शक्तिशाली उप प्रधानमंत्री देवीलाल के खिलाफ इंडियन एक्सप्रेस  के पहले पन्ने पर एक खबर छापी थी जिसकी हेडिंग थी, ‘डिप्टी पीएम साहिब बात करेंगे।‘ इसमें उन्होंने देवीलाल के तकियाकलाम, हिन्दी की एक गाली को बोल्ड अक्षर में छाप दिया था और यह भी लिख दिया था कि वे कैसे बातें करते हैं। इस तरह इंडियन एक्सप्रेस  कांग्रेस पार्टी की राजीव गांधी की सरकार को गिराने के बाद भी अपने स्वभाव के मुताबिक सरकार का विरोधी ही बना रहा।

इंडियन एक्सप्रेस  के उस समय के महाप्रबंधक सुशील गोयनका ने उसी समय अपने मित्रों और आलोचकों के बीच यह सवाल रखा था, “इस संघर्ष से हमें क्या मिल रहा है? जबकि इसकी वजह से हमें भारी नुकसान हो रहा है। हमारा हित तो यही हो सकता है कि प्रेस की आजादी को कायम रखा जाए। जो सही है उसके लिए लड़ा जाए और दमन व अन्याय के खिलाफ नहीं झुका जाए।” पर अब उनकी उन पुरानी बातों पर नजर डालते हैं तो लगता है कि सुशील गोयनका के सवाल में दम था। इंडियन एक्सप्रेस  के खिलाफ जिन मामलों में कार्रवाई की गई वैसे ही मामलों में दूसरे मीडिया घरानों से कुछ नहीं पूछा गया। यह अलग बात है कि इन्हीं कारणों से सरकार इंडियन एक्सप्रेस  के खिलाफ भी कुछ ठोस नहीं कर पाई, लेकिन अखबार का जो नुकसान होना था वह तो हो ही गया। और नुकसान सिर्फ इंडियन एक्सप्रेस का नहीं, पूरी मीडिया, लोकतंत्र और देश का भी हुआ। रामनाथ गोयनका के नेतृत्व में इंडियन एक्सप्रेस प्रबंधन सरकार से भिड़ने का खामियाजा जानता था फिर भी वह लड़ने और अपनी लड़ाई को जारी रखने के लिए तैयार था। उन्हीं दिनों एक हस्ताक्षरित बयान में रामनाथ गोयनका ने कहा था, “जहां तक मेरा सवाल है, मैं सिर्फ यही कहूंगा कि इस तरह की मनमानी के आगे मैं घुटने नहीं टेकूंगा। अपने अंतिम सांस तक मैं आजादी के उन सिद्धांतों के लिए लड़ूंगा जिनके लिए महात्मा गांधी के नेतृत्व में संघर्ष किया था। इंडियन एक्सप्रेस समूह के हर पाठक और इस देश में आजादी से प्यार करने वाले हर व्यक्ति के प्रति मेरा यह वादा है।” अब न ऐसा वादा करने वाले लोग रहे और न ऐसा वादा करने की हैसियत रखने वाले लोग ही हैं। इसलिए अब इन बातों पर सिर्फ अफसोस ही जताया जा सकता है। आप किसी से कैसे कहेंगे कि कारोबार करो पर मुनाफा न कमाओ या निवेश करो पर लाभ की कोई उम्मीद न करो। यह तो कोई अपनी इच्छा से ही करेगा। या फिर कोई ऐसा तब करेगा जब वह रामनाथ गोयनका बनना चाहेगा।

