शुक्रवार, 23 दिसंबर 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 54 (अंतिम)

 

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की चौवनवीं और अंतिम किस्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 54 (अंतिम)


127. नए चैनल की तैयारी और भारद्वाज जी के तांत्रिक किस्से

नौकरी जाने के बाद मैं फिर से बहुत निराश हो गया था और जेब में अब पैसे नहीं बचे थे सो वापस गांव लौटने का मन बना रहा था। तभी एक दिन अमित सिन्हा ने फोन किया और कहा कि वे एक धार्मिक चैनल शुरू करने का प्रोजेक्ट कर रहे हैं सो आ जाइए। उनका दफ्तर साकेत मेट्रो से थोड़ा आगे मालवीय नगर में था। मैंने वहां काम करना शुरू किया। वहां वॉयस ऑफ इंडिया के भी कुछ वीडियो एडीटर साथी काम करते मिले। उन दिनों चैनल का लोगो वगैरह बनाने का काम चल रहा था। कुछ कार्यक्रम और दूसरी शुरुआती चीजें भी तैयार की जा रही थीं। वहीं मुझे मिले पुराने जीटीवी के काल कपाल महाकाल फेम के प्रोड्यूसर आरके भारद्वाज। भारद्वाज जी चैनल के लिए नए-नए प्रोग्रामों-कार्यक्रमों की स्क्रिप्ट तैयार करते थे। रात को काम पूरा करने के बाद हमलोग भारद्वाज सर से उनके पुराने दिनों के बेजोड़ अनुभवों की बेहद रोचक कहानियां बिल्कुल एकाग्र होकर सुना करते थे। काम से ज्यादा मन तो भारद्वाज जी के पास बैठने में लगा करता था। उनके पास अनुभवों और जानकारियों का काफी बड़ा भंडार था।

भारद्वाज जी बताते थे कि वे एक टीवी पत्रकार होने के साथ-साथ एक तांत्रिक भी हैं और अघोरपंथ के सफल साधक होने की वजह से एक अघोरी भी। उन्होंने कानून की भी पढ़ाई की थी और एमबीए भी किया था। वे बताते थे कि बचपन से ही उनकी दिलचस्पी श्मशानों में हो गई थी। श्मशानों के प्रति उनका आकर्षण हो गया था और वे वक्त मिलते ही घर में बिना किसी को कुछ बताए चुपचाप श्मशान घूमने चले जाते थे और वहां घंटों अकेले बैठे रहते थे। उनका यह आकर्षण धीरे-धीरे बढ़ता गया और बड़े होने पर उन्होंने एक बड़े तांत्रिक को अपना गुरु बनाकर बाकायदा तंत्र की बड़ी-बड़ी साधनाएं पूरी की। यहां मैं यह साफ कर देना चाहती हूं कि भारद्वाज जी की बताई तंत्र-मंत्र, अघोरपंथ और आत्माओं की कहानियों को यहां लिखकर मैं इन चीजों को प्रेमोट बिल्कुल नहीं कर रहा। इस तरह का मेरा कोई इरादा नहीं है। हां, मैं तंत्र-मंत्र, भूत-प्रेत और आत्मा-परमात्मा को झूठ बिल्कुल नहीं मानता।

भारद्वाज जी बताते थे कि तंत्र साधना में उन्होंने मुर्दों को जिंदा करने की विद्या भी सीखी। फिर इस विद्या का उन्होंने सफल प्रयोग भी किया। उन्होंने बताया कि दुनिया में इस विद्या को जाननेवाले केवल तीन ही लोग हैं (उस समय)। यानी भारद्वाज जी के अलावा दो और तांत्रिक। भारद्वाज जी बताते थे कि यह विद्या बहुत कठिन होने के साथ-साथ बहुत रिस्की भी है। उन्होंने बताया कि जब इस विद्या का प्रयोग किया जाता है तो प्रयोग में शामिल मृत शरीर में बाहर भटक रही कोई आत्मा प्रवेश कर जाती है और धीरे-धीरे वह मृत शरीर जी उठता है। यह बाहरी आत्माएं ज्यादातर शैतानी आत्माएं ही होती हैं। ये आत्माएं ऐसी आत्माएं होती हैं जिनके शरीर का सही ढंग से अंतिम संस्कार नहीं हुआ होता है। ऐसे में वे भटकने लग जाती हैं। उन्होंने यह भी बताया कि ऐसी भटकती दुष्टात्माएं कम से कम हिंदू धर्मावलंबियों की तो लगभग नहीं ही होती हैं। प्रयोग में शामिल उस मुर्दा शरीर की अपनी पुरानी आत्मा उस शरीर में नहीं लौटती। इसलिए इसमें खतरा यह होता है कि मृत शरीर में प्रवेश करने वाली वह बाहरी शैतानी आत्मा कई बार एकाएक हिंसक भी हो जा सकती है और प्रयोग कर रहे उस तांत्रिक की तत्काल जान भी ले सकती है। वह आत्मा वहां प्रयोग स्थल पर मौजूद लोगों को भी मार सकती है। इसलिए यह प्रयोग खतरे से खाली नहीं है।

भारद्वाज जी सुनाते थे कि एक इलाज के दौरान दिल्ली एम्स में कैसे उनकी कई बड़े-बड़े डॉक्टरों से दोस्ती हो गई थी और डॉक्टर जान गए थे कि भारद्वाज जी मुर्दे को जिंदा कर सकते हैं। बात पूरे एम्स में आग की तरह फैल गई थी और डॉक्टर उनसे इस विद्या का प्रयोग करके दिखाने का आग्रह करने लगे थे। शुरू में तो भारद्वाज जी ने साफ मना कर दिया पर जब एम्स के प्रशासक और अस्पताल के बड़े-बड़े डॉक्टर और अधिकारी भी जब उनसे विनती करने लगे तो उन्होंने उनका यह खतरनाक अनुरोध स्वीकार कर लिया। पर उन्होंने शर्त रख दी कि वे मृत शरीर को इस हद तक जीवित नहीं करेंगे कि मुर्दा उठ बैठे। मृत शरीर में हरकत होते ही वे प्रयोग को रोक देंगे। उनकी यह शर्त मान ली गई। पूरी गोपनीयता बरतते हुए एम्स के एक गोपनीय कक्ष में मुर्दाघर में एक अधिक दिनों से पड़ा एक मृत शरीर लाया गया। प्रयोग शुरू करने से पहले डॉक्टरों से उस मृत शरीर की पूरी जांच कराई गई और एक बार फिर से यह सुनिश्चित हो लिया गया कि वह शरीर मृत ही है। कई तरह के टेस्ट करके मुर्दे का सबकुछ जांचा-परखा गया। फिर शुरू हुआ वह अद्भुत प्रयोग। भारद्वाज जी बताते गए कि कुछ देर प्रयोग चलने के बाद मुर्दाघर के फ्रीजर से निकालकर लाए गए उस बर्फीले मृत शरीर में गर्माहट आने लगी। प्रयोग स्थल पर उपस्थित डॉक्टरों ने मुर्दे को जांचा और पाया कि वह मृत शरीर सही मायने में गर्म होने लगा था। प्रयोग के कुछ देर और चलने पर उस मृत शरीर में रक्त का प्रवाह होना शुरू हो गया और नाड़ी चलने लगी। दिल भी धड़कने लगा। वहां मौजूद डॉक्टरों ने उस शरीर पर फिर कई टेस्ट किए और पाया कि मुर्दा वाकई जी उठा था। आगे प्रयोग चलने पर उस शरीर में हरकत होनी थी। भारद्वाज जी अपने प्रयोग को इसी जगह रोक देना चाहते थे क्योंकि आगे गंभीर खतरा आनेवाला था। पर डॉक्टरों ने उनसे थोड़ा और आगे बढ़ने की प्रार्थना की। भारद्वाज जी ने प्रयोग को थोड़ा और आगे बढ़ाया तो मुर्दे का शरीर हिलने-डुलने लगा। बस प्रयोग को यहीं रोक दिया गया। फिर उन्होंने अपनी तांत्रिक क्रिया से उस शरीर को पूरी तरह शांत किया और उसे वापस मुर्दाघर में रखवा दिया गया।

