रविवार, 15 मई 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 20

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की बीसवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 20

46, स्थानीय संपादक की अखबारी समझ

हम पत्रकार हैं तो इसका मतलब यह कतई नहीं कि हम गलतियां नहीं करते। हमसे भी गलतियां होती हैं और रोज होती हैं। गलतियां मैंने भी की है और खूब की है। हम रोज कुआं खोदते हैं और रोज पानी पीते हैं। यह हमारा रोज का काम होता है और हम पर खबरों का काफी दबाव भी होता है। फिर अखबार और उसके पन्नों के छूटने की डेडलाइन भी होती है जो काफी टाइट होती है। इसलिए हमें बहुत फास्ट मोड में काम करना होता है। ऐसे में गलतियां होना तो लिजिमी है। काम होगा तो गलतियां भी होंगी ही। पर ऐसी उम्मीद और अपेक्षा की जाती है कि डेस्क के लोग जब गलती करें तो समाचार संपादक और संपादक उसे पकड़ ले और अखबार में गलती छप जाने से बच जाए।

बंबई में हमारे इम्मेडियट बॉस हमारे स्थानीय संपादक राहुलजी ही थे। हम अपना फाइनल पेज उन्हें ही दिखाते थे। पर वे उसमें सिर्फ मात्राएं, कॉमा और फुलस्टॉप ही पकड़ पाते थे। एक बार हमारे साथी उप संपादक चंदर मिश्र ने किसी खिलाड़ी के संन्यास लेने की खबर की हेडिंग में संन्यास शब्द सही-सही लिखा पर राहुलजी उसे गलत ठहराने लगे और संन्यास शब्द को गलत तरह से लिखकर जाने देने पर अड़े रहे। अंत में उनको शब्दकोष दिखाना पड़ा। इसलिए जब भी हमसे कुछ ब्लंडर हो जाता था तो वह उनकी नजर में नहीं आ पाता था। उनके इस अल्प ज्ञान पर हम भी निश्चिंत रहते थे कि सुबह हमारी कोई क्लास नहीं लगनेवाली। अगली सुबह भी अखबार देखकर वे उस ब्लंडर को नहीं पकड़ पाते थे। खबरों के चुनाव और लीड खबर का चयन जैसे मामलों में वे कभी तर्क सहित अपनी अलग और मजबूत राय नहीं रख पाते थे। क्या खबर लीड होनी चाहिए इस पर वे कभी कोई सटीक सलाह भी नहीं दे पाते थे। उनका सारा ध्यान बंबई शहर में होनेवाले बिजनेस प्रेस कांफ्रेंसों पर रहने लगा था। वे हमेशा वहां कारपोरेटी जुगाड़बाजी से अपने लिए कोई बड़ा खेल करने की जुगत में ही लगे रहते थे। इस वजह से वे शाम के सात बजे दप्तर आने लगे थे।

47. ससून डॉक के बड़े लोगों की कहानियां

ससून डॉक गेस्ट हाउस में रहते हुए हमने वहां के लोगों से कई तरह की कहानियां सुनी। इन कहानियों में कितनी सच्चाई है या फिर इनमें कितना झूठ मिला हुआ है यह तो मैं नहीं कह सकता। मैं इन कहानियों के सच होने का बिल्कुल दावा नहीं करता। मेरा किसी से कोई दुराग्रह नहीं। अपने लिए तो सभी आदरणीय ही हैं। जिनने मेरा भला किया वे भी आदरणीय हैं और जिनने मेरा बुरा किया वे भी आदरणीय हैं। सारा किया धरा यहीं रह जाता है। अब तो मेरा मानना है कि मेरे साथ जिसने जो किया सब अच्छा ही किया। मेरे अच्छे के लिए ही किया। मेरे प्रारब्ध में यही सब था। मेरे साथ जो कुछ भी हुआ इसीलिए हुआ। इसलिए मैं तो सिर्फ वहां के जिम्मेदार लोगों और रहवासियों के मुंह से सुनी गई उन बातों को यहां जस का तस रखने का प्रयास भर कर रहा हूं। अब इन कहानियों को सुनानेवाले लोगों ने अगर मुझसे और मेरे साथियों से जानबूझकर झूठ बोला हो तो वह उनका धर्म जाने।

