शुक्रवार, 5 अगस्त 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 31

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की इकत्तीसवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 31

75. प्रभाष जोशी अभी भी हमारे सेनापति

मध्य प्रदेश के इंदौर जिले के आष्टा गांव में जन्मे और इंदौर में ही पले-बढ़े और पढ़े-लिखे प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी (15/07/1937 - 05/11/2009) हिन्दी पत्रकारिता के प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता में एक नई धारा पैदा कर दी और उसे एक नई दिशा दी। वे आज हमारे बीच नहीं हैं पर वे आज भी हमारे सेनापति हैं। कम से कम तमाम जनसत्ताइय़ों के सेनापति तो हैं ही। प्रभाष जोशी राजनीति और क्रिकेट पत्रकारिता के विशेषज्ञ माने जाते थे। वे एक एक्टिविस्ट भी थे। गांव, शहर, जंगल की खाक छानते हुए सामाजिक विषमताओं का अध्ययन करके वे समाज को खबर तो देते ही थे, उसे दूर करने का भी प्रयास करते रहते थे। वे गांधीवादी विचारधारा के अनुयायी थे। उन्होंने पत्रकारिता की शुरुआत इंदौर से निकलने वाले हिन्दी अखबार नई दुनिया से की। बाद में इंडियन एक्सप्रेस समूह के अहमदाबाद, चंडीगढ़ और दिल्ली के स्थानीय संपादक भी रहे। 1995 में जनसत्ता के प्रधान संपादक पद से हटने के बाद वे कुछ साल तक उसके सलाहकार संपादक के पद पर भी रहे। उनके संपादन में जनसत्ता आम आदमी का अखबार तो बना ही, हिन्दी के बुद्धिजीवियों के लिए भी सर्वाधिक पसंद का अखबार बन गया।

प्रभाष जोशी के लेखों का संग्रह पांच खंडों में छपा है जिनके नाम हैं, ‘जीने के बहाने’, ‘धन्न नरबदा मइया हो’, ‘लुटियन के टीले का भूगोल’, ‘खेल सिर्फ खेल नहीं है’, और ‘जब तोप मुकाबिल हो’।

इसके अलावा उनकी पुस्तकें हैं, ‘मसि कागद’, 21वीं सदी : पहला दशक’, आगे अंधी गली है’, ‘प्रभाष पर्व’, ‘हिन्दू होने का धर्म’, ‘कहने को बहुत कुछ था’, ‘जीने के बहाने’, ‘कागद कारे’ आदि।

‘मसि कागद’ भी जनसत्ता के शुरुआती सालों में छपे उनके सैकड़ों लेखों में से ही संकलित किया गया एक संकलन है। इन लेखों के बल पर जनसत्ता ने हिन्दी के पाठकों में अपनी लोकप्रियता हासिल की। इनमें प्रभाष जोशी राजनीति को नैतिक सवालों से जोड़ते हैं और सिनेमा को समाज से जोड़ते हैं। वे अपने लेखन में पाठकों के प्रति अपनी जवाबदेही को सर्वाधिक महत्व देते हैं। इनमें सामाजिक विसंगतियों को बदलने की बेचैनी भी दिखाई देती है। ‘21वीं सदी : पहला दशक’ पुस्तक में 2000 से 2009 तक जनसत्ता में प्रकाशित उनके लेखों का संकलन है जिसमें राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन की धड़कनें सुनी जा सकती हैं। 21 वीं सदी के आगमन को सत्ताधारी वर्ग ने संपन्नता के स्वप्न के रूप में प्रचारित किया था पर यह सदी देश के सामान्य जन के लिए अभिशाप की तरह सामने आई। आर्थिक उदारीकरण के बुरे परिणाम सामने आने लगे। अपने लेखों में प्रभाष जोशी ने आर्थिक और सामाजिक जीवन में आई मुश्किलों को प्रभावशाली ढंग से विश्लेषित किया है। इन लेखों में एक शोषण-मुक्त भारतीय समाज का स्वप्न भी देखा गया है। ‘आगे अंधी गली है’ में उनके ‘प्रथम प्रवक्ता’ और ‘तहलका’ में छपे कॉलम संकलित हैं। इसमें उनके अखिरी दो वर्ष का लेखन संकलित है। यह पुस्तक प्रभाष जोशी के आखिरी दिनों के वैचारिक मानस को समझने की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।

