शनिवार, 9 अप्रैल 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 12


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की बारहवीं किश्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 12


25, पंजाबी संपादक का हिन्दी पट्टी से बैर

चंडीगढ़ जनसत्ता में हमारे स्थानीय संपादक जितेंद्र बजाज (जितेंद्र कुमार बजाज) कई मामलों में बहुत ही अहंकारी और काफी बायस्ड इंसान थे। बजाज जी पंजाब के थे। वे हिंदी पट्टी के लोगों को बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। उन्हें सिर्फ पंजाब, हरियाणा और हिमाचल के लोग ही अच्छे लगते थे। ज्ञान, भाषा शैली और समझदारी भी उन्हें उन राज्यों के लोगों की ही अच्छी लगती थी। उनका मानना था कि बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों को अंग्रेजी तो नहीं ही आती, हिंदी भी ठीक से नहीं आती। वे कई बार अपनी इस दुर्भावना का खुलेआम बोलकर इजहार भी किया करते थे। पर वे मध्य प्रदेश के लोगों की भाषा को लेकर कभी कुछ नहीं बोलते थे। इसका एक मात्र कारण था कि हमारे प्रधान संपादक प्रभाष जोशी जी मध्य प्रदेश के थे। प्रभाष जोशी जी ने पत्रकारिता भी अपने गृह राज्य मध्य प्रदेश से ही शुरू की थी। प्रभाष जी इंदौर के प्रतिष्ठित अखबार नई दुनिया के बहुचर्चित पत्रकार रहे थे। हिन्दी भाषा के मामले में नई दुनिया एक मानक अखबार माना जाता है। इसलिए मध्य प्रदेश और वहां के लोगों की भाषा पर कोई टिप्पणी करने की जितेंद्र बजाज जी की कभी हिम्मत नहीं होती थी। जितेंद्र बजाज पंजाब के मुक्तसर जिले के गिद्दड़बाहा के रहनेवाले थे और इसलिए पंजाबियों की अंग्रेजी और हिंदी भाषा की उनकी समझ को ही वे सर्वश्रेष्ठ मानते थे। बाकी हरियाणा और हिमाचल के लोगों से उन्हें कभी कोई शिकायत नहीं रहती थी। इसलिए बिहार के हम दो पत्रकार- मैं और प्रियरंजन भारती शुरू से ही उनके निशाने पर आ गए। लखनऊ के राजीव मित्तल से भी उनका अक्सर पंगा होता रहता था। छोटी-छोटी बातों पर दोनों की अक्सर भिड़ंत हो जाती थी। यह भिड़ंत दफ्तर से लेकर उनके घर तक भी जारी रहती थी। पर राजीव मित्तल उन्हें कभी हावी नहीं होने देते थे। राजीव मित्तल नवभारत टाइम्स के लखनऊ संस्करण से आए थे। प्रभाष जी ने उनको मुख्य उप संपादक की जिम्मेदारी दे रखी थी।

प्रभाष जोशी जी ने चंडीगढ़ में हम सबको काफी ठोक-बजाकर नौकरी पर रखा था। हममें से हर कोई कहीं न कहीं से अखबार की जमी-जमाई नौकरी छोड़कर ही चंडीगढ़ जनसत्ता आया था। पर जितेंद्र बजाज जी अपने अहंकार और गुरूर में प्रभाष जी को सुपरसीड करते हुए उनके चयन को कबाड़ा बताने लगे थे। दरअसल, जितेंद्र बजाज ही पत्रकारिता के लिए एक कबाड़ थे। उनको पत्रकारिता का रत्ती भर का भी अनुभव नहीं था। वे फिजिक्स में पीएचडी थे और विद्वान थे। अखबारों में कभी-कभार लेख लिखा करते थे। वह भी जनसत्ता का संपादक बनने के बाद। बस यही उनकी कुल जमा पत्रकारिता थी। वे न्यूज के आदमी बिल्कुल ही नहीं थे। और अखबार के लिए न्यूज का आदमी होना पहली शर्त होती है। कोई भी वैज्ञानिक, फिजिसिस्ट, रसायनशास्त्री, गणितज्ञ, फिजिसियन, कॉर्डियोलॉजिस्ट या साहित्यकार किसी अखबार का सफल पत्रकार या संपादक नहीं हो सकता। सबकी महत्ता अपनी-अपनी जगह पर है। सभी अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ होते हैं।

चंडीगढ़ जनसत्ता का स्थानीय संपादक इंडिया टुडे के वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह को बनाना तय कर लिया गया था, पर जब उन्होंने अंतिम क्षणों में चंडीगढ़ नहीं जाने का फैसला कर लिया और कुछ समय तक मान-मनव्वल करने के बाद भी जब वे आने को राजी नहीं हुए तब जाकर आनन-फानन में जितेंद्र बजाज को नियुक्त कर लिया गया। बजाज जी की तो मानो लॉटरी लग गई। न कोई टेस्ट, न कोई कसौटी। न पत्रकारिता का कोई अनुभव। बस रख लिए गए और बना दिए गए स्थानीय संपादक। चंडीगढ़ जनसत्ता के हमारे समाचार संपादक देवप्रिय अवस्थी स्थानीय संपादक के लिए सबसे योग्य व्यक्ति थे। अगर उन्हें स्थानीय संपादक बना दिया गया होता तो वे वहां जनसत्ता को बुलंदियों पर ले गए होते और अखबार की ऐसी गत कभी न हुई होती जो जितेंद्र बजाज जी ने अपने आने के थोड़े ही दिनों में बना दी। देवप्रिय अवस्थी जी में अखबार के कामकाज की गजब की क्षमता थी और उन्हें इसका काफी लंबा अनुभव भी था। वे जनसत्ता के सांचे में पूरी तरह से ढले हुए व्यक्ति भी थे।      

