गणेश प्रसाद झा
लेखिका अरुंधती राय खुद को महान समझ रही हैं और अन्ना हजारे की निंदा करके प्रसन्नता का अनुभव कर रही हैं। अरुंधती नहीं जानती कि वे क्या कर रही हैं। अरुंधती ने अगर खुद कभी कोई आंदोलन किया होता, भले ही वह आंदोलन किसी छोटे या स्थानीय मुद्दे पर ही होता तो उन्हें पता चलता कि आंदोलन किसे कहते हैं और आंदोलन होता क्या है। उन्होंने खुद तो कभी कुछ किया नहीं और आज अगर किसी ने देश के इस ज्वलंत मुद्दे को लेकर मशाल उठाया है तो उन्हें जलन हो रही है कि मैं क्यों नहीं। वे सोच रही हैं कि देशवासी मेरा जय-जयकार क्यों नहीं कर रहे और लोग अन्ना हजारे का साथ क्यों दे रहे हैं। मीडिया का अटेंशन जो आज अन्ना हजारे की तरफ है वह उनकी तरफ क्यों नहीं है।
अरुंधती समेत अन्ना के आंदोलन का विरोध करनेवाले तमाम लोगों से यह पूजा जाना चाहिए कि उन्होंने देश में हर तरफ फैले भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए क्या कुछ किया है। लोग अन्ना का नहीं, उनकी पवित्र विचारधारा का समर्थन कर रहे हैं और साथ दे रहे हैं। भारत के लोग व्यक्ति से ज्यादा उसकी विचारधारा को तरजीह देते हैं। अन्ना के विचारों में लोगों को उम्मीद की किरणें दिखाई दे दे रही हैं और लोगों को लग रहा है कि अन्ना का यह आंदोलन देश को भ्रष्टाचार के इस दलदल से बाहर निकालने में अगर कामयाब नहीं भी हुआ तो कम से कम मददगार तो जरूर होगा। आज लोग सिस्टम में बदलाव चाहते हैं। लोग चाहते हैं आम नागरिकों के प्रति राजनेताओं के नजरिए में सकारात्मक परिवर्तन आए। अरुंधती को अन्ना का विरोध करने की बजाए देश को भ्रष्टाचार के दलदल से निकालने का जन लोकपाल बिल से बेहतर अगर कोई और कारगर उपाय उनके पास है तो उसे जनता के सामने रखना चाहिए और उसे लेकर आगे बढ़ना चाहिए। लोग उनका भी साथ देंगे। पर अगर किसी ने अलख जगाया है और बीड़ा उठाया है और लोग उसके पीछे चल पड़े हैं तो निंदा करके उस आंदोलन की हवा निकालना कहीं से भी उचित नहीं कहा जाएगा। इस तरह तो अरुंधती पर कांग्रेसी का एजेंट होने का ही आरोप लगेगा। लोग कहेंगे ही कि अरुंधती कांग्रेस पार्टी से पैसे लेकर अन्ना और उनके आंदोलन के खिलाफ कांग्रेस प्रवक्ता की तरह मीडिया में चहक रही हैं। अन्ना के पीछे चल रहे जन समुद्र ने आज साबित कर दिया है कि अन्ना देश के असली हीरो हैं।
अन्ना का विरोध करने की बजाए अरुंधती को पहले अन्ना के गांव रालेगन सिद्धि को देखकर आना चाहिए कि अन्ना ने वहां क्या कुछ किया है। उन्हें अन्ना के गांववालों से अन्ना के बारे में पूछताछ करके आना चाहिए। उसके बाद ही उन्हें अन्ना के खिलाफ कुछ बोलने का अधिकार होगा। सिर्फ कुछ किताबें लिख लेने और कुछ पुरस्कार पा लेने भर से अरुंधती को अन्ना और उनके भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को समझने की समझ हासिल नहीं हो सकती और इस तरह उन्हें अन्ना की इस मुहिम के विरोध का हक नहीं मिल जाता। अरुंधती को पहले देश के सामने अपने आप को साबित करना होगा और अपनी पहचान बतानी होगी जो जाहिर है अभी उनके पास नहीं है। पांच सितारा संस्कृति में जीनेवाले लोग अन्ना के सामने खड़े होने की औकात नहीं रखते। अरुंधती का मुंह हमेशा खराब रहा है। मीडिया को भी उन्हें अनावश्यक तरजीह नहीं देना चाहिए क्योंकि वे इसी तरह अन्ना की निंदा कर खुद हाईलाइट होना चाहती हैं। बेहतर यही होगा कि आज जो लोग भी अन्ना हजारे और उनके इस आंदोलन के खिलाफ हैं उन्हें अपना फार्मूला देश के सामने रखना चाहिए और अपना अलग आंदोलन शुरू कर देना चाहिए। देश की जनता खुद तय कर लेगी कि किसकी अगुवाई में जाना देश और समाज के लिए बेहतर है। लोगों के पास चुनने के लिए विकल्प भी होगा। पर खुद को चालाक समझकर सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए गांधी के सत्य-अहिंसा के रास्ते पर चल रहे एक समाजसेवी और उसके अहिंसक आंदोलन को गलत और फरेबी कह देना कहीं से भी जायज नहीं हो सकता। बहती गंगा में हाथ धोने की कोशिश सही नहीं कही जाएगी।
