पत्रकारिता की कंटीली डगर
भाग- 50
117. दिल्ली में सक्रिय हिंदी संपादक सप्लायर गैंग
पत्रकारों के भ्रष्टाचार की कहानियां और मीडिया के इस भ्रष्टाचार का रहस्य बहुत गहरा जान पड़ता है। आप इसके कुएं में जितना गहरे उतरते जाएंगे उतना अधिक रहस्य सामने आता जाएगा। देश की राजधानी दिल्ली ही अब पत्रकारिता की राजधानी बन गई है। सबकुछ इसी राजधानी से तय होने लगा है। जानकारी मिली है कि दिल्ली में हिंदी के कुछ बड़े संपादक टाइप पत्रकारों का एक ऐसा ताकतवर गिरोह है जो देश भर में कहीं से भी हिंदी का कोई अखबार या पत्रिका शुरू हो, उसके लिए संपादक की सप्लाई यही गिरोह करता है। सिर्फ संपादक ही नहीं, उसकी सेकेंड और थर्ड लाइन में कौन लोग होंगे यह भी यही गिरोह तय करता है। जानकारों का कहना है कि शातिर पत्रकारों का यह गिरोह अखबारों-पत्रिकाओं में रचनाकारों, अनुवादकों और संवाददाताओं की आपूर्ति करने का भी ठेका लेता है। इसके लिए बाकायदा डील होती है। कुछ-कुछ उसी तरह जैसे किसी पुलिस थाने का कोतवाल या फिर किसी जिले का एसपी बनने के लिए डीलिंग हुआ करती है। यह गिरोह देश की कई नामचीन पत्रिकाओं और मौजूदा डॉट कॉम मीडिया कंपनियों के अलावा भारत में विदेशी प्रकाशकों का हिंदी और अंग्रेजी एजेंट बनकर भी अच्छा कमीशन बना लेता है। इस गिरोह को आप बड़े धंधेबाज और बड़े दलाल पत्रकारों का गिरोह भी कह सकते हैं। कुल मिलाकर यह गिरोह अमेरिका के लॉस एंजेल्स और शिकागो के ड्रग कार्टेल गिरोह की तरह ही है। यानी भारत का मीडिया कार्टेल।
शातिर हिंदी संपादकों का यह गिरोह और उनका यह धंधा पिछले आठ-दस सालों में विकसित हुआ है। रीजनल से राष्ट्रीय बने हिंदी के कुछ बड़े अखबारों की शाखाओं में यह गिरोह ज्यादा सक्रिय रहा है। प्रभाष जोशी के समय यह गिरोह टूटा था, पर फिर सक्रिय हो गया। इस रैकेट में भोपाल, इंदौर, लखनऊ, जयपुर, चंडीगढ़, पटना और गुवाहाटी शहर शामिल है। जानकार कहते हैं कि राजधानी दिल्ली में प्रेस क्लब से इस अघोषित गिरोह का अघोषित दफ्तर चलता है।
यही गिरोह तय करता है कि कहां किस अखबार या पत्रिका में कौन संपादक बनेगा या बनकर जाएगा। संपादक इसी गैंग की मर्जी का होता है। जाहिर है हर जगह संपादक इसी गैंग के लोग या फिर इसी गैंग के पसंद के लोग होते हैं। कुछ पत्रकार संपादक बनने के लिए इस गैंग से जुड़कर गिरोह के दादाओं की मनुहार करने लगते हैं। गैंग से जुड़नेवाले पत्रकार संपादक नहीं तो कम से कम सहायक संपादक, मैगजीन संपादक या समाचार संपादक जैसा कुछ बनवा दिए जाते हैं। दिमाग पर थोड़ा जोर डालेंगे और पिछले कुछ सालों पर नजर दौड़ाएंगे तो आपको खुद पता चल जाएगा और आपको पत्रकारों में ऐसे कुछ खास नाम मिलेंगे जो देश के अलग-अलग राज्यों और शहरों में संपादक बनकर आते-जाते रहते हैं। इस गिरोह के कुछ डीलर संपादकों से मेरा भी सामना हुआ है। कुछ मेरे साथी पत्रकार भी हैं जो बाद में इस गिरोह से जुड़कर कई जगह संपादक बने। यह और बात है कि उनमें डीलरशिप वाले गुण मौजूद थे और भरपूर बड़बोलापन भी था।
