गुरुवार, 8 सितंबर 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 35


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की पैंतीसवीं किश्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 35

 

83 रायपुर से फ्रेंचाइजी में निकला था जनसत्ता

अखबार के अपने संस्करणों का विस्तार करने में दूसरे अखबारों की देखादेखी इंडियन एक्सप्रेस अखबार समूह की मूल कंपनी इंडियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स (बंबई) लिमिटेड ने वर्ष 2000 में फ्रेंचाइजी सिस्टम के जरिए अखबार का विस्तार करने का अभिनव प्रयोग शुरू किया। य़ह आइडिया सबसे पहले टाइम्स ग्रुप ने निकाला सिर्फ पैसा कमाने के लिए। पाठकों तक एक बेहतर अखबार पहुंचाने के खयाल से नहीं। इसमें पत्रकारों और गैर-पत्रकार कर्मचारियों का भरपूर शोषण कर कम से कम लागत में बहुत थोड़ा सा अखबार छापना और कागज पर ज्यादा सर्कुलेशन दिखाकर सरकार से न्यूजप्रिंट और सरकारी विज्ञापन हासिल कर पैसे बनाना ही मुख्य उद्देश्य होता है। फ्रेंचाइजी का यह स्वरूप और इससे उसके होशियारों को होनेवाली कमाई का गणित बड़ा ही दिलचस्प है। सुनने में तो यह तरीका बहुत प्रभावी लगता है लेकिन कर्मचारियों और पत्रकारों का इसमें भरपूर दोहन है। इसी कमाऊ फ्रेंचाइजी प्रयोग के तहत जनसत्ता का रायपुर संस्करण निकाला गया। दिल्ली, चंडीगढ़, बंबई और कोलकाता के बाद 2000 मेंजनसत्ता का यह पांचवां संस्करण छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हुआ। रायपुर के ऑटोमोबाइल सेक्टर के दो कारोबारियों विजय बुधिया और गोपाल दास ने मिलकर एक मीडिया कंपनी काव्या प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड बनाकर इंडियन एक्सप्रेसअखबार समूह की कंपनी से रायपुर से जनसत्ता छापने की फ्रेंचाइजी हासिल की थी। इस अखबार के पहले संपादक जनसत्ता दिल्ली के पत्रकार अंबरीश कुमार हुए थे। पर यह अखबार बमुश्किल पांच साल तक ही चल पाया। उसमें भी ज्यादातर समय घिसटता ही रहा। महज पांच सालों के अपने जीवनकाल में जनसत्ता रायपुर में कई संपादक हुए। छत्तीसगढ़ के स्थानीय पत्रकार पारितोष चक्रवर्ती ने भी कुछ समय तक जनसत्तारायपुर का संपादन किया। चंडीगढ़ के अऱबार दैनिक ट्रिब्यून फेम के छत्तीसगढ़ के प्रख्यात पत्रकार रमेश नैयर भी एक समय में रायपुर जनसत्ता के संपादक रहे।

रायपुर के इस फ्रेंचाइजी संस्करण में एक भी कर्मचारीइंडियन एक्सप्रेस ग्रुप का कर्मचारी नहीं था। सिर्फ स्थानीय संपादक अंबरीश कुमार ही कंपनी के कर्मचारी थे। जनसत्ता के रायपुर संस्करण के सारे कर्मचारी फ्रेंचाइजी कंपनी काव्या प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड के कर्मचारी थे। रायपुर जनसत्ता के कर्मचारियों को वेतन भी पत्रकार वेतन बोर्ड की सिफारिशों के मुताबिक नहीं दिया जाता था। उन्हें काफी कम पैसे मिलते थे। उनके काम के घंटे भी ज्यादा थे। अखबार के लिए एडिटोरियल कंटेंट की सप्लाई मूल कंपनी करती थी। रायपुरजनसत्ता के लिए अखबार की पूरी सामग्री यानीजनसत्ता के बने बनाए पेज जनसत्ता दिल्ली से भेजे जाते थे। सिर्फ छत्तीसगढ़ की खबरों पर ही फ्रेंचाइजी कंपनी का नियंत्रण होता था।

84. घाटे में जाने से बंद हुआ रायपुर जनसत्ता

प्रेंचाइजी पर अखबार निकालने का यह प्रयोग ज्यादा समय तक नहीं चल पाया। महज पांच साल तक चलाने के बाद ही रायपुर संस्करण को बंद कर देना पड़ा। कहते हैं शुरू के साल-डेढ़ साल तक तो अखबार किसी तरह सीडमनी यानी शुरुआती पूंजी से चला पर बाद में उसकी फ्रेंचाइजी कंपनी अखबार में और पैसा लगाने को तैयार नहीं हुई। जल्दी ही हालत यह हो गई कि कर्मचारियों को तनख्वाह देने के लिए पैसे की भारी किल्लत होने लगी। बाद के वर्षों में यह अखबार घिसटता ही रहा बताते हैं। अखबार से फ्रेंचाइजी कंपनी को काफी नुकसान होने लगा था। फिर अखबार की मूल कंपनी को फ्रेंचाइजी की फीस चुकाने को लेकर भी फ्रेंचाइजी कंपनी औरइंडियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स (बंबई) लिमिटेड में कुछ चख-चख भी शुरू हो गई थी ऐसा रायपुर के पत्रकार बताते हैं।

संस्करण विस्तार के अपने इसी फ्रेंचाइजी प्रयोग के तहतइंडियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स (बंबई) लिमिटेड ने वर्ष 2000 में जम्मू से अपने फ्लैगशिप अखबार इंडियन एक्सप्रेस और चंडीगढ़ से अपने फाइनेंसियल अखबारफाइनेंसियल एक्सप्रेस का प्रकाशन शुरू किया। जम्मू के कारोबारी स्नेह गुप्ता को इंडियन एक्सप्रेस का और चंडीगढ़ के कारोबारी केडी सिंह को फाइनेंसियल एक्सप्रेस की फ्रेंचाइजी दी गई थी। पर दोनों ही अखबार बहुत सीमित सर्कुलेशन ही हासिल कर पाए। इन अखबारों की स्थिति कभी मजबूत नहीं रही और ये कुछ ही साल तक ठीक से चल पाए। बाद में उनकी स्थिति खराब होने लगी और वे लड़खड़ाने लगे। यहां भी फ्रेंचाइजी कंपनियों को अखबार से काफी नुकसान होने लगा और तब उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस की कंपनी को फ्रेंचाइजी की फीस चुकाना बंद कर दिया। इससे फ्रेंचाइजी कंपनियों का इंडियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स (बंबई) लिमिटेड से विवाद शुरू हो गया और अखिरकार कुछ समय बाद इन अखबारों का प्रकाशन बंद कर दिया गया। चंडीगढ़ से फाइनेंसियल एक्सप्रेसका प्रकाशन 2013 तक हुआ पर जम्मू से इंडियन एक्सप्रेस 2010 तक ही छप सका। फाइनेंसियल एक्सप्रेस के फ्रेंचाइजी केडी सिंह ने इसके बाद चंडीगढ़ से ही फाइनेंसियल वर्ल्ड नामक अपना अलग फाइनेंसियल अखबार छापना शुरू कर दिया जो अभी भी छप रहा है। इस तरह इंडियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स (बंबई) लिमिटेड का फ्रेंचाइजी के जरिए संस्करणों का विस्तार करने का यह प्रयोग असफल साबित हो गया। हर जगह भारी नुकसान झेलने के बाद इंडियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स (बंबई) लिमिटेड ने इस योजना से ही तौबा कर लिया और तय कर लिया कि वे अब आगे से कभी फ्रेंचाइजी देकर अखबार का प्रकाशन नहीं करेंगे।

85. लखनऊ से भी शुरू हुआ जनसत्ता पर दिखता कम ही है

इंडियन एक्सप्रेस प्रबंधन ने चार-पांच साल पहले उत्तर प्रदेश के लखनऊ शहर से भी जनसत्ता का प्रकाशन शुरू कर दिया है। साथ ही साथ वे अपने फ्लैगशिप अखबार इंडियन एक्सप्रेस को भी नवाबों के इस शहर से छापने लगे हैं। पर लखनऊ में शुरुआत फ्रेंचाइजी से नहीं हुई। वहां किसी को फ्रेंचाइजी नहीं दी गई है। कंपनी दोनों अखबार खुद ही छाप रही है। कुछ साल पहले दिल्ली से एक प्रिंटिंग मशीन वहां भिजवा दी गई थी। बहुत कम खर्चे में दोनों अखबारों को छापना शुरू हुआ। कंपनी ने इन दोनों अखबारों के लिए लखनऊ में गिनती के ही कुछ रिपोर्टर ऱख लिए हैं जो राज्य की खबरें दिल्ली भेज दिया करते हैं। लखनऊ संस्करण में दिल्ली से निकलनेवाले जनसत्ता के मूल एडीशन में अंदर दो पेज यूपी के डाल दिए जाते हैं। यूपी के ये दोनों पेज भी दिल्ली डेस्क पर ही बनाए जाते हैं। लखनऊ में तो सिर्फ टेक्निकल स्टाफ होता है जो दिल्ली से भेजे गए पेज को लखनऊ का फोलिया लगाकर छाप देता है। कुछ ऐसी ही व्यवस्था इंडियन एक्सप्रेस के लिए भी बनाई गई है। इन अखबारों का लखनऊ संस्करण सिर्फ विज्ञापन बटोरने की नीयत से निकाला गया है। अखबारों की बमुश्किल कुछ सौ कापियां छापी जाती हैं जो विज्ञापन दाताओं और राज्य सरकार के दफ्तरों में बतौर फ्री कॉपी भेजी जाती है। शहर में अखबारों के स्टैंड पर जनसत्ताका लखनऊ संस्करण शायद ही कभी कहीं दिखाई पड़ता है। कमोबेश यही हाल लखनऊ में कंपनी के फ्लैगशिप अखबार इंडियन एक्सप्रेस का भी है। सब केवल विज्ञापन का ही खेल है। इन अखबारों की लखनऊ शहर में कोई चर्चा तक नहीं करता और ये अखबार दिखाई भी कम ही देते हैं। पर दोनों अखबारों में विज्ञापन ठसाठस भरे होते हैं। इससे पहले लखनऊ के जानेमाने कद्दावर कांग्रेसी नेता बाबू बनारसी दास के पुत्र और पूर्व केंद्रीय मंत्री अखिलेश दास अपने विराज प्रकाशन, लखनऊ से इसे जनसत्ता एक्सप्रेस नाम से फ्रेंचाइजी पर प्रकाशित करवाते थे। वह प्रकाशन करीब 4-5 साल तक चला था। उसके बाद से ही इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप की कंपनी ने लखनऊ से अपने बूते पर अपना अखबार छापना शुरू किया।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....



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