भारद्वाज जी ने बताया कि, मैंने एम्स के प्रशासकों और डॉक्टरों से साफ-साफ कह दिया की अगर वे इस प्रयोग को पूरा देखना चाहते हैं और चाहते हैं कि मुर्दा उठ खड़ा हो और चलने-फिरने की स्थिति में आ जाए तो इसके लिए भारत सरकार से एक आदेश लिखवाकर लाइए कि जब वह मुर्दा उठकर खड़ा हो और चलना शुरू कर दे तो मैं उसे मार डालूं और इसके लिए मुझपर जिंदा हुए उस मुर्दे की हत्या का कोई आरोप न लगे और मुझपर किसी तरह का कोई मुकदमा भी न चले। क्योंकि उस हालत में मैं उसे जिंदा नहीं छोड़ सकता। भारद्वाज जी ने कहा कि सरकार अगर लिखित आदेश दे तो वे इंटरनेशनल मीडिया के सामने और कैमरों के आगे इस प्रयोग को सफलतापूर्वक करके दिखा सकते हैं। पर यह ऐसा विषय है जिसमें इस तरह का कोई लिखित आदेश कोई भी सरकार नहीं देगी।

भारद्वाज जी तंत्र साधना के चक्कर में अपने तांत्रिक गुरु तक कैसे पहुंचे इसकी भी बड़ी दिलचस्प कहानी है। भारद्वाज जी ने बताया कि वे भूत-प्रेत और आत्माओं वगैरह को देखने के लिए हमेशा तांत्रिकों की खोज में लगे रहते थे और तांत्रिकों की तलाश में अक्सर दूर-दूर तक चले जाते थे। इसके अलावा तरह-तरह के झाड़-फूंक करनेवालों से भी वे मिलते रहते थे और उनकी तलाश में भी वे अक्सर दूर-दूर तक चले जाते थे। इस क्रम में उन्होंने देश के कई श्मशानों और दूसरी जगहों के चक्कर काटे और देश के कई बड़े-बड़े तांत्रिकों, झाड़-फूंक करनेवालों और ओझाओं-गुनियों से मिले। भारद्वाज जी ने बताया कि शुरू में कई तांत्रिकों से उनकी भेंट हुई पर कोई उन्हें वह सब नहीं दिखा सका जो कुछ वे प्रत्यक्ष देखना चाहते थे। वादा सभी करते थे पर दिखा कोई कुछ नहीं पाता था। फिर उन्हें एक तात्रिक मिला जिसने कहा कि वह उनको वह सब कुछ दिखा देंगे जो सब वे देखने की मन में तमन्ना लिए फिर रहे है। फिर क्या था भारद्वाज जी उस तांत्रिक के पीछे हो लिए। तांत्रिक उनको एक बड़े जाग्रत श्मशान में अपनी कुटिया में ले गए। दोनों वहीं रहने लगे। तांत्रिक ने उनके बाल मुड़वा दिए और उनको काला वस्त्र पहनने को दिया। पर वहां रहकर भी उनको वहां दिख कुछ भी नहीं रहा था। कई दिन बीत गए कुछ नहीं दिखा। दिखता था तो सिर्फ यह कि लाशों का आना और जलना। कई दिनों तक श्मशान में रहने के बाद भी जब उन्हें कुछ नहीं दिखा तो उन्होंने तांत्रिक को कोसना शुरू किया कि वादा तो बड़े लंबे-चौड़े किए पर दिखा कुछ नहीं पाए। इसपर तांत्रिक ने कहा बस थोड़ा सा और सब्र कर लो। सबकुछ दिख जाएगा। एकाध दिन और निकल गए और तब तांत्रिक ने एक दिन भारद्वाज जी से कहा कि उनको बाहर कुछ काम है इसलिए वे दो दिन के लिए बाहर जाएंगे। तांत्रिक ने भारद्वाज जी से कहा कि आप यहां दो दिन रुको, मैं काम करके लौटता हूं। तांत्रिक ने उनसे पूछा कि अकेले में डरोगे तो नहीं। भारद्वाज जी ने कहा बिल्कुल नहीं। तांत्रिक चले गए। भारद्वाज जी श्मशान