पत्रकार प्रभाष जोशी पत्रकारिता के उन लोगों की जमात में कभी शामिल नहीं हुए जो लेखनी से समझौते करके राज्यसभा और विधान परिषद् जाने, राजदूत बनने या सरकारी संस्थाओं में पद पाने के लिए लिखते हैं। वे पत्रकारिता के पुरस्कारों के पीछे भी कभी नहीं भागे। उनमें कभी किसी पद्म पुरस्कार की चाह भी नहीं देखी गई। वे पत्रकारों के बीच से आए थे और मृत्यु-पर्यंन्त पत्रकारों के बीच में रहते रहे। उनके व्याख्यान हर विषय पर अकाट्य रहे। उन्हें टीवी चैनलों के टॉक शो में या मुद्दों पर बोलते हुए काफी ध्यान से सुना जाता था। उन्होंने अपने समकालीन हर साहित्यकार और कवि का सम्मान तो किया ही, क्रिकेट जैसे खेल पर भी बहुत सधे हुए अंदाज में और खरी-खरी लिखनेवाले लेखक की तरह लिखा। वे क्रिकेट के दीवाने थे और इसी की दीवानगी ने उन्हें हमसे छीन भी लिय़ा। हमें लगता है कि वे हैदराबाद के भारत-आस्ट्रेलिया के बीच क्रिकेट श्रृंखला के वन डे मैच जिसे वे फटाफट क्रिकेट कहते और लिखते रहे थे के अंतिम मुकाबले में सचिन तेंदुलकर के शानदार खेल से बहुत प्रसन्न होने और जीत की ओर जाते हुए अचानक तेंदुलकर के एक खराब शॉट खेलकर आउट होने और इस तरह से मैच हार जाने को वे बर्दाश्त नहीं कर सके।

बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को गिराए जाने पर 7 दिसंबर 1992 को ‘राम की अग्नि परीक्षा’ शीर्षक से उन्होंने जो लेख लिखा उससे उनकी सोच का स्तर और पत्रकारिता के प्रति उनके उत्तरदायित्व को बखूबी समझा जा सकता है। उन्होंने इसमें लिखा- “राम की जय बोलने वाले धोखेबाज विध्वंसकों ने कल मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रघुकुल की रीत पर अयोध्या में कालिख पोत दी।

हिन्दू आस्था और जीवन परंपरा में विश्वास करनेवाले लोगों का मन आज दुख से भरा और सिर शर्म से झुका हुआ है। अयोध्या में जो लोग एक दूसरे को बधाई दे रहे हैं और बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को ढहाना हिन्दू भावना का विस्फोट बता रहे हैं- वे भले ही अपने को साधु–साध्वी, संत-महात्मा और हिन्दू हितों का रक्षक कहते हों, पर उनमें और इंदिरा गाँधी की हत्या की खबर पर ब्रिटेन में तलवारें निकालकर खुशी से नाचने वाले लोगों की मानसिकता में कोई फर्क नहीं है। 

एक निरस्त्र महिला की अपने अंगरक्षकों द्वारा हत्या पर विजय नृत्य करना जितना राक्षसी है उससे कम निंदनीय, लज्जाजनक और विधर्मी एक धर्म स्थल को ध्वस्त करना नहीं है। वह धर्मस्थल बाबरी मस्जिद भी था और रामलला का मन्दिर भी। ऐसे ढांचे को विश्वासघात से गिरा कर जो लोग समझते हैं कि वे राम का मन्दिर बनाएंगे वे राम को मानते, जानते, समझते नहीं हैं.......

कल अयोध्या में सुप्रीम कोर्ट, संसद और देश को धोखा दिया गया। कहना कि यह हिन्दू भावनाओं का विस्फोट है- झूठ बोलना है। जिस तरह से ढाँचे को ढहाया गया वह किसी भावना के अचानक फूट पड़ने का नहीं, सोच समझ कर रचे गए षड्यंत्र का सबूत है। भाजपा के नहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता भी वहाँ मौजूद थे। वे साधु-महात्मा भी वहां थे जिन्हें मार्गदर्शक मंडल कहा जाता है। विहिप, भाजपा और संघ को अपने अनुशासित कारसेवकों पर बड़ा गर्व है। लेकिन वे सब देखते रहे और ढांचे को ढहा दिया गया। ढांचे को ढहाते समय राम लला की मूर्तियां ले जाना और फिर लाकर रख देना भी प्रमाण है कि जो कुछ भी हुआ वह एक योजना के अनुसार हुआ है। भाजपा की सरकार के प्रशासन और पुलिस का भी कुछ न करना कल्याण सिंह सरकार का षड्यंत्र में शामिल होना है।”