प्रधान संपादक प्रभाष जोशी ने स्थानीय संपादक जितेंद्र बजाज को चंडीगढ़ जनसत्ता के कामकाज के मामले में फ्री हेंड दे दिया था। हमारी नियुक्ति के समय तो कोई स्थानीय संपादक था ही नहीं। जितेंद्र बजाज तो बहुत बाद में आए थे। पर आते ही उन्होंने खुद को मिले इस फ्री हेंड अधिकार का बेजा इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। वे अपनी लाइन बड़ी करने के लिए प्रधान संपादक को कुछ करके दिखाना चाहते थे। सो उन्होंने मुझे और प्रियरंजन भारती को बात-बात में नीचा दिखाना और निकम्मा साबित करने का प्रयास करना शुरू कर दिया। उन्होंने कई बार प्रधान संपादक प्रभाष जोशी जी को यह लिख भेजा कि गणेश प्रसाद झा और प्रियरंजन भारती को काम नहीं आता और इनकी हिंदी और अंग्रेजी दोनों बेकार है। बार-बार ऐसी चिट्ठी भेज-भेजकर वे प्रधान संपादक की नजर में हम दोनों को नकारा साबित करते रहे। हमारे बारे में कोई फैसला करने से पहले प्रभाष जी एक बार चंडीगढ़ आए और डेस्क पर बैठकर चुपचाप हम दोनों की कॉपियां अपनी स्टाइल में देख भी गए। उन्हें वैसा कुछ देखने को नहीं मिला जैसा जितेंद्र बजाज जी उनको बार-बार फीड कर रहे थे। हमलोग सभी उस समय छह-चह महीने के प्रोबेशन पर चल रहे थे। जितेंद्र बजाज ने हम दोनों को छह महीने के इस प्रोबेशन पीरियड के अंदर ही निकाल देने की योजना बना रखी थी। पर प्रभाष जी हम दोनों का काम आकर अपनी आंखों देख गए थे सो वे हमें नौकरी से हटाने के वारंट पर दस्तखत करने को राजी नहीं हुए। लिहाजा छह महीने का हमारा प्रोबेशन पीरियड खुशी-खुशी गुजर गया। हम अपनी कनफर्मेशन का इंतजार करने लगे। पर हमें कनफर्मेशन की चिट्ठी नहीं दी गई। इसके बाद हम दोनों को दिनांक- 20-10-1987 को जारी एक चिट्ठी दी गई जिसमें हमारा प्रोबेशन पीरियड और दो महीनों को लिए बढ़ा दिया गया। नियुक्ति वाला हमारा छह महीने का पहला प्रोबेशन दिनांक- 22-10-1987 तक का था। इसे और दो महीनों के लिए बढा दिया गया। इस तरह कनफर्मेशन की चिट्ठी मिलने का हमारा इंतजार फिलहाल खत्म हो गया। हम सोचने लगे कि अब दो महीने बाद ही हमें कनफर्मेशन की चिट्ठी दी जाएगी।

इस बीच, जितेंद्र बजाज ने प्रभाष जोशी को हमारे खिलाफ कान भरने और हमें नकारा साबित करते रहने का अपना अभियान भी जारी ही रखा। आखिरकार प्रभाष जोशी जी ने जितेंद्र बजाज की बात मान ली और हमें हटाने के वारंट पर हस्ताक्षर कर दिया। बस फिर क्या था, हमें दिनांक- 23-12-1987 को एक चिट्ठी दी गई जिस पर दिनांक- 23-11-1987 की तारीख पड़ी थी। यानी वह चिट्ठी एक महीने पहले ही जारी हुई थी और हमें एक महीने बाद दी गई। यह हमें नौकरी से निकाले जाने की चिट्ठी थी। इस चिट्ठी में लिखा था कि हमारी नौकरी दिनांक- 23-12-1987 से समाप्त कर दी गई है। बाद में मैंने पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट में लेबर लॉ के मामले देखनेवाले एक जानकार वकील से इस बारे में पूछा था तो उन्होंने बताया था कि आप किसी नौकरी में अगर 6 महीने का प्रोबेशन पीरियड सकुशल पार कर लेते हैं और इस अवधि के बाद भी वहां नौकरी में बने रहते हैं यानी 6 महीने के प्रोबेशन से एक-दो दिन भी ज्यादा काम कर लेते हैं तो फिर 6 महीने की इस प्रोबेशन अवधि के बाद प्रबंधन को आपको कनफर्म करना ही पड़ेगा। यह कानून है। पर हमें तो आठ महीने की नौकरी पूरी कर लेने के बाद सेवा मुक्त कर दिया गया। मैं इस हालत में बिल्कुल नहीं था कि कंपनी से कोई मुकदमा लड़ता। फिर यह सब शोभा भी नहीं देता क्योंकि प्रभाषजी मेरे लिए पूजनीय थे और रहे।

26. खुद को बताया बेकसूर

जनसत्ता की नौकरी से निकाले जाने के दो दिन बाद चंडीगढ़ छोड़ने से पहले मैं एक दिन सुबह-सुबह अपने संपादक जितेंद्र बजाज जी से मिलने उनके घर गया। बजाज जी उन दिनों अकेले ही रहते थे। बैठकखाने में टेबल पर शहर के सारे अखबार ऱखे थे और एक चाय से भरा थर्मस रखा था जो एक मोटे कंबलनुमा कपड़े के कवर से ढका हुआ था। मुझे लगा कि थोड़ी ही देर पहले उन्होंने चाय पी थी। हमारी बातचीत शुरू हुई तो थोड़ी लंबी चली। उन्होंने मुझसे मेरे घर-परिवार के बारे में पूछा। मैंने उन्हें अपनी पारिवारिक स्थिति और गरीबी बता दी और कहा कि मेरे लिए नौकरी करना कितना जरूरी है। बातचीत के दौरान उन्होंने मुझे आग्रह करके दो बार चाय पिलाई। बजाज जी बोले, मन में कुछ मत रखना। यह मत समझना कि मैंने ही तुमलोगों को नौकरी से निकाला है। तुमलोगों को निकालने का फैसला तो बहुत पहले ही हो गया था। पर मैं चाहता था कि तुम दोनों (मैं और प्रियरंजन भारती) खुद ही नौकरी छोड़ दो। पर तुमलोगों ने जब इस्तीफा नहीं दिया तो मुझे तुम दोनों को टर्मिनेशन लेटर देकर निकालना पड़ा। बातचीत में बजाज जी ने मुझे यह समझाने की खूब कोशिश की कि नौकरी से निकाले जाने में उनका कहीं से कोई हाथ नहीं है। जो कुछ भी हुआ है, सब कुछ अखबार के प्रधान संपादक प्रभाष जी का ही किया हुआ है।

हम चंडीगढ़ से लौट आए। बाद में मैंने दिल्ली में रहकर फ्रीलांसिंग करने और नौकरी तलाशने का अभियान शुरू किया तो बहादुरशाह जफर मार्ग का एक्सप्रेस बिल्डिंग और वहां स्थित अन्य अखबारों के दफ्तरों में लगभग रोज ही जाने लगा और इस सिलसिले में प्रभाष जी से बहुत बार मिलना हुआ। उन मुलाकातों में खुद प्रभाष जी ने मुझे बताया कि वे मुझे और प्रियरंजन भारती को नौकरी से निकालने के पक्ष में बिल्कुल ही नहीं थे। पर जिंतेंद्र बजाज जी हमें निकालने पर अड़े हुए थे और उन्हें प्रभाषजी ने फ्री हेंड दे रखा था इसलिए अंत में न चाहते हुए भी दुखी मन से प्रभाष जी को हमें निकालने के फैसले को अपनी मंजूरी देनी पड़ी।