ससून डॉक गेस्ट हाउस में कई बड़े लोग रहते थे। इंडियन एक्सप्रेस की बंबई यूनिट के मैनेजर संतोष गोयनका जी और उनके माता-पिता भी वहीं रहते थे। उन दिनों संतोष गोयनका जी की शादी नहीं हुई थी। उनके बडे भाई सुशील गोयनका जो चंडीगढ़ यूनिट में मेरे समय में मैनेजर थे और फिर वहां से निकलने पर वे नेपाल में अपना कोई काम-धंधा करने लगे थे। कभी-कभार जब वे बंबई अपने माता-पिता के पास आते थे तो वहीं ससून डॉक में आते-जाते मेरी उनसे मुलाकातें हो जाती थीं। मैं उनको नमस्कार करता था और तब चंडीगढ़ में उनके साथ काम करने की यादें ताजा हो जाती थी। संतोष गोयनका जी के पिताजी बैजनाध गोयनका जी से भी वहां हमारी मुलाकातें होती रहती थी और वे हमें पहचानने लगे थे। वे बड़े ही सहज, ईमानदार, निर्विकार, छल-कपट से दूर और मृदुभाषी व्यक्ति जान पड़ते थे। पर उनकी अपनी कुछ पारिवारिक परेशानियां थी जिससे वे बहुत व्यथित, चिंतित और परेशान रहा करते थे। इन्हीं कारणों से वे अक्सर दूसरी मंजिल के अपने फ्लैट से नीचे उतरकर ग्राउंड फ्लोर पर स्थित गार्ड रुम में आकर गार्ड के पास बैठ जाते थे औऱ कई-कई घंटों तक वहीं बैठे रहते थे। कई बार वे बहुत भूखे भी होते थे और तब कंपनी की गेस्ट हाउस का गार्ड उनको अपने पैसे से छोले-कुलचे, चना-चबेना या पावरोटी जैसी चीजें मंगाकर खाने को दे दिया करते थे। हम आते-जाते कई बार उनको ऐसी चीजें खाते देखा करते थे।

बैजनाथजी हमलोगों से भी बड़े प्यार से बातें करते थे। वे हमें बेटा कहकर बुलाते थे। बैजनाथजी की परेशानियां उनके चेहरे पर साफ-साफ झलकती थीं। इस बुढ़ापे में निरंतर उनकी यह दयनीय दशा देखकर हम भी बहुत चिंतित हो जाते थे। हमने एक बार गार्ड से ही पूछ लिया कि बैजनाथजी की परेशानी क्या है। हमें गार्ड साहब ने ही बताया था कि बैजनाथजी के साथ क्या परेशानियां चल रही हैं और वे अक्सर वहां गेट पर क्यों बैठे रहते हैं और गार्ड का दिया क्यों खाया करते हैं। बकौल गार्ड साहब बैजनाथजी के बेटे संतोष गोयनका अपने पिता को बहुत प्रताड़ित करते थे। अक्सर उनको खाना नहीं देते थे और मारते-पीटते भी थे। गार्ड साहब ने हमें बताया कि बैजनाथजी को घर में तरह-तरह की यातनाएं दी जाती हैं और वे यह सब गेट पर आकर बैठते हैं तो हमें (गार्ड को) बताते हैं। एक बार तो हमने भी उनको घायल अवस्था में वहीं गार्ड रुम में बैठा देखा था। उन्होंने हमें अपने जख्म दिखाए थे। उनके हाथों, पैरों और पीठ वगैरह में कई जगह चोटें आई थी। चोट से खून भी निकला था। उनके वृद्ध शरीर पर कई जगह चोट के निशान थे मानो उन्हें किसी चीज से मारा गया हो। हमने जाना कि गार्ड ने ही उनके उन जख्मों पर डेटॉल लगा दिया था और बाजार से दर्द की कुछ गोलियां भी मंगाकर उनको दी थी।

