शुक्रवार, 23 दिसंबर 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 53


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की तिरेपनवीं किस्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 53


125. टेलीविजन चैनल में नौकरी का ऑफर

दिल्ली जनसत्ता में नौकरी के दौरान मैंने भारतीय जनता पार्टी से जुड़े डा. जेके जैन के जैन टीवी के लिए बाहर से कुछ फुटकर काम किया था। बंबई जनसत्ता के पत्रकार रहे अमित सिन्हा ने बंबई में रहकर आधे घंटे का एक साप्ताहिक टीवी न्यूज प्रोग्राम नजर बनाना शुरू किया था जो दिल्ली स्थित जैन टीवी से ऑन एअर होता था। उन दिनों सरकारी चैनल दूरदर्शन के बाद सिर्फ जैन टीवी के पास ही अपना अर्थ स्टेशन था। यह चैनल भारत से ही अपलिंकिंग करता था। नजर के लिए दिल्ली से मैं इनपुट देता था। उन दिनों मैं सोनी का एम-35 और सोनी का ही वन सीसीडी कैमरा इस्तेमाल किया करता था। वीएचएस टेप पर रिकार्डिंग होती थी। हम दिल्ली में बच्चों की पत्रिका लोटपोट छापनेवाली कंपनी से किराए पर कैमरे लिया करते थे। उन दिनों 750 रुपए प्रतिदिन के एक शिफ्ट के हिसाब से ऐसे कामचलाऊ कैमरे मिल जाते थे। मैंने एकाध न्यूज प्रोग्राम डीडी-2 पर चलनेवाले न्यूज शो फस्ट एडीशन के लिए भी बनाया था। इस प्रोग्राम को बनाने में जनसत्ता दिल्ली के मेरे साथी बालेंदु दाधीच मेरे साथ होते थे। हम दोनों साथ मिलकर ही स्टोरी शूट भी करते थे और फिर लोटपोट के दफ्तर में एडीटिंग भी। एक बार चंबल के कुछ बेहद खूंखार डकैतों से मिलने हम कैमरामैन को लेकर मध्य प्रदेश के भिंड-मुरैना इलाके के जौरा तक भी चले गए थे। उन दिनों एक भी सेटेलाइट चैनल नहीं था।

जब न्यूज चैनलों का प्रादुर्भाव हुआ तो जनसत्ता के अपने साथी अजय शर्मा नौकरी छोड़कर चैनल में चले गए। मेरी भी इच्छा होती थी टीवी चैनल में नौकरी करने की। अनुभव के नाम पर मेरे पास यही थोड़ा-बहुत किया हुआ फुटकर काम था। पर शुरू में जो साथी अखबार की नौकरी छोड़कर चैनलों में गए उनके पास तो यह भी नहीं था। उस दौर में तो जो भी पत्रकार टीवी चैनलों में गए वे सब के सब ऐसे ही थे। सभी तो अखबारों के ही अनुभव वाले थे। बस लोगों ने जुगाड़ बिठाया और लग लिए। बाद में सभी स्टार हो गए। आज जो थोक भाव में इतने एंकर और एंकरानियां हैं वे सब तो शायद उस समय या तो बच्चे रहे होंगे या फिर स्कूलों में पढ़ लिख रहे होंगे। तो दैनिक जागरण में रहते हुए जब दिल्ली एनसीआर के नोएडा से चल रहे एक टीवी न्यूज चैनल वॉयस ऑफ इंडिया से ऑफर आया तो सोचा इसे ठुकराना उचित नहीं होगा।