इसी तरह प्रमोद रंजन के सवालों का जवाब देते हुए ‘काले धंधे के रक्षक’ शीर्षक से उन्होंने 6 सितंबर 2009 को जो लिखा वह उनके साहस और पत्रकारिता के प्रति निष्ठा का प्रमाण है। “ वंशवाद और धन के लोभ ने लालू, मुलायम, चौटाला, नितीश कुमार, अजित सिंह और मायावती को मजबूत विपक्ष बनने के बजाय बिन बुलाए कांग्रेस समर्थक क्यों बनाया है? क्योंकि सबके कंकाल सीबीआई के पास हैं। और नंदीग्राम और सिंगूर के बाद वामपंथी किस नैतिक और वैचारिक समर्थन के हकदार हैं? दलितों–पिछड़ों और वाम आंदोलनों के सरोकारों की दुहाई देकर खबरों के बेचने के काले धंधे को माफ करना चाहते हो? देखते नहीं कि ये बनिए की ब्राह्मण पर जातिवादी विजय भर नहीं है जिस पर प्रमोद रंजन जैसे बच्चे ताली बजाएं। यह भ्रष्ट राजनेताओं और पत्रकारिता को काली कमाई का धंधा बनाने वाले मीडिया मालिकों की मिलीभगत है।” प्रभाष जोशी ने पत्रकारिता साहित्य की समीक्षा कम की है और पत्रकारिता अधिक। इसलिए उन्हें पत्रकारिता का समीक्षक कहने की तुलना में पत्रकार कहना ही उचित है।

पत्रकारिता के संत आदरणीय प्रभाष जोशी जी के बारे में जब भी कुछ पढ़ने या फिर लिखने बैठता हूं तो लगता है जैसे पीछे से आकर उन्होंने आज फिर मेरा कंधा दबाया और कहा, “झा साहब सारे एडीशनों को देर रात तक की सभी खबरें भेजकर फिर सबसे कंफर्म कर लेना तभी घर जाना। ध्यान रखना सुबह-सुबह चंडीगढ़ से थानवी जी का कोई फोन नहीं आना चाहिए कि फलां खबर नहीं मिली।” उनके समय में जनसत्ता का मतलब प्रभाष जोशी था। वर्तनी का बहुत कड़ाई से पालन करना होता था। उन संत प्रभाष जोशी ने अखबार का एक अलग खांचा ही गढ़ दिया था जिसका नाम था जनसत्ता । जैसे एक समय में स्टेट्समैन अखबार हाथ में होने से इंटेलेक्चुअल होने की पहचान मिलती थी उसी तरह उन्होंने जनसत्ता पढ़नेवालों को भी यही पहचान दिला दी थी। जनसत्ता का सूत्र वाक्य था- सबकी खबर ले सबको खबर दे । हम डेस्कवालों ने और ब्यूरो के तमाम साथियों ने भी प्रभाष जी की बनाई वर्तनी को इस तरह आत्मसात कर लिया था कि घर-परिवार में कभी किसी को कोई चिट्ठी भी लिखते थे तो वह भी जनसत्ता की वर्तनी में ही होती थी। हमलोग दफ्तर में आपस में मजाक में बोला करते थे कि जनसत्ता के लोगों को तीन भाषाएं सीखनी पड़ती है- अंग्रेजी, हिंदी और जनसत्ता की हिंदी। जनसत्ता की तमाम खबरें एकदम मंजी हुई और एकदम टाइट सबिंग वाली हती थीं। ये थी जनसत्ता की अपनी बिल्कुल अलग पहचान। प्रभाष जी साफ कहते थे कि जनसत्ता अगर बिकेगा तो अपनी दम पर बिकेगा, एक्सप्रेस के दम पर नहीं। प्रभाष जी की बात ही कुछ और थी। उनके जाने के बाद जनसत्ता अब जनसत्ता नहीं रह गया। यहां हरिवंश राय बच्चन जी की कविता जुबान पर आती है--- अब न रहे वो पीनेवाले अब न रही वो मधुशाला। यही होती है आदमी की पहचान। 

प्रभाष जोशी ने अपने अतीत और अपनी गरीबी को भी कभी नहीं छिपाया। कई बार वे सहजता से बोल देते कि परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने के कारण वे ज्यादा नहीं पढ़ पाए और वे अंधे-बहरों के एक स्कूल में पढ़ाने जाया करते थे। इस संत ने हिंदी पत्रकारिता में मील का ऐसा बड़ा और भारी भरकम पत्थर गाड़ दिया जिसे शायद ही कभी कोई सूरमा टस से मस भी कर पाएगा। मुझे इस बात का बहुत गर्व है कि मुझे हिंदी पत्रकारिता के इस संत के साथ बरसों तक काम करने और कई अलग-अलग जिम्मेदारियां निभाने का कृपापूर्ण अवसर मिला। पत्रकारिता के इस अद्भुत संत को शत् शत् नमन।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें