रविवार, 7 अगस्त 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 32

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की बत्तीसवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 32

76. बड़े अखबार का रंगीनमिजाज संपादक

मुझे पत्रकारिता की अपनी इस यात्रा में एक ऐसे संपादक भी मिले जो बहुत ही रंगीनमिजाज और अय्यास किस्म के थे और सुरा और सुंदरी के रंग में आकंठ डूबे हुए थे। औरत उन संपादकजी की सबसे बड़ी कमजोरी थी। उनकी रंगीनमिजाजी की अनगिनत कहानियां भी सुनने को मिली। उन रंगीनमिजाज संपादकजी को करीब से जाननेवाले मेरे पत्रकार मित्रों ने उनकी रंगीनमिजाजी की कहानियां कुछ इस तरह से बयान की।- 

संपादकजी अक्सर बाहर की रिपोर्टिंग के खास-खास मौके तलाशते रहते थे और वहां खुद ही रिपोर्टिंग करने चले जाते थे। अपने अखबार के किसी रिपोर्टर को वहां नहीं जाने देते थे। जब भी वे ऐसे रिपोर्टिंग ट्रिप पर जाते तो अपनी प्रेमिकाओं को भी साथ ले जाया करते थे। उनके कुछ परिचित और लगुए-भगुए और छुटभैये वहां उनके लिए फर्जी नामों से होटल के कमरे बुक कराकर रखते थे। उन दिनों होटलों में ठहरने और कमरा बुक कराने के लिए किसी आईडी की जरूरत नहीं होती थी। दिखावे के लिए संपादकजी और उनकी प्रेमिका के लिए कमरा दो अलग-अलग होटलों में बुक कराया जाता था। संपादकजी की कई-कई प्रेमिकाएं थीं और वे हरेक के साथ मौज-मस्ती किया करते थे। वे ज्यादातर अलग-अलग हिल स्टेशनों पर जाया करते थे। हर बार उनके साथ कोई न कोई लड़की जरूर होती थी।

उन रंगीनमिजाज संपादकजी की फितरत थी गरीबी में जी रही सुंदरियों को फांसना ताकि पैसे और सुविधाएं फेंककर उनको सेक्स के अपने जाल में आसानी से उलझाया जा सके। संपादकजी ने एक बड़े राज्य से कटकर अलग हुए एक पश्चिमी पर्वतीय राज्य की एक ऐसी लड़की पर अपना जाल फेंका था जो एक गरीब परिवार की थी। उस समय वह लड़की एक विश्वविद्यालय में पीजी की छात्रा थी। उसके पिता किसी सरकारी बोर्ड के दफ्तर में चपरासी का काम करते थे। पिता की कमाई से किसी तरह घर चल जाता था और बिटिया पढ़ भी रही थी। कहते हैं वह लड़की कमाल की सुंदर थी। उसे उस विश्वविद्यालय के एक सीनियर प्रोफेसर ने अपने प्रेम जाल में फंसा रखा था और उसे भोगता भी था। उसी प्रोफेसर ने उस सुंदरी को विश्वविद्यालय में टॉपर भी बनवा दिया था। एक बार कहीं किसी पब्लिक समारोह में संपादकजी को वह सुंदरी दिख गई थी। कहते हैं विश्वविद्यालय के ही एक प्रोफेसर ने एक कार्यक्रम में उस लड़की का संपादकजी से परिचय कराया था। फिर संपादकजी ने उसका पता लगवाया और उसका पारिवारिक डाटा मंगवाकर वहां तक अपनी पहुंच कायम की। इसके बाद शुरू हुआ उस सुंदरी के परिवार तक पैसों और जरूरत की चीजों की फ्री सप्लाई का सिलसिला। थोड़े ही दिनों बाद संपादकजी ने सुंदरी को अपने ही शहर में अपने ही नजदीक घर दिलवा दिया। फिर तो सुंदरी के घर में हर तरह के सामानों की आपूर्ति भी संपादकजी ही कराने लगे। सब्जी-तरकारी से लेकर आटा-चावल और कपड़े तक। जब कभी जरूरत पड़ती तो सुंदरी के घर पर प्लंबर और बिजली मिस्त्री भी संपादकजी अपने दफ्तर से ही भिजवा दिया करते थे। संपादकजी के दफ्तर के लोग भी धीरे-धीरे यह सब जानने लगे थे। पर डर से कोई कुछ बोल नहीं पाता था। संपादकजी विवाहित थे सो थोड़े ही दिनों में बात संपादकजी की पत्नी तक भी पहुंच गई। फिर तो संपादकजी की पत्नी ने इसे लेकर घर में काफी बखेड़ा करना शुरू कर दिया। त्रिया चरित्र का खेल शुरू हो गया। रोज उनके घर में कलह होने लगा। संपादकजी लगभग रोज अपनी बेकसूर पत्नी की बड़ी बेरहमी से पिटाई भी करने लगे थे। संपादकजी के घर में घरेलू हिंसा की यह बात धीरे-धीरे उनके आसपास के घरों और फिर उनके मोहल्ले में फैली और फिर उनके दफ्तर के लोगों और शहर में उनके परिचितों तक भी पहुंच गई।

कहते हैं पत्नी के जबर्दस्त विरोध का भी संपादकजी पर कोई असर नहीं हुआ। संपादकजी उस प्रेमिका से पूर्ववत इश्क फरमाते रहे। बाद में संपादकजी ने अपने पत्रकारीय रसूख और जुगाड़ से अपनी उस प्रेमिका को उसी विश्विद्यालय में लेक्चरर बनवा दिया। फिर उसे विश्वविद्यालय कैंपस में ही व्याख्याताओं के लिए बने क्वार्टर में घर भी दिलवा दिया। संपादकजी के इस प्रेम प्रसंग का एक दूसरा हिस्सा भी है और वह भी लाजवाब है। संपादकजी की उन लेक्चरर बनी प्रेमिका की एक छोटी बहन भी थी। संपादकजी ने उस पर भी डोरे डाल रखे थे और उसे भी इस्तेमाल किया करते थे। पर वह परिवार संपादकजी से उपकृत था इसलिए कभी कोई विरोध नहीं करता था।

अब आइए एक बार फिर उसी पर्वतीय राज्य में चलते हैं। उस पर्वतीय राज्य की राजधानी के बेहद खूबसूरत शहर के एक बाजार नामक मोहल्ले में एक पंजाबी परिवार रहता था। उनका अपना एक छापाखाना था। यही छापाखाना उनकी कमाई का जरिया था। बेहद जुगाड़ू किस्म के इस रंगीनमिजाज संपादकजी ने किसी तरह जुगाड़ करके उस परिवार के मुखिया से भी परिचय करके दोस्ती कायम कर ली थी। उनकी दो जवान बेटियां थी। संपादकजी अक्सर किसी न किसी बहाने वहां चले जाया करते थे। उनका कमरा हर बार पास के एक होटल में बुक होता था। रंगीनमिजाज संपादकजी ने धीरे-धीरे परिवार की दोनों बेटियों को अपने प्रेम जाल में फांस लिया था। इन दोनों बहनों से भी संपादकजी इश्क किया करते थे और दोनो बहनों का शारीरिक शोषण भी जमकर किया करते थे। दोनों बहनों के इस शारीरिक शोषण को आगे भी अनवरत जारी रखने के लिए उन्होंने उस परिवार से अपना संबंध और गहरा करने के लिए एक तरकीब निकाली। उस परिवार में एक लड़का भी था यानी उन दोनों बहनों का एक भाई भी था। यही लड़का अपने पिता के छापाखाने का सारा काम संभालता था। संपादकजी ने परिवार के उस लड़के की अपनी पहली वाली विश्वविद्यालय वाली यानी लेक्चरर प्रेमिका की छोटी बहन से शादी करा दी। इस शादी में संपादकजी ने भी लेक्चरर प्रेमिका के पिता की भरपूर मदद की। इस शादी के बाद अब उस पंजाबी परिवार में संपादकजी की तीन प्रेमिकाएं हो गईं। दो बहनें और एक उनकी भाभी। संपादकजी का वहां जाना पहले की तरह ही जारी रहा। लोग बताते थे कि इसके बाद से संपादकजी शायद वहां कुछ ज्यादा ही जाने लगे थे। उधर लेक्चरर प्रेमिका से भी संपादकजी का प्रेम चलता ही रहा और संपादकजी ने उनको भी भोगना जारी रखा। जानकार लोग कहते हैं वह प्रेम संबंध आज भी बदस्तूर है।

उन संपादकजी के साथ काम कर चुके लोग बताते हैं कि संपादकजी पर भोली-भाली महिलाओं को परेशान करने और ब्लैकमेल करने के भी आरोप लगते रहे हैं। लोग बताते हैं कि उनपर ऐसे आरोप उनके साथ काम करनेवाले उनके करीब के लोग ही लगाते रहे हैं। लोग बताते हैं कि संपादकजी को फोन करना भी खतरनाक होता था क्योंकि वे किसी की भी फोन पर हो रही बातचीत को चुपचाप रिकार्ड कर लेते थे और फिर उसे ब्लैकमेल किया करते थे। कहते हैं कई लड़कियों के साथ भी ऐसी ब्लैकमेल की घटनाएं हुईं थीं। कहते हैं सेक्सुअल हेरासमेंटे के भी कुछ मामले हुए थे। पर मामला लड़कियों की इज्जत का होता है इसलिए लड़कियां सबकुछ झेलकर भी छुप ही रहती हैं जिस कारण मामला सामने नहीं आ पाता। लोग उस शहर के करीब के एक राज्य के एक शहर के एक होटल में लड़कियों के साथ उनके रंगरेलियां मनाने की भी बात भी दबी जुबान से बताते हैं। कहते हैं उस होटल के मैनेजर ने ही एक बार संपादकजी के ही अखबार के एक पत्रकार के सामने उन रंगरेलियों का खुलासा कर दिया था। होटल का मैनेजर उन संपादकजी को अच्छी तरह पहचानता था और यह भी जानता था कि वे उन दिनों एक बड़े अखबार के स्थानीय संपादक हुआ करते थे।

संपादकजी को अपने अखबार के एक पुराने पत्रकार से नहीं पटती थी सो उन्होंने उस पत्रकार को खूब परेशान किया था। उसका कई बार तबादला किया और फिर एक दिन उससे जबरन इस्तीफा लिखवाकर उसे नौकरी से भी निकाल दिया था। संपादकजी ने उससे अचानक इस्तीफा तो ले लिया पर उसके वेतन और दूसरे बकायों का हिसाब नहीं किया गया। इस घटना से वह पत्रकार गहरे सदमे में चला गया और कुछ समय बाद उसकी मौत हो गई। मौत के बाद उनके बकायों के सेटलमेंट के लिए उनकी धर्मपत्नी बहुत समय तक अपने गांव से चलकर बार-बार शहर में स्थित अखबार के दफ्तर की दौड़ लगाती रहीं थीं। पर संपादकजी अपने उस मातहत कर्मचारी का सेटलमेंट करवाने की बजाए काफी समय तक उसे टालते रहे। जब भी उसकी पत्नी शहर आतीं तो संपादकजी उनको जानबूझकर कोई न कोई बहाना लगाकर टरका देते थे। संपादकजी ने उस दिवंगत पत्रकार की पत्नी को काफी समय तक परेशान किया बताते हैं।

संपादकजी के अखबार में एक और पत्रकार थे जो उस दिवंगत पत्रकार के राज्य से ही आते थे। संपादकजी ने उस पत्रकार से भी जबरन इस्तीफा ले लिया था। ये दोनों पत्रकार संपादकजी को बिल्कुल नहीं सुहाते थे। पर इसकी एक गंभीर और मजेदार वजह थी।

मामला बहुत पुराना है। करीब 20-25 साल पुराना। संपादकजी के अखबार में काम करनेवाले साथियों ने वहां घटित हुई उन घटनाओं के बारे में जो कुछ बताया उसी के आधार पर यह सब लिख पा रहा हूं। उस समय वे संपादकजी उस अखबार के  स्थानीय संपादक हुआ करते थे। कहते हैं एक पर्वतीय राज्य की एक संभ्रांत महिला पत्रकार को उस संपादकजी ने अपने अखबार का जिला संवाददाता नियुक्त कर लिया था। संपादकजी ने उन महिला पत्रकार को अपने अखबार में पक्की नौकरी और अच्छी तनख्वाह देने का झूठा प्रलोभन देकर पटा लिया था और फिर उसका जमकर इस्तेमाल और शारीरिक शोषण किया था। फिर उसे बहुत परेशान करना भी शुरू कर दिया था। मामला सेक्सुअल हेरासमेंट करने का भी था ऐसा उस शहर के पत्रकार बताते थे। जब वह महिला पत्रकार उस संपादकजी से खूब परेशान होने लगी और मामला बर्दाश्त से बाहर हो गया तो उन्होंने उस अखबार समूह के मालिक, अखबार के प्रधान संपादक और शहर के प्रशासन और शहर की पुलिस के बड़े अधिकारियों समेत कई सारे लोगों को चिट्ठी लिखकर संपादकजी की ओर से अपने साथ की जा रही ज्यादतियों का पूरा-पूरा खुलासा कर दिया। उन महिला पत्रकार ने अपने खुलासेवाले उस पत्र की प्रतिलिपियां उस शहर के दूसरे तमाम प्रतिष्ठित अखबारों के संपादकों और शहर के कई प्रमुख पत्रकारों को भी भेज दी थी। इस पत्र से जब मीडिया सर्किल में हंगामा होने लगा तो संपादकजी ने इस चिट्ठी के लिए अपने ही अखबार के दो पत्रकारों को झूठमूठ का जिम्मेदार ठहरा दिया। संपादकजी ने बात फैलानी शुरू कर दी कि इन दोनों पत्रकारों ने उनके खिलाफ साजिश रचकर उन महिला पत्रकार से झूठे आरोपों वाली एक फर्जी चिट्ठी तैयार कराकर पुलिस, प्रशासन और मीडिया के लोगों में सर्कुलेट कराई है।