96. जनसत्ता का प्रकाशन भी मुनाफे के लिए ही हुआ था

जनसत्ता के पत्रकार संजय कुमार सिंह ने अपनी किताब में शुरू के दिनों की बातें बताते हुए लिखा है कि मालिक रामनाथ गोयनका ने इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप से हिंदी का अख़बार जनसत्ता का प्रकाशन शुरू किया था तो सिर्फ मुनाफा कमाने के लिए किया था। उन्होंने हिंदी की सेवा के लिए यह अखबार बिल्कुल नहीं निकला था। मतलब जनसत्ता के शुरू होने के पीछे एक विशुद्ध व्यावसायिक गणित था। उन दिनों दिल्ली में टाइम्स आफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स और इंडियन एक्सप्रेस तीनों ही अख़बारों में ट्रेड यूनियनों का ज़बरदस्त दबदबा था। साथ-साथ अखबारों पर यूनियन का ज़बर्दस्त दबाव भी रहता था। हालत यह थी कि यूनियन की कोई मांग अगर अखबार प्रबंधन न माने तो छोटी-छोटी बातों पर भी काम बंद कर दिया जाता था या फिर हड़ताल हो जाया करती थी। कभी-कभी यह हड़ताल लंबी भी खिंच जाती थी। तो अगर टाइम्स आफ इंडिया में हड़ताल हो जाती थी या हिंदुस्तान टाइम्स में हो जाती थी तो दोनों ही अखबारों की हड़तालों का फ़ायदा इंडियन एक्सप्रेस को नहीं मिल पाता था। इंडियन एक्सप्रेस का अपनी कॉपियां बढ़ाकर बेचने का गणित नहीं बैठ पाता था क्योंकि इंडियन एक्सप्रेस के पास अपना कोई हिंदी का अख़बार नहीं था। ऐसे में अगर हिंदुस्तान टाइम्स में हड़ताल होती थी तो हॉकरों की बाध्यता होती थी कि वह हिंदुस्तान टाइम्स की जगह टाइम्स आफ इंडिया ही लें तभी उन्हें नवभारत टाइम्स की कॉपियां बढ़ा कर दी जाएंगी। यही बात तब टाइम्स आफ इंडिया में हड़ताल होने पर भी होती थी। जो हॉकर हिंदुस्तान टाइम्स की बढ़ी कॉपियां लेता था उसी को हिंदुस्तान हिंदी की बढ़ी हुई कॉपियां मिलतीं थीं। अपना हिंदी का अख़बार न होने की वजह से इंडियन एक्सप्रेस हर बार घाटे में रह जाता था। इसीलिए उसे जनसत्ता निकालना पड़ा।

जनसत्ता आजादी के कुछ साल बाद ही प्रकाशित हो गया था। इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप ने इसे 1950 के आसपास अपने हिन्दी अखबार के रूप में प्रकाशित किया था बताते हैं। पर वह ज्यादा दिनों तक चल नहीं पाया था। थोड़े समय तक छपने के बाद वह बंद हो गया था। तब वह शायद दो-तीन साल तक ही निकला था। कहते हैं एक विवाद के चलते रामनाथ गोयनका ने अपने हिंदी अखबार जनसत्ता को तब बंद कर दिया था। बहुत बाद में इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप ने मुंबई से गुजराती में भी जनसत्ता नाम से अख़बार छापा था। इसके अलावा मराठी में लोकसत्ता का प्रकाशन हुआ था। बहुत बाद में 1983 में जनसत्ता का पुनर्प्रकाशन हुआ। इस जनसत्ता के प्रकाशन की प्रतीक्षा में प्रभाष जोशी को इंडियन एक्सप्रेस में नौ साल गुज़ारना पड़ा था। इंडियन एक्सप्रेस के दिल्ली, चंडीगढ़ और अहमदाबाद संस्करणो के वे संपादक रहे। तब के दिनों में जनसत्ता के आने की ख़बर दिल्ली में हर साल चलती थी। इस तरह प्रभाष जोशी जनसत्ता के संस्थापक संपादक नहीं हैं। उन्हीं दिनों दिल्ली में द स्टेट्समैन के हिंदी अख़बार नागरिक के प्रकाशन की भी चर्चा खूब चलती थी। यह चर्चा 2012 तक भी होती रही थी। यहां तक कि इस चर्चा में 1990 के आसपास एक बार तो नागरिक के संपादक के रूप में रघुवीर सहाय का नाम भी आ गया था। उनकी टीम के लोगों के नाम भी लिए जाने लगे थे। पर इतनी चर्चाएं होते रहने पर भी नागरिक कभी नहीं निकला।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....