मेरे कैरियर का सर्वनाश करनेवाले जितेंद्र बजाज ज्यादा दिनों तक जनसत्ता में नहीं टिक पाए। चंडीगढ़ जनसत्ता के डेस्क और रिपोर्टिंग से लेकर प्रूफरीडिंग तक के कई साथियों के साथ भी उन्होंने दुर्व्यवहार किया। मेरे वहां से निकलने के कुछ समय बाद प्रदीप पंडित, सुधांशु मिश्र और नीलम गुप्ता भी चंडीगढ़ से दिल्ली आ गईं। सभी उनसे पीड़ित थे। इन कारणों से धीरे-धीरे उनका भी पाप का घड़ा भरता गया और थोड़े ही समय बाद उनको जनसत्ता छोड़ना पड़ा। उनके कामकाज के तरीकों और जनसत्ता के कर्मचारियों से उनके फूहड़ व्यवहार को लेकर काफी समय से खफा चल रहे प्रभाष जोशी जी ने उनसे इस्तीफा मांग लिया। जितेंद्र बजाज जी इसके बाद चेन्नई जाकर सेंटर फॉर पॉलिसी स्टडीज से जुड़ गए। वे अभी उसके संस्थापक निदेशक हैं।

27. नॉन जर्नलिस्ट संपादक

जितेंद्र बजाज जनसत्ता के स्थानीय संपादक भले बना दिए गए, पर वे कहीं से भी पत्रकार नहीं हैं। उन्हें पत्रकारिता की कोई समझ नहीं है। हां, वे एक अच्छे विद्वान जरूर हैं। फिजिक्स से ऑनर्स करने के बाद थ्योरेटिकल फिजिक्स में उन्होंने पीएचडी किया है। जनसत्ता आने से पहले वे मद्रास विश्वविद्यालय में थ्योरेटिकल फिजिक्स के यूजीसी रिसर्च एसोसिएट, आईआईटी बंबई में ह्यूमेनिटीज एंड सोशल साइंसेज विभाग में फिलॉसोफी ऑफ साइंस के रिसर्च फेलो, आईआईटी बंबई में फेलो ऑफ इंडियन काउंसिल ऑफ सोशल साइंसेज रिसर्च (आईसीएसएसआर) और दिल्ली में फेलो ऑफ सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग साइंसेज रहे। वे फिजिक्स के एक अच्छे विद्वान जरूर हो सकते हैं, पर जनसत्ता में आने से पहले पत्रकारिता में उनका कोई बॉयो नहीं रहा।

जितेंद्र बजाज डेस्क के कामकाज में बहुत अधिक और अनावश्यक दखल दिया करते थे। पर हिन्दी का उनका वाक्यविन्यास तक सही नहीं था। वे खबरों का फ्लो बिगाड़ देते थे। खबरों की अच्छी हेडिंग को भी वे खराब कर देते थे। पत्रकारिता में उनका पहले से कोई छोटा-मोटा योगदान भी नहीं था जिस कारण जनसत्ता में डेस्क के लोग, खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश के अच्छे अखबारों से आए पत्रकार भी उनको मूर्ख नजर आते थे। पंजाब के सारे पत्रकार उनको प्रिय थे और मध्य प्रदेश वाले उनको प्रधान संपादक प्रभाष जोशी जी के डर से अच्छे लगते थे। हरियाणा और हिमाचल के पत्रकार भी उनको अच्छे और समझदार ही लगते थे। उनके कामों में वे कभी कोई गलती नहीं निकालते थे। बजाज जी की नजर में वे सभी परफेक्ट थे। और बाकी लोग उनकी नजर में एकदम बेकार और नकारा थे। पत्रकारिता में जितेंद्र बजाज की इस नाकाबिलियत को जनसत्ता को हिन्दी पत्रकारिता के पटल पर लानेवाले कुछ बहुत बड़े पत्रकार भी मुक्त कंठ से स्वीकारते रहे हैं।

पत्रकारिता में जितेंद्र बजाज जी की इस नाकाबिलियत की वजह से चंडीगढ़ जनसत्ता को भी भारी नुकसान हुआ। हमने दिल्ली जनसत्ता के मंजे हुए समाचार संपादक और हिन्दी के जानेमाने पत्रकार देवप्रिय अवस्थी जी के नेतृत्व में काफी मेहनत से जनसत्ता चंडीगढ़ को पंजाब के बेहद मजबूत अखबार पंजाब केसरी के सामने खड़ा किया था। पर जितेंद्र बजाज जी ने आते ही अपने बेहद कड़वे व्यवहार और फिजिक्स के विद्वान होने का अपना अहंकार और गुरूर दिखा-दिखाकर पंजाब केसरी से लड़ने की हमारी ऊर्जा को शांत कर हमारे जुनून को ही धराशायी कर दिया। चंडीगढ़ में जनसत्ता को स्थापित करने का हमारा जुनून इस कदर मजबूत था कि 6 जुलाई 1987 को शाम ढलते ही जब समाचार एजेंसी ने चंडीगढ़ से महज 34 किलोमीटर दूर लालड़ू में सिख आतंकवादियों द्वारा एक रोडवेज बस से 38 हिन्दू मुसाफिरों को उतारकर गोलियों से भून देने की खबर आई तो नैनीताल से नौकरी करने चंडीगढ़ आए हमारे साथी रिपोर्टर जगमोहन फुटेला बिना किसी एसाइनमेंट के अपनी इच्छा से जान की परवाह किए वगैर फोटोग्राफर को साथ लेकर फौरन घटनास्थल की ओर दौड़ पड़े और देर रात पेज छूटने से पहले खबर लेकर आ गए। यह हमारा जुनून ही तो था जो हम लोग शुरू के कई महीनों तक चंडीगढ़ के एक धर्मशाले में साथ मिलकर रहे और सुबह 10 बजे ही सभी दफ्तर पहुंच जाते थे और कई बार देर रात को अखबार छूटने के बाद ही लौटते थे। पर जितेंद्र बजाज जी की पत्रकारीय नाकाबिलियत ने सबकुछ चकनाचूर कर दिया।

