रविवार, 22 मई 2022

पत्रकारिता की कंटिली डगर- 21

 एक पत्रकार की अखबार यात्रा की इक्कीसवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 21

48. डेस्क की गलती पर खुद को पीटनेवाले संपादक

एक्सप्रेस टॉवर्स के हमारे दफ्तर में उसी हॉल में हमारे ही बगल में गुजराती दैनिक समकालीन का भी डेस्क था और उसके संपादक का चेंबर भी वहीं था। समकालीन के संपादक थे हसमुख गांधी जो उस समय करीब 50-55 के रहे होंगे। हसमुखभाई थे तो काफी हसमुख और सहज व्यक्ति, पर उनमें एक खास तरह की बीमारी थी। डेस्कवालों की गलतियों के लिए वे खुद को ही सजा दिया करते थे। खुद को यह सजा वे अमूमन रोज ही दिया करते थे। जब भी उनके अखबार समकालीन में डेस्क के किसी फत्रकार की वजह से कोई गलती चली जाती थी तो वे गलती करनेवाले डेस्क के उस पत्रकार को अपने चेंबर में सामने बुलाकर पहले तो उसे खूब डांटते थे औऱ फिर गुस्से में लाल-पीले होकर खुद को ही थप्पड़ मारने लगते थे। वे गलती करनेवाले के सामने ही खुद के ही गालों पर अपने दोनों हाथों से तड़ातड़ दर्जनों थप्पड़ जड़ देते थे। और खुद को पीटने का उनका यह सिलसिला अमूमन रोज ही चलता था। शायद ही कोई ऐसा दिन होता था जब हसमुखभाई ने खुद को छप्पड़ न मारा हो। वे जब गुस्साते थे तो उनके स्टाफ में डर से कोई कुछ नहीं बोलता था। सबको डर होता था कि पता नहीं गांधीभाई कब किस बात पर खुद को पीटने लगें। शुरू में तो हमारे लिए एक आश्चर्यजनक घटना की तरह होती थी और कौतूहलवश हम भी गांधीभाई के कक्ष में झांककर उनको गुस्से में खुद को थप्पड़ मारते हुए देख लिया करते थे। पर धीरे-धीरे हमारी यह उत्सुकता खत्म हो गई और हमने उसे रोज का नाटक समझ लिया। हसमुखभाई इस तरह गुस्से में जब भी खुद को पीट रहे होते थे तो धाराप्रवाह पीटते चले जाते थे। उन्हें ऐसा करने से रोकने की जल्दी कोई हिम्मत भी नहीं कर पाता था। उनको शांत करने के लिए कई बार लोकसत्ता के स्थानीय संपादक अरुण टिकेकर दौड़कर उनके कक्ष में जाते थे। जनसत्ता के हमारे प्रधान संपादक प्रभाष जोशी जी जब बंबई हमारे दफ्तर आते थे और अगर वे वहां दफ्तर में होते थे तो उठकर गांधीभाई के पास चले जाते थे और उनको शांत करते थे। प्रभाषजी गांधीभाई से उम्र में थे तो 5 साल छोटे पर उनके जाते ही गांधीभाई गुस्सा धूक देते थे और शांत हो जाते थे। हसमुखभाई की यह हरकत एक प्रकार की मानसिक बीमारी थी जिसे चिकित्सा विज्ञान में ‘सेल्फ इंजुरी डिसऑर्डर’ या ‘बॉर्डरलाइन परसोनालिटी डिसऑर्डर’ कहते हैं। इसमें व्यक्ति को लगता है कि सारी समस्याओं की जड़ वह खुद ही है और सारी गलतियां उसकी खुद की वजह से ही हो रही हैं। और इस तरह वह दूसरों की गलतियों के लिए भी खुद को ही सजा देने लगता है।

