एक पत्रकार की अखबार यात्रा की बावनवीं किस्त
पत्रकारिता की कंटीली डगर
भाग- 52
122. संपादक नाम की संस्था के खत्म होने का दौर
पत्रकार मणिकोंडा चलपति राव का दौर पत्रकारिता में ईमानदारी का स्वर्णिम काल था। कहते हैं उनके निधन के बाद वाले दौर में यानी 90 के दशक से देश की मीडिया में बाजारवाद का उदय होना शुरू हुआ और संपादक नाम की संस्था कमजोर पड़ने लगी। अखबारों में संपादक नाम की संस्था धीरे-धीरे कमजोर होने लगी और संपादकीय विभाग पर मैनेजरों और मालिकों का नियंत्रण कायम होने लगा। खबरों को पीछे की सीट पर धकेल कर विज्ञापन आगे की सीट पर आ बैठा। इस खतरनाक दौर का असर वर्ष 2000 के आते-आते हर जगह दिखाई देने लगा। फिर कुछ ही सालों में लगभग सभी अखबारों में संपादक प्रभावहीन बना दिए गए और वे तब सिर्फ नाम के ही संपादक रह गए। मैनेजर और मालिक ही अखबारों के वास्तविक संपादक बन गए। मालिकों ने अखबारों की प्रिंटलाइन में संपादक की जगह अपना नाम छपवाना शुरू कर दिया। आज हालत यह है कि देश के हर छोटे-बड़े अखबार में मालिक का नाम प्रमुखता से छप रहा है। मेरी जितनी समझ है उसके हिसाब से इस खतरनाक परंपरा की शुरुआत सबसे पहले टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार समूह में हुई। उसकी देखादेखी हिन्दुस्तान टाइम्स अखबार समूह ने की और वहां भी संपादक भंगी बना दिए गए। अखबारों के कंटेंट पर भी मैनेजरों और मालिकों का नियंत्रण हो गया। प्रबंधन की तरफ से भिजवाई गई सामग्री अखबारों में छपने लगी। इसमें समाचार भी शामिल होने लगे। शहरों के बाजार के हिसाब से संपादक बनाए जाने लगे। कोई दिल्ली मार्केट का संपादक बना दिया गया तो कोई मुंबई मार्केट का। संपादकों के पास यह अधिकार भी नहीं रहने दिया गया कि वे अपनी मर्जी और पसंद से किसी पत्रकार को अपने यहां नौकरी पर रख सकें। संपादकों को बेआबरू करके निकाले जाने की कई घटनाएं हुईं। कुल मिलाकर अखबारों के दफ्तर पैसा कमाने वाली बनियों की दुकान बन कर रह गए।
थोड़े ही दिनों बाद अखबारों के दफ्तरों का खुलापन भी खत्म हो गया और उनमें कॉरपोरेट कल्चर पूरी तरह हावी होता गया। इस कॉरपोरेटी व्यवस्था में बाहर के पत्रकारों या लेखकों के लिए किसी अखबार के संपादक से मिलना लगभग असंभव या बहुत कठिन बना दिया गया। अखबारों के दफ्तरों में प्रवेश पर अनुमतियों और बात-बात में पर्चा कटवाने का ताला जड़ दिया गया। नतीजा यह हुआ कि अखबारों के दफ्तर जो कभी लेखकों, साहित्यकारों और पत्रकारों के जमघट हुआ करते थे वे उन कलमकारों से दूर होते गए। बाद में नियम बना दिए गए कि कोई लेखक, साहित्यकार या पत्रकार अखबारों के दफ्तर में चौकीदारों (सिक्यूरिटी गार्डों) से इजाजत लेकर प्रवेश तो कर सकते हैं पर वे दफ्तर के रिसेप्शन से आगे नहीं जा सकते। एडिटोरियल तक जाने की उनको किसी भी सूरत में इजाजत नहीं होती थी। उनको दफ्तर में जिस किसी पत्रकार से या संपादक से मिलना होता था तो चौकीदार ही उनकी पर्ची उन पत्रकार या संपादक तक पहुंचाता औऱ फिर अगर वह पत्रकार समय निकालकर उनसे मिलने की स्थिति में होता था तो उसे वहीं रिसेप्शन में आना होता था। संपादक अगर किसी आगंतुक