संतोष गोयनकाजी के पिता बैजनाथजी हमें कई बार आते-जाते गेट पर रोक लेते थे और हमें अपनी पारिवारिक परेशानियां बताने लग जाते थे। कई बार हमें रोककर वे ऐसी बातें बता जाते थे जो निहायत निजी और काफी शर्मनाक होती थी और उन्हें यहां लिखने में भी मुझे बहुत संकोच हो रहा है। मैं वह सब यहां न चाहते हुए भी लिख रहा हूं। ऐसा करके मैं सिर्फ एक ईमानदार संस्मरण लिखने का अपना धर्म निभा रहा हूं। जस की तस धर दीन्ही चदरिया। एक दिन उन्होंने हमें वहीं गेट पर रोक लिया और कहने लगे, “तुम्हारे संपादक राहुल देव की पत्नी ने मेरे लड़के संतोष को बिगाड़ दिया है। जब तुम्हारा राहुल देव दफ्तर चला जाता है तब मेरा बेटा संतोष राहुल के फ्लैट की रसोई की खिड़की से उसके कमरे के अंदर दाखिल होता है। मैंने उसे किचन की खिड़की से बाहर निकलते खुद देखा है और रंगे हाथ पकड़ा है।“ अंकल बैजनाथजी की यह बात सुनकर हम पानी-पानी हो गए। हमने हाथ जोड़कर उनसे विनती की कि हमें कृपया यह सब न सुनाएं। राहुलजी और संतोषजी दोनों हमारे लिए बहुत ही आदरणीय हैं। इसपर अंकल बैजनाथजी बोले, “मैं तुमलोगों को यह इसलिए बता रहा हूं ताकि तुमलोग यह जान लो कि तुम्हारे संपादक राहुल देव का चरित्र कैसा है।“  इसके कुछ दिनों बाद अंकल बैजनाथजी ने फिर एक दिन हमें गेट पर रोक लिया और बोले, “मैं तो दिल्ली जाकर तुम्हारे प्रधान संपादक प्रभाष जोशी से मिलकर आया। मैं उनको यह कहकर आया हूं कि आप राहुल देव को नौकरी से निकाल दीजिए या फिर उसकी पत्नी को आप रख लीजिए। राहुल देव की पत्नी ने मेरे बेटे को बिगाड़ दिया है।“  अंकलजी की यह बात सुनकर हम फिर पानी-पानी हो गए। अंकल बैजनाथजी की इन बातों पर हमें जरा भी यकीन नहीं हो रहा था। यकीन करने लायक यह बात ही नहीं थी। हम सभी यही सोचते रहे कि ऐसा घिनौना काम तो कभी सच हो ही नहीं सकता। यह सब पूरी तरह झूठ ही है। हमारी अंतरात्मा अंकल बैजनाथजी की कही बातों को स्वीकार नहीं कर पा रही थी। फिर हमने यह भी सोचा कि अंकल बैजनाथजी इस उम्र में हमसे ऐसा घिनौना झूठ बोलने का पाप आखिर क्यों करेंगे।

अंकल बैजनाथ जी का गेट पर गार्ड रुम में बैठना पहले की ही तरह आगे भी जारी ही रहा। वे वहां गार्ड रुम में परेशानहाल बैठकर छोले-कुलचे और चना-चबेना खाते हमें मिलते ही रहे। आते-जाते उनको हम नियमित रूप से आदर-सम्मान के साथ रोज प्रणाम जरूर करते थे। इसी तरह समय गुजरता गया। कुछ समय बाद एक दिन गेट पर ही गार्ड नें हमें रोककर चुपके से बताया, “आज संतोष सर के पिताजी बैजनाथ अंकल को कुलाबा थाने की पुलिस यहां से पकड़कर थाने ले गई है और वे वहीं थाने के लॉकअप में बंद हैं। वहां वे बेचारे बहुत तकलीफ में होंगे। आपलोग कुछ कर सकते हो तो करो।“ गार्ड की यह बात सुनकर हम तो सन्न रह गए।

हमलोग बैजनाथ अंकल जी के बारे में अब तक सुनी गई बातों को आपस में जोड़कर समझने का प्रयास करने लगे। इन बातों को मन में गुनने के बाद हमें जितना कुछ समझ आ रहा था वह बेहद खतरनाक, चिंताजनक और शर्मनाक दिख रहा था। हमने गार्ड साहब से कहा कि तुरंत संतोष गोयनकाजी को और हमारे स्थानीय संपादक राहुलदेवजी को फोन लगाइए और उन्हें इस घटना की फौरन सूचना दीजिए ताकि वे लोग तुरंत बैजनाथ अंकल जी की मदद कर सकें। इस पर गार्ड साहब ने जो कहा वह तो और भी चिंताजनक था। गार्ड साहब ने बताया कि “संतोष सर और राहुलदेव सर ने ही तो पुलिस को बुलवाकर अंकलजी को गिरफ्तार करवाकर अंदर करवाया है।  इसलिए वे लोग अंकलजी को छुड़वाने कभी नहीं जाएंगे।“ पता नहीं इन बातों में कितनी सच्चाई थी। इसके बाद हम दफ्तर चले गए और खबरों के अपने काम में जुट गए। फिर अगले दिन पता चला कि कंपनी के छोटे मालिक विवेक खेतान साहब खुद कोलाबा पुलिस थाने गए थे और वहां जमानत देकर बैजनाथ अंकल को वहां से छुड़ा कर घर लाए थे। हमने कोलाबा पुलिस थाने जाकर इस मामले के बारे में आगे कुछ भी पता लगाना मुनासिब नहीं समझा कि बैजनाथ अंकल को पुलिस ने किसकी शिकायत पर और किन-किन धाराओं के तहत गिरफ्तार किया था और थाने ले गई थी। यह मामला बड़े घरों का था और यह हमारी कंपनी के मालिकों, मैनेजर और हमारे आदरणीय संपादक से जुड़ा हुआ था और इस मामले में जरा भी हाथ डालना अपनी नौकरी को जानबूझ कर गंवाने का ही कदम होता। सो इस बारे में हम बिल्कुल चुप ही रहे। हम तो सिर्फ यही सोच रहे थे कि बैजनाथ अंकल जो इस बुढ़ापे में ठीक से चल भी नहीं सकते थे वे ऐसी क्या गलती या ऐसा कौन सा गंभीर अपराध कर सकते हैं जो उनको पुलिस आकर घर से पकड़ ले जाए और पुलिस को उन्हें थाने के लॉकअप में बंद करना पड़े। इस सबसे यही समझ में आ रहा था कि दफ्तर में  शायद ठीक ही सुना था कि राहुलजी अंदर से बड़े काले आदमी हैं। 

वयोवृद्ध बैजनाथ अंकल की इस गिरफ्तारी और कोलाबा थाने के लॉकअप में उनको बंद करने की इस घटना की खबर ने हमें झकझोर कर रख दिया। हम कई दिनों तक इसके सदमें में रहे। कई हफ्तों तक हमारे मन में इस घटना को लेकर तरह-तरह के सवाल और फिर उनके जवाब उभरते और कौंधते रहे। सवाल यह कि  अंकल जी वयोवृद्ध हैं और देश के एक बड़े अखबार समूह के मैनेजर के पिता हैं, उनको गिरफ्तार करने से पहले पुलिस भी सौ बार सोचेगी। अंकल जी इस उम्र में ऐसा कौन सा गंभीर अपराध कर सकते हैं जो पुलिस को उन्हें गिरफ्तार करने आना पड़े। मीडिया से जुड़े लोगों पर तो जल्दी पुलिस हाथ नहीं डालती। फिर अंकलजी की गिरफ्तारी किस अपराध के लिए और किसके कहने पर या किसकी शिकायत पर हुई होगी