लोगों ने बताया कि उन महिला पत्रकार ने संपादकजी पर सेक्सुअल हेरासमेंट का आरोप लगाते हुए शहर कोतवाली में एक एफआईआर भी दर्ज कराई थी। महिला पत्रकार ने अपने उस एफआईआर में संपादकजी को आरोपी बना दिया था। उन महिला पत्रकार द्वारा पुलिस में दर्ज कराई गई उस एफआईआर पर शहर की पुलिस के एक डीएसपी ने संपादकजी को समन भेजकर थाने बुला लिया था। पर समन मिलते ही संपादकजी ने शहर की पुलिस के आला अधिकारियों को फोन करके खुद के एक बड़े अखबार समूह का संपादक होने के अपने रसूख और अखबार का धौंस दिखाकर उन्हें खूब डराया-धमकाया था और उनका करियर खराब कर देने की भी धमकी दे दी थी। संपादकजी की उस धौंस से शहर की पुलिस के आला अधिकारी सकते में आ गए थे और उन्होंने इस मामले को तत्काल ठंडे बस्ते में डाल दिया था। उल्टे समन भेजनेवाले शहर पुलिस के उस डीएसपी पर ही विभागीय कार्रवाई शुरू कर दी गई थी।

पर्वतीय राज्य की उन पीड़ित महिला पत्रकार की शिकायती चिट्ठी जब अखबार  समूह के मालिक को मिली तो उन्होंने अखबार के प्रधान संपादक को उस शहर में जाकर इस चिंताजनक मामले की जांच करने और समुचित कार्रवाई करने को कह दिया। मालिक के इस आदेश पर प्रधान संपादक उस शहर में आए थे और अखबार के दफ्तर जाकर अखबार के कर्मचारी यूनियन से भी बात कर मामले के बारे में जानने की कोशिश की थी। उन दिनों संपादकजी की सिफारिश पर अखबार के वे दोनों पत्रकार निलंबित कर दिए गए थे। संपादकजी ने अपने इन दोनों पत्रकर कर्मचारियों पर आरोप लगाया था कि इन दोनों ने ही साजिश रचकर पर्वतीय राज्य की उन पीड़ित महिला पत्रकार से संपादकजी के खिलाफ एक झूठा मामला बनवाकर उस मामले की फर्जी चिट्ठी तैयार करवाई और फिर उस फर्जी चिट्ठी को शहर प्रशासन, शहर पुलिस और देश भर की मीडिया में सर्कुलेट करा दिया।

शहर के लोगों ने बताया कि उस अखबार के दो कर्मचारियों के निलंबन का यह मामला अखबार कर्मचारी यूनियन के पास भी गया था। यूनियन ने भी निलंबन के इस मामले की अपने स्तर से जांच की थी। प्रधान संपादक जब इस मामले की जांच के लिए उस शहर में आए थे तो उन्होंने भी इस मामले पर कर्मचारी यूनियन से बात की थी। कर्मचारी यूनियन के एक पदाधिकारी से उनकी तीखी बहस भी हो गई थी। कर्मचारी यूनियन का कहना था कि अखबार के दोनों कर्मचारी बेकसूर हैं और पर्वतीय राज्य की उन महिला के मामले से इन दोनों का कोई संबंध नहीं है। संपादकजी ने नाहक ही दोनों को निलंबित कर दिया है जबकि चिट्ठी में उन पीड़ित महिला का सारा आरोप उन रंगीनमिजाज संपादकजी पर ही है। अखबार प्रबंधन का यह भी कहना था कि दोनों निलंबित पत्रकारो पर एक दूसरा मामला भी था और वे उसी मामले में निलंबित किए गए थे।

सूत्रों का कहना है कि उस अय्यास संपादकजी की पहल पर अखबार की कंपनी की तरफ से पर्वतीय राज्य की उन पीड़ित महिला पत्रकार की शिकायती चिट्ठी को पुलिस की ओर से किसी फॉरेंसिक लैब में भी भेजा गया था। कंपनी यह चाहती थी कि किसी तरह यह मामला फर्जी साबित हो जाए ताकि उसके रंगीनमिजाज संपादकजी बेदाग निकल जाएं। कंपनी यह भी चाहती थी कि उन महिला पत्रकार की चिट्ठी लिखवाने और फिर उसे सर्कुलेट करवाने में किसी तरह उस अखबार के उन दोनों निलंबित पत्रकारों का हाथ निकल आए। अखबार के प्रधान संपादक की कर्मचारी यूनियन के पदाधिकारियों से फॉरेंसिक लैब की उस कथित रिपोर्ट पर भी तीखी बहस हुई थी। कहते हैं उस फॉरेंसिक लैब रिपोर्ट से वैसा कुछ साबित नहीं हो सका जो अय्यास संपादकजी चाहते थे और जो कंपनी (अखबार प्रबंधन) चाह रही थी। फिर भी अपनी गलती पर पर्दा डालने के लिए संपादकजी ने अपने अखबार के दोनों निलंबित पत्रकारों से जबरन इस्तीफा ले लिया और उन्हें नौकरी से निकाल दिया।

इन सब बातों से इतना तो स्थापित हो ही जाता है कि उस पर्वतीय राज्य की उस महिला पत्रकार के साथ कुछ तो आपत्तिजनक हुआ ही था। वह महिला पत्रकार अपने अखबार और खबरों के काम से अक्सर शहर में उस अखबार के दफ्तर आती रहती थी। दफ्तर आकर वे संपादकजी से मिलती भी थीं। संपादकजी और उस महिला पत्रकार के बीच कुछ तो आपत्तिजनक मामला जरूर था जिसे अखबार के वे दोनों पत्रकार अच्छी तरह जानते थे। एक ही राज्य का होने के नाते दोनों पत्रकारों  की उस महिला पत्रकार से सहानुभूति भी थी। उन महिला पत्रकार ने शहर पुलिस में जो एफआईआर लिखवाई थी वह मामला कहते हैं कोर्ट भी जा पहुंचा था। कहते हैं उस मुकदमे में वे दोनों पत्रकार उस महिला पत्रकार की तरफ से बतौर गवाह शायद पेश भी हुए थे। बाद में अचानक एक दिन खबर आई थी कि उस महिला रिपोर्टर ने बड़े ही रहस्यमय ढंग से आत्महत्या कर ली है या फिर किसी सड़क दुर्घटना में उसकी मौत हो गई है। इसके कुछ समय बाद अखबार के उन दोनों  पत्रकारों को नौकरी से निकाल दिया गया। उनसे जबरन इस्तीफे ले लिए गए। शहर में उस अखबार की उस महिला रिपोर्टर की मौत का मामला आज तक रहस्य ही बना हुआ है। कहते हैं संपादकजी ने अखबार की धौंस देकर शहर की पुलिस से महिला पत्रकार की आबरू के साथ खिलवाड़ करने का वह मामला पुलिस जांच और चार्जशीट के स्टेज में ही रफा-दफा करवा दिया था। शायद अखबारी धौंस, बड़ी-बड़ी सिफारिशों और पैसे के बल पर मामले के तथ्यों में तरमीम कराकर और मामले को हल्का बनवाकर अदालत में भी सबकुछ मैनेज कर लिया गया था जिससे यह मामला खत्म हो गया था।

कहते हैं संपादकजी ने अखबार का स्थानीय संपादक रहते हुए अपने अखबार और पद का दुरुपयोग कर उस शहर की और उस रीजन के कई राज्यों की महिलाओं को अपने अखबार में नौकरी देने का प्रलोभन देकर अपनी जाल में फंसाया और फिर उनका शारीरिक शोषण किया। जानकार कहते हैं कि संपादकजी द्वारा परेशान की गई महिलाओं की एक लंबी फेहरिस्त है। पर समाज में इज्जत का बट्टा लगने और करियर खराब होने के डर से संभ्रांत घरों की ये महिलाएं संपादकजी के खिलाफ कभी खड़ी नहीं हो सकीं। उस अखबार के लोगों ने संपादकजी के चरित्र को बहुत करीब से देखा और अनुभव किया है। उस अखबार के लोग उनका पूरा चरित्र जान गए थे। उस अखबार के लोगों का कहना है कि संपादकजी एक अपराधी किस्म के आदमी हैं जो लोगों के साथ बदमाशी और गुंडई करने में बहुत आगे रहते हैं। जानकार कहते हैं कि पत्रकार तो वो कहीं से भी नहीं हैं। जानकार कहते हैं कि संपादकजी उनको फोन करनेवाले लोगों की फोन बातचीत को बिना बताए चुपचाप रिकार्ड कर लिया करते हैं और फिर उनके विरोधियों को सुनाकर दोनों को अपने फायदे के लिए ब्लैकमेल किया करते हैं। फोन ब्लैकमेलिंग के जरिए वे लोगों को अपनी जाल में फंसाते हैं। लोग बताते हैं कि कई लड़कियां भी इसी तरह उनके जाल में फंस चुकी हैं।

77. जनसत्ता को डुबोने की तैयारी तो पहले से थी

संपादकों की रंगीनमिजाजी की इसी तरह की कहानियां मैंने दिल्ली में टाइम्स ग्रुप की कई पत्रिकाओं को बंद कराने की स्थिति में पहुंचा देने के लिए आए या लाए गए संपादकों के बारे में भी सुना करता था। सुनकर बहुत आश्चर्य होता था और मन में संपादकों के प्रति देवता और भरोसे की जो मूर्ति बनी हुई थी वह निरंतर खंडित होती जा रही थी। हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप जब अपने किसी संपादक को अपमानित करके नौकरी से निकालता था तो यह सुनकर मन में बड़ी तकलीफ होती थी। इसलिए यह सब जानकर लगता था कि उस टाइम्स ग्रुप में प्रबंधन भी शायद ऐसा ही चाहता रहा होगा। 

जनसत्ता जब निकला था तो दिल्ली के लगभग सभी अखबारों में संपादकीय, प्रबंधन, सर्कुलेशन आदि विभागों के कर्मचारियों के वेतन बढा दिए गए थे। उनके प्रबंधन को डर था कि लोग भागकर जनसत्ता चले जाएंगे। ऐसे में जनसत्ता में पहले जो बेहतर वेतनमान लोगों को मिल रहा था वह कहते हैं ढाई-तीन साल बाद कम लगने लगा था। जो तेज तर्रार और पहुंच वाले साथी थे उन्हें इंडिया टुडे के हिंदी संस्करण में ले लिया गया था। उधर बाजार में उन्हीं दिनों नए-नए अखबार संडे मेल और संडे आब्जर्वर भी आ गए थे। जनसत्ता के लोग भी नए मौके की तलाश में टोह लेने अपनी मोटरसाइकिलें दौड़ाते रहते थे। लेकिन सफल वे चंद लोग ही हुए जिनके लिए किसी ने सिफारिश की। फिर भी लोग दरियागंज और दक्षिण दिल्ली से नए निकले अखबारों में मिलने की कोशिश जरूर करते थे। कभी-कभी संपादकों के घर भी चले जाया करते थे।

एक सुबह जब जनसत्ता के एक पत्रकार नौकरी के सिलसिले में एक कवि - संपादक के घर उनसे मिलने चले गए तो वे संपादकजी सजी-धजी एक युवती के साथ विभिन्न मुद्राओं में फोटो सेशन कर रहे थे। उस पत्रकार को आया देख कर उन्हें आश्चर्य हुआ। वे झेंप गए और कहने लगे कि "बेटी के साथ फोटो सेशन कर रहा था। मैं आफिस पहुंच रहा हूं। आप वहीं पहुंचिए। वहीं मिलते हैं।" पर उनको तो पहुंचना नहीं था और वे आफिस नहीं ही पहुंचे।

किसी के प्रति अनुराग रखना एक अलग चीज होती है। खबरों का लेखन-संपादन, खबरें निकालने का तरीका और लेख लिखना, संदर्भ और आंकडे इकट्ठा करने का तरीका और साक्षात्कार आदि का काम तकनीकी तौर पर काफी जटिल काम है। इसके लिए सभ्य तरीके से संवाद संभव है। दफ्तर या अपने पद के रुतबे का गलत इस्तेमाल अपने किए को छिपाने में किसी संपादक को क्यों करना चाहिए। पद का सम्मान जरूरी है। किसी की पर्सनल फाइल पढना, बनवाना, किसी को नौकरी से निकलवा देना यह सब काम सम्मानजनक और संपादक पद की गरिमा के अनुकूल नहीं कहलाता।

जनसत्ता का तो तब एक अलग ही रुतबा हुआ करता था। पर इतने सालों बाद अब लगता है कि जनसत्ता को डुबोने की तैयारी भी बहुत पहले से कर ली गई थी। तभी तो जनसत्ता के ही लोग आज कहते हैं कि प्रभाष जोशी संपादक बहाल करने में एकदम से फेल होते रहे और उन्होंने कई गलत लोगों को संपादक बनाकर जाने-अनजाने अपना और जनसत्ता दोनों का बेड़ा गर्क करवा लिया।

एक समय देश के मीडिया बाजार में जनसत्ता की बड़ी धाक थी। जनसत्ता के क्रमबद्ध विकास के साथ-साथ उसमें एक ऐसा नकारात्मक उभार होना भी शुरू हो गया जो धीरे-धीरे उसकी जड़ों को कमजोर करने लग गया। जनसत्ता एक धूमकेतु की तरह शुरू के तीन-चार साल तक चमका। उसकी चमक का असर यह रहा कि हिंदी के तमाम अखबार कुछ हद तक भाषा और लेआउट और संपादकीय विभाग में वेतन आदि के आधार पर कुछ दुरुस्त हुए। अब वह असर पूरी तरह से खत्म हो चुका है।

अपने प्रकाशन के साल भर या कोई डेढ साल बाद हीजनसत्ता ने अपने पहले पेज पर छापा था कि अब वे इससे ज्यादा नहीं छाप सकते। अब वे लाख की संख्या को पार कर चुके हैं। सो आपलोग कृपया मिल-बांट कर पढें।

इसके छपने के तीन महीने बाद ही इंडिया टुडे की अनुवाद आधारित पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ था जिसमें जनसत्ता के जगदीश उपासने, अशोक कुमार,अच्छे लाल प्रजापति चले गए थे। इंडिया टुडे के इस हिन्दी संस्करण में अनुवाद का काम काफी होता था इसलिए जनसत्ता के सहयोगी गोपनीयता के साथ अनुवाद का काम वहां से लाते थे और करते थे।

जनसत्ता में आखिर कुछ ऐसे तत्व घुस आए जिन्होंने अपने स्वार्थ के लिए पूरे अखबार को ही चौपट कर दिया। इसमें मालिक, प्रबंधन और कथित संपादक और उनके प्रिय संवाददाता और उप संपादक भी शामिल थे। अब यह अखबार सिर्फ एक मुखपत्र बन कर रह गया है। पहले यह स्थिति नहीं थी। आज न तो उसकी कोई धाक है और न अब उसके पाठक ही बचे हैं। रामनाथ गोयनका जी कह गए थे कि जनसत्ता को कभी बंद मत करना और शायद इसीलिए जनसत्ता को आज भी किसी तरह जिंदा रखा जा रहा है। रामनाथ गोयनकाजी के नाती से उनके गोद लिए पुत्र बनकर बिना किसी परिश्रम के एक बड़े अखबार समूह के मालिक बन बैठे विवेक खेतान उर्फ विवेक गोयनका की तो आज तक कभी इस अखबार में दिलचस्पी रही ही नहीं।

 – गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....