शुक्रवार, 30 सितंबर 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 39

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की उनतालीसवीं किस्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 39

91. एक्सप्रेस की हड़ताल से उठते मुद्दे

इंडियन एक्सप्रेस की 1987 की वह हड़ताल एक अभूतपूर्व हड़ताल थी जो सिर्फ एक्सप्रेस ही नहीं देश की पूरी मीडिया इंडस्ट्री की आखिरी हड़ताल साबित हुई। यह हड़ताल बोनस को लेकर हुई थी। अखबार प्रबंधन 15 प्रतिशत बोनस देने को तैयार था और हडताली बोनस को 20 प्रतिशत करने की मांग कर रहे थे। ईमानदारी से अगर कहें तो बोनस उद्योग मालिक की खुशी पर निर्भर होता है। नियमानुसार बोनस 8.33 प्रतिशत देने की तब अनिवार्यता थी। श्रम कानूनों के तहत उस समय हड़ताल करना किसी भी श्रमिक का कानूनी अधिकार होता था। उसी संवैधानिक व्यवस्था के तहत ही यह अभूतपूर्व हडताल हुई थी। यहां एक राय यह भी उभरती है कि कानूनन जब यही नियम था और यही वास्तविकता भी थी तो फिर यह हड़ताल हुई ही क्यों। इसीलिए कुछ लोग आज भी कह रहे हैं कि इस हड़ताल का मुद्दा असल में क्या था यह आज तक कभी साफ नहीं हुआ। हडताल को तुड़वाने वाले भी पुरस्कृत हुए और हडताल करने वाले और संपादक को भी न बख्शने वाले को भी बख़्शीश मिली। एक उद्योग के अंदर बोनस के मुद्दे पर प्रबंधन और श्रमिकों में ठनती है। लेकिन इतने छोटे मुद्दे को क्यों फिर इतना बडा क्यों बना दिया गया?

आज भी संस्थान के ही कुछ पत्रकार सवाल उठा रहे हैं कि कहीं भी इस पर ध्यान नहीं दिया जा सका कि हडताल के दौरान भी इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता निकलता रहा। यह क्या कंपनी की कोई रणनीति थी और कौन लोग ऐसा कर और करा रहे थे? इस सबकी वजह क्या थी? अखबारों को अखबारों के डीलर कुछ फोटो सेशन के लिए जला भी रहे थे। इस हडताल में एक राजनीतिक दल विशेष के नेताओं ने क्यों शिरकत की? इस हड़ताल में सत्ता का क्या रुख था? इंडियन एक्सप्रेस प्रबंधन पर सत्ता ने क्या कुछ आरोप लगाए थे? इन सवालों पर भी सोचा, समझा और लिखा जाना चाहिए। वैसे सच तो यही है कि श्रमिक हड़तालों को राजनैतिक दल एक अर्से से इस्तेमाल करते आ रहे हैं। इन सभी बातों की पड़ताल के लिए एक रिसर्च की जरूरत तो है ही। आज जो श्रमिक कानून हैं वे सिर्फ दिखावे के रह गए हैं। लेकिन अखबारी दुनिया की इस आखिरी हडताल की बुनियादी बातों पर पूरी गंभीरता से सोचने की जरूरत है। यह हडताल मीडिया की आखिरी हड़ताल रही। इसके बाद तो तमाम अखबार मालिक और मैनेजर खासे ताकतवर भी होते गए। यूनियनें, खासकर कुछ प्लांट यूनियनें आज आखिरी सांसें ले रही होंगी। पत्रकार संगठन भी तो अब केवल लेटरहेड पर ही बचे हैं। अखबारों के दफ्तरों की ये कर्मचारी यूनियनें अब अपनी किस तरह की भूमिका अदा करेंगी कहना मुश्किल है। इन यूनियनों के लोग क्या अब अपनी बनाई प्रोपर्टी को सहेजेंगे या फिर किसी और तरीके से कुछ करेंगे? दक्षिण भारत में तेलंगाना और हैदराबाद में अभी आईजेयू मजबूत दिखता है। इसी तरह की स्थित केरल में और तमिलनाडु में भी दिखती है। पांडिचेरी और उत्तर पूर्व में खासकर असम में राष्ट्रीय अखबारों और पीटीआई में कुछ एक्टिविटी होती जरूर दिखती है। लेकिन वहां भी उदासीनता भयानक है। कुछ साल पहले सैकड़ों पत्रकारों-गैर पत्रकारों को एक साथ नौकरी से निकाल दिए जाने का विरोध तो हुआ पर आज तक उन कर्मचारियों को नौकरी पर वापस नहीं लिया गया है। झारखंड, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश मे कहीं कोई यूनियन नहीं जान पडती।

