एक पत्रकार की अखबार यात्रा की उन्नीसवीं किश्त
पत्रकारिता की कंटीली डगर
भाग- 19
43. स्थानीय संपादक का कॉमर्स प्रेम
राहुल देव जी की कॉमर्स की खबरों और कॉमर्स पेज में एकाएक बहुत दिलचस्पी हो गई थी। बंबई जनसत्ता में कॉमर्स पेज कश्यप गजब भाई देखते थे। वे बंबई के ही गुजराती भाषी थे। उनकी टीम में थीं सुनंदा शर्मा, भारती पावस्कर तृप्ति जानी और आलोक गुप्ता। अखबार का कॉमर्स पेज बड़ा मालदार और फायदे का होता है। जो पत्रकार कॉमर्स पेज पर होता है उसे बिजनेस कंपनियों के प्रेस कांफ्रेंस में अच्छी-अच्छी गिफ्ट भी मिलती रहती है। ऐसे बिजनेस प्रेस कांफ्रेंस आए दिन होते रहते हैं। बंबई तो देश की आर्थिक राजधानी है, वहां तो ऐसे बिजनेस प्रेस कांफ्रेंस हर दिन और एक ही दिन में कई-कई प्रेस कांफ्रेंस होते रहते हैं। जाहिर है कॉमर्स पेज के इंचार्ज कश्यप गजब भाई लगभग रोज ही ऐसे प्रेस कांफ्रेस अटेंड करते थे। जाहिर है उन्हें गिफ्ट भी मिलती ही होगी। और बंबई में गिफ्ट भी कोई ऐसी-वैसी नहीं मिलती, थोड़ी कायदे की ही मिलती है। पर यह सब तो गजब भाई की नौकरी का हिस्सा था इसलिए इसमें गलत कुछ भी नहीं था। बिजनेस प्रेस कांफ्रेंस कवर करने जाना तो कॉमर्स डेस्क इंचार्ज की जिम्मेदारी थी। राहुल जी ने गजब भाई पर यह दबाव डालना शुरू किया कि वे उनको भी बिजनेस प्रेस कांफ्रेंसों में साथ सेकर चलें और कंपनी मालिकों और कंपनियों के बड़े-बड़े अधिकारियों से उनका परिचय कराएं। यह बड़ी अजीब बात थी और निहायत छोटी बात भी थी कि किसी अखबार का स्थानीय संपादक अपने मातहत के किसी पेज इंचार्ज से ऐसी बात बोले। इस बात का खुलासा हमसे खुद गजब भाई ने ही किया। गजब भाई ने बताया कि शुरू में तो वे इस बात को इग्नोर कर गए पर तब राहुलजी ने उनपर दबाव बढ़ा दिया और उनसे कड़ाई से पेश आने लगे। उनके कॉमर्स पेज के प्रस्तुतिकरण को राहुलजी खराब बताने लग गए और कहने लगे कि उनका काम संतोषजनक नहीं हो रहा। बार-बार इस तरह की नकारात्मक टिप्पणियों से गजब भाई को अपनी नौकरी ही परेशानी में पड़ती दिखाई देने लगी। पर उन्हें अंदर की बात समझते देर न लगी और वे तब राहुलजी को अपने साथ बिजनेस प्रेस कांफ्रेंसों में ले जाने लगे। वे बिजनेस टायकूनों से उनका परिचय भी कराने लगे। फिर जो भी गिफ्ट मिलती वह गजब भाई के साथ-साथ राहुलजी को भी मिलने लगी। इस तरह राहुलजी के पास भी गिफ्ट आइटम इकट्ठा होने लगे। जल्दी ही उनके घर में गिफ्टों का अंबार लग गया। उन्हीं दिनों एक बार भाभी जी ने हमें सोने की एक छोटी सी हथौड़ी दिखाई थी। उन्होंने ही बताया था कि यह सोने की है और प्रेस कांफ्रेंस में गिफ्ट में मिली है। इसके बाद तो राहुलजी छोटे-छोटे और अदना किस्म के बिजनेस प्रेस