शुक्रवार, 5 अगस्त 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 31

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की इकत्तीसवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 31

75. प्रभाष जोशी अभी भी हमारे सेनापति

मध्य प्रदेश के इंदौर जिले के आष्टा गांव में जन्मे और इंदौर में ही पले-बढ़े और पढ़े-लिखे प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी (15/07/1937 - 05/11/2009) हिन्दी पत्रकारिता के प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता में एक नई धारा पैदा कर दी और उसे एक नई दिशा दी। वे आज हमारे बीच नहीं हैं पर वे आज भी हमारे सेनापति हैं। कम से कम तमाम जनसत्ताइय़ों के सेनापति तो हैं ही। प्रभाष जोशी राजनीति और क्रिकेट पत्रकारिता के विशेषज्ञ माने जाते थे। वे एक एक्टिविस्ट भी थे। गांव, शहर, जंगल की खाक छानते हुए सामाजिक विषमताओं का अध्ययन करके वे समाज को खबर तो देते ही थे, उसे दूर करने का भी प्रयास करते रहते थे। वे गांधीवादी विचारधारा के अनुयायी थे। उन्होंने पत्रकारिता की शुरुआत इंदौर से निकलने वाले हिन्दी अखबार नई दुनिया से की। बाद में इंडियन एक्सप्रेस समूह के अहमदाबाद, चंडीगढ़ और दिल्ली के स्थानीय संपादक भी रहे। 1995 में जनसत्ता के प्रधान संपादक पद से हटने के बाद वे कुछ साल तक उसके सलाहकार संपादक के पद पर भी रहे। उनके संपादन में जनसत्ता आम आदमी का अखबार तो बना ही, हिन्दी के बुद्धिजीवियों के लिए भी सर्वाधिक पसंद का अखबार बन गया।

प्रभाष जोशी के लेखों का संग्रह पांच खंडों में छपा है जिनके नाम हैं, ‘जीने के बहाने’, ‘धन्न नरबदा मइया हो’, ‘लुटियन के टीले का भूगोल’, ‘खेल सिर्फ खेल नहीं है’, और ‘जब तोप मुकाबिल हो’।

इसके अलावा उनकी पुस्तकें हैं, ‘मसि कागद’, 21वीं सदी : पहला दशक’, आगे अंधी गली है’, ‘प्रभाष पर्व’, ‘हिन्दू होने का धर्म’, ‘कहने को बहुत कुछ था’, ‘जीने के बहाने’, ‘कागद कारे’ आदि।

‘मसि कागद’ भी जनसत्ता के शुरुआती सालों में छपे उनके सैकड़ों लेखों में से ही संकलित किया गया एक संकलन है। इन लेखों के बल पर जनसत्ता ने हिन्दी के पाठकों में अपनी लोकप्रियता हासिल की। इनमें प्रभाष जोशी राजनीति को नैतिक सवालों से जोड़ते हैं और सिनेमा को समाज से जोड़ते हैं। वे अपने लेखन में पाठकों के प्रति अपनी जवाबदेही को सर्वाधिक महत्व देते हैं। इनमें सामाजिक विसंगतियों को बदलने की बेचैनी भी दिखाई देती है। ‘21वीं सदी : पहला दशक’ पुस्तक में 2000 से 2009 तक जनसत्ता में प्रकाशित उनके लेखों का संकलन है जिसमें राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन की धड़कनें सुनी जा सकती हैं। 21 वीं सदी के आगमन को सत्ताधारी वर्ग ने संपन्नता के स्वप्न के रूप में प्रचारित किया था पर यह सदी देश के सामान्य जन के लिए अभिशाप की तरह सामने आई। आर्थिक उदारीकरण के बुरे परिणाम सामने आने लगे। अपने लेखों में प्रभाष जोशी ने आर्थिक और सामाजिक जीवन में आई मुश्किलों को प्रभावशाली ढंग से विश्लेषित किया है। इन लेखों में एक शोषण-मुक्त भारतीय समाज का स्वप्न भी देखा गया है। ‘आगे अंधी गली है’ में उनके ‘प्रथम प्रवक्ता’ और ‘तहलका’ में छपे कॉलम संकलित हैं। इसमें उनके अखिरी दो वर्ष का लेखन संकलित है। यह पुस्तक प्रभाष जोशी के आखिरी दिनों के वैचारिक मानस को समझने की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।

पत्रकार प्रभाष जोशी पत्रकारिता के उन लोगों की जमात में कभी शामिल नहीं हुए जो लेखनी से समझौते करके राज्यसभा और विधान परिषद् जाने, राजदूत बनने या सरकारी संस्थाओं में पद पाने के लिए लिखते हैं। वे पत्रकारिता के पुरस्कारों के पीछे भी कभी नहीं भागे। उनमें कभी किसी पद्म पुरस्कार की चाह भी नहीं देखी गई। वे पत्रकारों के बीच से आए थे और मृत्यु-पर्यंन्त पत्रकारों के बीच में रहते रहे। उनके व्याख्यान हर विषय पर अकाट्य रहे। उन्हें टीवी चैनलों के टॉक शो में या मुद्दों पर बोलते हुए काफी ध्यान से सुना जाता था। उन्होंने अपने समकालीन हर साहित्यकार और कवि का सम्मान तो किया ही, क्रिकेट जैसे खेल पर भी बहुत सधे हुए अंदाज में और खरी-खरी लिखनेवाले लेखक की तरह लिखा। वे क्रिकेट के दीवाने थे और इसी की दीवानगी ने उन्हें हमसे छीन भी लिय़ा। हमें लगता है कि वे हैदराबाद के भारत-आस्ट्रेलिया के बीच क्रिकेट श्रृंखला के वन डे मैच जिसे वे फटाफट क्रिकेट कहते और लिखते रहे थे के अंतिम मुकाबले में सचिन तेंदुलकर के शानदार खेल से बहुत प्रसन्न होने और जीत की ओर जाते हुए अचानक तेंदुलकर के एक खराब शॉट खेलकर आउट होने और इस तरह से मैच हार जाने को वे बर्दाश्त नहीं कर सके।

बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को गिराए जाने पर 7 दिसंबर 1992 को ‘राम की अग्नि परीक्षा’ शीर्षक से उन्होंने जो लेख लिखा उससे उनकी सोच का स्तर और पत्रकारिता के प्रति उनके उत्तरदायित्व को बखूबी समझा जा सकता है। उन्होंने इसमें लिखा- “राम की जय बोलने वाले धोखेबाज विध्वंसकों ने कल मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रघुकुल की रीत पर अयोध्या में कालिख पोत दी।

हिन्दू आस्था और जीवन परंपरा में विश्वास करनेवाले लोगों का मन आज दुख से भरा और सिर शर्म से झुका हुआ है। अयोध्या में जो लोग एक दूसरे को बधाई दे रहे हैं और बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को ढहाना हिन्दू भावना का विस्फोट बता रहे हैं- वे भले ही अपने को साधु–साध्वी, संत-महात्मा और हिन्दू हितों का रक्षक कहते हों, पर उनमें और इंदिरा गाँधी की हत्या की खबर पर ब्रिटेन में तलवारें निकालकर खुशी से नाचने वाले लोगों की मानसिकता में कोई फर्क नहीं है। 

एक निरस्त्र महिला की अपने अंगरक्षकों द्वारा हत्या पर विजय नृत्य करना जितना राक्षसी है उससे कम निंदनीय, लज्जाजनक और विधर्मी एक धर्म स्थल को ध्वस्त करना नहीं है। वह धर्मस्थल बाबरी मस्जिद भी था और रामलला का मन्दिर भी। ऐसे ढांचे को विश्वासघात से गिरा कर जो लोग समझते हैं कि वे राम का मन्दिर बनाएंगे वे राम को मानते, जानते, समझते नहीं हैं.......

कल अयोध्या में सुप्रीम कोर्ट, संसद और देश को धोखा दिया गया। कहना कि यह हिन्दू भावनाओं का विस्फोट है- झूठ बोलना है। जिस तरह से ढाँचे को ढहाया गया वह किसी भावना के अचानक फूट पड़ने का नहीं, सोच समझ कर रचे गए षड्यंत्र का सबूत है। भाजपा के नहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता भी वहाँ मौजूद थे। वे साधु-महात्मा भी वहां थे जिन्हें मार्गदर्शक मंडल कहा जाता है। विहिप, भाजपा और संघ को अपने अनुशासित कारसेवकों पर बड़ा गर्व है। लेकिन वे सब देखते रहे और ढांचे को ढहा दिया गया। ढांचे को ढहाते समय राम लला की मूर्तियां ले जाना और फिर लाकर रख देना भी प्रमाण है कि जो कुछ भी हुआ वह एक योजना के अनुसार हुआ है। भाजपा की सरकार के प्रशासन और पुलिस का भी कुछ न करना कल्याण सिंह सरकार का षड्यंत्र में शामिल होना है।”

इसी तरह प्रमोद रंजन के सवालों का जवाब देते हुए ‘काले धंधे के रक्षक’ शीर्षक से उन्होंने 6 सितंबर 2009 को जो लिखा वह उनके साहस और पत्रकारिता के प्रति निष्ठा का प्रमाण है। “ वंशवाद और धन के लोभ ने लालू, मुलायम, चौटाला, नितीश कुमार, अजित सिंह और मायावती को मजबूत विपक्ष बनने के बजाय बिन बुलाए कांग्रेस समर्थक क्यों बनाया है? क्योंकि सबके कंकाल सीबीआई के पास हैं। और नंदीग्राम और सिंगूर के बाद वामपंथी किस नैतिक और वैचारिक समर्थन के हकदार हैं? दलितों–पिछड़ों और वाम आंदोलनों के सरोकारों की दुहाई देकर खबरों के बेचने के काले धंधे को माफ करना चाहते हो? देखते नहीं कि ये बनिए की ब्राह्मण पर जातिवादी विजय भर नहीं है जिस पर प्रमोद रंजन जैसे बच्चे ताली बजाएं। यह भ्रष्ट राजनेताओं और पत्रकारिता को काली कमाई का धंधा बनाने वाले मीडिया मालिकों की मिलीभगत है।” प्रभाष जोशी ने पत्रकारिता साहित्य की समीक्षा कम की है और पत्रकारिता अधिक। इसलिए उन्हें पत्रकारिता का समीक्षक कहने की तुलना में पत्रकार कहना ही उचित है।

पत्रकारिता के संत आदरणीय प्रभाष जोशी जी के बारे में जब भी कुछ पढ़ने या फिर लिखने बैठता हूं तो लगता है जैसे पीछे से आकर उन्होंने आज फिर मेरा कंधा दबाया और कहा, “झा साहब सारे एडीशनों को देर रात तक की सभी खबरें भेजकर फिर सबसे कंफर्म कर लेना तभी घर जाना। ध्यान रखना सुबह-सुबह चंडीगढ़ से थानवी जी का कोई फोन नहीं आना चाहिए कि फलां खबर नहीं मिली।” उनके समय में जनसत्ता का मतलब प्रभाष जोशी था। वर्तनी का बहुत कड़ाई से पालन करना होता था। उन संत प्रभाष जोशी ने अखबार का एक अलग खांचा ही गढ़ दिया था जिसका नाम था जनसत्ता । जैसे एक समय में स्टेट्समैन अखबार हाथ में होने से इंटेलेक्चुअल होने की पहचान मिलती थी उसी तरह उन्होंने जनसत्ता पढ़नेवालों को भी यही पहचान दिला दी थी। जनसत्ता का सूत्र वाक्य था- सबकी खबर ले सबको खबर दे । हम डेस्कवालों ने और ब्यूरो के तमाम साथियों ने भी प्रभाष जी की बनाई वर्तनी को इस तरह आत्मसात कर लिया था कि घर-परिवार में कभी किसी को कोई चिट्ठी भी लिखते थे तो वह भी जनसत्ता की वर्तनी में ही होती थी। हमलोग दफ्तर में आपस में मजाक में बोला करते थे कि जनसत्ता के लोगों को तीन भाषाएं सीखनी पड़ती है- अंग्रेजी, हिंदी और जनसत्ता की हिंदी। जनसत्ता की तमाम खबरें एकदम मंजी हुई और एकदम टाइट सबिंग वाली हती थीं। ये थी जनसत्ता की अपनी बिल्कुल अलग पहचान। प्रभाष जी साफ कहते थे कि जनसत्ता अगर बिकेगा तो अपनी दम पर बिकेगा, एक्सप्रेस के दम पर नहीं। प्रभाष जी की बात ही कुछ और थी। उनके जाने के बाद जनसत्ता अब जनसत्ता नहीं रह गया। यहां हरिवंश राय बच्चन जी की कविता जुबान पर आती है--- अब न रहे वो पीनेवाले अब न रही वो मधुशाला। यही होती है आदमी की पहचान। 

