पत्रकारिता की कंटीली डगर
भाग- 49
114. देश में करोड़पति पत्रकारों की बड़ी फौज कैसे?
वैसे तो करोड़ रुपए की संपत्ति होना आज की तारीख में कोई बड़ी चीज नहीं है। गांवों में पांच-सात बीघा जमीन होने भर से आदमी करोड़ रुपए की औकात वाला बन जाता है। पर इतनी जमीन आज के लमय में खरीद लेना आसान नहीं है। इतनी जमीन किसी के पास दादाओं-पड़दादाओं की अर्जित तो हो सकती है, पर कोई एक आदमी अपनी जिंदगी में इतनी जमीन बना ले यह आसान नहीं है और ईमानदारी की कमाई से तो बिल्कुल ही संभव नहीं है। हां, आज के समय में कुछ बड़े न्यूज चैनलों के ब्रांड बन गए पुरुष और महिला एंकरों को करोड़-सवा करोड़ की तनख्वाह मिलने लगी है तो उससे कुछ साल में कोई पत्रकार करोड़पति जरूर बन सकता है। पर इतनी मोटी तनख्वाह पानेवाले पत्रकार तो गिने-चुने ही हैं। मैं बात आज की नहीं, कोई दस-बीस-तीस साल पहले की कर रहा हूं। उस समय एक औसत पत्रकार की तनख्वाह हजार रुपए से लेकर तीन हजार और छह हजार रुपए के करीब हुआ करती थी। इतनी ही तनख्वाह पानेवाले कई पत्रकार कुछ ही समय में देखते ही देखते लाख नहीं, करोड़ नहीं, करोड़ों रुपए की संपत्ति के मालिक बन गए। पत्रकारों की इस अमीरी को आप क्या कहेंगे? क्या इतनी तनख्वाह में किसी महानगर में घर का खाना-खर्चा निकालकर किसी हालत में इतना अधिक पैसा जोड़ा जा सकता है। जवाब होगा नहीं। फिर इन पत्रकारों ने इतनी दौलत कैसे बना ली जो वे करोड़ और करोड़ों के मालिक बन बैठे। आप इसपर थोड़ा तजबीज करेंगे तो पाएंगे कि करोड़ और करोड़ों की संपत्ति बनाने के इस जादुई धंधे के पीछे ब्लैकमेलिंग का काला कारोबार ही है। और कोई दूसरा करिश्माई तरकीब है ही नहीं जो एक पत्रकार को केवल अखबारनवीसी से चंद बरसों में इस कदर दौलतमंद बना दे। हां, एक जरिया पॉलीटिकल लायजनिंग का भी है जो रातोंरात किसी पत्रकार की किस्मत बदल सकता है। सरकार में किसी मंत्री-संत्री से किसी बड़े कारोबारी का अंटका पड़ा कोई बड़ा और कठिन काम करवा दीजिए तो उस कारोबारी के साथ-साथ आपकी भी किस्मत बदल जाएगी। किसी बड़े आदमी या कारोबारी की गरदन कहीं फंस गई हो तो उसे छुड़वाने से भी आपकी किस्मत बदल सकती है। चुनाव के समय किसी पार्टी के पक्ष में हवा बनाने के लिए भी पैसे दिए जाने की परंपरा रही है। बड़ी पार्टियां छुनाव के समय बहुत पैसे खर्च करती हैं। पर ऐसे ज्यादातर पैसे अखबारों और समाचार चैनलों को विज्ञापनों के जरिए मिलते हैं। कुछ बड़े नेता लोग भी पैसे खर्च करके अपने पक्ष में हवा बनवाते हैं।
मैंने अपने साथ के और पहचान के कई औसत पत्रकारों को अपनी आंखों के सामने इस तरह महानगरों में चल-अचल संपत्ति खरीदकर दौलतमंद और करोड़ों का मालिक बनते देखा है। एक उप संपादक या रिपोर्टर के लिए मुंबई में आठ करोड़ का मकान खरीद लेना बिना ब्लैकमेलिंग के संभव नहीं है। दिल्ली के एक बड़े अखबार समूह के एक हिंदी अखबार के पत्रकार ने बाद में न्यूज चैनलों में जाकर दिल्ली एनसीआर में कई जगह प्राइम लोकेशनवाले प्लॉट करीद लिए। पत्रकारिता करके अपने घर-परिवार का विदेशी कनेक्शन स्थापित कर लेनेवाले पत्रकार तो बहुतेरे हैं। उनके बच्चे विदेशों में पढ़ रहे हैं या रह रहे हैं। खुद भी उन्होंने कई-कई देशों की यात्राएं कर डाली है। जहां एक औसत पत्रकार आज भी रेल से आनेजाने के लिए बड़ी मुश्किल से स्लीपर का टिकट ले पाता है, वहीं उसके साथ के ज्यादातर औसत पत्रकार