मंगलवार, 20 सितंबर 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 37


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की सैंतीसवीं किश्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 37


88. कंपनी का अड़ियल रवैया भी रहा जिम्मेदार

हड़ताल न हो इसके लिए अखबार प्रबंधन और कर्मचारी यूनियन के बीच एक दिन पहले यानी 13 अक्तूबर 1987 को एक बैठक में बातचीत हुई थी। उस बातचीत में प्रबंधन 15 फीसदी बोनस देने को तैयार हुआ था जबकि कर्मचारी यूनियन का कहना था कि कंपनी ने अपनी बंबई यूनिट में इस साल भी 20 फीसदी बोनस दिया है इसलिए यहां भी उतना ही दे। यूनियन का कहना था कि बंबई यूनिट में कर्मचारियों की तनख्वाह भी दिल्ली से अधिक है इसलिए दिल्ली में भी उन्हीं दरों पर वेतन दिया जाए। प्रबंधन इसके लिए राजी नहीं था।  

इंडियन एक्सप्रेस की दिल्ली इकाई के कर्मचारीयूनियन के अध्यक्ष थे दिल्ली न्यूजपेपर वर्कर्स यूनियन के जुझारू नेता टीएम नागराजन जो इंडियन एक्सप्रेस के कर्मचारी नहीं थे। वे अंग्रेजी अखबार स्टेट्समैन के पत्रकार थे और एक प्रभावशाली ट्रेड यूनियन नेता माने जाते थे। कर्मचारियों का कहना था कि उन्होंने बाहर के मजदूर नेता को अपनी यूनियन का अध्यक्ष इसलिए बनाया क्योंकि अपने प्रतिष्ठान का कर्मचारी अध्यक्ष होता तो उसे इंडियन एक्सप्रेस प्रबंधन दबाव डातकर अपनी तरफ झुका लेता। इसपर इंडियन एक्सप्रेस प्रबंधन के सलाहकार एस गुरुमूर्ति का कहना था कि सरकार ने अखबार को बंद कराने की नीयत से इंडियन एक्सप्रेसकर्मचारी यूनियन में बाहरी आदमी को घुसा रखा है जिसे कंपनी कभी बर्दाश्त नहीं करेगी। उनका कहना था कि बाहरी आदमी हमारे कर्मचारी यूनियन में घुसा रहेगा तो हो सकता है हम कल को कोई विशेष खबर छापना चाहेंगे तो यूनियन के कहने पर कर्मचारी उसे कंपोज करने से ही मना कर दें। इस आधार पर गुरुमूर्ति का कहना था कि यह हड़ताल सरकार द्वारा प्रायोजित है। इस आरोप पर इंडियन एक्सप्रेस कर्मचारी यूनियन के उपाध्यक्ष प्रूफरीडर एम सी पाठक का कहना था कि हमने अखबार प्रबंधन को यह खुला ऑफर दे दिया है कि वह विपक्ष के नेता वीपी सिंह और मधु दंडवते समेत जिस किसी भी नेता से चाहे समझौता वार्ता करा ले।

एक्सप्रेस प्रबंधन ने इंडियन एक्सप्रेस  के पत्रकार मदन तलवार के नेतृत्व में अपनी एक समानांतर यूनियन बना ली थी। दोनों यूनियनों के लोग सारे दिन और रात अपना अलग-अलग जुलूस निकालते थे और नारेबाजी करते रहते थे। कंपनी के तीनों अखबारों इंडियन एक्सप्रेस, फाइनेंसियल एक्सप्रेस और जनसत्ता के लगभग सभी पत्रकार मदन तलवार की यूनियन में शामिल थे और वे इस हड़ताल के खिलाफ थे। इस यूनियन के समर्थन में तब के दिल्ली के महत्वपूर्ण नेता मदनलाल खुराना अपने साथियों के साथ इसमें शरीक होने आते थे। पुलिस का एक बडा दस्ता पूरे इलाके में तैनात रहता था। दोनों यूनियनें अपना जुलूस निकालतीं थीं। वहीं दोनों संगठनों के वहां शिविर भी चल रहे थे। उन दिनों दिल्ली मेंइंडियन एक्सप्रेस चंडीगढ से छप कर आता था। उसके एकाध बंडल अगर यूनियन के हाथ लग जाता था तो वे उसे फूंक देते थे। उधर नागराजन की यूनियन के साथटाइम्स ऑफ इंडिया और दूसरे अखबारों की यूनियनें भी सालिडेरिटी में उभर आईं थीं। इंडियन एक्सप्रेस का एक दफ्तर (जो कंपनी का गेस्ट हाउस भी था) दिल्ली के चिड़ियाघर के पास भद्र लोगों की कालोनी सुंदरनगर में भी था। यहां मालिक रामनाथ गोयनका जी रहते थे। तबके नेता अरुण जेटली, सुषमा स्वराज और मदनलाल खुराना अक्सर वहीं आकर सभी पत्रकारों से मिलते थे। प्रबंधन की तरफ से पत्रकारों को रोजाना वहीं बुलाया जाता था और उनकी हाजिरी भी वहीं सुंदरनगर दफ्तर में ही लगती थी।

बाहर के एक आदमी को इंडियन एक्सप्रेस कर्मचारी यूनियन का अध्यक्ष बना लेने के मुद्दे पर अखबार के कर्मचारी भी दो भागों में बंटे हुए थे। अखबार के बहुत कम कर्मचारी टीएम नागराजन वाली यूनियन के समर्थन में थे। अखबार के आधे से भी कम कर्मचारी एक्सप्रेस बिल्डिंग के बाहर पहरेदारी कर रहे होते थे और उनमें गिनती के ही पत्रकार होते थे। तीनों अखबारों इंडियन एक्सप्रेस, फाइनेंसियल एक्सप्रेस और जनसत्ता के लगभग पत्रकार इस हड़ताल के खिलाफ थे और वे नई दिल्ली के सुंदर नगर स्थित अखबार समूह के मालिक रामनाथ गोयनका के घर से और आंध्र प्रदेश भवन से काम करते थे। ये सारे पत्रकार उन जगहों से तमाम खबरें तैयार करके अखबारों के दूसरे संस्करणों को भेजते रहते थे। इसी हड़ताल के दौरान जनसत्ता दिल्ली के कुछ पत्रकारों को चंडीगढ़ संस्करण में काम करने के लिए भी भेजा गया था। उन दिनों दिल्ली के अलावा सिर्फ चंडीगढ़ से ही जनसत्ता निकलता था। चंडीगढ़ से हीजनसत्ता की कुछ प्रतियां दिल्ली भेजने की भी कोशिश हुई थी। पर इस तरह दिल्ली के लिए बहुत कम प्रतियां ही छापी जा सकती थीं।

एक्सप्रेस ग्रुप के अखबारों का दिल्ली संस्करण छापना तभी संभव था जब सारे पत्रकार और गैर-पत्रकार कर्मचारी एक्सप्रेस बिल्डिंग दफ्तर के अदर जा पाते। इसलिए प्रबंधन ने दिल्ली पुलिस के तत्कालीन कमिश्नर वेद मारबाह को पत्र लिखा कि पुलिस दिल्ली हाईकोर्ट के 20 जनवरी 1987 उस आदेश को लागू कराए जिसमें अदालत ने दिल्ली पुलिस को बाकायदा आदेश दिया था कि एक्सप्रेस बिल्डिंग दफ्तर से 50 मीटर की दूरी तक किसी भी हड़ताली कर्मचारी को न फटकने दिया जाए। प्रबंधन की इस चिट्ठी पर भी दिल्ली पुलिस अपना पूरा दमखम नहीं दिखा सकी। पुलिस शायद जानबूझकर ऐसा कर रही थी और अदालत के आदेश का अनुपालन नहीं करा रही थी। फिर 27 नवंबर 1987 को दिल्ली हाईकोर्ट ने एक नया आदेश जारी करते हुए पुलिस को फिर से निर्देश दिए और आदेश का अनुपालन कराने को कहा। इसके बाद ही 28 अक्तूबर 1987 को इंडियन एक्सप्रेस के जांबाज संपादक अरुण शौरी औरजनसत्ता के प्रधान संपादक प्रभाष जोशी पत्रकारों की अपनी टीम के साथ एक्सप्रेस बिल्डिंग के भीतर घुस पाने में सफल हो गए। इसबीच प्रबंधन ने हड़तालियों को तालाबंदी कर देने की धमकी भी दे डाली। प्रबंधन की इस धमकी पर ज्यादातर गैर-पत्रकार कर्मचारी भी काम पर लौट आए। उस दिन करीब 350 कर्मचारी दफ्तर के भीतर दाखिल हुए थे। पर हड़तालियों ने काम पर लौटे इन कर्मचारियों के खाने-पीने का कोई सामान दफ्तर के भीतर नहीं जाने दिया। इस तरह उस दिन अखबारों की कुछ हजार प्रतियां छप भी गईं, पर अगली सुबह शहर के हॉकरों ने अखबारों को बांटने से ही मना कर दिया। इस तरह तमाम कोशिशों के वावजूद हड़ताल खत्म होते-होते रह गई।

89. बोफर्स पर हो रहे खुलासों से घबरा गई थी कांग्रेस

इस हड़ताल के समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे। बोफर्स कांड पर हंगामा चल रहा था और इस मामले को उछालने में इंडियन एक्सप्रेस बहुत मुखर था। असल में अपने संपादक अरुण शौरी के नेतृत्व में उस समय इंडियन एक्सप्रेस ने कांग्रेस और राजीव गांधी के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था और जब हड़ताल हुई तो एक्सप्रेस का खुला आरोप था कि हड़ताल कांग्रेस पार्टी ने करवाई है और राजीव गांधी के नेतृत्व में पार्टी नहीं चाहती है कि अखबार छपे। अखबार का दिल्ली केंद्र पार्टी का पहला निशाना था। एक्सप्रेस समूह का यह आरोप भी था कि कांग्रेस पार्टी की शह पर कर्मचारी यूनियन के जरिए एक्सप्रेस के दूसरे केंद्रों में भी अशांति फैलाने के प्रयास चल रहे थे और यह सारी कोशिश इसलिए थी कि इंडियन एक्सप्रेस समूह कांग्रेस के खिलाफ खबरें न छाप सके। यह एक रोमांचक दौर था और अखबार प्रबंधन का यह दावा जरूर सही था कि हड़ताल गैर कानूनी है और ज्यादातर लोग हड़तालियों के साथ नहीं थे।

हड़तालियों की तुलना में हड़ताल का विरोध करनेवाले लोग बहुत अधिक थे और ऐसे में प्रबंधन के इस आरोप में सच्चाई नजर आती है कि हड़ताल प्रायोजित थी और कांग्रेस पार्टी ने करवाई थी। ऊपरी तौर पर भले ही यह हड़ताल मजदूरों और कर्मचारियों के लिए सुविधाओं तथा अच्छे वेतनमान की मांग के समर्थन में हुई थी पर कम से कम संपादकीय विभाग के लोगों के लिए यह सब महत्त्वपूर्ण नहीं था और वही लोग खुलकर हड़ताल का विरोध भी कर रहे थे। इसीलिए संपादकीय विभाग के लोग ही हड़तालियों के शिकार भी हो रहे थे। ऐसे में आज यह कहा जाए कि संपादकीय विभाग में काम करने के कम पैसे मिलते थेतरक्की भी नहीं मिलती थी और इन्हीं सब कारणों से जनसत्ता के पत्रकार दूसरों से काफी पीछे रह गए, पर 1987 की उस हड़ताल की स्थितियों पर विचार करें तो लगता है कि संपादकीय आजादी के आगे वेतन भत्तों का कोई मतलब नहीं था और अपनी इस आजादी के लिए कर्मचारी वेतन भत्तों की मांग करनेवाले हड़तालियों से भी भिड़ने को तैयार रहते थे। तकनीकी तौर पर देखने पर भले ही यह कर्मचारियों में फूट डालने का उदाहरण होदूसरे कर्मचारियों का साथ नहीं देने का मामला हो पर संपादकीय स्वतंत्रता के मूल्यों का भी यह एक मजबूत उदाहरण तो है ही।

इसमें कोई शक नहीं कि इस हड़ताल को कांग्रेस की शह मिल रही थी। दिल्ली पुलिस केंद्र सरकार के अधीन होती है इसलिए वह वही कर रही थी जो केंद्र सरकार की तरफ से इशारा होता था। पुलिस ने दिल्ली हाईकोर्ट का कहा भी नहीं माना। हाईकोर्ट ने पुलिस से हड़तालियों को एक्सप्रेस बिल्डिंग से 50 मीटर दूर रखने को कहा था जिसका उनुपालन पुलिस ने नहीं किया। इसलिए हाईकोर्ट को यह आदेश दोबारा जारी करना पड़ा। फिर भी दिल्ली पुलिस ने आदेश नहीं माना। हड़ताल टूटने के दिन जब पत्रकारों को बेरहमी से पीटा गया और उनपर तेजाब फेंका गया तब एक्सप्रेस बिल्डिंग और आसपास पुलिस भारी संख्या में तैनात थी फिर भी हड़तालियों ने पत्रकारों पर हमला कर दिया और पुलिस चुपचाप उन्हें पिटते और चीखते-चिल्लाते देखती रही। दरियागंज के एसएचओ (थानेदार) भी वहीं थे पर वे एक गाड़ी में सो रहे थे। पत्रकारों पर हमला होता रहा और वे लहुलुहान होकर पानी के लिए भागते और चिल्लाते रहे पर थानेदार साहब और उनके सिपाही न कुछ देख पाए न जान पाए। केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी से पुलिस को शायद यही निर्देश दिया गया था। यह सब भी यही साबित कर रहा था कि यह हड़ताल कांग्रेस पार्टी की ओर से प्रायोजित था।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....



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