मेरा करियर खराब करके मुझे सड़क पर दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ देने और इस तरह मेरे बच्चों का जीवन नष्ट करने में जितेंद्र बजाज जी का बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने अपना और अपने परिवारजनों का भविष्य तो अच्छी तरह संवार लिया, पर मेरा और मेरे बच्चों का भविष्य चौपट कर दिया। मैं पटना के चर्चित अखबार पाटलिपुत्र टाइम्स की नौकरी छोड़कर चंडीगढ़ जनसत्ता गया था। जनसत्ता की नौकरी से निकाले जाने के बाद जब मैं वापस पाटलिपुत्र टाइम्स मैं नौकरी मांगने गया तो संपादक की इच्छा के वावजूद मुझे वहां मेनेजमेंट ने फिर से नौकरी पर लेने से साफ मना कर दिया क्योंकि मैं वहां से अपनी अच्छी भली नौकरी छोड़कर आया था।

जितेंद्र बजाज जी का दंश मुझे लंबे समय तक झेलना पड़ा और मैं साल भर से भी अधिक समय तक पटना और दिल्ली की सड़कों पर धूल फांकता रहा। वे मेरे बड़े बुरे दिन थे। बहुत थोड़े समय के लिए दिल्ली की फ्लीट स्ट्रीट कही जाने वाली सड़क बहादुरशाह जफर मार्ग पर स्थित प्रताप भवन में वीर अर्जुन अखबार में मुख्य उप संपादक का काम करने का मौका मिला। पर वहां के प्रभारी संपादक (अनिल नरेंद्र नहीं) रोज शाम को शराब के नशे में धुत रहते थे और दफ्तर में खूब अंड-बंड बोलते थे। मैं उन्हें नहीं झेल सका और खुद नौकरी छोड़ दी। मैंने जितने दिन वहां काम किया था उसका वेतन भी उन्होंने मुझे मेनेजमेंट से दिलवाने से मना कर दिया था। अपनी आदतों की वजह से कुछ समय बाद ही वे दिवंगत हो गए।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....



मंगलवार, 5 अप्रैल 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर - 10


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की दसवीं किश्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 10

21. जनसत्ता का बड़ा कैनवास

धनबाद और पटना में  रहते हुए जनसत्ता में खोज खबर और खास खबर पेज पर लिखने का क्रम तो चल ही रहा थाजनसत्ता में नौकरी के लिए भी प्रयास करता रहा था। जनसत्ता में उन दिनों जिलों से रूटीन की खबरें भेजने और छपने के लिए भी बहुत मारामारी थी। जनसत्ता का जिला संवाददाता बनने के लिए भी बहुत सारे पत्रकार लाइन में लगे रहते थे। धनबाद के अखबारों में काम करने के दौरान मैंने नेशनल एक्सपोजर के लिए जनसत्ता के लिए जिले से खबरें लिखने के लिए उसका संवाददाता बनने की कोशिश की थी पर सफलता नहीं मिली थी। जनसत्ता के दिल्ली दफ्तर से जवाब आया था कि अखबार फिलहाल हर जिले में संवाददाता रखने की स्थिति में नहीं है। फिलहाल और नए संवाददाता भी नहीं रखे जा रहे। जनसत्ता के दिल्ली संस्करण में शुरू में जब भर्तियां हो रही थी तो आवेदन करने से ही चूक गया था और बाद में अर्जी भेजने पर दो बार प्रशिक्षु उप संपादक के लिए मौका मिल रहा था इसलिए गया नहीं। एक मौका नवंबर 1985 में मिला था जब 18-11-1985 के पत्र में तत्कालीन समाचार संपादक श्यामसुंदर आचार्य जी ने मुझे 2 दिसंबर 1985 को लिखित परीक्षा के लिए दिल्ली जनसत्ता के दफ्तर बुलाया था। उस समय मैं धनबाद में दैनिक चुनौती में उप संपादक था। फिर दूसरा मौका जुलाई 1986 में मिला था जब 29 जुलाई 1986 के पत्र में संपादक प्रभाष जोशी के सचिव राम बाबू ने मुझे लिखित परीक्षा के लिए 17 अगस्त 1986 को जनसत्ता के दिल्ली दफ्तर बुलाया था। दोनों चिट्ठियां जनसत्ता के दिल्ली संस्करण में नौकरी के लिए थीं। उस समय मैं पटना में पाटलिपुत्र टाइम्स में उप संपादक था। उप संपादक रहते प्रशिक्षु उप संपादक बनने कैसे जा सकता था सो नहीं गया।

पर जब चंडीगढ़ संस्करण के लिए उप संपादक पद पर भर्ती का विज्ञापन आया तो मैंने कोई गलती नहीं की और अर्जी भेज दी। उस समय भी मैं पटना में पाटलिपुत्र टाइम्स में था। उन दिनों पंजाब में आतंकवाद चरम पर था इसलिए मां मुझे वहां जाने देना नहीं चाहती थी। कुछ ही महीने पहले पिताजी का निधन हुआ था। घर का सारा बोझ अब मुझ पर ही आ गया था। गरीबी से जूझता परिवार था। पत्रकारिता में आगे भी बढ़ना था और इसके लिए बाहर निकलना भी जरूरी था। फिर जनसत्ता में मौका मिलने की संभावना की थोड़ी सी उम्मीद दिखाई दे रही  थी इसलिए रिस्क लेना मुनासिब लग रहा था। बिहार में लोग खूब बोलते हैं नो रिस्कनो गेम। सो मैंने भी रिस्क लेना उचित समझा।

अर्जी भेजने के चंद दिनों बाद लिखित परीक्षा के लिए एक बुलावा पत्र आया। दिनांक-17-03-1987 की उस चिट्ठी में संपादक प्रभाष जोशी के हस्ताक्षर का मोनोग्राम प्रिंट था। पत्र में जनसत्ता के नई दिल्ली और चंडीगढ़ दोनों दफ्तरों का पता लिखा था। टाइपराइटर पर लिखा गया यह पत्र कोई साधारण पत्र नहीं था। यह पत्र अपने आप में बहुत ही मजेदार था। पत्र में लिखा था-

दि:  17-3-1987

प्रिय,

मुझे खुशी हुई कि आप जनसत्ता  का चंडीगढ़ संस्करण निकालने में रुचि रखते हैं।

आप कृपया 26 मार्च को सेक्टर 15, लाला लाजपतराय भवनचंडीगढ़ में आइए। हम आपसे पत्रकारिता के सभी पहलुओं पर लिखवाएंगे।

जनसत्ता में अब तक सारे साथी ऐसी लिखित कसौटी पर खरे उतरने के बाद ही लिए गए हैं। इसके कोई हफ्ते भर बाद साक्षात्कार करेंगे और मेरिट लिस्ट में आए साथियों को लेकर काम शुरु कर देंगे। 26 मार्च को दिन में ग्यारह बजे आना है।

शुभकामनाओं सहित,

आपका,

प्रभाष जोशी

संपादक

पुनश्च:

आने जाने का द्वितीय श्रेणी का रेल भाड़ा भी दिया जाएगा।

जनसत्ता के इस बुलावे पर बिहार से कुल चार पत्रकार लिखित परीक्षा के लिए चंडीगढ़ पहुंचे थे। मैं, प्रियरंजन भारती, कुमार रंजन और हरजिंदर। हमलोग थे तो बिहार के अलग-अलग हिस्से से, पर उस समय सभी लोग पटना में ही काम कर रहे थे। उन दिनों पंजाब में आतंकवाद अपने चरम पर था और राजधानी चंडीगढ़ की सड़कों पर अभूतपूर्व सुरक्षा व्यवस्था थी। ऐसी अभूतपूर्व सुरक्षा व्यवस्था हमने पहली बार देखी। शहर के चप्पे-चप्पे पर रेत से भरी बोरियों से बनाए गए घेरे के भीतर से एके-47 रायफलें ताने सेना के जवान खड़े रहते थे। जेहन में तो पूरा डर बैठ गया। वह सब देखकर ही लगने लगा कि हम बहुत खतरनाक जगह पर आ गए हैं। एक जगह मैंने हिम्मत करके राइफल ताने एक सैनिक को अपना परिचय देकर उससे पूछ डाला कि क्या वाकई बहुत डरावने हालात हैं यहां। इन डरावनी स्थितियों से बिल्कुल बेफिक्र उस सैनिक ने इत्मीनान से जवाब दिया- बिल्कुल चिंता मत करो और डरो मत, सिर्फ अपनी सेफ्टी रखना।

हमलोग चंडीगढ़ के लाला लाजपत राय हॉल में आयोजित इस लिखित परीक्षा में शामिल हुए। वहां कुल सात घंटे तक हम बस लिखते ही रहे थे। पत्रकारिता के तमाम पहलुओं पर सवाल पूछे गए थे और खबरें भी लिखवाई गई थीं। अंग्रेजी समाचार एजेंसियों की खबरों की कठिन मानी जाने वाली कुछ बड़ी कापियां अनुवाद करने के लिए दी गई थीं। एक बड़ी सी खबर को आधा छोटा भी करना था और एक झूठी खबर भी दी गई थी जिसपर यह पूछा गया था कि इस खबर का आप क्या करेंगे। अखबार के पेज का लेआउट भी बनवाया गया था। यानी पूरा टेस्ट ले लिया गया था। जरा सी चूक हुई और आप गए काम से।

जनसत्ता के इस चंडीगढ़ संस्करण में इंडिया टुडे पत्रिका के भोपाल ब्यूरो प्रमुख एन के सिंह को स्थानीय संपादक बनाया जाना तय हुआ था। हमारे इस लिखित परीक्षा में एन के सिंह भी हमसे मिलने आए थे। पर वे बाद में चंडीगढ़ नहीं आए। बाद में सुनने में आया कि पंजाब में आतंकवाद और उसके खौफ की वजह से उनकी पत्नी ने उनको चंडीगढ़ जाने से रोक दिया। शुरू में कुछ समय तक तो हम बिना संपादक के ही अखबार निकालते रहे। दिल्ली जनसत्ता के समाचार संपादक रहे देवप्रिय अवस्थी चंडीगढ़ में भी हमारे समाचार संपादक थे और उन्होंने ही तब तक स्थानीय संपादक की जिम्मेदारी भी निभाई थी। देवप्रिय अवस्थी जी की अगुवाई में ही हम सबने वहां हिन्दी के स्थापित अखबार पंजाब केसरी से मुकाबले की रणनीति भी बनाई थी। बाद में पंजाब के निवासी और फिजिक्स में पीएचडी और रिसर्च फेलो रहे एक नॉन जर्नलिस्ट जितेंद्र बजाज को चंडीगढ़ जनसत्ता का पहला स्थानीय संपादक बना दिया गया था।

चंडीगढ़ की लिखित परीक्षा देकर आने के कुछ ही दिनों बाद दिल्ली से संपादक प्रभाष जोशी का एक तार आया था। तार में इंटरव्यू के लिए 12 अप्रैल को चंडीगढ़ इंडियन एक्सप्रेस के दफ्तर बुलाया गया था। इंटरव्यू वाले इस तार का संदेश कुछ इस तरह था-

REACH INDIAN EXPRESS CHANDIGARH FOR INTERVIEW JANSATTA. ON 12TH APRIL-12 NOON---EDITOR

लिखित परीक्षा देकर आए हम सभी चार साथी तार पाकर इंटरव्यू के लिए दोबारा चंडीगढ़ पहुंचे। वहां इंटरव्यू में जनसत्ता को खड़ा करनेवाले उसके तीन संपादकों की प्रभावशाली टीम बैठी थी जिसमें सर्वश्री प्रभाष जोशी, बनवारी जी और हरिशंकर व्यास थे। जनसत्ता का इंटरव्यू भी उतना ही कठिन था जितना रिटन टेस्ट। इंटरव्यू में प्रभाषजी ने मुझसे पूछा कि कितना पैसा लेंगे। मैंने कहा कि जितना आप देंगे। तब प्रभाषजी ने हिसाब लगाकार बताया कि 950 का बेसिक होगा और उसपर डीए, मकान किराया और अंतरिम राहत वगैरह कुल मिलाकर 1600 रुपए मिलेंगे। मुझे पटना में पाटलिपुत्र टाइम्स में उस समय 930 रुपए मिलते थे। मुझे तो लगा कि यह तो उससे काफी ज्यादा है। मैंने उनको कह दिया कि ठीक है। उस समय मुझे वेतन तय करने-कराने का कोई प्रपंच और गुर वगैरह विल्कुल मालूम नहीं था। उधर लखनऊ के राजीव मित्तल इन मामलों में चालाक थे सो वे प्रभाषजी से अपने लिए 5 इनक्रीमेंट तय करा ले गए। अनजान होने के कारण मैं घाटे में रहा। उस समय वहां इंडियन एक्सप्रेस की चंडीगढ़ यूनिट के प्रबंधक थे सुशील गोयनका जो इंडियन एक्सप्रेस के मूल मालिक रामनाथ गोयनका के परिवार के ही थे। सुशील गोयनका जी ने इंटरव्यू में आए हम सभी लोगों का बहुत अच्छा स्वागत किया था। इंटरव्यू के बाद हमें चंडीगढ़ शहर के एक अच्छे गेस्ट हाउस में ठहराया था।