की कुटिया में अकेले रह गए। भारद्वाज जी ने देखा कि जब भी कोई लाश आती तो उनको दक्षिणा मिलती थी और साथ में करीने से पैक किया हुआ खाना और बोतलबंद पानी भी आता था। भारद्वाज जी चिंतामुक्त हो गए। पर दो दिन निकल जाने के बाद भी तांत्रिक नहीं लौटे। श्मशान में रोज रात के सन्नाटे में एक औरत के जोर-जोर से रोने और चीखने-चिल्लाने की आवाज आती थी। वह औरत रोते-रोते बोलती भी थी और अपनी पीड़ा बयान करती थी। यह आवाज रोज रात को आती थी। उसी श्मशान में कुछ दूरी पर एक और तांत्रिक बाबा की कुटिया थी। जब वह औरत खूब चिल्लाने लगती और गुस्से में बोलने लगती थी तो वह बाबा उसे डांटने लगते थे और उसे उसका पिछला कर्म याद दिलाने लगते थे। भारद्वाज जी ने उन तांत्रिक बाबा से उस औरत के रोने-चिल्लाने के बारे में पूछा तो बाबा ने बताया कि वह एक प्रेत है। पिछले जन्म में उसकी गर्भवती हालत में हत्या हो गई थी। वह आज तक भटक रही है। वह इसी श्मशान में रहती है। भारद्वाज जी को वहां श्मशान में ऐसे ही कई और प्रेतों से साक्षात्कार हुआ। सबकी अलग-अलग पीड़ा और पिछले जन्म की कहानियां थीं। करीब आठ-दस दिन बीत जाने के बाद वह तांश्रिक लौट आए। आते ही तांत्रिक ने भारद्वाज जी से पूछा कि कुछ दिखाई दिया क्या? भारद्वाज जी ने कहा कि हां, जो कुछ भी मैं देखना चाहता था वह दिख गया। तांत्रिक ने कहा कि उनको कहीं कोई काम नहीं था और वे कहीं नहीं गए थे। वे तो श्मशान के पास ही एक मोहल्ले में एक किराए का कमरा लेकर वहीं पड़े हुए थे और वहीं से भारद्वाज जी को देखते रहते थे। तांत्रिक ने भारद्वाज जी से कहा कि उनको पैक किया हुआ खाना और पानी भी वही भिजवा रहे थे वरना श्मशान में कहीं कोई खाना लेकर आता है क्या। वे इतना कुछ इसलिए कर रहे थे ताकि भारद्वाज जी श्मशान में रुके रहें, वहां से भाग न जाएं। फिर तो भारद्वाज जी ने उसी तांत्रिक को अपना गुरु बनाया और उनके निर्देशन में कई तरह की बेहद कठिन श्मशान साधनाएं पूरी की और कई दुर्लभ सिद्धियां हासिल की।

भारद्वाज जी से वहां उनके बचपन के एक लंगोटिया यार तांत्रिक मिलने आया करते थे। उनके वे तांत्रिक साथी आनंदमार्गी थे। पर वे भी इस तंत्र विद्या में पहुंचे हुए ही थे। उनसे वहां मेरी दो बार मुलाकात हुई थी। ऐसे विचित्र विषयों में मेरी जिज्ञासाओं को देखकर उन्होंने मुझसे कहा था कि, मेरे पास छोटी-बड़ी कई तरह की साधनाएं हैं। इन साधनाओं में चवन्नी-अठन्नी कमानेवाली भी हैं और बड़े-बड़े चमत्कारिक काम करनेवाली भी। चाहो तो थोड़-बहुत कुछ सीख लो।पर मैंने वहां की आर्थिक हालत को डांवाडोल देखकर अमित सिन्हा के उस दफ्तर में जाना ही बंद कर दिया इसलिए बात आगे नहीं बढ़ पाई। भारद्वाज जी का साथ भी वहीं छूट गया। मैं कुछ सालों तक उनके संपर्क में जरूर रहा पर फिर उनसे मिलने और उनके पास बैठने का सौभाग्य फिर नहीं मिल पाया।