कांफ्रेंसों तक में भी नजर आने लगे थे। यह एक्सप्रेस ग्रुप जैसे बड़े अखबार समूह के एक स्थानीय संपादक के लिए बड़े ही शर्म की बात थी। पर राहुलजी को तो गिफ्ट बटोरना होता था। बंबई के मीडिया जगत और बिजनेस वर्ल्ड में राहुलजी की इस घटियागीरी की खूब किरकिरी होती सुनाई देती थी। कुछ लोग कहते थे कि शायद इसके जरिए वे किसी बड़ी कंपनी में कोई बड़ा ओहदा जुगाड़ने या फिर कोई और बड़ा खेल करने की जुगत में भी थे।
जल्दी ही राहुलजी के इंडियन एक्सप्रेस समूह की बंबई यूनिट के मैनेजर संतोष गोयनका जी (मालिक रामनाथ गोयनका के गांव के निवासी और उनके दूर के रिश्तेदार) से बड़े प्रगाढ़ संबंध कायम हो गए। उनके जरिए इंडियन एक्सप्रेस समूह के कंपनी मालिक विवेक खेतान (मालिक रामनाथ गोयनका के नाती जो बाद में रामनाथ गोयनकाजी के वारिस बनकर विवेक गोयनका बन गए) तक उनकी जबरदस्त पहुंच कायम हो गई। दरअसल, राहुलजी ने मैनेजर संतोष गोयनका का सहारा लेकर विवेक खेतान के घर में सेंध लगाई। राहुलजी अखबार के स्थानीय संपादक थे तो वैसे भी मालिकों-मैनेजरों ले उनका संबंध तो होना ही था। पर मैं यहां जिस तरह के संबंधों की बात कर रहा हूं वह बहुत-बहुत गहरा, अंतरंग और बिल्कुल खास तरह का था। राहुलजी ने कुछ ऐसा जाल बुना कि इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप के मालिक विवेक खेतान के घर उनकी सपरिवार इंट्री होनी शुरू हो गई और वे बार-बार सपरिवार वहां जाने लगे। इस एकतरफा घनिष्टता को राहुलजी ने खूब आगे बढ़ाया और अपने फायदे के लिए उसे जमकर भुनाया भी। राहुलजी ही सपरिवार विवेक खेतान जी के घर जाया करते थे। विवेक खेतान जी शायद कभी राहुलजी के घर नहीं आए थे।
अखबार की बंबई यूनिट के मैनेजर संतोष गोयनका जी तो ससून डॉक में ही अपने मात-पिता के साथ रहते थे। हमारे ही प्लोर पर कंपनी ने उन्हें एक बड़ा फ्लैट दिया हुआ था। कुछ महीने हमारे साथ रहने के बाद जल्दी ही राहुलजी ने ससून डॉक गेस्ट हाउस में अपने लिए एक अलग फ्लैट का जुगाड़ कर लिया और उसी फ्लोर पर हमारे फ्लैट से नए फ्लैट में शिफ्ट हो गए। वह फ्लैट कंपनी के बड़े मालिक रामनाथ गोयनका जी ने अपने किसी परिचित को दिया हुआ था जो अब शहर में कहीं और या शायद कहीं विदेश में रहने चले गए थे और फ्लैट खाली हो गया था।
44. हमें फ्लैट से निकालने की चाल
