रविवार, 13 मार्च 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 3

 एक पत्रकार की अखबार यात्रा की तीसरी किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 3

7. भारतीय प्रेस परिषद में मुकदमा

जनमत की नौकरी से निकाले जाने के बाद मैं मुंगेर अपने गांव लौट गया। कैदियों और पुलिसवालों के साथ हुई घटना और इसे लेकर जनमत प्रबंधन द्वारा अखबार की नौकरी से निकाले जाने के मामले की लिखित शिकायत मैंने भारतीय प्रेस परिषद से कर दी। प्रेस परिषद ने मेरी शिकायती चिट्ठी जनमत प्रबंधन को भेजकर उनसे मेरी शिकायत के तमाम पहलुओं पर  जवाब मांगा। जनमत प्रबंधन की ओर से प्रेस परिषद को भेजा गया जवाब झूठों का पुलिंदा था। पर जनमत प्रबंधन का यह जबाब काफी मजेदार था। अखबार प्रबंधन ने मुझ पर मेरे कामकाज को लेकर कई तोहमत लगाए। कोर्ट परिसर में कैदियों और पुलिस से मेरे साथ हुई झड़प के बारे में उन्होंने कहा कि मेंने अपनी इच्छा से कैदियों की तस्वीर खींची थी और अखबार की तरफ से मुझे वहां नहीं भेजा गया था। यह भी कहा कि जनमत में फोटो का ब्लॉक बनाने की व्यवस्था नहीं है इसलिए तस्वीरों से अखबार का कोई लेनादेना नहीं होता। जनमत प्रबंधन ने अपने जबाब में यह भी कहा कि कैदियों और पुलिसवालों से झड़प के बाद मैं काफी डर गया था और आतंकित हो गया था और इसी डर की वजह से मैंने चुपचाप नौकरी छोड़ दी और अखबार प्रबंधन को बिना कुछ बताए धनबाद छोड़कर भाग गया।

जनमत प्रबंधन ने प्रेस परिषद को भेजे अपने जवाब में लिखा कि जनमत को मात्र दो श्रमजीवी पत्रकार मिलकर निकालते हैं और खबरों का संपादन संबंधी अधिकांश काम भी यही दोनों मिलकर कर लेते हैं। यह भी कि उनके अखबार में उप संपादक सरीखा कोई पत्रकार नहीं है। पर यह सरासर झूठ था। जनमत पूरे छह पेज का निकलता था। यह कभी संभव नहीं था कि दो लोग मिलकर रोजाना पूरे छह पेज की सामग्री लिख लें और फिर उसे संपादित भी कर लें। सच तो यह था कि सतीश चंद्र प्रतिदिन सिर्फ दो कॉलम का संपादकीय और एक कॉलम के आसपास एक व्यंग्य ‘गुरु चेला संवाद’ लिखते थे। अखबार की बाकी तमाम सामग्री तैयार करना वहां काम करनेवाले 8 उप संपादकों की टीम के जिम्मे होता था। अखबार के संपादक यूडी रावल तो शायद ही कभी कुछ लिखते थे। इसके अलावा अगर ये दोनों कुछ लिखते थे तो वह उनके उन अखबारों के लिए रिपोर्टिंग होती थी जिसके वो संवाददाता नियुक्त थे।

जनमत प्रबंधन ने अपने जवाब में एक झूठ यह भी लिखा कि मेरी नियुक्ति एक प्रशिक्षु पत्रकार के रूप में अवैतनिक रूप में हुई थी। पर सच तो यह था कि मुझे 250 रुपए की तनख्वाह मिलती थी। मैंने तो बाकायदा उप संपादक पद की रिक्तियों के विज्ञापन को देखकर अपना आवेदन भेजा था। जनमत संपादक ने पत्र लिखकर मुझे उप संपादक के इंटरव्यू के लिए बुलाया था। वहां मेरे जैसे और भी कई पत्रकार थे और उनलोगों की तनख्वाह भी 250-300 रुपए माहवार थी।

8. प्रेस परिषद को जनमत का जवाब

इस मुकदमे में मेरी शिकायत पर जनमत प्रबंधन की ओर से दिनांक 09 नवंबर, 1984 को अपने लेटर हेड पर भारतीय प्रेस परिषद को भेजा गया जवाब कुछ इस तरह था-

सेवा में,

उप सचिव,

प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया

नई दिल्ली- 110001

विषय- आपका पत्रांक- 13/31/34 सेक्ट

महाशय,

आपके उपर्युक्त पत्र के संबंथ में निवेदन है कि दैनिक जनमत बिल्कुल नया पत्र है और दो श्रमजीवी पत्रकारों द्वारा चलाया जा रहा है। संपादन संबंधी अधिकांश कार्य वे स्वयं करते हैं।

डा. गणेश प्रसाद झा नामक सज्जन अक्तूबर, 1983 के प्रथम सप्ताह में जनमत कार्यालय आए और पत्रकारिता के प्रशिक्षण के लिए अवैतनिक कार्य करने की पहल की। उन्होंने अपने को डिग्रीधारी और साहित्य में डॉक्टरेट बतलाया। उनकी बातों पर विश्वास कर हमने उन्हें प्रशिक्षणार्थी के रूप में काम करने की अनुमति दी इस शर्त के साथ कि उनकी योग्यता सही साबित हुई और वे काम के योग्य पाए जाएंगे तभी उनकी नियुक्ति के प्रश्न पर विचार किया जाएगा।

डा. झा ने कार्य प्रारंभ करते ही समाचार देना और अनुशासनहीनता दिखाना शुरू किया। जैसा कि डा. झा ने स्वयं आपके नाम प्रेषित अपने पत्र में स्वीकार किया है। उसने 7 अक्तूबर से कार्य प्रारम्भ किया और 11 अक्तूबर को ‘राजीव गांधी के स्वागत की तैयारी में कालीन खरीद पर हजारों रुपए स्वाहा’ शार्षक अनर्गल और बेबुनियाद समाचार दे दिया जो शत प्रतिशत झूठा समाचार साबित हुआ। उस गलत समाचार के कारण हमें बहुत आघात लगा। डा. झा को श्री राजीव गांधी की सभा का समाचार लाने हेतु भेजा गया, मगर वे वहां से सीधे अपने घर चले गए, जहां से दशहरे के बहुत दिन बाद वापस लौटे और उसके तुरंत बाद संपादकीय विभाग के दो प्रशिक्षणार्थियों में अनुशासनहीनता भरने के लिए जनमत में एक गलत समाचार छाप दिया जिसमें जनमत के वरिष्ठ पत्रकारों के साथ-साथ धनबाद के तमाम वरिष्ठ पत्रकारों पर झूठे आरोप लगाए गए। पूछने पर पता चला कि जिस बैठक का समाचार छपा, वह बैठक हुई ही नहीं थी। डा. झा ने दो प्रशिक्षणार्थी सहकर्मियों को गलत ढंग से फुसला कर गलत समाचार 9 नवंबर, 1983 के अंक में प्रकाशित करा दिया, जिसकी कतरन संलग्न है।

इन कारणों से हमने प्रारंभ में ही उन्हें कार्यमुक्त करने का निर्णय लिया, जिसका उल्लेख डा. झा ने आपके पास प्रेषित पत्र में इस तरह किया है- “मुझे नौकरी से निकालने की कौड़ी कमोबेश मेरी नियुक्ति के समय से ही चली जाने लगी थी।“

निश्चित है कि कार्य प्रारंभ करते-करते जो इतनी अनुशासनहीनता और गैर जिम्मेदारी बरते उसे कोई भी अपने यहां रखना नहीं चाहेगा। फिर भी डा. झा के विशेष अनुरोध पर उन्हें प्रशिक्षण पाने की सुविधा हम देते रहे। मगर उन्होंने अपने आचरण में कोई सुधार नहीं किया। हमारे यहां  ब्लॉक बनाने की व्यवस्था नहीं है। इसलिए चित्रों से हमारा मतलब नहीं होता। 1 फरवरी को जिस छायांकन को लेकर पुलिस से उनका झगड़ा हुआ, उस छायांकन से भी हमारा कोई संबंध नहीं था। उस घटना के बाद वे स्वयं आतंकित हो गए और प्रबंधन को कोई सूचना दिए वगैर चले गए। चूंकि वे हमारे यहां प्रशिक्षणार्थी थे और तीन महीने तक भी काम नहीं किया था, इसलिए न तो उन्हें उपसंपादक का पद दिया गया था, न उनकी नौकरी का स्थायीकरण हुआ था। स्थायीकरण के लिए कम से कम छह महीने की निरंतर और दोषरहित सेवा आवश्यक होती है, जो डा. झा के साथ नहीं हो पाया।

बाद में यह भी पता चला कि डा. झा स्नातक भी नहीं हैं और अपने नाम के साथ जो डाक्टर उपाथि लिखते हैं वह होमियोपैथी डाक्टरी की उपाधि है।

इस तरह डा. झा ने जो भी आरोप लगाए हैं, वे सारे बेबुनियाद आरोप हैं। संपादन कार्य के लिए वे शैक्षणिक रूप से अयोग्य, अनुशासनहीन और अमर्यादित व्यक्ति हैं। ये न तो जनमत में उप संपादक के पद पर थे, न उनकी नौकरी का पुष्टिकरण हुआ था। फिर पुलिसवालों से मारपीट कर वे स्वयं डर कर शहर छोड़कर चले गए। हम यों भी उनकी शैक्षणिक अयोग्यता, गलत रिपोर्टिंग, अनुशासनहीनता, गैर जिम्मेदारी आदि के कारण उनकी सेवा के पुष्टिकरण के पक्ष में नहीं थे।

आशा है, इस पत्र द्वारा स्थिति स्पष्ट हो गई होगी।

आपका विश्वासी,

यूडी रावल

संपादक

इस चिट्ठी पर प्रेस परिषद का इंदराज नंबर- (PCI. Dy. No.-1601, Dated- 14/11/84.)

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में...