एसी में ही चला करते हैं। जिन दिनों दिल्ली से पटना, लखनऊ और जबलपुर का स्लीपर का टिकट 250-300 रुपए के आसपास होता था जो ज्यादातर साथियों को महंगा लगता था, पर दिल्ली के कई पत्रकार उस समय भी एसी का ही टिकट मंगवाते थे। ऐसे पत्रकार मित्र हमेशा लग्जरी वाली लाइफस्टाइल की बातें किया करते थे और उसी जीवनशैली को जीते भी थे। राजधानी दिल्ली में पत्रकारिता की आग में तपनेवाले पटरी पर के एक वरिष्ठ पत्रकार का कहना है कि जब किसी पत्रकार के मुंह से बात-बात में लग्जरी टपकने लगे तो समझ लीजिए बंदा बहुत माल बना रहा है। जो दौलत बटोरने के इस समीकरण को नहीं सीख पाए और ईमानदारी की रोटी खाते रहे वे आज भी नमक-तेल-धनियां-मिरचाई का ही हिसाब जोड़ते दिख रहे हैं।
115. पत्रकारिता में तीरंदाजी का बड़ा खेल
पत्रकारिता को गंदा करने वाले तत्वों और पत्रकारिता की ठेकेदारी करनेवाले पत्रकारों की तादाद कम नहीं है। अखबार के जरिए ब्लैकमेलिंग और कमाई की कहानियां हर शहर में सुनाई देती हैं। स्थानीय स्तर पर लोगों से दलाली की रकम वसूल सकने वाले बड़े अखबारों के पत्रकारों की संख्या भी अच्छी खासी है। हर प्रदेश की राजधानी और व्यावसायिक शहरों जैसे मुंबई, इंदौर, लखनऊ, पटना आदि से भी ऐसी कहानियां आती हैं जिसमें किसी गरीब और औसत पत्रकार के एकाएक रईस बन जाने की कथा लिखी होती है।
मध्य प्रदेश के इंदौर शहर से छपनेवाले हिन्दी के प्रतिष्ठित अखबार नई दुनिया के बारे में वहां के कुछ बेहद पुराने पत्रकार बताते हैं कि नई दुनिया का 1979-81 का दौर स्वर्णिम और बेहद गौरव का वर्ष कहा जाता है। इन्हीं वर्षों में राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर, एनके सिंह, जय सिंह (जिन्होंने मालवी भाषा में एक उपन्यास लिखा था) और अखबार के मालिक अभय छजलानी चर्चा में होते थे। नई दुनिया में पहले पेज पर क्या खबर जानी है उसके जानकार यही लोग होते थे। इन सब के परस्पर मजबूत नजरिए ने नई दुनिया को एक बेमिसाल दैनिक बना दिया था। इस अखबार में उन्हीं प्रारंभिक दिनों में अखबार के पहले प्रशिक्षु रहे कुछ पत्रकार बताते हैं कि उस समय अखबार में स्थानीय पेज के इंचार्ज पत्रकार दिन में चार बजे दफ्तर आते थे और आठ बजे तक पेज का मेकअप कराकर घर चले जाते थे। पूरे शहर में उनकी तूती बोलती थी। उनका इतना असर था कि सरकार ने अखबार के मालिक और टेनिस के खेल प्रेमी रहे अभय छजलानी जी के लिए शहर के एक पॉश इलाके में न केवल जमीन दिलवाई बल्कि बाद में उनको वहां एक भव्य स्टेडियम भी बनाकर दिया। तब वहां के पत्रकार चर्चा किया करते थे कि अभयजी के पास न जाने कहां-कहां और कितने मकान हैं। हो सकता है उस समय यह बात सच भी रही हो।
इसी तरह लखनऊ में अस्सी नब्बे के दशक में और फिर बाद में भी न जाने कितने पत्रकारों ने पत्रकारिता के नाम पर अकूत संपत्ति बनाई। कुछ तो राजनेता भी बन गए। कई पत्रकारों ने लखनऊ, दिल्ली के आसपास ही नहीं,उत्तराखंड तक में अपने लिए ग्रीष्मकालीन आवास बनवा लिए। दिल्ली की बजाए अब सारे राष्ट्रीय दैनिक यूपी के एक जिले में सिमट कर खुद को राष्ट्रीय अखबार होने का दावा करते हैं। पर वास्तव में अब वे जिला स्तर के ही दैनिक रह गए हैं। यही हाल रायपुर में है जिसके बारे में काफी कुछ छपा भी है। तब वहां के मुख्यमंत्री एक पूर्व आईएएस अधिकारी थे। उनके पुत्र आज राजनीति में दौलत संभालने में लगे हैं। ऐसा ही