वॉयस ऑफ इंडिया में नौकरी का ऑफर मुझे मेरे मित्र अमित सिन्हा ने दिया था। अमित सिन्हा जी उन दिनों वहां वॉयस ऑफ इंडिया में सीईओ बन गए थे। यह चैनल मूल रूप से दिल्ली के एक बड़े बिल्डर मधुर मित्तल का था। हिन्दुस्तान में मेरे साथी रहे हरेंद्र चौधरी उन दिनों नोएडा में ही एक न्यूज चैनल एस-1 में काम कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि वॉयस ऑफ इंडिया में सैलरी वगैरह की क्या स्थिति है, कहीं वहां पैसों का कोई टोटा तो नहीं चल रहा है। इसपर हरेंद्र ने बताया कि वैसे तो सब ठीक ही है पर पिछले कुछ समय से वहां कुछ परेशानियां होने की बात सुनी जरूर जा रही है। मैंने और भी कुछ लोगों से पता किया तो सबने चैनल को ठीकठाक ही बताया। इत्मीनान होकर और मित्र अमित सिन्हा की बात पर भरोसा करते हुए मैंने दैनिक जागरण से छुट्टी लेकर नोएडा चला गया। चैनल का दफ्तर नोएडा के सेक्टर 60 में था। मित्र अमित सिन्हा के सीईओ होने की वजह से जाते ही मुझे वहां एसोसिएट एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर (एईपी) की नौकरी मिल गई। तनख्वाह 35 हजार तय हुआ। दैनिक जागरण तो 20 हजार का वादा करके भी सिर्फ 15 हजार ही दे रहा था। वहां मेरा इंटरव्यू चैनल हेड नवभारत टाइम्स के वरिष्ठ पत्रकार रहे किशोर मालवीय और चैनल के एचआर मैनेजर नवीन जैन ने लिया था। फिर मैंने एचआर मैनेजर नवीन जैन से ऑफर लेटर लिया और 15 दिनों बाद काम शुरू करने का वादा करके पटना लौट आया। 

दो हफ्ते बाद जब वहां गया तो बाकायदा योगदान हुआ और चैनल के आउटपुट में काम करने को कहा गया। चैनल में खबरों का जो कुछ भी टेक्स्ट तैयार किया जाता था उसकी भाषा पर नजर रखने की जिम्मेदारी मिली। अपने पास टेलीविजन पत्रकारिता का कोई वैसा अनुभव तो था नहीं और नहीं वैसा कोई एक्सपोजर ही था जो वहां काम आता। वहां सारा टेक्निकल मामला था। सॉफ्टवेयर भी अजीब-अजीब तरह के थे जिनसे अपनी पहले कभी मुलाकात ही नहीं थी। लिहाजा मुझे हर तकनीकी चीजें सीखनी थी। कई चीजें मैंने सीखी भी। पर चंद महीनों में ही चैनल की आर्थिक हालत बहुत बिगड़ गई। सैलरी का संकट होने लगा। शायद संकट बहुत पहले से चल रहा था पर मुझे इसकी जानकारी नहीं हो पाई थी। मैंने दैनिक जागरण की नौकरी टीवी चैनल की चमक-दमक और मोटी तनख्वाह के लोभ में छोड़ दी थी पर यहां तो मामला उल्टा ही पड़ रहा था। मैंने रिस्क तो लिया पर बाद में यह निर्णय निहायत बेवकूफी भरा साबित होने लगा।

बस चंद महीनों में ही वहां चैनल में हड़ताल और विरोध जैसे हालात पैदा हो गए। फिर कुछ महीने इसी तरह घिसटने के बाद चैनल के मूल मालिक ने सबके सामने पूरा बकाया लेकर इस्तीफा देने का प्रस्ताव ऱख दिया। यह भी कहा गया कि चैनल को आगे अमित सिन्हा चलाएंगे। नई कंपनी होगी और सबको वहां नौकरी दे दी जाएगी। थोड़ा बहुत ना-नुकुर करने के बाद सबने हामी भर दी और बकायों का भुगतान लेकर सबने इस्तीफा भी दे दिया। पर अमित सिन्हा ने जब चैनल की दूसरी पाली शुरू की तो वहां फंड का जबर्दस्त टोटा था। उत्तर प्रदेश बिजली बोर्ड का बिजली का लाखों रुपए का बिल बकाया था। बिजली काट दी गई। चैनल को ऑन रखने के लिए जेनरेटर चलाने के लिए डीजल खरीदने तक के लिए कंपनी के पास पैसे नहीं थे। थोड़े पैसे चुकाकर बिजली जुड़वाई जाती थी जो फिर आगे भुगतान न होने की वजह से बार-बार काट दी जाती थी। बार-बार डीजल खरीदने के लिए पैसों की किल्लत होने लगी। चैनल का विशालकाय जेनरेटर स्टार्ट होने में ही 25 लीटर डीजल पी जाता था। पैसों की इस किल्लत के बीच दो बार ऐसे मौके आए जब कंपनी के सीईओ अमित सिन्हा के कहने पर मैंने अपने डेबिट कार्ड से पांच-पांच हजार का डीजल खरीदकर जेनरेटर चलवाया। मेरे वे पैसे बट्टे खाते में गए। इसी तरह ऑन एअर-ऑफ एअर हो-होकर लगभग दो महीने तक घिसटकर चैनल हमेशा के लिए बंद हो गया। सबके कमाए हुए पैसे भी डूब गए।