इंटरव्यू के अगले दिन हमें बता दिया गया कि किस-किस का चयन हुआ है। सबको नियुक्ति पत्र भी दे दिया गया। बिहार के पटना से गए हम चार साथियों में से तीन- मैं, प्रियरंजन भारती और हरजिंदर सफल रहे थे। हमलोग नियुक्ति पत्र लेकर पटना लौट आए थे। हमें दो हप्ते बाद नौकरी पर हाजिर होने को कहा गया था क्योंकि जनसत्ता का प्रकाशन शुरू होने की तारीख तय कर दी गई थी। हमें उस तारीख से पहले ही पहुंचकर अखबार की डमी निकालना था। हममें से सिर्फ कुमार रंजन को चयन न होने के कारण निराश लौटना पड़ा था। पर फिर उन्हें दिल्ली में ही समाचार एजेंसी पीटीआई में जनसत्ता से भी अच्छी तनख्वाह पर नौकरी मिल गई थी। चंडीगढ़ जनसत्ता की न्यूज डेस्क संपादकीय टीम में हिन्दी पट्टी से हम तीनों के अलावा मध्य प्रदेश के इंदौर से प्रदीप पंडित, उत्तर प्रदेश के लखनऊ से राजीव मित्तल, उत्तर प्रदेश से ही सुधांशु मिश्र, राजस्थान के कोटा से नीलम गुप्ता और हिमाचल प्रदेश के ऊना से सुशील कुमार लिए गए थे।

नियुक्ति पत्र लेने के बाद हम लोगों ने दफ्तर से ही यह पता लगा लिया कि शहर में कुछ समय तक रहने के लिए कौन-कौन सी जगह हो सकती है जो किफायती होने के साथ-साथ आसानी से उपलब्ध भी हो सके। हमें बताया गया कि सेक्टर-20 में अग्रवाल धर्मशाला है जो हमारे ठहरने के लिए सही जगह होगी। फिर चंडीगढ़ पहुंचने पर हम सारे लोगों ने उसे ही अपना ठिकाना बनाया था। हम लोग करीब 4-5 महीने वहीं डटे रहे। वहां डॉर्मीटरी में एक बिस्तर का किराया उस समय सिर्फ दस रुपए था। एक-एक कमरे में तीन से चार बिस्तर लगते थे। हर चार दिन बाद धर्मशाला का मैनेजर हमारे कमरे बदल देता था और रजिस्टर में नई इंट्री कर लिया करता था। ऐसा इसलिए क्योंकि उन दिनों आतंकवाद चरम पर था और वहां लागू नियमों के अनुसार किसी आगंतुक को चार दिन से ज्यादा धर्मशाला में ठहराने की इजाजत नहीं थी। पर हमलोग अखबारवाले थे और शहर के एक बड़े अखबार समूह में नियुक्त थे इसलिए हमें वहां टिकाए रखने के लिए यह खास इंतजाम किया गया था।

अग्रवाल धर्मशाला के ठीक सामने सड़क थी और सड़क के दूसरी तरफ सेक्टर-20 का मार्केट कांप्लेक्स था। चंडीगढ़ सेक्टरों में बसा हुआ एक साफ सुथरा और व्यवस्थित शहर है। हर सेक्टर का अपना एक अलग मार्केट कांप्लेक्स यानी बाजार है जिसमें आम जरूरतों का लगभग सबकुछ उपलब्ध होता है। अपने सेक्टर-20 के इसी मार्केट में एक व्यवस्थित रेस्टोरेंट भी था जहां हम सारे लोग सुबह का नाश्ता और दोपहर का खाना खाते थे। कभी-कभी रात का खाना भी। वहीं चाय का एक बढ़िया ठीया भी था। सुबह नाश्ते में चंडीगढ़ में दही परांठे लेने का प्रचलन था जो हमें भी खूब पसंद आया। वहां जनसत्ता के दफ्तर में कैंटीन तो था पर वहां खाना नहीं बनता था। सिर्फ चाय, मट्ठी, ब्रेड-बटर और ब्रेड पकौड़े ही मिलते थे। वहां इंडियन एक्सप्रेस कई साल पहले से छपता था पर उसके लोगों ने कैंटीनवालों से कभी खाना बनाने की मांग ही नहीं की थी। हमने हल्ला मचाया तब जाकर वहां खाना बनना शुरू हुआ। कैंटीन की चाय में दूध ज्यादा और पत्ती बहुत कम डली होती थी जिस कारण चाय में मजा नहीं आता था। हम हिन्दी पट्टी के लोग कैंटीनवाले को कड़क चाय लाने को कहते थे। पर पंजाब, हरियाणा और हिमाचल वाले साथी अधिक दूध और कम पत्ती वाली चाय ही पसंद करते थे। हमारे समाचार संपादक देवप्रिय अवस्थी जी कड़क चाय की मेरी बात पर चुटकी लेते थे और कहते थे, झा साहब तुम्हारे बिहार में दूध तो होता नहीं, यहां पंजाब में बहुत दूध होता है। जिन दिनों मैं पटना में पाटलिपुत्र टाइम्स में था उन्हीं दिनों अवस्थी जी पटना में नवभारत टाइम्स में समाचार संपादक हुआ करते थे। मैं जब कभी साथियों से मिलने नवभारत टाइम्स जाता था तो वहां अवस्थी जी से जरूर मिलता था। अवस्थी जी चंडीगढ़ जनसत्ता में हमारे अभिभावक ही थे। हमलोग सभी वहां एक परिवार की तरह रहते थे।

अग्रवाल धर्मशाला के ठीक सामने की सड़क से ही हमें दफ्तर जाने के लिए चंडीगढ़ प्रशासन द्वारा चलाई जा रही सिटी सर्विस की सरकारी बसें मिल जाती थी। हमारा दफ्तर शहर के एक छोर पर इंडस्ट्रियल एरिया में था। 186-B, इंडस्ट्रियल एरिया, चंडीगढ़-160002.। बस से हम राम दरबार उतरते थे। वहां से हमारा दफ्तर पैदल एक मिनट की दूरी पर था। अग्रवाल धर्मशाला में हमारे लगभग पांच महीने बड़े आनंद से बीते। धीरे-धीरे हम मकान तलाशते गए और वहां से एक-एक कर निकलते गए। एक तो चरम पर आतंकवाद और दूसरे हमारे लिए एक नया शहर। इसलिए हमें अपना आशियाना तलाशने और रहने की व्यवस्थाएं करने में महीनों लग गए। चंडीगढ़ में खाना थोड़ा महंगा था, पर रहना जरूर सस्ता था। उन दिनों वहां मकान का किराया पटना और दिल्ली की तुलना में काफी कम था।

