एक पत्रकार की अखबार यात्रा की तैंत्तीसवीं किश्त
पत्रकारिता की कंटीली डगर
भाग- 33
78. संपादक देने लगे थे विज्ञापन के धंधे में लगने की सलाह
कोलकाता से जनसत्ता का प्रकाशन तो शुरू हुआ पर यह एक सच्चाई है कि बांगलाभाषी राज्य पश्चिम बंगाल में हिंदी लिखने-बोलने वाले लोग आटे में नमक के बराबर ही हैं। फिर भी अखबार सर्कुलेशन की सम्मानजनक ऊंचाईयों को हासिल करने में कामयाब हो गया। सर्कुलेशन को एक सम्मानजनक स्थिति में लाने के लिए अखबार में कई तरह के अभिनव प्रयोग भी किए गए। यहां तक कि कुछ बांगलाभाषी पत्रकारों को भी अखबार से जोड़ा गया और उनकी खबरों और रचनाओं को अनुवाद कराकर छापा जाने लगा। इस तरह से बांग्लाभाषी लोगों की मनोवृत्तियों को समझने और बांग्लाभाषी घरों में भी इस हिन्दी अखबार को प्रवेश कराने की भरसक कोशिश की गई। इससे कुछ लाभ तो मिला पर तब तक अखबार समूह के दिल्ली स्थित एक ताकतवर और हिन्दी के धुर विरोधी संपादक और कुछ मैनेजर इस अखबार के खिलाफ सक्रिय हो चुके थे। इनजनसत्ता विरोधी ताकतों ने अखबार के सर्कुलेशन में आए सकारात्मक फर्क को मरोड़ कर रख दिया। दिल्ली से रची गई इस गहरी साजिश की वजह से जब अखबार कमजोर पड़ने लगा तो तत्कालीन स्थानीय संपादक श्यामसुंदर आचार्य ने संपादकीय विभाग के लोगों को अखबार की आर्थिक सेहत सुधारने के लिए खाली समय में बाजार से विज्ञापन लाने की सलाह देना शुरू कर दिया। संपादकजी अपने मातहतों से कहने लगे कि खबर लिखने से ज्यादा लाभकर होगा कि आप विज्ञापन लाने पर ध्यान लगाएं। इससे जो माल मिलेगा उससे आपकी सेहत भी सुधरेगी और अखबार की भी। स्थानीय संपादक की इस अजीबोगरीब सलाह का संपादकीय विभाग में काफी विरोध भी हुआ। कहते हैं ऐसा करके आचार्यजी अखबार के मालिक और कार्यकारी संपादक के सामने अपनी लाइन बड़ी करना चाह रहे थे ताकि उन्हें नौकरी में एक और सेवा विस्तार मिल जाए। पर आचार्यजी की यह बेतुकी सलाह जब दफ्तर के परकोटे से बाहर निकली तो शहर के हिन्दीसेवियों और विद्वत समाज ने भी इसकी खूब भर्त्सना की।
जनसत्ता कोलकाता का सर्कुलेशन खराब भी नहीं था। बरसों की मेहनत से बंगीय-हिंदी समाज में जनसत्ता की खासी पहचान बन गई थी। बंगाल के इतिहास में पहली बार एक भव्य कार्यक्रम में बंगाल से जुड़े तीन वरिष्ठ संपादकों का जनसत्ता की तरफ से सम्मान किया गया था। इस सम्मान कार्यक्रम का भारी असर पड़ा। कोलकाता शहर के दो पुराने अखबार सन्मार्ग औरदैनिक विश्वामित्र सरकारी कागजों में भारी सर्कुलेशन का दावा लंबे अर्से से करते रहे हैं। जनसत्ता के बाजार में आने और शहर के 'डिसीजन मेकर्स' के बीच उसकी सक्रियता की चर्चा इतनी थी कि उससे पटना और रांची तक के लोगों को परेशानी हो रही थी।
79. मैनेजरों की साजिश का शिकार हुआ कोलकाता जनसत्ता
जनसत्ता कोलकाता को चौपट कराने में दिल्ली जनसत्ता के प्रबंधकों की जहरीली भूमिका के अलावा अखबार मालिकों की तरफ से सर्कुलेशन टीम को कमजोर करने की सोची समझी राजनीति भी हावी रही जो संपादकीय विभाग की मेहनत पर हमेशा तिरस्कार दिखाती और पानी फेर देती थी। इस तिरस्कार भाव का बहुत अथिक नकारात्मक असर पड़ा। ऐसा कतई नहीं है कि कोलकाता जनसत्ता का एडिटोरियल कहीं से भी कमजोर था। इसी अखबार से निकल कर एक अहम सहयोगी ने उसी शहर से एक व्यापार का अखबार शुरू करा दिया और फिर कुछ समय बाद एक सामान्य अखबार भी निकलवाया। जनसत्ता कोलकाता के ही एक दूसरे संपादकीय सहयोगी ने उसी कोलकाता शहर में अपनी एक विज्ञापन एजंसी शुरू कर ली और बाद में एक अखबार भी निकाला। कोलकाता जनसत्ता के एक संपादकीय सहयोगी तो पत्रकारिता के अध्यापन में अपनी धाक जमाने के लिए ही जाने जाते हैं।
जाहिर है कि जहां शुरुआती तीन साल में ही योग्य संपादकीय विभाग के लोगों का ऐसा मजबूत काम रहा कि बाजार में उनकी ऐसी मजबूत धाक जमी कि वे अपने असल मिशन में कामयाब हो गए। लेकिन वे अपनी क्षमता उस अखबार को नहीं दे सके जिसमें काम करने के लिए वे वहां आए थे। उधर अखबार के दिल्ली स्थित मैनेजरों के इशारे पर कोलकाता के इस अखबार के स्थानीय प्रबंधन को लगातार कमजोर किया जा रहा था। कहते हैं दिल्ली का जनसत्ता उन दिनों अपने बहुत ही बुरे दौर से गुजर रहा था। जनसत्ता के महत्वाकांक्षी कार्यकारी संपादक ओम थानवी उन दिनों दुनिया देखने के अपने शौक पूरे कर रहे थे और निरंतर विदेश दौरे पर रहा करते थे। अपने अखबार की दुर्दशा से पूरी तरह बेफिक्र यह संपादक देश-विदेश के अपने दौरों और सृजन कार्य में जुटा था। उनको अखबार की कोई परवाह नहीं थी। च॔डीगढ़ जनसत्ता को बंद करने के लिए उसी शहर से भेजे गए इस कमजोर पर अहंकारी और महत्वाकांक्षी संपादक के चलते काफी मेहनत और लगन से शुरू किए गए कोलकाता संस्करण को आज सिर्फ फाइल कापी छापने के स्तर तक गिरा देने की यह कहानी कम से कम हिन्दी का हर पत्रकार तो जान ही रहा है। जनसत्ता कोलकाता अब हिन्दी पत्रकारिता की सिर्फ एक अविस्मरणीय कथा मात्र है। तिल-तिल कर मर रहे जनसत्ता कोलकाता की इस दयनीय दशा को देखकर उससे जुड़ा हर पत्रकार आज सिर्फ आंसू ही बहा सकता है।
80. जनसत्ता कोलकाता में हुक्मरानों की गंदी राजनीति
जनसत्ता कोलकाता में काम करनेवाले साथी बताते हैं कि वहां का माहौल कुल मिलाकर बहुत खराब रहा। वहां गुटबाजी जमकर हुई। प्रधान संपादक प्रभाष जोशी पत्रकारों की भर्ती के समय होनेवाले इंटरव्यू में ही सबको आगाह कर दिया करते थे कि गुटबाजी बिल्कुल नहीं करना है क्योंकि गुटबाजी वे चलने नहीं देंगे। फिर भी कोलकाता जनसत्ता में खूब गुटबाजी हुई। दरअसल, जिस समय वहां गुटबाजी शुरू हुई उस समय प्रभाष जोशी जी पावर में नहीं रह गए थे। जानकार बताते हैं कि उसी गुटबाजी के दौरान समाचार संपादक अमित प्रकाश सिंह को ग्रुप बनाकर परेशान किया जाता रहा। कहते हैं दिल्ली से शंभूनाथ शुक्ल और चंडीगढ़ से अकु श्रीवास्तव के कोलकाता जाने के बाद तो वहां का पूरा माहौल ही एक शीतयुद्ध में बदल गया था। कहते हैंजनसत्ता के कार्यकारी संपादक ओम थानवी के इशारे पर एक सोची समझी रणनीति के तहत यह सब किया कराया जा रहा था। आखिरकार अमित प्रकाश सिंह को कोलकाता से दिल्ली जाना पड़ा। फिर कुछ समय बाद शंभूनाथ सिंह भी कोलकाता से चले गए। अखबार सिर्फ पांच साल तक ही ठीक से चला। उस दौरान संपादकीय विभाग में काफी बेहतर वातावरण और एक अच्छा टीमवर्क भी दिखाई दिया था। इसका नतीजा यह रहा कि कोलकाता के जमे जमाए हिन्दी अखबार सन्मार्ग औरदैनिक विश्वमित्र वगैरह पूरी तरह से उखड़ गए।
इसके बाद से जनसत्ता के कोलकाता संस्करण के साथ अनदेखी होनी शुरू हो गई। दरअसल, मालिक रामनाथ गोयनका जी के निधन, इंडियन एक्सप्रेस के संपादक शेखर गुप्ता को कंपनी का सीईओ बना दिए जाने और प्रभाष जोशी के पतन के बाद से ही अखबार हिचकोले खाने लगा था। दो साल तक लोगों को कंफर्मेशन की चिट्ठी नहीं दी गई। कोलकाता जनसत्ता के मैनेजर सुशील गोयनका जी चाहते थे कि ढेर सारे स्टाफ को निकाल दिया जाए मगर प्रभाष जोशी और स्थानीय संपादक श्याम आचार्य जी ऐसा नहीं चाहते थे। नतीजा यह हुआ कि लोगों को किसी तरह कंफर्मेशन तो मिला लेकिन उन्हें कभी कोई इंक्रीमेंट और प्रोमोशन नहीं दिया गया जो दिल्ली में मिलता रहा था।
जनसत्ता के दूसरे साथियों के साथ संपादकीय विभाग के लोग भी बड़ी बदहाली में काम करते रहे। मालिक, सीईओ और मैनेजरों की राजनीति और उनके आपसी मतभेदों और समस्याओं के कारण जनसत्ता कोलकाता का दफ्तर तीन बार अपनी जगह से शिफ्ट होकर नई जगहों पर गया। अखिरकार जनसत्ता का दफ्तर कोलकाता शहर से काफी दूर एनएच-6 पर अंकुरहाटी ले जाया गया। पर वहां अंकुरहाटी में भी सबकुछ ठीक नहीं रहा। पहले इंडियन एक्सप्रेस के लोगों को लैपटॉप देकर वर्क फ्रॉम होम पर डाला गया और इसके कुछ समय बाद संस्करण पूरी तरह से दिल्ली शिफ्ट कर दिया गया।
इसबीच, जनसत्ता को लगातार दरकिनार किया गया। स्टाफ इतने सीमित यानी कम हो गए कि फील्ड रिपोर्टिंग पूरी तरह बंद हो गई। रिपोर्टर को घटनास्थल पर जाने के लिए गाड़ी भी मिलनी बंद हो गई। अंकुरहाटी तक पहुंचकर अखबार में सिर्फ प्रभाकर मणि तिवारी ही एकमात्र रिपोर्टर बचे रह गए। जनसत्ता का सिर्फ लोकल पेज ही अंकुरहाटी में बनता था। यानी जनसत्ता का कोलकाता संस्करण भी दिल्ली शिफ्ट कर दिया गया। लोकल पेज को छोड़कर बाकी सारे पेज दिल्ली में बनने लगे थे। कुल मिलाकर जनसत्ता की आत्मा ही मार दी गई। सिर्फ उसका बेजान शव ढोया जा रहा था। जहां से अखबार निकलता था उसे अब तकनीकी कारणों से स्थानीय प्रमुखता देना संभव ही नहीं था। इस तरहजनसत्ता के कोलकाता संस्करण को मीठा जहर देकर मारा जा रहा था। जहां एक ओर इंडियन एक्सप्रेस और फाइनेंशियल एक्सप्रेस को बहुत सारी योजनाएं लाकर और काफी पैसा लगाकर आगे बढ़ाने की कोशिश की गई वहीं जनसत्ता को संसाधनहीन करके धीरे-धीरे मरने के लिए छोड़ दिया गया। अगर वही योजनाएं और पैसाजनसत्ता को भी दिया गया होता तो जनसत्ताकोलकाता आज भी पूर्वी भारत का सबसे अधिक प्रसारवाला, बड़ा और विश्वसनीय अखबार होता।जनसत्ता अपने भरपूर स्टाफ के साथ ऐसा कमाल करके दिखा भी चुका था। पर दिल्ली के आला हुक्मरानों को शायद कोलकाता जनसत्ता की जरूरत ही नहीं रह गई थी। कंपनी के हुक्मरान अपना दांव उस इंडियन एक्सप्रेस और फाइनेंशियल एक्सप्रेस पर खेलते रहे जो यहां के प्रतिस्पर्धी अंग्रेजी अखबारों के सामने कभी टिक नहीं सके। अगर रामनाथ गोयनका जी और प्रभाष जोशी जी होते तो ऐसा कभी नहीं होता। इसे विडंबना ही कहिए कि जनसत्ता को मारकर कंपनी अपने जिन दो फ्लैगशिप अखबारों को जिंदा रखना चाह रही थी, वे भी नहीं बच सके। कोलकाता में इंडियन एक्सप्रेस की बादशाहत कायम रहती अगर जनसत्ता को बचाया जाता। बहरहाल, यह तो किसी भी कंपनी और उसके चलाने वालों की पालिसी पर निर्भर करता है। उसपर सवाल नहीं उठाया जा सकता। मगर इतना तो जरूर है कि इंडियन एक्सप्रेस और फाइनेंशियल एक्सप्रेस की साख बचाने के लिए जनसत्ता को जरूर बचाया जाना चाहिए था।
कोलकाता जनसत्ता के आखिरी दिनों में इन सारे झंझावातों को झेलने के लिए केवल तीन पत्रकार स्टाफ ही बच गए थे जिनमें से दो जयनारायण प्रसाद और मांधाता सिंह 2019 में रिटायर हो गए। पहले जयनारायण प्रसाद रिटायर हुए और उनके थोड़े समय बाद मांधाता सिंह भी चले गए। तीसरे पत्रकार प्रभाकर मणि तिवारी का लखनऊ तबादला कर दिया गया। पर वे लखनऊ जाना नहीं चाहते थे इसलिए उन्होंने इस्तीफा दे दिया। यानी 2019 तक जनसत्ता का कोलकाता में छपना अब सिर्फ एक कोरम भर रह गया। अब वहां कोई स्टाफ नहीं बचा था और इसी के साथ कोलकाता शहर से जनसत्ता की औपचारिक विदाई भी हो गई। इस तरह उपेक्षा, असहयोग, असह्य मानसिक तनाव और संसाधनहीनता का कष्ट झेलते हुए कोलकाता जनसत्ता के सारे योद्धा एक-एक करके विदा हो गए। यह ऐसे नायाब अखबार की पतन की कहानी है जिसकी देश की हिन्दी पत्रकारिता में अक्सर नजीरें दी जाती थीं।
जनसत्ता कोलकाता की बहुत सारी ऐसी घटनाएं भी हैं जिनका वहां के साथी जिक्र नहीं करना चाहता। आपसी छींटाकसी ने जनसत्ता को बदरंग बना दिया है। वह सब जमाने ने भी देखा है मगर वह सब कहने लायक नहीं है। आप इसी से अंदाजा लगा लीजिए वे बातें कितनी गंभीर और कटु होंगी। शायद ऐसे लोगों ने उस आग को हवा दी जिसमें जनसत्ता खाक हो गया। जलाने वालों को वजह भी मिल गई। अब वहां के साथी कह रहे हैं कि जनसत्ता कोलकाता के इतिहास में आग लगानेवाले उन दुष्टों को क्षमा कर दीजिए।
– गणेश प्रसाद झा
आगे अगली कड़ी में....
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