शनिवार, 12 मार्च 2022

वर्षों से चिरकुट हैं हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार और संपादक

वर्षों से चिरकुट हैं हिन्दी के ‘वरिष्ठ’ पत्रकार और संपादक 

संजय कुमार सिंह

पत्रकार और जनसत्ता में साथ रहे Ganesh Jha आजकल फेसबुक पर किस्तों में अपनी कहानी लिख रहे हैं। कल की किस्त में उन्होंने बताया है कि 1984 में वे धनबाद के एक अखबार के लिए काम करते थे। एक फोटो या खबर के लिए उनकी पिटाई हो गई पर उनके अखबार ने खबर तक नहीं छापी। दबाव पड़ने पर नौकरी से निकाल दिया और इसकी भी खबर वहां के दूसरे हिन्दी अखबार ने नहीं छापी। वह खबर उस समय भी कोलकाता से प्रकाशित होने वाले मेरे पसंदीदा अखबार द टेलीग्राफ में छपी थी। उन दिनों मैं जमशेदपुर में टेलीग्राफ का नियमित पाठक था। पर हिन्दी अखबारों की यह दशा या दुर्दशा मुझे मालूम नहीं थी। 

फिलहाल तो गणेश झा की कहानी पढ़िए

तारीख थी 01 फरवरी 1984 और दिन था बुधवार। मैं धनबाद कोर्ट परिसर में घूम रहा था। तब मेरे पास अपना एक कैमरा भी हुआ करता था। कोर्ट परिसर में एसडीओ दफ्तर के पास पेशी के लिए धनबाद जेल से लाए गए कुछ विचाराधीन कैदी बैठे थे। पेशी के लिए आनेवाले कैदियों को रखने के लिए वहीं एक हाजत यानी लॉकअप भी बना हुआ था। पर कैदियों को वहां नहीं रखकर उन्हें खुले मैदान में बिठा कर रखा गया था। उन्हें जेल से लानेवाले पुलिस के सिपाही भी वहां बैठे थे। वे कैदी पुलिस की हिरासत में थे। उनके हाथों में हथकड़ियां थीं। कमर में मोटा सा रस्सा बंधा था। सिपाहियों ने कैदियों के कमर में लगे रस्से का एक सिरा पकड़ रखा था। पुलिस हिरासत में जेल से लाए गए उन कैदियों में से दो कैदी और उनकी अभिरक्षा में तैनात दो पुलिस जवान आपस में ताश खेल रहे थे। वहीं जमीन पर बिछे अखबार पर मुंगफलियां भी रखी हुई थी जिसका कैदी और पुलिसवाले सभी स्वाद चख रहे थे। पुलिसवालों ने अपनी रायफलें वहीं जमीन पर रख दी थी और बेफिक्र होकर ताश खेलने में मशगूल थे। बाकी पुलिसवाले वहीं थोड़ा परे हटकर बैठे थे और उन्होंने भी अपनी रायफलें जमीन पर रख दी थी और वे भी मूंगफली खा रहे थे।

पुलिस हिरासत में जेल से आए उन कैदियों ने वहीं शराब मंगवाई और वहीं पुलिसवालों के सामने ही पी भी ली। शराब की बोतलें उनके सामने ही रखी थी। मैंने उन कैदियों की फोटो खींच ली। इससे कैदी और उनकी सुरक्षा में लगे पुलिसवाले एकदम से बिदक गए। … कुछ सिपाही मेरी तरफ दौड़े और मुझे पकड़ लिया और मेरा कैमरा छीन लिया। … कैमरे की रील निकाल ली। पुलिसवाले मुझे खींचकर वहीं ले गए जहां कैदी बैठे ताश खेल रहे थे। मुझे कैदियों और पुलिसवालों ने घेर लिया। पुलिसवालों के इशारे पर उन कैदियों ने मेरी पिटाई कर दी और उन पुलिसवालो ने भी मुझे पीटा। सबकुछ उन पुलिसवालों के सामने हुआ। बाद में अखबार का नाम लेने और जिले के डिप्टी कमिश्रनर से इसकी शिकायत करने की बात कहने पर पुलिसवाले मुझे पकड़कर थाने ले गए। वहां थानेदार आरपी सिंह ने मुझे गिरफ्तार कर लेने की धमकी दी और दो घंटे तक थाने में बिठाए रखा।

थानेदार ने मेरा कैमरा तो लौटा दिया पर रील अपने पास ही रख ली। मेरे कैमरे को पुलिसवालों ने क्षतिग्रस्त कर दिया था। मैंने तुरंत धनबाद के पुलिस अधीक्षक (एसपी) से मिलकर अपने साथ हुई इस घटना की लिखित शिकायत की और उनसे छीनी गई कैमरे की रील वापस दिलाने को कहा। पर एसपी ने तत्काल मेरी कोई मदद नहीं की। फिर मैं धनबाद के जिला आयुक्त (डीसी) के पास भी गया और उनसे भी इस घटना की लिखित शिकायत की। वहां से भी मुझे तत्काल कोई मदद नहीं मिली। जैसा कि आमतौर पर होता है, दोनों अधिकारियों ने मेरी बात बस इस कान से सुनी और उस कान से निकाल दी। किसी ने मेरे साथ हुई इस घटना और मेरी बात को कोई तवज्जो नहीं दी।

अखबार के दफ्तर पहुंचकर मैंने संपादक समेत सबको इस घटना के बारे में बताया। डेस्क के साथियों ने कहा कि इसकी खबर छापी जाए। पर संपादक ने कहा, ‘कोई खबर नहीं छपेगी। गणेश झा को अखबार की तरफ से वहां जाने और फोटो खींचने के लिए तो कहा नहीं गया था। वे दफ्तर की इजाजत के बगैर अपनी इच्छा से वहां गए थे और इन्होंने जो कुछ भी किया वह अपनी इच्छा से किया। इसलिए अखबार इस मामले में नहीं पड़ेगा।‘ .... और अगले ही दिन अखबार प्रबंधन ने मुझे नौकरी से निकाल दिया। .... अगले दिन मैं धनबाद के एक अन्य पुराने और प्रतिष्ठित दैनिक आवाज के संपादक ब्रह्मदेव सिंह शर्मा से मिला और उन्हें कैदियों वाली घटना और फिर जनमत प्रबंधन द्वारा नौकरी से निकाल दिए जाने की बात बताई। 

मेरी बात तो उन्होंने सुन ली पर कोई मदद नहीं की। वे चाहते तो मुझे अपने अखबार में नौकरी दे सकते थे, पर उन्होंने तो मेरे साथ जो कुछ हुआ उसकी खबर तक नहीं छापी। कोलकाता (तब के कलकत्ता) के प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार ‘द टेलीग्राफ’ के धनबाद संवाददाता और तब के वरिष्ठ पत्रकार अजय मिश्र ने कैदियों वाली इस घटना की खबर अपने अखबार ‘द टेलीग्राफ’ को भेज दी थी जो अखबार के दिनांक 16 फरवरी, 1984 के अंक में पेज नंबर-7 पर प्रमुखता से चार कॉलम में छपी थी। खबर का शी्र्षक था- ‘Click & Be Damned’ और इस खबर में मुझे नौकरी से निकाल दिए जाने की भी प्रमुखता से चर्चा की गई थी। 

गणेशा झा ने लिखा नहीं है और मैंने पूछा नहीं - पर कहने की जरूरत नहीं है कि बाद में भी हिन्दी के किसी वीर-बहादुर संपादक या मालिक ने इसे नहीं छापा होगा। पत्रकार साथियों की बात अलग है। इससे आप समझ  सकते हैं यह डीएम एसपी के डर था। मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री के आगे ऐसे लोगों का क्या हाल होगा। नेहरू परिवार के हाथ से निकलकर देश की राजनीति जब हिन्दी वालों के हाथ में आई तो हिन्दी के बहुत सारे पत्रकारों के दिन फिर गए। लेकिन हिन्दी पत्रकारिता का वही हाल रहा। अब तो हिन्दी पत्रकारिता हिन्दू पत्रकारिता हो गई है।

शुक्रवार, 11 मार्च 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर-2

 एक पत्रकार की अखबार यात्रा की दूसरी किश्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग-2


3. प्रोफेशनलिज्म की शुरुआत

यह चिकित्सा विज्ञान में मेरी रुचि का ही असर था जो पिता के रिटायर होने के बाद फरवरी 1975 में गांव लौटकर मैंने मुंगेर के टीएचएच होमियोपैथिक मेडिकल कॉलेज में डीएचएमएस कोर्स में एडमीशन कराया। इसके बाद 1979 में पत्रकारिता की विधिवत शुरुआत करते हुए छोटे-छोटे अखबारों में खबर लिखना शुरू किया। पटना के अखबार आर्यावर्त के र्मुंगेर जिला संवाददाता (स्ट्रिंगर) लक्ष्मीकांत मिश्र शहर से एक साप्ताहिक टेबलॉयड अखबार निकालते थे। अखबार का नाम था अग्रसर जिसमें मुंगेर जिले और आसपास के इलाकों की खबरें और कुछ लेख वगैरह होते थे। मेरे गांव के एक स्कूल शिक्षक धर्मनारायण झा ने पत्रकारिता में मेरी रुचि देखकर लक्ष्मीकांत मिश्रजी से मेरी सिफारिश कर दी थी। उनका पत्रकार लक्ष्मीकांत मिश्र जी से काफी पुराना परिचय था। इस तरह मैं मुंगेर जिले के अपने तारापुर शहर से लक्ष्मीकांत मिश्रजी के अखबार अग्रसर का अवैतनिक संवाददाता नियुक्त हो गया था। अग्रसर के हर अंक में मेरी खबरें होती थी। जल्दी ही मैं पटना के एक साप्ताहिक टेबलॉयड अखबार स्प्लिंटर का मुंगेर जिला संवाददाता भी बन गया और उसमें जिले भर की खबरें लिखने लगा। इस अखबार के संपादक थे शर्मांजु किशोर जो हम उम्र थे। लिहाजा उनसे मित्रवत संबंध बन गया और मैं स्प्लिंटर में खूब लिखने-छपने लगा।

