सोमवार, 6 जून 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 23

 

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की तेईसवीं किश्त
पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 23

54. फिर रवि प्रकाश के आशियाने में

पंजाब मेल रात को 9 बजे बंबई के चर्च गेट से चली तो अगले दिन रात दस बजे के करीब नई दिल्ली स्टेशन पहुंची। मैंने बंबई से ही अपने पुराने मित्र रवि प्रकाश जी को दिल्ली लौटने की सूचना दे दी थी। रविजी और उनके छोटे भाई प्रेम प्रकाश टैक्सी लेकर स्टेशन पर हाजिर थे। वे जहां मेरी ट्रेन रुकी थी उस प्लेटफार्म पर सामान ढोनेवाला रेलवे कुलियों का ठेला भी जुगाड़कर लेते आए थे। मैंने उस ठेले पर सामान लादा और हम ठेले को धकेलते हुए स्टेशन के बाहर लेते आए। वहां टैक्सी तैयार खड़ी थी। हम रवि प्रकाश जी के पटपड़गंज स्थित आशीर्वाद अपार्टमेंट में आ गए। जैसे उड़ी जहाज को पंछी....। पूर्वी दिल्ली का यह अपार्टमेंट रविजी का दिल्ली में नया ठिकाना था। वे करोलबाग के देवनगर से यहीं रहने आ गए थे। यहां उनके पास तीन बेड रुम का फ्लैट था। पटपड़गंज में मैं उनके साथ महीने भर रहा था कि इस बीच दिल्ली जनसत्ता के पुराने साथी संजय कुमार सिंह ने मयूर विहार फेज-1 में हिन्दुस्तान टाइम्सअपार्टमेंट का अपना एक कमरेवाला किराए का फ्लैट 4सी-1 खाली करने की सूचना दी। वह कमरा 750 रुपए के माहवार किराए का था। मैंने संजय सिंह से उसकी चाबी ले ली औऱ जिस दिन संजय ने उसे खाली किया उसी दिन मैंने वहां अपना सामान पहुंचा दिया। मकान मालिक थे हिन्दुस्तान अखबार के सत्यदर्शी जी। वे बड़े खड़ूस टाइप आदमी थे। पर वे ना-नुकुर करते हुए 750 रुपए के उसी किराए में मुझे मकान देने को किसी तरह राजी हो गए। करते भी क्या, मैंने तो पहले ही अपना सामान वहां रखकर ताला लगा दिया था। उस फ्लैट में मेरे पड़ोसी थे मुंगेरीलाल के हसीन सपने वाले फिल्म अभिनेता रघुवीर यादव जो प्लैट के दो बेड रुम वाले हिस्से में रहते थे। इम मकान में मैं करीब पांच साल रहा। हिन्दुस्तान टाइम्स अपार्टमेंट उस समय बन ही रहा था जब मैंने 1987 में चंडीगढ़ जनसत्ता मैं नौकरी शुरू की थी। इस सोसायटी से निकलने के बाद मैं पास के ही युनाइटेट इंडिया अपार्टमेंट में रहने लगा था। युनाइटेट इंडिया अपार्टमेंट में मैं 2003 तक रहा।

55. खबरों का समन्वय और नेटवर्किंग लिंक की भूमिका

जनसत्ता दिल्ली में मेरी जिम्मेदारी जनसत्ता के सभी चार संस्करणों दिल्ली, चंडीगढ़, बंबई और कोलकाता में खबरों के कोआर्डिनेशन की थी। मुझे यह देखना होता था कि उस दिन की जितनी भी खबरें हों वे सब की सब समय पर तैयार हो जाएं औऱ फिर सभी संस्करणों को समय पर चली भी जाएं। खबरों को सभी संस्करणों तक भिजवाने की जिम्मेदारी भी मेरी ही होती थी। मैं हर समय सभी संस्करणों के स्थानीय संपादकों से संपर्क में रहता था। कुछ-कुछ हॉटलाइन की तरह। मैं एक तरह सेजनसत्ता का समन्वय संपादक था। यह एक बड़ी जिम्मेदारी और जवाबदेही वाला काम था। मैं रोज दिनभर की खबरों की एक सूची भी बनाता था और उसे सभी सभी संस्करणों को भेजता था। यह सूची थोड़ी-थोड़ी देर बाद अलग-अलग संस्करणों के छूटने के हिसाब से अपडेट भी होती रहती थी। डाक संस्करण के समय से शुरू होकर नगर संस्करण तक के लिए। उस समय इन-हाउस टेलीप्रिंटर नेटवर्क सिस्टम और सभी संस्करणों की आपसी नेटवर्किंग लिंक के जरिए खबरों को भेजने और मंगाने का काम होता था। खबरों का यह आदान-प्रदान बड़ी तेजी से होता था। खबरें तैयार होते ही सबको भेज दी जाती थी। अगर खबरें डेवलप होती थीं तो उनका अपग्रेडेड वर्जन भी सभी संस्करणों को भेजा जाता था। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल में जेनरेट होनेवाली  खबरें हमें उन संबंधित संस्करणों से इसी लिंक के जरिए मिलती थी। फिर उन्हें हम दिल्ली से बाकी संस्करणों को री-रुट भी किया करते थे। कभी-कभी जब लिंक फेल हो जाता था तो फिर बड़ी परेशानी होती थी। उस समय इंडियन एक्सप्रेस समूह भारत सरकार के विदेश संचार निगम लिमिटेड (वीएसएनएल) के संचार नेटवर्क का इस्तेमाल करता था। पर आज की तरह उन दिनों अखबार का पूरा-पूरा पेज भेजना संभव नहीं होता था।