 

128. प्रोजेक्ट का लड़खड़ाना और मेरी घर वापसी

 

अमित सिन्हा के इस प्रस्तावित टीवी चैनल के लिए जो चंद लोग काम करते थे उनको कभी समय पर तनख्वाह नहीं मिल पाती थी। दरअसल, अमित सिन्हा को अपने इस प्रस्तावित चैनल के लिए फाइनेंसर की तलाश थी। इसलिए वे चैनल लाने के लिए चल रहे शुरुआती कामकाज को दिखाकर फाइनेंसर पटाने की जुगत में लगे रहते थे। लगभग हर दिन चैनल के छोटे से दफ्तर में नए-नए लोग आते और हमारा कामकाज देख जाते। कई महीने गुजर जाने के बाद भी अमित सिन्हा को कोई फइनेंसर नहीं मिल पाया। इस कारण दफ्तर में हमेशा पैसे का भारी टोटा रहता था। दफ्तर का माहौल पूरी तरह अनिश्चितताओं से भर गया था। भारद्वाज जी भी कहने लगे थे कि वे भी अब दफ्तर आना बंद कर देंगे। सीएनईबी की नौकरी ले निकलने के बाद से मेरी जेब पूरी तरह खाली थी और इस तरह उम्मीदों के सहारे दिल्ली जैसे शहर में रह पाना संभव नहीं था। हालांकि मैं उन दिनों नोएडा के एक निचले इलाके की गंदी बस्ती में रहता था फिर भी जरूरी खर्चों के लिए पैसे नहीं जुटा पा रहा था। जब मैंने देखा कि पैसे अब बिहार लौट जाने भर के ही बच रहे हैं तो मैंने अमित जी से वहां रह पाने में असमर्थता जताते हुए हाथ जोड़ लिया और सामान बांधकर अपने गांव लौट आया।

नौकरी से मेरी यह घर वापसी 54 साल की उम्र में ही हो गई। इस तरह मीडिया में रिटायर होने की तय सरकारी उम्र 58 साल से ठीक चार साल पहले ही मैं रिटायर हो गया। अगर दिल्ली में अपना घर होता तो देर-सबेर कहीं न कहीं किसी अखबार या चैनल में कोई काम मिल ही जाता। पर यहां बिहार अपने गांव लौटकर तो पत्रकारिता करने की कोई गुंजाइश ही नहीं बची थी। दिल्ली में बिना काम और बिना पैसे के टिक पाना बिल्कुल संभव नहीं था। इसलिए मेरे लिए गांव लौट जाने के अलावा कोई और विकल्प था भी नहीं। गांव लौटने के बाद मैंने पटना और बिहार के दूसरे जिलों से छप रहे अखबारों में नौकरी पाने के लिए खूब कोशिश की पर कहीं से भी कोई रिस्पॉंस नहीं मिला। गांव में इसी बेरोजगारी में जीते हुए धीरे-धीरे मैंने रिटायरमेंट की 58 और फिर 60 की उम्र सीमा भी पार कर ली।

 

-समाप्त-


- गणेश प्रसाद झा

आपलोग मेरी इस किताब को पढ़ते रहे इसके लिए आप सभी मित्रों का हृदय से आभार। उम्मीद करता हूं जब यह किताब आ जाएगी तो उसे भी आप जरूर पढ़ना चाहेंगे। किताब में आपको और भी बहुत कुछ मिलेगा जो मैं यहां नहीं दे पाया।


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