प्रभाष जोशी ने अपने अतीत और अपनी गरीबी को भी कभी नहीं छिपाया। कई बार वे सहजता से बोल देते कि परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने के कारण वे ज्यादा नहीं पढ़ पाए और वे अंधे-बहरों के एक स्कूल में पढ़ाने जाया करते थे। इस संत ने हिंदी पत्रकारिता में मील का ऐसा बड़ा और भारी भरकम पत्थर गाड़ दिया जिसे शायद ही कभी कोई सूरमा टस से मस भी कर पाएगा। मुझे इस बात का बहुत गर्व है कि मुझे हिंदी पत्रकारिता के इस संत के साथ बरसों तक काम करने और कई अलग-अलग जिम्मेदारियां निभाने का कृपापूर्ण अवसर मिला। पत्रकारिता के इस अद्भुत संत को शत् शत् नमन।

– गणेश प्रसाद झा

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रविवार, 31 जुलाई 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 30

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की तीसवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 30

71. ओम थानवी के बारे में नकारात्मक और आपत्तिजनक कहानियां

वैसे तो चंडीगढ़ जनसत्ता के स्थानीय संपादक ओम थानवी जी हमारे लिए हमेशा आदरणीय ही रहे। मेरा उनसे परिचय उस समय हुआ जब प्रभाष जोशी जी मुझे बंबई जनसत्ता से वापस दिल्ली लेकर आए। दिल्लीजनसत्ता में मुझे जनसत्ता के तमाम संस्करणों के बीच खबरों के कोऑर्डिनेशन का काम दिया गया था। मुझे हर समय जनसत्ता के स्थानीय संपादकों के संपर्क में रहना होता था। दिल्ली जनसत्ता आने के बाद से थानवी जी से लगभग रोज ही बात होने लगी। थानवी जी उन दिनोंजनसत्ता के चंडीगढ़ संस्करण के स्थानीय संपादक हुआ करते थे। थानवी जी के चंडीगढ़ में रहने के दिनों ही उनके बारे में कई तरह की बहुत ही नकारात्मक और आपत्तिजनक बातें, टिप्पणियां और बेहद नकारात्मक कहानियां सुनने को मिली थी। उन नकारात्मक कहानियों में कितनी सच्चाई थी या फिर वे सच थीं भी या नहीं यह तो नहीं कहा जा सकता पर लोग इसकी खूब चर्चा करते थे। उस दौर की वे नकारात्मक और आपत्तिजनक कहानियां उनके आचरण और उनके तरह-तरह के संबंधों को लेकर होती थीं। चंडीगढ़ जनसत्ता के लोग बहुत चटखारे ले-लेकर उनकी उन नकारात्कम और कथित रंगीनमिजाजी की तरह-तरह की कहानियों की खूब चर्चा किया करते थे और उन्हें खूब आनंद के साथ सुनते और दूसरों को भी सुनाया करते थे। ओम थानवी के बारे में उन दिनों चल रही उन नकारात्मक और कथित रंगीनमिजाजी की कहानियों पर कभी यकीन तो नहीं होता था पर वे नकारात्मक और कथित रंगीनमिजाजी की आपत्तिजनक कहानियां चंडीगढ़ और कुछ-कुछ दिल्ली की मीडिया की फिजां में बहुत प्रमुखता से और काफी समय तक चर्चा में जरूर बनी रही थीं।

72. शेखर गुप्ता ने प्रभाष जोशी और जनसत्ता दोनों को मरोड़ा

कंपनी मालिक विवेक गोयनका ने जब शेखर गुप्ता कोइंडियन एक्सप्रेस का संपादक बनाया था तो उनको कंपनी का सीईओ भी बना दिया था। पहले ऐसी परंपरा नहीं होती थी। पत्रकारिता के इस बाजारीकरण से ही यह विकृति आई। इंडियन एक्सप्रेस के संपादक और सीईओ शेखर गुप्ता न तो प्रभाष जोशी को पसंद करते थे और न जनसत्ता को। दरअसल, शेखर गुप्ता को हिन्दी और हिन्दी वालों से बहुत चिढ़ थी। शेखर गुप्ता एकदम से तुले हुए थे कि जनसत्ता को किसी तरह बंद करा दिया जाए। उनकी योजना के मुताबिक एकाएक जनसत्ता के अच्छे खासे फायदे में चल रहे दो संस्करण जनसत्ता चंडीगढ़ और जनसत्ता बंबई बंद कर दिए गए। सीईओ शेखर गुप्ता ने प्रभाष जोशी को अपमानित करने और उन्हें हाशिए पर धकेलने की कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी।

कंपनी मालिक विवेक गोयनका की पत्नी अनन्या गोयनका बिल्कुल नहीं चाहती थीं कि उनके मायके कोलकाता से जनसत्ता बंद हो जाए। इसीलिए प्रभाष जोशी जी कोलकाता संस्करण को बचा सके। लेकिन जिन लोगों को वे बतौर टीम लेकर आए थे, एक के बाद एक करके उन लोगों को कंपनी द्वारा वीआरएस देते रहने के सिलसिले को वे रोक न सकें और न जनसत्ताकोलकाता के साथियों की हैसियत को ही वे थोड़ा भी बदल सके। उस समय खून के आंसू रोते रहे थे प्रभाष जोशी और कोलकाता संस्करण के उनके लाए लोग किं कर्तव्य विमूढ़ होकर यह सब होते देखते रहे थे। कंपनी के वीआरएस लाने के पीछे भी कहते हैं दिमाग शेखर गुप्ता का ही काम कर रहा था। शेखर गुप्ता जनसत्ताऔर प्रभाष जोशी से हिन्दी विरोध की अपनी खुन्नस निकाल रहे थे। उन दिनों जनसत्ता के कार्यकारी संपादक ओम थानवी हमेशा शेखर गुप्ता की सिर्फ हां में हां मिलाने में मशगूल रहते थे। वे भीतर से बहुत खुश थे कि प्रभाष जोशी एक तय योजना के तहत निपटाए जा रहे हैं।

73. प्रभाष जोशी से सबकुछ छीन लेने का खेल भी हुआ

राहुल देव ने साजिश रचकर प्रभाष जोशी से उनका प्रधान संपादक का पद छिनवाकर उन्हें श्रीहीन कर दिया था और खुद जनसत्ता की गद्दी पर बैठ गए थे। जब ओम थानवी आए तो य़े भी प्रभाष जोशी से दुश्मनी की गांठ बांधकर बैठ गए। ओम थानवी ने प्रभाष जोशी को तरह-तरह से अपमानित और प्रताड़ित किया। एक बार जब मैं अपनी एक पीड़ा लेकर मदद के लिए प्रभाषजी के पास गया था तो उन्होंने मेरी कोई मदद करने में अपनी लाचारी दिखाते हुए मुझसे अपनी यह पीड़ा जाहिर कर दी थी। ओम थानवी ने आने के कुछ ही दिनों बाद से प्रभाष जी को अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया था। प्रभाष जी का साप्ताहिक कॉलम कागद कारे अटकने और रुकने लगा था। एकाध हफ्ते यह कॉलम नहीं भी छापा गया। ऐसा करके ओम थानवी ने प्रभाष जोशी को अपनी औकात बता दी और उनको यह संकेत देना भी शुरु कर दिया कि वे अब जनसत्ता से अपनी तशरीफ ले ही जाएं तो अच्छा क्योंकि इसी में उनकी भलाई है। किसी भी मामले में न तो प्रभाष जी से कुछ पूछा जाता था और न तो उनकी कोई बात मानी जाती थी। प्रभाष जी केवल बराएनाम सलाहकार संपादक बने रहे थे। वे सिर्फ दफ्तर आते थे और अपना लेख या कॉलम लिखकर दे दिया करते थे। बस। प्रभाष जी को तंग करने में ओम थानवी ने भी राहुल देव वाला तरीका ही अपनाया था। कुल मिलाकर ओम थानवी ने दफ्तर में ऐसे हालात पैदा कर दिए कि प्रभाष जोशी के लिए वहां रहना बहुत कठिन हो गया।

मेरी जानकारी के मुताबिक कंपनी ने प्रभाष जोशी को पूर्वी दिल्ली के लक्ष्मीनगर में एक मकान दे रखा था जिसका किराया कंपनी चुकाती थी। वह मकान एक तरह से कंपनी लीज पर था। प्रभाष जी के पास कई सालों से दफ्तर की एक एंबेसेडर कार भी थी जिससे वे रोज दफ्तर आया-जाया करते थे। कार का ड्राइवर भी कंपनी का ही दिया हुआ था। कार हमेशा प्रभाष जोशी के डिस्पोजल पर ही रहती थी। प्रभाष जोशी केजनसत्ता के प्रधान संपादक पद से हटने और सलाहकार संपादक बनने के बाद भी वह मकान और ड्राइवर सहित वह कार प्रभाष जोशी के पास ही थी। कई साल तक यह सब प्रभाष जी के पास ही रहा। पर बाद मेंजनसत्ता के ही कुछ वरिष्ठ लोग बताते हैं कि ओम थानवी ने ऐसी चाल चली कि कंपनी ने उनसे वह घर छीन लिया। घर छिनने के बाद प्रभाष जी गाजियाबाद स्थित जनसत्ता हाउसिंग सोसायटी के अपने खुद के मकान में रहने आ गए। फिर भी कंपनी की दी हुई गाड़ी उनके पास ही रही और कंपनी का ड्राइवर भी उनके पास रहा। पर थोड़े समय बाद कंपनी की दी हुई वह कार भी उनसे ले ली गई। यह सब उनके जनसत्ता के सलाहकार संपादक पद पर रहने के दौरान ही घटित हुआ।

कहते हैं एक बार प्रभाष जोशी किराए की कार लेकर दिल्ली शहर में कहीं किसी काम से गए थे तो रास्ते में कहीं उनको जनसत्ता के पूर्व उत्तर प्रदेश ब्यूरो प्रमुख हेमंत शर्मा जी मिल गए। हेमंत शर्मा ने अपने संपादक को इस तरह किराए की कार में चलते देखा तो रोक कर उनसे पूछा कि आप किराए की गाड़ी में क्यों हैं? आपकी दफ्तर की गाड़ी कहां गई? जब प्रभाष जी ने हेमंत जी को बताया कि दफ्तर की गाड़ी कंपनी ने वापस ले ली है तो उनसे यह सुनकर हेमंत जी बहुत दुखी हुए। कहते हैं हेमंत शर्मा ने उसी दिन एक नई कार खरीदकर प्रभाश जोशी जी के घर भिजवा दी। हेमंत शर्मा की अपने गुरू प्रभाष जोशी को यह गुरू दक्षिणा थी। हेमंत शर्मा आज जो कुछ भी हैं वह प्रभाष जोशी की ही कृपा है। इसके कुछ समय बाद प्रभाष जी ने जनसत्ता के सलाहकार संपादक के पद से इस्तीफा दे दिया।

74. प्रभाष जोशी के नाम पर बना न्यास

प्रभाष जोशी का 5 नवंबर 2009 को निधन हो गया। उनके जाने के बाद उसी साल 27 दिसंबर को जनसत्ताके लोगों ने उनकी याद में उनके नाम पर एक न्यास का गठन किया। नाम दिया गया प्रभाष परंपरा न्यास । प्रभाष जोशी दिल्ली केंद्रित पत्रकारिता के पक्ष में नहीं थे। वे हिंदी को इतना सबल बनाना चाहते थे और पत्रकारों को इस तरह वेतन और सुविधाओं से संपन्न करना चाहते थे कि सभी हिंदी भाषी नगरों में पत्रकार एक खोजी और खबर लाने वाला बन सके। उसके लेखन में बोलियों की पकड़ हो और वह अच्छी शैली में हो। प्रभाष जी चले गए पर उनकी इस चाह को न्यास पूरा न कर सका। चंद पढे लिखे विद्वान उनका नाम लेते हुए हिंदू परंपरा का बखान कर देते हैं। कबीर वाणी गा दी जाती है और खा पी कर लोग खिसक लेते हैं। न्यास हमेशा पैसे की कमी का रोना रोता है। न्यास की ओर से कभी खर्चे के ब्योरे सार्वजनिक नहीं किए जाते। 

न्यास की ओर से प्रभाष जी का सारा लिखा छापा जाना था। छापकर उसे सस्ती कीमत पर बेचना था। हिंदी प्रदेशों की राजधानियों में युवा पत्रकारों से सही लेखन पर बातचीत करनी थी। पर यह सब कुछ नहीं हुआ।जनसत्ता के वरिष्ठ लोग कहते हैं कि क्या यह एक जागरूक पत्रकार को आडम्बरी भव्यता में खत्म कर देने की योजना नहीं है? क्या एक पत्रकार के प्रति श्रद्धा का यही उपयुक्त तरीका है?