118. मालिकों के लिए विदेशी मुद्रा और लड़की का इंतजाम
पत्रकारों को कैरियर में आगे बढ़ने के लिए अपने संपादकों और मालिकों को खुश करना पड़ता है और इसके लिए उन्हें अपनी नौकरी के दौरान अखबारनवीसी के अलावा कई और भी नैतिक-अनैतिक काम करने पड़ते हैं। पर यह छोटे पत्रकारों पर अमूमन लागू नहीं होता। खासकर संपादक, समाचार संपादक और ब्यूरो प्रमुखों से ऐसे काम कराए जाते हैं। राज्यों से निकलनेवाले अखबारों के दिल्ली स्थित ब्यूरो कार्यालयों के प्रमुख अपने मालिकों के लिए यह सब काम करते हैं। कभी-कभी अपने संपादक के लिए भी। इसमें एक काम मालिक की विदेश यात्राओं के लिए विदेशी मुद्रा का इंतजाम करना होता है। इसके अलावा मालिक जब किसी काम से दिल्ली पधारें तो उनकी अय्यासी के लिए लड़की की व्यवस्था करना भी उनकी जिम्मेदारी होती है। बाकी मालिक के आने-जाने के लिए हवाई टिकट का इंतजाम और दिल्ली शहर में आने-जाने के लिए कार वगैरह की व्यवस्था तो नार्मल चीजें होती हैं। सुनकर थोड़ा अटपटा लगता है और सिर भी शर्म से झुक जाता है पर जानकार बताते हैं कि बात यह बिल्कुल सच है और ऐसा होता है। यह सब बहुत समय से होता रहा है। देशभर के मीडिया घरानों का दिल्ली में जो सामूहिक बंगला है उसमें बने कमरों में सिर्फ खबरे ही नहीं लिखी जाती, मालिकों को खुश करने के लिए क्या कुछ करना है उसका इंतजाम कहां से और कैसे होगा उसकी डीलिंग भी यहां से की जाती है। अखबार मालिकों के इस सामूहिक भवन में बैठनेवाले कम से कम एक ऐसे ब्यूरो प्रमुख को तो मैं जानता ही था जो यह सब काम करते थे। वे मेरे बहुत वरिष्ठ भी रहे थे इसलिए कई बार अपनी मजबूरियां और परेशानियां बता भी देते थे। मैं जब भी उनसे मिलने गया उनके केबिन में कोई न कोई लड़की उनसे अकेले में बतियाते जरूर मिल जाती थी। वे लड़कियां वहां की स्टाफ नहीं होती थीं। तो क्या वे लड़कियां उनसे नौकरी मांगने आती थीं और वे उनको नौकरी दे देते थे या वे उनको नौकरी देने की स्थिति में होते थे। ऐसा कुछ तो बिल्कुल नहीं था। तो फिर मामला क्या था? जानकार बताते हैं कि अखबार मालिकों को जब सरकार से या सरकार के किसी मंत्रालय से अपना या अपने अखबार का कोई बड़ा काम कराना होता है तो वे इसके लिए संबंधित मंत्रालय के मंत्री या अधिकारी या सत्तारूढ़ राजनैतिक दल के किसी नेता को खुश करने के लिए अपने ब्यूरो चीफ से पैसों के लेनदेन के अलावा और भी कई तरह के जरूरी इंतजाम कराते हैं और उसी सब इंतजामों के तहत यह सब भी किया कराया जाता है। जिन मंत्रियों, अफसरों या नेताओं को खुश करना होता है उनको सुरा-सुंदरी उपलब्ध कराई जाती है। मतलब अखबार का दिल्ली ब्यूरो चीफ बाकी सब होने के अलावा एक दलाल भी होता है। बाकी आपसब जानते ही हैं कि आजकल लक्ष्मी और सुरा-सुंदरी के बिना कोई बड़ा काम नहीं होता। अब जब अखबार मालिक अपने काम के लिए इस तरह गंगा बहा रहा होता है तो उसमें संपादक और ब्यूरो चीफ भी थोड़ा हाथ धो लेते हैं और अगर मौका मिला तो नहा भी लेते हैं।