अरुंधती राय ने भ्रष्टाचार तो क्या, कभी किसानों की आत्महत्या, खापों के ऑनर किलिंग के अत्याचार, भ्रूण हत्या, दहेज, बाल मजदूरी तक के विरोध में भी आज तक कभी कोई आवाज नहीं उठाई। उल्टे अरुंधती राय ने कश्मीर में पाकिस्तान की भूमिका, अफजल गुरु, कश्मीरी अलगाववादियों और नक्सलियों की हिमायत कर करके अपनी जिस तरह की पहचान कायम की है उनकी वह पहचान देश के लिए अपना जीवन समर्पित करनेवाले अन्ना हजारे के अहिंसा और गांधीवाद के आगे खड़ा होने की कोई औकात नहीं रखती। उनकी इन गतिविधियों की वजह से कुछ लोगों को उनकी देशभक्ति पर भी सवाल खड़े करने का मौका मिल जाता है। इस विरोध से तो आम आदमी के जीवन के बारे में उनकी समझ पर भी सवालिया निशान लग जाता है। लगता तो यही है कि उन्हें आम आदमी का दर्द नहीं मालूम। अन्ना का विरोध करने से पहले उन्हें भारत की राजनीति की भी बेहतर समझ होनी चाहिए। इस तरह अन्ना और उनके आंदोलन का विरोध करने से तो जनमानस में एक लेखिका के रूप में बुकर प्राइज से अर्जित उनकी प्रतिष्ठा को भी धक्का ही लगा है। अन्ना हजारे ने खुद को कभी बड़ा नहीं माना और न तो उन्होंने जनता से कभी संत की उपाधि पाने की आकांक्षा ही रखी। हां, उनका विरोध करके लोग आज अपना कद बढ़ाने की कोशिश जरूर कर रहे हैं।
अन्ना की यह लड़ाई आम लोगों की रोटी की लड़ाई है क्योंकि आज हर किसी को लग रहा हैं कि इस भ्रष्टाचार ने उनकी जेब से दो वक्त की नमक-रोटी के लिए रखे पैसे जबरन छीन लिए हैं। आज देश का हर आदमी हर दिन और हर जगह भ्रष्टाचार से जूझ रहा है। मुफ्त में होनेवाले छोटे-छोटे कामों के लिए उन्हें सरकारी दफ्तरों के बाबुओं और चुनकर विधानसभाओं और संसद में गए जनप्रतिनिधियों को पैसे खिलाने पड़ रहे हैं। एक-एक रोटी के लिए सुबह से लेकर शाम तक संघर्ष कर रहे देश के निम्न और मध्यमवर्ग में अन्ना और उनके इस आंदोलन से बहुत उम्मीदें जगी हैं। एसे में अन्ना और उनके इस आंदोलन का विरोध करना उल्टा भी पड़ सकता है।
आजादी के बाद शायद यह पहला मौका है जब देश की जनता ने किसी को इतना समर्थन दिया है। जयप्रकाश नारायण का आंदोलन भी लगता है पीछे छूट गया। नौजवानों की मौजूदा पीढ़ी जिसने आजादी आंदोलन की तो बात ही छोड़िए, जेपी का आंदोलन भी नहीं देखा, सिर्फ किताबों में पढ़ा है के लिए आंदोलन को समझने का जीवन में यह पहला मौका है। आज के माता-पिता जिन्होंने गांधी को नहीं देखा था, अपने बच्चों को बता रहे हैं कि कि अन्ना हजारे देश के दूसरे गांधी हैं। इनको जानो, इनके आंदोलन को समझने की कोशिश करो। माता-पिता बच्चों को लेकर आंदोलन में शरीक हो रहे हैं ताकि बच्चे आंदोलन को ठीक से समझ सकें और उनमें राष्ट्रभावना पैदा होने के साथ-साथ जीवन जीने की एक अच्छी समझ भी पैदा हो। एसे में देश और समाज के हित में सच्चाई की मशाल लेकर आगे बढ़े एक गांधीवादी का विरोध करना कहां तक सही ठहराया जा सकता है?
(लेखक गणेश प्रसाद झा जनसत्ता में एक दशक से भी अधिक समय की लंबी सेवा के बाद हिन्दुस्तान, और दैनिक जागरण में कई वर्षों की पत्रकारिता। फिर समाचार चैनल वॉयस ऑफ इंडिया में सेवा के बाद फिलहाल सीएनईबी न्यूज चैनल में कार्यरत। 28 वर्षों के अपने कैरियर में आज, पाटलिपुत्र टाइम्स, जनमत, दैनिक पुर्वोदय और देशबंधु जैसे क्षेत्रीय अखबारों को भी अपनी सेवाएं दी। राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक विषयों पर लेखन के साथ-साथ हमेशा जनसरोकार की पत्रकारिता से वास्ता रहा। संपर्क: 09650069229)
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