दूसरी तरफ किसी भी हड़ताल में मजदूरों की भागीदारी शत प्रतिशत नहीं होती है।  हो भी नहीं सकती। इंडियन एक्सप्रेस की हड़ताल तो वैसे भी कथित रूप से कांग्रेस ने कराई थी, भले ही बाद में पता चला कि संपादक (अरुण शौरी) भाजपा और आरएसएस के कितने करीबी थे। हड़ताल के पीछे मुद्दा तो बोनस और अन्य मांगें ही थीं। ये मांगें बाकायदा यूनिनन ने की थी और वह एक सही-सच्ची हड़ताल थी जिसे प्रचारकों ने बदनाम किया और कंपनी के साथ जो प्रचारक और संघ के लोग थे उनकी भूमिका देख-याद कर लीजिए उससे सब कुछ साफ हो जाता है। उन्हें यूनियन की मांग या फिर कर्मचारियों की जरूरतों से कोई लेना-देना ही नहीं था। हताशा में हड़तालियों ने हिंसा का सहारा लिया और मारे गए। 

हड़ताल तोड़ने की कोशिशें इतने साल बाद अब बताती हैं कि यह मामला संघ और कांग्रेस का आपसी मामला हो सकता है। आज इतने साल बाद भी इसपर उठे सवाल कायम तो हैं। जहां तक हड़ताल के दौरान अखबार निकलने की बात है तो कहने की जरूरत नहीं है कि उस समय आज की तरह तकनीक नहीं होने के कारण मैनेजमेंट की वह कोशिश बुरी तरह नाकाम रही थी। मुद्दे की एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि 'स्वतंत्र प्रेस' ने अपने कर्मचारियों को वेजबोर्ड की सिफारिशों के मुताबिक वेतन नहीं दिया और कंपनी के समर्थक विपक्ष ने वेजबोर्ड की सिफारिशों को लागू कराने में कोई भूमिका नहीं निभाई।

92. जनसत्ता आखिर जनसत्ता क्यों था

जनसत्ता अगर जनसत्ता था तो सिर्फ और सिर्फ प्रभाष जोशी की वजह से था। जनसत्ता के अच्छे होने का श्रेय अगर किसी और को दिया जा सकता है तो इस बात को कि यह इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप का अखबार था या फिर यह कि इसके मालिक रामनाथ गोयनका थे। जनसत्ता की टीम को भी इसकी कामयाबी का श्रेय जाता है पर यह इंडियन एक्सप्रेस समूह की साख और प्रभाष जोशी के स्टाफ सेलेक्शन से भी संभव हुआ था। प्रभाष जोशी के चुनाव में विविधताएं थीं और खुद भी वे अखबार के सारे काम जानते थे और बहुत ही अच्छे ढंग से उसे करते भी थे। अखबार के दैनिक कामकाज से उनका खासा जुड़ाव था और जनसत्ता में कितने ही चर्चित शीर्षक उन्होंने खुद लगाए थे। अखबारों में खबरों के शीर्षक कौन लगाता है और जो लगाता है उसे इसका श्रेय देने का कोई रिवाज नहीं है पर जनसत्ता में कई बार वे बड़े आराम से ऐसे शीर्षक लगा देते थे जो अच्छे होने के साथ-साथ पूरी खबर को बयान कर देते थे और संबंधित खबर के लिए सर्वश्रेष्ठ शीर्षक हो सकते थे। वैसे तो यह सब जानी हुई बातें हैं पर जिन लोगों ने जनसत्ता नहीं पढ़ा है उनके लिए यह सब पढ़ना और जानना एक अजूबा ही होगा।