मैं रात को नगर संस्करण छूटने के बाद रात के लगभग 2.30 या 3 बजे तक घर पहुंचता था। नींद ठीक से पूरी भी नहीं हो पाती थी और सुबह 6 बजे ही चंडीगढ़ से स्थानीय संपादक ओम थानवी जी का फोन आने लग जाता था और वे मुझपर बरसने लगते थे कि फलां-फलां खबर नहीं आई और इस वजह से हम आज हम शहर के बाकी अखबारों से पिछड़ गए। थानवी जी हर रोज सारा दोष मेरे सिर मढ़ दिया करते थे। वे नियमित तौर पर ऐसा करते थे ताकि कभी प्रभाष जी अगर उनसे यह पूछ बैठें कि चंडीगढ़ जनसत्ता के नगर संस्करण में पूरी खबरें क्यों नहीं होती तो वे अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़कर मेरे गले में फांस डाल सकें। जनसत्ता के तमाम संस्करणों में सभी चार समाचार एजेंसियों (पीटीआई, यूएनआई, भाषा और वार्ता) की टिक्कर सेवाएं उपलब्ध थीं। उस हिसाब से सभी संस्करण अपने-अपने डेस्क पर भी उन खबरों को बनवा सकते थे। पर थानवीजी को सारा माल दिल्ली से पका-पकाया चाहिए होता था। दिल्ली से जब खबरें जाने लगी थी तो थानवी जी वहां अपने डेस्क से सिर्फ पंजाब, हरियाणा और हिमाचल की ही खबरें बनवाते थे। दिल्ली की बेहद जरूरी नेशनल खबरों को भी वे वहां नहीं बनवाते थे। बस सिर्फ दिल्ली की तरफ टकटकी लगाए रहते थे। और हर सुबह मुझपर पिल पड़ते थे। दिल्ली का हमारा नगर संस्करण रात 2 बजे छूटा करता था, पर चंडीगढ़ बंबई और कोलकाता संस्करणों का नगर एडीशन रात 12 बजे या अधिक से अधिक रात एक बजे तक छूट जाता था। ऐसे में कुछ न कुछ खबरें तो ऐसी होती ही थीं जो देर रात आती थीं या फिर देर रात उनमें कोई बड़ा डेवलपमेंट हो जाता था। उन्हें हम दिल्ली में तो ले लेते थे पर बाकी संस्करणों को भेजे जाने से पहले ही वहां का अखबार छूट चुका होता था। 

बंबई जनसत्ता से ट्रांसफर होकर दिल्ली आने के बाद मैं काम तो दिल्ली जनसत्ता में कर रहा था पर मेरी तनख्वाह बंबई से ही आती थी। दरअसल, नौकरी की मेरी    फाइल बंबई से दिल्ली नहीं भेजी गई थी। हर माह मुझे इंडियन एक्सप्रेस बंबई से एकाउंट्स विभाग का एक टेलीप्रिंटर संदेश आता था जिसमें मेरी तनख्वाह की रकम लिखी होती थी। इस संदेश की एक प्रति दिल्ली दफ्तर के एकाउंट्स विभाग को भी आया करती थी। फिर तनख्वाह की उस रकम का चेक मुझे दिल्ली दफ्तर से मिलता था। यह सिलसिला साल भर से भी अधिक समय तक चलता रहा। काम दिल्ली में और तनख्वाह बंबई दफ्तर से। तनख्वाह का मेरा चेक बंबई दफ्तर की सैलरी स्लिप के साथ नत्थी होकर मिलता था। बाद में जब मेरी नौकरी की फाइल बंबई से दिल्ली भेज दी गई तब सैलरी स्लिप दिल्ली दफ्तर की मिलने लगी।

लगभग दो साल तक कोऑर्डिनेशन का काम देखने के बाद मैं फिर मेन डेस्क पर काम करने लगा। तब तकजनसत्ता के सभी संस्करणों को खबरें भेजने और वहां से खबरें मंगाने की व्यवस्था सुचारू हो गई थी और सिस्टम वाले लोग खुद ही इसे कर लिया करते थे। इसलिए मुझे मेनस्ट्रीम न्यूज में रखना जरूरी समझा गया। गाहे-बगाहे कभी कोऑर्डिनेशन यानी खबरों के आदान-प्रदान का कोई मामला फंसता था तो मैं देख लिया करता था।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....


 


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