उन दिनों वहां सुनी गई चर्चाओं के मुताबिक शुरू में यह चैनल इतने धूम-धड़ाके से शुरू हुआ था कि चैनल के दफ्तर के बाहर 25-30 ओबी वैन लाइन में खड़े रहते थे। चैनल की अमीरी देखकर उस समय के हर छोटे-बड़े न्यूज चैनल का हर छोटा-बड़ा कर्मचारी वॉयस ऑफ इंडिया में आना चाहता था। पर चैनल की स्थितियां गड़बड़ाने के बाद वहां के लोग चैनल के बारे में तरह-तरह की कहानियां सुनाते थे। वॉयस ऑफ इंडिया चैनल के पास अपना कुछ भी नहीं था। सबकुछ किराए का था। चैनल का दफ्तर नोएडा सेक्टर 60 में किराए के एक विशालकाय भवन में था जिसका किराया भी बहुत भारी-भरकम था। उसी भवन में बगल में ही एबीपी का दफ्तर था पर एबीपी के पास वॉयस ऑफ इंडिया की तुलना में काफी कम जगह थी। कहते हैं जब चैनल डिजाइन हुआ तो चैनल के दफ्तर की इंटीरियर डिजाइनिंग एक बड़ी इंटीरियर डिजाइनर कंपनी से करवाई गई थी। दफ्तर तो शानदार बन गया पर डिजाइनिंग कंपनी को बहुत कम भुगतान किया गया। वहां लोग बताते थे कि चैनल में फर्नीचर भी जिससे लिया गया उसको भी बाकी पैसे फिर कभी नहीं मिले। चैनल के सारे इलेक्ट्रानिक साजो-सामान और उपकरण भी किराए पर लिए गए थे। कहते हैं कि उन वेंडरों का भी मोटा पैसा बकाया था। उन वेंडरों ने भुगतान न मिलने की वजह से कोर्ट में वसूली का मुकदमा दायर कर दिया था। जिस बिल्डिंग में दफ्तर था उसके मालिक ने भी लंबे समय से किराए का भुगतान न होने की वजह से चैनल पर मुकदमा दायर कर दिया था। कोर्ट के आदेश से दफ्तर बाकायदा सील भी कर दिया गया था। फिर भी सील तोड़कर अंदर काम किया जाता रहा था। एक बार तो चैनल में सिस्टम लगानेवाली कंपनी के कुछ लोग अचानक एक दिन चुपचाप दफ्तर आए और पीसीआर के सिस्टम से कोई महत्वपूर्ण डिवाइस खोलकर लेते गए जिससे पूरे चैनल का प्रसारण ही बंद हो गया और फिर कभी शुरू नहीं हो सका।

उन दिनों वहां सुनी गई चर्चाओं के मुताबिक कहते हैं चैनल में सिस्टम लगानेवाली कंपनी का सिस्टम यानी उपकरणों के किराए का लाखों-करोड़ों रुपए बकाया था जिसका लंबे समय से भुगतान नहीं हुआ था। इसी तरह उन दिनों वहां सुनी गई चर्चाओं के मुताबिक चैनल में रिपोर्टिंग और स्टाफ को लाने-ले जाने के काम के लिए जो कारें थीं उसे कंपनी ने बैंकों से फाइनेंस कराया हुआ था और कंपनी उसकी लोन ईएमआई का भुगतान नहीं कर पा रही थी। ऐसी कारें राज्यों में चैनल के ब्यूरो कार्यालयों में भी थीं। ब्यूरो कार्यालयों के भवन भी किराए पर ही लिए गए थे और लंबे समय से उनके किराए का भुगतान भी नहीं हो रहा था। जब चैनल बंद हो गया तो उन मकान मालिकों ने ब्यूरो का दफ्तर और दफ्तर का सारा साजोसामान (कंप्यूटर, इलेक्ट्रानिक उपकरण, कैमरे, फर्नीचर और दूसरे साजोसामान) और कंपनी की कार को भी अपने कब्जे में ले लिया। कंपनी ने न कभी ब्यूरो कार्यालय का बकाया किराया चुकाया और न ब्यूरो के साजोसामान और अपनी उन कारों को कभी वापस ही लिया। ब्यूरो प्रमुखों और ब्यूरो में काम कर रहे कैमरामैनों की सैलरी भी लाखों-करोड़ों में बकाया थी जिसका कंपनी ने कभी भुगतान नहीं किया। उन सभी ब्यूरो प्रमुखों की नौकरी भी गई और बकाया सैलरी भी गई।