लेखक, साहित्यकार या पत्रकार से मिलना चाहते थे तो वे उस आगंतुक को भीतर अपने कक्ष में बुलवाते वरना आगंतुकों को वहीं रिशेप्शन से लौट जाना पड़ता। इस व्यवस्था ने अखबारों के दफ्तरों और कलमकारों के बीच एक गहरी खाई बना दी। अखबारों के दफ्तरों में उनका आना-जाना बहुत कम हो गया। इसका अखबारों को बाहर से मिलनेवाली लेखकीय सामग्रियों पर बहुत बुरा असर पड़ा और लेखकों-पत्रकारों ने अखबारों के लिए लिखना कम कर दिया। अखबारों को मिलनेवाली स्तरीय सामग्री कम होती गई और वे घिसे-पिटे से होते गए। इसका अखबारों की विश्वसनीयता और उसकी साख पर भी बहुत बुरा असर पड़ा। कुछ साल बाद, खासकर 2010 के बाद अखबारों ने स्वतंत्र पत्रकारों को दिया जानेवाला लेखन का पारिश्रमिक घटाना शुरू कर दिया और अगले कुछ सालों में उसे लगभग बंद ही कर दिया गया। अब बड़े अखबार घराने भी कुछ स्थापित नामों को छोड़ दें तो पारिश्रमिक के नाम पर किसी को एक धेला नहीं देते। अखबारों ने अब मुफ्त में लेख और रिपोर्ताज वगैरह हासिल करने के लिए जुगाड़ वाली व्यवस्था कर ली है। और पत्रकार भी अपना नाम जिंदा रखने और समाज में अपनी कमाई हुई इज्जत को बरकरार रखने के लिए मुफ्त में लिखना जारी रखे हुए हैं। इसे आप यह भी कह सकते हैं कि आज के समय में पत्रकार मुफ्त में लिखने को मजबूर हैं। अगर कोई पत्रकार अखबार से कभी कोई पारिश्रमिक मांगने की भूल कर बैठता है तो अखबार का संपादक उसे कोई पैसे तो नहीं ही देता, तत्काल उससे अपना सहयोग बंद कर देने के लिए कह डालता है।
123. समय के गर्त में समा गए कई बड़े अखबार
देश के कई बड़े और प्रतिष्ठित माने जानेवाले अखबार जैसे जनसत्ता, स्टेट्समैन, द इंडिपेंडेंट, आज और स्वतंत्र भारत सब के सब समय के गर्त में समा गए। वजह चाहे जो भी रही हो पर आज भी इन अखबारों के लेखक, पत्रकार और इसे पढ़ने वाले कभी भी नहीं चाहते थे कि ऐसे अखबार बेमौत मर जाएं। जिन अखबारों की कभी मिसाल दी जाती थी, आज वो खुद वजूद में नहीं हैं। सही कहते हैं की हर किसी की एक नियत उम्र होती है, सबका अपना-अपना वक्त होता है। अपने समय के इन प्रतिष्ठित अखबारों का वक्त गुजर गया।
एक जमाने में कोलकाता में अमृत बाजार, आनंद बाजार और स्टेट्समैन ही जाने जाते थे। अब सिर्फ आनंद बाजार बचा हुआ है। स्टेट्समैन वालों का अंग्रेजी का और बांग्ला में स्टेट्समैन अखबार है। अखबार कोलकाता शहर के चौरंगी स्थित स्टेट्समैन हाउस के पिछवाड़े से जैसे-तैसे निकलता है। अखबार के कर्मचारियों को महीनों तक वेतन भी नहीं मिलता है। अब अखबार के दफ्तर की बड़ी-सी जगह भी एक मॉल में तब्दील हो गई है। इस मॉल का नाम है न्यू एज टेक मॉल । कहते हैं कोलकाता के चौरंगी स्थित इस बेशकीमती संपत्ति स्टेट्समैन हाउस को लियांस प्रोपर्टीज नामक एक बिल्डर कंपनी ने खरीद लिया है! यह खबर बहुत ही दुखद है। आज यह अखबार भी बुरे हाल में है।
इस अखबार के आखिरी पारसी संपादक रूसी मोदी थे। बाद में बरसों तक सुनंदा दासगुप्त रहे जो सिंगापुर टाइम्स से आए थे। अखबार को घटिया श्रेणी में निकालते रहने के लिए 1983 में रवींद्र कुमार संपादक बने थे। आखिरी दिनों में पांच साल पहले तक रवींद्र कुमार ही इसके संपादक/मैनेजर दोनों थे। अब इस अखबार के दिल्ली संस्करण को किसी जैन ने खरीद लिया है। ये नए मालिक कर्मचारियों को अच्छा पैसा देना नहीं चाहते।