उन दिनों मुंगेर से पत्रकार भरत सागर भी एक साप्ताहिक टेबलॉयड अखबार निकालते थे। नाम था शानदार । यह शहर का बहुचर्चित टेबलॉयड अखबार था। होमियोपैथी की पढ़ाई के दौरान मुंगेर के तमाम पत्रकारों से मिलना-जुलना और परिचय बनाना और स्थानीय अखबारों के लिए लिखना मेरी आदत सी हो गई थी। भरत जी से भी मुलाकात उसी दौरान हुई थी। भरतजी भी हम उम्र थे और वे मुझे बहुत ही जुझारू किस्म के इंसान लगते थे। इसलिए उनसे भी खूब छनती थी और मैं शानदार में खूब छपता था। उन दिनों खतरा उठाकर शानदार में छोटे-छोटे मामलों का भंडाफोड़ करने में मुझे बहुत आनंद आता था। शानदार का पूरे मुंगेर जिले में और आसपास अपना एक रुतबा था और एक दहशत भी कि पता नहीं यह अखबार कब किसके खिलाफ क्या लिख दे। 1980 में शानदार में एक खोजी रिपोर्ट लिखकर मुंगेर के तारापुर में चल रहे एक फर्जी शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय का भंडाफोड़ करना और उसके बाद हुई ठगों की गिरफ्तारी आज भी लोगों को याद है। शानदार अब नहीं छपता। मित्र भरत सागरजी पिछले कई सालों से हैदराबाद में बसे हुए हैं।

उन दिनों आज की तरह चप्पे-चप्पे से अखबार नहीं निकला करते थे। सिर्फ राजधानी के पत्रकार ही दैनिक अखबार से अपनी पत्रकारिता के सफर की शुरुआत कर पाते थे। बाकी मुफस्सिल और जिलों के पत्रकारों के लिए तो साप्ताहिक टेबलॉयड अखबार ही सफर शुरु करने का जरिया बनते थे। पत्रकारिता के सफर पर आगे बढ़ना बहुत कठिन और दुरूह कार्य होता था। उस समय आज की तरह सिखानेवाले भी नहीं होते थे और न तो पत्रकारिता की डिग्रियां देनेवाले विश्वविद्यालय और संस्थान ही थे। सबकुछ अपने बूते ही करना होता था और आगे भी बढ़ना होता था।

मैं खुद को बहुत भाग्यशाली मानता हूं कि उसी दौरान मैं टाइम्स ग्रुप की प्रतिष्ठित और बेहद प्रभावषाली साप्ताहिक पत्रिका दिनमान में भी छप सका। दिनमान की वह स्टोरी बड़ी अनूठी सी थी। उन दिनों बिहार में गंगा की लहरों पर माफियों की रंगदारी चलती थी। गंगा पर माफियों का ही नाव-जहाज चलता था। किसी गैर का नाव-जहाज नहीं चलने दिया जाता था। इसी पर कुछ जानने-समझने मैं एक दिन भागलपुर के सुल्तानगंज गंगा घाट के ‘जहाज घाट’ पर गया था जहां से नदी पार कराने के लिए नावें और जहाज (स्टीमर) चलते थे। वहीं ‘जहाज घाट’ पर मैंने देखा कि गंगा के उस पार अगुआनी घाट जानेवाले एक जहाज पर लोग सवार हो रहे हैं और सामान भी लादे जा रहे हैं। तभी तीन-चार लोग दौड़ते हुए आए और जहाज के अंदर घुस गए। उनमें से एक ने जहाज में चंद मिनट पहले सवार हुए एक मुसाफिर को पकड़ लिया और उसे ताबड़तोड़ चाकुओं से गोद दिया जिससे उसकी वहीं जहाज पर ही मौत हो गई। हत्यारों को किसी ने पकड़ने की हिम्मत नहीं की और वे सुरक्षित भाग निकले। अपनी आंखों के सामने घटी इस घटना को मैंने दिनमान में लिख भेजा जो 3 से 9 अक्तूबर 1982 के अंक में पेज नंबर 34 पर बॉक्स में छपा था। आधे पन्ने की उस बाईलाइन स्टोरी का शीर्षक था- ऐसा भी होता है इस देश में। दिनमान ने इस बाईलाइन स्टोरी का पारिश्रमिक मुझे 50 रुपए दिया था जो मनिआर्डर से 26/02/1983 को आया था। मुझ मुफस्सिल पत्रकार के लिए उस समय यह रकम कम नहीं थी। उस समय इससे मुझे जो खुशी मिली थी उसकी कीमत तो और भी ज्यादा थी।

4. श्रमजीवी पत्रकारिता

धनबाद कोयलांचल से छपनेवाला जनमत मेरा पहला दैनिक अखबार था। इस अखबार में मेरी नियुक्ति उप संपादक के रूप में 7 अक्टूबर 1983 को हुई थी। इससे एक दिन पहले 6 अक्तूबर को मैं नौकरी के लिए साक्षात्कार में उपस्थित हुआ था। उस समय इस अखबार को सतीश चंद्र और यूडी रावल मिलकर निकालते थे। यूडी रावल का नाम अखबार के संपादक के रूप में छपता था। पर यूडी रावल समाचार एजेंसी पीटीआई और कलकत्ता के अंग्रेजी दैनिक द स्टेट्समैन के धनबाद जिला संवाददाता भी थे। उधर अखबार के प्रबंधक सतीशचंद्र पटना के अंग्रेजी अखबार द इंडियन नेशन के धनबाद संवाददाता (स्ट्रिंगर) के रूप में भी काम कर रहे थे।

दिल्ली की साप्ताहिक समाचार पत्रिका दिनमान के 10 जुलाई से 16 जुलाई 1983 के अंक में जनमत अखबार में उप संपादक की रिक्तियों का एक विज्ञापन छपा था। जनमत में उप संपादक की नौकरी के लिए मेरा 20 जुलाई 1983 का आवेदन धनबाद में रह रहे स्कूल के मेरे साथी यतींद्र कुमार बोल ने संपादक यूडी रावल तक पहुंचाया था। संपादक यूडी रावल ने आवेदन में संलग्न मेरी छपी खबरों की कतरनें देखकर सितंबर महीने में मुझे मुंगेर के पते पर बाकायदा पत्र भेजकर उप संपादक पद के लिए साक्षात्कार में उपस्थित होने के लिए बुलाया था। संपादक यूडी रावल के हस्ताक्षर से जनमत अखबार के लेटरहेड पर 23-09-1983 की तारीख को लिखी गई इस चिट्ठी में लिखा था-  

दिनांक 23-9-83.

सेवा में,

डा. गणेश प्रसाद झा, ‘पत्रकार’

73, पायनियर भवन, कुआंगढ़ी,

सुपौर (तारापुर) मुंगेर,

बिहार- 813221.

महाशय,

उप संपादक पद के लिए आपका 20 जुलाई 83 का प्रार्थना पत्र हमें पिछले दिनों मिला है। आपसे अनुरोध है कि आप अपने योग्यता एवं पत्रकारिता अनुभव के प्रमाणपत्रों के साथ यथाशीघ्र साक्षात्कार के लिए हमारे कार्यालय में सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे के बीच किसी दिन अपने खर्च पर उपस्थित हों।

साक्षात्कार में उपस्थित होने के लिए आपको किसी प्रकार का भत्ता नहीं दिया जाएगा।

सधन्यवाद,

आपका,

(यू.डी.रावल)

सम्पादक

इस तरह 7 अक्तूबर 1983 को मैंने जनमत में उप संपादक की नौकरी शुरू की थी। वहां मेरी तनख्वाह 250 रुपए थी। (जनमत के संपादक की यह चिट्टी यहां मैंने क्यों छाप दी इसकी चर्चा मैं आगे करूंगा और इसकी वजह भी बताउंगा।)

जनमत अखबार का दफ्तर धनसार के शास्त्रीनगर में था जो मेरे स्कूल लक्ष्मीनारायण विद्या मंदिर से थोड़ी ही दूरी पर था। तब धनबाद रेलवे स्टेशन के पिछवाड़े के मनईटांड मोहल्ले में 60 रुपए में मुझे किराए का एक कमरा मिल गया था और बैंक मोड़ में एक मारवाड़ी बासा में 120 रुपए में दोनों वक्त का भर पेट और स्वादिष्ट भोजन मिल जाता था। टेलीप्रिंटर पर आनेवाली समाचार एजेंसी की खबरों का संपादन करना मैंने इसी अखबार में रहते हुए सीखा था। यहां यह भी बता देना चाहता हूं कि जनमत पहले एक साप्ताहिक अखबार हुआ करता था जिसे कोयलांचल के पत्रकार विक्रमादित्य लाल ने निकालना शुरू किया था। बहुत सालों बाद इसे धनबाद के दो पत्रकारों सतीशचंद्र और यूडी रावल ने दैनिक अखबार बनाया था। जनमत दैनिक का प्रवेशांक 05 फरवरी 1983 को निकला था।