जनसत्ता के शुरुआती दिनों के हमारे साथी दयानंद पांडेय ने अपने ब्लॉग में लिखा है कि अख़बार छपने के शुरुआती दिनों की बात है। प्रभाष जोशी जी जनरल डेस्क पर बैठे कोई ख़बर लिख रहे थे। उनकी आदत सी थी कि जब कोई ख़ास घटना घटती थी तो वे टहलते हुए जनरल डेस्क पर आ जाते थे और ‘हेलो चीफ सब!’ कह कर सामने की एक कुर्सी खींच कर उसी पर किसी उप संपादक की तरह बैठ जाते थे। फिर वे चीफ सब से उस संबंधित ख़बर से जुड़े तार (टेलीप्रिंटर से आई समाचार एजेंसियों की खबरों के टेक यानी टुकड़े) मांगते और ख़बर लिखने लग जाते। खबर लिख कर शिफ्ट इंचार्ज यानी चीफ सब एडीटर को देते हुए कहते, ‘जैसे चाहिए इसका इस्तेमाल करिए।’ जोशी जी की आदत थी कि जब वे कोई ख़बर लिख रहे होते या कुछ और भी लिख रहे होते तो डिस्टरवेंस बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। पर उस दिन वे लिख रहे थे तभी एक फ़ोन आ गया। फोन मनमोहन तल्ख़ ने रिसीव किया और प्रभाष जी को बताया कि, ‘मोहसिना किदव ई जी का फ़ोन है।’ ‘यह कौन हैं?’ जोशी जी ने बिदक कर पूछा। ‘यूपी के बाराबंकी से सासंद हैं।’ मनमोहन तल्ख़ ने अपनी आदत और रवायत के मुताबिक़ उसमें जोड़ा, ‘बड़ी खूबसूरत महिला हैं।’ ‘तो?’ जोशी जी और बिदके। बोले, ‘कह दीजिए बाद में फ़ोन करें।’ लेकिन पंद्रह मिनट में जब कोई तीन बार मोहसिना किदवई ने फ़ोन कर दिया तो जोशी जी को फ़ोन पर आना पड़ा। दरअसल, मोहसिना किदवई के खि़लाफ जनसत्ता में बाराबंकी डेटलाइन से एक ख़बर छपी थी। उसी के बारे में वे जोशी जी से बात कर रही थीं। वे उधर से जाने क्या कह रही थीं, जो इधर सुनाई नहीं दे रहा था। पर इधर से जोशी जी उनसे जो कुछ कह रहे थे वह तो हमें साफ-साफ सुनाई दे रहा था। जाहिर है मोहसिना किदवई जी उधर से अपने खि़लाफ ख़बर लिखने वाले जनसत्ता के रिपोर्टर की ऐसी तैसी करती हुई उन्हें हटाने की तजवीज दे रही थीं। पर इधर से प्रभाष जोशी जी अपनी तल्ख़ आवाज़ में उन्हें बता रहे थे कि, ‘रिपोर्टर जैसा भी है उसे न आपके कहने पर रखा गया है, न आपके कहने से उसे हटाया जाएगा। रही बात आप के प्रतिवाद की तो आप उसे लिख कर भेज दीजिए, अगर ठीक लगा तो वह भी छाप दिया जाएगा।’ उधर से मोहसिना किदवई ने फिर कुछ कहा तो जोशी जी ने पूरी ताकत से उनसे कहा कि, ‘जनादेश की बात तो हमें आप समझाइए नहीं। आप पांच साल में एक बार जनादेश लेती हैं तो हम रोज जनादेश लेते हैं। और लोग पैसे खर्च करके अख़बार ख़रीदते हैं और जनादेश देते हैं। बाक़ी आपको जो कुछ भी करना हो आप कर सकती हैं, इसके लिए आप स्वतंत्र हैं।’ इतना कह कर प्रभाष जी ने फ़ोन रख दिया। जनता द्वारा अख़बारों को दिए गए इस जनादेश की ताकत का इस तरह बखान सिर्फ और सिर्फ संपादक प्रभाष जोशी ही कर सकते थे। आज के समय में विज्ञापन को ख़बर बता कर, पैसे लेकर ख़बर छापने वाले संपादक किस बूते पर और किस मुंह से अखबार और कलम की इस ताकत का बखान कर सकते हैं?