अंकलजी इस उम्र में किसी से मारपीट तो कर नहीं सकते। मान लो उन्होंने गुस्से में किसी को कोई अपशब्द भी कह दिया हो तो भी उस आरोप में उनकी गिरफ्तारी तो बनती नहीं। जाहिर है इस उम्र में उन्होंने किसी बैंक से या किसी व्यक्ति से मोटी रकम का कोई कर्ज भी नहीं ले रखा होगा जिसे न चुका पाने पर उनकी गिरफ्तारी हुई हो। घर-परिवार के लिए कोई कर्ज भी लिया हो तो उनका बेटा बड़ी कंपनी में बहुत बड़े पद पर है और मोटी तनख्वाह पानेवाला है। कर्जा आसानी से चुक जाएगा और गिरफ्तारी की नौबत ही नहीं आएगी। फिर भी अगर वे किसी कारण से गिरफ्तार हो भी गए तो उन्हें छुड़ाने उनका मैनेजर बेटा थाने क्यों नहीं गया और कंपनी के छोटे मालिक विवेक खेतान जी को जमानत देने औऱ उन्हें छुड़ाने थाने क्यों जाना पड़ा? कंपनी के मैनेजर के वयोवृद्ध पिता की गिरफ्तारी की खबर सुनते ही अखबार के संपादक को भी दौड़कर थाने पहुंचना चाहिए था क्योंकि यह तो एक शिष्टाचार है और उससे भी बड़ा एक प्रोटोकॉल भी तो है। पर सूचना के मुताबिक उन्हें छुड़ाने न तो उनका मैनेजर बेटा थाने जाता है और न कंपनी का संपादक। है न हैरान करनेवाली बात?  ऐसे में कंपनी के छोटे मालिक विवेक खेतान को अंकलजी से अपनी दूर की रिश्तेदारी ही सही, उस रिश्तेदारी और गोयनका परिवार की प्रतिष्ठा को खंडित होने से बचाने की खातिर रात को थाने जाकर अंकल जी की जमानत देनी पड़ी और उनको वहां से छुड़ाकर घर लाना पड़ा। ऐसे में वही एक गाना गुनगुनाने को मन किया- आंधी जब नाव डुबोए तो उसे मांझी पार लगाए और मांझी ही जब नाव डुबोए तो कौन बचाए? पर विवेक खेतान साहब अंकलजी के पुत्र न होते हुए भी उनके पुत्र बनकर उन्हें छुड़ाने थाने में हाजिर हो गए। वहां की तरह-तरह की कहानियां सुन-सुनकर और उन तात्कालिक परिस्थितियों के मद्देनजर हमने अनुमान लगाया कि वयोवृद्ध बैजनाथ अंकल की अचानक हुई यह गिरफ्तारी एक इमरजेंसी तो थी ही। इस गिरफ्तारी की सूचना देनेवाले ने सबसे पहले तो उनके मैनेजर बेटे संतोष गोयनका जी को ही खबर दी होगी। फिर उसी ससून डॉक गेस्ट हाउस में उनके पड़ोस में रहनेवाले अखबार के संपादक राहुल देव जी को बताया होगा। पर जब इन दोनों ने कोई अनुकूल रिस्पांड नहीं किया होगा तब जाकर सुप्रीम अथॉरिटी यानी कंपनी के छोटे मालिक विवेक खेतान साहब को खटखटाया गया होगा। पर हो सकता है हम अल्पज्ञानियों का यह अनुमान भी गलत हो। वहां रहने के कारण हमें तो बस बैजनाथ अंकल जी से सहानुभूति रहती थी इसीलिए हम ऐसा कुछ सोच रहे थे और इस तरह का अनुमान लगा रहे थे।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....


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