– गणेश प्रसाद झा

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शनिवार, 2 अप्रैल 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 9

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की नौवीं किश्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 9


19. सरोकार की खबरें और सामंतों पर प्रहार

पाटलिपुत्र टाइम्स की उदारता की वजह से मुझे इस अखबार में सरोकार की खबरें लिखने का भी भरपूर मौका मिला और मैंने जमकर लिखा भी। गरीबी और गरीबों के शोषण पर मैंने काफी कुछ लिखा। शोषण करनेवाले सामंतों और गरीबों का खून चूसनेवाले व्यापारियों के खिलाफ खूब रिपोर्टें और फीचर लिखे। इसी कड़ी में ऐसी ही एक खबर लिखी थी मुंगेर जिले के संग्रामपुर प्रखंड के भगत सामंतों के बारे में। खबर की हेडिंग थी- ऐसे पचता है गरीबों का जेवर और रजवाड़ों का हीरा। यह स्टोरी अंग्रेजों के जमाने से बिहार के आरा जिले से आकर संग्रामपुर में बस गए भगत सामंतों के बारे में थी। इलाके के बूढ़े-बुजुर्ग इन भगत सामंतों की कहनियां सुनाते थे। वे बताते थे कि कहते हैं ये भगत सामंत आरा से सिर्फ एक लोटा लेकर यानी खाली हाथ यहां आए थे। यहां आकर शुरू में उन्होंने कृषि उत्पादों पर आधारित छोटे-छोटे व्यवसाय शुरू किए। कुछ भगत उस समय इलाके में घूम-घूमकर तरह-तरह के जरूरत के सामान बेचा करते थे। थोड़े समय बाद वे इलाके के भोले-भाले गरीब किसानों को उनके सोने-चांदी के जेवर और कांसे के बरतन वगैरह गिरवी रखकर कर्ज देने लगे। सामंत जेवर के कुल मूल्य का आधे से भी कम यानी लगभग एक तिहाई रकम कर्ज पर देते थे और उसका हर माह तीन रुपया प्रति सैकड़ा के हिसाब से सूद वसूलते थे। थोड़े ही समय में कर्ज में ली गई रकम और उसका सूद मिलाकर इतना भारी हो जाता था कि वह जेवर की कीमत से भी अथिक हो जाता था। उसके बाद जब लोग अपने जेवर छुड़ाने जाते तो सामंत कहता कि आप अपना जेवर नहीं ले गए इसलिए वह लहना-गहना हो गया यानी वह जेवर अभ सेठ का हो गया और वह अब नहीं मिलेगा। न हम अब आपसे अपना पैसा लेंगे और न आपको आपका जेवर लौटाएंगे। आपकी-हमारी बात खत्म हो गई। नतीजा यह होता था कि गरीब खाली हाथ घर लौट जाता था और सामंत को एक तिहाई कीमत में ही सोने-चांदी के महंगे जेवर हासिल हो जाते थे। कहते हैं इन भगत सामंतों ने इस तरह गिरवी के जरिए पूरे इलाके का सोना-चांदी अपनी तिजोरियों में खींच लिया।

संग्रामपुर के ये भगत सामंत उन दिनों चोर भी पालते थे और उनसे इलाके के मालदार लोगों के घरों में चोरियां करवाते थे। फिर चोरी का माल औने-पौने दामों में खुद खरीद लेते थे। इन सामंतों ने उन दिनों मुंगेर जिले का ही हिस्सा रहे गिद्धौर के रजवाड़े में भी कई दफा चोरियां करवाई थी। उस रजवाड़े का सोना-चांदी और हीरे–जवाहरात इसी संग्रामपुर के भगतों की तिजोरियों में आकर समाया करते थे। इस तरह अर्जित किया गया सारा सोना-चांदी और जवाहरात संग्रामपुर में इस भगतों की कड़ाहियों में ही गलाया जाता था। कहते हैं कि गिद्धौर महाराजा का रत्न जड़ित एक मुकुट चोर चुराकर ले आए थे और संग्रामपुर के भगतों ने कई दिनों तक बहुत मोल-तोल करने के बाद उसे खरीदा था जिससे इलाके में हल्ला हो गया था और पूरा इलाका जान गया था कि गिद्धौर महाराजा का चोरी गया मुकुट संग्रामपुर में बिका है और भगतों ने ही उसे खरीदा है। इस तरह बेहद गरीबी में लोटा लेकर आए सामंत लगातार अमीर होते गए। बाद में इस सामंतों ने अपना धंधा फैलाया और हर तरह का व्यवसाय करने लगे। आज पूरा संग्रामपुर बाजार क्षेत्र इन्हीं भगत सामंतों का है। मेरी स्टोरी जब छपी थी तो पूरे इलाके में हंगामा हो गया था। संग्रामपुर के तत्कालीन प्रखंड प्रमुख और संग्रामपुर बाजार के नामी व्यापारिक हस्ती राजेंद्र प्रसाद भगत ने पाटलिपुत्र टाइम्स के संपादक को चिट्ठी लिखकर मेरी शिकायत की थी कि मैंने अखबार में काफी उलूल-जलूल लिख दिया है। और इसके लिए उन्होंने संपादक से मुझे नौकरी से निकाल देने का अनुरोध किया था। इन भगत सामंतों ने उस समय अपनी एक बैठक करके मुझे मारने-पीटने की भी योजना बनाई थी।