एक दूसरा वाकया बिहार का है। बिहार में उन दिनों लालू यादव की सरकार थी। पटना से बिहार के विशेष संवाददाता थे सुरेंद्र किशोर। लालू यादव और सुरेंद्र किशोर साथ ही पढ़े थे। पर यह सर्वविदित था कि खबर लिखने में सुरेंद्र किशोर कभी किसी के प्रति कोई सॉफ्ट कार्नर नहीं रखते थे। वे किसी को नहीं छोड़ते थे। सुरेंद्र किशोर की खबरों से लालू यादव खासे परेशान रहते थे। एक बार लालू यादव ने प्रभाष जोशी जी को फोन करके सुरेंद्र किशोर की भर पेट शिकायत की और कहा कि “आपका रिपोर्टर सुरेंद्र किशोर हमेशा मेरे खिलाफ उलूल जलूल लिखता रहता है, उसे आप नौकरी से निकाल दीजिए।” इसपर प्रभाष जी ने लालू यदव से ठीक वही लाइन कही कि “न तो सुरेंद्र किशोर को हमने आपके कहने से रखा है और न हम आपके कहने से उनको हटाएंगे। आपको अपने बारे में छपी खबरों पर अगर कुछ कहना है तो उसे आप लिखकर भेज दीजिए, जरूरी लगा तो हम उसे भी छाप देंगे।” प्रभाष जोशी के साहस की इस तरह की और भी कई कहानियां हैं।

जनसत्ता  यानी न भूतो, न भविष्यति। हिंदी पट्टी में ख़बरों के मामले में जनसत्ता जैसा तल्ख तेवर वाला अख़बार पहले कभी देखा नहीं गया था और आज तक भी ऐसा कोई अखबार नहीं आया है। यही वजह रही जो चंद दिनों में ही जनसत्ता ढाई लाख की प्रसार संख्या को पार करने लगा। कभी मीटिंग में उन दिनों जोशी जी बताते नहीं अघाते थे कि उस समय देश में सर्वाधिक प्रसार संख्या वाला अख़बार पश्चिम बंगाल से छपनेवाला बांग्ला भाषा का अखबार आनंद बाज़ार पत्रिका था। प्रभाष जी उस समय उसकी प्रसार संख्या सात लाख बताते थे और कहते थे कि अगर बांग्ला में कोई अख़बार सात लाख बिक सकता है तो फिर हिंदी में क्यों नहीं? पर उन्हीं दिनों प्रभाष जोशी को जनसत्ता में एक विशेष संपादकीय लिखकर पाठकों से निवेदन करके कहना पड़ा कि “कृपया अब जनसत्ता ख़रीद कर नहीं, मांग कर पढ़िए। हम अब इससे ज्यादा नहीं छाप सकते।” इस पर प्रभाष जी दफ्तर में मीटिंग में अंदर की बात बताते थे कि मालिक रामनाथ गोयनका जी ने जनसत्ता की इस बढ़ती मांग पर उनसे कहा है कि या तो दो मशीनें लगाकर अख़बार अब पांच लाख छापिए या फिर उसे यहीं ढ़ाई लाख पर रोक दीजिए। बीच का कोई रास्ता नहीं था इसलिए जनसत्ता को ढाई लाख पर ही रोक देना पड़ा। अख़बार की छपाई, कागज का खर्च और व्यापार की लाभ-हानि का यह एक तकनीकी गुणा भाग था।

93. अंग्रेजी अखबारों का जूठन नहीं था जनसत्ता

जनसत्ता का प्रकाशन जब शुरू हुआ तो जनसत्ता के साथ-साथ हिंदी पत्रकारिता की धरती पर प्रभाष जोशी नाम का एक देदिप्यमान सूरज भी उदित हुआ। जनसत्ता और उसके यशस्वी संपादक प्रभाष जोशी दोनों की चमक उन दिनों देखने लायक़ होती थी। एक दूसरे की चमक से दोनों ही आप्लावित थे। दिल्ली की मीडिया में वह भी उन दिनों एक ग़ज़ब का मंजर हुआ करता था। जो भी अखबार देखता था वह जनसत्ता और उसके संपादक के रूप में प्रभाष जोशी का नाम देखता था और तब वह बरबस ही पूछ बैठता था कि, ‘यह आदमी अब तक कहां छिपा हुआ था।’ हिन्दी में यह नाम तो पहले भी था पर इतनी चमक और धमक उसके हिस्से नहीं थी और इसीलिए लोग प्रभाष जोशी को नहीं जान पाए थे। उन दिनों हिन्दी में लोग सिर्फ धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, अज्ञेय, कमलेश्वर, मनोहर श्याम जोशी, राजेंद्र अवस्थी, कन्हैयालाल नंदन, अक्षय कुमार जैन,  गोपाल प्रसाद व्यास, इलाचंद्र जोशी, मोहन राकेश, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, महेश्वर दयालु गंगवार, रामानंद दोषी और सुरेंद्र प्रताप सिंह जैसे साहित्यकारों को ही जानते और मानते थे। लगभग ये सभी लोग हिन्दी पत्रिकाओं के संपादक थे। हिन्दी के दैनिक अख़बारों के संपादकों की उन दिनों कोई हैसियत ही नहीं समझी जाती थी। उन दिनों हिन्दी के सभी दैनिक अख़बारों की हालत बिल्कुल दरिद्रता वाली थी। प्रभाष जोशी नाम के सूरज ने हिंदी साहित्य और पत्रकारिता की धरती पर जो रोशनी फैलाई, उसे जो ऊष्मा प्रदान किया और उसके पटल पर जो सुंदरता विखेरी वह अविरल, अद्भुत और अविस्मरणीय थी।

हमेशा से अंगरेजी अख़बारों की जूठन और उतरन पर जीने खाने वाली हिन्दी पत्रकारिता को दरअसल प्रभाष जोशी के संपादन में निकलने वाले जनसत्ता ने अंगरेजी अख़बारों के उस जूठन और उतरन के सहारे जीने से मना कर दिया था। प्रभाष जोशी ने अंगरेजी अख़बारों के छिछले अनुवादों से पटे पड़े हिंदी के अख़बारों के संपादकीय या संपादकीय पेज वाले लेखों में अंगरेजी अख़बारों के कचरे से पूरी तरह छुट्टी दिला दी। टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप के हिन्दी अखबार नवभारत टाइम्स के प्रबंधन ने हिन्दी पत्रकारिता में अचानक आए इस बदलाव की समय रहते पहचान कर ली थी और इंदौर के प्रतिष्ठित अखबार नई दुनिया से राजेंद्र माथुर को लेकर आ गए थे। प्रभाष जोशी भी इसी अखबार से निकलकर आए थे। जो काम प्रभाष जोशी जनसत्ता में कर रहे थे, वही काम राजेंद्र माथुर नवभारत टाइम्स में आकर किया करते थे। शायद दोनों की पृष्ठभूमि एक होने की वजह से ही यह एकरूपता थी। राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी दोनों में कई बातें एकसमान थीं। पत्रकारिता की समझ, लिखने की क्षमता और हिंदी पत्रकारिता को बदल डालने की बेचैनी इन दोनों पत्रकारों में कूट-कूट कर भरी हुई थी और वह दूर से भी दिखाई दे जाती थी।हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप का हिन्दी अखबार हिन्दुस्तान तो बहुत बाद में नींद से जागा था। तब तक हिन्दी पत्रकारिता की नदी में काफी पानी बहा दिया जा चुका था।हिन्दुस्तान को तो नकल करनेवाला अखबार ही माना गया।

प्रभाष जोशी को जनसत्ता में स्टाफ रखने से लेकर ख़बर और कंटेंट तक की जितनी आजादी मालिक से मिली हुई थी उतनी किसी और अखबार के संपादक को नहीं थी। जैसे जब केंद्र में कोई प्रधानमंत्री या राज्यों में मुख्यमंत्री अपनी कैबिनेट बनाता है तो क्षेत्रीय संतुलन और जातीय संतुलन का ध्यान रखते हुए अपने करीबियों का भी खयाल रखता है। साथ-साथ वह अपनी पसंद और नीति को भी ध्यान में रखता है। प्रभाष जोशी ने जनसत्ता में नियुक्तियां करते समय बहुत कुछ यही किया था। जनसत्ता में वे हर क्षेत्र के लोगों को लेकर आए थे। जनसत्ता में हर तरह के लोग थे। हमारे एक साथी बालासुंदरम गिरि हिन्दी में भले उन्नीस थे पर वे तमिल के जानकार थे। जनसत्ता में मराठी और उर्दू जानने वाले साथी भी लिए गए थे। दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल से भी लोग लाए गए थे। बहरहाल प्रभाष जोशी जी की किचेन कैबिनेट में तब दो ही लोग थे। बनवारी और हरिशंकर व्यास। दोनों लोग बिना किसी लिखित परीक्षा के लिए गए थे। ये दोनों लोग प्रभाष जोषी की आंख और कान थे। पर थे दोनों एक दूसरे के पूरी तरह उलट। बिल्कुल दो ध्रुव। बनवारी जी सर्वोदयी थे तो हरिशंकर व्यास संघी। बनवारी जी खादी पहनने वाले तो हरिशंकर व्यास पालिएस्टर। दोनों की सोच समझ में भी बहुत का फर्क था। ज़मीनी हकीकत भी दोनों के अलग-अलग थे। इस तरह जनसत्ता में कुल तीन धाराएं थीं। तीनों बेजोड़। शायद इसी विचित्र कांबीनेशन की वजह से जनसत्ता अखबार जनसत्ता ब्रांड बन पाया था।