119. पत्रकार चलपति राव से सीखें ईमानदारी
आजादी के दिनों की हिंदी पत्रकारिता में ऐसे व्यक्तित्व होते थे जिनमें अपने देश, समाज और अखबार के प्रति एक समर्पण और उत्साह हुआ करता था। उनमें समर्पण और ईमानदारी कूट-कूट कर भरी होती थी। इसके ईमानदार और बेहतरीन उदाहरण थे नेशनल हेराल्ड के एक दक्षिण भारतीय पत्रकार मणिकोंडा चलपति राव जोनेशनल हेराल्ड के दिल्ली संस्करण के संपादक थे। चलपति राव साहब हुमायूं रोड स्थित अपने घर से आईटीओ स्थित अखबार के दफ्तर डीटीसी की बस से ही आते जाते थे। रिटायरमेंट के बाद वे पंडारा रोड पर रहने लगे थे। वे रोज सुबह अपने घर के पीछे थोड़ी दूरी पर स्थित एक चाय दुकान पर चाय पीने जाया करते थे। सत्तर के दशक में एक सुबह (25 मार्च 1983) वे उसी चाय दुकान पर चाय पीने गए तो वहीं गिर पड़े और वहीं उनका निधन हो गया। चायवाला उनको पहचानता था इसलिए उसने तिलक मार्ग थाने को इसकी सूचना दे दी। पुलिस आई और उनकी लाश उठाकर ले गई। लाश थाने से सीधे मुर्दाघर पहुंचा दी गई। उधर उनके घर पर आनेवाली कामवाली ने जब उन्हें वहां नहीं देखा तो उसने इसकी सूचना उनके पुराने दफ्तर नेशनल हेराल्डको दी। दफ्तर के लोगों ने उनकी तलाश शुरू की तो अगले दिन जाकर उनकी लाश मुर्दाघर में पड़ी मिली। और तब जाकर उनकी पहचान हुई। उनकी पहचान होने पर शहर में खासा हंगामा हुआ। राव साहब अविवाहित थे और अकेले रहते थे। उनका विवाह तो अंग्रेजी भाषा और पत्रकारिता से हुआ था। वे बेहद ईमानदार और एक अच्छे लेखक थे। कहते हैं उनके कमरे में न कोई फर्नीचर था और न कोई सामान। उनके कमरे में सिर्फ एक टू-इन-वन रेडियो टेपरिकार्डर और कुछ झोले वगैरह ही थे। एक फक्कड़ की तरह जीवन जीते थे राव साहब। राव साहब घोषित तौर पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बहुत करीबी थे फिर भी उन्होंने नेहरूजी से कभी कोई सेवा स्वीकार नहीं की। नेशनल हेराल्ड में उनके संपादकत्व के 30 साल पूरे होने पर आयोजित एक सभा में इंदिरा गांधी ने उनकी खूब तारीफ की थी। वे अपने दफ्तर से तनख्वाह भी बहुत कम ही लेते थे। कहते हैं एक बार जब वे हिन्दुस्तान टाइम्स में काम करते थे तो अखबार के मैनेजर देवदास गांधी ने उनका वेतन बढ़ा दिया था, पर राव साहब ने बढ़ी हुई तनख्वाह लेने से मना कर दिया। उन्होंने देवदासजी से कहा था,- “बस कीजिए देवदासजी। इस तरह पैसे देकर आप मुझे बर्बाद मत कीजिए।” आप जानकर हैरान होंगे कि उन्होंने 1969 में पद्मभूषण पुरस्कार लेने से भी मना कर दिया था। आज देश में कितने ऐसे ईमानदार संपादक मिलेंगे?
– गणेश प्रसाद झा
आगे अगली कड़ी में....
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