जनमत में नौकरी करते हुए मेरे साथ पत्रकारिता से जुड़ी कई घटनाएं हुई। सब के सब जनमत से जुड़ी हुई और खोजी पत्रकारिता के चक्कर में हुईं। उन्हीं दिनों तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पुत्र राजीव गांधी अपने एक दौरे पर धनबाद आनेवाले थे। धनबाद के डीसी (जिले के उपायुक्त) ने उनके स्वागत की तैयारी में 20 हजार रुपए के कालीन की खरीद की थी। उन दिनों 20 हजार रुपए बहुत होते थे। यह खरीद धनबाद की ही एक बड़ी दुकान मोदी प्लोर से की गई थी। 7 अक्तूबर को बाजार में घूमते हुए मैं संयोग से उसी दुकान पर चला गया था। वहीं मैंने दुकान मालिक और डीसी के एक स्टॉफ की वहां हो रही बातचीत में यह बात सुन ली। मैंने अनजान और अनाड़ी बनकर इस खबर की पुष्टि की और शाम को अपने दफ्तर पहुंचने पर छोटी सी खबर बनाकर दे दी। पर डेस्क की किसी चूक के कारण यह खबर अगले दिन यानी 8 अक्तूबर को छपने से रह गई। यह खबर 11 अक्तूबर को राजीव गांधी के आगमन के अगले दिन 12 अक्तूबर को सिंगल कॉलम में छपी। खबर की हेडिंग थी- ‘राजीव गांधी के स्वागत की तैयारी में कालीन खरीद पर हजारों रुपए स्वाहा’। यह खबर छपी तो धनबाद के डीसी महोदय आगबबूला हो गए। डीसी ने जनमत के संपादक यूडी रावल और सतीशचंद्र को फोन करके खूब भला-बुरा कहा। उस समय जिला प्रशासन के वि्ज्ञापन के रहमोकरम पर जीनेवाले ऐसे छोटे अखबारों में प्रशासन के खिलाफ कुछ लिखने और उसका थोड़ा भी विरोध करने का साहस नहीं होता था। लिहाजा सारा गुस्सा मुझ पर ही फूटा। मेरी नौकरी तो उस दिन बच गई पर मुझे वार्निंग देकर छोड़ा गया। संपादक ने कहा, ‘मुझे अखबार निकालना है, जिला प्रशासन से पंगा नहीं लेना है। इस तरह तो मेरा विज्ञापन ही बंद हो जाएगा।’

अब एक दूसरी घटना बताता हूं। उन्हीं दिनों एक दिन की बात है। तारीख थी 01 फरवरी 1984 और दिन था बुधवार। मैं धनबाद कोर्ट परिसर में घूम रहा था। तब मेरे पास अपना एक कैमरा भी हुआ करता था। कोर्ट परिसर में एसडीओ दफ्तर के पास पेशी के लिए धनबाद जेल से लाए गए कुछ विचाराधीन कैदी बैठे थे। पेशी के लिए आनेवाले कैदियों को रखने के लिए वहीं एक हाजत यानी लॉकअप भी बना हुआ था। पर कैदियों को वहां नहीं रखकर उन्हें खुले मैदान में बिठा कर रखा गया था। उन्हें जेल से लानेवाले पुलिस के सिपाही भी वहां बैठे थे। वे कैदी पुलिस की हिरासत में थे। उनके हाथों में हथकड़ियां थीं। कमर में मोटा सा रस्सा बंधा था। सिपाहियों ने कैदियों के कमर में लगे रस्से का एक सिरा पकड़ रखा था। पुलिस हिरासत में जेल से लाए गए उन कैदियों में से दो कैदी और उनकी अभिरक्षा में तैनात दो पुलिस जवान आपस में ताश खेल रहे थे। वहीं जमीन पर बिछे अखबार पर मुंगफलियां भी रखी हुई थी जिसका कैदी और पुलिसवाले सभी स्वाद चख रहे थे। पुलिसवालों ने अपनी रायफलें वहीं जमीन पर रख दी थी और बेफिक्र होकर ताश खेलने में मशगूल थे। बाकी पुलिसवाले वहीं थोड़ा परे हटकर बैठे थे और उन्होंने भी अपनी रायफलें जमीन पर रख दी थी और वे भी मूंगफली खा रहे थे।

पुलिस हिरासत में जेल से आए उन कैदियों ने वहीं शराब मंगवाई और वहीं पुलिसवालों के सामने ही पी भी ली। शराब की बोतलें उनके सामने ही रखी थी। मैंने उन कैदियों की फोटो खींच ली। इससे कैदी और उनकी सुरक्षा में लगे पुलिसवाले एकदम से बिदक गए। कैदियों ने आवाज लगाई पकड़ो-पकड़ो। पुलिस के कुछ सिपाही मेरी तरफ दौड़े और मुझे पकड़ लिया और मेरा कैमरा छीन लिया। तुरंत उन पुलिसवालों ने कैमरे की रील निकाल ली। पुलिसवाले मुझे खींचकर वहीं ले गए जहां कैदी बैठे ताश खेल रहे थे। मुझे कैदियों और पुलिसवालों ने घेर लिया। पुलिसवालों के इशारे पर उन कैदियों ने मेरी पिटाई कर दी और उन पुलिसवालो ने भी मुझे पीटा। सबकुछ उन पुलिसवालों के लामने हुआ। बाद में अखबार का नाम लेने और जिले के डिप्टी कमिश्रनर से इसकी शिकायत करने की बात कहने पर पुलिसवाले मुझे पकड़कर थाने ले गए। वहां थानेदार आरपी सिंह ने मुझे गिरफ्तार कर लेने की धमकी दी और दो घंटे तक बेवजह धाने में बिठाए रखा।

थाने में दो घंटे की लंबी बिना वजह की पूछताछ के बाद मुझे छोड़ दिया गया। थानेदार ने मेरा कैमरा तो लौटा दिया पर रील अपने पास ही रख ली। मेरे कैमरे को पुलिसवालों ने क्षतिग्रस्त कर दिया था। मैंने तुरंत धनबाद के पुलिस अधीक्षक (एसपी) से मिलकर अपने साथ हुई इस घटना की लिखित शिकायत की और उनसे छीनी गई कैमरे की रील वापस दिलाने को कहा। पर एसपी ने तत्काल मेरी कोई मदद नहीं की। फिर मैं धनबाद के जिला आयुक्त (डीसी) के पास भी गया और उनसे भी इस घटना की लिखित शिकायत की। वहां से भी मुझे तत्काल कोई मदद नहीं मिली। जैसा कि आमतौर पर होता है, दोनों अधिकारियों ने मेरी बात बस इस कान से सुनी और उस कान से निकाल दी। किसी ने मेरे साथ हुई इस घटना और मेरी बात को कोई तवज्जो नहीं दी।

अखबार के दफ्तर पहुंचकर मैंने संपादक समेत सबको इस घटना के बारे में बताया। डेस्क के साथियों ने कहा कि इसकी खबर छापी जाए। पर संपादक ने कहा, ‘कोई खबर नहीं छपेगी। गणेश झा को अखबार की तरफ से वहां जाने और फोटो खींचने के लिए तो कहा नहीं गया था। वे दफ्तर की इजाजत के वगैर अपनी इच्छा से वहां गए थे और इन्होंने जो कुछ भी किया वह अपनी इच्छा से किया। इसलिए अखबार इस मामले में नहीं पड़ेगा।‘ जनमत ने कोई खबर नहीं छापी। उल्टे इस घटना ने मेरी नौकरी पर खतरे की तलवार एक दफा फिर लटका दी। प्रबंधन ने फिर मुझे नौकरी से निकाल दिए जाने की कड़ी चेतावनी दे दी।

इस घटना को जनमत ने भले ही दबा दिया, पर मामला दबा नहीं। धनबाद के पत्रकारों में इस खबर की खूब चर्चा रही। शहर के पत्रकार इस घटना को प्रेस की आजादी पर हमला मान रहे थे। उस समय वहां के कुछ बड़े पत्रकारों ने जनमत के दफ्तर आकर मेरी इस हिम्मत की तारीफ की। कुछ पत्रकारों ने मेरे साथ हुई इस घटना के बारे में जिला प्रशासन से सवाल-जवाब भी किया। जो जिला प्रशासन अब तक इस मामले को दबाने में लगा था उसकी अब जान सांसत में पड़ती दिखी। जिला प्रशासन ने जनमत अखबार के प्रबंधन पर दबाव बनाया, धमकाया और शायद मुझे नौकरी से निकालने का इशारा भी किया। इसका खूब असर हुआ और अगले ही दिन अखबार प्रबंधन ने मुझे नौकरी से निकाल दिया।

जनमत मेरा पहला अखबार धा और यह मेरी पहली वैतनिक नौकरी भी धी। नौकरी से निकाले जाने पर मुझे बहुत दुख हुआ। अगले दिन मैं धनबाद के एक अन्य पुराने और प्रतिष्ठित दैनिक आवाज के संपादक ब्रह्मदेव सिंह शर्मा से मिला और उन्हें कैदियों वाली घटना और फिर जनमत प्रबंधन द्वारा नौकरी से निकाल दिए जाने की बात बताई। मेरी बात तो उन्होंने सुन ली पर कोई मदद नहीं की। वे चाहते तो मुझे अपने अखबार में नौकरी दे सकते थे, पर उन्होंने तो मेरे साथ जो कुछ हुआ उसकी खबर तक नहीं छापी।

कोलकाता (तब के कलकत्ता) के प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार ‘द टेलीग्राफ’ के धनबाद संवाददाता और तब के वरिष्ठ पत्रकार अजय मिश्र राजीव गांधी के स्वागत के लिए कालीन की खरीद वाली मेरी खबर छपने के बाद से मेरे काम से बहुत खुश रहते थे। उन्होंने कैदियों वाली इस घटना की खबर अपने अखबार ‘द टेलीग्राफ’ को भेज दी थी जो अखबार के दिनांक 16 फरवरी, 1984 के अंक में पेज नंबर-7 पर प्रमुखता से चार कॉलम में छपी थी। खबर का शी्र्षक था- ‘Click & Be Damned’ और इस खबर में मुझे नौकरी से निकाल दिए जाने की भी प्रमुखता से चर्चा की गई थी। यह सब जनमत प्रबंधन को बहुत नागवार लगा था। तब सुनने में आया था कि इस खबर को लेकर जनमत के मालिकान शतीश चंद्र और यूडी रावल की अजय मिश्र से काफी चख-चख भी हो गई थी।

‘The Telegraph’ अखबार के 16/02/1984 के अंक में Regional Roundup पेज नंबर 7 पर संवाददाता अजय मिश्र की 4 कॉलम की बाईलाइन रिपोर्ट कुछ इस तरह छपी थी-

BIHAR

Click And Be Damned

Dhanbad, The recent assault on a journalist by guardians of the law has proved once again that in the event of a clash between the media and the police, it is the former which suffers even if the later is at fault.

On February 1 Mr.Ganesh Prasad Jha, a young journalist working for the local daily ‘Janmat’, took photographs of policeman playing cards with under trails outside the SDO’s office, where the lockup is located. The under trials had been brought from Dhanbad jail to be produced before the court, but had not been incarcerated for reasons that have not been explained.

When the photographer saw them, two policemen were playing cards with the under trails. Their rifles were behind them on the ground. Two other policeman were sitting a little further away, near the boundary wall, eating peanuts. Their rifles were also lying on the ground.

Physical Assault: Mr Jha rightly finding the scene unusual being taking photographs, one of the policemen sitting near the wall saw him at work, caught hold of him and dragged him to where the card players were in sitting. Instigated by the police the under trails also gave the journalist a severe beating.

When Mr Jha threatened to report the matter to the Deputy Commissioner, the policemen took him to the police station. Here Mr Jha was threatened with arrest by the OC, Mr R.P.Singh, but was ultimately released after two hours. The police, however, kept his roll of film.

Mr Jha immediately reported the incident to Mr Satish Chandra, a senior staffer of ‘Janmat‘ and also a correspondent of the Patna Daily Indian Nation. Eventually, however, no action was taken.

Reactions of incident: When this correspondent met the editor of Janmat, Mr U.D.Rawel (also the correspondent of the news agency PTI & a Calcutta based English daily) to ask why the incident had not been reported in his paper & why the DC & SP of the area had not been informed, Mr Rawel flared up & said, “why should we antagonize the police because of an aira gaira (no body)?” When reminded that Mr Jha was an employee of his, Mr Rawel said, “let us see what we can do.”

What the editor did was unceremoniously dismiss Mr Jha the next morning. The reason given was that he had given vent to his feelings to this correspondent. Meanwhile, the matter was brought to the notice of Deputy Commissioner.

Mr B.D. Singh Sharma, the editor of Awaj, another daily which was aware of the incident, said that Mr Jha had called on him the morning after his dismissal  from Janmat. When asked why he had also suppressed the news, he said, “we thought that they (Mr Rawel and Mr Satish Chandra) would take it as an attack.”

-Ajay Mishra

जनमत प्रबंधन ने मुझे नौकरी से निकालने के कुछ महीनों बाद कई और पत्रकारों को भी निकाल बाहर किया। तीन महीने बाद 19 मई 1984 को सुधीर की नौकरी छीन ली गई। फिर गिरीश वर्मा निकाल दिए गए। प्रबंधन से प्रताड़ित होने पर 1 मई 1984 को हमारे वरिष्ठ साथी हरिहर झा ने भी इस्तीफा दे दिया और अपने पुराने अखबार आवाज लौट गए।

 

5. पेशागत टकराव

जनमत की मेरी नौकरी शुरू होने के चंद दिनों बाद ही 17 नवंबर 1983 से दिल्ली से इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप के हिन्दी अखबार जनसत्ता का प्रकाशन शुरू हो गया था। डमी तो कई महीने पहले से निकलने लगा था। मैं इस अखबार को धनबाद जिले की खबरें भेजने लगा था। धनबाद में कोयले की खुलेआम चोरी होती थी। आज भी होती है। छोटे पैमाने पर कहें तो पूरे कोयलांचल में लगभग हर जगह हजारों हजार लोग रोजाना सायकिलों पर बोरियों में लादकर कोयला चोरी से उठा ले जाते थे।

कोयले की यह चोरी वहां के लिए आम बात थी और उस तरफ कभी किसी स्थानीय पत्रकार का ध्यान नहीं जाता था। मैंने इस अनोखी कोयला चोरी की खबर तस्वीर के साथ जनसत्ता को भेजी जो तस्वीर समेत छप गई थी। जनसत्ता उस समय एकदम नया-नया अखबार था और हर तरफ उसकी भरपूर चर्चा होती थी। खबर छपी थी इसलिए धनबाद में भी अखबार की खूब चर्चा हुई। खासकर मीडिया वालों के बीच तो इसकी और ज्यादा चर्चा थी। पर मजा ये कि जनमत के संपादक यूडी रावल दफ्तर में सबको जनसत्ता अखबार दिखा-दिखाकर कह रहे थे कि उन्होंने जनसत्ता के लिए भी लिखना शुरू कर दिया है और यह रही कोयला चोरी पर उनकी खास खबर। मैंने कोयला चोरी की वह फोटो दप्तर के कुछ साथियों को कई दिन पहले ही दिखा दी थी। इसलिए वे साथी तो समझ गए कि जनसत्ता में छपी खबर मेरी यानी गणेश झा की है और संपादक जी सरासर झूठ बोल रहे हैं। उस दिन भी कोयला चोरी वाली वह फोटो मेरे पास थी। डेस्क के मेरे एक साथी विजय श्रीवास्तव वह फोटो और जनसत्ता की कॉपी लेकर संपादक यूडी रावल के कमरे में गए और उन्हें दिखाकर कहा कि खबर तो गणेश झा की है जिसका सबूत यह फोटो है जो उन्होंने खुद कई दिन पहले खींची थी और हमलोगों को दिखाई भी थी। अब यूडी रावल को काटो तो खून नहीं। उनका झूठ पकड़ जो लिया गया था। फिर संपादकजी ने तुरंत मुझे अपने कमरे में बुलाया और डेस्क के साथियों के सामने जनसत्ता में छपी उस खबर के लिए मुझे बधाई दे दी। पर इस सबसे संपादक यूडी रावल भीतर ही भीतर मुझसे जल भुन रहे थे। उनका इस तरह मुझसे बार-बार नाराज होते रहना मेरी नौकरी के लिए खतरे की घंटी थी।

उन्हीं दिनों धनबाद के डिगवाडीह में क्रिकेट का रणजी ट्रॉफी मैच हुआ था जिसमें अजहरुद्दीन पहली बार रणजी खेलने आए थे। मैंने जनमत से छुट्टी लेकर जनसत्ता के लिए यह मैच कवर किया था। अगर यहां कोई यह कहे कि जनमत में उप संपादक की नौकरी करते हुए मैंने जनसत्ता या किसी दूसरे अखबार के लिए खबरें लिखकर अनुशासनहीनता की तो मैं यहां यह कहूंगा कि संपादक यूडी रावल और सतीश चंद्र दोनों एक-एक अखबार के धनबाद से जिला संवाददाता यानी स्ट्रिंगर थे और फिर भी अलग से अपना अखबार निकालते थे और उसके प्रबंधक और संपादक बने हुए थे।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में...

रविवार, 6 मार्च 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर

 एक पत्रकार की अखबार यात्रा की पहली कड़ी


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 1


1. बचपन और परवरिश

वैसे तो मेरे परिवार या फिर खानदान का पत्रकारिता से दूर-दूर तक का भी कोई रिश्ता नहीं था। मेरे दादाजी अयोध्यानाथ झा ज्योतिषाचार्य और कर्मकांडी ब्राह्मण थे तो पिता बुद्धिनाथ झा कोयला कंपनी में एकाउंटेंट यानी बड़ाबाबू। खबरों में उनकी कभी कोई दिलचस्पी नहीं थी। घर में तो कभी कोई अखबार भी नहीं आता था। छात्र जीवन में पिता अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ चले आजादी आंदोलन में जरूर कुछ-कुछ सक्रिय थे और मुंगेर जिले के असरगंज डाकखाने में आग लगाने में शामिल रहने और पकड़े जाने पर जेल भी गए थे। पिता की नौकरी अविभाजित बिहार के धनबाद कोयलांचल के झरिया शहर में केशवजी पीतांबर दोबारी (केपी दोबारी) कोलियरी में थी। वे अंग्रेजों के जमाने से वहां काम कर रहे थे। लिहाजा मैं उसी कोयले के शहर में पैदा हुआ। आजादी से ठीक दस साल बाद। मैंने बचपन से लेकर जवानी तक कोयला देखा है। आज भी मेरे मन में कोयला रचा बसा हुआ है। अपनी अखबारनवीसी के दौरान भी मैने कोयले पर खूब काम किया है।

मेरा बचपन झरिया शहर में केशवजी पीतांबर दोबारी (केपी दोबारी) कोलियरी के कंपनी क्वार्टर में ही बीता। मेरी शुरू की पढ़ाई-लिखाई वहीं झरिया कोयलांचल के एक प्राइमरी सरकारी स्कूल में हुई। पिता के दफ्तर से करीब दो सौ गज की दूरी पर था मेरा पहला स्कूल। स्कूल का नाम था प्राथमिक  विद्यालयप्योर झरिया। यह स्कूल डीडी ठक्कर की कोलियरी क्षेत्र में था। इस कोलियरी में भूगर्भीय आग लगी हुई थी। स्कूल के हेडमास्टर बंगाली झा कभी किसी को पीटते नहीं थे इसलिए स्कूल में डर नहीं लगता था। इस स्कूल से निकलने के बाद मुझे चौथी कक्षा में झरिया बाजार के बीचोबीच फतहपुर मोहल्ले में स्थित अपर प्राइमरी सरकारी स्कूलअपर प्राइमरी विद्यालय, फतहपुर में डाला गया। यह स्कूल पांचवीं तक ही था इसलिए इसके बाद छठी कक्षा में मुझे वहां से थोड़ी दूर पर स्थित सरकारी हाईस्कूलझरिया एकाडेमी में दाखिला दिलवाया गया। यह स्कूल घर से तकरीबन किलोमीटर दूर था और रास्ता पूरी तरह से पैदल वाला।

स्कूल का रास्ता कई कोयला खदानों और चंद मोहल्लों के बीच से होकर जाता था। रास्ते में बकरियों का एक हाट बकरहट्टा भी आता था जिससे होकर गुजरते समय बड़ी तेज बदबू आती थी। तब सायकिलें बहुत कम और इने गिने लोगों के पास ही हुआ करती थी। बच्चों की छोटी सायकिलों का तो उस समय कोई कॉनसेप्ट ही नहीं दिखता था। हांझरिया के बाजारों में चार आने घंटे के किराए पर सायकिलें मिलती थीं, पर वह सायकिल चलाना सीखने के लिए होती थी। मेरे पिता की ऐसी हैसियत नहीं थी कि वे मुझे सायकिल खरीद कर देते। स्कूल बसों का भी कोई कॉनसेप्ट उन दिनों शायद बहुत कम या फिर नहीं होता था। मां घर में ही हाथ से खाकी कपड़े का झोला यानी बस्ता सिल देती थी। मां की हाथ की सिलाई बेजोड़ होती थी। मां अपने कई कपड़े भी अपने हाथ से सिल लिया करती थी। हां, अच्छे प्राइवेट स्कूलों में पढ़नेवाले बड़े घरों के बच्चे जरूर स्टील के बक्से वाला महंगा बस्ता लेकर स्कूल जाते थे। पर मां के हाथ के सिले बस्ते में मुझे पूरा आनंद मिलता था। मैंने कभी पिता से नहीं कहा कि मुझे स्टील के बक्से वाला बस्ता ला दो। आर्थिक कारणों से तब हमारे घर में कोई घड़ी भी नहीं होती थी। पिताजी घड़ी नहीं बांधते थे। मैं सुबह 9.30 बजे स्कूल के लिए निकलता था। मेरी मां रोज पड़ोस में रहनेवाले आजमगढ़, उत्तर प्रदेश के जमैठा गांव के देवता बाबू (देवता प्रसाद सिंह) से टाइम पूछा करती थी। देवता बाबू उसी कोयला खदान में माइनिंग सरदार थे। उन दिनों टेबुल घड़ी का जमाना था। मैं पिताजी से टेबुल घड़ी की मांग किया करता था, पर वे नहीं दे पा रहे थे। मैं बाजार में टेबुल घड़ी देख भी आया था। कीमत थी साठ रुपए। मैं अपने गुल्लक के पैसे से 60 रुपए की टेबुल घड़ी खरीदना भी चाह रहा था, पर गुल्लक में कभी इतने पैसे जमा ही नहीं हो पा रहे थे।

उस समय स्कूल जाने के लिए मुझे रोजाना घर से दस पैसे मिला करते थे। पर तब दस पैसे भी बहुत होते थे। मेरे हाईस्कूल के बाहर एक ठेलेवाला गुपचुप, आलू टिक्की वगैरह बेचता था। दस पैसे में तीन गुपचुप या दो आलू टिक्की आ जाते थे। गुपचुप में दालमोठ, आलू, दही, चटनी आदि भरी होती थी जो बहुत ब़ढ़िया जायका देती थी। पानीपुरी तो पांच पैसे में ही तीन आ जाती थी। चूरन वाला दो पैसे में जरूरत से ज्यादा खट्टे-मीठे चूरन दे देता था। बस इस तरह दस पैसे में ही दिन भर भरपूर आनंद मिल जाता था।

किताबें, कॉपियां और टिफिन मिलाकर मेरा बस्ता कुछ ज्यादा ही भारी हो जाता था और उसे पीठ पर लादकर रोजाना चार किलोमीटर जाना और चार किलोमीटर आना थोड़ा तकलीफदेह हो जाता था। मैं माता-पिता की इकलौती संतान था इसलिए पिताजी ने मेरा बस्ता ढोने के लिए मेरे ही उम्र के मजबूत कदकाठी के एक मुसहर (बिहार की एक हरिजन जातिलड़के को रख लिया था। उस हरिजन लड़के का नाम था फेतरा। फेतरा मेरे स्कूल के लिए घर से निकलने के समय से थोड़ पहले ही मेरे घर आ जाता था। वह मेरा भारी बस्ता लिए मेरे स्कूल तक जाता था और मुझे स्कूल के गेट पर छोड़कर लौट आता था। फेतरा फिर स्कूल से छुट्टी होने के समय वहीं मेरे स्कूल के गेट पर हाजिर रहता था और मेरा बस्ता उठाए मेरे साथ ही लौटता था। फेतरा मेरे साथ छठी और सातवीं क्लास तक रहा। उन दिनों सातवीं क्लास में बिहार में बोर्ड की परीक्षा होती थी और 1967 में मैंने सातवीं की बोर्ड परीक्षा दी थी। आठवीं में जाने पर मैंने अपना वजन खुद उठाना सीख लिया था।

नौवीं कक्षा में पिताजी ने मेरा स्कूल बदल दिया। मुझे झरिया शहर से करीब किसोमीटर दूर धनसार में एक प्राइवेट और उस समय के नामी स्कूल लक्ष्मीनारायण विद्या मंदिर में दाखिला दिलवाया गया। मेरे पिता जिस निजी खदान मालिक के यहां नौकरी करते थे उनके परिवार के  बच्चे भी इसी स्कूल में पढ़ते थे। वे लोग तो अपनी एंबेसेडर कार से जाते थेपर मैं बस से जाता था। बस पकड़ने के लिए मुझे घर से करीब ढाई किलोमीटर दूर भगतडीह तक पैदल जाना होता था क्योंकि झरिया-धनबाद मेन रोड वहीं से होकर गुजरती थी। उन दिनों भगतडीह से धनसार तक का स्टूडेंट बस किराया दस पैसे हुआ करता था। पर तब उस दस पैसे का बड़ा मोल था।

भगतडीह के पास ही था झरिया शहर का एक मात्र डिग्री कॉलेजराजा शिवा प्रसाद कॉलेज यानी आरएसपी कॉलेज जो छात्रों की गुंडागर्टी के लिए कुख्यात था। आरएसपी के लड़कों का पूरे जिले में खौफ होता था। आरएसपी के लड़कों से उन दिनों कोई बस वाला किराया मांगने की हिम्मत नहीं करता था। टैक्सीवाले भी मुफ्त में बिठा लेते थे। किराया मांगने पर बस या टेक्सी में तोड़फोड़ की पूरी गारंटी होती थी। बस कंडक्टर के किराया मांगने पर आरएसपी कहना भर काफी होता था। आरएसपी एक फ्री पास का काम करता था। मैं जाता तो स्कूल था, पर कुछ महीनों बाद मैंने भी यही नुस्खा आजमाना शुरू कर दिया और मैं इसमें कामयाब रहा। धीरे-धीरे सभी बस वाले मुझे पहचानने भी लग गए। फिर तो दसवीं और ग्यारहवीं में बस किराया कभी नहीं देना पड़ा।

2. पत्रकारिता का अंकुर

पत्रकारिता के अपने इस पेशे से जीवन में कुछ खास न कर पाने की वजह से इसे मैं जीवन में किसी खौरा कुत्ता का काटना तो नहीं कहूंगा, पर मेरे अंतर्मन में पत्रकारिता की पहली लौ इसी लक्ष्मीनारायण विद्या मंदिर हाई स्कूल में जली। इस स्कूल में चार दैनिक अखबार और समसामयिक और कथा-कहानियों की कुछ साप्ताहिक-मासिक पत्रिकाएं नियमित तौर पर आती थीं। अखबारों में पटना से प्रकाशित अंग्रेजी अखबार द इंडियन नेशन’, द सर्चलाइट, और हिंदी के आर्यावर्त और प्रदीप होते थे। ये सारे स्कूल के बरामदे में एक स्टैंड पर लगा दिए जाते थे। टिफिन टाइम में खाना खा चुकने के बाद समय बचने पर हमें वहां स्टैंड पर लगे इन अखबारों-पत्रिकाओं को पढ़ने की अनुमति होती थी।

शहर या आसपास कभी कोई छोटी-बड़ी घटना घटित होती थी तो हमें उसी दिन कोनोंकान उसका पता लग जाता था। फिर अगले दिन या कई बार एक दिन बाद उस घटित घटना की खबर अखबारों में छपा देखता था तो जानने की उत्सुकता होती थी कि यह बात अखबारों में कैसे छप जाती है। इस उत्सुकता ने मेरे मन में अखबार पढ़ने की रुचि पैदा कर दी। ठीक यही वह समय था जब पत्रकारिता ने मेरे दिमाग पर चोट की। इसे यूं कहें कि तभी मुझे पत्रकारिता के कीड़े ने काट लिया। मेरे लिए तो यह पत्रकारिता की ज्ञानप्राप्ति ही थी। फिर तो मैं स्कूल में रोज अखबार पढ़ता और आए दिन धनबाद शहर या आसपास की कोई न कोई खबर पढ़ने को मिलती। फिर मन में कई सवाल उठने लगे कि घटनाओं की सूचना अखबारों तक कैसे पहुंचती है, इन्हें कौन लिखता है, कौन पहुंचाता है और कैसे पहुंचाता है वगैरह-वगैरह। पर यह सब बताए कौन? किससे पूछूं?

स्कूल के प्रिंसिपल थे प्यारेलाल रॉबिनसन। बड़े शांत रहनेवाले पर काफी कड़क। एक दिन मैंने उन्हीं से पूछ दिया। हिम्मत करके एक ही सांस में सारे सवाल दाग दिए। मैं नौवीं क्लास का विद्यार्थी और वह भी इस स्कूल में पहला साल। कुछ सेकेंड तक तो वे चुपचाप मुझे देखते रहे। फिर बोले- हर जिले में हर अखबार का एक आदमी होता है जो उसका रिपोर्टर होता है। वही आदमी अखबारों में घटना का समाचार लिखकर भेजता है। और अखबार में एक छापाखाना होता है जो अखबार में उन समाचारों को कागज पर छापता है। फिर आगे बोले- अखबार का रिपोर्टर रोज शहर में घूमता रहता है और जब कहीं कोई घटना होती है तो उसको सबसे पहले मालूम हो जाता है और वह समाचार लिखकर डाक से अखबार में भेज देता है।‘ फिर डांट भी लगा दी- तुम इन बातों पर ध्यान मत दो, अपनी पढ़ाई में मन लगाओ।‘ तब मेरे उन प्रिंसिपल साहब को यह अंदाजा नहीं होगा कि उनका यह छात्र आगे चलकर एक पत्रकार बनेगा और वह भी नेशनल मीडिया का।

पिताजी कभी नहीं चाहते थे कि मैं पत्रकार बनूं। वे तो मुझे इंजीनियर बनाना चाहते थे। पर मैं कहता था कि डॉक्टर बनूंगा। पिताजी की इच्छा थी कि मैं माइनिंग इंजीनियर बनूं ताकि मैं कोयला खदान की नौकरी कर सकूं। पिताजी को कोयला खदान से बहुत प्रेम था। उनकी इच्छा के मुताबिक मैंने इंडियन स्कूल ऑफ माइन्स, धनबाद के इंट्रांस परीक्षा में भी बैठा था पर निकाल नहीं पाया था। मेरे बीआईटी सिन्द्री, बंगाल इंजीनियरिंग और आईआईटी के इंट्रांस टेस्ट का भी यही नतीजा हुआ था। कॉलेज के शुरुआती दिनों में मेरी दिलचस्पी कुछ-कुछ चिकित्सा विज्ञान की तरफ मुड़ गई थी। कॉलेज से छूटने के बाद मैं अक्सर पिताजी के मित्र और झरिया शहर के बड़े चिकित्सक डॉक्टर श्रीपद बनर्जी के राजा तालाब के पास लछमिनियां मोड़ स्थित निजी डिस्पेंसरी में कंपाउंडर का काम सीखने जाने लगा था।

इंटरमीडियट की पढाई पूरी होते-होते पिताजी कोयला खदान की अपनी नौकरी से रिटायर हो गए। रिटायरमेंट के समय वे निजी कोयला खदान नहीं, भारत सरकार के कोयला उपक्रम भारत कोकिंग कोल लिमिटेड के अधिकारी थे। वर्ष 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। ज्यादातर कोयला खदान निजी कंपनी मालिकों के हाथ से छिनकर केंद्र सरकार के नियंत्रण में आ गए थे। जो थोड़े कोयला खदान निजी हाथों में बचे रह गए थे उन्हें कुछ समय बाद दूसरे दौर के राष्ट्रीयकरण में केंद्र के अधीन ले लिया गया था।

- गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में.....

-    गणेश प्रसाद झा

सोमवार, 10 अक्टूबर 2011

Athato Brahma Jigyasa

Badarayana’s statement, ”athato brahma jigyasa” is one of the most potential statements ever made. It means, ”Now begins the inquiry into the ultimate.” It is the first statement in his BRAHMASUTRA: MAXIMS ABOUT THE ULTIMATE, one of the greatest mystic books in the world.

This is the first sentence of that strange book, but one of the most significant books that has ever been written. I call it strange because Badarayana is not much known in the world, although in India he is the only mystic on whose maxims thousands of commentaries have been written. Each of his statements is so pregnant with meaning that you can go on commenting on it in a thousand and one ways.

Still it seems something inexhaustible has remained behind. This is the only book which has commentaries, then commentaries on commentaries, then again commentaries on those commentaries. For almost two thousand years all the great geniuses of this great country have been in some way or other connected with Badarayana.

And still his name is not known in the world. Perhaps the reason is that nothing is known about him except the book. About his personal life absolutely nothing is known. Whether he was a historical person or not is very difficult to say. But one thing is certain, whoever wrote the book, whatever his name was, was certainly one of the greatest mystics of the world. So what is the problem calling him Badarayana?

The book is historical; it has existed for two thousand years and is one of the books – the only one – which has been spread through so many commentaries, in so many complexities, that almost every philosopher in India became involved in some way or other. There is no other book in the world which has been commented upon so much. It can mean only one thing: that his statements are almost mines of meaning.

You can go on digging and you will go on finding more and more, fresher sources of water, fresher sources of meaning and significance. Maneesha, sachchidanand is not equivalent to athato brahma jigyasa. Athato brahma jigyasa – ”Now begins the inquiry into the ultimate” – is the first step and sachchidanand is the last step. What begins as an inquiry … sachchidanand is not an inquiry, it is the ultimate result of the inquiry.

You have come to the conclusion. The statement of Badarayana is the beginning and sachchidanand is the end. They are not synonymous, although they are connected deeply with each other. Without the inquiry there is no possibility of realizing the conclusion. Hence Badarayana comes first. And this small statement has to be understood, because this is for every beginner. And as far as the ultimate is concerned one is always a beginner.

One is always coming close to it, closer and closer and closer, but something always remains inviting you, calling you forth, challenging you, a higher peak. You were thinking you have arrived but still there is something left. And this pilgrimage continues.

I have started saying that there is no goal, only the pilgrimage. In other words, the pilgrimage in itself is so divine, so holy, that to be bothered and to be anxious about the end of it can only mean one thing: that you are not interested in the journey, you are interested in the end of the journey.

You are not enjoying each moment of your pilgrimage. You are looking forward, ahead, for the time when you will have reached and then you will celebrate. And that is a wrong approach from the very beginning. Each moment is the journey and each moment is the goal.

You have to live as if you have already arrived, although you will never be in a moment when you can say, ”I have arrived.” You can only say, ”I am coming home. I can see the home coming closer and closer.”

But it is good that you never come. Once you have come, you come to a full stop, and life knows no full stops. Yes, colons, semicolons, commas, everything is allowed – but a full stop absolutely no, a hundred times no, because a full stop will mean that life has come to an end, life has come to the grave.

Life never comes to an end. It never terminates in death. It is an ongoing process. Hence, Badarayana’s statement has to be understood very lovingly and very deeply. Each word of it is pure gold. It is possible that one heart may be very fertile and it may bring thousands of flowers. And one heart may not be so fertile and it may not bring thousands of flowers but just one flower – very huge, very big.

Those thousand flowers will not be in any way competitive to this one flower. In numbers they may be many, but the beauty of this one flower has almost accumulated the whole beauty of thousands of flowers.

I had one gardener with me for many years while I was teaching in the university. I had a beautiful garden. And this old man I had chosen for a certain reason – he was somebody else’s gardener, some army officer’s gardener. He was winning every year the competition for growing the biggest roses.

I used to go to see because the whole city was involved in the competition. All the rich people – officers, bureaucrats, professors, doctors, those who could afford a garden – were participants. But I was not interested in the people who were participating. I was interested in finding out who the gardener was, because the poor gardener was not even mentioned when the trophy was given to the winner.

It was given to the owner of the garden. I was looking out for the gardener, because this army officer could not be a gardener himself – the poor gardener was not even there. I followed his car. I looked around his house, I watched, and I found the gardener was working.

When the army officer went in, he did not even tell the gardener, ”I have won the trophy because of you. In fact, it belongs to you.” He simply went into his garage and then into his house. I went into his garden. The old man, a poor man, was working. I asked him, ”Have you heard that your roses have been chosen as the best for this year?”

He said, ”Nobody has told me yet.”
I said, ”How much is this army officer giving you as salary?”
He said, ”Not very much.”
I said, ”Whatever he is giving, I will give you double. You can tell me later how much he is giving. You just bring whatever you have into my car and come with me.”

He said, ”But he is a dangerous man. He will search for me with his gun!”
I said, ”Don’t be worried, I am no less dangerous. You don’t worry.”
So I brought him into my own house and I told him, ”You start working, and every year I will not be going to the competition, you will be going. And all the trophies that you win will be in the house that I have given to you.”

He could not believe it. And he said, ”But what about the army officer?”
I said, ”I will take care of him. You need not be worried about it.”
And then I saw how he was winning. His whole art was never to allow any rosebush more than one flower. He would cut all the buds and leave only the biggest bud.

I asked him, ”What is the secret of it?”
He said, ”The secret is simple. The rosebush has a certain amount of juice. It can be distributed in a hundred flowers, but if you don’t allow it to be distributed it is bound to assert itself into one flower.”

I remained nine years in that university. For nine years continuously he was the winner. And his secret was just to allow one flower to grow. So it is possible … These are the uniquenesses I am talking about – that the same seeds in different hearts will bring different manifestations.

And that is how commentaries begin. The master dies. He had thousands of disciples who have listened to him. Now they start thinking, what is the significance of a certain statement or of a certain word? In the East it has been a very delicate affair. Not brutal logic, but a very subtle, very feminine art.

The word athato can mean ‘now’, it can mean ‘here now’, it can mean ‘from now’, it can mean ‘from this point onwards’. Because of these different meanings growing in different hearts, the whole meaning of the sentence will change. Just the first word will change the whole meaning. For example, to a man or a woman whose heart is the heart of a devotee, the heart of a lover, athato will mean, ”Enough of love; now begins the inquiry into the ultimate.

Enough of this world and its pleasures, now begins the inquiry into the ultimate.” To the logician, the same word will mean: ”Enough of logic, enough of rationality, enough of philosophy; now begins the real inquiry into the existential” – not into words, not into philosophical investigations, but into an existential experience.

To a poet it may mean: ”Enough of the poetry, enough of all that life I have lived up to now; the time has come to enter on the path in search of light, in search of the truth. I have sung songs of joy, I have sung songs of beauty.”

But a time comes when you are tired even of your own creativity – how long? Just as you become tired of the woman you loved so much, of the man you loved so much, you become tired of your creative dimension for which you would have sacrificed your life. A moment comes when it seems that you have been playing like a child, collecting seashells on the sea beach, or making castles of sand. Beautiful utopias, but it is enough!

You have not gained anything of the eternal, of the timeless, of the immortal. How long are you going to wait? Now is the moment to change the direction of all your genius and intelligence. Then athato will mean something different, different from what it can mean to a businessman, to what it can mean to a king. He has been on a power trip, he has conquered as much as he wanted, he is tired.