जनसत्ता का एक स्लोगन यानी नारा था- सबकी खबर ले, सबको खबर दे । इसे हमारे साथी कुमार आनंद ने रचा था। प्रभाष जोशी जी ने एक मीटिंग बुलाकर सभी साथियों से जनसत्ता के लिए एक-एक स्लोगन लिखने को कहा। यह भी कह दिया कि स्लोगन को कविता के अंदाज में लिखा जाना चाहिए। सभी ने इसे बड़े उत्साह से लिखा। पर कुमार आनंद का लिखा स्लोगन ही पास हुआ। प्रभाष जोशी जी को सबसे ज़्यादा यही स्लोगन पंसद आया। फिर तो देश भर में जनसत्ता के लिए लगाए गए तमाम होर्डिंग्स पर और विज्ञापनों में भी यही स्लोगन लिखा गया। यही स्लोगन आम फहम हो गया। उन दिनों जनसत्ता सबकी ख़बर ले, सबको ख़बर दे का एक पर्याय बन गया था। देश के हर खासो-आम को उन दिनों जनसत्ता के पन्नों में अपनी आवाज़ सुनाई देती थी और अपना चेहरा दिखाई देता था। जनसत्ता को उन दिनों लोग रामनाथ गोयनका या फिर इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप का अख़बार नहीं, प्रभाष जोशी का अख़बार जानते थे। हिन्दी पत्रकारिता के पटल पर यह एक अविश्मरणीय और बहुत बड़ी घटना थी। पहली बार किसी अंग्रेजी संस्थान में हिंदी की तूती इस तरह बजी कि न भूतो न भविष्यति। खासियत यह भी थी कि जनसत्ता अख़बार और पत्रिका दोनों का मज़ा एक साथ देता था। यह चीज उस समय हिन्दी पत्रकारिता में कहीं और नहीं थी। जनसत्ता में सप्ताह के दो-दो दिन ख़ास ख़बर और खोज ख़बर का फीचर पेज होता था। इसके अलावा एक-एक दिन खेल, कला और सिनेमा का पेज भी बनता था। और हर रविवार को पूरे चार पन्नों का साहित्य रविवारी जनसत्ता । इन पन्नों के जरिए देशभर की जनपदीय और मुफस्सिल की पत्रकारिता से जुड़ने और वहां के लोगों को अखबार से जोड़ने का यह अद्भुत और एक दुर्लभ प्रयोग किया गया था। इसमें अखबार के संवाददाताओं के अलावा भी कोई भी लेखक-पत्रकार किसी भी विषय पर किसी भी तरह का प्रामाणिक ख़बर लिख कर बेहिचक और आराम से छप सकता था। यह प्रयोग बहुत सफल रहा और इस तरह जनसत्ता में लोग खूब छपे। इससे भी जनसत्ता को खूब ख्याति मिली। उन दिनों कलकत्ता से छपने वाली आनंद बाजार पत्रिका ग्रुप की हिन्दी समाचार पत्रिका रविवार ने हिंदी पत्रकारिता में जो तेवर और जो रवानगी पिरोई थी उसी तेवर और रवानगी को जनसत्ता ने परवान चढ़ा दिया।

– गणेश प्रसाद झा

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