49. बंबई शहर में शाम के अखबारों का क्रेज

बंबई शहर में सुबह के अखबारों से ज्यादा शाम के अखबारों का क्रेज दिखता था। सुबह के अखबारों के तो स्टॉल भी पहुत कम ही दिखाई देते थे। शाम के अखबार तो बिना स्टॉल के ही सड़क किनारे की पटरियों पर बस यूं ही रखकर बेच लिए जाते थे। इसी तरह लाखों प्रतियां बिक जाती हैं रोज की। नरीमन पॉइंट के इलाके और आसपास जहां बंबई के दफ्तरों का विशाल झुरमुट है वहां दिन के तीन बजे से ही शाम के अखबार बेचनेवाले पटरियों पर डेरा जमा लेते थे। शाम के 4 बजे से 6 बजे तक वहां के उन गगनचुंबी इमारतों के दफ्तरों से बाबुओं और कामगारों का जो समुद्र बाहर निकलता था तो पलक झपकते ही उन सांध्य दैनिकों की हजारों-हजार प्रतियों फुर्र हो जाती थीं। यह मानव रेला लोकल (लोकल ट्रेनें) पकड़ने चर्च गेट और वीटी की तरफ बहता दिखाई देने लगता था। उस रेले में लगभग हर एक के हाथ में होता था एक सांध्य अखबार। दरअसल ये बाबू लोग शाम का अखबार खबरों के लिए कम, लोकल में तीन-चार घंटे का समय काटने के लिए ज्यादा खरीदते थे। ये बाबू लोग सुबह 9 बजे नरीमन पॉइंट के अपने दफ्तर पहुंचने के लिए अपने घरों से 5 बजे ही निकल जाया करते हैं। ऐसे में वे सुबह का अखबार क्या खाक पढ़ पाएंगे। ये कामकाजी लोग सुबह का अखबार देर शाम घर लौटने के बाद ही देख पाते हैं।  पर लोकल का कई घंटों का उबाऊ सफर कैसे कटे इसके लिए ले लेते हैं शाम का अखबार। उन सांध्य दैनिकों में बंबई शहर में उस दिन कुछ बड़ा हुआ हो तो उसकी खबर, कुछ दूसरी चटपटी खबरें, कुछ फिल्मी दुनिया की खबरें और ताक धिनाधिन मार छुरा से ज्यादा कुछ नहीं होता था। फिर भी बिक्री लाखों में।

50. मदारी के तमाशों की तरह सड़कों पर शूटिंग

फिल्मों में कोई खास दिलचस्पी न होने की वजह से दो साल के अपने लंबे बंबई प्रवास के दौरान भी मैं फिल्मों की शूटिंग देखने या फिर फिल्मी दुनिया को करीब से जानने-समझने के लिए कभी किसी स्टूडियो में नहीं गया। हां, रात को नरीमन पॉइंट के अपने दफ्तर से निकल कर कोलाबा स्थित घर जाते हुए कई बार सड़कों, चौराहों और नुक्कड़ों पर फिल्मों की शूटिंग होती दिख जाती थी तो वहां कुछ देर रुक कर सबकुछ करीब से देख लिया करता था। इसी तरह फिल्मों की शटिंग के अधिकतर आयामों के बारे में धोड़ा-बहुत जान पाया। ये फिल्मोंवाले पर्दे पर चाहे जितने तामझामवाले और आकर्षक दिखें पर असलियत में ये लोग कभी भी-कहीं भी शुरू हो जाते हैं। अब दिन में तो सड़कों पर भारी ट्राफिक होता है, इसलिए ये शाम ढलने के बाद से लेकर पूरी रात चालू रहते हैं। पर हमें सड़कों पर होती  शूटिंग की इस नौटंकी को देखने के बाद यही समझ में आया कि इसमें असलियत पर झूठ का मुलम्मा कुछ ज्यादा ही चढ़ाया जाता है। अगर आपने सड़क की शूटिंग देख ली तो फिर फिल्म देखने में आपको मजा नहीं आएगा।

बंबई में रहते हुए मैंने वहां शिवसेना की गुंडागर्दी और उनके द्वारा आयोजित होनेवाला राजनैतिक बंद को भी काफी करीब से देखा। शहर के बाजारों में दुकानें चलानेवाले कुछ व्यापारियों ने दबी जुबान में कबूला कि शिवसेना एक राजनैतिक दल कम, तोड़फोड़ करनेवाले आराजक गुंडों की पार्टी ज्यादा है। उन व्यापारियों का कहना था कि वे नहीं चाहते की बंद बुलाया जाए और उनका धंधा प्रभावित हो, पर तोड़फोड़ के डर से हमें शिवसेना का आदेश न चाहते हुए भी मानना पड़ता है और इस तरह डर के मारे शिवसेना का बंद जबरिया होकर भी स्फूर्त हो जाता है।

बंबई जनसत्ता में प्राण ढाबर्डे जी लोकल डेस्क पर स्टाफ रिपोर्टर थे और मनपा (महानगरपालिका) वही देखते थे। उन्होंने एक दिन डेस्क के तमाम साथियों से कहा कि जिन-जिन का यहां राशनकार्ड नहीं है वे अगर चाहेंगे तो उनका बंबई का राशनकार्ड बिना किसी परेशानी के बन जाएगा। हम जितने लाथी ससून डॉक गेस्ट हाउस में रहते थे सबने अपना राशन कार्ड बनवा लिया। कुछ और साथियों ने भी बनवाया। प्राण ढाबर्डेजी तीन-चार दिनों में ही सबका राशनकार्ड बनवा लाए थे। हमने तो सिर्फ सादे कागज पर एक आवेदन भर लिख कर दिया था। बस बन गया था राशनकार्ड। इसे कहते हैं अखबार का असर।