इस न्यास को लेकर जनसत्ता के लोगों में ही आपस में कई बार विवाद हुआ है। न्यास को आज भी बहुत कम लोग जानते हैं। जनसत्ता से जुड़े सभी लोगों को इसके बारे में पता भी नहीं है। जनसत्ता के भी बहुत कम लोग न्यास की गतिविधियों से वाकिफ हैं। खासकर दिल्ली वालों को ही न्यास की गतिविधियों की जानकारी रहती है। जनसत्ता के ही कुछ लोगों का कहना है कि इस न्यास को कुछ लोगों ने हथिया लिया है और उसके नाम और बल पर राजनीति की जा रही है।

– गणेश प्रसाद झा

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पत्रकारिता कीकंटीली डगर- 29

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की उनतीसवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 29

68. जनसत्ता को मुनाफे की जगह घाटे में दिखाने का खेल

जनसत्ता के जानकार बताते हैं कि जनसत्ता कभी भी धाटे में नहीं रहा। चंडीगढ़ और बंबई संस्करण तो हमेशा से मुनाफे में रहा। चंडीगढ़ संस्करण ने तो अपने पुलआउट से एक-एक दिन में कई-कई लाख रुपए कमाकर दिए। पर कंपनी वाले जनसत्ता के इस मुनाफे को हमेशा इंडियन एक्सप्रेस के खाते में डाल देते थे ताकि उनका फ्लैगशिप अखबार इंडियन एक्सप्रेस हमेशा मुनाफे में नजर आए। हिमाचल प्रदेश में इंडियन एक्सप्रेस का कोई नामलेवा नहीं था पर जनसत्ता वहां जमकर बिकता था। 1995 से 1998 के दौरान हिमाचल में इंडियन एक्सप्रेस की बमुश्किल 15-20 कॉपियां जाती थी पर जनसत्ता की 1500 कॉपियां जाती थी। सर्कुलेशन वाले मांग आने पर भी जनसत्ता की कॉपियां नहीं बढ़ाते थे। कहते थे इंडियन एक्सप्रेस की बढ़ाओ तब जनसत्ता की बढ़ाएंगे। इस तरह कंपनी की पॉलिसी जानबूझकर तरह-तरह की गंदी चाल  चलकर जनसत्ताको हमेशा नीचे गिराते रहने की होती थी। फायदे में चल रहे जनसत्ता के चंडीगढ़ और बंबई संस्करण को जानबूझकर हमेशा नुकसान में दिखा-दिखाकर अनसस्टेनेबल करार देकर फरवरी 1996 में बंद कर दिया गया। यह सब कंपनी मालिक की इजाजत और प्रबंधन के कहने पर ही हो रहा था। यानी कंपनीजनसत्ता को पूरी तबीयत से मार डालने में जुटी थी।

69. जनसत्ता की बर्बादी पर अथ्ययन और बहस की मांग  

जनसत्ता का नाम हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में एक मील का पत्थर बनकर स्थापित हो गया है। इस अखबार ने हिन्दी पत्रकारिता को एक नई दिशा दी। जनसत्ता के पुराने लोग और इसके जानकार कहते हैं कि जनसत्ताके अवसान के कारणों को ठीक से समझने के लिए इस पर भी एक वृहद अध्ययन कराया जाना चाहिए और इसपर एक व्यापक बहस भी होनी चाहिए कि राम बहादुर राय और अच्युतानंद मिश्र जी जनसत्ता छोड़कर नौकरी करने नवभारत टाइम्स क्यों चले गए थे और फिर कुछ समय बाद जनसत्ता क्यों लौट आए थे। बनवारी जी ने दिल्ली जनसत्ता के स्थानीय संपादक पद से इस्तीफा क्यों दे दिया। प्रभाष जोशी के बाद जनसत्ताका संपादक तो बनवारी जी को ही होना चाहिए था।जनसत्ता की कमान राहुल देव के बाद अच्युतानंद मिश्र जी को और उनके बाद ओम थानवी जी को संभालने को क्यों दे दिया गया। और उसके बाद चंडीगढ़ संस्करण के रिपोर्टर मुकेश भारद्वाज को जनसत्ता का कार्यकारी संपादक कैसे और क्यों बना दिया गया। इससे ऐसा लगता है कि जनसत्ता की रीढ़ रहे पुराने जनसत्ताई लोग जनसत्ता को इस तरह तबीयत से मारकर डुबो देने के पीछे कोई इंटर्नल या एक्स्टर्नल सबोटॉज वाला खेल तो नहीं देख रहे हैं जो उस समय भी काम कर रहा था और शायद कहीं न कहीं अभी भी काम कर रहा है। जनसत्ताई लोग आज जिस अध्ययन और बहस की बात कर रहे हैं उससे उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे शायद उस सबोटॉज वाली शक्ति का कुछ खुलासा हो सकेगा। 

70. ओम थानवी पर देश विरोधियों की मदद का आरोप !

फरवरी 2022 में ओम थानवी जयपुर के हरिदेव जोशी पत्रकारिता ओर जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति थे। वहां उनपर आरोप लगे कि उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान अपने पद का दुरुपयोग कर इस विश्वविद्यालय को दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की तरह देश विरोधियों का अड्डा बनाने की खूब कोशिश की। उनपर आरोप लगे कि ओम थानवी के प्रश्रय पर जेएनयू के तमाम ऐसे टुकड़े-टुकड़े गैंग के लोग जयपुर आकर इस विश्वविद्यालय में अड्डा जमाने लगे थे। इससे नाराज होकर राजस्थान के राज्यपाल कलराज मिश्र ने विश्वविद्यालय के बोर्ड ऑफ मेनेजमेंट और परामर्शदात्री समिति की बैठक को दो बार रुकवाया। राजस्थान भाजपा का कहना था कि वे इस विश्वविद्यालय को देश विरोधी तत्वों का अड्डा किसी भी सूरत में नहीं बनने देंगे। हरिदेव जोशी पत्रकारिता विश्वविद्यालय को जयपुर का जेएनयू बनाया जा रहा है जो ठीक नहीं है और यह देशहित में नहीं है।

जयपुर में हरिदेव जोशी पत्रकारिता ओर जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में ओम थानवी की नियुक्ति गलत तरीके से की गई थी। यह तिकड़मी ओम थानवी की एक जुगाड़बाजी थी। उनकी इस नियुक्ति को लेकर काफी विवाद हुआ था और मामला राजस्थान हाईकोर्ट तक पहुंच गया था। राजस्थान के ही पंकज प्रताप सिंह रघुवंशी व अन्य की याचिका पर हाईकोर्ट ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, राजस्थान सरकार, ओम थानवी और हरिदेव जोशी पत्रकारिता और जनसंचार विश्वविद्यालय चारों को नोटिस जारी किया था। मामले में ओम थानवी के पास पीएचडी की डिग्री नहीं होने और प्रोफेसर के पद का 10 साल का अनुभव नहीं होने के वावजूद सारे यूजीसी नियमों और यूनिवर्सिटी कानून को तोड़कर ओम थानवी की की नियुक्ति किए जाने का आरोप लगाया गया था। याचिका पर हाईकोर्ट के जस्टिस मनिन्द्र मोहन श्रीवास्तव और जस्टिस बीरेंद्र कुमार की बेंच ने सुनवाई की।


इस मामले में हाईकोर्ट में सिविल रिट और जनहित याचिका लगाई गई है। याचिकाकर्ता के वकील अरविंद कुमार भारद्वाज की तरफ से हाईकोर्ट को बताया गया कि विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त किए गए ओम थानवी इस पद के लिए जरूरी योग्यता ही नहीं रखते। यूजीसी के नियमों के मुताबिक कुलपति बनने के लिए 10 साल तक प्रोफेसर के रूप में काम करने का अनुभव और पीएचडी की डिग्री होना जरूरी है। याचिका में पूछा गया है कि बिना जरूरी योग्यता के फिर किस आधार पर उन्हें प्रदेश के इकलौते पत्रकारिता विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया है। हाईकोर्ट में ओम थानवी का बायोडाटा और नियुक्ति पत्र पेश किया गया है।

इस मामले में वकील अरविंद कुमार भारद्वाज ने मीडिया को बताया कि पीएचडी करने के बाद ही कोई शिक्षक प्रोफेसर बन सकता है। उससे पहले उसे सहायक और एसोसिएट प्रोफेसर के तौर पर काम करने का अनुभव लेना पड़ता है। हरिदेव जोशी पत्रकारिता और जनसंचार विश्वविद्यालय की नियमावली में लिखा है कि कुलपति के पद के लिए 10 साल का अनुभव होना चाहिए। जबकि ओम थानवी सिर्फ पत्रकारिता के क्षेत्र में अनुभव रखते हैं। कोर्ट में ओम थानवी का बयोडाटा और नियुक्ति पत्र पेश किया गया है जिस आधार पर पाया गया है कि उन्हें 10 साल का प्रोफेसर पद का अनुभव नहीं है। याचिका में कहा गया है कि हरिदेव जोशी पत्रकारिता और जनसंचार विश्वविद्यालय पिछली कांग्रेस सरकार के दौरान खोली गई थी। बाद में भारतीय जनता पार्टी की सरकार के आने के बाद इस विश्वविद्यालय को बंद कर दिया गया था। अब प्रदेश में कांग्रेस की सरकार की फिर से वापसी होने पर विश्वविद्यालय को फिर से शुरू किया गया है। जब से इस पत्रकारिता विश्वविद्यालय को बंद कर दिया गया था तब से इस विश्वविद्यालय की फैकल्टी को राजस्थान विश्वविद्यालय में शिफ्ट कर दिया गया था। राजस्थान विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर मास कम्यूनिकेशन में फैकल्टी पढ़ाती आ रही थी। यह फैकल्टी अब वापस इस हरिदेव जोशी पत्रकारिता और जनसंचार विश्वविद्यालय में लौट आई है।

जनसत्ता से उनके रिटायर होने के कुछ ही दिनों बाद नवंबर 2015 में ओम थानवी को लेकर सोशल मीडिया में एक ऐसी खबर फैली थी कि मोदी सरकार के विरोध में दिल्ली के मावलंकर हॉल में एक प्रतिरोध सभा का आयोजन करने के लिए विपक्ष के एक बड़े सासंद ने उनको दस करोड़ रुपए दिए थे। 

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....

गुरुवार, 7 जुलाई 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 28

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की अट्ठाइसवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 28

66. जनसत्ता का दफ्तर दिल्ली से नोएडा शिफ्ट

वर्ष 1998 के उत्तरार्ध में जनसत्ता पर एक और संकट आया। अखबार पर आर्थिक संकट लादने के उन्हीं दिनों अखबार का दफ्तर दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग वाले एक्सप्रेस बिल्डिंग से हटाकर नोएडा के सेक्टर-2 में किराए की एक बहुत घटिया और छोटी सी बिल्डिंग ए-80 में ले जाया गया। उस बिल्डिंग में पहले से जूते-चप्पलों की एक फैक्ट्री चल रही थी। कंपनी ने दफ्तर शिफ्ट करने का यह निर्णय सिर्फ जनसत्ता के लिए ही लिया। कंपनी ने अपने फ्लैगशिप अखबार इंडियन एक्सप्रेस का दफ्तर एक्सप्रेस बिल्डिंग में ही रहने दिया। तब कंपनी के इस निर्णय से जनसत्ता के लोगों में यह डर बैठ गया कि कंपनी जनसत्ता को इस तरह अलग करके अब कुछ दिनों में उसे बंद कर देना चाहती है। चंडीगढ़ और बंबई संस्करण बंद किए ही जा चुके थे, सो कर्मचारियों में यह डर पैदा होना लाजिमी था। शुरू में जनसत्ता के पत्रकारों ने दफ्तर शिफ्ट करने के इस निर्णय का जमकर विरोध किया। इसमें कर्मचारी यूनियन का भी साथ मिला पर इस सबसे कंपनी पर कोई फर्क नहीं पड़ा। शिफ्टिंग का मामला कुछ हफ्तों के लिए टला जरूर पर आखिरकार जनसत्ता का दफ्तर नोएडा चला ही गया। दफ्तर नोएडा ले जाए जाने के बाद जनसत्ता हर तरफ से कट गया और बिल्कुल अलग-थलग पड़ गया। नोएडा दफ्तर में न कभी कोई प्रेस विज्ञप्ति देने आता था न कोई संपादक या फिर और किसी से मिलने। जनसत्ता मीडिया की दुनिया से भी पूरी तरह से कट सा गया। रोजाना अखबार के पन्ने तैयार करने के बाद उसे एक सीडी में डालकर छपने के लिए बहादुरशाह जफर मार्ग के एक्सप्रेस बिल्डिंग भेजा जाता था। कुछ समय बाद एक छोटी प्रिंटिंग मशीन वहीं नोएडा दफ्तर में लगा दी गई। तभी से जनसत्ता निकालना सिर्फ एक औपचारिकता भर रह गया था। हालात खराब होते देखकर लोग नौकरी छोड़ते गए। कचरा छापने की शुरुआत भी वहीं से हो गई।

जनसत्ता का इतना कुछ सत्यानाश कर-कराके भी संपादक ओम थानवी अपने रौब और गुरूर में ही मस्त रहा करते थे। सरेआम किसी भी बात पर किसी को भी बुरी तरह डांट देना और जलील कर देना उनकी आदत बन गई थी। एक बार बाहर के किसी फ्रीलांसर ने किसी तरह थानवी जी का मोबाइल नंबर हासिल कर लिया था और एक दिन उनको कोन कर बैठा था। थानवी जी इसपर उस पत्रकार को तो फोन पर जलील किया ही था, दफ्तर में भी कई लोगों को बुरी तरह डांटा और जलील कर दिया था कि “मेरा नंबर दफ्तर से बाहर गया कैसे, किसने दिया? ” थानवी जी का अपने दफ्तर के साथियों से भी व्यवहार बहुत ही बुरा था और वे किसी की भी प्रतिष्ठा का खयाल नहीं रखते थे। उनके इस व्यवहार पर लोग दफ्तर में दबी जुबान से बोला करते थे कि अगर ये हमारे संपादक न होते तो उनको थप्पड़ मार देता। जनसत्ता में ओम थानवी का यह आतंक मई 2015 तक कायम रहा।

जनसत्ता के ही कुछ वरिष्ठ लोग ओम थानवी पर कई तरह के संगीन आरोप लगाते हैं। उन आरोपों को अगर सही मानें तो ओम तानवी ने जनसत्ता के लोगों को हटाने के लिए उन्हें तरह-तरह से आपस में लड़वाना भी शुरू कर दिया था। चर्चा जनसत्ता के कोलकाता संस्करण की करते हैं। प्रभाष जोशी ने जनसत्ता का कोलकाता संस्करण शुरू करते समय दिल्ली से समाचार संपादक श्याम सुंदर आचार्य को स्थानीय संपादक बनाकर वहां भेजा था। दिल्ली से ही अमित प्रकाश सिंह को समाचार संपादक बनाकर कोलकाता भेजा गया था। ओम थानवी ने कोलकाता संस्करण के स्थानीय संपादक श्याम सुंदर आचार्य को अचानक एक दिन हटा दिया। वैसे उन्हें तीन बार एक्सटेंशन भी मिल चुका था। फिर दिल्ली से शंभूनाथ शुक्ल को कोलकाता भेज दिया। शंभूनाथ जी के साथ अकु श्रीवास्तव भी कोलकाता भेज दिए गए थे जबकि अकु जनसत्ता चंडीगढ़ में समाचार संपादक थे। शंभूजी को वहां कमान संभालने को कहा गया था। वहां समाचार संपादक अमित प्रकाश सिंह पिछले ग्यारह साल से जमे हुए थे। थानवी जी अमित प्रकाश जी को हटाना चाह रहे थे। उन्होंने शंभूनाथ जी और अमित जी को आपस में भिड़ा दिया। लोग आरोप लगाते हैं कि अमित जी को हटाने के लिए ही शंभू नाथ शुक्ल जी और उनके तब के साथी अकु श्रीवास्तव वहां भेजे गए थे। दोनों लोग कोलकाता के गोयनका अतिथि गृह में तीन महीने तक रुके रहे थे। कंपनी के खर्चे पर उन्हे वहां नाश्ता, खानपान वगैरह भी मिला करता था।

ओम थानवी ने जनसत्ता में और भी कई खेल किए। एक दूसरा वाकया और भी हुआ। लखनऊ के ब्यूरो प्रमुख उस समय हेमंत शर्मा थे जो प्रभाष जी के बहुत खास माने जाते थे। ओम थानवी ने उनको हटा दिया। दिल्ली जनसत्ता डेस्क के साथी रहे अंबरीश कुमार उस समय छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में रहकर वहां से जनसत्ता का संस्करण निकालने का प्रयोग शरद गुप्ता और प्रबंधन के साथ मिलकर कर रहे थे। ओम थानवी ने हेमंत शर्मा की जगह लेने के लिए अंबरीश कुमार को लखनऊ भेज दिया। फिर कुछ समय बाद अंबरीशजी दिल्ली बुला लिए गए। उनके बाद अमित प्रकाश जी को कोलकाता से लखनऊ भेज दिया गया। कुछ समय बाद अमित प्रकाश जी को लखनऊ  से दिल्ली ब्यूरो में बुला लिया गया। पर इस तमाम उलटफेर से जनसत्ता को कोई लाभ हुआ हो ऐसा तो कभी नहीं लगा। हां, इस सबसे जनसत्ता के लोग काफी परेशान हुए और कंपनी पर भारी भरकम अतिरिक्त और नाजायज आर्थिक बोझ जरूर पड़ा। इस सबके पीछे ओम थानवी का ही दिमाग था या फिर वे किसी और से गाइड हो रहे थे इसका पता नहीं चल पाया। इस सारे बेवजह के तबादलों का औचित्य क्या था या ऐसा किसलिए किया गया इसका भी कभी पता नहीं चल पाया। पर इतना तो समझ आता है कि ओम थानवी अपने को प्रभाष जोशी से भी बड़ा संपादक साबित करने और अपने प्रचंड अहंकार और गुरूर की तुष्टि के लिए ही शायद इस दिमागी फितुर का इस्तेमाल कर रहे थे।

जनसत्ता के जानकार कहते हैं कि जनसत्ता के अवसान के कारणों को ठीक से समझने के लिए इस पर भी एक वृहद अध्ययन कराया जाना चाहिए और एक व्यापक बहस भी होनी चाहिए कि राम बहादुर राय और अच्युतानंद मिश्र जी जनसत्ता छोड़कर नौकरी करने नवभारत टाइम्स क्यों चले गए थे और फिर कुछ समय बाद जनसत्ता क्यों लौट आए थे। बनवारी जी ने दिल्ली जनसत्ता के स्थानीय संपादक पद से इस्तीफा क्यों दे दिया। प्रभाष जोशी के बाद जनसत्ता का संपादक तो बनवारी जी को ही होना चाहिए था। जनसत्ता की कमान राहुल देव के बाद अच्युतानंद मिश्र जी को और उनके बाद ओम थानवी जी को संभालने को क्यों दे दिया गया। और उसके बाद चंडीगढ़ संस्करण के रिपोर्टर मुकेश भारद्वाज को जनसत्ता का कार्यकारी संपादक कैसे और क्यों बना दिया गया। इससे ऐसा लगता है कि जनसत्ता की रीढ़ रहे पुराने जनसत्ताई लोग जनसत्ता को इस तरह तबीयत से मारकर डुबो देने के पीछे कोई इंटर्नल या एक्स्टर्नल सबोटॉज वाला खेल तो नहीं देख रहे हैं जो उस समय भी काम कर रहा था और शायद कहीं न कहीं अभी भी काम कर रहा है। जनसत्ताई लोग आज जिस अध्ययन और बहस की बात कर रहे हैं उससे उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे शायद उस सबोटॉज वाली शक्ति का कुछ खुलासा हो सकेगा। 

67. कोलकाता ट्रांसफर की मेरी कहानी

नोएडा दफ्तर में ही एक दिन मैं रात 8 बजे से 2 बजे तक की शिफ्ट में था। मैं 8 बजे दफ्तर पहुंचा ही था और एजेंसी की पहली कॉपी हाथ में ली ही थी कि ओम थानवी के निजी सहायक अमर छाबड़ा मेरे लिए पर्सनल डिपार्टमेंट की एक चिट्ठी लेकर आ गए। चिट्ठी दो प्रतियों में थी जिसकी दूसरी प्रति पर मुझसे पावती का हस्ताक्षर मांगा गया। मैंने चिट्ठी पढ़ी तो मेने पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। पूरे शरीर में तुरंत नर्वसनेस का करंट दौड़ गया। चिट्ठी मुझे त्तत्काल प्रभाव से तुरंत कोलकाता ट्रांसफर कर दिए जाने की थी। ट्रांसफर लेटर में लिखा था कि मुझे कल यानी अगले ही दिन कोलकाता जनसत्ता के दफ्तर में पहुंचकर काम पर हाजिर होने की रिपोर्ट करनी है। चिट्ठी के साथ मुझे कोई एअर टिकट या फिर ट्रेन टिकट नहीं दिया गया था। चिट्ठी में लिखा था कि नियमानुसार सात दिनों की ट्रांसफर लीव (ट्रांसफर अवकाश) मुझे वहां कोलकाता में बाद में दी जाएगी। अब अगर मैं दफ्तर से सीधे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन चला भी जाता और वहां स्टेशन पर पहुंचते ही मुझे कोलकाता के लिए राजधानी एक्सप्रेस मिल भी जाती तो भी मैं कम से कम अगली सुबह तो कोलकाता जनसत्ता के दफ्तर नहीं ही पहुंच पाता। थानवी जी ने दफ्तर से हवाई जहाज का टिकट मुझे दिलवाया नहीं था।

अपने कोलकाता ट्रांसफर की यह चिट्ठी लेकर मैं तुरंत प्रभाष जोशी जी के पास गया। प्रभाशजी अपने कक्ष में ही बैठे थे। मैं उनके कक्ष में गया और हाथ जोड़कर यह चिट्ठी उनको दे दी। उन्होंने उस चिट्ठी को ध्यान से पढ़ा औऱ माथा ठोक लिया। फिर मुझसे बोले, “यह ठीक नहीं हुआ, पर मैं इसमें आपकी कोई मदद नहीं कर पाउंगा क्योंकि इनसे (थानवी जी) मेरी पटती नहीं है। आप श्रीशजी से मिलो। शायद वे कुछ मदद कर सकें।“ मैं श्रीश जी यानी हमारे आदरणीय समाचार संपादक श्रीश चंद्र मिश्र के पास गया और उनको वह चिट्ठी दिखाई और प्रभाषजी की कही बात भी उनको बताई। पर श्रीश जी ने तो पहले ही हाथ खड़े कर दिए। श्रीश जी बोले, “आपको तो पता ही है कि थानवी जी किसी की नहीं सुनते। और उनके सामने मेरी क्या औकात है यह भी आप जानते हैं।  समझ लो आप कि इस अखबार का आनेवाला समय बहुत खराब है।“

कहीं से कोई मदद मिलने की उम्मीद न देखकर मैं कार्यकारी संपादक ओम थानवी जी के पास गया। वे अपने कक्ष में ही थे। मैंने उनसे खूब विनती की कि मुझे अभी कहीं न भेजें, यहीं रहने दें। उन दिनों पिछले कई महीनों से मैं बीमार चल रहा था और दिल्ली एम्स से मेरा इलाज चल रहा था जिसे दफ्तर के सभी लोग जानते थे। थानवी जी को भी मेरी बीमारी का अच्छी तरह पता था। फिर भी मैंने बीमारी की यह बात उनको बताई। पर वे कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे। उन्होंने मेरी विनती नहीं सुनी। उन्होंने काफी रूखे अंदाज में मुझसे कहा कि बीमार चल रहे हैं तो इलाज तो कोलकाता में भी हो सकता है। मैंने थानवी जी के पांव भी पकड़े और खूब विनती की पर उन्होंने मेरी एक भी नहीं सुनी। उन्होंने मुझे कहा कि कोलकाता तो जाना ही पड़ेगा।

ट्रांसफर के इस मुद्दे पर पूरा जनसत्ता दफ्तर मेरे साथ था। मेरे साथियों ने ओम थानवी की इस हठधर्मिता को कर्मचारी यूनियन के पास पहुंचा दिया। यूनियन ने मेरे इस मामले को संपादक के पास बड़ी मजबूती से उठाया। पर ओम थानवी ने अपना जिद्दीपना बरकरार रखते हुए कहा कि कोलकाता डेस्क पर लोगों की कमी है इसलिए वे गणेश झा को वहां भेज रहे हैं। इस पर कर्मचारी यूनियन ने दलील दी कि अभी करीब महीने भर पहले कोलकाता डेस्क से दो लोगों को आपने दिल्ली बुला लिया है। अगर वहां डेस्क पर लोग कम थे तो फिर आपने दो लोग यहां क्यों बुलाए? इसपर ओम थानवी के पास कोई जवाब नहीं था। पर वे मुझे कोलकाता भेजने पर अड़ गए। इस पर यूनियन ने उनसे यह कह कर एक साल का समय मांगा कि तब तक गणेश झा का इलाज पूरा हो जाएगा और फिर वे कोलकाता चले जाएंगे। पर थानवी जी को यह भी मंजूर नहीं था। यूनियन भी बिल्कुल अड़ गई। आखिर में थानवी जी मुझे पांच महीने का समय देने को राजी हुए। शर्त यह रखी कि मैं अगले पांच महीने तक कोलकाता जनसत्ता का कर्मचारी रहते हुए डिपुटेशन पर दिल्ली जनसत्ता में काम करूंगा और मेरी तनख्वाह कोलकाता दफ्तर से ही आएगी। पांच महीने का समय पूरा होते ही मुझे कोलकाता जाना होगा। मुझे प्रबंधन का यह आदेश लिखित में दे दिया गया। इसी आदेश के तहत मैंने पांच महीने तक दिल्ली में काम किया। पर पांच महीने पूरा होने के बाद मैं कोलकाता नहीं गया। मैं दिल्ली में नौकरी की तलाश करने लगा। मैंने जनसत्ता संपादक और इंडियन एक्सप्रेस प्रबंधन से इस अवधि को और आगे बढाने की गुहार लगाई। पर संपादक और प्रबंधन ने मेरी प्रार्थना ठुकरा दी और मुझे सात दिनों के भीतर कोलकाता दफ्तर में रिपोर्ट करने का लिखित आदेश दे दिया। मैं फिर भी नहीं गया। मुझे दूसरी नोटिस दी गई। फिर तीसरी नोटिस भी आ गई। अब कुल मिलाकर कंपनी मुझे इसी आधार पर नौकरी से निकालने की तैयारी करने लगी। कंपनी ने इसी मुद्दे पर इन-हाउस जांच कमेटी बिठा दी। एक वकील को लगा दिया गया। मैं फिर भी कोलकाता नहीं गया। मैं तो दिल्ली में नौकरी की तलाश में लगा रहा। इस बीच, मुझे दिल्ली में ही हिन्दुस्तान में नौकरी मिल गई और मैंने जनसत्ता की नौकरी से इस्तीफा दे दिया। मेरे इस्तीफे से पूरा इंडियन एक्सप्रेस प्रबंधन खुश हुआ और कुछ ही घंटों में मेरा पूरा हिसाब कर दिया गया। मेरा सारा भुगतान दिल्ली दफ्तर ने ही किया। कोलकाता तो सिर्फ कहने के लिए था। आखिर यह प्रबंधन की नौटंकी और अहंकारी ओम थानवी की जिद जो थी।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....

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पत्रकारिता की कंटीली डगर- 27 (संशोधित)

Revised Copy

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की सत्ताइसवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 27

62. राहुल देव के प्रति बढ़ता असंतोष

राहुल देव षड़यंत्र करके जनसत्ता के कार्यकारी संपादक बन तो गए पर वे जनसत्ता के लोगों को कभी स्वीकार्य नहीं हुए। इसकी मुख्य वजह यह रही कि दिल्ली जनसत्ता के सहायक संपादकों की तो बात छोड़िए, वहां अब तक के तमाम समाचार संपादक और मुख्य उपसंपादक भी पत्रकारिता के अनुभवों और लेखनी के मामलों में राहुल देव से काफी आगे बैठते थे। राहुल देव जब तक बंबई के स्थानीय संपादक थे तब तक वे दिल्ली की टीम से दूर थे और इसलिए किसी को उनसे कोई मतलब नहीं था, पर जब वे यहां लाकर सबके ऊपर बिठा दिए गए तो लोग बिदक गए। बंबई जनसत्ता के स्थानीय संपादक रहते उनका वहां जो चरित्र रहा उसने भी उनके प्रति चल रही इस नाराजगी में घी का ही काम किया। राहुल देव के दिल्ली आते ही जनसत्ता के गिनती के दो-चार लोगों को चोड़कर बाकी सभी लोग उनके खिलाफ हो गए। उन्होंने उम्मीद की थी कि बंबई जनसत्ता की तरह दिल्ली जनसत्ता के लोग भी उनकी आरती उतारेंगे, पर हुआ इसके उलट। दो-चार लोगों को छोड़कर बाकी कोई भी उन्हें पसंद नहीं करता था। दिल्ली जनसत्ता के लोगों ने राहुल देव को सिर्फ एक नाम का संपादक बनाकर एक कमरे में समेट दिया। जनसत्ता के रोजमर्रा के फैसलों में भी उनकी बहुत कम भूमिका रहने लगी। अखबार में क्या खबरें हैं, क्या कुछ जा रहा है और क्या कुछ जाना चाहिए इस सबमें उनकी कोई दिलचस्पी नहीं रहती थी। इंडियन एक्सप्रेस का कर्मचारी यूनियन भी शुरू से ही राहुल देव के खिलाफ था।