बाद में इस बात का खुलासा हुआ कि चैनल मालिक करोड़ों की देनदारी से बचने के लिए चैनल को बंद करना चाह रहे थे और इसीलिए उन्होंने अमित सिन्हा से एक गुपचुप डील की थी। अमित सिन्हा के पास उतने पैसे तो थे नहीं कि वे चैनल चला पाते। अमित सिन्हा जुगाड़-जुगाड़ खेलना चाहते थे और चाहते थे कि कोई मोटा फाइनेंसर मिल जाए और वह चैनल में पैसा लगा दे। पर वैसा कुछ हो नहीं पाया। फिर यह भी तभी साफ हुआ कि चैनल के मूल मालिक ने चैनल को अमित सिन्हा की कंपनी को देने का एक नाटक किया था जिसके पीछे एक खास मकसद था चैनल से पिंड छुड़ाना। और चैनल मालिक की यह कोशिश करोड़ों की देनदारी से किसी तरह बच निकलने की एक तरकीब भी थी।

126. सीएनईबी में नौकरी

वॉयस ऑफ इंडिया से लौटने के बाद मुझे फिर एक लंबी बेरोजगारी झेलनी पड़ी। मैं दिल्ली छोड़कर फिर गांव ही लौट आया था। बाद में वॉयस ऑफ इंडिया में चैनल हेड रहे किशोर मालवीय जी की कृपा और मदद से नोएडा में ही एक दूसरे समाचार चैनल सीएनईबी में काम करने का मौका मिला। सीएनईबी में चैनल हेड अनुरंजन झा थे और उनक साथ थे किशोर मालवीय। किशोर मालवीय जी से मैं लगातार संपर्क में था इसलिए वे वहां गए तो जुगाड़ लगाकर मुझे भी बुला लिया। सीएनईबी चैनल वॉयस ऑफ इंडिया की तुलना में बहुत-बहुत छोटा था। दोनों में कहीं से कोई तुलना नहीं। बिल्कुल छोटा कारोबार। कोई पंजाबी चिटफंडवाला इसका मालिक था। किशोर जी ने मुझे रिसर्च एसोसिएट बनाकर नौकरी में लिया और 25 हजार रुपए की तनख्वाह तय की। बहुत छोटा चैनल था इसलिए ज्यादा पैसे दिए भी नहीं जा सकते थे। चैनल बमुश्किल डेढ़ साल चला होगा कि वहां एक बड़ी उठापटक हो गई। अचानक मालिक से कुछ विवाद हुआ और अनुरंजन झा और किशोर मालवीय दोनों ने नौकरी छोड़ दी। चैनल में एडीटोरियल के ज्यादातर लोग उन्हीं के लाए हुए थे पर जाते समय किशोर मालवीय जी सबको कह गए कि कोई इस्तीफा नहीं देगा। पर उनके जाने के बाद जो चैनल हेड आए उन्होंने आते ही पुराने लोगों को चलता करना शुरू कर दिया। एचआर तक में भी लोग हटा दिए गए। दरअसल, मालिक का इरादा सारे घर को बदल डालने का था। जल्दी ही मेरा भी नंबर आ गया। आर्थिक संकट और चिटफंड के रैकेट को लेकर सरकार की तरफ से की गई धर-पकड़ की कार्रवाई और सख्ती की वजह से चैनल बड़ी मुश्किल से दो-ढ़ाई साल चल पाया और फिर बंद हो गया।

सीएनईबी छोड़ते समय मेरी उम्र करीब 54 साल थी। यानी रिटायर होने की सरकारी उम्र पूरा होने मे चार साल अभी बाकी था। वहां से निकलने के बाद मैंने दिल्ली में नौकरी की तलाश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हर जगह चक्कर लगाया और मीडिया के हर छोटे-बड़े दरवाजे पर दस्तक दी। पर कहीं सफलता नहीं मिली। नोएडा के सेक्टर 62 में स्थित दैनिक जागरण के भी खूब चक्कर लगाए। वहां निशिकांत ठाकुर उन दिनों बड़ी ताकतवर और निर्णायक भूमिका में होते थे। उन्होंने कई बार मुझे बुलाकर अपने सामने बिठाया, बातें की और मेरी सीवी देखी। हर बार आश्वासन भी देते रहे। कई महीनों तक इसी तरह लटकाए रखा पर कोई मदद नहीं की। आखिर में बोले कि अभी कोई गुंजाइश नहीं है। 

- गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....

(यह मेरे ब्लॉग ganeshprasadjha.blogspot.com पर भी उपलब्ध है)


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें