गुरुवार, 12 मई 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 18

 एक पत्रकार की अखबार यात्रा की अठारहवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 18

40. कोलाबा में कुकर्मों का कोडवर्ड

कोलाबा जहां इंडियन एक्सप्रेस का गेस्ट हाउस था और जहां हम रहते थे वह इलाका नाइट लाइफ के लिए काफी मशहूर है। कोलाबा की हर गली और हर लॉबी में कुछ न कुछ आपत्तिजनक होता रहता है। इसे ऐसे कहें कि यहां क्या कुछ नहीं होता। बंबईवालों के लिए तो यह सब बिल्कुल सामान्य सी बात है। ये सारे धतकरम उनकी काली कमाई का जरिया हैं। पर हम बाहर से वहां गए पत्रकारों के लिए वह सब बिल्कुल गलत गतिविधियां थीं। हमने कुछ ही हफ्तों में पूरे कोलाबा को सूंघ डाला और सारे धतकर्मों का पता लगा लिया। कोलाबा के जिस कैलाश पर्वत रेस्टोरेंट में हम खाना खाते थे वहां कभी लता मंगेशकर ने भी भोजन किया था। रेस्टोरेंट के काउंटर पर लताजी की खाना खाते ङुए पल की तस्वीर लगी है। पर हम जब वहां से खाना खाकर निकलते थे तो रेस्टोरेंट की चौकठ से बाहर पांव रखते ही एक लड़की खड़ी मिलती थी जो धीरे से पूछती थी, “बैठना है क्या?” हम कुछ समझ नहीं पाते थे और आगे बढ़ जाते थे। जब यह सिलसिला बार-बार चलता दिखा तो हमने उस इलाके में बरसों से पान बेचने का काम कर रहे उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के एक सज्जन से एक दिन पूछा कि बैठना है क्या का मतलब क्या है और रेस्टोरेंट के बाहर खड़ी रहनेवाली एक लड़की हमसे ऐसा क्यों पूछती है। पानवाले भैया पहले तो ठहाके मारकर हंसे पर फिर चुपचाप बताया कि वे लड़कियां दरअसल कॉल गर्ल होती हैं और इस तरह ऐसा बोलकर वे अपने लिए ग्राहक तलाश करती हैं। यह उनका कोडवर्ड है।

कोलाबा में एक रेस्टोरेंट है वाक-इन जो व्यभिचार और अनैतिक गतिविधियों के लिए कुख्यात बताई गई। वहां कैबरे डांस होता था। रेस्टोरेंट के गेट पर कई मुस्टंडे खड़े रहते थे जो उनके बाउंसर होते थे। शाम ढलने के बाद वहां उस तरह के लोगों की भीड़ लगनी शुरू हो जाती थी। महंगी-महंगी गाड़ियों में लोग वहां आनंद लेने आते देखे जाते थे। हम उस होकर आते-जाते अक्सर वॉक-इन के गेट पर मारपीट होते देखा करते थे जब उसके बाउंसर लोगों को बुरी तरह पटक कर पीटते थे। पर वहां पुलिस कभी नहीं आती थी जबकि थाना बिल्कुल पास में ही था। इस मामले में वहां के कुछ लोग कोलाबा की तुलना नाइटलाइफ के लिए कुख्यात अमेरिका के शहर लॉस वेगास से भी करते हैं।

कोलाबा में पत्र-पत्रिकाएं बेचने का एक स्टाल है जहां मैं अक्सर जाया करता था और अपनी पसंदीदा न्यूज मैगजीन टाइम और न्यूजवीक पत्रिकाएं खरीदा करता था। इस स्टॉल पर ये महंगी पत्रिकाएं हप्ते-दस दिन बाद काफी कम कीमत पर मिल जाया करती थीं। हमें पता चला था कि इस स्टॉल पर ब्लू फिल्मों के वीएचएस कैसेट भी छिपे रुस्तम उपलब्ध कराए जाते हैं। इस स्टॉल पर कई बार अंग्रेजी की पत्रिकाएं पढ़ती इंगलिश-स्पीकिंग लड़कियां भी खड़ी मिलती थी जो असल में कुलीन घरों की लड़कियां होती थी जो कॉलगर्ल का काम करती थीं। शाम ढलते ही कोलाबा के कुछ खास स्टोर्स के आसपास, रीगल सिनेमा के इर्द-गिर्द और सड़क के किनारे-किनारे अच्छे घरों की धंधा करनेवाली लड़कियां कस्टमर की तलाश में घूमती दिखाई देने लगती थीं। खुलापन भी ऐसा कि आप सौदा करके वहीं राह चलते उन्हें आलिंगन भी कर ले सकते हैं। सरेआम चूमना भी चाहें तो भी उनहें कोई परेशानी नहीं। हमने ऐसे नजारे वहां खूब देखे।

कोलाबा के मुहाने पर एक गोलंबर है जिसे कोलाबा सर्कल कहते हैं। वहीं है सुप्रसिद्ध जहांगीर आर्ट गैलरी। शाम को वहां कला के पारखी लोगों और दूसरे सामान्य लोगों की अच्छी खासी संख्या रहती है जो इसके अंदर रखी कलाकृतियों को देखने आते हैं। पर इसी आर्ट गैलरी के कंपाउंड में आपको ये कालगर्ल्स भी खड़ी या टहलती दिख जाएंगी जो वहां अपने लिए ग्राहकों को पटाने की फिराक में रहती हैं।

अब कोलाबा से थोड़ा आगे चलते हैं, फोर्ट रोड या फोर्ट मार्केट की तरफ। कोलाबा से जब आप वीटी की तरफ जाते हैं तो सड़क के दाहिनी तरफ पुरानी इमारतों के किनारे-किनारे की पटरी पर बाजार लगता है। वहां उन दिनों ज्यादातर स्मगल्ड गुड्स बिका करती थी। खरीदारों की भीड़ भी रहती थी। उसी भीड़ में जगह-जगह ये बदनाम लड़कियां खड़ी मिल जाती थीं। वहीं खड़-खड़े अपना कस्टमर तलाश लेने और फिर उन्हें पटा लेने में माहिर ये लड़कियां ग्राहक मिलते ही टैक्सी बुलाकर फुर्र हो जाती थीं। बिल्कुल निडर और बिंदास होती हैं ये धंधेबाज बालाएं। बंबई के वीटी रेलवे स्टेशन पर तो सैकड़ों की तादाद में धंधा करनेवाली लड़कियां हर शाम खड़ी  मिल जाती थीं। कुछ तो दोपहर को भी मिल जाती थीं। वहां वे देर रात तक उपलब्ध रहती थीं। शाम को गेटवे ऑफ इंडिया पर समंदर किनारे के खुशनुमा माहौल में भी कॉलगर्ल्स टहलती मिल जाती थी। और उनको ग्राहक मिलने का इंतजार कर रहे होते थे कुछ पुरबिया टैक्सीवाले भैया। टैक्सी में बैठते ही उनकी हरकतें चालू हो जाती थी और उनकी इन हरकतों को देखकर समझ में आ जाता था कि वे पति-पत्नी तो बिल्कुल नहीं हैं।

41. गगनचुंबी इमारत से निकलते अखबार

दक्षिण बंबई में कोलाबा के ससून डॉक गेस्ट हाउस से करीब 4 किलोमीटर दूर अरेबियन सी के किनारे मरीन ड्राइव के मुहाने पर स्थित नरीमन पॉइंट पर इंडियन एक्सप्रेस की 25-मंजिली इमारत है- एक्सप्रेस टॉवर्स। इस इमारत को एक्सप्रेस समूह के जन्मदाता रामनाथ गोयनका जी ने बनवाया था। अखबारों का यह एकदम अनूठा दफ्तर था। शायद ही देश में ऐसी किसी गगनचुंबी इमारत से अखबार निकलते होंगे। इस इमारत में दूसरी मंजिल पर एक बड़े से हॉल में एक्सप्रेस समूह के सभी पांच अखबारों इंडियन एक्सप्रेस, फाइनेंसियल एक्सप्रेस, लोकसत्ता, समकालीन और जनसत्ता का एडिटोरियल और रिपोर्टिंग विभाग था। सभी संपादकों के चैंबर भी वहीं थे। पूरा हॉल पत्रकारों से खचाखच रहता था। वहीं एक बड़े कक्ष में टेलिप्रिंटर सेक्सन था जिसमें इंडियन एक्सप्रेस के न्यूज नेटवर्क और तमाम समाचार एजेंसियों के टेलिप्रिंटर लगे थे। प्रिंटिंग विभाग नीचे बेसमेंट में था। कोई साल भर बाद रेनोवेशन की वजह से सारे अखबारों के एडिटोरियल तीसरे माले पर ले जाए गए। तीसरे माले के हमारे एडिटोरियल हाल से समंदर और ओबेरॉय होटल का स्वीमिंग पूल बिल्कुल सामने और साफ-साफ दिखता था। वहां का नजारा बड़ा ही मनमोहक होता था जब सुंदरियां स्वीमिंग वाले कपड़ों में पूल में छलांग लगाया करती थीं। इस बारे में वहां साथियों की राय होती थी कि इससे काम की थकान मिट जाती थी।