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

अन्ना के आंदोलन का विरोध करना गलत

गणेश प्रसाद झा
लेखिका अरुंधती राय खुद को महान समझ रही हैं और अन्ना हजारे की निंदा करके प्रसन्नता का अनुभव कर रही हैं। अरुंधती नहीं जानती कि वे क्या कर रही हैं। अरुंधती ने अगर खुद कभी कोई आंदोलन किया होता, भले ही वह आंदोलन किसी छोटे या स्थानीय मुद्दे पर ही होता तो उन्हें पता चलता कि आंदोलन किसे कहते हैं और आंदोलन होता क्या है। उन्होंने खुद तो कभी कुछ किया नहीं और आज अगर किसी ने देश के इस ज्वलंत मुद्दे को लेकर मशाल उठाया है तो उन्हें जलन हो रही है कि मैं क्यों नहीं। वे सोच रही हैं कि देशवासी मेरा जय-जयकार क्यों नहीं कर रहे और लोग अन्ना हजारे का साथ क्यों दे रहे हैं। मीडिया का अटेंशन जो आज अन्ना हजारे की तरफ है वह उनकी तरफ क्यों नहीं है।
अरुंधती समेत अन्ना के आंदोलन का विरोध करनेवाले तमाम लोगों से यह पूजा जाना चाहिए कि उन्होंने देश में हर तरफ फैले भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए क्या कुछ किया है। लोग अन्ना का नहीं, उनकी पवित्र विचारधारा का समर्थन कर रहे हैं और साथ दे रहे हैं। भारत के लोग व्यक्ति से ज्यादा उसकी विचारधारा को तरजीह देते हैं। अन्ना के विचारों में लोगों को उम्मीद की किरणें दिखाई दे दे रही हैं और लोगों को लग रहा है कि अन्ना का यह आंदोलन देश को भ्रष्टाचार के इस दलदल से बाहर निकालने में अगर कामयाब नहीं भी हुआ तो कम से कम मददगार तो जरूर होगा। आज लोग सिस्टम में बदलाव चाहते हैं। लोग चाहते हैं आम नागरिकों के प्रति राजनेताओं के नजरिए में सकारात्मक परिवर्तन आए। अरुंधती को अन्ना का विरोध करने की बजाए देश को भ्रष्टाचार के दलदल से निकालने का जन लोकपाल बिल से बेहतर अगर कोई और कारगर उपाय उनके पास है तो उसे जनता के सामने रखना चाहिए और उसे लेकर आगे बढ़ना चाहिए। लोग उनका भी साथ देंगे। पर अगर किसी ने अलख जगाया है और बीड़ा उठाया है और लोग उसके पीछे चल पड़े हैं तो निंदा करके उस आंदोलन की हवा निकालना कहीं से भी उचित नहीं कहा जाएगा। इस तरह तो अरुंधती पर कांग्रेसी का एजेंट होने का ही आरोप लगेगा। लोग कहेंगे ही कि अरुंधती कांग्रेस पार्टी से पैसे लेकर अन्ना और उनके आंदोलन के खिलाफ कांग्रेस प्रवक्ता की तरह मीडिया में चहक रही हैं। अन्ना के पीछे चल रहे जन समुद्र ने आज साबित कर दिया है कि अन्ना देश के असली हीरो हैं।
अन्ना का विरोध करने की बजाए अरुंधती को पहले अन्ना के गांव रालेगन सिद्धि को देखकर आना चाहिए कि अन्ना ने वहां क्या कुछ किया है। उन्हें अन्ना के गांववालों से अन्ना के बारे में पूछताछ करके आना चाहिए। उसके बाद ही उन्हें अन्ना के खिलाफ कुछ बोलने का अधिकार होगा। सिर्फ कुछ किताबें लिख लेने और कुछ पुरस्कार पा लेने भर से अरुंधती को अन्ना और उनके भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को समझने की समझ हासिल नहीं हो सकती और इस तरह उन्हें अन्ना की इस मुहिम के विरोध का हक नहीं मिल जाता। अरुंधती को पहले देश के सामने अपने आप को साबित करना होगा और अपनी पहचान बतानी होगी जो जाहिर है अभी उनके पास नहीं है। पांच सितारा संस्कृति में जीनेवाले लोग अन्ना के सामने खड़े होने की औकात नहीं रखते। अरुंधती का मुंह हमेशा खराब रहा है। मीडिया को भी उन्हें अनावश्यक तरजीह नहीं देना चाहिए क्योंकि वे इसी तरह अन्ना की निंदा कर खुद हाईलाइट होना चाहती हैं। बेहतर यही होगा कि आज जो लोग भी अन्ना हजारे और उनके इस आंदोलन के खिलाफ हैं उन्हें अपना फार्मूला देश के सामने रखना चाहिए और अपना अलग आंदोलन शुरू कर देना चाहिए। देश की जनता खुद तय कर लेगी कि किसकी अगुवाई में जाना देश और समाज के लिए बेहतर है। लोगों के पास चुनने के लिए विकल्प भी होगा। पर खुद को चालाक समझकर सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए गांधी के सत्य-अहिंसा के रास्ते पर चल रहे एक समाजसेवी और उसके अहिंसक आंदोलन को गलत और फरेबी कह देना कहीं से भी जायज नहीं हो सकता। बहती गंगा में हाथ धोने की कोशिश सही नहीं कही जाएगी।
अरुंधती राय ने भ्रष्टाचार तो क्या, कभी किसानों की आत्महत्या, खापों के ऑनर किलिंग के अत्याचार, भ्रूण हत्या, दहेज, बाल मजदूरी तक के विरोध में भी आज तक कभी कोई आवाज नहीं उठाई। उल्टे अरुंधती राय ने कश्मीर में पाकिस्तान की भूमिका, अफजल गुरु, कश्मीरी अलगाववादियों और नक्सलियों की हिमायत कर करके अपनी जिस तरह की पहचान कायम की है उनकी वह पहचान देश के लिए अपना जीवन समर्पित करनेवाले अन्ना हजारे के अहिंसा और गांधीवाद के आगे खड़ा होने की कोई औकात नहीं रखती। उनकी इन गतिविधियों की वजह से कुछ लोगों को उनकी देशभक्ति पर भी सवाल खड़े करने का मौका मिल जाता है। इस विरोध से तो आम आदमी के जीवन के बारे में उनकी समझ पर भी सवालिया निशान लग जाता है। लगता तो यही है कि उन्हें आम आदमी का दर्द नहीं मालूम। अन्ना का विरोध करने से पहले उन्हें भारत की राजनीति की भी बेहतर समझ होनी चाहिए। इस तरह अन्ना और उनके आंदोलन का विरोध करने से तो जनमानस में एक लेखिका के रूप में बुकर प्राइज से अर्जित उनकी प्रतिष्ठा को भी धक्का ही लगा है। अन्ना हजारे ने खुद को कभी बड़ा नहीं माना और न तो उन्होंने जनता से कभी संत की उपाधि पाने की आकांक्षा ही रखी। हां, उनका विरोध करके लोग आज अपना कद बढ़ाने की कोशिश जरूर कर रहे हैं।
अन्ना की यह लड़ाई आम लोगों की रोटी की लड़ाई है क्योंकि आज हर किसी को लग रहा हैं कि इस भ्रष्टाचार ने उनकी जेब से दो वक्त की नमक-रोटी के लिए रखे पैसे जबरन छीन लिए हैं। आज देश का हर आदमी हर दिन और हर जगह भ्रष्टाचार से जूझ रहा है। मुफ्त में होनेवाले छोटे-छोटे कामों के लिए उन्हें सरकारी दफ्तरों के बाबुओं और चुनकर विधानसभाओं और संसद में गए जनप्रतिनिधियों को पैसे खिलाने पड़ रहे हैं। एक-एक रोटी के लिए सुबह से लेकर शाम तक संघर्ष कर रहे देश के निम्न और मध्यमवर्ग में अन्ना और उनके इस आंदोलन से बहुत उम्मीदें जगी हैं। एसे में अन्ना और उनके इस आंदोलन का विरोध करना उल्टा भी पड़ सकता है।
आजादी के बाद शायद यह पहला मौका है जब देश की जनता ने किसी को इतना समर्थन दिया है। जयप्रकाश नारायण का आंदोलन भी लगता है पीछे छूट गया। नौजवानों की मौजूदा पीढ़ी जिसने आजादी आंदोलन की तो बात ही छोड़िए, जेपी का आंदोलन भी नहीं देखा, सिर्फ किताबों में पढ़ा है के लिए आंदोलन को समझने का जीवन में यह पहला मौका है। आज के माता-पिता जिन्होंने गांधी को नहीं देखा था, अपने बच्चों को बता रहे हैं कि कि अन्ना हजारे देश के दूसरे गांधी हैं। इनको जानो, इनके आंदोलन को समझने की कोशिश करो। माता-पिता बच्चों को लेकर आंदोलन में शरीक हो रहे हैं ताकि बच्चे आंदोलन को ठीक से समझ सकें और उनमें राष्ट्रभावना पैदा होने के साथ-साथ जीवन जीने की एक अच्छी समझ भी पैदा हो। एसे में देश और समाज के हित में सच्चाई की मशाल लेकर आगे बढ़े एक गांधीवादी का विरोध करना कहां तक सही ठहराया जा सकता है?

(लेखक गणेश प्रसाद झा जनसत्ता में एक दशक से भी अधिक समय की लंबी सेवा के बाद हिन्दुस्तान, और दैनिक जागरण में कई वर्षों की पत्रकारिता। फिर समाचार चैनल वॉयस ऑफ इंडिया में सेवा के बाद फिलहाल सीएनईबी न्यूज चैनल में कार्यरत। 28 वर्षों के अपने कैरियर में आज, पाटलिपुत्र टाइम्स, जनमत, दैनिक पुर्वोदय और देशबंधु जैसे क्षेत्रीय अखबारों को भी अपनी सेवाएं दी। राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक विषयों पर लेखन के साथ-साथ हमेशा जनसरोकार की पत्रकारिता से वास्ता रहा। संपर्क: 09650069229)