एक पत्रकार की अखबार यात्रा की इक्यावनवीं किस्त
पत्रकारिता की कंटीली डगर
भाग- 51
120. मीडिया पर भ्रष्टाचार के आरोप क्या झूठे हैं?
पत्रकारों के भ्रष्टाचार पर कुछ भी लिखना बर्र के छत्ते में पत्थर फेंकने और मुसीबत मोल लेने जैसा काम है। इसमें बिगाड़ का भी बड़ा खतरा है। पर पत्रकार अगर भ्रष्ट हैं तो इसके बारे में देश और दुनिया को जानने का अधिकार है और उनको जानना चाहिए। हम पत्रकार हैं तो उनकी तरफ भी हमें इशारा करना ही होगा। और यह काम भी पत्रकारों का ही है और उन्हें ही यह काम करना होगा। इशारा इसलिए कि पत्रकार कोई जांच एजेंसी तो हैं नहीं जो वे भ्रष्ट पत्रकारों का नाम गिनाएंगे। वैसे इसकी सच्चाई लोग नहीं जान रहे ऐसी बात तो बिल्कुल नहीं है। आज देश का हर आदमी बोलता रहता है कि मीडिया बिकी हुई है। पत्रकार बिके हुए हैं। अखबार मालिक बिके हुए हैं। आप के पास जो दौलत है वह एक नंबर का है या दो नंबर का यह आपका पड़ोसी और मोहल्ले वाले खूब अच्छी तरह जानते हैं। अगर मीडिया ईमानदार होती और पत्रकार दूध के धुले होते तो सभी पत्रकार संपन्न भी होते। पत्रकारों की ऐसी दुर्दशा नहीं दिखती। पत्रकार भ्रष्ट हैं और उन्होंने अपनी पत्रकारिता का गलत इस्तेमाल कर रैकेट चलाया यानी दलाली करके दौलत कमाया ऐसा लिखने पर उन पत्रकारों को बहुत बुरा लगता है जिन्होंने किसी न किसी रूप में इसके जरिए खुद को अनैतिक रूप से लाभान्वित किया है। पर वैसे पत्रकारों की भी संख्या कम नहीं है जो कह रहे हैं कि पत्रकारों का भ्रष्टाचार भी उजागर होना चाहिए। कई पत्रकारों ने मुझसे कहा कि यह सब मत लिखो। बंद कर दो लिखना। जाहिर है कई पत्रकार मेरी इस लेखनी से बहुत नाराज हैं। पर मैं बिगाड़ के डर से ईमान की बात कहने से पीछे नहीं हटूंगा। यह लेखनी कुछ लोगों को कष्ट दे सकती है, पर पत्रकारिता का यह ऐसा पक्ष है जिसके बारे में लिखा जाना बहुत जरूरी है। और लिखने से ही पत्रकारिता का भला भी हो सकेगा।
आज हमारे ही बीच के कुछ पत्रकारों ने तो इतना कमा लिया है कि उनकी आगे की दो-चार पीढ़ियों का बहुत शानोशौकत से गुजारा हो जाएगा। पत्रकारिता में जीते जी जिस पत्रकार ने करोड़ों-अरबों की संपत्ति अर्जित कर ली है उसका बुढ़ापा तो बड़ा आनंदमय होगा। पर आज हमें अखबारों में पूरी जिंदगी श्रमजीवी बने रहे उन पत्रकारों के बारे में भी गंभीरता से सोचना चाहिए जिन्होंने जीते जी कोई संपत्ति नहीं कमाई वैसे पत्रकारों का बुढ़ापा कैसे कटता होगा। इस पेशे में तो कोई पेंशन भी नहीं है। जवानी के जुनून और पत्रकारिता में अपनी लेखनी से व्यवस्था को बदल डालने के हौसले की उड़ान में भला अपना भविष्य किसे दिखाई पड़ता है। उस समय तो सबकुछ अखबार ही दिखाई दे रहा होता है। अपनी इस भूल का अहसास तो तब होता है जब बुढ़ापे में सच की भूमि पर समय उससे हिसाब मांगता है। इसीलिए पत्रकारिता में भ्रष्टाचार पर लिखना जरूरी हो जाता है।
121. मुफ्त में मिली जमीन पर से विदा हो गए अखबार