42. शुरू करते ही संपादक से पंगा

बंबई जनसत्ता में काम शुरू किए चंद रोज ही हुए थे कि मुझे एक बड़ी खबर हाथ लग गई। उस समय शरद पवार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे। किन्हीं राजनैतिक कारणों से उन्होंने एक अजीब सा निर्णय ले लिया। विधानसभा में बाकायदा एक प्रस्ताव पास करा लिया गया कि राज्य के तमाम राष्ट्रीयकृत बैंकों में राज्य सरकार के विभिन्न मंत्रालयों, विभागों और निगमों आदि के जितने भी खाते चल रहे हैं उन सबसे सारे के सारे पैसे निकालकर महाराष्ट्र को-ऑपरेटिव बैंक की शाखाओं में जमा करा दिए जाएं। बड़ा अजीब निर्णय था और इसका बड़ा ही दूरगामी असर होने वाला था। मैंने इस खबर को दिल्ली जनसत्ता को भेजने का निर्णय़ लिया। मैं वहां कोई रिपोर्टर नहीं था। मैं तो डेस्क का आदमी था और डेस्क पर ही रखा गया था। पर मैंने अपने तई यह निर्णय लिया कि यह खबर राष्ट्रीय संस्करण के लायक है इसलिए इस दिल्ली भेज दी जानी चाहिए। हालांकि यह जिम्मेदारी तो वहां के स्थानीय संपादक राहुलदेवजी की थी। यह तय करना भी उनका ही काम था कि महाराष्ट्र में आज कौन-कौन सी खबर है और उसमें से कौन-कौन सी खबर राष्ट्रीय कलेवर वाली है और दिल्ली संस्करण के लायक है। पर तब तक वहां रहते हुए उनमें मैंने कभी ऐसी कोई रुचि नहीं देखी थी। जनसत्ता का बंबई संस्करण इस खबर को काफी अंडरप्ले करते हुए एक साधारण खबर के रूप में बिल्कुल साथारण डिस्प्ले देकर छाप रहा था। मैंने बिना किसी से कुछ पूछे उस खबर को नए अंदाज में रोमन में चार कॉलम साइज में लिखा और इंडियन एक्सप्रेस के टेलीप्रिंटर नेटवर्क से दिल्ली भेज दी। थोड़ी ही देर में वह खबर कंपोज होकर दिल्ली संस्करण के डाक संस्करणों में तो छपी ही, बंबई भी आ गई। दिल्ली के डाक संस्करणों में वह खबर पहले पेज का बॉटमस्प्रेड थी। बंबई में पहले पेज पर सिंगल कॉलम में छापी गई। दिल्ली से जैसे ही वह खबर आई किसी ने उसकी ब्रोमाइड दूसरी खबरों के साथ राहुलजी की मेज पर रख दी। दिल्ली डेस्क ने उस खबर में मेरी बाईलाइन लगा दी थी। खबर देखते ही राहुलजी ने मुझे अपनी केबिन में बुलाया और बरस पड़े। राहुलजी ने कहा, “आपने यह खबर दिल्ली कैसे और क्यों भेज दी। मैं तो इसपर एडिट लिखनेवाला था।“  मैंने उनसे कहा कि यह खबर तो यहां सिंगल कॉलम में छप रही है। यह एक बड़ी नेशनल खबर है इसलिए मैने इसे दिल्ली भेज दी। मुजे डांट-डपट कर गलत ठहराकर राहुलजी शांत हो गए। फिर मेरी लिखी वह खबर उन्होंने वहां भी छापने को कह दिया। खबर छप गई और बाईलाईन ही छपी। पर इस घटना से मैं राहुलजी की नजरों में चढ़ जरूर गया। मेरे प्रति इस चिढ़ को उन्होंने आखिर तक यानी जब तक वे एक्सप्रेस समूह में रहे तब तक याद रखा और मुझे समय-समय पर कुछ न कुछ नुकसान पहुंचाते ही रहे। इसी को कहते हैं किसी बात की गांठ बांध लेना। यहां यह साफ कर देना गलत नहीं होगा कि जब तक मैं बंबई जनसत्ता में रहा राहुल जी ने मेरी जानकारी में एक बार भी एडिट (संपादकीय) नहीं लिखा। एडिट लिखना तो दूर, उन्होंने तो कभी कोई लेख भी नहीं लिखा।  जनसत्ता बंबई का संपादकीय पेज तो हमेशा दिल्ली वाला ही जस का तस जाया करता था। मेरे दिल्ली आ जाने के बाद अगर राहुलजी ने कभी एडिट या एडिट पेज पर कोई लेख लिखा हो तो वह मुझे नहीं मालूम। पर शायद नहीं ही लिखा है।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....

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