बंबई में ही मैंने नहाने का विदेशी साबुन देखा और इस्तेमाल किया। वहीं ससून डॉक गेस्ट हाउस में साथ रह रहे मेरे साथी पत्रकार सदानंद गोडबोले विदेशी साबुन के बड़े शौकीन थे। एक दिन वे एक विदेशी साबुन लेकर आए और नहाने के बाद उसकी खूब तारीफ करने लगे। अगले दिन उन्होंने मुझे भी वही साबुन खरीदवा दी। साबुन था लक्स इंटरनेशनल। पर वह भारत में बनी लक्स नहीं थी। उस साबुन की तासीर गजब की थी। वाकई तारीफ के काबिल। फिर मैंने एक दूसरा विदेशी साबुन फा भी इस्तेमाल किया। वह भी लाजवाब था। उन दिनों ये विदेशी साबुन भारत में नहीं बना करते थे। सदानंद विदेशी सिगरेटों के भी शौकीन थे। वहां वे अक्सर मार्लबोरो के पैकेट खरीद लाते थे। मैं सिगरेट नहीं पीता, पर मैंने विदेशी सिगरेट भी पहली बार वहीं देखी थी। मैं दिल्ली से बंबई गया था। उन दिनों राजधानी  दिल्ली में भी विदेशी साबुन और सिगरेट बंबई की तरह पान-सिगरेट बेचनेवाली गुमटियों और खोखों में नहीं बिक रहे होते थे।

 51. प्रोमोशन की चिट्ठी और खुन्नस की गांठ

 जनसत्ता बंबई में लगभग डेढ़ साल की नौकरी के बाद 1990 के मध्य में प्रोमोशन दिए जाने की चर्चा शुरू हुई। प्रोमोशन के इंतजार में कई लोग लाइन में थे। कई साथियों को लंबे समय से, शायद अखबार शुरू होने से पहले की गई शुरुआती भर्ती में ही जल्द प्रोमोट कर मांगा गया ओहदा और वेतन देने का वादा किया गया था जो अब तक नहीं मिला था। इसलिए जब प्रोमोशन जल्द होने की गूंज सुनाई दी तो कुंठित चल रहे लोगों की उम्मीदें एक बार फिर जग गईं। पर इसमें भी केवल चंद लोग ही किस्मतवाले साबित हुए। बाकी जिन्हें शुरू से ही यानी राहुलजी के स्थानीय संपादक पद पर आने से भी पहले से कह रखा गया था उनका भी नाम आखिरी वक्त में काट दिया गया। इसमें जो लोग जनसत्ता की नौकरी में आने से पहले और भी कई जगह अपनी सेवाएं दे चुके थे वे भी खाली हाथ रह गए।

प्रोमोशन बांटने में प्रधान संपादक प्रभाष जोशी जी ने राहुलजी को बिल्कुल फ्री हेंड दे रखा था। दिल्ली में तो सबकुछ निहायत नियंत्रित रहता था और आगे बढ़ने के मौके भी नहीं के बराबर होते थे। पर बंबई में खुला मामला था, भरपूर मौके भी थे और बंबई का स्लैब भी दिल्ली से कहीं ज्यादा था। दिल्ली की तरह ऐसे मामलों में स्थानीय संपादक के हाथ बंधे होने जैसी यहां कोई बात नहीं थी। फिर भी राहुलजी की प्रोमोशन लिस्ट में चंद लोग ही समा सके। मुझे उन्होंने सीनियर सब का ओहदा तो दिया पर कोई इन्क्रीमेंट नहीं दी। कुछ को ओहदा और इन्क्रीमेंट दोनों मिला। मैं उनकी आंखों में शुरू से ही खटक रहा था सो इतनी सजा तो मिलनी तय ही थी। मैं भी मुंह लगा तो था ही सो पतित बनकर मैंने एक दिन पूछ ही लिया कि फलां को दो इन्क्रीमेंट दिया तो मुझे क्यों नहीं दिया। अनुभव और काम के मामले में मैं कमतर तो हूं नहीं, फिर यह नाइंसाफी क्यों। मैंने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि मैं पिछले आठ सालों से डेस्क पर हूं और अबतक पांच अखबारों में काम कर चुका हूं। राहुलजी बोले, "मैं उनको आपसे ऊपर रखना चाहता हूं।" बाद साफ हो गई कि यह उसी खुन्नस का नतीजा था जो शरद पवार के कोऑपरेटिव बैंक पर लिए गए फैसले वाली उस खबर को दिल्ली भेज देने से पैदा हुआ था जिसपर उन्होंने कहा था कि वे एडिट लिखना चाह रहे थे। उन्होंने इस खुन्नस की तभी गांठ बांध ली थी और वह गांठ उन्होंने कभी खोली ही नहीं और उसे जनसत्ता से जाते समय अपने साथ ही लेते गए। तारीफ की बात है कि राहुलजी इतने साल तक उस खुन्नस को ढोते रहे और उन्हें यह भारी भी नहीं लगा।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....


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