अंग्रेजों के खिलाफ चलाए गए आजादी आंदोलन में देश के अखबारों की बहुत बड़ी और सक्रिय भूमिका रही। इसलिए आजादी के बाद बनी भारत की पहली सरकार ने अखबारों को राजधानी दिल्ली के पॉश इलाकों में मुफ्त में बेशकीमती जमीन उपलब्ध कराई ताकि अखबार ठीक ढंग से निकल सकें। अखबारों को जरूरत से ज्यादा जमीन दी गई ताकि वे उसपर लंबी-चौड़ी इमारत खड़ी कर लें और अखबार निकालने के लिए अपनी जरूरतभर इमारत अपने पास रखकर इमारत के बाकी हिस्से को किराए पर उठा दें और किराए की नियमित आमदनी की उस रकम से अखबार चलाएं। ऐसा इसलिए किया गया ताकि अखबारों को दफ्तर का किराया न देना पड़े और उसे कभी पैसों का टोटा न हो। अखबार आत्मनिर्भर बनें। पर कुछ जानकार कहते हैं कि सरकार ने उस समय अखबारों को इमारत किराए पर उठाने के लिए नहीं कहा था, वहां इमारत के बाकी हिस्से में अखबार में काम करनेवाले कर्मचारियों को रहने के लिए जगह देने की बात कही गई थी। अखबार मालिकों और सरकार के बीच इन बातों का लिखित समझौता भी हुआ था। इस समझौते में एक शर्त भी है और यह भी लिखा है कि जब तक मुफ्त में आवंटित किए गए उस जमीनों पर से अखबार निकलते यानी छपते रहेंगे तब तक वह जमीन अखबारों के पास रहेगी। जब वहां से अखबार निकलने यानी छपने बंद हो जाएंगे तब वह जमीन वापस सरकार की हो जाएगी। आजादी आंदोलन में भाग लेनेवाले अखबार मालिकों की वह पीढ़ी आज जीवित नहीं है। उन देशभक्त अखबार मालिकों के बेटे-पोते और नाती-नातिन को आज देश भक्ति नहीं सिर्फ बिजनेस और पैसा दिखाई दे रहा है। उन्होंने अखबार को फिजीकली पॉश इलाकों की उन जमीनों पर से हटा दिया और उसे पड़ोसी राज्य के सेटेलाइट टाउनशिप में लेते गए। पिछले कई सालों से अखबार राजधानी दिल्ली में सरकार से मिली खैराती जमीन पर से छपने बंद हो गए हैं और अब वे पड़ोसी राज्य के सेटेलाइट टाउनशिप से छपने लगे हैं। दिखावे के लिए खेराती जमीन पर एक छोटा सा नाम का दफ्तर रहने दिया गया है। बाकी खैराती जमीन पर बनी पूरी की पूरी इमारत महंगे किराए पर चढ़ा दी गई है, सिर्फ पैसा कमाने के लिए। किसी भी अखबार ने अपनी इमारत में अपने किसी कर्मचारी को रहने के लिए कभी कोई जगह नहीं दी है। इस तरह अखबार मालिक सरकार की आंखों में धूल झोंक रहे हैं। यह सरकार से तय हुए समझौते का सीधा-सीधा उल्लंघन है औऱ इस तरह अखबार मालिकों से खैरात में उन्हें राजधानी दिल्ली के पॉश इलाकों में दी गई सारी जमीन उनसे छीन ली जानी चाहिए। पर केंद्र की सरकार कानून तोड़नेवाले अखबार मालिकों पर हाथ डालने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है। राजधानी दिल्ली से छपनेवाले उन राष्ट्रीय अखबारों ने सालों से दिल्ली छोड़ दिया है और पड़ोसी राज्य के एक जिले से छप रहे हैं तो इस तरह वे अब राष्ट्रीय अखबार की हैसियत से नीचे गिरकर महज एक जिले के अखबार भर बन कर रह गए हैं।
- गणेश प्रसाद झा
आगे अगली कड़ी में....
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