ऐसी ही सरोकार की एक खबर संग्रामपुर प्रखंड के जमुआ गांव की दलित बस्ती जमुआ मुसहरी के बंधुआ मजबूरी करनेवाले महादलित परिवारों और जमुआ गांव के एक राजपूत सामंत के बारे में भी लिखी थी। उस खबर की हेडिंग थी- डेढ़ पसेरी खेसारी में बिक गई इनकी जिंदगी। रामसुंदर सिंह नामक उस सामंत ने एक बार अकाल पड़ने पर इस दलित बस्ती के एक दलित को प्राण रक्षा के लिए डेढ़ पसेरी (साढ़े सात किलो) खेसारी उधार दिया था। वह दलित उस उधार की खेसारी के सूद तले उस सामंत के खेतों में बरसों तक बिना किसी मजदूरी के काम करता रहा पर कर्ज की खेसारी नहीं चुका पाया। कुछ सालों बाद उस सामंत ने गांव के अन्य सामंतों की मदद लेकर एक सभा बुलाई और उस दलित से कर्ज में ली गई खेसारी के मूल्य के असल और सूद की कुल जमा रकम के एवज में अपनी सारी जमीन सामंत रामसुंदर सिंह को बेचने के पहले से बनाकर लाए गए एक एकरारनामे पर जबरन अंगूठा लगवा लिया और फिर उस दलित की सारी जमीन पर जबरन नाजायज कब्जा कर लिया। जब यह खबर छपी थी तो देश में बंधुआ मजदूरी के खिलाफ राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलानेवाले आर्यसमाजी नेता स्वामी अग्रिवेश मुझे बधाई देने पटना पाटलिपुत्र टाइम्स अखबार के दफ्तर आए थे। जमुआ महादलित बस्ती के मांझी कहे जानेवाले मुसहर जाति के दलित आज भी बताते हैं कि उनके पूर्वजों की करीब नौ बीघा खानदानी खतिहानी जमीन बिना किसी रजिस्ट्री या बैनामे के अभी भी राजपूत सामंत रामसुंदर सिंह के खानदान के कब्जे में पड़ी है।

20. ढिबरीवाला रिक्शा और जिंदगी की जद्दोजहद

अस्सी के दशक में राजधानी पटना की तस्वीर आज से बिल्कुल अलग थी। पूरे शहर में हर तरफ गरीबी और अभाव में जीवन जीने की जद्दोजहद साफ-साफ दिखती थी। हर तरफ संघर्ष करते लोग नजर आते थे। पत्रकारिता भी उस समय संघर्ष वाली ही थी। उस समय ऑटो और ई-रिक्शा नहीं था। शहर में एक जगह से दूसरी जगह जाने का एक मात्र जरिया सायकिल रिक्शा ही हुआ करता था। रिक्शे में आगे की तरफ छोटी सी किरासन तेल वाली एक ढिबरी टंगी होती थी जिसे चालक शाम ढलने के बाद अंधेरे में रोशनी के लिए जला लेते थे। सायकिल रिक्शे में रोशनी के लिए ऐसी व्यवस्था मैंने और कहीं नहीं देखी थी। बिहार के गांवों से रोटी कमाने शहर आए गरीब रिक्शा चलाकर ही अपना और अपने परिवार का पेट पालते थे। रिक्शे का किराया भी दो-चार रुपए ही होता था। वह भी कई बार गरीब और मध्यमवर्गीय मुसाफिरों को देने में जबूर लगता था। बेली रोड पर जहां आज बड़ी-बड़ी दुकानें और शो-रुम खुल गए हैं वहां उस समय वैसा कुछ चमक-दमक नहीं था। उसके पीछे गरीब रिक्शाचालकों और शहर के भिखमंगों का आशियाना हुआ करता था। वहां एक टूटू-फूटा बरामदे जैसा स्ट्रक्चर हुआ करता था जहां सारे रिक्शा चालक अपनी पूरी गृहस्ती एक बक्से में समेटे रहते थे। वहां दर्जनों की संख्या में ऐसे बक्से रखे होते थे जिनमें ताला पड़ा होता था। रिक्शेवाले दिनभर रिक्शा चलाते और रात को वहीं खाना पकाते और खाकर सो जाते। करीब-करीब यही हालत वहां रात काटनेवाले उन भिखारियों की भी होती थी।

मैं उन दिनों पटना के एक निम्न मध्यमवर्गीय मोहल्ले दक्षिणी मंदीरी में एक कमरा किराए पर लेकर रहता था और वहीं बड़े नाले के पास के एक ढाबे में खाना खाता था। इनकम टैक्स चौराहे के पास से कदमकुआं का रिक्शा किराया करीब डेढ़-दो रुपया हुआ करता था। पर मैं रोज रिक्शा नहीं लेता था क्योंकि जेब में हमेशा पैसे भी नहीं होते थे। गाहे-बगाहे या कभी-कभार देरी हो जाने पर ही रिक्शा लिया करता था। बाकी दिनों में पैदल गांधी मैदान के पास से गुजरते हुए या फिर गांधी मैदान को बीच से चीरते हुए करीब आधे घंटे चलकर दफ्तर पहुंचा करता था। इससे पैसे की बचत होती थी और रोज टहलना भी हो जाता था।

पाटलिपुत्र टाइम्स में तनख्वाह नियमानुसार मिलती थी जो उस समय 930 रुपए होती थी। इसमें 175 रुपए मकान का किराया देता था और 250 रुपए ढाबे वाले को महीने भर दोनों वक्त के खाने का। पैसे की दिक्कत तो हमेशा रहती ही थी। दफ्तर के पास ही फुटपाथ पर जुगल बाबू का एक प्रसिद्ध चाय का ठीया था। दफ्तर से निकलते ही बाईं तरफ ठाकुरबाड़ी रोड पर करीब सौ गज पर वह ठीया था। पटना के हुंकार प्रेस के पास की चाय दुकान से तोड़ा कम प्रचलित क्योंकि जुगल बाबू की चाय दुकान पर सिर्फ पाटलिपुत्र टाइम्स के पत्रकारों का ही जमावड़ा लगता था। कई बार अलग-अलग टोलियों में निकलकर हम दो-तीन बार भी चाय पी लिया करते थे। जब ज्ञानवर्धन भैया साथ होते थे तो हर बार चाय के पैसे वही दिया करते थे। जब जेब में पैसे नहीं होते थे तो जुगल बाबू हमें उधार की चाय भी खुशी-खुशी पिलाते थे। हुंकार प्रेस की तरह यहां भी पत्रकारों का उधारी का खाता चलता था। मुख्य उप संपादक शाहिद भाई के साथ रात की पाली में रहते हुए जब चाय की तलब होती तो ठीया अक्सर बंद मिलता था। जुगल बाबू तब तक घर जा चुके होते थे। चाय पिलाने में भागलपुर के अंजनी कुमार विशाल बहुत उदार रहते थे। पर इसके बदले मुझे अक्सर उनका कुछ एक्स्ट्रा काम करना पड़ता था। उनपर जब काम का बोझ होता और पिछले दिन के काम का बैकलॉग होता था तो वे अपना पेज मुझसे लगवा लेते थे। बदले में चाय पिलाते थे। कुल मिलाकर पाटलिपुत्र टाइम्स में हमारा आपसी रिश्ता बिल्कुल पारिवारिक जैसा ही था। अखबार प्रबंधन से भी हमारा रिश्ता कभी प्रोफेशनल वाला नहीं रहा।

– गणेश प्रसाद झा

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