वर्ष 1875 में शुरू हुआ स्टेट्समैन अखबार एक समय में सलीके का अखबार हुआ करता था। इमरजेंसी समाप्त होने के बाद इसमें छपी बहुत सी खबरें अनुवाद करके क्षेत्रीय अखबारों में छपती थी। इसे बहुत इज्जतदार अखबार माना जाता था। जिसके हाथ में यह अखबार होता था उसे इंटेलेक्चुअल माना जाता था और लोग उसे बड़ी इज्जत की नजर से देखते थे। यह भी कहा जाता था कि अच्छी अंग्रेजी सीखनी हो तो स्टेट्समैन पढ़ो। यही स्टेट्समैन अखबार अब बिक गया है। इस अखबार से जुड़े रहे लेखक, पत्रकार जिन्होंने अपनी मेहमत से इसे स्टेट्समैन बनाया वे अब यह सब देखकर दुखी हो रहे हैं, पर चाहकर भी कुछ कर नहीं पा रहे हैं।
स्टेट्समैन अखबार अब सिर्फ एक नाम का दैनिक रह गया है। उसके मालिकों, प्रबंधकों और संपादकों का गठजोड़ एक अच्छे भले दैनिक की कैसे हत्या करता है उसका एक जबरदस्त उदाहरण आज का स्टेट्समैन अखबार है। पहले विश्वामित्र, सन्मार्ग, नई दुनिया और कई दूसरे अखबार अपने मालिकों में धन की हवस के चलते अखबारों से अर्जित भूमि को बेचा करते थे। अखबारों की साख को पहले कम से कम स्टाफ में खराब करो और फिर उसे जमीन और मशीन समेत बेच दो। यह नजरिया पहले हिंदी अखबारों में ही था, लेकिन अब अंग्रेजी में भी शुरू हो गया है। इसकी एक पहल अंग्रेजी के प्रतिष्ठित अखबार स्टेट्समैन ने कर दी है। कल दूसरे अखबार भी यही रास्ता अपना सकते हैं।
'स्टेट्समैन' यानी भारत में अंग्रेजों का साथी अखबार। यह वाक्य अखबार के संपादकीय पेज पर अस्सी के दशक तक छपता रहा। कभी अंग्रेज इस अखबार के संपादक होते थे। तब देश के मिशनरी स्कूलों और देश के अपने अफसरों के लिए यह अखबार लगभग अनिवार्य था जिससे वे अपनी अंग्रेजी भाषा ठीक कर सकें। लेकिन नब्बे के उदारीकरण के तहत इस अखबार के संपादक और फैसला लेने वालों की टीम ने तय किया कि इस अखबार को दिल्ली में कनाट प्लेस और कोलकाता की चौर॔गी में सरकारों से लगभग मुफ्त में मिली जमीनों का उपयोग बदलते दौर के लिहाज से किया जाए। पहल दिल्ली के कनाट प्लेस में शुरुआत के साथ हुई। बाद में चौर॔गी में भी हुआ। कनाट प्लेस से अखबार नोएडा पहुंच गया । बेशकीमती जमीन पर खड़े भवन को आधुनिक रूप दिया गया और उसके बाद वहां बड़ी-बडी कंपनियों के दफ्तर खुल गए। अखबार अब लगभग फाइल कापी में सिमट कर रह गया है। पत्रकार जो वहां काम कर रहे हैं वे बहुत कम पैसों पर वहां समय बिता रहे हैं। अब अंग्रेजी बेहतर करने वाले इस अखबार को नहीं उठाते। चौरंगी में अब यह मॉल बन कर जन के उपयोग में रहेगा और वहां बडी कंपनियों के कार्यालय छा जाएंगे। आखिर मौके की जगह जो है। स्टेट्समैन अखबार बराए नाम मॉल के पीछे बने एक छोटे से घर से निकलता रहेगा जिससे अखबार को मिली सरकारी सुविधाएं न छिनें। पर यह सरकार के साथ धोखा और पहले से तय नियमों-शर्तों का सरासर उल्लंघन है। पत्रकारिता की आत्मा की रक्षा के लिए केंद्र और राज्यों की सरकारों को अखबार की संपत्ति बेचने की अखबार मालिकों की इस प्रवृत्ति पर तत्काल रोक लगानी चाहिए। बेहतर यही होगा कि नियमों का उल्लंघन करने के आरोप में सरकार अखबारों को मुफ्त में दी गई जमीन वापस ले ले।