ससून डॉक गेस्ट हाउस में हमलोग जनसत्ता के प्रधान संपादक प्रभाष जी के आदेश से रहते थे। प्रभाष जी ने बंबई संस्करण शुरू होने के समय कंपनी के मालिक रामनाथ गोयनका और उनके नाती (छोटे मालिक) विवेक खेतान से इस बात की इजाजत ले ली थी कि बाहर से जिसे भी वो लाएंगे उनको रहने की जगह कंपनी को देनी होगी। इसी नाते हमें वहां जगह मिली हुई थी। उस समय प्रभाषजी की वो हैसियत थी कि वे जो कुछ भी कह देते थे उसे विवेक गोयनका जी स्वीकार कर लेते थे। इसकी वजह थी कि प्रभाषजी रामनाथ गोयनका जी के राजनैतिक संघर्ष के दिनों के साथी थे। राहुल जी के अलग फ्लैट में शिफ्ट होने के एकाध महीने बाद ही हमें उस फ्लैट से निकालकर उसी बिल्डिंग के ग्राउंड फ्लोर पर बने गोदाम के एक हिस्से में रहने के लिए भेज दिया गया। वहां पानी और शौचालय वगैरह का बड़ा ही टूटा-फूटा इंतजाम था। वहां काफी सारा कबाड़ भरा पड़ा था। उसी कबाड़ में हमें वहां एक बिल्कुल टूटी फोल्डिंग चारपाई, एक लकड़ी का टूटा हुआ तख्त और एक बेकार हो गई एक फुट चौड़ी एक बेंच पड़ी मिली। हम तीन लोगों ने उन्हें जोड़कर किसी तरह से अपने सोने के लिए तैयार किया। टूटी चारपाई पर रविराज प्रणामी, टूटे तख्त पर सदानंद गोड़बोले और बेंच पर मैं सोने लगा। पीने का पानी हमें वहां के गंदे और टूटे संडास और टूटे हुए बाथरुम की टोंटी से ही लेना पड़ता था। हमलोग वहीं नहाते-धोते थे। उस गोदाम में जाते ही हमारा जीवन बिल्कुल नर्क बन गया।
गोदाम की खिड़कियां बुरी तरह टूटी हुई थी। और उस होकर बाहर से कौए मछलियों के अपशिष्ट चोंच में लिए अंदर घुस आते थे और जहां-तहां गिरा जाते थे। हम तीनों शुद्ध शाकाहारी थे और हमारे लिए यह सब झेलना बड़ा कठिन होता था। पर कोई और व्यवस्था नहीं की जा सकती थी इसलिए हम तीनों वहीं पड़े रहे। शहर में हम कमरा ले नहीं सकते थे क्योंकि हमारी तनख्वाह उस मुताबिक नहीं थी। उस समय भी बंबई में किराए के एक कमरे या वन तुम सेट वाले मकान के लिए हजारों रुपए की काफी मोटी पगड़ी देनी पड़ती थी। सतीश पेडणेकर उन दिनों अकेले थे और चीफ सब होने की वजह से उनकी तनख्वाह थोड़ी ठीकठाक थी इसलिए वे बाहर कमरा लेने में सक्षम थे। उन्होंने मालाड में किराए पर एक कमरा ले लिया था और वहीं चले गए थे। इंद्र कुमार जैन ने ठाणे में कमरा ले लिया था और वे भी गेस्ट हाउस से वहां शिफ्ट हो गए थे। इंदौर के विभूति शर्मा नौकरी छोड़कर वापस नई दुनिया जा चुके थे। बच गए थे सिर्फ हम तीन।
हमें बाद में मालूम पड़ा कि हमें गेस्ट हाउस के फ्लैट ले निकालकर नीचे गंदे गोदाम में भिजवाने में स्थानीय संपादक राहुल देव जी का ही हाथ था। उन्होंने कंपनी के मैनेजर से कहकर ऐसा करवाया था। शायद राहुल देव जी को लगा होगा कि उनके मातहत काम करनेवाले छोटे लोग और अदना पत्रकार उनकी बराबरी में उनके बराबर के फ्लैट में कैसे रह सकते हैं। यह उन्हें अच्छा नहीं लग रहा था। इसलिए उन्होंने हमसे एक दूरी बनानी चाही। सो हम नाचीजों के सामने अपनी हैसियत को और बड़ा करने के लिए ऐसा कुछ कराना उन्होंने जरूरी समझा। इसके पीछे की एक और वजह यह भी रही कि उनकी हैसियत में अचानक होने लगी उत्तरोत्तर बढ़ोतरी को हमारी नजरों से दूर कर ढांके रखने के लिए उनके लिए ऐसा करना जरूरी हो गया था।