पटना,जयपुर, जम्मू, श्रीनगर तक में भी हुआ। अखबारों की ताकत, उनसे कमाई के पत्रकारों के मौके, मालिकों में उनके प्रति ईर्ष्या बढ़ाते गए। संपादक पद पर मालिक आ गए और संपादक उनके मैनेजर और प्रेत लेखक बन गए। राष्ट्रीय अखबारों मे आमतौर पर राजनीति, ब्यूरो,खेल, धर्म-ज्योतिष और स्थानीय खबर और व्यापार के पन्नों को उपहार संस्कृति में मान लिया गया है। राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी इन आरोपों में कभी नहीं घिरे। पर आज जो कुछ हो रहा है वह सब हमलोग देख ही रहे हैं। अखबारों के पेज बिक जाते हैं। न्यूज चैनलों का पूरा का पूरा शो ही बिक जाता है। पैसे लेकर मनमाफिक इंटरव्यू आयोजित होते हैं और शो क्रिएट किए जाते हैं।
दक्षिण भारत का एक बड़ा मीडिया हाउस जिसका नाम बताने की जरूरत नहीं है, उसके मालिक अपने शुरुआती दिनों में अचार बना कर बेचते थे। धीरे-धीरे उन्होंने प्रगति की और अखबार शुरू कर लिया। अखबार की प्रगति के साथ वे फिल्म निर्माण में भी उतर गए और अपने नाम से एक फिल्म सिटी ही बना डाली। धीरे धीरे सैटेलाइट चैनल का जमाना आया तो कुछ चैनल भी लांच कर दिया और उसे बहुत सफलतापूर्वक चलाते भी रहे। आज तेलंगाना के सैकड़ों किलोमीटर के लंबे-चौड़े पर्वतीय भूभाग पर उनका साम्राज्य कायम है। पर क्या यह सब ईमानदारी की कमाई से अर्जित किया गया होगा या ऐसे ही हो गया होगा, बिना किसी रैकेट के। अगर ऐसे ही हो जाता होता तो और भी बहुत सारे लोग कर लिया करते। इसलिए इतना तो मान ही लीजिए कि इन सब सफलताओं के पीछे एक बहुत बड़ा खेल हुआ होता है। और अचारवाले के किए हुए इस खेल को ही मीडिया में तीरंदाजी का खेल कहते हैं।
हर क्षेत्र में तीरंदाज होते हैं। उनमें शायद एक तरह की खानदानी जीन होती है जो वह गुर सिखा देती है जिसके कारण वे मौकों का लाभ उठाने लगते हैं। वे लोग मेहनती तो नहीं होते पर वे खुद को उद्योग मालिकों, प्रबंधकों,नेताओं, अफसरों और समाज में उनको महान बताते हुए अपना बखान करते हुए उनसे झूठे-सच्चे तरीकों से पारिवारिक, राजनैतिक और सामाजिक रिश्ते अलबत्ता विकसित कर लेते हैं। इसके चलते एक तरह की बार्टर प्रणाली विकसित हो जाती है जो उन्हें ऐश्वर्य की ओर ले जाती है। पत्रकारों का राज्यसभा जाना भी एक तीरंदाजी ही तो है जिसके लिए बड़े-बड़े पत्रकार-संपादक लालाइत रहते हैं।
मुझमें ऐसा कोई गुण या हुनर कभी नहीं रहा। इसलिए मैं इस चक्कर में भी कभी नहीं पड़ा। इसी कारण मैं कभी चारण भी नहीं बन सका। इस जिद के कारण ही मैं खुद को किसी बड़े और पहुंचवाले पत्रकारों की श्रेणी में या उनके बहुत दूर-दूर तक भी कहीं नहीं रख सका। यहां तक कि उनके पिछलग्गू होने तक की स्थिति भी अपनी कभी नहीं बन पाई। ऐसे में मैं यह नहीं जानता कि खबरों की ट्रेडिंग किस स्तर पर होती है और उसका लाभ कैसे मिलता है जिसे बांटते हुए अपना नेटवर्क बनाया जाता है। पर यह सब खूब होता है। खबरों की ट्रेडिंग भी खूब होती है और इसके लिए बड़े पत्रकारों का अपना नेटवर्क भी खूब होता है। संपादकों का भी अपना एक नेटवर्क होता है। यह नेटवर्क बहुत ताकतवर होता है। नेटवर्क वाला वह संपादक इस हालत में हो जाता है कि खबर रोकने से क्या लाभ होगा और मिलने वाली रकम का हिस्सा कैसे बांटना है जिससे काम करने वाले साथ बने रहें और आगे भी गुड़ आता रहे।
ऐसे भी कई संपादक हैं जो लंबे समय तक संपादक तो रहे पर अपना कभी कोई नेटवर्क नहीं बना पाए। कमाने की इस विद्या में माहिर संपादकीय कर्मियों के बारे में कहें तो वे चाहे समाचार के पन्नों पर हों या डाक, व्यापार या खेल के पन्ने पर या फिर वे राजनीतिक टिप्पणीकार हों, वे वहां से भी अच्छा खासा कमा ही लेते हैं। इसी कारण वे मरते दम तक पत्रकार बने रहना चाहते हैं। फिर खुद के कृतित्व को अभिलेखागार में रखने के लिए उद्विग्न भी दिखते हैं। ऐसे पत्रकार कम नहीं हैं जबकि उनका लिखा सारा कुछ किताबों में भी छपा ही होता है।
अंग्रेजी के पत्रकार पहले खासा कमाते रहे हैं। भाषाई अखबारों के कर्मियों ने इनसे ही यह गुर सीखा। हालांकि आज विजुअल मीडिया, छोटे स्तर पर यू-ट्यूब से जुडे लोग इसमें ज्यादा कामयाब हैं। गैर हिंदी भाषाओं में सक्रिय लोग इसके उदाहरण हैं। इन क्षेत्रों में अग्रेजी पत्रकार कुछ ही हैं। हो सकता है भाषा पर उनका उतना कमांड न हो। संगीत, संवाद डिलीवरी, नाटकीयता और प्रस्तुति वगैरह ज्यादा खर्चीला होता हो।
116. अस्तित्व की लड़ाई और चाय का ठेला
जो पत्रकार तीरंदाजी नहीं सीख पाए या कभी ऐसा नहीं कर पाए वे आज हेंड टू माउथ वाली स्थिति में हैं या फिर उससे भी नीचे आ गए हैं। ज्यादातर ईमानदार पत्रकार आज बहुत बुरी हालत में जी रहे हैं। नौकरी से निकले वैसे पत्रकारों का एक बड़ा तबका जिसमें कई सारे दौलतमंद पत्रकार भी शामिल हो गए हैं, आज यू-ट्यूबर बन गए हैं। हालत यह है कि जिसे देखो मोबाइल लिए पत्रकार बना हुआ है। पर यह भी जान लीजिए कि इस यू-ट्यब की पत्रकारिता में भी बड़े-बड़े रैकेट तक हो रहे हैं और जमकर तीरंदाजी की जा रही है। जो पहले नौकरी में रहते हुए तीरंदाज थे वे यहां भी उसके लिए जुगाड़ बना ही ले रहे हैं। ऐसे बहुत से पत्रकार हैं जो अब नौकरी में नहीं हैं और इस यू-ट्यूब की पत्रकारिता के जरिए आजकल काफी संपन्नता का जीवन जी रहे हैं। पर कहते हैं इसमें थोड़े ऐसे भी हैं जिनके लिए यह बमुश्किल दो वक्त की दाल-रोटी जुटाने का एक जरिया मात्र है।
दूसरी तरफ जो वास्तव में श्रमजीवी पत्रकार हैं उनके लिए यह समय अस्तित्व की लड़ाई है। इसीलिए अच्छे पत्रकार को अब कंपनियां सम्मानजनक जिंदगी जीने लायक वेतन नहीं देना चाहतीं क्योंकि लोग सस्ते में और बगैर पैसे के भी काम करने को तैयार हैं। यहां तक कि कुछ सुविधा शुल्क और विज्ञापन आदि देने को भी तैयार हैं। सब तो नहीं लेकिन बहुत से पत्रकार प्रापर्टी डीलिंग और दलाली करने वाले भी बन गए हैं। आखिर मीडिया हाउस को भी तो चलाने के लिए पैसा चाहिए।
नौकरी जाने से कठिन हालात में पड़ गए पत्रकार आज मजबूरी में चाय भी बेचने लगे हैं। कुछ पत्रकार थोड़े से पैसे में लोगों के दरखास्त लिखने और फार्म भरने का भी काम कर रहे हैं। वैसे चाय का ठेला यानी सड़कों-चौराहों पर छोटा टी-स्टाल लगाने का धंधा बुरा नहीं है। यह इज्जत की ही रोटी देती है। पर पत्रकारों का इस ओर जाना चिंता का विषय जरूर है। वह दिन दूर नहीं जब वास्तविक पत्रकार सम्मानजनक नौकरी न मिलने पर चाय की दुकान, पटरी दुकानदार या अन्य कोई रोजगार ढूंढने को मजबूर होंगे। आखिर भूखे मरने से तो अच्छा है ही। वास्तविक पत्रकारों की जगह धीरे-धीरे तिकड़मबाज कब्जियाते जा रहे हैं। यह आगे भी होगा। बहुत कम पत्रकार ऐसे होंगे जो पंद्रह बीस साल की नौकरी के बाद संपादक या उसके समकक्ष पहुंच पाएंगे।
– गणेश प्रसाद झा
आगे अगली कड़ी में....
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