कर्मचारियों में व्याप्त इस नाराजगी को दूर करने के लिए राहुल देव ने लोगों को खुश करने के लिए उन्हें तरक्की दी जो कई वर्षों से नहीं मिली थी। लेकिन इससे लोगों में संतोष पैदा होने की बजाय असंतोष ही ज्यादा पैदा हुआ क्योंकि कुछ लोगों को एक साथ दो तरक्की दे दी गई। यही नहीं, अपने मित्र प्रदीप सिंह को उन्होंने रिपोर्टिंग / ब्यूरो से उठाकर बंबई जनसत्ता का स्थानीय संपादक बना दिया। प्रदीप सिंह से कहीं सीनियर और स्पष्ट रूप से सक्षम और योग्य लोगों से न तो पूछा गया और न उन्हें प्रदीप सिंह की तरह कुछ ईनाम ही दिया गया। इसके बाद राहुल देव से अगर किसी को उम्मीद थी तो वह जाती रही। जनसत्ता में राहुल देव के पास करने के लिए कुछ खास था ही नहीं।

अपने मित्र प्रदीप सिंह को तरक्की देने और स्थानीय संपादक बनाकर उन्हें मुंबई जनसत्ता भेजने के अलावा राहुल देव के पास जनसत्ता की टीम से करवाने के लिए कोई काम या योजना नहीं थी। उन्होंने अपने स्टाफ को कुछ नया करने के लिए भी कभी प्रेरित नहीं किया। उन्होंने उन्हें कभी कोई आईडिया भी नहीं दिया। वे जनसत्ता में कभी कोई खास सामग्री भी नहीं लिख पाए। वे संपादक होने के नाते जनसत्ता पर अपनी कोई बौद्धिक छाप नहीं छोड़ पाए। उनके संपादक रहते जनसत्ता का सर्कुलेशन तेजी से नीचे गिरा। उन्होंने यहां रहकर कुछ खास नहीं किया और जनसत्ता छोड़ दिया या फिर वे एक्सप्रेस टीवी की नौकरी करने चले गए।

जनसत्ता को राहुल देव के चंगुल से बाहर निकालने और बचाने के लिए दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में लोग बैठकें कर उनको यहां से चलता करने की रणनीति पर विचार करने लगे थे। जनसत्ता बचाओ की इस मुहिम में देश के कई गांधीवादी, कई बड़ी साहित्यिक हस्तियां और कुछ बड़े विद्वान भी शरीक होते थे। इसका अच्छा असर भी हुआ और राहुलजी बमुश्किल डेढ़-दो साल ही जनसत्ता की कमान अपने पास रख पाए। आखिरकार जनवरी 1999 में जनसत्ता से उन्हें जाना ही पड़ गया।

राहुल देव के संपादक बनने के बाद प्रभाष जोशी का पूरा मठ उजड़ने लगा था। राहुल देव का नया खेमा तैयार होने में अधिक वक्त नहीं लगा था पर वो स्टाफ में उस तरह कभी स्वीकार्य नहीं हुए जिस तरह कभी प्रभाष जोशी थे। उन दिनों जनसत्ता में एक मुहावरा प्रचलन में था कि राहुल जी ने अपने पैर के आकार से बड़ा जूता पहन लिया है। राहुल देव अधिक समय तक तो नहीं रहे, पर उनके संपादक बनने के बाद जनसत्ता की हनक खत्म होती चली गई थी। उनके आने पर बनवारी जी नौकरी छोड़कर चले गए थे। दिनमान से आए कद्दावर पत्रकार जनसत्ता के सहायक संपादक जवाहरलाल कौल पूरी तरह से राहुल देव के आगे सरेंडर कर गए थे। परिस्थिति को देखते-समझते हुए समाचार संपादक श्रीश चंद्र मिश्र भी राहुल जी के साथ हो लिए थे।  राहुल देव काफी तिकड़मी थे और उन्होंने अपना जनसंपर्क बहुत मजबूत कर लिया था। प्रभाष जोशी के बाद जनसत्ता का स्टाफ संपादक के रूप में अगर किसी को सहज रूप में स्वीकार कर सकता था तो वो सिर्फ और सिर्फ बनवारी जी थे। लेकिन जनसत्ता के ही कुछ लोगों की राय में प्रभाष जी ने ही उन्हें निबटा भी दिया था। प्रभाष जी ने जनसत्ता में सेकेंड लाइन का नेतृत्व कभी पनपने ही नहीं दिया। कई बार निबटे हुए आदमी को यह अहसास भी बहुत देर से होता है कि उसे किसने निबटाया,  जैसे प्रभाष जी को अपना निबटना ही काफी देर से पता चल पाया था।

63. अखबार की आर्थिक हालत हुई खराब

प्रभाष जोशी को जनसत्ता के प्रधान संपादक पद से हटाए जाने के बाद जनसत्ता की साख बहुत खराब हुई। अखबार में असंतोष पनपा जिससे लोगों में अपनी नौकरी के प्रति असुरक्षा की भावना पैदा हुई। तरक्की और वेतनवृद्धि लंबे समय से न मिलने की वजह से लोगों के मन मे नकारात्मक भावनाएं ज्यादा बलवती हुईं। लोग जनसत्ता से बाहर नौकरी की संभावनाएं तलाशने लगे। इससे स्टाफ का ध्यान जनसत्ता की बेहतरी के काम पर कम और अपनी नौकरी की सुरक्षा की चिंता पर ज्यादा लगी रहती थी। कंपनी मालिक अपने फ्लैगशिप अखबार इंडियन एक्सप्रेस पर तो पैसा खर्च करना चाह रहे थे पर जनसत्ता पर नहीं। इससे अखबार की माली हालत बिगड़ने की खबरें आने लगीं। फिर मैनेजर कहने लगे कि जनसत्ता सफेद हाथी बन गया है। उन्हीं दिनों एक चर्चा यह भी चली कि कंपनी मालिक विवेक गोयनका अब अखबार का धंधा छोड़कर टायर के कारोबार में प्रवेश करेंगे। अखबार का कारोबार छोड़कर टायर बेचने की इस चर्चा को फिजां में छोड़ने के पीछे क्या मकसद रहा होगा यह तो कभी साफ नहीं हुआ पर विवेक गोयनका ने टायर का कारोबार शुरू किया हो ऐसा भी कभी सुनने में नहीं आया। हां, कंपनी के मैनेजर जनसत्ता के कर्मचारियों के पास अक्सर यह रोना जरूर रोते रहा करते थे कि अखबार बहुत घाटे में जा रहा है इसलिए मालिक इसे अब और चलाने के पक्ष में नहीं हैं। बाद में जब ओम थानवी जनसत्ता के संपादक बनाए गए तो उन्होंने अखबार घाटे में होने और बंद कर दिए जाने की बात को जमकर हवा दी और ऐसा करके उन्होंने जनसत्ता के कर्मचारियों में एक डर पैदा करने की पुरजोर कोशिश की। तभी कंपनी वीआरएस योजना भी लेकर आई।

64. स्टाफ को खुर्द-बुर्द करने के लिए लाए गए ओम थानवी

राहुल देव के जाने के बाद चंडीगढ़ जनसत्ता के स्थानीय संपादक ओम थानवी को जनसत्ता का कार्यकारी संपादक बना दिया गया। ओम थानवी बहुत ही गुस्सैल, दबंगई स्वाभाव, अहंकारी, गुरूर वाले और बेहद रूखे व्यवहार वाले व्यक्ति थे। चंडीगढ़ जनसत्ता में भी उनसे कोई खुश नहीं ऱहा। जब तक वे वहां रहे, सबको उन्होंने परेशान ही किया। उनके कार्यव्यवहार से दुखी होकर दिल्ली में भी लोगों ने जनसत्ता छोड़ना शुरू कर दिया। जो लोग अब तक किसी तरक्की या फिर कुछ वेतन बढ़ोतरी मिलने की उम्मीद में चल रहे थे और लंबे समय से बहुत कम पैसे में भी जनसत्ता में टिके हुए थे उन्हें अब कोई उम्मीद नहीं रही थी और वे लोग जनसत्ता छोड़कर जाने लगे। उन दिनों इस बात की खूब चर्चा थी कि ओम थानवी का यहां मूल काम जनसत्ता के लोगों को खुर्द-बुर्द करने का ही था। उन्हें इसी काम के लिए तरक्की देकर चंडीगढ़ से दिल्ली लाया गया था। काम दिया गया था पुराने और महंगे लोगों से जनसत्ता को मुक्त करना। उन्होंने शंभू नाथ शुक्ल को जनसत्ता के कोलकाता संस्करण का स्थानीय संपादक बना दिया। गणेश प्रसाद झा को बिना कोई तरक्की या वेतनवृद्धि दिए कोलकाता जाने को कह दिया गया। कुछ और भी तबादले हुए। अमित प्रकाश सिंह का भी कोलकाता तबादला कर दिया दया। दूसरी ओर उन्हीं दिनों कंपनी स्टाफ कम करने के लिए वीआरएस योजना लेकर आ गई। वीआरएस के बदले लोगों को तीन से पांच लाख तक दिए गए। काम का माहौल भी लगातार खराब होता गया। धीरे-धीरे लोग कम होते गए और अखबार में बहुत ज्यादा कचरा छपने लगा। जनसत्ता डेस्क के अरविंद उप्रेती, अरिहन जैन, सुधीर जैन, संजय कुमार सिंह, संजय सिन्हा, प्रताप सिंह समेत कई साथियों ने वीआरएस ले लिया या फिर नौकरी छोड़कर चले गए। बाद में और भी कई लोगों ने नौकरी छोड़ी।

ओम थानवी ने हिन्दी भाषी राज्यों के प्रमुख जिलों में काम करनेवाले जनसत्ता के जिलास्तरीय संवाददाताओं (स्ट्रिंगरों) को भी एक झटके में निकाल बाहर कर दिया। दो-चार स्ट्रिगरों को छोड़कर बाकी सब निकाल दिए गए। जनसत्ता के इन जिला संवाददाताओं को कभी कोई वेतन नहीं दिया जाता था। उन्हें सिर्फ एक सौ रुपए माहवार मिलते थे और छपी खबरों पर दो रुपए पंद्रह पैसे प्रति कॉलम सेंटीमीटर के हिसाब से पारिश्रमिक का भुगतान किया जाता था। ओम थानवी ने कॉलम सेंटीमीटर पर पैसा पानेवाले इन स्ट्रिंगरों को भी हटा दिया। नतीजा यह हुआ कि जिलों से खबरें आनी पूरी तरह बंद हो गईं। इसका असर यह हुआ कि जिलों में जनसत्ता बिकना भी लगभग बंद हो गया। यहां तक कि कुछ समय बाद हिन्ही भाषी राज्यों के जिले में जनसत्ता दिखना भी बंद हो गया। कुल मिलाकर ओम थानवी जनसत्ता में नौकरी छीन लेनेवाले संपादक ही साबित हुए।

ओम थानवी ने जनसत्ता में छपनेवाली तस्वीरों का भुगतान भी बंद करवा दिया। राज्यों की राजधानियों में जनसत्ता के ब्यूरो में जो बाहर के फोटोग्राफरों से खबरों से संबंधित तस्वीरें ली जाती थी उसका भुगतान होता था, पर ओम थानवी ने इसे बंद करवा दिया। पर कंपनी की तरफ से इंडियन एक्सप्रेस के लिए ऐसी कोई पाबंदी नहीं लगाई गई और कंपनी उनके लिए तस्वीरें देनेवाले फोटोग्राफरों को भुगतान करती रही। कई बार जनसत्ता के स्टेट ब्यूरो प्रमुख को बाहर से तस्वीरें लेने पर फोटोग्राफर को अपनी जेब से पैसे देने पड़ते थे क्योंकि जब तस्वीरों का भुगतान नहीं मिलने लगा तो फोटोग्राफर जनसत्ता को तस्वीरें देने से मना करने लगे थे।

ओम थानवी जनसत्ता आए ही थे लोगों को हटाने के लिए और अपने कड़वे व्यवहार से उन्होंने यही किया भी। उनके समय में सबसे ज्यादा लोगों ने जनसत्ता छोड़ा और उन्होंने फिर सिफारिशी भर्तियां शुरू कर दी। इसके पीछे मकसद जनसत्ता को बंद करना नहीं था, सस्ते में चलाते रहना था। पर बहुत लोग उनकी और प्रबंधन की इस रणनीति को समझ नहीं पाए। ओम थानवी ने जनसत्ता में दूसरों की या इसे इस तरह कहें कि जनसत्ता के नामी-गिरामी पत्रकारों की नौकरियों की कीमत पर अपनी नौकरी शानदार तरीके से पूरी की। ओम थानवी ने जनसत्ता में खूब मौज काटे और कंपनी के पैसे से खूब विदेश घूमे और पूरी दुनिया का चक्कर लगा लिया और तरह-तरह के लोगों से संबंध बनाए जिसका फायदा उन्हें बाद में राजस्थान के जयपुर स्थित हरिदेव जोशी पत्रकारिता और जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति बनने के रूप में मिला।

65. सबको धमकाने और डर दिखानेवाले संपादक

ओम थानवी ने दिल्ली जनसत्ता में अपने पदार्पण के कुछ ही समय बाद दफ्तर में ऐसा माहौल बनाने की हर संभव कोशिश की जिसमें लोग अशांत और तनावग्रस्त महसूस करने लगें और परेशान होकर खुद ही नौकरी छोड़ दें। जनसत्ता के तमाम संस्करणों में काफी समय से स्टाफ की बेहद कमी थी। उन्होंने इस तरफ तो कोई ध्यान नहीं दिया, पत्रकारों को बेवजह यहां से वहां ट्रांसफर करने लगे। बिना जरूरत और मतलब के इस कवायद में जमे जमाए पत्रकारों पर ही गाज गिराई गई। उनका फोकस इस बात पर अधिक था कि किसे कहां भेजने से वह ज्यादा परेशान होगा और जिससे उनके नौकरी छोड़ने की ज्यादा संभावना बनेगी। इसी मुहिम के तहत कोलकाता से दो पत्रकारों को दिल्ली बुला लिया गया। कोलकाता में स्टाफ पहले से ही काफी कम था, इन दो लोगों को वहां से खिसका देने से वहां डेस्क पर स्थिति और बिगड़ गई। चंडीगढ़ और बंबई संस्करण को वे पहले ही बंद करा चुके थे। ले दे कर सिर्फ कोलकाता ही बचा रह गया था। पर कोलकाता संस्करण की हालत बेहद खराब हो चली थी। ऐसी चर्चा जोरों पर चल रही थी कि कोलकाता संस्करण बहुत जल्द बंद कर दिया जाएगा और बंबई की तरह सारे स्टाफ का हिसाब कर दिया जाएगा। थानवी जी यूनियनवालों को यह कहकर अक्सर धमकाया करते थे कि मालिक विवेक गोयनका अब और नुकसान झेलने की स्थिति में नहीं हैं और इसलिए वे जनसत्ता को अब आगे चलाते रहने के मूड में बिल्कुल नहीं हैं। यह सब कहकर उन्होंने प्रोमोशन और सैलरी बढाए जाने की बची-खुची संभावनाओं को भी सिरे से खारिज करते हुए बड़ी सफाई से सबके मुंह पर खामोशी का ताला जड़ दिया।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में.....

शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 27


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की सत्ताइसवीं किश्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 27


62. राहुल देव के प्रति बढ़ता असंतोष

 

राहुल देव षड़यंत्र करके जनसत्ता के कार्यकारी संपादक बन तो गए पर वे जनसत्ता के लोगों को कभी स्वीकार्य नहीं हुए। इसकी मुख्य वजह यह रही कि दिल्ली जनसत्ता के सहायक संपादकों की तो बात छोड़िए, वहां अब तक के तमाम समाचार संपादक और मुख्य उपसंपादक भी पत्रकारिता के अनुभवों और लेखनी के मामलों में राहुल देव से काफी आगे बैठते थे। राहुल देव जब तक बंबई के स्थानीय संपादक थे तब तक वे दिल्ली की टीम से दूर थे और इसलिए किसी को उनसे कोई मतलब नहीं था, पर जब वे यहां लाकर सबके ऊपर बिठा दिए गए तो लोग बिदक गए। बंबई जनसत्ता के स्थानीय संपादक रहते उनका वहां जो चरित्र रहा उसने भी उनके प्रति चल रही इस नाराजगी में घी का ही काम किया। राहुल देव के दिल्ली आते ही जनसत्ता के गिनती के दो-चार लोगों को चोड़कर बाकी सभी लोग उनके खिलाफ हो गए। उन्होंने उम्मीद की थी कि बंबई जनसत्ता की तरह दिल्ली जनसत्ता के लोग भी उनकी आरती उतारेंगे, पर हुआ इसके उलट। दो-चार लोगों को छोड़कर बाकी कोई भी उन्हें पसंद नहीं करता था। दिल्ली जनसत्ता के लोगों ने राहुल देव को सिर्फ एक नाम का संपादक बनाकर एक कमरे में समेट दिया। जनसत्ता के रोजमर्रा के फैसलों में भी उनकी बहुत कम भूमिका रहने लगी। अखबार में क्या खबरें हैं, क्या कुछ जा रहा है और क्या कुछ जाना चाहिए इस सबमें उनकी कोई दिलचस्पी नहीं रहती थी। इंडियन एक्सप्रेस का कर्मचारी यूनियन भी शुरू से ही राहुल देव के खिलाफ था।

कर्मचारियों में व्याप्त इस नाराजगी को दूर करने के लिए राहुल देव ने लोगों को खुश करने के लिए उन्हें तरक्की दी जो कई वर्षों से नहीं मिली थी। लेकिन इससे लोगों में संतोष पैदा होने की बजाय असंतोष ही ज्यादा पैदा हुआ क्योंकि कुछ लोगों को एक साथ दो तरक्की दे दी गई। यही नहीं, अपने मित्र प्रदीप सिंह को उन्होंने रिपोर्टिंग / ब्यूरो से उठाकर स्थानीय संपादक बना दिया। प्रदीप सिंह से कहीं सीनियर और स्पष्ट रूप से सक्षम और योग्य लोगों से न तो पूछा गया और न उन्हें प्रदीप सिंह की तरह कुछ ईनाम ही दिया गया। इसके बाद राहुल देव से अगर किसी को उम्मीद थी तो वह जाती रही। जनसत्ता में राहुल देव के पास करने के लिए कुछ खास था ही नहीं।

अपने मित्र प्रदीप सिंह को तरक्की देने और स्थानीय संपादक बनाकर उन्हें मुंबई जनसत्ता भेजने के अलावा राहुल देव के पास जनसत्ता की टीम से करवाने के लिए कोई काम या योजना नहीं थी। उन्होंने अपने स्टाफ को कुछ नया करने के लिए भी कभी प्रेरित नहीं किया। उन्होंने उन्हें कभी कोई आईडिया भी नहीं दिया। वे जनसत्ता में कभी कोई खास सामग्री भी नहीं लिख पाए। वे संपादक होने के नाते जनसत्ता पर अपनी कोई बौद्धिक छाप नहीं छोड़ पाए। उनके संपादक रहते जनसत्ता का सर्कुलेशन तेजी से नीचे गिरा। उन्होंने यहां रहकर कुछ खास नहीं किया और जनसत्ता छोड़ दिया या फिर वे एक्सप्रेस टीवी की नौकरी करने चले गए।

जनसत्ता को राहुल देव के चंगुल से बाहर निकालने और बचाने के लिए दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में लोग बैठकें कर उनको यहां से चलता करने की रणनीति पर विचार करने लगे थे। जनसत्ता बचाओ की इस मुहिम में देश के कई गांधीवादी, कई बड़ी साहित्यिक हस्तियां और कुछ बड़े विद्वान भी शरीक होते थे। इसका अच्छा असर भी हुआ और राहुलजी बमुश्किल डेढ़-दो साल ही जनसत्ता की कमान अपने पास रख पाए। आखिरकार जनसत्ता से उन्हें जाना ही पड़ गया।

 

63. अखबार की आर्थिक हालत हुई खराब

 

प्रभाष जोशी को जनसत्ता के प्रधान संपादक पद से हटाए जाने के बाद जनसत्ता की साख बहुत खराब हुई। अखबार में असंतोष पनपा जिससे लोगों में अपनी नौकरी के प्रति असुरक्षा की भावना पैदा हुई। तरक्की और वेतनवृद्धि लंबे समय से न मिलने की वजह से लोगों के मन मे नकारात्मक भावनाएं ज्यादा बलवती हुईं। लोग जनसत्ता से बाहर नौकरी की संभावनाएं तलाशने लगे। इससे स्टाफ का ध्यान जनसत्ता की बेहतरी के काम पर कम और अपनी नौकरी की सुरक्षा की चिंता पर ज्यादा लगी रहती थी। कंपनी मालिक अपने फ्लैगशिप अखबार इंडियन एक्सप्रेस पर तो पैसा खर्च करना चाह रहे थे पर जनसत्ता पर नहीं। इससे अखबार की माली हालत बिगड़ने की खबरें आने लगीं। फिर मैनेजर कहने लगे कि जनसत्ता सफेद हाथी बन गया है। उन्हीं दिनों एक चर्चा यह भी चली कि कंपनी मालिक विवेक गोयनका अब अखबार का धंधा छोड़कर टायर के कारोबार में प्रवेश करेंगे। अखबार का कारोबार छोड़कर टायर बेचने की इस चर्चा को फिजां में छोड़ने के पीछे क्या मकसद रहा होगा यह तो कभी साफ नहीं हुआ पर विवेक गोयनका ने टायर का कारोबार शुरू किया हो ऐसा भी कभी सुनने में नहीं आया। हां, कंपनी के मैनेजर जनसत्ता के कर्मचारियों के पास अक्सर यह रोना जरूर रोते रहा करते थे कि अखबार बहुत घाटे में जा रहा है इसलिए मालिक इसे अब और चलाने के पक्ष में नहीं हैं। बाद में जब ओम थानवी जनसत्ता के संपादक बनाए गए तो उन्होंने अखबार घाटे में होने और बंद कर दिए जाने की बात को जमकर हवा दी और ऐसा करके उन्होंने जनसत्ता के कर्मचारियों में एक डर पैदा करने की पुरजोर कोशिश की। तभी कंपनी वीआरएस योजना भी लेकर आई।

 

64. स्टाफ को खुर्द-बुर्द करने के लिए लाए गए ओम थानवी

 

राहुल देव के जाने के बाद चंडीगढ़ जनसत्ता के स्थानीय संपादक ओम थानवी को जनसत्ता का कार्यकारी संपादक बना दिया गया। ओम थानवी बहुत ही गुस्सैल, दबंगई स्वाभाव, अहंकारी, गुरूर वाले और बेहद रूखे व्यवहार वाले व्यक्ति थे। चंडीगढ़ जनसत्ता में भी उनसे कोई खुश नहीं ऱहा। जब तक वे वहां रहे, सबको उन्होंने परेशान ही किया। उनके कार्यव्यवहार से दुखी होकर दिल्ली में भी लोगों ने जनसत्ता छोड़ना शुरू कर दिया। जो लोग अब तक किसी तरक्की या फिर कुछ वेतन बढ़ोतरी मिलने की उम्मीद में चल रहे थे और लंबे समय से बहुत कम पैसे में भी जनसत्ता में टिके हुए थे उन्हें अब कोई उम्मीद नहीं रही थी और वे लोग जनसत्ता छोड़कर जाने लगे। उन दिनों इस बात की खूब चर्चा थी कि ओम थानवी का यहां मूल काम जनसत्ता के लोगों को खुर्द-बुर्द करने का ही था। उन्हें इसी काम के लिए तरक्की देकर चंडीगढ़ से दिल्ली लाया गया था। काम दिया गया था पुराने और महंगे लोगों से जनसत्ता को मुक्त करना। उन्होंने शंभू नाथ शुक्ल को जनसत्ता के कोलकाता संस्करण का स्थानीय संपादक बना दिया। गणेश प्रसाद झा को बिना कोई तरक्की या वेतनवृद्धि दिए कोलकाता जाने को कह दिया गया। कुछ और भी तबादले हुए। अमित प्रकाश सिंह का भी कोलकाता तबादला कर दिया दया। दूसरी ओर उन्हीं दिनों कंपनी स्टाफ कम करने के लिए वीआरएस योजना लेकर आ गई। वीआरएस के बदले लोगों को तीन से पांच लाख तक दिए गए। काम का माहौल भी लगातार खराब होता गया। धीरे-धीरे लोग कम होते गए और अखबार में बहुत ज्यादा कचरा छपने लगा। जनसत्ता डेस्क के अरविंद उप्रेती, अरिहन जैन, सुधीर जैन, संजय कुमार सिंह, संजय सिन्हा, प्रताप सिंह समेत कई साथियों ने वीआरएस ले लिया और नौकरी छोड़कर चले गए। और भी कई लोगों ने नौकरी छोड़ी। ओम थानवी ने हिन्दी भाषी राज्यों के प्रमुख जिलों में काम करनेवाले जनसत्ता के जिलास्तरीय संवाददाताओं (स्ट्रिंगरों) को भी एक झटके में निकाल बाहर कर दिया। दो-चार स्ट्रिगरों को छोड़कर बाकी सब निकाल दिए गए। जनसत्ता के इन जिला संवाददाताओं को कभी कोई वेतन नहीं दिया जाता था। उन्हें सिर्फ एक सौ रुपए माहवार मिलते थे और छपी खबरों पर दो रुपए साठ पैसे प्रति कॉलम सेंटीमीटर के हिसाब से पारिश्रमिक का भुगतान किया जाता था। थानवी जी ने इन स्ट्रिंगरों से वह भी छीन लिया। नतीजा यह हुआ कि जिलों से खबरें आनी पूरी तरह बंद हो गईं। इसका असर यह हुआ कि जिलों में जनसत्ता बिकना भी लगभग बंद हो गया। यहां तक कि कुछ समय बाद हिन्ही भाषी राज्यों के जिले में जनसत्ता दिखना भी बंद हो गया। कुल मिलाकर ओम थानवी जनसत्ता में नौकरी छीन लेनेवाले संपादक ही साबित हुए।

 

65. सबको धमकाने और डर दिखानेवाले संपादक

ओम थानवी ने दिल्ली जनसत्ता में अपने पदार्पण के कुछ ही समय बाद दफ्तर में ऐसा माहौल बनाने की हर संभव कोशिश की जिसमें लोग अशांत और तनावग्रस्त महसूस करने लगें और परेशान होकर खुद ही नौकरी छोड़ दें। जनसत्ता के तमाम संस्करणों में काफी समय से स्टाफ की बेहद कमी थी। उन्होंने इस तरफ तो कोई ध्यान नहीं दिया, पत्रकारों को बेवजह यहां से वहां ट्रांसफर करने लगे। बिना जरूरत और मतलब के इस कवायद में जमे जमाए पत्रकारों पर ही गाज गिराई गई। उनका फोकस इस बात पर अधिक था कि किसे कहां भेजने से वह ज्यादा परेशान होगा और जिससे उनके नौकरी छोड़ने की ज्यादा संभावना बनेगी। इसी मुहिम के तहत कोलकाता से दो पत्रकारों को दिल्ली बुला लिया गया। कोलकाता में स्टाफ पहले से ही काफी कम था, इन दो लोगों को वहां से खिसका देने से वहां डेस्क पर स्थिति और बिगड़ गई। चंडीगढ़ और बंबई संस्करण को वे पहले ही बंद करा चुके थे। ले दे कर सिर्फ कोलकाता ही बचा रह गया था। पर कोलकाता संस्करण की हालत बेहद खराब हो चली थी। ऐसी चर्चा जोरों पर चल रही थी कि कोलकाता संस्करण बहुत जल्द बंद कर दिया जाएगा और बंबई की तरह सारे स्टाफ का हिसाब कर दिया जाएगा। थानवी जी यूनियनवालों को यह कहकर अक्सर धमकाया करते थे कि मालिक विवेक गोयनका अब और नुकसान झेलने की स्थिति में नहीं हैं और इसलिए वे जनसत्ता को अब आगे चलाते रहने के मूड में बिल्कुल नहीं हैं। यह सब कहकर उन्होंने प्रोमोशन और सैलरी बढाए जाने की बची-खुची संभावनाओं को भी सिरे से खारिज करते हुए बड़ी सफाई से सबके मुंह पर खामोशी का ताला जड़ दिया।


– गणेश प्रसाद झा

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