124. पत्रकारिता में प्रशासनिक अफसरशाही
अस्सी के दशक में अखबारों में संपादकीय प्रशासनिक अफसरशाही का सूत्रपात हुआ। इसमें अखबारों में अफसरशाही शुरू हो गई जिसके शिकार ज्यादातर पत्रकार ही हुए। खासकर अखबार को गढ़नेवाले अच्छे और मेहनती पत्रकार। एक खास तरह की राजनैतिक रणनीति, विचारधारा, वैचारिक मतभेद, वैमनस्यता और आपसी कटुता की वजह से अच्छा काम कर रहे पत्रकार इधर से उधर किए जाते रहे और कई बार तो नौकरी से भी निकाले जाते रहे। इस उठापटक से अखबारों की कार्यशैली तो बिगड़ी ही उसकी तासीर भी क्षतिग्रस्त हुई। जो पत्रकार मेहनत से अखबारों को गढ़ते हुए उन्हें एक अच्छी पहचान दे रहे थे वे दूसरी जगहों पर जाकर अन्यमनस्क से हो गए और फिर आगे कभी मन लगाकर काम नहीं कर पाए। इस तरह प्रशासनिक अफसरशाही के शिकार बने पत्रकारों में एक धारणा बन गई कि चाहे कितना भी मेहनत करो, कोई मालिक या संपादक सगा नहीं होता। इस धारणा के असर से लोग धीरे-धीरे रूटीन होते गए जिससे अखबारों की खासियत खत्म होती चली गई। आंचलिक अखबारों में तो यह प्रयोग अच्छा रहा पर महानगरों में नहीं चल पाया। इस प्रशासनिक अफसरशाही का वार जनसत्ता में भी बहुत हुआ। पहला वार तब हुआ जब जनसत्ता के सांचे में ढले हुए एक बेहतरीन और मेहनती पत्रकार को दिल्ली से हटाकर चंडीगढ़ भेज दिया गया और वहां से फिर उनकी बंबई रवानगी कर दी गई। उनकी जगह जो आए या लाए गए उनका समाचार विभाग में कभी कोई खास योगदान नहीं रहा। फिर परेशान होकर उन्होंने नौकरी छोड़ दी और दूसरे अखबारों में काम करने चले गए। इससे जनसत्ता को नुकसान ही हुआ। छोटी-छोटी गलतियों और बातों को लेकर कुछ बहुत अच्छे पत्रकार नौकरी से निकाल दिए गए। इस संपादकीय प्रशासनिक अफसरशाही की वजह से कई अच्छे पत्रकार जनसत्ता की नौकरी छोड़कर दूसरी जगहों पर चले गए। उनके निकलने के बाद फिर उन जैसी तासीर वाले अच्छे लोग जनसत्ता को कभी नहीं मिले। दैनिक जागरण में तो लोग बताते हैं कि वहां ट्रांसफर सबसे अधिक होता है और लोग इससे हमेशा घबराए रहते हैं कि पता नहीं कब कहां भेज दिया जाए। मेरा मानना है कि अखबार या चैनल आदमी से ही बनता है। कुछ पत्रकार ऐसे होते हैं जो अपनी मेहनत से अखबार को बुलंदियों पर पहुंचा देते हैं तो कुछ ऐसे भी होते हैं जो उसे पतन के गर्त में धकेल देते हैं। जब तक आपके पास अच्छे लोग रहेंगे अखबार अच्छा निकलेगा। इसलिए जरूरी है कि अच्छे लोगों को रोककर रखें। उन्हें भूल से भी चलता न करें। उन्हें छोड़कर भी जाने न दें। उनकी पारिवारिक जरूरतों का खयाल रखें। उनकी गलतियों को क्षमा कर दें। पर अखबार मालिकों और संपादकों का अहंकार ऐसा होने नहीं देता। शायद यही प्रकृति का नियम भी है। कुछ भी स्थाई यानी हमेशा के लिए नहीं होता। अच्छी चीज ज्यादा दिनों तक अच्छी नहीं रहती, खराब हो ही जाती है। कई बार उसके अपने लोग ही उसे खराब कर डालते हैं।
- गणेश प्रसाद झा
आगे अगली कड़ी में....
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