गोदाम में रहने के दौरान हमने बहुत तकलीफें झेली। हमारे कष्टों का कोई पारावार नहीं था। हमने वहां गोदाम में रहते हुए चाय बनाने का सामान खरीदा और चाय खुद ही बनाना शुरू कर दिया। चाय हम बिजली के हीटर पर बनाते थे। दूध हम वहां अमूल का टेट्रापैक या फिर बोतल में आनेवाला दूध लाया करते थे। रविजी रात को दफ्तर से लौटते वक्त एक पार्क से शिवलिंग जैसा एक बड़ा सा सफेद पत्थर ले आए थे जिसपर हम इलायची कूटा करते थे। गोदरेज का एक बड़ा सा ताला था जिसे हम इलायची कूटने का मूसल बनाते थे। कुछ महीने बाद मैंने दिल्ली में पेट्रोलियम मंत्रालय को पत्र लिखकर रसोई गैस का एक आउट ऑफ टर्न कनेक्शन ले लिया था। उस समय कांग्रेस की सरकार में वी.शंकरानंद पेट्रोलियम मंत्री थे। राहुलजी की पत्नी ने नारियल फोड़कर मेरे गैस कनेक्सन का उद्घाटन किया था और उसपर पहली बार चाय बनाई गई थी। पर संयोग ऐसा रहा कि गैस पर हम वहां सिर्फ चाय ही बनाते रहे। खाना तो हमलोग बाहर का ही टिफिन मंगाकर खाते रहे। नौकरी करनी थी इसलिए हम तकलीफ झेलते हुए वहीं उसी हालात में रहते रहे।
45, टिफिन का खाना और पंचम पुरी की पूरियां
हम जब गोदाम में रहने के लिए भेज दिए गए तो हमने वहां टिफिन का खाना मंगाना शुरू कर लिया। टिफिनवाला रविवार को छुट्टी कर देता था। उस दिन हम वीटी स्टेशन के पास बैलॉर्ड एस्टेट के पंचम पुरीवाला की दुकान से पूरियां लेकर आते थे। उन दिनों पांच रुपए में 6 पूरियां, आलू-मेथी की सब्जी और मिर्च का आचार मिलता था। तीस रुपए की पूरियों में हम तीनों का काम चल जाता था। आज पंचम पुरीवाले उन्हीं 6 पूरियों, आलू-मेथी की सब्जी और अचार के 65 रुपए वसूलता है। पूरियां बेचने वाली वह छोटी दुकान अब एक बड़े रेस्टोरेंट में तब्दील गई है बताते हैं जहां अब तरह-तरह की महंगी डिश परोसी जाती है।
पंचम पुरी की दुकान पर हम जब भी जाते थे तो वहां एक पागल भिखारी टहलता जरूर मिल जाता था। वह चिल्ला-चिल्लाकर गालियां देकर कहता था, “साला बेईमान पंचमपुरी वाला, बेईमानी करके इतना बड़ा बन गया, साला कभी एक पुरी नहीं खिलाता। तू मरेगा साला। तेरे को कीड़े पड़ेंगे।“ हमने पता लगाया तो मालूम हुआ कि पंचम पुरी के मालिक और वह भिखारी दोनों एक ही जगह के हैं और दोनों बचपन में साथ ही खेले-खाए और बड़े हुए। पंचमपुरी का मालिक और उनका स्टाफ उस भिखारी की गालियां सुनते रहने का मानो आदी हो गया था। कभी-कभार वे लोग उसे कुछ पूरियां खाने को दे भी देते थे।
– गणेश प्रसाद झा
आगे अगली कड़ी में....
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